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जैन स्तोत्र रत्नाकर.
P नवस्मरण उपरांत छ स्तोत्र अनानुपूर्वी वगेरे सुधारा,
वधारा साथे.
यथामति संशोधन करी
___ छपावी प्रसिद्ध करनार श्रावक नीमसिंह माणेक, जैन पुस्तक वेचनार तथा प्रसिद्ध करनार, ६ १०७, धनजी स्ट्रीट, मुंबई. ३. | वीर संवत् २४५० विक्रमार्क १९८० धी न्यु लक्ष्मी प्रेस. शाकगल्ली मांडवी मुंबई. ३.५
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Printed by MANAKJI Bhanji DHARAMSEY at The New Laxmi Printing Press. 18–20 Kazi Sayed Street, Bombay
and Published by HEERJI GHELLABHAI PADAMSI for Shravak Bhimsi Manek Trust Fund
107, Dhanji Street, BOMBAY, 3.
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विषय.
अनुमकणिका.
पृष्ठ. १ प्रथमनवकार. २ उवसग्गहर द्वितीयस्मरण. १ ३ संतिकरस्तोत्र तृतीयस्मरण. ३ ४ तिजयपहुत्त चतुर्थस्मरण. ६ ५ नमिऊण पंचमस्मरण. १० ६ श्रीअजितशांतिस्तव षष्ठस्म. १६
जक्तामरनामक सप्तमस्म. ३२ G कल्याणमंदिरस्तोत्र अष्टम. ४७ ए बृहबांतिस्तवनामक नवम. ६३ १० जयतिहुणस्तोत्र.
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विषय. ११ जिनपञ्जरस्तोत्र. १५ ग्रहशांतिस्तोत्र. १३ मंत्राधिराजस्तोत्र. १५ ऋषिमंगल १५ तत्वार्थ सूत्र १६ अनानुपुर्वीमंत्रांक कोष्टक. १६५ १७ स्तुति
१७५ १७ आनंदघनजी कृत पद १७६
१२६
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जैनस्तोत्ररत्नाकर.
- ~॥अथ श्री नव स्मरणानिप्रारज्यंते॥
॥ तत्र प्रथम नवकार ॥ ॥ नमो अरिहंताणं, नमो सिकाणं, नमो आयरियाणं, नमो न. बनायाणं, नमो लोए सवसाहणं, एसो पंच नमुक्कारो, सवपावप्पणा सणो ॥ मंगलाणं च सवेसिं, पढमं हव मंगलं ॥ इति प्रथमं स्मरणं १
॥ अथ उवसग्गहरं द्वितीयं स्मरणं ॥
॥उवसग्गहरंपासं,पासं वंदामि कम्मघणमुकं ॥ विसहर विसनि
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नास, मगल कल्याण श्रावासं ॥१॥ विसहरफुलिंगमंतं, कंठे धारे जो सया मणु ॥ तस्स गह रोग मारी, जरा जति उवसामं॥२॥ चिहउ पूरे संतो, तुप्न पणामोवि बहुफलो होश ॥ नर तिरिएसुवि जीवा, पावंति न पुरक दोग (दोहगं) ॥३॥ तुह सम्मत्ते लके, चिंतामणि कप्पपोयवप्नहि ए ॥ पाति अविग्घेणं, जीवा अ यरमरं गणं ॥४॥ अ संथुन महायस, नत्तिप्पर निप्तरेण हि. अएण ॥ ता देव दिऊ बोहिं नवे
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नवे पास जिणचंद ॥ ५॥ इति ॥ ॥ अथ संतिकरस्तोत्र तृतीयं स्मरणं ॥
॥संतिकरं संति जिणं, .जगलरणं जयसिरी दायारं ॥ समरामि जत्त पालग, निवाणी गरुक कय सेवं ॥ १ ॥ ॐ सनमो विप्पोसहि, पत्ताणं संति सौमि पोयाणं पाहाँ स्वाहा मंतेणं, सबासिवरिया रणाणं ॥२॥ संति नमुक्कारो, खे लोसहिमाश्ल द्धिपत्ताणं ॥ माँ डी नमो सवोसहि, पत्ताणं च देशसि रिं ॥३॥ वाणी तिहुअणसमिणि सिरि देवी जस्कराय गणि पिळगा
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॥ गह दिसिपाल सुरिंदा, सयावि रकंतु जिणजत्ते ॥४॥ रकंतु मम रोहिणी, पन्नत्ती वऊसिंखला स. या ॥ वजंकुसि चक्केसरि, नरदत्ता कालि महाकाली ॥५॥ गोरी तह गंधोरी, महजाला माणवी अवश्. रुट्टा ॥ अबुत्ता माणसियो, महामापसिया उ देवी ॥६॥ जरका गोमुह महजरक, तिमुह जकेस तुंबरू कुसुमो ॥ मायंगो विजया जिय, बंजो मणु सुरकुमारो ॥७॥ बम्मुह पयाल किन्नर, गरुमो गंधव तहय जकिंदो ॥ कूबर वरुणो
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निउमी, गोमेहो पोस मायंगो ॥७॥ देवी चक्केसरि, अजिया पुरियारि कालि महाकाली ॥ अञ्चुथ संता जाला, सुतारया सोय सिरिवहा ॥ ए॥ चंमा विजयंकुसि पन्नति, निवाणि, अच्चुया धरणी ॥ वट्ट बुत्त गंधारि, अंब पन. मावई सिद्धा ॥ १० ॥ श्य तिब रकणरया, अन्नेविसुरा सुरी चऊ हावि ॥ वंतर जोशणि पमुहा, कु. णंतु रकं सया अम्हं ॥११॥ एवं सुदिाह सुरगण, सहि संघस्स संति जिणचंदो ॥ मावि करेउ
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रकं, मुणि सुंदरसूरि थुश्रमहिमा ॥ १२ ॥ इ संति नाद सम्म, दिहि रकं सरइ तिकालं जो ॥ सबोवद्दव र हिउँ, स लहइसुह संपयं परमं ॥ १३ ॥ तवग गयण दिए यर, जुगवर सिरिसोम सुंदर गुरूणं ॥ सुपसाय लद्ध गणहर, विद्या सिद्धिं जण सीसो ॥ १४ ॥ इति श्रीतृतीयं स्मरणं ॥ ३ ॥
॥ अथ तिजयपहुत्त चतुर्थ स्मरण || || तिजय पहुत्त पयासय, अ5 महापामिहेर जुत्ताणं ॥ समय कित्त विश्राणं, सरेमि चक्रं जि
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पंदाणं ॥१॥ पणवीसा य असी श्रा, पनरस पन्नास जिनवर स. मूहो ॥ नासेज सयल पुरिधे, न. वित्राणं नत्ति जुत्ताणं ॥२॥वीसा पणयालाविय, तीसा पन्नतरी जि. णवरिंदा ॥ गह जूझ रक साइणि, घोरुवसग्गं पणासंतु ॥३॥ सित्तिरि पगतीसावीय, सही पं. चेव जिखगणो एसो ॥ वाहि जल जलण हरि करि, चोरारि महा नयं हरज ॥४॥ पण पन्ना य दसेव य, पन्नही तहय चेव चा. लीसा ॥ रकंतु मे सरीरं, देवा
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सुर पणमिया सिधा ।। ५ ह. रहुंहः सरसुंसः हरहुंहः तह चेव सरसुंसः ॥ आलिहियनाम गप्न, चक्र किरसवउँनई ॥६॥ ॐ रा. हिणी पन्नत्ती, वखिंखला तहय वज अंकुसिया ॥ चकेसरि नर दत्ता, कालि महाकालि तह गोरी ॥७॥ गंधारी महजाला, माणवि वश्रुट्ट तहय अबुत्ता ॥ माणसि म. हामाणसिया, विद्यादेवी रकंतु ॥ ॥ पंचदस कम्ममिसु, उप्पन्नं सत्तरि जिणाणसयं ॥ विविह रयणाश्वन्नो, वसोहि हरउ उ.
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रियोइं ॥ ए॥ चलती अश्सय जुश्रा, अहमहापामिहेर कयसो हा ॥ तिबय रागयमोहा, का एथवा पयत्तेणं ॥ १०॥ ॐ वर क. णय संख विदुम, मरगय घण स. निहं विगयमोहं ॥सत्तरिसयं जि. णाणं, सवामर पूश्यं वंदे ॥ स्वाहा ॥ ११ ॥ ॐ नवणवश वाणवंतर, जोस वासी विमाणवासी अ॥ जे केवि पुरु देवा, ते सवे उबस मंतु मम ॥ स्वाहा ॥ १५ ॥ चं. दण कप्पूरेणं, फलए लिहिऊण खालिअंपीअं॥ एगतराश् गह नूत्र
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साइणि मुग्गं पणासेई ॥ १३ ॥ इ सत्तरिसयं जंतं. सम्मं मंत वारि पमिलिहि ॥ पुरियारि विजयवंतं, निम्नतं निच्च मच्चेह ॥ १४ ॥
॥ अथ नमिऊण पंचमं स्मरणं ॥ || नमिऊ पणय सुरगण, चू. मामणि किरण रंजिखं मुषिणो ॥ चलणजुअलं महाजय, पणासणं संथवं बुद्धं ॥ १ ॥ समय कर च रण नह मुह, निबु नासा विवन्न लायन्ना ॥ कुमहा रोगानल, फुलिंग निद्दढ सवंगा ॥ २ ॥ ते तुह चला राहण, सलिलंजलि सेय
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वुहिय बाया (नबाहा ) ॥ वण दवदव गिरिपा, यव व पत्तापुणो लजी ॥३॥ वाय खुनिय जल निहि, उपम कबोल नीसणारावे॥ संनंत जय विसंतुल, निद्यामय मु. कवावारे ॥ ४ ॥ अवि दलियजा णवत्ता, खगेण पावंति विध कूलं ॥ पास जिण चलण जुअलं, निञ्च चित्र जे नमंति नरा ॥५॥ खर पवणु कुश वणदव, जाला वलि मिलिय सयल उमगहणे ॥ मनंत मुखमयवहु, नीसणरव जी. सणं मि वणे ॥६॥ जगगुरुणो क.
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मजुअलं, निवाविच सयल तिहु
आणानोरं ॥ जे संजरंति मणुया, न कुण जलणो नयं तेसिं ॥७॥ विलसंत लोग नीसण, फुरिया रुण नयण तरल जीहालं ॥ जग्ग जुअंगं नवजल, य सब नीलणा यारं ॥ ७॥ मन्नंति कीम सरिसं, दूर परिबुढविसम विसवेगा॥ तुह नोमकर फुमसि, द्धमंतगुरुश्रा न. रालोए ॥ ए ॥ अमबी निब त. कर, पुलिंद सदूल सद्दनीमासु ॥ नयविहुर वुन्न कायर, नरिक्ष पहिब सबासु ॥ १० ॥ अविलुत्त
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विहवसारा तुह नाह प्रणाम मत्त वावारा ॥ ववगय विग्धा सिग्धं, पत्ता हिय इहियं गणं ॥ ११ ॥ पक्ष लियानलनयणं, डूरविया रियमुहं महाकायं || नहकुलिसघाय वि लिख गईद कुंनहलानोयं ॥ १२ ॥ पणयससंजमपचिव, नहमणि मा पिक्क पमित्रा पमिस्स ॥ तुह वय एपहरणधरा, सीहं कुद्धंपि न गांति ॥ १३ ॥ ससिधवल दंत मुसलं, दीहकरुल्लाल वढि उहाहं ॥ महु पिंग नयजुचलं, ससलिल नवजलहरारावं ॥ १४ ॥ जीमं म
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हागइंदं, अच्चासन्नंपिते नविगणंति॥ जे तुम्ह चलण जुअलं, मुणिवश तुंगं समन्बीणा ॥ १५ ॥ समरम्मि तिक खग्गो, निग्याय पविज नछय कबंधे ॥ कुंतविणि निन्न करि कलह, मुक्क सिक्कार परमि ॥१६॥ निङियदप्पुझर रित, नरिंद निव हानमा जसं धवलं ॥ पावंति पाव पसमिण, पास जिण तुह प्पना वेण ॥ १७ ॥ रोग जल जलण वि. सहर, चोरारि मइंद गय रण न. याई ॥ पास जिण नाम संकित्त णेण पसमंति सवाई ॥ १७ ॥ एवं
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२५ महा नयहरं, पास जिणिंदस्स सं. थवमुबारं ॥ नविय जणाणंदयरं, कल्याण परंपर निहाणं ॥१५॥ राय नय जरक रस्कस, कुसुमिण पुस ऊण रिस्क पीमासु ॥ संकासु दोसु पंथे, जवसम्गे तहय रयणीस ॥ २० ॥ जो पढ जो अ निसु. गई, ताणं कश्णोय माणतुंगस्स ॥ पासो पावं पसमे, उसयल नुवण चित्र चलणो ॥१॥ उवसग्गंते कमग, सुरम्मि जाणा जो न सं. चलिर्ड ॥ सुर नर किन्नरजुवहिं, संथु जयउ पास जिणो ॥२२॥
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एअस्स मप्नयोरे, अहारस अरक रेहिं जो मंतो ॥ जो जाण सो. काय, परम पयलं फुमं पासं ॥२३॥ पासह समरण जो कुणज्ञ, संतुक हिएण ॥ अत्तर सय वाहि नय, नास तस्स रेण ॥ २४ ॥ इति श्री महानयहरनामकं पं. चमं स्मरणं ॥५॥ ॥ अथ श्री अजितशांति स्तव षष्ठस्मरणं ॥
॥अजिथं जिअ सब जयं, सं. तिंच पसंत सब गय पावं ॥ जय गुरु संति गुणकरे, दोवि जिणवरे पणि वायामि॥१॥गाहा ॥ववगय
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मंगुल जावे, तेहं विउल तव नि. म्मल सहावे ॥ निरुवम महप्प नावे, थोसामि सुदिह सनावे ॥॥ गाहा ॥ सब पुरक पसंतीणं, सब पाव प्पसंतिणं, ॥ सया अजिय सं. तीणं, नमो अजिथ संतिणं ॥३॥ सिलोगो ॥ अजिब जिण सुह प्पवत्तणं, तव पुरिसुत्तम नाम कित्तणं ॥ तह य धिश्म प्पवत्तणं, तवय जिणुत्तम संतिकित्तणं ॥४॥ मागहिया ॥ किरिया विहि संचित्र कम्म किलेस विमुकयरं, अजिथं निचिरं च गुणेहिं महा
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मुणि सिछि गयं ॥ अजिअस्स यसंति महामुणिणोवि असंतिकरं, सययं मम निबुर कारणयं च नमंसणयं ॥५॥ आलिंगणयं ॥ पुरिसा जइ पुरक वारणं, जर अ. तिमग्गह सुरक कारणं ॥ अजिरं संतिंच नावडे, अजयकरे सरणं पवळाहा ॥ ६॥ मागहिया॥अ. र र तिमिर विरहिय, मुवरय जर मरणं ॥ सुर असुर गरुल जुयग वक्ष, पयय पणिवश्यं ॥ अ. जिथ महम विश्र, सुनय नय निउपम जयकर, सरण मुवसरित्र
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जुवि दिविज, महिां सयय मुवतं च जि.
