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उबयार करहि उवयार समुद्रयः दीपद दीगु निहीणु-जेण तई ना हिए चत्तल, तो जुग्गन श्रहमेव पोस पालहि मइ चंगन ॥ २५ ॥ अह अनुवि जुग्गय विसेसु किवि मन्नहि दीपद, जं पासिविजवयारुकरइ तुह नाह समग्गह; सुच्चिय किल कल्लाए - जेण जिण तुम्ह प सीयह, किं अनि तं चैव देव मा म अहीरह ॥ २ ॥ तुह पत्थ ए न हु होइ-विहलु जिए जापन किं पुष, हन पुस्किय निरुसत्त• चत एकहु जस्सुयमय; तं मन्नत
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