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दूसरे लक्षणों का निरूपण किये हम उनका दोषादि नहीं बतला सक्ते अतः उनके द्रव्यकी अप्रमाणता दिन सिद्ध किये हम अपनी ही द्रव्यको सर्वथा प्रमाणता है यह भी नहीं कह सक्ते, तथा ।
स्वगुणं व्यनक्ति । गुणको प्रगट नहीं करती
,
ऋते तमांसि मणिर्मणिर्वा विना न काचैः अन्धकारके बिना सूर्य और काचके विना मणि अपने है उसी प्रकार विना असत (झूठे ) द्रव्य लक्षण हमारा सम्यक लक्षण भी अपने विशद लक्षणकी महत्ताद्योतक नहीं । इसी आशयका आश्रय लेकर परिकल्पित कुछ योंका उक्षण और साथ रही उनकी अप्रमाणता भी बताते हैं ।
'क्रियावत् गुणवत् समवायिकारणं द्रव्यचक्षण' यानी क्रिया और गुण युक्त जो समवायी कारण हो उसे द्रव्य कहते हैं । यह क्रयका लक्षण वैशेषिक, योग मानते हैं किन्तु इनका यह मानना मी ठीक नहीं हैं ।
क्योंकि वैशेषिक लोगोंने रक्षणका लक्षण अनाधारण धर्मं वचनं, असाधारण (विशेष) धर्मका जो कहना उसे लक्षण कहते हैं ऐसा माना है।
और इस क्षण लक्षणानुसार उक्त क्रमका लक्षण वटित नहीं होता क्योंकि ये द्रव्यका रक्षण पृथिव्यादिकों नौ ही में जाता है अतः असाधारण नहीं कहा जा सकता । असाधारण एक ही जगह रहता है यदि असाधारण बहुत जगह रह निकले तो असाधारण की हानि होती है तथा ऐसे असाधारण और साधारण में कुछ भेद भी नहीं कहा जासकता जब कि श्राधारणत्व का नाश होनेसे असाधारण कुछ चोन ही सिद्ध नहीं होगा तो 'यह गो है सींगवाली होनेसे' ऐसे साधारण हो हेतु दिये जायेंगे और इस तरह साधारण हेतु देने से अतिव्याप्ति दोष आवेगा अतः किसी मी पदार्थकी उपवस्था नहीं बनेगी यदि यही दोष" जैनियोंके यहां भी दिया जाय यानी जैनियोंने जैसे 'सद्रव्यलक्षणं' ये पका लक्षण माना हैं और जीवादि द्रश्य में व उस द्रव्य लक्षणकी अनुवृति करते हैं अतः उनके यहां मी क्षण नहीं सकता ऐसा आरोप नहीं कर सकते क्योंकि जैन दर्शनानुसार लक्षणका लक्षण असाधारण धर्मे वचन नहीं है युक्ति वाधित होनेसे । लकड़ीके सम्बन्धसे मनुष्यको मी कमी २ लाड़ी कह दिया करते हैं लेकिन लकड़ी यह मनुष्यका असाधारण धर्म न होनेपर रक्षण' माना जाता है भतः जैन दार्शनिक भसाधारण धर्मको रक्षण नहीं मानते भतएव उक्त दोन उनके ऊपर नहीं आसकता बल्कि उन्हींके ऊपर आता है जो कि अताधारण धर्मको लक्षण मानते हैं । दूसरे, जैनियोंके द्वारा स्वीकृत द्रव्यका लक्षण जहां जहांर पाया. जाय वहां वहीं द्रव्यत्वका निश्चय कर देगा |
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