Book Title: Jain Siddhanta Kaumudi Purvardha
Author(s): Ratnachandra Maharaj
Publisher: Nagrajji Nahar Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पन्धु रा०प० श्री चांदमलजी नाहर के स्मरणार्थ मेंट. 1 .. . - - - . NCT TO 5 ओमुंहावीर न श्री तत्त्वदीपिकाव्याख्यासमेता जैनसिद्धान्तकौमुदी अर्धमागधीध्याकरणम् । पूवार्द्ध-अव्ययपर्यन्तम् Game G GOOG रचयिता. भारत रत्न शतावधानी पण्डित मुनि श्री रत्नचन्द्रजी महाराज MOT NO Anas परेलीनिवासी श्री. नगराजजी नाहर, मु. जयपुर KWANP.. . : : प्राप्तिस्थान-श्री जैन गुरुशल, न्यावर ( राजपूताना) PRISE प्रथमावृति . ...: अमूल्य बर Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका विपय १ सा प्रकरण २ परिभाषा प्र०... ३ स्वरसन्धि प्र० ४ व्यसनसन्धि प्र० ... ५ स्वरविकार प्र० ঘনৰিষ্কাৰ ম ७ पुलिङ्गरान्द प्र० ८ सर्वनामशब्द प्र० ५ स्त्रीलिङ्ग प्र० ... १० नपुंसकलिङ्ग प्र० ११ संख्यावाचक ० १२ अपय प्रकरण Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्रक . अशुद्ध ... मनोनुस्खार प्रन्थादो प्रन्यादी श्री महावीम्य श्री महावीरस्य १४ . . ... ध ... ध . : . ४ .. .. घृद्धि .. .. वृद्धि . .. ३ यानतू यावन २१ धवयबो ध वयवो १० .. . लाखो ... ... लक्खो . . .म्नोरनुस्वार . १६ . म्नोरऽनुस्वारो .. .. मनोरनुस्वारो . असयुक्त असंयुक्त प्रत्वययोरिति प्रत्यययोरिति वृध्द्यावोकारें वृद्धावीकारे । १७ ... .रूभयोः रुभयोः .विहारामि . • रूभयोः रुभयोः __२१ । तुभं माला इहितो माला + इहितो वहुलमि बहुलंमि विहामि :, . Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री महावीराय नमः प्रस्तावना। कान आगमों की भाषा के विषय में कितने ही समय से विद्वत्समाज में मतभेद पड़ा हुआ है। कुछ समय पूर्व समाचार पत्रों में इस निपयं की चर्चा भी चली थी । एक पक्ष का कहना था कि आगमों - की भाषा प्राकृत है। जबकि अन्य पक्षं का कथन था कि आगमों की भाषा अर्ध-मागधी है ।:: - REATREETI. . वस्तुतः संस्कृतातिरिक्त समस्त भापाय प्राकृत "ही कही जाती थीं । अतः प्रथम पक्ष की मान्यता भी निस्सार न थी। परन्तु "प्राकृत" यह शब्द संस्कृतातिरिक्त समस्त भाषाओं के लिए. सामान्य शब्द है ...पाली, शौरसेनी, अपभ्रंश आदि समस्त भागाओं का समावेश: प्राकृत में ही है। श्री हेमचन्द्राचार्यजी ने अपने स्वयं निर्माणित “प्राकृत व्याकरण" में अपभ्रंशादि छहों ही भेदों को प्राकृत में सम्मिलित किया है, तथैव छहों ही के लक्षणादि का प्रतिपादन किया है। परन्तु हां, विशेष नामःछहों ही भाषाओं के भिन्न. २ हैं । जैनागमों की भापाका विशेष नाम प्राकृत नहीं परन्तु अर्धमागधी है । जिस प्रकार कि बौद्धों का आगम साहित्य पाली भाषा में है, उसी प्रकार जैन आगम साहित्य अर्धमागर्धा भाषा में है. कारण कि तीर्थकर भगवान् अर्धमागधी भाषा में ही उपदेश देतः थे तथा गणधर उसी भाषा में सूत्र प्रथित करते थे। .. .. . . . . . . . . . . . . . - 1. जैनागमों में मुख्यतया द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, धर्मकथानुयोग तथा चरणकरणानुयोग अर्थात् तत्वज्ञान, गणितज्ञान, महापुरुषों के चरित्र तथा आचार विचार सम्बन्धी विषय वर्णित किये गये हैं। तथैव इन संघका उद्देश्य मोक्षसाधन ही है । परन्तु वह भाषा जानने में न आवे तव तक विषय की यथार्थता एवं महत्वता समझ में नहीं आ सकती। :: .. : . . . . . . . . . . ..., किसी भी भापा के साहित्य का ज्ञान प्राप्त करना हो तो उस भापा का ब्याकरण तथा कोप इन दोनों अंगों का ज्ञान प्राप्त करना परमावश्यक है। जैन आगमों पर भाष्य, नियुक्ति, चूर्णिका, दीपिका, टोका बालावबोध टबा आदि रचे गये, एवं पृथक पृथक भाषाओं में भोपान्तर भी हुवे। परन्तु उस भाषा को साक्षात् समझने के लिये जो व्याकरण और कोष की कमी थी, वह ज्यों की त्यों बनी रही । ___ श्री हेमचन्द्राचार्य जी तथा चण्ड ने व्याकरण बनाये परन्तु प्राकृत भाषा तथा महाराष्ट्रीय प्राकृत भाषा के । अर्धमागधी का नहीं । जैन साहित्य क्षेत्र में इस त्रुटि को पूर्ण करने के लिये भारत रत्न शतावधानी श्रीरत्नचन्द्रजी, महाराज • ने कितने ही वर्षों से प्रयत्न किया । सात वर्ष पर्यन्त सतत् परिश्रम द्वारा अर्धभागधी