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इनका प्रथक् २ उल्लेख इसलिए किया है कि वैशेषिक द्रव्यकी संख्या और पदार्थकी: संख्या ७ मानता है । पदार्थ इस शब्दका तात्पर्य उन्होंने इस प्रकार माना है-पदस्य मर्थः पदार्थः । यहां षष्टीका अर्थ निरूपित है। ऋ धातुका अर्थ ज्ञान और थन् प्रत्ययका अर्थ विषयत्व है । इस प्रकार पद निरूपित ज्ञान विषयत्व ही पदार्थका तात्पर्य माना, है । यहां जो ऐसी शंका करते हैं कि पदार्थका अर्थ जब पद निरूपित ज्ञान विषयत्व है. तब ही खर विषाण भी पदार्थ कोटिमें आना चाहिये क्योंकि यह निरूपित ज्ञानविषयता तो इसकी भी होती है। इसका समाधान वे इस प्रकार करते हैं। हो खरविषाण भी पदार्थ है लेकिन वह अत्यन्ताभाव पदार्थमें सम्मिलित है। अस्तु, यहां इस परवाहकी आव. श्यकता नहीं है।
जिस प्रकार द्रव्यको संरू । ६से अधिक सात नहीं हो सकती उसी प्रकार से कम ५ भी नहीं हो सकती है । द्रव्यकी जीव, अनीव रूप दोको संख्या जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, कालका सुक्ष्म रूपान्तर है क्योंकि जबसे भिन्न पुद्गलादि ५ का अनीवमें मन्तर्भाव है।
जीव व पुद्गलकी सत्ता हमें प्रत्यक्षतः विदित हो रही है, बाकीकी ४ द्रव्य यानी धर्म, अधर्म, आकाश, कालकी सत्ताका अवधारण अनुमानादि प्रमाणोंसे होता है। ६ छहों द्रव्योंका कार्य हम अपने शरीरमें भलीभांति देखते हैं ।
जीवका ज्ञानगुण तथा पुद्गलका रूपादि सजीव शरीरमें दिखलाई देता ही है। . धर्म द्रव्यका जीव पुद्गलोंके गमन होनेमें सहकारी रूप जो कार्य है वह रक्तादिके गमनमें सहकारी होनेसे अच्छी तरह प्रमाणित होता है एवं अधर्म द्रव्यकी जो उक्त दो द्रव्यों के स्थिर होनेमें सहकारिता है वह भी शरीरमें पायी ही जाती है क्योंकि सजीव शरीरमें रक्तादिका निरन्तर चलते रहना जैसे उपयुक्त है उसी प्रकार शरीरके कुछ ऐसे अवयव भी हैं जो कि शरीरमें स्थिर ही रहते हैं और उनके चलित होनेसे आदमीकी मृत्यु हो . जाती है अतः मधर्म द्रव्यका कार्य भी शरीरमें बराबर देखा जाता है। आकाशका अवगाह . देना जो कार्य है वह भी शरीरमें सुस्पष्ट ही है, कोटें, तिनके, कांच, खानेपीने आदिकी कितनी ही चीन हैं जिनको कि शरीर अवगाह देता है । कालका कार्य. वर्तना भी भाप अच्छी तरह शरीरमें पावेंगे क्योंकि भोजनादिकी वर्तना या परिणमन निरन्तर शरीरमें . होता ही रहता है, इस प्रकार छहों द्रव्योंका कार्य शरीरके अन्दर देखने में आता है। ..
साहित्यके विषयमें यही कहना है कि सर्वतः श्रेष्ठ साहित्य वही है जो आत्माको अन्तमें वैराग्यकी तरफ उन्मुख करे । पहिले जमाने में यति, साधु मंत्रोंसे स्तुति करते थे। उन मंत्रोंमें जो शक्ति है वह संस्कृत साहित्यमें नहीं है। मंत्रका शुद्ध उच्चारण