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करनेमें शर्माते नहीं हैं यह अत्यंत धुरणास्पद है। किंतु हम इस जीतको बड़े स्वाभिमान साथ कहते हैं कि जैन काव्योंमें श्रृंगार रसको प्रायः निन्न स्थान ही मिला है तथा शांति वीर करुणादि लोकोपयोगी रसोको प्रधान स्थान मिला है। त्या जैन काव्योची रचना श्रृंगाररसको प्रधानकर संसारमें व्यभिचारादि अशुभ परिणामों के निमित्त जनेतर काव्योंकी तरह नहीं हुई, बहिङ्गलोकोपकारी विषयोंको उच्च स्थान ही मिला है। उदाहरणार्थ हम यश स्तिलकचम्पूच्चो ही लेते हैं । इस काव्यमें जो दिनचर्या, ऋतुचर्या आदिका जो वर्णन किया है वह अत्यंत उत्कृष्ट हैं । किसी काव्यमेथों में तो यह विषय पाया जाता ही नहीं, बल्कि किसी भी वैद्यक्ग्रेथने ऐसी चारु सरल मधुररीलिसे वर्णन नहीं किया होगा। : पाठकोंके विनोदार्थ हम चम्पूकें कुछ श्लोक अवश्य देंगे
वाल्यांचा नादरणाननाशामधहितायां च न साधुपाक असाप्तनिद्रस्य तथा नरेन्द्र व्यायामहीनस्य च नान्नपाकः ॥
अर्थ-हे राजन् ! जैसे विना इके हुए मुखवाली तथा नहीं ढारी गई ऐसी स्थाली (वटलोई में अच्छा पाक नहीं बनता तथैव चिना निद्राको लिये हुए, तथा विना व्यायाम किये हुए पुरुषको अन्न नहीं पचता ।
.:. अभ्यङ्ग अषवातहा बलकारः कायस्य दाईयावहः। ......स्यादुनमङ्गकान्तिभरणं भेदः कफालस्यजितु । ___... आयुष्य हृद्यप्रसादि वपुषः कण्डुलमछेदि च । ...नाने देव यथा लेक्तिमिदं शीतैरशीतल ॥ यशस्टिलक) . ... अर्थात्-हे देव ! तैलमर्दन श्रम और वातको नाश करनेवाला है, और शिधिलताको निवारण करनेवाला तथा च शरीरको बलयुक्त करनेवाला है। तथा उबटन शरीरकी
क्रान्तिको करनेवाला तथा च मेद, कफ, बालस्यको दूर करनेवाला है और है देव ! ऋतुके. • अनुकूल सेवन किया गया स्नान गर्म, ठंडे जलसे आयुके लिये हितकर, हृदयको प्रसन्न
करतेदाला, शरीरकी खुजली, ग्लानिको नष्ट करनेवाला है। ... हुन्माद्यभागातपितोऽम्बुसेवी, श्रान्तः कृताशी वमनज्दराह । .. भगन्दरी स्यन्दविवन्धकाले गुल्मी जित्नुर्विहिताशनश्च ।। .. अर्थात् घामसे पीडित ऐसा मनुष्य यदि जलको पीवै तो उसकी मन्ददृष्टि होनाती है, तथा मार्ग श्रान्त अर्थात मार्गके चलनेसे श्रमको प्राप्त ऐसा मनुष्य यदि जलको सेवनः । करें तो वमन, बुखारको प्राप्त होवे, तथा प्रसाबबाधासे सहित मनुष्य भक्षण करें तो भगन्दरी रोग होजाता है, तथा जो मनुष्य त्याग करनेकी इच्छा रखता हुआ भोजनसे अफरा हुआ भी खाचे तो गुल्मी रोग हो ।
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