मे ॥ ७ ॥ संगययं ॥ गुत्तममुत्तम नित्तंम सत्तधरं, छाजव मद्दवखंति विमुत्ति समाहि निहिं ॥ संतिकरं पणमामि दमुतम तिहुयरं, संति मुणी मम संति समादिवरं दिसन ॥ ८ ॥ सोवा
यं ॥ सावति पुछ पछिवं च वर दहि मय पत्र विविन्न संघियं ॥ थिर सरिब व मयगल लीलाय माण वर गंधदवि पहाणं पक्षियं संघ वारिहं ॥ दहि छ बाहु धंत कग रुाग निस्वदय पिंजरं, प
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२०
वर लरकणो वचिय सोम चारुरूवं, सुइ सुह मणाजिराम परम रमगिद्य वर देव झुंडुहि निनाय म हुरयर सुगिरं ॥ ५ ॥ वेदु ॥ जिचारिगणं, जिा सब
अजि जयं जवो हरिजं ॥ पणमामि अहं पय, पावं पसमेत मे जयवं
॥ युग्मं ॥ कुरु
॥ १० ॥ रसालु जण वय दचिणावर, नरीसरो प ढमं तर्ज महा चक्कवहि जोए महपजावो || जो बावन्तरि पुरवर सइस्स वर नगर निगम जणवय व५, बत्तीसा राय वर सहसाएयाय म
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१ ग्गो ॥ चनदस वर रयण नव म. हानिहि चनसहि सहस्स पवर जुवईण सुंदरव, चुलस हय गय रहसय सहस्स सामी, बमवश्गाम कोमि सामी आसिजो नारहम्मि जयवं ॥११॥ वेढ ॥तं संति संतीकर, संतिम सबनया ॥ संतिं थुणामि जिणं, संति वेहेन मे ॥१॥ रासानंदियं ॥ युग्मं ॥ इकाग विदेह नरीसर, नर वसहा मुणि वस हा ॥ नव सारय ससि सकलाणण विगय तमा विहुअ रया ॥ अजि उत्तम तेथ गुणेहि, महा मुणि अ
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मित्र बला विजल कुला ॥ पण मामि ते जव जय मूरण, जग सरया मम सरणं ॥ १३ ॥ चित्तलेहा देव दाणविंद चंद सूर बंद ह5 तुह जिह परम, लघु रूव धंत रूप्प पट्ट सेय सुद्ध निद्ध धवल ॥ दंत पंति संति सन्ति किति मुत्ति जुत्ति गुति पवर, दित्त तेा वंद धेा सब लो नाविका प्पजावा पइस मे समाहिं ॥ १४ ॥ नाराय ॥ विमल ससि कला इरेका सोमं वि तिमिर सूर कराइरेा तेां ॥ तिअसवर गणाइरे रूवं, धरणिधर
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जमे
२३ पवराइरे सारं ॥ १५ ॥ कुसुम लया || सत्तेका सया जि, सा री रे बले जित्र्ां ॥ तव संजि, एस थुणामि जि. ए जि ॥ १६ ॥ जुगपरिरं गिां ॥ सोम गुणेहिं पावर न तं, नव सरय ससी ते अगुणेहिं पावर न तं, नव सरय रवि ॥ रूवगुणेहिं पाव न तं, तिा सगणव | सार गुणेहिं पावइ न तं धरणिधरव ॥ १७ ॥ खिश्रियं ॥ तिबवर प वत्तयं तमरय रहियं धीर जण शुत्र चि चूा कलि कसं ॥
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सति सुह पवत्तयं तिगरण पयर्ड संतिमहं महोमणिं सरण मुवणमे ॥ १७ ॥ ललिययं ॥ विणणय सिरि श्ह अंजलि रिसिगण संथु. अंथिमिकं ॥ विबुहाहिव धणव नरवर थुय महिअच्चियं बहुसो ॥ अग्गय सरय दिवायर समहि अ सप्पनं तवसो ॥ गयणंगण वि. यरण समुश्य चारण वंदिरं सिरसा ॥१॥ किसलयमालो ॥ असुर गरुल परिवंदिरं, किन्नरोरग णमंसिकं ॥ देवकोमि सय संथुरं समणसंघ परिवंदिरं ॥ २० ॥ सु.
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२५ मुहं ॥ अजयं अणहं अरयं अरुयं, अजियं अजियं पय पणमे ॥१॥ विझुविलसियं ॥ गया वरविमाण, दिव कणग रह तुरय पहकर सएहिं हलियं ॥ ससंनमो अरण,
कुनिथ बुलिअचल कुंमलं गय तिरीम सोहंत मनलिमाला ॥२२॥ वेढलं ॥ जंसुरसंघा सासुर संघा, वेर विउत्ता नत्ति सुजुत्ता ॥ श्रा यर नूसिय संचमर्पिमिय, सुह सुविह्मिय सब बलोधा ॥ उत्तम कंचण रयण परूविय, नासुर नूसण जोसुरिअंगा ॥ गाय समोणय
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नक्ति वसागय, पंजलि पेसिय सी. स पणामा ॥ २३ ॥ रयणमाला ॥ वंदिजण थोनण तो जिणं तिगुण मेवय पुणो पयाहिणं ॥ पणमि उणय जिणं सुरासुरा, पमुश् थासनवणारं तो गया ॥ २४ ॥ खित्तयं ॥ तं महामुणि महं पि पं. जली, राग दोस नय मोह वझियं ॥ देव दाणव नरिंद वंदिरं, संति मुत्तम महातवं नमे ॥ २५ ॥ खितयं ॥ अंबरंतर विभोरण आहिं, ललिय हंस वहु गामिणियाहि ॥ पीण सोणि पण सालिणिवाहि, स.
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कल कमलदललोअणि आह ॥२६॥ दीवयं ॥ पीण निरंतर थण जर वि. णमिय गायलयाहिं ॥ मणि कंच ण पसि ढिल मेहल सोहिय सोणि तमाहिं ॥ वरखिखिणि नेउर सतिलय वलय विजूसणियाहिं ॥ र कर चउर मणोहर सुंदर दंसणि आहिं ॥ २७॥ चित्तरकरा ॥ देव सुंदरीहिं पाय वंदियाहिं वंदिया य जस्त ते सुविकमाकमा अप्पणो निमालएहिं मंमणोमणपगारएहि केहि केहि वि अवंग तिलय पत्तलेह नामएहिं चिल्लएहिं संगय गयाहि
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जत्ति संनिबिड वंदणागयाहि हुंति ते वंदिया पुणो पुणो ॥ २० ॥ ना राय: ॥ तुमहं जिणचंद, अजिरं जिअ मोहं ॥ धुय सब किलेसं, पय पणमामि ॥२॥नंदिअयं ।। थुध वंदिअयस्सारिसि गणदेव गणेह, तो देव वहांह पय पणमिअस्सा, जस्स जगुत्तम सास णयस्सा, जत्ति वसागय पिंमिश्र याहि देव वरबरसा बहुयाह सु. रवररइ गुण पंमियबाहिं ॥ ३० ॥ नासुरयं ॥ वंस सद्द तंतिताल मेलिए तिलकरानिराम सद्द मीसए
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कएअ सुश् समारणे असुफ सजा गीय पायजाल घंटियाहि ॥ वलय मेहला कलाव नेउरा निराम सद मीसए कए अ देव नट्टियाहि हाव नार विप्पम ८पगा रहि ॥ नचिउण अंग हारएहि वंदिया य जस्स ते सुविकमा कमा तयं तिलोय सब सत्त संति कारयं । पसंत सब पाव दो समेस हं न मामि संति मुत्तमं जिणं ॥ ३१ ॥ नारायन ॥ उत्त चामर पमाग जूत्र जव मंमिया ऊय वर मगर तुरय सिरिवह सुलंबणा ॥ दीव समुद्द
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मंदर दिसागय सोहिया सहि वसह सीहरह चक्क वरं किया ॥ पाठांतर ॥ सिविल सुलंगणा ॥ ३२ ॥ ललिययं ॥ सहाव लट्ठा सम प्पइहा, श्रदोस पुछा गुणेहिं जिहा ॥ पसायसिद्धा तवेण पुछा, सिरीहिं इठा रिसीहिं जुठा ॥ ३३ ॥ वाण वासिया॥ ते तवेण धुय सब पावया, स वलो दिय मूल पावया ॥ संयुया अजि संति पावया, हुतु मे सिव सुहाण दायया ॥ ३४ ॥ अपरां (तका ॥ एवं तव बल विजलं. शुद्धं मए अजिा संति जिए जु
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अलं ॥ ववगय कम्मर यमलं, गई गयं सासयं विजलं ॥३५॥ गाहा॥ तं बहु गुण प्प सायं, मुरक सुहेण परमेण अविसायं ॥ नासेउ मे विसायं, कुणउ अ परिसावी अपसायं ॥३६॥ गाहा ॥ तं मोएउ अनंदि, पावेज अ नंदिसेण मनि नंदि ॥ परिसावि य सुह नंदि, ममय दिसन संजमे नंदि ॥ ३७॥ गाहा ॥ पारका चाउम्मासे, सं वजरिए अवस्स नणिअहो ॥ सो अबो सवेहि, उवसग्ग निवारणो एसो ॥ ३० ॥ गाहा ॥ जो पढ
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३२ जोय निसुणश्, उन कालंपि अ जिथ संति थयं ॥ नहु हुँति त. स्सरोगा, पुवुप्पन्ना विनासंति ॥रण॥ गाहा ॥ जइबह परम पयं, अ हवा कित्ति सुविन नुवणे ॥ ता तेलुकुकरणे, जिणवयणे थायरं कु. गह ॥ ४० ॥ गाहा ॥ इति ॥ ॥ अथ भक्तामरनामकं सप्तमस्मरणं ॥
॥ नक्तामरप्रणतमौलिमणि प्र. जाणा, मुद्द्योतकं दलितपापतमो वितानम् ॥ सम्यक् प्रणम्य जिन पादयुगं युगादा, वालंबनं नवजले पततां जनानाम् ॥१॥ यः संस्तुतः
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सकलवाङ्मयतत्वबोधा, नूत बुद्धिपटुनिः सुरलोकनाथैः ॥ स्तो त्रैर्जगत्रितयचित्तहरैरुदारैः, स्तोध्ये किलाहमपि, तं प्रथमं जिनें. उम् ॥२॥ बुद्ध्या विनापि विबुधार्चितपादपीठ, स्तोतुं समुद्यत मतिर्विगतत्रपोऽहम् ॥ बाखं वि. हाय जलसंस्थितामबिंब, मन्यः क श्चति जनःसहसा ग्रहीतुम् ॥३॥ वक्तुं गुणान् गुणसमुउशशांकका तान्, कस्ते दमः सुरगुरुप्रतिमोपि बुद्ध्यो ॥ कल्पांतकालपवनोहत नकचक्रं, को वा तरीतुमलमंबु
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निधि जुजाच्याम् ॥४॥ सोऽहं तथापि तव नक्तिवशान्मुनीश, कर्तु स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः ॥ प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेंड, नान्येति किं निजशिशोः परिपा लनार्थम् ॥ ५॥ अल्पश्रुतं श्रुत वतां परिहासधाम, त्वन्नक्तिरेव मुखरी कुरुते बलान्माम् ॥ यत्को किलः किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चारुचूतकलिकानिकरैकहेतुः॥६॥ त्वत्संस्तवेन नवसंततिसन्निबई, पापं दणात् क्ष्यमुपैति शरीरना जाम् ॥ क्रांतलोकमलिनीलम
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शेषमाशु, सूर्याशुनिन्नमिव शार्वर मंधकारम् ॥ ७ ॥ मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद, मारज्यते तनुधियापि तव प्रजावात् ॥ चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु, मु. क्ताफलद्युतिमुपैति ननूदबिंदुः ॥० ॥ प्रास्तां तव स्तवन मस्त समस्तदोष, त्वत्संकथापि, जगतां परितानि हंति ॥ रे सहस्रकिरणः कुरुते प्रजैव, पद्माकरेषु जलजानि विका शनांजि ॥ ए ॥ नात्यद्भुतं भूषणभूतनाथ, नूतैर्गुणैर्जुवि नवंतमनिष्टुवंतः ॥ तुल्या जवंति ज
वन
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वतो ननु तेन किं वा, नृत्याश्रितं य. श्ह नात्मसमं करोति ॥ १० ॥ दृष्टा नवंतमनिमेषविलोकनीयं, नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चतुः॥ पीत्वा पयः शशिकरयुतियुग्ध सिंधो; दारं जलं जलनिधेर शितुं क श्वेत् ॥ ११ ॥ यैः शांतरागरु चिनिः परमाणुनिस्त्वं, निर्मापितस्त्रिजुवनैकललामजूत ॥ तावंत एव खलु तेप्यणवः पृथिव्यां, यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति ॥१२॥ वक्रं व ते सुरनरोरगनेत्रहारि, निःशेषनिर्जितजगत्रितयोपमान
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म् ॥ बिंबं कलंकमलिनं क नि. शाकरस्य, यहासरे जवात पांमुत्र लाशकल्पम् ॥ १३ ॥ संपूर्ण मत्र शशांककलाकलाप, शुबा गुणास्त्रि जुवनं तव लंघयंति ॥ ये संधितास्त्रिजगदीश्वर नाथमेकं, कस्ता निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥१४॥ चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांग नानि, तिं मनागपि मनो न वि कारमार्गम् ॥ कल्यांतकालमस्ता चलिताचलेन, किं मंदरातिशिखर चलितं कदाचित् ॥ १५ ॥ निधू मवर्तिरपवर्जितैलपूरः, कृरनं
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जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि ॥ गम्यो न जातु मरुता चलताचलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ
जगत्प्र
सूर्याति
काशः ॥ १६ ॥ नास्तं कदाचिडु पयोसि न राहुगम्यः, स्पष्ट करोषि सहसा युगपजगंति ॥ नांनोध रोदर निरुद्ध महाप्रजावः, शांयिमहिमासि मुनींद्र लोके ॥ ७॥ नित्योदयं दलितमोह मदांधकारं, गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदा नाम् ॥ विन्राजते तत्र मुखाब्जम नस्पकiति विद्योतयतगदपूर्वश शांकबिंबम् ॥ १८ ॥ किं शर्वरीषु
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३७ शशिनाहि विवस्वता वा, युष्म न्मुखें दलितेषु तमस्सु नाथ ॥ निष्पन्नशालि वनशालिनि जीव लोके, कार्य कियालधरैर्जलजार नम्रः ॥ १९ ॥ ज्ञानं यथा त्वयि विजाति कृतावकाशं, नैवं तथा द रिहरादिषु नायकेषु || तेजः स्फु रन्मणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेपि ॥ २० ॥ मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा, दृ ष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ॥ किं वीक्षितेन जवता जुवि येन नान्यः, कश्चिन्मनो हरति नाथ ज
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वांतरेपि ॥१॥ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयंति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वउपमं जननी प्रसूता ॥ सा दिशो दधति नानि सहस्रर रिमं, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदं शुजालम् ॥ २२ ॥ त्वामामनंति मुनयः परमं पुमांस, मादित्यवर्ण ममलं तमसः परस्तात् ॥ त्वामेव सम्यगुपलान्य जयंति मृत्यु, नान्यः, शिवः शिवपदस्य मुनीं पंथाः॥२३॥ स्वामव्ययं विनुमचिंत्यमसंख्यमाद्य, ब्रह्माणमीश्वरमनंतमनंगकेतुम् ॥ योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं
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ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदंति संतः॥२॥ बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबो धात्, त्वं शंकरोसि जुवनत्रयशंक रत्वात् ॥ धातासि धीर शीवमार्ग विधेर्विधानात्, व्यक्तं त्वमेव नग वन् पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५॥ तुज्यं नमस्त्रिजुवनार्तिहराय नाथ, तुच्यं नमः दितितलामलनूषणाय ॥ तुज्यं नमास्त्रजगतः परमेश्वराय, तुन्यु नमो जिननवोदधिशोष णाय ॥ २६ ॥ को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेष, स्त्वं संश्रितो नि रवकाशतया मुनीश ॥ दोषैरुपात
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४२ विविधाश्रय जातगर्वैः, स्वप्नांतरेप न कदाचिदपी दितोसि ॥२७॥ उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूख, मा नाति रूपममलं नवतो नितांतम् ॥ स्पष्टोबस स्किरणमस्ततमोवितानं, बिंबं रवेरिव पयोधरपार्श्ववर्ति॥२॥ सिंहासने मणिमयूख शिखावि चित्रे, वित्राजते तम वपुः कनका वदातम् ॥ बिंबं वियछिलसदंशु लतावितानं, तुंगोदयानिशिरसीव सहस्त्ररश्मेः ॥ए ॥ कुंदावदान चलचामरचारुशोनं, विज्राजते तव वपुः कलधौतकांतम् ॥ उदयशां
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कशुचिनिङरवारिधार, मुच्चेस्तटं सुरगिरेरिव शातकौनम् ॥ ३० ॥ उत्रत्रयं तव (वनाति शशांककांत, मुच्चैः स्थितं स्थगितनानुकरप्रता पम् ॥ मुक्ताफलप्रकरजाल विवृद्ध शोनं, प्रख्यापयस्त्रिजगतः परमे श्वरत्वम् ॥ ३१॥ उनिहेमनव पंकजपुंजकांति, पर्यवसन्नखमयूख शिखानिरामौ ॥ पादौ पदानि तव यत्र जिनेंड धत्तः, पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयंति ॥ ३२ ॥ वं यथा तव विजूतिरजूजिनेछ, ध. मोपदेशनविधौ न तथा परस्य ॥
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याहक प्रजा दिनकृतः प्रहृतांच कारा, तादृकुतो ग्रहगणस्य विकाशि नोपि ॥ ३३ ॥ श्योतन्मदाविलवि लोलकपोलमूल, मत्तमद् चमर नादविवृद्धकोपम् ॥ ऐरावतानमि जमुद्धतमापततं दृडा जयं जवति नो नवदाश्रितानाम् ॥ ३४ ॥ जिनेज कुंज गल प्रज्ज्वल शोणिताक्त, मुक्ताफलप्रकरजू पितृमिजागः वक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि, नाक्रामतिक्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥ कल्पांतकाल पवनोद्धृतवह्निकल्पं, दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्फुलिं
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गम् ॥ विश्वं जिघत्सुमिव संमु खमापतंतं, त्वन्नामकीर्तनजलं श. मयत्यशेषम् ॥ ३६॥ रक्तदणं सम दकोकिलकंठनीलं, क्रोधोतं फणिनमुत्फणमापतंतम ॥ आका मति कंमयुगेन निरस्तशंक, स्त्व नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः॥३॥ वदगत्तुरंगगजगर्जितनिमनाद, मा जौ बलं बलवतामपि चूपतीनाम ॥ उद्यदिवाकरमयूखशिखाप विडं त्व. कीर्तनात्तम श्वाशु निदामुपैति ३७ कुंताग्रनिन्नगजशोणितवारिवाह, वेगावतारतरणातुरयोधनीमे ॥
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युद्धे जयं विजितर्जयजेयपदा, स्त्व त्पादपंकजवनायिणोलते॥३॥ अंजोनिधौ कुनितनीषणनकचक्र, पाठीनपीउनयदोब्बणवामवाग्नौ ॥ रंगत्तरंगशिखरस्थितयोनपात्रा, स्त्रा सं विहाय जवतः स्मरणाब जंति ॥ ४० ॥ जनतनीषणज लोदरनारजुग्नाः शोच्यां दशामुप गताश्च्युतजीविताशाः ॥ त्वत्पादपं कजरजोमृतदिग्धदेहा, मां न. वंति मकरध्वजतुट्यरूपाः ॥४१॥
ओपादकंठमुरुशंखलवेष्टितांगा, गा. ढं बृहन्निगमकोटिनिघृष्टजंघाः ॥
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४७ स्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाः स्म रंतः, सद्यः स्वयं विगतबंधनयो न. वंति ॥ ४२ ॥ मत्तरिमृगराज दवानला हि, संग्रामवारिधिमहो दरबंधनोबम ॥ तस्याशु नाशमु पयाति जयं मियेव, यस्तावकं स्त. वमिमं मतिमानधीते ॥४३॥ स्तोत्रस्रजं तव जिनेंगुणैर्निबछां, ज. क्त्या मया रुचिरवर्ण विचित्रपुष्पाम॥ धत्ते जनो य श्ह कंगतामजस्त्रं, तंमानतुंगमवशासमुपैति सदमीः४॥ इति नक्तामरनामकस्तोत्रं सप्तमं स्मरणमू ॥७॥
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|| अथ श्रीकल्याणमंदिरस्तोत्रं अष्टम स्मरणं प्रारभ्यते ||
॥ कल्याणमंदिरमुदारमवद्यने दि, जीताजयप्रदमनिंदितमङधिप झम् ॥ संसारसागर निमजदशेष जंतु, पोटायमानमजिनम्य जिने श्वरस्य ॥ १ ॥ यस्य स्वयं सुरगु रुर्गरिमांबुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत मतिर्न विजुर्विधातुम ॥ तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकेतो,
स्तस्याहमेष
किल संस्तवनं करिष्ये ॥ २ ॥ युग्मम ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप, मस्मादृशाः कथमधीश ज
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४ए वंत्यधीशाः ॥ धृष्टोपि कौशिकशि शुर्यदि वा दिवांधो, रूपं प्ररूपयति कि किल धर्मरश्मेः ॥ ३ ॥ मोहद यादनुजवन्नपि नाथ मयो, नूनं गुणान् गणयितुं न तव दमेत ॥ कपांतवांतपयसः प्रकटोऽपि यस्मा, न्मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४॥ अच्युद्यतोस्मि तव नाथ ज. माशयोऽपि, कर्तुं स्तवं लसदसं ख्यगुणाकरस्य ॥ बालोऽपि किं न निजबाहुयुगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियांबुराशेः ॥ ५ ॥ ये योगिनामपि न यांति गुणास्तवे
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श, कक्तु कथं नवति तेषु ममावका शः॥ जाता तदेवमस मीदितका रितेयं, जल्पंति वा निजगिरा ननु पक्षिणोऽपि॥६॥आस्तामचिंत्यमहि मा जनसंस्तवस्ते, नामापि पाति नवतोनवतो जगंति ॥ तीत्रातपोपहत पांथजनान्निदाघे, प्रीणाति पद्मसर सः सरसोऽनिलोऽपि ॥ ७॥ दृह तिनि त्वयि विलो शिथिली नवंति जंतोः दणेन निबिमा अपि कर्मबं धाः ॥ सद्यो जुजंगममया श्व मध्य नाग, मच्यागते वनशिखंमिनि चं. दनस्य ॥७॥ मुच्यंत एव मनुजाः
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५१ सहसा जिन, रौ रुपऽवशतैस्त्व यि वीदितेपि ॥ गोवामिनि स्फु रिततेजसि · दृष्टमात्रे चौरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ॥॥ त्वं ता. रको जिन कथं नविनांत एव, त्वामु हहंति हृदयेन यजुत्तरंतः ॥ यहा दृतिस्तरति यजालमेष नून, मंतर्ग तस्य मरुतः स किलानुनावः ॥१०॥ यस्मिन् हरप्रनृतयोऽपि हतप्रना वाः, सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपि तः कणेन ॥ विध्यापिता हत जुजः पयसाथ येन, पीतं न किं त. दपि पुरवामवेन ॥ ११ ॥ स्वा.
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मिन्ननपगरिमाणमपि प्रपन्ना, स्त्वां जंतवः कथमहो हृदये दधा नाः ॥ जन्मोदधिं लघु तरंत्यतिला घवेन, चिंत्यो न हंत महतां यदि वा प्रनावः ॥ १२ ॥ क्रोधस्त्वया यदि विनो प्रथमं निरस्तो, ध्व. स्तास्तदा बत कथं किल फर्मचौ राः॥प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशि रोपि लोके, नीलऽमाणि विपिना नि न कि हिमानि ॥१३॥ त्वां यो गिनो जिन सदा परमात्मरूप, मन्वेषयंति हृदयांबुजकोशदेशे ॥ पू. तस्य निर्मखरुचेर्यदि वा किमन्य, द.
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५३ दस्य संनवि पदं ननु कर्णिकायाः ॥ १४ ॥ ध्यानानेिश नवतो न विनः क्षणेन, देहं विहाय परमा स्मदशां व्रजंति ॥ तीव्रनलाऽपलना वमपास्य लोके, चामीकरत्वमचि गदिव धातुनेदाः ॥ १५ ॥ अंतः सदैव जिन यस्य विनाव्यसे त्वंनव्यैः कथं तदपि नाशयसे शरी रम् ॥ एतत्स्वरूपमथ मध्य विवर्ति नोहि, यद्विग्रहं प्रशमयंति महानु नावाः॥१६॥आत्मा मनीषिनिरयं त्वदनेदबुद्ध्या, ध्यातोजिने नव तीह नवत्प्रनावः ॥ पानीयमप्य
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५४ मृतमिस्यनुचित्यमानं, किं नाम नो विषविकारमपाकरोति ॥ १७ ॥ त्वा मेव वीणतमसं परवा दिनोपि, नूनं विजो हरिहरादिधिया प्रपन्नाः ॥ किं काचकामति निरीश सितोपि शंखो, नो गृह्यते विविधवर्ण विपर्य येण ॥ १७ ॥ धर्मोपशसमये सवि धानुनावा, दास्तां जनो नवति ते तसरप्यशोकः ॥ अच्युमते दिन पतौ समहीरुहोपि, किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोकः ॥ १५ ॥ चित्रं विनो कथमवाङ्मुखवृत्तमेव. विष्वक् पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टिः॥
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५५ त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मु. नीश, गति नूनमध एव हि बंध नानि ॥ २०॥ स्थाने गतीरहृदयो दधिसंजवायाः, पीयूषतां तव गिरः समुदीरयंति ॥ पीत्वा यतः परमसं मदसंगनाजो, नव्या व्रजति तरसा प्यजरासरत्वम् ॥१॥ स्वामिन् सुदूरमवनम्य समुत्पतंतो, मन्ये व. दंति शुचयः सुरचामरोघाः ॥ येड स्मै नतिं विदधते मुनिपुंगवाय, ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुधनावाः ॥ २२ ॥ श्यामं गनीरगिरमुज्ज्वल हेमरत्न, सिंहासनस्थ मिह नव्यशि
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खमिनस्त्वाम् ॥ अलोकयंति रजसेन नदंतमुच्चै, श्वामीकराडिशिर सीव नवांबुवाहम् ॥ २३ ॥ जज बता तव शितिद्युतिमंमबुन, लुप्त बदबविरशोकतर्बनूव ॥ सान्निध्य. ताऽपि यदि वा तव वीतराग, नीरा गतां ब्रजति को न सचेतनोपि २४ नो नोः प्रमादमवधूय जजध्वमेन, मागत्य निर्वृतिपुरि प्रतिसार्थवाहम् ॥ एतनिवेदयति देव जगत्त्रयाय, मन्ये नदन्नचिननः सुरमुनिस्ते ॥२५॥ जयोतितेषु जवता जुरनेषु नाथ, तारान्वितो विधुरयं विहताधि
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कारः ॥ मुक्ताकलापकलितोबसि तातपत्र, व्याजास्त्रिधाधृततनुर्बुवम ज्युपेतः॥२६॥ स्वेन प्रपूरितजगत्त्र यर्पिमितेन, कांतिप्रतापयशप्लामिव मंचयेन ॥ माणिक्यहेमरजतप्रवि निर्मितेन, सालत्रयेण नगवन्ननितो विनासि ॥२७॥दिव्यत्र जोजिन नम त्रदशाधिपाना, मुत्सृज्य रनरचिता नपिमोलिबंधान् ।। पादाश्रयंति जब. तो याद वा परत्र, त्वत्संगमे सुमनसो न रमंत एव ॥ २७॥ त्वं नाथ जन्मजलधेर्विपराङ्मुखोपि, यत्तारय स्यसुमतो निजपृष्ठलग्नान् ॥ युक्तं
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हि पार्थिव निपस्य सतस्तवैव चित्रं विजो यदसि कर्मविपाकशून्यः २०७५ विश्वेश्वरोऽपि जनपालक दुर्गतस्त्वं किं वाक्षरप्रकृतिरप्य लिपिस्त्वमीश || ज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव, ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकाशहेतुः ॥ ३० ॥ प्राग्नारसंभृतनजां सि रजांसि रोषा, प्रज्ञापितानि क मवेन शवेन यानि || वायापि तैस्तव न नाथ हता हताशो, ग्रस्तस्त्वमी जि रयमेव परं दुरात्मा ॥ ३१ ॥ यज ऊर्जितघनौघमदनी मं, ब्रश्यत्त मिन्मुसलमांसल घोरधारम् ॥ दैत्ये
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न मुक्तमथ स्तरवारि दधे, तेनैव तस्य जिन पुस्तरवारिकृत्यम् ॥३॥ ध्वस्तार्ध्वकेशविकृताकृतिमर्त्य मुंम, प्रालंबन्नयदवत्क्रविनिर्यदग्निः ॥प्रे तबजः प्रतिनवंतमपीरितो यः, सो ऽस्योऽनवत्प्रतिनवं नवःबहेतुः ॥ ३३ ॥ धन्यास्त एव नुवनाधिप ये त्रिसंध्य, माराधयंति विधिवछि धुतान्यकृन्याः ॥ नक्तयोलसत्पुल कपदमलदेहदेशाः, पादयं तव वि. नो नुवि जन्मनाजः ॥ ३४ ॥ अ. स्मिन्नपारनववारिनिधी मुनीश, म. न्ये न मे श्रावणगोचरतां गतोऽसि
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॥ आकर्णिते तु तव गोत्रपवित्रमंत्रे किंवा विपद्विषधरी सविधं समेति ॥ ३५ ॥ जन्मांतरेपि तव पादयुगं न देव, मन्ये मया महितमीहित दानददम् ॥ तेनेह जन्मनि मुनीश पराजवानां, जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम् ॥ ३६ ॥ नूनं न मोहतिमिरावृतलोचनेन, पूर्व वि. नो सकृदपि प्रविलोकितोऽसि ॥ म. मििवधो विधुरयंति हि मामनर्थाः प्रोयत्प्रबंधगतयः कथमन्यथैते ३७
आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीद तोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतो
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ऽसि जत्या ॥ जातोऽस्मि तेन जन बांधवपुःखपात्रं, यस्माक्रियाः प्र. तिफलंति न लावशून्याः ॥ ३० ॥ त्वं नाथ पुःखिजनवत्सल हे शरएय, कारुण्यपुण्यवसते वशिनां वरेण्य ॥जत्यों न ते मयि महेश दयां विधाय, दुःखांकुरोदलनतत्प रतां विधेहि ॥३५॥ निःसंख्यसार शरणं शरणं शरण्य, मासाद्य सा. दितरिपुप्रथितावदातम् ॥ त्वत्पाद पंकजमपि प्रणिधानवंध्यो, वध्यो ऽस्मि चेनुवनपावन हा हतोऽस्मि ॥ ४० ॥ देवेंअवंद्य विदिताखिलव
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स्तुसार, संसारतारक विजो जुवना धिनाथ ॥ त्रायस्व देव करुणाह्रद मां पुनीहि, सीदंतमद्य नयदव्यस नांबुराशेः ॥४१॥ यद्यस्ति नाथ नवदंधिसरोरुहाणां नक्तेः फलं कि. मपि संततिसंचितायाः ॥ तन्मे त्व देकशरणस्य शरण्य लूयाः, स्वामी स्वमेव जुवनेऽत्र नवांतरेऽपि ॥४॥ श्वं समाहितधियो विधिवजिनेछ, सांस्रोबसत्पुलककंचुकितांगनागाः ॥ त्वबिंबनिर्मलमुखांबुजबलदा, ये संस्तवं तव विनो रचयंति नव्याः ॥ ४३ ॥ आर्या ॥ जननयनकुमुद
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चंद्र, प्रत्नास्वराः ागसंपदो जुक्त्वा ॥ ते विगलितमलनिचया, अचिरा न्मादं प्रपद्यते ॥ युग्मम् ॥ ४४ ॥ इतिश्रीकल्याणमंदिरनामकं अष्टमंस्मरणं ॥७॥ ॥ अथ बृहच्छांतिस्तवनामकनवम
स्मरणप्रारंभः ।। ॥ नो नो नव्याः शृणुत वचनं प्रस्तुतं सर्वमेतत्, ये यात्रायां त्रि. जुवनगुरोराईतां नक्तिनाजः ॥ ते षां शांतिनवतु नवंतामहंदादिप्रता वा, दारोग्यश्रीधृतिमतिकरी क्वेश विध्वंसहेतुः ॥ १ ॥ गद्य॥ नो नो
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जव्यलोका इह हि जरतैरावत (व देहसंचवानां समस्ततीर्थकृतां जन्म न्यासनप्रकंपोनंतरमवधिना विका य सौधर्माधिपतिः सुघोषा घंटाचा लनानंतरं सकलसुरासुरेंडैः सह समागत्य सविनयमहनटारकं गृही स्वा गत्वा कनकाद्रिश्रृंगे विहितज न्मानिषेकः शांतिमुद्घोषयति य. था। ततोऽहं कृतानुकारमिति कृ. स्वा महाजनो येन गतः स पंथाः इति नव्यजनैः सह समेत्य स्नात्र पीठे स्नात्रं विधाय शांतिमुद्घोष यामि तत्पूजायात्रा स्नानादिमहो
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६५ त्सवानंतरमिति कृत्वा कर्ण दत्वा निशम्यतां निशम्यतां स्वाहा ॥ ॐ पूण्यादं पुण्यादं प्रीयंतां प्रीयतां जगवंतोदितः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिन स्त्रिलोकनाथा स्त्रिलोकमहिता त्रिलो कपूज्या स्त्रिलोकेश्वरा त्रिलोकोद्यो तकराः ॥ रुषन अजीत सं जव निनंदन सुमति पद्मप्रन सु पार्श्व चंद्रप्रन सुविधि शीतल श्रे यांस वासुपूज्य वीमल अनंत धर्म शांति कुंथ अरं मल्ली मुनिसुवृत नमि नेमि पार्श्व वईमानांता जि नाः शांता शांतिकरा जवंतु स्वादो
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॥ ॐ मुनयो मुनिप्रवरा रिपुविजय पुर्निदाकांतारेषु दुर्गमार्गेषु रक्षंतु वो नित्यं स्वाहा ॥ ॐ द्रीं श्री धृति मति कीर्त्ति कांति बुद्धि लक्ष्मी मे धा विद्या साधनप्रवेशन निवेशनेषु सुगृहीतनामानो जयंतु ते जिनेंद्राः ॥ ॐ रोहिणी प्रज्ञप्ति वज्रश्रंखला वज्रांकुशी प्रतिचक्रा पुरुषदत्ता काली महाकाली गौरी गांधारी सर्वास्त्रा महाज्वाला मानवी वैरुट्या अत्रुप्ता मानसी माहामानसी षो मश विद्यादेव्यो रकंतु वो नित्यं स्वा हा ॥ ँ याचार्योपाध्यायप्रनृति
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चातुर्वर्यस्यश्रीश्चमणसंघस्य शांति नवतु तुष्टिनवतु पुष्टिर्नवतु ॥ ॐ ग्रहाचं सूर्यागारक बुधबृहस्पात शुक्रशनैश्चरराहुकेतुसहिताः सलो कपालाः सोमयमवरुणकुबेरवास वादित्य स्कंदविनायकोपेताः ये चा न्येऽपि ग्रामनगरक्षेत्र देवताद यस्ते सर्वे प्रीयंतां प्रीयंतां अदीण कोशकोष्ठागोरा नरपतयश्च नवंतु स्वाहा ॥ ॐ पुत्र मित्र जात कनत्र सुहृद् स्वजनसंबंधिबंधुवर्गसहिता नित्यं चोमोदप्रमोदकारिण अ स्मिंश्च मंगलायतननिवासि
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साधुसाध्वीश्रावकश्राविकाणां रो गोपसर्गव्याधिःख दिदौर्मनस्योपशमनाय शांतिनवतु ॥ ॐ तुष्टिपुष्टिशझिवृद्धि मांगट्योत्स. वाः सदा प्राउजूतानि पापानि शा म्यंतु पुरितानि ॥ शत्रवः पराङमु खा नवंतु स्वाहा ॥ श्रीमते शांति नाथाय, नमः शांतिविधायिने ॥ त्रैलोक्यस्यामराधीश, मुकुटाच्यर्चि तांघ्रये ॥१ ॥ शांतिः शांतिकरः श्रीमान्, शांति दिशतु मे गुरुः ॥ शांतिरेव सदा तेषां,येषां शांति हे गृहे ॥२॥ उन्मृष्टरिष्टपुष्ट, ग्र
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हगतिपुःस्वप्नसुनिमित्तादि ॥ संपा दितहितसंप, नामग्रहणं जयति शांतेः ॥३॥ श्रीसंघजगजनपद, राजाधिपराज्यसन्निवेशानाम् ॥ गो ष्ठिकपुरमुख्यानां, व्याहरणैाह रेबांतिम् ॥ ४ ॥ श्रीश्रमणसंघस्य शांतिनवतु, श्रीपौरजनस्य शांतिर्न वतु, श्रीजनपदानां शांतिनवतु,श्री राजाधिपानां शांतिवतु, श्रीरोज्य सन्निवेशानां शांतिवतु, श्रीगोष्ठि कानां शांतिवतु. श्रीपुरमुख्याणां शांतिनवतु, श्रीब्रह्मलोकस्य शांति नवतु, ऊँ स्वाहा उँ स्वाहा उ श्री
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पार्श्वनाथाय स्वाहा ॥ एषा शांति प्रतिष्ठा यात्रा स्नात्राद्यवसानेषु शां तिकलशं गृहीत्वा कुंकुमचंदनकर्पू रागरुधूपवासकुसुमांजलिसमेतः स्ना चतुष्किकायां श्रीसंघसमेतः शु चिशुचित्रपुः पुष्पवस्त्रचंदनाजरणा लंकृतः पुष्पमालां कंठे कृत्वा शां तिमुद्घोषयित्वा शांतिपानीयं म स्तके दातव्यमिति ॥ नृत्यंतिनित्यं मणिपुष्पवर्ष, सृजति गायंति च मंगलानि ॥ स्तोत्राणि गोत्राणि प वंति मंत्रान्, कलयाणजाजो हि जि नाजिषेके ॥ १ ॥ शिवमस्तु सर्वज
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गतः, परहितनिरता जवंतु नूतग: णाः ॥ दोषाः प्रयांतु नाशं, सर्वत्र सुखी जवंतु लोकाः ॥ २ ॥ श्रहं तिवयरमाया सिवा देवी तुझ नयर निवासिनी ॥ ह्म सिवं तुझ सि वं, सिवोवसमं सिवं जयतु स्वादा ॥ ३ ॥ उपसर्गाः क्षयं यांति, विद्यं ते विघ्नयः ॥ मनः प्रसन्नतामे ति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥ ४ ॥सर्व मंगल मांगल्यं सर्वकल्याणकारणम्॥ प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शानम् ॥ ५॥ इति वृक्षांतिनामकं नवमस्मरणं समाप्तम् ॥ ॥
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॥ जयतिहुअण स्तोत्र.॥
जय तिहुश्रण वर कप्प-रुक्ख जय जिण धन्नंतरि, जय तिहुश्रण कहाण-कोस पुरि करि केसरि; तिहुश्रण जण अविलंघियाण जु वण त्तय सामिश्र, कुणसु सुहा जिणेस-पासु यंत्रण पुर टिठय॥१॥ तश् समरंत लहति फत्ति वर पुत्त कलत्तर, धएण सुवएण हिरएणपुरण जण झुंजश् रजा, पिरकश मुरक असंख-सुरक तुह पास पसा श्ण, श्य तिहुण वर कप्प रुक सुरकर कुण मह जिण ॥२॥ जर ज.
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७३ जार परिजुएण-करण नवु सु कुट्रिवण, चक् क्खीण खएणखुणण नर सल्लिय सूलिण; तुह जिण सरणरसाय-णेण लहु हुँति पुणगुणव, जय धन्वंतरि पास. महवि तुह रोगहरो नव ॥३॥ विजा जोइस मंत तंत सिभिल अपय त्तिण,जुवणऽब्जुन अविह-सिद्धि सिज्जहि तुह नामिण; तुह ना मिण अपवित्त वि जण होइ पवित्तल, तं तिहुअण-कवाण-कोल तुह पास निरुत्तम ॥खुद्द पउत्तर मंत-तंत जंता विसुत्तर, चर थिर
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गरल गहुग्ग-खग्ग रिउ वग्गु वि गंज; दुत्थिय सत्य णत्थ- घत्थ नित्थर दय करि, पुरियर हरज स पास देउ पुरिय करि केसरि ५ तुह आणा थंनेइ- नीम दप्पुधुर सुरवर रकस जरक फणिंद-विंद चोरानल जलहर; जलघर चारि रद्द - खुद्द प्रसु जोइणि जोश्य, श्य तिहुश्रण विलंघियाण जय पास सुसामि य. ६ पत्थिय अत्थ छाणत्थ तत्थ जत्तिब्जर निब्नर, रोमंचचिय चारु कार किन्नर नर सुरवर; जसु सेवहि कम कमल
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gu जुयल पकालिय कलिमलु सो जु वणत्तय सामि-पास मह मद्दउ रिउ. बलु. जय जोश्य मण कमल न सल नय पंजर कुंजर, तिहुअण जण अणंद-चंद जुवण तय दिणयर; जय म मेशणि वारि वाह जयजंतु पियामह, थनणय दिव्य पास-नाह नाहत्तण कुण मद. ७ बहु विहु वन्नु अवन्नु सुन्नु व निज बप्पन्निहि, मुरक धम्म का मत्थ-काम नर नियनिय सस्थिहि; जं फायहि बहु दरिस पत्थ बहु नाम पसिद्धउ, सो जोश्य मण क
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मल-जसल सुहु पास पवन ॥ ९ ॥ जय विब्जल रण ऊणिर जस थ रहरिय सरीरय, तर लिय नयण विसुन्न सुन्न गग्गर गिर करुणय; त सहसति सरंत हुंति नर नासिय गुरुदर, मह विज्जवि सिज्जसइपास जय पंजर कुंजर ॥ १० 11 प पासि वियसंत नित्त पसंत प (वत्तिय, बाह पवाह पवूढ - रूढ
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दाह सुपुलश्य; मन्नइ मन्नु सजन्नुपुन्नु अप्पा सुरनर, श्य तिहु अण आणंद चंद जय पास जिणे सर ॥ ११ ॥ ॥ तुह कल्ला महेसु
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घंटटंकारऽवपिब्लिय, वन्दिर मल म हब-नत्ति सुरवर गंजुलिय; हब्बु फलिय पवत्त यति जुवणेवि महू सव, श्य तिहुश्रण आणंद-चंद जय पास सुहब्नव ॥ १२ ॥ नि म्मल केवल किरण-नियर विहुरिय तम पहयर, दसिय सयल पयत्थ सत्थ वित्थरिय पहायर; कलि क. लुसिय जण धूय-लोय लोयणह अ गोयर, तिमिर निरु हर पासनाह नुवणत्तय दिणयर ॥ १३ ॥ तुह समरण जल वरिस-सित्त मा. णव म मेणि, अवरावर सुहुम.
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स्थ-बोह कंदल दल रेहणि; जाय फल जर जरिय-हरिय पुद दाह अणोम, श्य मेणि वारि
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वाह दिस पास मई मम ॥ १४ ॥ कय विकल कल्लाप वलि उल्लू रिय दुह वणु, दाविय सग्ग पवग्गमग्ग डुग्गइ गम वारण; जय जं तुह जणणण-तुल जं जलिय हि याहु, रम्मु धम्मु सो जयज- पास जय जंतु पियामहु ॥ १५ ॥ जुव पारएण निवास-दरिय परदरिसण देवय, जोइणि पूयण खित्त वाल खुद्दासुर पसुवय; तुह उत्तव सुन
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जए ट्रम्-सुट्नु अविसंटवुलु चिटहि, श्य तिहुअण वण सीह पास पा वा पणासहि ॥ १६ ॥ फणि फण फार फुरंत रयणकर रंजिय नद यल-फलिणी कंदल हल तमाल निलुप्पल सामल; कमगसुर उबस. ग्ग-मग्ग संसग्ग अगंजिय, जय प. चरक जिणेस-पास थंनणय पुर ट्रहिय ॥ १७ ॥ मह मणु तरलु प. माणु-नेय वायावि विसंटवुनु, नेय तणुरऽवि अविणय-सहा अलस विहलंथतु; तुह मादप्यु पमाणुदेव कारुणण पवित्तल, श्य म मा
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अवहीरि-पास पालिहि विलवं तन ॥१७॥ किं किं कपिज, नेय कलुणु किं किं व न जंपिउ, किं वन चिटिग्ज, किट्रवु-देव दीणय मऽवलं बिज, कासु न किय निप्फबललि अम्हेहि हत्तिहि, तहवि न पत्तन ताणु-किंपि पर पहु परि चत्तिहि ॥ १७ ॥ तुहु सामिन तुहु माय-बप्पु तुहु मित्त पियंकरु, तुहु गश् तुहु मइ तुहुजि-ताणु तुहु गुरु खेमंकर; हवं ह नर ना रिउ-वराउ राउ निब्जग्गह, लो ण तुह कम कमल-सरणु जिण
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पालहि चंगह ॥ २० ॥ पश् किवि कय नीराय लोय किवी पाविय सु हसय, किवि मश्मंत महंत-केवि किवि साहिय सिव पय; किवि गं जिय रिज्वग्ग-केवि जसधवालय नूयल, मश् अवहीरहि केण-पास सरणागयवबल ॥१॥ पञ्चुवया. र निरीह-नाह निप्पन्न पईयण, तुह जिण पास परोव-यार करणिक परायण, सत्तु मित्त समचित्त वि त्ति नयनिंदय सममण, मा अवही रिय ऽजुग्ग-उविमई पास निरंजण ॥शाहज बहुविहदतत्त-गत्तु तु.