कोप तैयार किया एवं तदन्तर ही ग्याकरण बनाना प्रारम्भ किया। बीकानेर निवासी श्रीयुत अगरचन्द्रजी भैरोंदानजी सेठिया की हार्दिक सहानुभूति से "जैन सिद्धान्त कौमुदी" नामक अर्धमागधी व्याकरणं उन्होंने स्वकीय प्रेस में छपाया। कितने ही जिज्ञासुओं की यह Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय बन्धु रा०प० श्री चांदमलजी नाहर के स्मरणार्थ भेंट. NOT TO BECUE SE श्री तत्त्वदीपिकाव्याख्यासमेता .... OK जैनसिद्धान्तकौमुदी अर्धमागधीच्याकरणम् ] पूवार्द्ध-अव्ययपर्यन्तम् रचयिताभारत रत्न शतावधानी पण्डित मुनि श्री रत्नचन्द्रजी महाराज प्रकाशक-. परेलीनिवासी श्री. नगराजजी नाहर, मु० जयपुर प्राप्तिस्थान-श्री जैन गुरुकुल, ब्यावर ( राजपूताना) प्रथमावृत्ति श्रमूल्य विक्रमाउद १९९२ वीराब्द २४६. Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका विषय १ संज्ञा प्रकरण.. २ परिभाषा प्र०... ३ स्वरसन्धि प्र० ४ व्यसनसन्धि प्र० ५ स्वरविकार प्र० ६ व्यसनविकार प्र० ७ पुल्लिङ्गशब्द प्र० .. ८ सर्वनामशब्द प्र० ९ स्त्रीलिङ्ग प्र० ... १० नपुंसकलिङ्ग प्र० ... ११ संख्यावाचक प्र० ... १२ अव्यय प्रकरण .. - Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ g. ல் १ ३ ७ ८ ११ १३ १३ १७ ३० ~ ~ 30 30 ३८ ४४ ४५ ४६ ४६ ४८ ५१ पं० १० १२ १४ ४ २१ १० १५ ..१६ १६ ७ १८ १७ २१ ८ १४ शुद्धि पत्रक अशुद्ध प्रन्थादो श्री महावीम्य ध घृद्धि यावत् marat लुखो मनोनुखार मनोरनुखारो असयुक्त प्रत्वयोरिति वृध्यावोकारे रुमयी: . विहारामि रूभयोः तुभं माला इहिंतो बहुलमि शुद्ध प्रन्थादौ श्री महावीरस्थ घ वृद्धि यावत् aarat लक्खो -मनोरनुस्वार मनोरनुस्वारो असंयुक्त प्रत्यययोरिति वृद्धावकारे रुभयो: विहरामि रुभयोः तुन्भं माला + इहिंतो बहुलंभि Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के श्री महावीराय नमः १ प्रस्तावना। AAL न आगमों की भाषा के विषय में कितने ही समय से विद्वत्समाज में मतभेद पड़ा हुआ है। कुछ ज समय पूर्व समाचार पत्रों में इस विषय की चर्चा भी चली थी । एक पक्ष का कहना था कि आगमों PRAST की भाषा प्राकृत है । जबकि अन्य पक्षं का कथन था कि आगमों की भाषा अर्ध-मागधी है। KAR वस्तुतः संस्कृतातिरिक्त समस्त भापायें प्राकृन ही कही जाती थीं । अतः प्रथम पक्ष की E mak मान्यता भी निस्सार न थी। परन्तु "प्राकृत" यह शब्द संस्कृतातिरिक्त समस्त भाषाओं के लिए सामान्य शब्द है । पाली, शौरसेनी, अपभ्रंश आदि समस्त भागाओं का समावेश प्राकृत में ही है। श्री हेमचन्द्राचार्यजी ने अपने स्वयं निर्माणित "प्राकृत व्याकरण" में अपभ्रंशादि छहों ही भेदों को प्राकृत में सम्मिलित किया है, तथैव छहों ही के रक्षणादि का प्रतिपादन किया है। परन्तु हां, विशेष नाम छहों ही भाषाओं के भिन्न २ हैं । जैनागमों की भापाका विशेष नाम प्राकृत नहीं परन्तु अर्धमागधी है। जिस प्रकार कि चौद्धों का आगम साहित्य पाली भाषा में है, उसी प्रकार जैन आगम साहित्य अर्धमागधी भाषा में है । कारण कि तीर्थकर भगवान् अर्धमागधी भाषा में ही उपदेश देते थे तमा गणधर उसी भाषा में सूत्र प्रथित करते थे। जैनागमों में मुरयतया द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, धर्मकथानुयोग तथा चरणकरणानुयोग अर्थात् तत्वज्ञान, गणितज्ञान, महापुरुषों के चरित्र तथा आचार विचार सम्बन्धी विषय वर्णित किये गये हैं। तथैव इन सबका उद्देश्य मोक्षसाधन ही है । परन्तु वह भापा जानने में न आवे तव तक विषय की यथार्थता एवं महत्वता समझ में नहीं आ सकती। किसी भी भापा के साहित्य का ज्ञान प्राप्त करना हो तो उस भाषा का ज्याकरण तथा कोप इन दोनों अंगों का ज्ञान प्राप्त करना परमावश्यक है । जैन आगमों पर भाष्य, नियुकि, चूर्णिका, दीपिका, टीका बाकावबोध टया आदि रचे गये, एवं पृथक् पृथक भाषाओं में भापान्तर भी हुवे। परन्तु उस भाषा को साक्षात् समझने के लिये जो न्याकरण और कोप की कमी थी, वह ज्यों की त्यों बनी रही। श्री हेमचन्द्राचार्य जी तथा चण्ड ने व्याकरण बनाये परन्तु प्राकृत भाषा तथा महाराष्ट्रीय प्राकृत भाषा के । अर्धमागधी का नहीं। जैन साहित्य क्षेत्र में इस त्रुटि को पूर्ण करने के लिये भारत रत्न शतावधानी श्रीरत्नचन्द्रजी, महाराज