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न्तके नियमोंसे बहुत ही प्रान थे । कारण यह था कि वे जैन सिद्धान्तके नियम सबकी हितसाधनाके लिए थे अतएव बहुत गौरवान्वित थे । सच तो बात यह है कि साहित्यके प्रणेता जिस प्रकारके गुणों वा अवगुणोंके ढांचेमें ढले होंगे उनके द्वारा प्रणीत साहित्य ग्रन्थ उतनी महत्ताको रक्खेंगे।
जैन हिन्दी साहित्यके विषयमें भी यदि आप विचार करेंगे तो वह भी आपको पूर्ण मिलेगा " मुनि मनसम उज्वल नीर " इत्यादि प्रतीयालंकारका कितना . ज्वलन्त उदाहरण है तथा पंडित टोडरमलजी आदि द्वारा रचित गोमट्टसारादिकी टीकायें तथा अन्य स्वतन्त्र ग्रन्थ भी जैन हिन्दी साहित्यकी समुन्नत अवस्थाके परिदर्शक हैं। .
इस प्रकार षव्यकी आवश्यक्ता व सिद्धि तथा जैन साहित्यके महत्वके विषयमें जो कुछ आप महानुभावोंकी सेवामें निवेदन किया गया है उन्ही विषयों पर : अन्य कितनी ही युक्तियों द्वारा अगाड़ी गवेषणापूर्ण विचार किया गया है । पूज्य ब्रह्मचारी शीतलप्रसादनी व लखनऊकी जनताके जैनमित्रमें लेखोंके लिए नोटिस निकालनेपर ३ लेख पदव्यकी आवश्यकता व सिद्धिक विषयमें तथा तीन लेख जैन साहित्यके महत्वके विषयमें आये।
मैं ब्रह्मचारीनी तथा लखनऊ.जनताके इस प्रेमविशेषका विशेष आभारी हूँ जो कि योग्यता न होने पर भी आगत लेखोंके परीक्षणका कार्य मुझे दिया । समागमें अन्य उद्भट विद्वानोंके रहते हुए भी जो उक्त महाशयोंने यह कार्य मुझे दिया है इसमें अवश्य ही उनका प्रेम विशेष कारण है।
निन महाशयोंके लेख आये हैं उनके नम्बर तथा लेखनपरिचय निम्न प्रकार है ।
पद्रव्यकी आवश्यकता व सिद्धिके विषयमें प्रथम लेख पं० मथुरादास जैन- : मोरेनाका आया । यह लेख संस्कृत साहित्य और दार्शनिक पद्धतिसे अच्छा है किन्तु लौकिक युक्तियोंसे कार्य नहीं लिया गया है । प्रकरणान्तर भी कुछ २ होगया है दार्शनिक पद्धतिसे लिखने के कारण ५७ नम्बर उपयुक्त ज्ञात होते हैं। इनको जैन साहित्य सभ से : ५०) पचास रुपया प्रथम नम्बरका पारितोपक भी मिला।
इसी विषयमें द्वितीय लेख पं० अजितकुमारजीला आया । इन्होंने षद्रव्यकी सिद्धिमें लौकिक युक्तियों का समावेश कम किया है तथा आगमको भो पुष्ट करते हुए आगम गम्यत्वेन प्रामाण्य देना उचित था तथापि रूक्ष विषय होनेसे आपका आधश्रम प्रशंसनीय है । इनको लेखमें ५५ नम्बर मिले तथा सभाकी तरफसे दूसरे नम्बरक : पारितोषक ३०) तीस रुपया दिया गया।