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वही
ह दुह नासण परु, हन सुयणह करुणिक-वाणु तुहु निरु करुणापरु; दउ जिए पास सामि सालु तुह तिहुण सामिय, जं रहि मईऊखत इय पास न सो हिय ॥ २३ ॥ जुग्गाऽजुग्ग विजा ग-नाह नहु जोयहि तुह सम, जु वणुवयोर सहाव-जाव करुणा रस सत्तम, सम विसम किं घणु-निय 5 जुवि दाह समंनन, श्य दुहि बंधव पास-नाह मर पाल थुतन ॥ २४ ॥ नय दोषह दीपयुं-मुयवि अन्नवि किवि जुग्गय, जं जोइवि
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उबयार करहि उवयार समुद्रयः दीपद दीगु निहीणु-जेण तई ना हिए चत्तल, तो जुग्गन श्रहमेव पोस पालहि मइ चंगन ॥ २५ ॥ अह अनुवि जुग्गय विसेसु किवि मन्नहि दीपद, जं पासिविजवयारुकरइ तुह नाह समग्गह; सुच्चिय किल कल्लाए - जेण जिण तुम्ह प सीयह, किं अनि तं चैव देव मा म अहीरह ॥ २ ॥ तुह पत्थ ए न हु होइ-विहलु जिए जापन किं पुष, हन पुस्किय निरुसत्त• चत एकहु जस्सुयमय; तं मन्नत
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४ निमिसेण एन एजवि जश् लब्ज सच्चं जं जुस्किय व-सेण किं जंबरु पञ्चश् ॥२७॥ तिहुअण सामिय पास नाह मश् अप्पु पयासिन, कि जान जं निय स्व-सरिसु न मुणन बहु जंपिन; अन्नु न जिण जग्गि तुद समो वि दखिन्नु दयसन, जइ अवगन्नसि तुह जि-अहह कह हो सु दयासन ॥ ॥ ज तुहरु विण किण व-पेय पाश्ण वेल विय उ, तुवि जाण जिण पासि तुह्मि इं अंगीकरित; श्य मह इस्थित जं न हो। स तुह उहावणु, रक्खं
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खंतह निय कित्ति-णेय जुझार अव हीरणु ॥ श्ए ॥ ए हमहारिय जत्त देव श्हु न्हवण महुसउ, जं अण लिय गुणगहण-तुह्म मुणि जण अ णिसिझन; एम पसीय सुपास-नाह थंजण पुरठिय; श्य मुणिवरु सि रि अजय देउ विन्नव अणि दिय. ___ इति श्री जयतिहुअणस्तोत्रं संपूर्णमि ति भद्रं भवतु सकलस्य जगतः शान्तिः ॥
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॥ श्री॥ ॥ जिनमञ्जरस्तोत्रं ॥ ॥ कमलप्रभाचार्यविरचितम् ॥ ॐ श्री श्री अँई अन्नयो न मोनमः ॥ ॐ श्री श्री अँई सि केन्यो नमोनमः ॥ उ जी श्री अँई आचार्येच्यो नमोनमः ॥ ॐ जी श्री अँई उपाध्यायेच्यो नमो नमः ॥ ॐ श्री श्री अँह गौतमप्रा मुखसर्वसाधुन्यो नमोनमः ॥ १ ॥ एष पश्चनमस्कारः, सर्व पापदयं करः॥ मङ्गलानां च सर्वेषां, प्रथम नवति मङ्गलम् ॥ २॥ ॐ श्रीं श्री
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जये विजये, अई परमात्मने नमः॥ कमलप्रनसूरीन्डी, नाषते जिनप अरम् ॥ ३ ॥ एकनक्तोपवासेन, त्रिकालं यः पठेदिदम् ॥ मनोऽनि लषितं सर्व, फलं स लजते ध्रु वम् ॥ ४॥नूशय्याब्रह्मचर्येण, क्रो धलोनविवर्जितः ॥ देवताग्रे पवि त्रात्मा, षण्मासैलेजते फलम् ॥ए॥ अर्हन्तं स्थापयेन्मूर्तीि, सिहं चतु ललाटके ॥ आचार्य श्रोत्रयोर्मध्य उपाध्यायं तु नासिके ॥ ६ ॥ सा धुवृन्दं मुखस्याग्रे, मनःशुहिं वि धाय च ॥ सूर्यचन्द्रनिरोधेन, सुधीः
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सर्वार्थ सिद्धये ॥ ७॥ दक्षिणे मद नद्वेषी, वामपार्श्वे स्थितो जिनः॥ अङ्गसंधिषु सर्वज्ञः, परमेष्ठी शिवं करः ॥ ॥ पूर्वाशांच जिनो रदेदाग्नेयीं विजितेन्द्रियः॥दक्षिणाशां परब्रह्म, नैईती च त्रिकाल वित्॥ए। पश्चिमाशां जगन्नाथो, वायव्यां प रमेश्वरः ॥ उत्तरी तीर्थकृत्सर्वामी शानेऽपि निरञ्जनः ॥१०॥ पातालं नगवानहन्नाकाशं पुरुषोत्तमः ॥ रोहिणीप्रमुखा देव्यो, रक्षन्तु स कलं कुलम् ॥ ११॥ षनो मस्तकं रक्षे-दजितोऽपि विलोचनम् ॥ सं
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जवः कर्णयुगलेऽनिनन्दनस्तु ना सिके ॥ १२ ॥ उष्ठौ श्रीसुमती रदे दन्तान्पन्नप्रनो विजुः ॥ जिह्वां सु. पार्श्वदेवोऽयं, तालु चन्द्रप्रनानि धः॥ १३ ॥ कंठं श्रीसुविधी रक्षेद्, हृदयं श्रीसुशीतलः ॥ श्रेयांसो बा हुयुगलं, वासुपूज्यः करध्यम् ॥१४॥ अलीविमलो रक्षेदनन्तोऽसौ न खानपि ॥ श्रीधर्मोऽप्युदरास्थीनि श्रीशान्ति निमंमलम् ॥ १५ ॥ श्रीकुन्थुर्गुह्यकं रक्षेदरो लोमकटी तटम् ॥ मलिरूरुपृष्ठवंशं, जङ्ग च मुनिसुव्रतः ॥ १६ ॥ पदाङ्गली मी
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र- श्री ने मिश्चरणद्वयम् ॥ श्रीपार्श्व नाथः सर्वाङ्ग, वर्धमान श्चिदात्म कम् ॥ १७ ॥ पृथिवीजल तेजस्क वाय्वाकाशमयं जगत् ॥ रक्षेदशेष पापेज्यो, वीतरगो निरञ्जनः ॥१८॥ राजद्वारे स्मशाने च संग्रामे शत्र संकटे ॥ व्याघ्रचौरा निसर्पादिनूत प्रेतनयाश्रिते ॥ १९ ॥ काले म रणे प्राते, दारिद्यापत्समाश्रिते ॥
पुत्रत्वे महादु:खे, मूर्खत्वे रोग पीमिते ॥ २० ॥ माकिनी शाकिनी ग्रस्ते, महाग्रहगणार्दिते ॥ नघुत्ता १ महादोषे
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रेऽध्ववैषम्ये, व्यसने चापदि स्म रेत् ॥ १॥ प्रातरेव समुदाय, यः स्मरेजिनपञ्जरम् ॥ तस्य किञ्च नयं नास्ति, लजते सुखसंपदः।श जिनपञ्जरनामेदं, यः स्मरेदनुवास रम् ॥ कमलप्रजराजेन्द्र-श्रियं स लनते नरः॥२३॥ प्रातः समु बाय पठेत्कृतज्ञो, यः स्तोत्रमेत जि नपारस्य ॥ श्रासादयेबीकमलप्रनाख्यं,लक्ष्मीमनोवाञ्छितपूरणाय ॥ श्रीरुउपल्लोयवरेण्यगले, देवप्रना. १ आ श्लोक मूल पुस्तकमां नथो परं
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चार्यपदाब्जहंसः॥वादीन्द्रचूमामणिरेष जैनो, जीयागुरुः श्रीकमलप्रनाख्यः ॥ इति श्रीकमलप्रनाचा. र्यविरचितं सर्वरक्षाकरं श्रीजिनपञ्जरस्तोत्रं समाप्तम् ॥
तु कमलप्रभाचार्यना शिष्ये बनावेल छे एम लागे छे.
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॥ श्री॥ ॥ ग्रहशान्तिस्तोत्रम् ॥ जगजुरं नमस्कृत्य, श्रुत्वा सशुरुजाषितम् ॥ ग्रहशान्ति प्रवदयामि जव्यानां सुखहेतवे ॥ १ ॥ जन्म लग्ने च राशौ च, यदा पीड्यन्ति खे. चराः॥ तदा संपूजयेद्धीमान्, खे चरैः सहिताजिनान् ॥२॥ पुष्पैगन्धैधूपदीपः, फलनैवेद्यसंयुतैः ॥ वर्णसदृशदानैश्च वस्त्रैश्च दक्षिणान्वितैः ॥३॥ पद्मप्रनश्च मातमश्चन्ऽश्चन्द्रप्रनस्य च ॥ वासुपूज्यो सुतश्च बुधोऽप्यष्टजिनेश्वराः ॥४॥
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ए४ विमलालन्तधर्माऽराः, शान्तिः कु. न्थुन मिस्तथा ॥ वर्धमानो जिनेन्द्राणां, पाददझैबुधो न्यसेत् ॥५॥ ऊषनाजितसुपाश्चिानिनन्दनशीतलौ ॥ सुमातः संनवस्वामी,श्रेयांसश्च बृहस्पतिः॥६ ॥ सुविधेः कथितः शुक्रः सुव्रतस्य शनैश्चरः ॥ नेमिनाथस्य राहुः स्यात्, केतुः श्रीमहिपार्श्वयोः ॥ ७॥ जिनानामग्रतः कृत्वा,ग्रहाणां शान्तिहेतवे ॥ नमस्कारशतं नक्त्या, जपेदष्टोत्तरं शतम् ॥ ७ ॥ जज्बाहुरुवाचैवं, पश्चमश्रुतकेवली ॥ विद्याप्रवादतःपू.
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वदि, ग्रहशान्तिविधिं शुनम् ॥ ९ ॥ तँ डॉ श्री ग्रहाश्चन्द्रसूर्याङ्गा रकबुधबृहस्पतिशुक्रशनैश्चरराहुकेतुसहिताः खेटा जिनपतिपुरतो व स्तिष्ठन्तु मम धनधान्यजयविजय - सुखसौजाग्यधृति किर्तिकान्तिशांतितुष्टिपुष्टबुद्धिलक्ष्मी धर्मार्थकाम
दाः स्युः स्वाहा ॥ ॥ इतिश्रीग्रहशान्तिस्तोत्रं समाप्तम् ॥
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॥ अथश्रीपार्श्वनाथस्य ॥ ॥मन्त्राधिराजस्तोत्रम् ॥
॥उँ नमः सिद्धम् ॥ श्रीपार्श्वः पातु वो नित्यं, जिनः परमशंकरः ॥ नाथः परमशक्तिश्च, शरण्यः सर्वकामदः ॥ १॥ सर्वविनहरः स्वामी, सर्वसिफिप्रदायकः॥ सर्वसत्व हितो योगी, श्रीकरः परमार्थदः॥५॥ देवदेवः स्वयंसिद्धश्चिदानन्दमयः शिवः ॥ परमात्मा परब्रह्म, परमः परमेश्वरः ॥ ३ ॥ जगन्नाथः सुरज्येष्ठो, नूतेशः पुरु. षोत्तमः॥ सुरेन्यो नित्यधर्मश्च, श्री
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निवासः शुनार्णवः ॥४॥ सर्वज्ञः सर्व देवेशः, सर्वदः सर्वगोत्तमः ॥ सर्वात्मा सर्वदर्शी च, सर्वव्यापी जगङ्गुरुः ॥५॥ तत्त्वमूर्तिः परादित्यः परब्रह्मप्रका शकः ॥ परमेन्दुः परप्राणः, परमामृतसिद्धिदः ||६|| अजः सनातनः शमजुरीश्वरश्व सदाशिवः ॥ विश्वेश्वरः प्रमोदात्मा, क्षेत्राधीशः शुनप्रदः ७ साकारश्च निराकारः, सकलो निष्कलोऽव्ययः ॥ निर्ममो निर्विकारश्च, निर्विकल्पो निरामयः ॥ ८ ॥ अमरश्चा जरोऽनन्त, एकोऽनन्तः शिवात्मकः । । ७ लक्ष्यश्चाप्रमेयश्च, ध्यानलक्ष्योनि
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एट
रञ्जनः ॥ ए ॥ काराकृतिरव्यक्तो, व्यक्तरूपस्त्रयीमयः ॥ ब्रह्मद्वयप्रका शात्मा, निर्जयः परमाक्षरः ॥ १०॥दिव्यतेजोमयः शान्तः, परामृतमयो द्योऽनाद्यः परेशानः, पर
ऽच्युतः ॥
मेष्ठी परः पुमान् ॥ ११॥ शुद्धस्फटि कसंकाशः, स्वयंभूः परमाच्युतः ॥ लोकालोका
व्योमाकारस्वरूपश्च
वनासकः ॥ १२ ॥ ज्ञानात्मा परमानन्दः, प्राणारूढो मनःस्थितिः ॥ मनः साध्यो मनोध्येयो, मनोदृश्यः परापरः ॥ १३ ॥ सर्वतीर्थमयो नित्यः, सर्वदेवमयः प्रजुः ॥ जगवात् सर्वत
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uu वेशः शिवश्री सौख्यदायकः ॥ १४ ॥ इति श्री पार्श्वनाथस्य, सर्वज्ञस्य जगरोः ॥ दिव्यमष्टोत्तरंनामशतमंत्र प्रकीर्तितम् ||१५|| पवित्रं परमं ध्येयं, परमानन्ददायकम् ॥ जुक्तिमुक्तिप्रदं नित्यं पठते मङ्गलप्रदम् ॥ १६ ॥ श्रीम स्परमकल्याण सिद्धिदः श्रेयसेऽस्तु वः ॥ पार्श्वनाथ जिनः श्रीमान्, जग वान् परमः शिवः ॥ १७॥ धरणेन्द्रफस्त्रालंकृतो वः श्रियं प्रजुः ॥ द द्यात्पाद्मवतीदेव्या, समधिष्ठितशासनः ॥ १८ ॥ ध्यायेत्कमल मध्यस्थं, श्री पार्श्वजगदीश्वरम् ॥ ॐ श्रीं श्रीः डों