ने कितने हो वर्षों से प्रयत्न किया । सात वर्ष पर्यन्त सतत् परिश्रम द्वारा अर्धभागधी कोष तैयार किया एवं तदन्तर ही न्याकरण बनाना प्रारम्भ किया। बीकानेर निवासी श्रीयुत अगरचन्द्रजी भैरोंदानजी लेठियाकी हार्दिक सहानुभूति से "जैन सिद्धान्त कोमुदी" नामक अर्धमागधी व्याकरण उन्होंने स्वकीय प्रेत में छपाया ! कितने ही जिज्ञासुओं की यह Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. Î मांग आई कि संस्कृत के विद्वान अर्धमागधी भाषा से अपरिचित होने के कारण उन्हें इस म्याकरण के समझने तथा समझाने में कितनी ही कठिनाइयाँ आती हैं । अतः इसकी यदि कोई सरल, टीका वनजाय तो अध्ययनार्थी तथा अध्यापक दोनों के अनुकूल हो । P इस मांग की पूर्ति के लिए श्री शतावधानाजी महाराज ने "जनसिद्धान्तकौमुदी" की संस्कृत टीका लिखमी :..:. प्रारम्भ की। साथ ही साथ मूल में पर्याप्त परिवर्तन किया गया। कितने ही सूत्र तो बिलकुल ही नवीन योजित किये 'गये और पुराने निकाल डाले गये । कितनों ही में अल्पाधिक परिवर्तन किया गया । प्रथमावृत्ति में समस्त धातु अकारान्त ही रक्खे गये थे, परन्तु इस आवृति में धातुओं को व्यन्जनान्त बना कर तत्पश्चात् अकार, एकारादि विकरण संयोजित किये गये हैं । इस तरह करने से सूत्रों में लाघघता भी आ गई है, जो कि पद्धति व्याकरणकारों ने वहु माननीय मानी है कहा भी है कि- अर्धमात्रा लाघवेन वैयाकरणाः पुत्रोत्सवं मन्यन्ते ।" - : पहली आवृत्ति में समयाभाव के कारण कुछ अव्यवस्था सी प्रतीत होती थी, वह इस आवृत्ति में सुधार दी गई है। ' सं० १९९० के साल में जब श्री शतावधानाजी महाराज का चौमासा जैपुर नगर में था, जैन सिद्धान्त-कौमुदी की टीका सभी तैयार हो चुकी थी तथा मुद्रगार्थ श्रीयुत अगरचन्द्रजी भैरोंशन जी सेठिया जो के पास बीकानेर प्रेषित:की जा चुकी थी। किन्तु उनके प्रस में छपने का कार्य उन दिनों में न चल रहा था । अतः छपने की व्यवस्था न हो सकी । इसी मध्य में बरेली निवासी श्रीयुत सेठ नगराजंजी नाहर जो कि जंगलपुर निवासी सेठ राजा गोकलदासजी की जयपुर वाली दुकान पर सुनीस हैं । उनके भाई रायबहादुर सेठ चांदमलजी का स्वर्गवास हो जाने पर उनकी स्मृत्यर्थं जैन सिद्धान्तकौमुदी व्याकरण टीका सहित प्रकाशित करने की इच्छा प्रकट की । तदनुसार बीकानेर से ब्या-: करण की प्रति मंगाकर "प्रभात प्रिंटिंग वर्क्स" अजमेर से प्रकाशित करने की व्यवस्था की । परन्तु वहाँ प्रूफ सुधारने की व्यवस्था न होने से मात्र सात आठ फर्मों ही छप सके । इस कठिनाई के कारण पुस्तक प्रकाशन का कार्य लाहौर लाना पड़ा। जहाँ कि पुनः प्रथम से ही यह ग्रन्थ पेगा । छपे हुए साढ़े सात फर्मों में सन्धि, पटूलिंग पूर्ण हो जाते हैं । सेठ श्री नगराज़जी नांहरकी इच्छानुसार भभी मात्र उतना ही भाग विद्यार्थियों के उपयोगार्थं प्रकाशित कर पाठक वर्ग की सेवा में अर्पण किया जा रहा है । आशा जिज्ञासु सहृदय इससे लाभ उठावेंगे। कुछ मास के पश्चात् सम्पूर्ण ग्रन्थः प्रकाशित हो सकेगा, ऐसी पूर्ण सम्भावना है. ।. सुपुः किं बहुना ?--- ता० १९-७-३५ अमृतसर . विनीत सेवक-. रामकुमार " स्नातक " विद्याभूषण. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. बन्धु रा० ब० चांदमलजी नाहर के स्मरणार्थ भेंट పోడు పాడుచుకుతుడయయములు జయజులు ముడుచుండుము तत्वबोधिनी व्याख्योपेता - जैन सिद्धान्त कौमुदी - (अई मागधी व्याकरणम्) ... comebacaCccccc ... : PORN -30 स्व० रा०व० चांदमलजी नाहर रचयिताभारत रत्न शतावधानी पं० मुनि श्री रत्नचन्द्रजी महाराज --- - - -- -- - Prera n . Page #16 --------------------------------------------------------------------------  Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ॐ नमोऽहद्भ्यः ॥ श्रीतत्त्वदीपिकाव्याख्योपेता जैनसिद्धान्तकौमुदी (মাঝায্য) प्रणम्य श्रीमहावीरं मोक्षमार्गप्रकाशकम् । · रच्यते तत्त्वबोधाय जैनसिद्धान्तकौमुदी॥ .. अथ तत्त्वदीपिका 'श्रीपार्श्वपदपाथोजं नत्वा देवेन्द्रसेवितम् । कौमुद्याः क्रियते वृत्तिः स्वोपशं तत्त्वदीपिका ॥१॥ प्रारिप्सितग्रन्थसमातिपरिपन्थिप्रत्यूहव्यूहविधाताय विहितं नमस्कारात्मक मङ्गलं शिष्टाचारपरिपालना) अन्धादो निवान् चिकीर्पित प्रतिजानी प्रणम्यति-प्रणामं कृत्वेत्यर्थः प्रणामश्च स्वावधिकोत्कर्षबोधनानुकूलों व्यापारः स च काशिरोविलक्षणसंयोगरूपः। तादृशव्यापारजन्यज्ञानरूपफलाश्रयतया श्रीमहावीस्य कर्मत्वम् । श्रीमहावीरमितिमहान् कपायोपसर्गपरिषहेन्द्रियादिरिपुनिवहजयादतिशायी चीरो विक्रान्तः। विक्रान्त्यर्थस्य वीरधातो:रयति स्मेतिविग्रहेण साधनात् । अथवा विशेषेणेरयति प्रापयति शिवं कल्याणं स्फेटयति वा कर्मेति वीरः । महांश्चासौ वीरश्च महावीरः, पूर्वापरेति बाधित्वा सन्महदिति समासः। प्रकृतशासनपतिश्चरमस्तीर्थकरः । श्रियाऽलौकिकया शोभया सहितो महावीरः श्रीमहावारस्तम् । मोक्षमार्गेति-मोक्षस्य कृत्स्नकर्मात्यन्तोच्छेदरूपस्य मार्गः साधनं सम्यग्ज्ञानादिरत्नत्रयं तस्य प्रकाशकः प्रज्ञापकस्तम् । अनेनान्येच्छानधीनेच्छाविषयरूपस्य स्वतःप्रयोजनस्य साधकत्वात्स एव नमस्कार्य इति ध्वनितम् । रच्यत इति-मयेति शेषः रचना च स्वज्ञानं परान् बोधयितुं तदनुकूलवाक्यानां लिपिसग्निवेशविशेषः तत्त्वबोधायेति -तत्त्वानि जीवाजीवादिपदार्थाः । तानि च जैनागमेष्वर्द्धमागधीभापायां हेतुयुक्तिदृष्टान्तपूर्वक प्रतिपादितानि । आगमभाषासत्कपदानां साधुत्वासाधुत्वज्ञानं विना न भवति तत्तत्पदार्थानां यथार्थवोधः । पदानां साधुत्वासाधुत्वज्ञानजनकाब भवति तदृभाषाच्याकरणम् । अतस्तत्वबोधमुदिश्यवारय व्याकरणास्य रचनाप्रवृत्तिरिति भावः। जैनसिद्धान्तकौमुदीतिः-- Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धान्तकौमुदी मोदषतीति मुदः कोर्मुदः कुमुदश्चन्द्रः तस्येयं कौमुदी चन्द्रिका " चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्स्नेत्यमरः" जैनसिद्धान्तानामागमादि प्रतिपाद्यपदार्थसार्थानां कौमुदीय कौमुदी जैनसिद्धान्तकौमुदी पदार्थप्रकाशकत्वादिगुणैश्चन्द्रिकासादृश्यमस्याः । अनेन अन्थारंभेऽवश्यप्रदर्शनीयमनुबन्धचतुष्टयमपि प्रदर्शितं तथा हि- अर्द्धमागधी भाषाज्ञानद्वारा तत्त्वजिज्ञासुरनाधिकारी भाषाङ्गानि सन्धिविभक्तिकारकसमासतद्धितधातुरूपकृदन्ताश्चास्य विषयः । भाषाज्ञानद्वारा तत्त्वबोधः फलम् । प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावश्व सम्बन्धः । ननु व्याकरणरूपस्यास्य कथं तत्त्वबोधजनकत्वं तत्र तत्त्वप्रतिपादनाभावादिति चेन तत्वप्रतिपादकागमभाषाज्ञानसम्पादनद्वारा तत्वबोधजनकत्वस्य सुविदितत्वात् । तथा च भाषाज्ञानं साक्षात्फलं । तत्वबोधश्च परम्पराफलमिति विवेकः । अथ संज्ञाप्रकरणम् संशाया लाघवेन शास्त्रव्यवहारप्रयोजकतया तद्द्घटितत्वेन सर्वप्रकरणाङ्गतया पूर्वमेव तत्प्रकरणमाह श्रथेति । : अ आ इ ई उ ऊ ए ओ स्वराः | १|१८|| स्पष्टम् । -श्रा - इति- अभेदानुकरणत्वादच न विभक्तिः । संहिताया अविवक्षया च न सन्धिः । अकारादेः स्वरत्वेन सर्वत्र प्रसिद्धत्वेऽपि प्रकृतानामष्टानामेवात्रोपयोगितया तेषामेव तत्संज्ञा कृता एवम व्यञ्जनसंज्ञायामपि बोध्यम् ॥ कखगघङ चछजझञ टठडढण तथदधन पफबभम | यरलव सहा व्यञ्जनानि १|१| ॥ एते व्यजनसंज्ञाः स्युः । कखेति - अकारः सर्वत्र स्पष्टमुचारणार्थः । ननु स्वरविहीनानामपि व्यञ्जनानां वर्णान्तरसाहाय्येन यथा कथश्विदेकाकितया वोश्चारणमनुभूयत इति चेन्न । असहायतया स्पष्टत्वेन परश्रवणगोचरत्वस्यैवोच्चारणे निषेधात् । अत्रेतरेतरयोगो द्वन्द्वः । व्यञ्जनसंज्ञाया विचारस्तु पूर्वमुक्तप्राय एव । अत एव षशयोः संज्ञायां न प्रवेशः । अइउ ह्रस्वाः ॥ १ । १ । १४ ॥ एते स्वसंज्ञाः स्युः ॥ अईति-सन्ध्यभावादिविचारस्तु पूर्ववत् । अत्र व्याकरणे प्रकृतस्वरत्रयस्यैव ह्रस्वतया प्रदर्शनेन श्रमाणामेव हरवसंज्ञा कृता । अत्र प्रत्येकस्वरस्य संज्ञा भवति न व समुदायस्य तादृशप्रयोगासम्भवात् । नच Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - : “संशाप्रकणरk : समुदाये वाक्यपरिसमाप्तिरिति न्यायेन समुदायस्यैव संज्ञोचितेति वाच्यं प्रत्येक वाक्य परिसमाप्तिरिति न्यायस्यैवात्राश्रयणादुभयोव्यवस्थितविषयत्वात्... . . . . , . . . . . - आईऊ दीर्घाः॥१।१।१३॥ . . ..:स्पष्टम् । आईति-पत्र न समासः किन्त्वभेदानुकरणत्वाद्विभक्तरेभावः । समासे तु समुदाये संज्ञापत्तिर्दुनिवारा स्यात् समासस्य समुदाये शक्तत्वात् कथंचिद्वारणकल्पनाया वाक्यमेव वरं प्रत्येक संज्ञासिद्धये । एवमेव सर्वत्रैतादृशस्थले बोध्यम्-शेषविचारस्तु पूर्ववत् । कादिमान्ताः स्पर्शाः ॥ १॥ १ ॥ १५ ॥ .' . स्पष्टम् । तत्र कादिङान्ताः कवर्गः । चादिनान्ताश्चवर्गः। टादिणान्ताष्टवर्गः । तादिनान्तास्तवर्ग: पादिमान्ताः पवर्गः। कादीति-क आदिपेषान्ते कादयः । मः श्रन्तो येषां ते मान्ताः । कादयो मान्ताश्च कादिमान्ताः मन्चविंशतिवर्णाः स्पर्शा उच्यन्ते । तत्रेति-तच्छब्दस्य प्रक्रान्तादिपरामर्शकत्वेन व्यजनेवित्यर्थः ॥ कादिङान्ता इत्यादि-कादयश्च अन्ताश्च कादिशन्ताः क ख ग धाः कवर्गशब्देन बोध्या एवमप्रेऽपि । वर्गसंकेतप्रदर्शनफलन्तु स्फुटीभविष्यत्यप्रे ॥ अन्त्यात्पूर्व उपधा । १११ । २०॥ " . अन्त्यवर्णात्पूर्वो वर्ण उपधासंज्ञः स्यात् । अम्त्यादिति-अन्त्यशब्देनान्त्यावयवो गृह्यते । अवयवत्वञ्च प्रस्तावावर्णानामेवेत्यन्त्यवर्णो लभ्यते । तथा च यज्जातीयकोऽन्त्यस्तजातीयक एवान्त्यांपूर्व इति पूर्वो वर्णो लभ्यते ॥ अनुस्वारः।१।१।१०॥ अनुस्वारो व्यञ्जनसंज्ञः स्यात् । . अनुस्वार इति-व्यजनानीत्यनुवर्तते । अभेदानुरोधाद्वचनविपरिणामः । श्र इत्यत्र स्वरात्परो वियमानो विन्दुरनुस्वार उच्यते । तस्य व्यजनसंज्ञाविधानफलन्तु व्यजनान्तरेण सह संयुक्तसंज्ञासिद्धिः । तेनो. वउज्जेत्यादौ व्यञ्जनत्रयसंयोगे सति व्यजनीभूतस्य पूर्वस्यानुस्वारस्य त्रयाणामिति सूत्रेण लोपः सिष्यति । स्वराणामन्त्यादिष्टिः ॥१।१ । १९ ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 - जैनसिद्धान्तकौमुदी स्वराणां मध्ये योऽन्त्यः स आदियस्य सं टिसंज्ञः स्यात् ।। स्वराणामिति-अत्र निर्धारणे पष्ठी तेन मध्ये इत्यस्य लाभः । तदन्त्योऽपि स्वर एव ग्राहो न तु व्यञ्जनम् । सजातीयस्यैव निर्धार्यमाणत्वात् । अंत एव गंवा मध्येऽन्त्यमानयेति प्रयोगे प्रयुज्यमानो गामेवानयति न महिषादिकमिति । न हि विजातीयस्य निर्धार्यमाणत्वे पष्ट्या अपि सम्भवः । अन्त्यादिरिति यद्यप्यत्र सामान्ये नपुंसकमेवोचितं तथापि शब्दशास्त्रे शब्दत्यैव प्राधान्यं सूचयितुमध्याहृतशब्दरूपविशेष्यमपेक्ष्य पुंस्त्वस्यापि सम्भवेनाऽन्त्यादिरित्युक्तम् । तत्रादिः क्वचित्प्रधानं कचिच्चातिदेशिकः यथा छिन्द्धातोडेंजप्रत्यय इन्भागस्य टिसंज्ञा तत्रादिर्मुख्यः । खाधातोर्डजप्रत्यय आकारस्य टिसंज्ञा तत्रादिरातिदेशिकः असहायत्वात् । अप्रयुज्यमानः सफल इत् । १।१ । १६ ॥ लौकिकप्रयोगेषु न प्रयुज्यमानः किञ्चित्कार्य विधातुं प्रत्ययादावनुबद्धो वर्ण इत् संज्ञः स्यात् ॥ अप्रयुज्यमान इति-इत्संज्ञकस्यापि प्रत्ययादौ प्रयुज्यमानत्वादप्रयुज्यमान इत्यसंगतमित्याशंक्याहप्रयोग इति । प्रकृतिप्रत्ययादेरपि प्रयोगत्वात्तत्र प्रयुज्यमानत्वस्यैव सत्त्वेन दोषस्तदवस्थ एवेत्याशङ्कायामाह लौकिकेति-लौकिकत्वंचार्थबोधनाय प्रयुक्तत्वं शास्त्रे तु शब्दानां शब्दपरत्वाददोषः । प्रकृत्यादावपि स्थायित्वा- भावात् करिष्यमाणेत्संज्ञकस्योचारणं व्यर्थमित्याशङ्कायामाह किंचित्कार्य विधातुमुपात्त इति अलौकिक प्रयोग इति शेषः । अलौकिकश्च साध्यावस्थापन्नः प्रकृतिप्रत्ययादिः । किञ्चित्कार्य-टित्त्वकित्त्वादि तत्सम्पादनेन साफल्यमस्य वोध्यम् ।। प्रसक्तस्यादर्शनं लोपः॥ १ ॥ १ ॥ १७ ॥ . .. .. . .. ... . स्पष्टम् । ..... प्रसक्तस्येति-प्राप्तस्येत्यर्थः न तु स्थितस्यैवेत्यर्थः तेन तार्थकस्याविद्यमानत्वेऽपि "आसणाओ पासई" इत्यादौ चार्थकान्तस्य शब्दस्य प्राप्त्यैव तदभावस्य लोपसंज्ञायां पञ्चमी सिद्ध्यति अदर्शनं-दर्शनाभावः । अभावायऽव्ययीभावः . इतः ॥३।४।१२ ॥ . . - इत्संज्ञकस्य लोप: स्यात् ।। इत इति-तीपि न्तस्येति सूत्रांल्लोपं इत्यनुवर्तते नन्वित्संज्ञां विधाय लोपरणापेक्षयेत्संज्ञकत्वेनोहिष्टानां लोप एवं विधीयताम । किं लोपशास्त्रस्य परमखनिरीक्षगोनेति चेत्र क्लिानिमार्गमा आवश्यकत्वात् । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञाप्रकरणम् स्वरादनन्तराणि संयुक्तम् ॥ १।१ । ११ ।। खराव्यवहितानि व्यजनानि संयुक्तसंज्ञानि स्युः ॥ स्वरादिति-जात्यपेक्षयैकवचनं तेन स्वरद्वयादिव्यवधानेऽपि संयुक्तसंज्ञा न भवतीति—यद्यप्यव्यबहितानि संयुक्तानीत्यनेनापि स्वराज्यवहितानीत्यस्य लाभः संभवति विजातीयेनैव व्ययधानस्य प्रसिद्धतया व्यञ्जनानां स्वरेणैव व्यवधानसम्भवेन तेनैवाव्यवधानस्यापि लाभसम्भवात् । तथापि स्पष्टतया तत्प्रतिपादनायैव स्वरादित्युक्तम् । व्यन्जनानाति-- अनुस्वारो व्यसनमिति सूत्राद्व्यश्वनमित्यस्यानुवृत्तिः । वहुत्वमत्राविवतितं द्वयोरपि संयुक्तसंज्ञादर्शनात् प्रत्येकं तु न संयोगसंज्ञा लक्ष्यानुरोधात् । आर्या दण्ड्यन्तामितिवत् समुदाये वाक्यपरिसमाप्तः। आदेदोद् वृद्धिः॥