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समायुक्त, केवलज्ञानजास्करम् १७ पद्मावत्यान्वितं वामे, धरणेन्द्रेण दक्षिणे ॥ परितोऽष्टदलस्थेन, मन्त्रराजेन संयुतम् ॥२०॥ अष्टपत्त्रस्थितैः पञ्चनमस्कारैस्तथा जिः ॥ ज्ञानाद्यैवेष्टितं नाथं, धर्मार्थकाममोक्षदम् २१ शतषोडशदलारूढं, विद्यादेवी जिरन्वितम् ॥ चतुर्विंशतिपत्त्रस्थं, जिनं मातृसमावृतम् ॥ २२ ॥ मायावेष्टय त्र्यांग्रस्थं, कौकारसहितं प्रभुम् ॥ नवग्रहावृतं देवं, दिक्पालैर्देश निर्वृतम् ॥ २३ ॥ चतुष्कोणेषु मन्त्राद्यचतुर्बीजान्वितैर्जिनेः ॥ चतुरष्टदश
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१०१ छिति, द्विधासंडकैयुतम् ॥ २४॥ दिनु दकारयुक्तेन, विदिक्कु लाडि तेन च ॥ चतुरस्त्रेण वज्राइदिति तत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥ २५ ॥ श्रीपाश्व. नाथमित्येवं, यः समाराधये जिनम्॥ तं सर्वपापनिर्मुक्तं, जजते श्रीः शु. नप्रदा ॥२६॥ जिनेशः पूजितोजक्त्या, संस्तुतःप्रस्तुतोऽथवा ।। ध्यातस्त्वं यैः कणं वापि, सिद्रिस्तेषां महोदया ॥ २७ ॥ श्रीपाश्वेमन्त्रराजान्ते, चिन्तामणि गुणास्पदम् ॥ शान्तिपुष्टिकरं नित्यं, दुमोपवनाशनम् ॥ २ ॥ द्विसिकिमहा
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१०२ बुद्धिधृतिश्रीकान्तिकीर्तिदम् ॥ मृ. त्यंजयं शिवात्मानं, जपनान्नन्दिता जनः ॥२॥ सर्वकल्याणपूर्ण : स्याजरामृत्युविवर्जितः॥ अणिमादिमहासिद्धिं, लदजापेन चाप्नुयात् ३० प्राणायाममनोमन्त्रयोगादमृतमा स्मनि ॥ त्वामात्मानं शिवं ध्यात्वा, स्वामिन् सिध्यन्ति जन्तवः॥३१॥ह. र्षदः कामदश्चेति, रिपुनःसर्वसाख्यदः॥पातु वः परमानन्दलदणःसंस्मृ. तो जिनः ॥३॥ तत्वरूपमिदं स्तोत्रंसर्वमङ्गल सिद्धिदम्॥ त्रिसंध्यं यः प. ठेन्नित्यं, नित्यंप्राप्नोति स श्रियम्३३ इति श्रीपार्श्वनाथस्य मन्त्राधिराजस्तोत्रम् ॥
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॥अथ ऋषिमंगल स्तोत्र ॥
आयंतादरसंलद । मदरंवाप्य यस्थितं । अग्निज्वाला समंनाद । विदुरेखा समन्वितं ॥१॥ अग्निज्वा लासमाक्रांतं । मनोमल विशोधकं देदीप्यमानं हृत्पने । तत्पदं नौमि निर्मलं ॥॥ अर्ह मित्यदरंब्रह्म । वा चकंपरमेष्टिन : सिद्धचक्रस्यसको । सर्वतः प्रणिदधमहे ॥३॥ ॐ नमो हैव्य शेयः ऊँ सिकेन्योनमो नमः। ॐनमःसर्वसूरिज्यः। उपाध्या येच्यः नमः ॥॥ ॐ नमः सर्व
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१०४ साधुन्यः। ॐ ज्ञानेन्योनमोनमः । ॐ नम स्तत्वदृष्टिन्य । श्चारित्रेच्यस्तु उनमः ॥५॥ श्रेयसेस्तु श्रिये. स्त्वेत । दर्हदायष्टकंशुनं । स्थानेष्व ष्टसुविन्यस्तं । पृथग्बीजसमन्वितं ॥६॥आयंपदंशिखारदे । परंरदतु मस्तकं । तृतीयं रदेन्नेत्रे। तुर्यरदे चनासिकां ॥७॥ पंचमंतु मुखंरदेत षष्टरदेचघंटिकां। नान्यंतंसप्तमंरदे
देत्पादांतमष्टमं ॥७॥ पूर्वप्रण वतः सांत । सरेफोहयब्धिपंचषान् । सप्ताष्टदशसूर्याकान् । श्रितोबिंड
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१०५ स्वरान्पृथक् ॥॥ पूज्यनामादरा आद्याः। पंचातोशानदर्शन । श्चारि वेन्यो नमो मध्ये ऊँ। सांत सम लंकृतः॥१॥॥ ॐ । डाँ। डीएं।
।।।छौ।उ असियान साझानदर्शनचारित्रेच्यो छी नमः ॥ ॥ जंबूवृदधरोहीपः । दारोदधि समावृतः। अहंदाद्यष्टकैरष्ट । काष्टा धिष्टरलंकृतः॥११॥ तन्मध्य संगतो मेरु । कूटल दैरलंकृतः । उच्चैरुच्चैस्त रस्तार। स्तारामंमलमंमितः॥१२॥ तस्योपरिसकारांतं । बीजमध्यस्य
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१०६ सर्वगं । नमामि बिंबमाईत्यं । लक्षा टस्थं निरंजनं ॥१३॥ अक्षयंनिर्म लंशांतं । बहुलं जामयतोजितं । निरीहं निरहंकारं । सारं सारतरंघनं ॥१४॥ अनुहतंशुनं स्फीतं । सोवि कं राजसंमतं । तामसंचिरसंबुद्धं । तैजसंशर्वरीसमं ॥१५॥ साकारंच निराकारं । सरसं विरसंपरं । परापरं परातीतं । परंपर परापरं ॥१६॥ ए कवर्ण द्विवर्णच । त्रिवर्णतुर्यवर्णका पंचवर्ण महावर्ण । सपरंच परापरं ॥१७॥ सकलं निष्कलं तुष्टं निवृतं
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ब्रांतिवार्जतं । निरंजनं निराकारं । निर्लेपं वीतसंश्रयं ॥१॥ ईश्वरं ब्र ह्मसंबुद्धं । बुद्धं सिद्धंमतंगुरु । ज्यो तीरूपं महादेवं । लोकालोक प्रका शकं ॥१॥ अहदाख्यस्तु वर्णातः सरेफोबिंयुमंमितः ॥ तुर्यस्वरसमा युक्तो॥ बहुधानादमातलितः ॥२०॥ अस्मिन्बीजे स्थिताःसर्वे । ऋषना द्याजिनोतमा : । वर्णेनिजैनिजैर्युक्ता ध्यातव्या स्तनसंगताः॥१॥नाद श्वप्रसमाकारो । बिर्नीलसमप्रतः । कलारुणसमासांत । स्वर्णानसर्व
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तोमुखः ॥ २२॥ शिरःसंलीन ईकारो । विनीलोवर्णतः स्मृतः । वर्णानु सारसंलीनं । तीर्थकुन्मं मलं स्तुमः ||२३|| चंद्रप्रन पुष्पदंतौ । नादस्थि तिसमाश्रितो । बिंदुमध्यगता नेमि । सुत्रतौ जिनसत्तमौ ॥ २४ ॥ पद्मप्र वासुपूज्यौ । कलापदमधिष्ठितौ । शि रई स्थितिसंलीनौ । पार्श्वमल्ली जिनो तमौ ॥ २५ ॥ शेषास्तीर्थकृतः सर्वे । दरस्याने नियोजिताः । मायाबीजा दरंप्राप्ता । चतुर्विंशतिरतां ॥ २६ ॥ गतरागद्वेषमोहाः । सर्वपापविवर्जि
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ताः । सर्वदाः सर्वकालेषु तिजवंतु जिनोत्तमोः ॥ २७ ॥ देवदेवस्ययश्च क्रं । तस्य चक्रस्य याविना । तयाचा दित सर्वाङ्ग । मामांहिनस्तु माकि नि ॥२॥ देवदेवस्य | मामांहिन स्तु राकिनी ||२|| देवदे० । मामां हिनस्तु लाकिनी ॥ ३० ॥ देव० । मा मांहिनस्तु काकिनी ॥ ३२ ॥ देवदे मामांहिनस्तुशाकिनी ॥ ३२ ॥ देव० | मामांहिनस्तु हाकिनी ॥ ३३ ॥ देव० । मामांहिनस्तु याकिनी ॥ ३४॥देव० | मामांहिं संतुपगाः ॥ ३५ ॥ देव० ।
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मामांहिंसंतु हस्तिनः ॥३६॥ देव० । मामांहिंसंतु राक्षसाः॥३७॥ देव । मामांहिंसंतुवएयः ॥३॥ देव । मामांहिंसंतु सिंहकाः ॥३णा देव। मामांहिंसंतु पुर्जनाः ॥४०॥ देव । मामांहिंसंतु चूमिपाः॥४१॥ श्रीगो तमस्ययामुद्रा। तस्यायाविलब्ध यः।तालि रज्युद्यतज्योति । रहंस वनिधीश्वराः ॥४॥ पातालवासिनो देवा । देवानूपीउ वासिनः । खर्वा सिनोपि ये देवाः । सर्वे रदंतु मामि तः ॥४३॥ येऽवधिलब्धयो येतु । प
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१११ रमावधिलब्धयः । ते सर्वे मुनयोदे वाः । मांसं रदंतु सर्वदा ॥४॥ जनानूतवैतालाः । पिशाचामुजला स्तथा । ते सर्वेप्युपशाम्यतु । देवदेव प्रनावतः ॥४५॥ ॐ जी श्रीश्च धृ तिर्लदमी । गौरी चंमी सरस्वती । जयांबा विजयानित्या । क्विन्ना जि ता मदवा ॥४३॥ कामांगा काम बाणाच । सानंदानंदमालिनी । मा या मायाविनी रौद्री । कला काली कलि प्रिया ॥४७॥ एताः सर्वा म हादेव्यो । वर्ततेयाजगत्त्रये । मा
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सर्वाःप्रयतु । कांतिकीर्तिधृतिमार्तं ॥४॥ दव्यो गोप्यः सः प्राप्यः। श्रीऋषिमंमलस्तव । जाषितस्तीर्थ नाथेन । जगत्त्राणकृतेनघः॥४॥ रणेराज कुलेवन्हौ । जलेजुर्गे गजे हरौ । श्मशाने विपिने घोरे । स्मृतो रदति मानवं ॥५॥ राज्य व्रष्टा निजं राज्यं । पद व्रष्टा निजं पदं । लक्ष्मी व्रष्टानिजां लक्ष्मी प्राप्नुवंति न संशयः ॥५१॥ नार्या र्थी लनते नार्या । पुत्रार्थी लनते सुतं । वित्तार्थी लजते वित्तं । नरः
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स्मरण मात्रतः ॥ ५२ ॥ स्वर्णेरुप्पे पट्टे कांस्ये । लिखित्वायस्तु पूजयेत् । तस्यैवाष्टमहासिद्धि । गृदेवसति शाश्वती ॥५३॥ सूर्य पत्रे लिखित्वेदं । गलके मूर्द्धनि वा जुजे । धारितं सर्वदा दिव्यं । सर्वजीति विनाशकं ॥ ५४|| नूतैः प्रेतैर्यधैर्यः । पिशाचैर्मु फलै मलैः । वातपित्तकफोडकै । र्मुच्य ते नात्र संशयः ॥ ५५॥ नूर्भुवः स्वस्त्र यीपीठः । वर्तिनः शाश्वताजिनः । तैः स्तुतै वैदितै ईष्टे । र्यत्फलं तत्फलं श्रुतौ ॥ ५६ ॥ एतगोप्यं महास्तोत्रं
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११४ । नदेयं यस्यकस्यचित् । मिथ्यात्ववा सिने दत्ते । बालहत्यापदेपदे ॥७॥
आचाम्लादितपःकृत्वा । पूजयित्वा (जनावलीं। अष्टसाहस्त्रिको जापः। कार्यस्त सिधिहेतवे ॥५॥ शतम ष्टोत्तरंप्रात । उँपति दिनेदिने । ते षांनव्याधयोदेहे।प्रनवंति नचापदः ॥ ५ए ॥ अष्टमासावधियावत् । प्रातःप्रातस्तुयःपठेत् । स्तोत्रमेतन्म हातेजो । जिनबिंबंस पश्यति॥६॥ दृष्टे सत्यहतोबबे । नवेसप्तमके ध्रुवं । पदंप्राप्नोतिशुद्धात्मा । परमानंद
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नंदितः ॥ ६१॥ विश्ववंद्योजवेध्या ता । कल्याणानि चसोश्नुते । गत्वा स्थानपरंसोपि। नूयस्तु न निवर्त्तते ॥६॥ इदं स्तोत्रं महास्तोत्रं । स्तु तिनामुत्तमंपरं । पठना स्मरणा जापा बन्यते पदमुत्तमं ॥६३॥ क्षति श्रीऋषिमंमलस्तोत्रं ॥ ॥ क्षेपक श्लोकान्निराकृत्यमूल यंत्रकल्पानु सारेण । लिखितं । गणिःश्रीक्षमाकल्याणोपाध्यायैः । तस्योपरिम यापि लिखितं इदं स्तोत्रं ॥
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११६ जिनसहस्रनाम लघु स्तोत्र.