११॥१२॥ आत् एत् ओत् इत्येते वृद्धिसंज्ञाः स्युः ॥ आदिति-अत्र पदत्रयम् । स्पष्टप्रतिपत्त्यर्थं तकारत्रयनिवेशः । समुदायसंज्ञावारणादिप्रकारस्तु दर्शित एव । अनादेदोष संज्ञिनः वृद्धिः संज्ञा न तु विपरीतमनुवाद्यमनुद्दिश्य न विधेयमुदीरयेदिति वचनात्पूबोबारिताः संज्ञिनः परोच्चारिता संज्ञेति नियमात् । अदिदुतामदाताविदीदेत उदूदोतः सवर्णाः ।।१।२१॥ अदिदुतां क्रमेण अदातौ इदीदेतः, उद्दोतः सवर्णा भवन्ति ॥ अदिदुतामिति-श्रञ्च इच्च उच्च अदिदुतस्तेषाम् । अञ्च आच्च अदातौ । इञ्च ईञ्च एच इदीदेतः । उप मा भोव उदूदोतः । इति त्रयः समुदाया प्रकारेकारोकाराणां त्रयाणां क्रमेण सवर्णा भवन्ति । तथाचाकारस्याकाराकाराविकारस्येकारेकारैकारा उकारस्योकारोकारौकाराः सवर्णा भवन्तीति सिद्धम् । __ वर्गेषु प्रथमद्वितीययोः प्रथमस्तृतीयचतुर्थयोस्तृतीयः। ११ १।२२॥ कचटतपवर्गेषु कखयोश्चछयोप्टठयोस्तथयोः पफयोः कचटतपाः गधयोर्जझयोर्डढयोर्दधयोर्बभयोः क्रमेण गजडदवाः सवर्णा भवन्ति ॥ वर्गेविति-कवर्गचवर्गटवर्ग तवर्ग पवर्गेष्वित्यर्थः प्रथमत्वादिव्यवहारश्च मातृकावर्गपाठापेक्षया बोभ्यः । अदिदुतामिति सूत्रात्सवर्णा इत्यस्यानुवृत्तिः क्रमेणेति तथा च कखयोः ककारश्चछयोश्चकारष्ठठयोष्टकारस्तथयोस्तकारः पफयोः पकार एवं गघयोर्गकारो जझयोर्जकारो डढयोर्डकारो दधयोर्दकारो वभयोर्वकारः सवर्ण इति सिद्धम् । विशेषणं तदन्तस्य ।। १ । १ । २३|| . विशेषणं तदन्तस्यापि संज्ञा स्यात् । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुदी ............. विशेषणमिति-अनः शास्त्र विशेषणत्वेन यदुपादीयते तदेव विशेषणपदेनाभिधीयते । विशेषणं व्यावर्तकम् । तथा च नान्न इत्याद्यनुवृत्तौ तद्विशेषणमदादिपदं तदन्तस्य संज्ञाकरणेनादन्तादिबोधकं भवति अतएव तत्तत्स्थलेऽभेदान्वयः सम्पद्यते यथाऽदितः पुंस्यत इत्यादि सूत्रेऽत इत्यनेनादन्तस्य ग्रहणे . ४ . 1. नामपदस्याभेदान्वोऽदन्ताभिन्ननाम्नः परस्येत्याद्यर्थो लभ्यते । :: :: :: . . . .. .. . . सुप्त्यादि. विभाक्तिः ॥१११:२८॥... :: ... ... . . . . . . . .. सुपू त्यादि च विभक्तिसंशे स्तः ॥ . , . . . . . . . .' सुप्त्यादीति-अत्र सुप्पदेनोदादीवन्तो गृह्यते। त्यादिपदेनाज्ञाप्रवर्तनावर्तमानभूतभविष्यदर्थको प्रत्ययाः । अन्यत्र तु त्यादिपदेन तिन्तिसिहमिमव एव गृह्यन्ते तेन त्यादिपदेनाज्ञाद्यर्थकं प्रत्ययमुपादाय तस्मिन् परे विधीयमान प्रत्यया न विधेया इतिसिद्धम् ।।उक्तसुप्यादेविभक्तिसंज्ञायाः फलन्तु 'अविभक्ति नामेति' सूत्रेण तदन्तस्य नाम: संज्ञानिषेधः तत्र विभक्तिरहितस्यैव नामसंज्ञाविधानात् । . .. . इति संज्ञाप्रकरणम् । इतीति-सन्धिकार्योपयोगिनीनां व्यापिकानां च संज्ञानां प्रकरणं समाप्तमित्यर्थः। .. sccooccered .. अथ परिभाषाप्रकरणम् ।... . . . : .. .... स्वरस्य हखदीर्घवृद्धयः ॥ १.१ १.१.॥ . . हवदीर्घवृद्धिशब्दैर्यत्र हस्वदीर्घवृद्धयो विधीयन्ते तत्र खरस्येतिपदमुपतिष्ठते । स्वरस्येति-इदञ्च न विधायकं तत्तत्सूत्रेणैव ह्रस्वादिसिद्धेर्नचानेनैव हस्खादिसिद्धौ माऽस्तु तत्तत्सूत्रमिति वाच्यम्।सामान्यतया तद्विधानेहस्वखराणामेव विलयापत्तेः । नापि नियामकम् । नियामकत्वं हि द्विविध स्वरस्यैव हस्वदीर्घवृद्धय इत्येकम् । स्वरस्य हस्वदीर्घवृद्धय एवेति द्वितीयम् । तत्र व्यञ्जनस्य तदसंभवादाद्य व्यर्थम् । द्वितीयमपि न सम्यक् स्वरलोपादिविधायकस्य वैद्यर्थ्यापत्तेः। नचेष्टापत्तिरिति वाच्यम् । बहुलक्ष्यासिद्ध्यापत्तेः । नापि संज्ञासूत्रं तत्तसूत्रेणैव खरस्य हस्खादिसंज्ञासिद्धः । न चानेनैव तन्निर्वाहः सम्भवति स्वरसामान्यस्य संज्ञात्रयकरणेऽनिष्टापत्तेः । नापि प्रतिषेधक नबोऽश्रुतेः । नाप्यधिकारसूत्रमुत्तरत्रानुवृत्त्यभावाद्वैयापत्तेः । नाप्यतिदेशः वतिघटितत्वाभावात् , किन्तु परिशेषात्परिभाषासूत्रमिदम् । षड्विधान्येव हि सूत्राणि. संज्ञा च परिभाषा च विधिनियम एव च ।। अतिदेशोऽधिकारश्च षड्विधं सूत्रलक्षणमित्युक्तः । तथाच Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभाषाप्रकरणम् खदीर्घवृद्धिशब्दाना' हखदीर्घवृद्धिशब्दैविहितहस्वदीर्घवृद्धिपु लक्षणया हरदीर्घवृद्धिशब्दैर्यत्र हस्वदीर्घद्धीनां विधानं तत्र स्वरस्येति पदमुपतिष्ठते इत्यर्थसिद्धौ पदोपस्थापकत्वमस्य सिद्ध्यति इतिपदस्योपतिष्ठत ति पदस्य चान्याहारः । हस्खदीर्घवृद्धिशब्दैरित्यस्याभावे भगवया भगवओ इत्यादाविणस्सयोर्विधीयमानस्यागरौकारस्यापि दीर्घघृद्धिरूपत्वेन तत्रापि स्वरस्येति पदोपस्थित्या "इणस्सयोः स्वरस्यैवादेशापत्तेः। .. प्रत्ययस्य लोपः सर्वस्य ।