नमस्त्रिलोकनाथाय । सर्वज्ञाय महात्मने । वदे तस्यैव नामानि । मोदयसौख्यानिलाषया ॥१॥ नि मलःशाश्वतो शुद्धः । निर्विकल्पो निरामयः । निःशरिरो निरातको। सिकः सूमो निरंजनः ॥२॥ निष्क लंको निरालंबो। निर्मोहो निर्मलो त्तमः । निर्जयो निरहंकारो। निर्वि कारो थनिक्रियः॥३॥ निर्दोषो नि रुजःशांतः। नियो निर्ममःशिवः। निस्तरंगो निराकारो। निष्कमों नि
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११७ कलपनुः॥४॥निर्वादो निरुपज्ञा नः । निरागो निरघोजिनः। निःश. ब्दःप्रतिमश्लेष्टः । उत्कृष्टो ज्ञानगो चरः॥५॥ निःसंगत् प्राप्तकैवल्यो। नैष्टकः शब्दवर्जितः। अनिंद्योमहा पूतात्मा । जगशिखर शेखरः॥६॥ निःशब्दो गुणसंपन्न । पापताप प्रणाशनः । सोपियोगात् शुनंप्राप्तः । कर्मयोतिबलावहः ॥ ७॥ अजरो श्रमरः सिकः। अर्चित अक्षयोविजुः । अमृतः अच्युतोब्रह्म। विष्णुरीश प्रजापति ॥ ७ ॥ अनिंद्यो विश्वनाथ
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१२ श्च । अजो अनुपमोनवः। अप्रमेयो जगन्नाथ । बोधरूपो जिनात्मक;॥ पाअव्ययः सकलाराध्यो। निष्पन्नों ज्ञानलोचनः । अबेयो निर्मलो नि. त्य; । सर्वसत्यविवर्जितः ॥ १० ॥ अजेयः सर्वतोनऽः। निष्कषायो जवांतकः । विश्वनाथः स्वयंबुझः । वीतरागोजिनेश्वरः ॥१९॥ अंतको सहजानंदः। अवाङमानसगोचरः । असाध्यःशुमश्चैतन्यः कर्म नोकर्म वर्जितः॥१॥ अनंतो विमल ज्ञानी । स्पृहीश्च निष्प्रकाशकः । कर्मा
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११ जितो महात्मानः । लोकत्रयशिरो मणिः ॥१३॥ अव्याबाधो वरःशंजुः । विश्ववेदी पितामहः। सर्वचूतहि तोदेव । सर्वलोकसरण्यकः ॥१४॥ यानंदरूपचैतन्यो । जगवां स्त्रिजग गुरुः । अनंतानंतधीशक्तिः । सत्य व्यक्तव्य यात्मकः ॥१५॥ अष्टकर्म विनिर्मुक्तः । सप्तधातुविवर्जित । गौरवादित्रयापूरः । सर्वज्ञानादिसंयुतः ॥ १६ ॥ अजयः प्राप्तकैवल्यः । निर्माणो निरपेदकः । निष्कलं केवलझानी। मुक्तिसौख्यप्रदायकः
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१२० ॥ १७ ॥ अनामयो महाराध्यो । वरदो ज्ञानपावकः। सर्वेशःसत्सु. खावासः । जिनेप्रोमुनिसंस्तुतः ॥ १७ ॥ अन्यूनपरमज्ञानी । विश्वतत्वप्रकाशकः। प्रबुको नगवान्नाथः । प्रस्तुत; पुण्यकारकः ॥ १ ॥ शंकरः । सुगतो रोषः। सर्वज्ञो मदनांतकः । ईश्वरो जुवनाधीशः । सचित; पुरुषोत्तमः ॥२॥ सदो. जातमहात्मानं । विमुक्तो मुक्तिव धनः । योगींद्रो नादिसंसिद्ध । निरीहो ज्ञानगोचरः ॥११॥ सदा
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शिवां चतुर्वत्कः । सत्सौख्य त्रिपुरातकः । त्रिनेत्र, त्रिजगत्पूज्यः । कल्या कोष्टमूर्तिकः ॥२२॥ सर्वसाधुज नैवेद्यः । सर्वपापविवर्जित । सर्वदें वाधिकोदेवोः । सर्वभूत हितंकरः ॥ २३ || स्वयं विद्यो महात्मानं । प्रसि द्धः पापनाशनः । तनुमात्रश्चिदानंदः | चैतन्यश्चैत्यवैजवः ॥ २४॥ सकला तिशयोदेव । मुक्तिस्थोमहतामहः | मुक्तिकार्याय संतुष्टो । निरागःपर मेश्वरः ||२५|| महादेवो महावीरो | महामोह विनाशकः । महाजावो
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१२२ महादर्शः । महामुक्तिप्रदायकः ॥ २६ ॥ महाज्ञानी महायोगी । म. हातपो महात्मकः । महाईको महावीयों । महांतिकपद स्थितः २७ ॥ महापूज्यो महावंद्यो । महा विघ्नविनाशकः । महासौख्यो महा पुंसो । महामहिमअच्युतः ॥२॥ मुक्तामुक्तिजसंबोधः । एकानेकवि निश्चलः।सर्वबंधविनिर्मुक्तो। सर्वलो कप्रधानकः ॥रए॥ महाशूरो महा धीरो । महायुःखविनाशकः । महा मुक्तिप्रदोधीरोमहाहृयो महागुरु :
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१२३ ||३०|| निर्मारोमार विध्वंसी । निकामोविषयाच्युतः । जगवंतो महाशांतो । शांतिकल्याणकारकः ॥ ३१ ॥ परमात्मा परंज्योतिः । पर मेष्टी परमेश्वरः । परमात्मापरानं दोः । परंपरम आत्मकः ॥ ३२ ॥ प्रस्तुतानंनविज्ञानी । सख्यानिर्वा णसंयुतः । नाकृतिं नादरोवर्णी । व्योमरूपो जितात्मकः ॥ ३३ 11 व्यक्ताव्यक्तजसंबोधः । संसारछेद कारणः | निरवद्योमहाराध्यः । कर्म जिद्धर्म नायकः ॥ ३४ ॥ बोधस
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सुजग;द्यो । विश्वात्मा नरकांतकः । स्वयंनू पापहृत्पूज्यः । पुनीतो विनवस्तुतः ॥ ३५ ॥ वर्णातीतो महातीतो । रूपातीतो निरंजनः । अनंतज्ञानसंपूर्णो । देवदेवेशनाय कः ॥ ३६ ॥ वरेण्योजव विध्वंसी । योगिनांझानगोचरः । जन्ममृत्यु जरातीतः । सर्वविघ्नहरोहरः॥३७॥ विश्वदृक्तब्यसंवंद्यः । पवित्रोगुण सागरः । प्रसन्नः परमा राध्यः लो कालोकप्रकाशकः ॥३०॥ रत्नगों जगत्स्वामी । इंद्रवंद्यःसुरर्चितः ।
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१२५ निष्प्रपंचो निरातको । निःशेष क्वेश नाशकः ॥३॥ लोकेशो लोकसंसे व्यो । लोकालोक विलोकनः । लोकोत्तमो त्रिलोकेशो । लोकाग्र शिखरस्थितः ॥ ४० ॥ नामाष्टकस हस्राणि । ये पठन्ति पुनः पुनः। ते निर्वाणपदयांति । मुच्यतेनात्र सं शयः ॥४१॥ ॥ इति नद्रबाहुस्वामिना विरचितं
लघुसत्रनाम संपूर्णम् ॥
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॥श्री वीतरागाय नमः ॥ ॥ श्रीतत्वार्थसूत्रम् ॥ ॥ अथ प्रथमोऽध्यायः॥
सम्यग्दर्शनझानचारित्राणिमो दमार्गः १ । तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्द र्शनम् । तन्निसर्गादधिगमाद्वा ३। जीवाजीवाश्रवबंधसंकर निर्जरामो दास्तत्वम् ४ । नामस्थापनाव्य नाव तस्तन्न्यासः ५ । प्रमाणनयैर धिगमः ६ । निर्देशस्वामित्वसाधना धिकरणस्थितिविधानतः । मति श्रुतावधिमन : पर्यायकेवलानि ज्ञा
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१२७ नम् । सत्संख्यादेत्रस्पर्शनकाला तर नावारूपबहुत्वैश्च ए। तत्प्रमाणे १० । आयेपरोक्षम् ११ । प्रत्यक्षम न्यत् १२ । मतिस्मृतिसंझाचिंतानि निबोध इत्यनर्थातरम् १३ । तदिजियानियिनिमित्तम् १४ । अवग्रदे हापायधारणाः १५ । बहुबहुविध क्षिप्रानिश्रितासंदिग्धधृवाणां सेतराणाम् १६ । अर्थस्य १७ । व्यंजन स्यावग्रहः १७ । न चकुरनिप्रिया ज्याम् १ए । श्रुतं मतिपूर्व ड्यनेक छादशनेदम् २० । द्विविधोऽवधि:
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२१ । जवप्रत्ययो नारकदेवानाम्१२ | यथोक्त निमित्तः षमविकल्पः शेषा णाम् २३ । जुविपुलमती मनः पर्यायः २४ । विशुद्धयप्रतिपाताच्यां तद्विशेषः २५ । विशुद्धिक्षेत्रस्वामि विषय योऽवधिमनः पर्याययाः २६ । मतिश्रुतयोर्निबंध; सर्वद्रव्येष्व सर्व पर्यायेषु २७ । रूपिष्ववधेः २० । तदनंतनागे मन: पर्यायस्य २ । सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ३० । एकादी निजाज्यानि युगपदेकस्मि नाचतुः ३१ । मतिश्रुतावधयो
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१२ए (मतिश्रुताविनंगा ) विपर्ययश्च ३॥ सदसतोर विशेषाद्यबोपलब्धेरुन्मत्तवत् ३३ । नैगमसंग्रहव्यवहार र्जुसूलशब्दानयाः ३४ । आद्यशब्दों हित्रिनेदौ २५॥
। इतिप्रथमोऽध्यायः । ॥अथ द्वितीयोऽध्यायः॥
औपशमिकदायिकौ नावौ मि श्रश्च जीवस्य स्वतत्वमौदयिकपारि णामिकाच १। हिनवाष्टादशकेविं तित्रिनेदायथाक्रमम् २ । सम्यक्त्व चारित्रे ३ । ज्ञानदर्शनदानलाजनो
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१३० गोपनोगवीर्याणि च ४ । झानाशान दर्शनदानादिलब्धयश्चतुस्त्रि त्रिपंच नेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमाश्च ५। गतिकषायलिगमिथ्या दर्शनासानासंयता सिद्धत्वलेश्या श्चतुरूयेकैकैकैकषानेदाः ६। जी वजव्याजव्यत्वादीनि च । उपयो गो लक्षणम् । सद्विविधोऽष्टचतुर्ने दः ए । संसारिणा मुक्ताश्च १० । समनस्का अमनस्काः ११ । संसारि णस्त्रसस्थावराः १५ । पृथिव्यंबुवन स्पतयः स्थावराः १३ । तेजोवायुष्ठीं
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१३१ (ज्यादयश्च वसाः१४ । पंचेंजियाणि १५ । द्विविधानि १६ । निर्वृत्युपकर णे व्यजियम् १७ । लब्ध्युपयोगी जावेंजियम् १७। उपयोगःस्पर्शादिषु १ए। स्पर्शन रसन प्राणचकुःश्रोत्रा णि २० । स्पर्शरस गंधरूपशब्दास्तेषामर्थः २१ । श्रुतमनिप्रियस्या र्थः २२ । वाय्वंतानामेकम् २३ । कृमि पिपीलिका भ्रमर मनुष्यादी नामेकैकवृक्षानि २४ । संोइनः समनस्काः २५ । विग्रहगतौ कर्म योगः २६ । अनुश्नेणिगतिः २७ ।
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अविग्रहा जीवस्य २७ । विग्रहगती च संसारिणःप्राक्चतुर्व्यः श्ए । एकसमयोऽविग्रहः ३० । एकं द्वौ चानाहारकः ३१ । संमूहनगर्नोप पाताजन्म ३२। सचित्तशीतसंवृत्ताः सेतरामिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ३३ । जराय्वंम्पोतजानां गर्नः ३४ । नार कदेवानामुपपातः ३५ । शेषाणां संमुईनम् ३६ । औदारिकवै क्रिया हारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ३७ । परंपरं सूक्ष्मम् ३७ । प्रदेशतो ऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसात ३ए ।
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अनंतगुणे परे ४० । अप्रतिघाते ४१ अनादि संबद्धे ४२ । सर्वस्य ४३ । तदादीनि जाज्यानि युगपदेकस्या चतुर्भ्यः ४४ ॥ निरूपजोगमंत्यम् ४५ । गर्भसं मूईनमाद्यम् ४५ । वैक्रियमोपपातिकम् ४७ । लब्धिप्र त्ययं च ४० । शुनं विशुद्धमव्याधा ति चाहारकं चतुर्दशपूर्वधरस्यैव ४ । तैजसमपि ५० । नारकसंमू हिनो नपुंसकानि ५१ । न देवाः ५२ औपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषा
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५३ ।
संख्येयवर्षायुषोऽनपवत्यायुषः । इति द्वितीयोऽध्यायः ।
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॥ अथ तृतीयोऽध्यायः ॥ रत्नशर्करा वालुका पंकधूमतमो महातमः प्रजानुमयोघनांजुवाता काशप्रष्ठितोः सप्तघोऽधः पृथुतराः १ । तासुनारकाः २ । नित्याशुनतरले श्यापरिणामदेहवेइनाविक्रिया; ३ । परस्परोदीरितडुःखाः ४ । संक्लिष्टा सुरोदीरितःखाश्च प्राक्चतुर्थ्याः ५ । तेष्वेक त्रिसप्तदश सप्तदशद्वाविं शतित्रय स्त्रिंशत्सागरोपमा सत्वा नां परा स्थितिः ६ । जंबूद्धी पलवण | दयः शुजनामानोद्वीपसमुद्राः 9
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१३५ द्विहिविष्कंजाः। पूर्वपरिक्षेपिणोवल याकृतयः । तन्मध्येमेरुनानिवृत्तो योजनशतसहस्रविष्कंनोजंबूद्विपः ए। तलनरत हैमवतहरिविदेहरम्य क्हैरएयवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि १० । तछिनाजिनः पर्वापरायताहिमव न्महाहिमवनिषध नीलरुक्मिशि खरिणो वर्षधरपर्वताः ११ । किर्धात कीखम १२ । पुष्करार्धे च १३ । प्राक्मानुषोत्तरान्मनुष्याः १४ । आर्याम्लिशश्च १५ । जरतैरावत वि देहाः कर्मजूमयोऽन्यत्र देवकूरूत्तर
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१३६ कुरूज्यः १६ । नृस्थिती परापरे त्रि पट्योपमांतर्मुहर्ने १७ । तिर्यग्योनी नां च १७ ॥
॥ इति तृतीयोऽध्यायः ॥ ॥ अथ चतुर्थोऽध्यायः ॥ देवाश्चतुर्निकायाः १। तृतीयः पीतलेश्य;।दशाष्टपंच छादशवि कल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ३ । इंअसामानिकलायस्त्रिंशपारिषद्यास्मरद लोकपालानीक प्रकीर्णका नि योग्यकिदिबषिकात्रैकशः ।।
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१३७ त्रायस्त्रिंशलोक पालवर्जा व्यतर ज्योतिष्काः ५ । पूर्वयोहौंडाः ६ । पीतांतलेश्याः ७ । कायप्रवीचारा
आऐशानात् । शेषाःस्पर्शरूपश ब्दमनः प्रवीचाराद्वयोर्डयो ए । परेऽप्रवीचारा १० । नवनवासि नोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्त नितोदधिछीपदिक्कुमाराः११ । व्यंत गः किंनरकिंपुरुषमहोरग गांधर्वय दराक्षसजूतपिशाचाः १५। ज्यो तिष्कासूर्याचंऽमसोग्रहनक्षत्रप्रकी र्णताराश्च १३ । मेरुप्रदक्षिणानित्य
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१३ गतयो नृलोके १४ । तत्कृतः काल विनागः १५ । बहिरवस्थिताः१६ । वैमानिकाः १७ । कल्पोपपन्नाः क स्पातीताश्च १७ । तपर्युपरि १ए । सोधर्मेशानसनत्कुमारमाहें ब्रह्मलोकलांतक महाशुक्र सहस्रारेष्वा नतप्राणतयोरारणाच्युतयोनवसुप्रै वेयकेषुविजयवैजयंतजयंता पराजितेषु सर्वार्थसिके च २० । स्थिति प्रजावसुख द्युति लेश्याविशुद्धोंडि यावधि विषयतोऽधिकाः १। गतिश रीरपरिग्रहाजिमानतो हीनाः ।
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१३ए जबासाहारवेदनोंप पातानु लावत श्च साध्याः २३ । पीतपद्मशुक्लले. श्यादितिशेषेषुश् । प्राग्वेयकेच्यः कल्पाः २५। ब्रह्मलोकालया लोकां तिकाः २६ । सारस्वतादित्यवन्ह्यरु णगर्दतो यतुषिताव्याबाधामरुतः २७ । विजयादिषुठिचरमाः ।।
औपपातिकमनुष्येच्यः शेषास्तिर्य ग्योनय श्ए। स्थितिः३० । नवनेषु दक्षिणार्धाधिपतीनां पट्योपममध्यर्धम् ३१ । शेषणां पादोने ३२ । असुरज्योः सागरोपममधिकम् ३३
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। सौधर्मादिषुयथाक्रमम् ३४। साग रोपमे ३५ । अधिके च ३६ । सप्तस नत्कुमारे ३७। विशेषत्रिसप्तदशैका दशत्रयोदशपंचदशनिरधिकानिच ३० । आरणाच्युतापूर्ध्वमेकैकेननव सुप्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसि द्धे च ३ए । अपरापल्योपममधिकं च ४० । सागरोपमे ४१। अधिके च ४२ । परतःपरतःपूर्वापूर्वानंतरा ४३ । नारकाणां च द्वीतीयादिषु ४४ । दश वर्षसहस्त्राणि प्रथमायाम ४५ । नवनेषु च ४६ । व्यंतराणां च ४७।
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१४१ परापट्योपमम् ४७ । ज्योतिष्काणामधिकम् ४ए । ग्रहाणामेकम् ५० । नक्षत्राणामद्धम् ५१ । तारका णांचतुर्नाग; ५२ । जघन्यात्वष्टना गः ५३ । चतुर्नागः शेषाणाम्५५॥
॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ॥ ॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः॥ अजीवकाया धर्माधर्माकाशपु मलाः १ । अव्याणि जीवाश्च शनि त्यावस्थितान्यरूपीणि ३ । रूपिणः पुजलाः ४ । आकाशादेकडव्याणि निष्क्रियाणि च ६ । असंख्ययाः प्र
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देशा धर्माधर्मयोः 9 । जीवस्य च ८ । आकाशस्यानंता ए | संख्येया संख्येयाश्च पुजलानाम् १० | नाणोः लोकाकाशेऽवगाहः ११ । धर्माधर्म योः कृत्स्ने १३ । एकप्रदेशादिषु जा ज्यः पुजलानाम् १४ । असंख्येयजा गादिषु जीवानाम् १५ | प्रदेश संहा हार विसर्गाच्यांप्रदीपवत् १६ | गति स्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः १७ । व्याकाशस्यावगाहः १८ । शरी वाङ्मनःप्राणापानाः पुजलानाम् १८५ । सुखदुःखजीवितमरणोपमहा
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श्च २० । परस्परोपग्रहो जीवानाम् २१। वर्तनापरिणामः क्रियापरत्वा परत्वे च कलस्य २२ । स्पर्शरसगंध वर्णवंतः पुजलाः २३ । शब्दगंधसौदम्य स्थौल्यसंस्थाननेदतमरला यातपोद्योतवंतश्च २२ । अणवः स्कंधाश्च २५ । संघातनेदेच्य उत्पा यंते २६ । नेदादणुः २७ । नेदसंघा तान्यां चाकुषा २७ । उत्पादव्यय धौव्ययुक्तं सत् श्ए । तनावाव्ययं नित्यम् ३० । अर्पिता नर्पिततसिद्धेः ३१ । स्निग्धरुदत्वाइंध ३शन जघ
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१४४ न्यगुणानाम् ३३ । गुणसाम्ये सह शानाम् ३४ । प्रयधिकादिगुणानां तु ३५ । बंधे समाधिको पारिणामि कौ ३६ | गुण पर्यावद्द्रव्यम् ३७ । कालश्चेत्येके ३० । सोऽनंतसमयः ३० | द्रव्याश्या निर्गुणागुणा ४० । तद्भावः परिणामः ४१ | अनादिरा दिमाँश्च ४२ | रूपिण्वादिमान् ४३ । योगोपयोगी जीवेषु ४४ ।
॥ इति पञ्चमोऽध्यायः ॥ अथ पष्ठोऽध्यायः कायवाङ्मनःकर्म योगः १ ॥ स
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त्र्याश्रवः २ । शुनः पुण्यस्य ३ । का शुनः पापस्य । ( शेषपापम् ) ४ । सकषायाकषाययोः सपराधिकेर्या पथयोः ५ | इंडियकषायात्रतक्रियाः पंचचतुःपंचपंचविशति संख्याः पूर्व स्यनेदाः ६ । तीव्रमंदज्ञाताज्ञातना ववीर्याधिकरणविशेषच्यस्त द्विशेषे (विशेषात्तद्विशेषः) । अधिकरणं जीवाजीवाः । आद्यं संरंजसमा रंजारंजयोगकृतकारिता नुमतिक पाय विशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः ए । निर्वर्त्तनानि देपसंयोगनिसर्गादद्वि
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चतुात्रि नेदाःपरं १० । तत्प्रदोष निन्हवमात्सर्यातरायासादनोपघा ताज्ञानदर्शनावरणयोः ११ । पुःख शोकतापानंदनवध परिदेवनान्या स्म परोजयस्थान्य सद्यस्य १२ । नृतव्रत्यनुकंपादानसरागसंयमादि योगदांनिशौचमिति सरेयस्य १३ । केवालश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य १४। कषायोदयात्ती ब्रात्म परिणामश्चारित्र सोहस्य १५ । बह्वारंपरिग्रहत्वं च नारक स्था युषः १६ । माया तैर्यग्योनस्य १७ ।
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२४७ श्रदपारंपरिग्रहत्वं स्वनावमा वाजवत्वं च मानुषस्य १॥ निःशी लव्रतत्वं च सर्वेषां १५॥ सरागसंय मसंयमासंयमाकामनिर्जरा बानतपांसि देवस्य २०॥ योगवक्रतावि संवादनं चाशुनस्य नाम्नः १ ॥ विपरीतं शुजस्य २२ ॥ दर्शनविशु द्विविनयसंपन्न ताशीलतेष्वनति. चारोऽजीदाएं ज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी संघसाधुसमा धिवैयावृत्यकरणमईदाचार्य बहुश्रु तप्रवचननक्तिरावश्यकापरिहाणि
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मार्गप्रज्ञावना प्रवचनवत्सलत्त्व मि तितीर्थकृत्त्वस्य २३ ॥ परात्मनिंदा प्रशंसेसद सद्गुणावादनोद्भावने च नीचैगोंत्रस्य २४ || तद्विपर्ययो नीचे वृत्यनुत्सेको चोत्तरस्य २५ ॥ विघ्नक रणमंतरायस्य २६ ॥
॥ इति षष्ठोऽध्यायः ॥ ॥ अथ सप्तमोऽध्यायः ॥
हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेज्यो विरतिर्नतम् १ || देश सर्वतोऽणुमह ती || तत्स्यैयर्थ जावनाः पंच पं च ३॥हिंसादिष्विहामुत्रचापायाव
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यदर्शनम् ४ ॥ दुखमेववा ५ ॥ मै त्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थ्यानि स त्वगुणाधिक क्लिश्यमानाविनेयेषु ६ जगत्कायस्वजावी च संवेगवैरा ग्यार्थम् ७ ॥ प्रमत्तयोगोत्प्राणव्यप रोपणं हिंसा ॥ असद निधानम नृतम् ॥ अदत्तादानं स्तेयम् १०॥ मैथुनमब्रह्म ११ ॥ मूर्छा परिग्रहः १२ || निःशल्यो व्रती १३ ॥ गार्य नगारश्च १४ ॥ त्रतोऽगारी १५ ॥ दिग्देशानर्थदमविरति सामायिक
पौषधोपवासोपजोगपरि जोगपरि ।
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माणातिथिसंविजागवत
संपन्नश्च
१६ ॥ मारणांतिक संलेखनां जोषि ता १७|| शंकाकांक्षावि चिकित्सान्य दृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टे रति चाराः १८ ॥ व्रतशीलेषु पंच पंच य थाक्रमम् १९ ॥ बंधवधव विवेदाति जारारोपणान्नपाननिरोधाः २० । मि थ्योपदेश रहस्याज्याख्यान कूटले ख क्रियान्यासापहार साकारमंत्र नेदाः २१ ॥ स्तेनप्रयोग तदाहृतादान विरुद्धराज्यातिक्रमहीना धिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः २२ ॥
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रएर परविवाहकरणेवर परिग्रहीता ग मनानंग क्रीमातीकामानिनिवे. शाः २३ ॥ क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्ण धनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणाति क्रमाः २४॥ उर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक मः देववृद्धिस्मृत्यं तर्धानानि २५॥ आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुमलप्रदेपाः २६॥ कंदर्पकौकुच्य माखर्या समीयाधिकरणो होगा धिकत्वानि ॥ योगःप्रणिधाना नादरस्मृत्यनुपस्यापनानि २० ॥ अपत्यवेदिताप्रमार्जितोत्सर्गादान
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१५२ निदेपसंस्तारोपक्रमणानादर स्मृ. त्यनुपस्थानानि श्ए ॥ सचित्तसंबक संमिश्रानिषवःपक्काहाराः ३० ॥ सचित्त निदेपपिधानपरव्यपदेशमा त्सर्यकालातिकमाः३१ ॥ जीवितम रणाशंसामत्रानुरागसुखानुबंधनि दानकरणानि ३२॥ अनुग्रहार्थस्वस्या तिसर्गो दानम् ३३॥ विधिऽव्य दातृपात्रविशेषात्तहिशेष ३४ ॥
॥ इति सप्तमोऽध्ययः ॥
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१५३ ॥ अथ अष्टमोऽध्यायः॥
मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषा ययोगा बंधहेतवः १ । सकषायत्वा जीवः कर्मणो योग्यान्पुजलानादत्ते
। सबंधः ३ । प्रकृतिस्थित्यनुनाव प्रदेशास्तविधयः ४ । बायो शानद र्शनावरणवेदनीय मोहनीयायुष्क नामगौत्रांतरायाः ५। पंच नवद्वय ष्टाविंशति चतुम्चित्वारिंशद द्वि पं. चोदा यथाक्रमम् ६। मत्यादीनां ७ । चकुर चकुरवधिकेवलानांनिसा निजानिमा प्रचला प्रचलाप्रचला
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१५४ स्त्यानगृद्धिवेदनीयानिच छ । स दसवेधे ए । दर्शनचारित्रमोहनी यषायनोकषायवेदकनी याख्यात्रि हिषोमशनवनेदाः सम्यक्त्व मि. थ्यात्वनयानि कषाय नोकषाया वनंतानुबंध्य प्रत्याख्यान प्रत्याख्याना वरण संज्वलन विकल्पा श्कशः क्रोर मान माया लोनाः हास्य रत्यरति शोक लय जुगुप्सा स्त्रीपुंनपुंसकवेदाः १०। नारकतैर्य ग्योनमानु देवानि ११ । गतिजा तिशरीरांगोपांगनिर्माणबंधनसंघा
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त संस्थान संहनन स्पर्शरसगंधव र्णानुपूर्व्यगुरु लघूपघातपराघाता तपोद्योतो बासविहायोगतयः प्रत्ये कशरीरत्रसंसुजग सुस्वरशुनसूक्ष्म पर्यात स्थिरादे ययशांसिसेराणि तीर्थकृत्त्वं चेति १२ । उच्चैर्नीचैश्च १३ | दानादीनामंतरायः १४ | आदित स्तिसृणां (अंतरायस्य) च त्रिंशत्सा गरोपमकोटी कोटयः परा स्थितिः १५ । सप्ततिर्मोहनीयस्य १६ । नामगोत्रयार्विंशतिः १७ । त्रयस्त्रिंशत सागरोपमाएया युष्कस्य (त्र
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१५६ यस्त्रिंशत्सागराएय धिकान्यायुष्कस्य) १७ । अपराछादशमुहूत्तावेद नीयस्य १७ । नामगोत्रयोरष्ठौ २० । शेषाणामंतर्मुहूर्तम् २१ । विपाको 5 नुनावः २२ । स यथा नाम २३ । ततश्च निर्जरा २४ । नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूदमैक देत्रा वगाढस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनं. तानंत प्रदेशाः २५ । सद्यसम्यक्त्व हास्यरतिपुरुषवेद शुनायुर्नामगो त्राणि पुण्यम् २६ ।
॥ इति अष्टमोऽध्यायः ।।
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॥ अथ नवमोऽध्यायः॥
श्राश्रवनिरोधः संवरः १ । सगु प्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षा परिषहजय चारित्रैः । तपसा निर्जरा च ३। सम्यग्योगनि हो गुप्तिः ४ । र्या नाषै षणादान निदेपोत्सर्गाः समि तयः५ । उत्तमःदमामार्दवावशी चसत्यसंयम तपस्त्यागाकिंचन्यब ह्मचर्याणि धर्मः ६। अनित्याशरण संसारैकरवान्य शुचित्वाश्रवसंवरनिजरालोकबोधि पुर्खन धर्मस्वतस्वानुचिंतनमनुप्रेक्षाः । मार्गाच्य
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वननिर्जरार्थपरिषोढव्या परिषहाः ७ । कुत्पिपासाशीतोष्णदेशमशक नाग्न्यारतिस्त्रीचर्या निषद्याश या क्रोशवधयाचनालानरोगतृण स्प शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञान द र्शनानि ए। सूदमसंपरायबद्मस्थवीतरागयोश्च तुर्दश १७। एकादश जिने ११ । बादरसंपराये सर्वे १२ । झानावरणे प्रज्ञाझाने १३ । दर्शन मोहातराययोरदर्शनालाजौ १४ । चारित्रमोहेनागन्यारतिस्त्री निषद्या कोशयाचना सत्कारपुरस्काराः १५
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। वेदनीये शेषाः १६ । एकादयो ना ज्या युगपदे कोनविंशतः १७। सामा यिकडेदोपस्थाप्यपरिहार विशुद्धि सूक्ष्म संपराययथाख्यातानि चारि त्रम् १७ । अनशनावमौदर्यवृत्तिप. रिसंख्यानरसपरित्याग विविक्तश य्यासनकायवलेशा ब्राह्यतपः १ए । प्रायश्चित विनयवैयावृत्य स्वाधाय व्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् २० । नवच तुर्दशपंचछिन्नेद यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् १ । बालोचनप्रतिक्रमण तमुनयविवेकव्युत्सर्ग तपश्छेद परि
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१६० हारोपस्थापनानि २२ । ज्ञानदर्शन चारित्रोपचाराः २३ । आचार्योपा ध्यायतपस्वि शिक्षकग्लानकुलगण संघसाघुमनाज्ञानाम् २४ । वाचना पृबनानु प्रेदाम्नायधर्मोपदेशाः २५ । बाह्याच्यंतरोपध्योः २६ । उत्तमसं हननस्यैकाग्रचिंता निरोधश्चध्यानम्श् । बामुहूर्तात् श् । अतिरोध धयेशुक्लनि श्ए । परे मोक्षदेत ३० । आर्तममनोज्ञानां संप्रयोगे तहि प्रयोगायस्मृतिसमन्वाहारः ३१ । वेदनायाश्च ३२ । विपरीतं मनोझा
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नाम् ३३ । निदानं च कामोपहत चित्तानां पुनः३५ । तदविरतदेशवि रतप्रमत्तसंयतानाम् ३५ । हिंसान तस्तेय विषयसंरक्षणेच्यो राम विरतदेशविरतयोः ३६ । आझापाय विपाकसंस्थान विचयाय धर्म्यम प्रमत्तसंयतस्य ३७ । उपशांतहीण कषाययोश्च ३० । शुक्ले चाये ३ए। (शुक्वेचाये पूर्व विदः ए. ३ए । )पू विदः ४० । परे केवलिनः ४१। पृथ क्ववितर्कैकत्वसूदनक्रिया प्रतिम तिव्युपरत क्रियानि तीनि ४२ । त
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१६२ त्रयेककाययोगायोगानाम् ४३ । ए काश्रयेस वितर्के पूर्वे ४४ । अविचारं द्वितीयम् ४५ । वितर्कः श्रुतम् ४६ । विचारोऽर्थव्यंजनयोर्योगसंक्रांतिः ४७ । सम्यग्दृष्टिश्रावक विरतानंतवियोजकदर्शन मोहनपकोपशमकोपशांतमोहदपकहीण मोह जि नाः क्रमशोऽसंख्येयगुण निर्जराः ४७ । पुलाकबकुशकुशील निर्मथ स्नातका निग्रंथाः ४ए । संयमश्रुत प्रतिसेवनातीर्थालग बेश्यापपात स्थानविकल्पतः साध्याः ५० ॥
॥इति नबमोऽध्यायः ॥
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॥ अथ दशमोऽध्यायः ॥ मोहदयाज्ज्ञानदर्शना वरणांतरायक्षयाच्च केवलम् १ | बंधत्व नाव निर्जराज्याम् २ | कृत्स्नकर्म
यो मोक्षः ३ । श्रपशमिकादिन व्यत्वाजावाच्चान्यत्र केवलसम्यक्त्व | ज्ञान दर्शन सिद्धत्वेभ्यः ४ । तदनंत र त्यालोकांतात् ५। पूर्वप्र योगा दंसगत्वादात्तयाग तिपरिणाच्च तमतिः ६ । क्षेत्रकालगति लिंगतीर्थचारित्रप्रत्येक बुद्धबोधित
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१६४ ज्ञानावगाहनां तरसंख्यादपबहुत्व तः साध्याः ।
॥ इति दमोऽध्यायः ॥ ॥ इति तत्वार्थ सूत्र ॥
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स्तुति १ सरस शांति सुधारस सागरं, शुचितरं गुणरत्न महागरं; जविक पंकज बोध दिवाकरं, प्रतिदिनं प्रणमामि जिनेश्वरं.
२ अद्याऽनवत् सफलता नयनद्वयस्य, देव त्वदीय चरणांबुज वीक्षणेन; अद्य त्रिलोक तिलक प्रतिज्ञासतेमे, संसार वारिधिरियं चुलुक प्रमाणः. ३ प्रशम रस निमग्नं दृष्टि युग्मं प्रसन्नः वदन कमलमंकः कामिनी संग शून्यः करयुगमपि यत्ते शस्त्र संबंध वंध्यं; तदसि जगति देवो वीतराग स्त्वमेव.
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________________ 176 प्रजु नजले मेरा दिल राजी, प्रनु नजले. प्रजु-टेक. यो पहोरकी चोसठ घमीयां, दो घमीयां जीन साजी. प्रनु.१ दान पुण्य कबु धरम करले, मोह मायाकु त्यागी, प्रतु. 2 आनंदघन कहे समज समज ले, आखर खोवेगा बाजी. प्रजु. 3 // समाप्त // Jain Educationa Interhaticelsonal and Private Use volyy.jainelibrary.org