१।१।२॥ .. .. . प्रत्ययस्थानिको लोप सम्पूर्णस्थाने बोध्यः ॥ । प्रत्ययस्येति-षष्ठी निर्दिष्टत्वादन्त्यस्य प्राप्ताविई सूत्रम् । तथा चान्त्यस्य षष्ठ्या. इति सूत्रस्यापवादः । प्रत एष हेरत इति सूत्रेण विधीयमानो लोपोऽन्त्यमात्रस्य न । किन्तु हेः समुदायस्यैव । तत्रासति. तात्पर्य त्यपि बोध्यम्। अत एव यत्र प्रत्ययस्यान्त्यमात्रलोपे तात्पर्यमस्ति तत्र..न समुदायलोपशंकावसरः । त्पर्यज्ञानं च प्रकरणादिना बोध्यम् । ननु अवयवे प्रत्ययत्वाभावेन तत्स्थानिकलोपस्य सुसरां प्रत्ययस्थानिकत्वाभावेनैवास्य सूत्रस्याप्राप्त्या व्यर्थमेवेदं सूत्रमितिचेन्न । न हावयवेऽपर्याप्तस्य समुदाये पर्याप्तिरस्तीति नेयमेनाबयवेऽपि प्रत्ययत्वपर्याप्तिसम्बन्धस्य सत्वेन प्रत्ययस्थानिकत्वानपायात् । तथा च प्रत्ययावयवस्य राप्तो लोपः तवयवघटितसमुदायस्यैव स्यादिति फलितार्थः । (एतेन प्रत्ययस्थानिक इत्यस्य प्रत्ययत्वपर्याप्तस्थानिताक इत्यर्थः तथा च प्रत्ययावयवस्य लोपवाधनार्थमिदं सूत्रमित्यसंगतमेव प्रत्ययावयवे नत्मयत्वस्याभावेन तत्रैतत्सूत्राप्रवृत्तेः पर्याप्तिसम्बन्धेन समुदाय एव प्रत्ययत्वस्य सत्त्वादित्यपास्तम्)। अवयवे पर्याप्त्याऽवर्तमानस्य धर्मस्य समुदायेप्यसम्भवात् प्रत्येकमिलितस्यैव समुदायरूपत्वात् । तदुक्तं महाभाष्ये 'एकस्तिलस्तैलदाने यतः समर्थोऽतस्तत्वार्यपि ददाति । एका च सिकता न समर्थाऽतस्तत्वार्यपि न ददातीति ।" तथा च प्रत्येकावृत्तः समुदायावृत्तित्वमिति सिद्धम् । प्रत्येकापर्याप्तस्यापि समुदाये पर्याप्तिरस्ति । अन्यथैकस्मिन् भृत्येऽवर्तमानस्य शिविकावहनसामर्थ्यरय तत्समुदायेपि वृत्तित्वं न स्यादिति पक्षाश्रयणे तु प्रत्ययपदस्य प्रत्ययावयवे लक्षणया प्रत्ययावयवस्थानिकलोपः तद्धटितसमुदायस्यैवेत्यर्थो बोध्यः ॥ . . .. .. स्वराणामन्त्यात्परो:मित् ॥१।१।४॥ . . ..... स्वराणां मध्ये योऽन्त्यस्वरस्तस्मात्परो मिदागमः स्यात् ॥: : - स्वराणामिति-निर्धारणे पष्ठी । तेनान्त्यस्वर इति लभ्यते सजातीयस्यैव निर्धार्यमाणत्वादित्युक्तमेव । मकार इत् यस्मिभिति मित् । इणाणेहीसीसूनां ममिति -सूत्रेणेणादेर्ममागमे विहितेऽनेन तस्यान्त्यवरात्पर इति स्थाननिश्चये जिणेण मित्यादिः सिद्ध्यति । आगमस्य किद्भावेप्यन्त्यावयवत्वसिद्धौ व्यर्थमेतदिति तु न रायं लभादेर्ममागमे सफलमेतत् । तत्र ममागमे भकाररय स स्यात्तथाच लभेत्यादिरूपासिद्धेः ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुदी समानयोर्विरोधे परम् । १ । १ । ५ ॥ तुल्यबलयोर्युगपदेकत्र प्रसङ्गे परं कार्यं स्यात् । समानयोरिति - समानस्तुल्यबलः अन्यत्रान्यत्र लब्धावकाश इति यावत् । विरोध एकत्र तयोर्द्वयोर्युगपत्प्राप्तिः । एतेन निरवकाशस्याधिकवलस्य व्यवच्छेदः कृतः तथा तुल्यबलस्याविरुद्धस्य च निवारणं कृतम् । 35 अन्त्यस्य षष्ठ्याः ॥ १ । १ । ६ ॥ षष्ठयन्तस्य क्रियमाणं कार्यमन्त्यस्य बोध्यम् । अन्त्यस्येति—कार्य मित्यध्याहृतम् पष्ठ्या इत्यत्र स्थान्यादेशभावः षष्ठयर्थः । तेन क्रियमाणमिति लभ्यते प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहणमिति परिभाषया षष्ठ्यन्तश्येति लभ्यते । यत्र स्थानषष्टी विद्यते तत्रैवारय सूत्रस्य प्रवृत्तिर्न त्ववयवावयविभावार्थकषष्ठीस्थले तेनागमेऽस्य न प्रवृत्तिः । षष्ठ्यन्तस्येत्यस्य षष्ठयन्सपदबोभ्यस्येत्यर्थः । अनेकवर्णसित् ॥ १ । १ । ३ ॥ अनेकवर्णादेशः सिदादेशश्च सर्वस्य बोध्यः । अनेकवर्णेति --- आदेश इत्यध्याहारलब्धः । अन्त्यस्य षष्ठ्या इत्यस्यापवादः । श्रनेको वर्णो यत्रेतिबहुव्रीहिः । सकार इद्यत्र स सित् अनेकवर्णश्च सिञ्चेति समाहारद्वन्द्वः तेनैकवचनं सिद्ध्यति । न चेतरेतरयोगेऽपि सौत्रत्वादेकवचनं सिद्ध्यतीति वाच्यम् । सिद्धगत्यैव निर्वाहे सौत्रत्वकल्पनाया व्यर्थत्वात् । सर्वस्येति पूर्वसूत्रादनुवर्तते ॥ afaaraौ ॥ १ । १४७ ॥ टिकितौ यस्य विहितौ तस्याद्यन्तौ भवतः । टकिताविति - कश्च टकौ । टकावितौ ययोस्तौ टकितौ । श्रदिश्च अन्तश्चाद्यन्तौ । टकारेऽकार उच्चारणार्थः । अत्र क्रमेणान्वयाट्टित्कार्यमाद्यवययो भवति चित्कार्यमन्त्यावयवो भवति । ननु एक धर्मावच्छिन्न एकरूपेणैकसम्वन्धेनान्वयरूपस्य साहित्यस्यान्त्राभावेन कथं द्वन्द्वसम्भवः टित आदौ कितोऽन्तेऽ न्षयादिति चेत्सत्यम् | शत्रुं मित्रं विपत्तिं च जय रञ्जय भञ्जयेत्यादौ लोके समसंख्यानां यथासंख्येनैवान्वयस्य दृष्ट्श्वेन व्याकरणेपि तथैव सिद्धौ पाणिनीयतन्त्रे यथासंख्यसूत्रारम्भसामर्थ्याद् व्याकरणे साहित्याभावेपि द्वन्द्वो भवतीति ज्ञापनात् । ॥ इति परिभाषा प्रकरणम् ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ स्वरसन्धिप्रकरणम् SHEXT वृद्धिरतः स्वरे परस्य सवर्णः । ३ । २ । ३० । अकारात्स्वरे परे पूर्वपरयोः परस्य सवर्णा वृद्धिरेकादेशः स्यात् ॥ जिगसरो । चाउलोदगं । समणोवासगो । वृद्धिरिति — पूर्वसूत्रात्पूर्वपरयोरित्यस्यानुवृत्तिः । विशेष्यानुरोधात् सवर्णस्य स्त्रीत्वम् । जिण + ईसरो इत्यन्न पूर्वपरयोरकारेकारयोः स्थाने परश्येकारस्य सवर्णा वृद्धिरेकारः । आकारादेर्वृद्धित्वेऽपि नेकार सावर्ण्यमिति न जिणासरो अपितु जिणेसरो । चाउल + उद्गमित्यत्रोकारस्य सवर्णा वृद्धिरोकारः । एवं समरण + उवा सगो इत्यत्रापि । अदिदुतः सवर्णे दीर्घः । ३ । २ । ३१ ॥ अकारादिकारादुकाराश्च सवर्णे स्वरे परे पूर्वपरयोदीर्घ एकादेशः स्यात् || गमणागमणे । ईति । भारदयो || श्रदिदुत इति—चत्र समाहारद्वन्द्वः । श्रत एवैकवचनम् । तपरकरणमसन्देहार्थे न तु समानकालग्रहखार्थम् । तेन।दीर्घाणामप्याकारादीनां प्रहरणम् । एकारादेरपीकारादिसावर्थ्यान्तस्मिन्परे पूर्वपरयोर्दीर्घ एकादेशः स्यादित्यतः स्वरादित्यनुक्त्वाऽदिदुत्त इत्युक्तम् ॥ गमागमण इति - अनाकाराकारयोः स्थाने दीर्घ एकादेशः । एवं अ + इति । भाणु + उदयो इत्यत्रेकारयोरुकारयोश्च स्थाने दीर्घादेशः ॥ स्वरयोरव्यवधाने । ३ । ४ । २१ ॥ स्वरयोर्व्यवधानाभावे प्रकृतिभावो बहुलं . स्यात् । अगरो । श्रई । अइही । श्रउज्झा | यारो | पंजलिउडा | स्वरयोरिति प्रकृतिभावो बहुलमिति पूर्वसूत्रादनुवर्त्तते । बाहुल्यश्च " कचित्प्रवृत्तिः कचिदप्रवृत्तिः कचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव । विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति" बाहुलकमित्यत्र स्वार्थे तेन बहुलमित्यर्थः । तथा च रूढशब्दघटकस्वरस्य तद्घटकस्वरेण नित्यं प्रकृतिभावः । समासादौ त्वसवर्णयोः स्वरयोर्यथाप्रयोगं सः । सवर्णयोस्तु प्रायो दीर्घ एव । असवर्णेऽपि प्रायोतः स्वरे परे वृद्धिरेव ! केवल मिकारोकाराभ्यामेवासवर्णे खरे परे प्रायः प्रकृतिभावः । ? Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धान्तकौमुदी लोपोsन्यतरस्य । ३ । ४ । २४ ॥ स्वरयोरव्यवधानेऽन्यतरस्य लोपो बहुलं रयात् । इक्कसीई । तहारी । तेसी । तत्थिमं । नोवलभामहं । रमामहं । जिणामहं । नस्सामहं || I 1 लोप इति — अनानुक्तस्य पूर्वसूत्रादनुवृत्तिः । अन्यतरस्येति — पूर्वस्य वा परस्येत्यर्थः । प्रयोगेषु यथा यथोपलभ्यते तथा तथा पूर्वस्य वा परस्येति निर्धार्य तेन विनिगमनाविरहाद्विपरीतलोपरतु न शक्यः । इक + असीइ । तह + इन्ति । ते + असी । इत्युदाहरणन्त्रये परस्य स्वरस्य लोपः । तत्थ + इमं । दस० ६, ९; नोवलभाभि + अहं । उत्त० १९, १३; रमामि + अहं । ०१९, १४; जिणामि + अहं । उत्त० २३,३६; नस्सामि + अहं ! उत्त०२३, ६१; इत्युदाहरणपश्व के पूर्वस्य लोपः ॥ : पूर्व एकः पूर्वपरयोः | ३|२|२५|| इदुतोरसवर्णे रवरे परे पूर्वस्य सजातीय श्रादेशः स्यात् । पल्लेको । समभितो । पूर्व इति - पूर्वस्येति पूर्वसूत्रादनुवर्त्तते । इदुतोदित्य तकारः रपष्टार्थो न तु दीर्घादिनिवृत्यर्थः तेनेदुतो रित्यनेन हस्वदीर्घयोरिकारेकारयोरुकारोकारयोश्च ग्रहणम् । पूर्वशब्देनोपान्तत्वात्तथान्यव्यवहितं पूर्वस्यैव बोध्यम् । तेन पूर्वंशब्देन यत्किश्विदादाय न पकारादिसदृशरयापत्तिः । साजात्यश्व पूर्ववर्णवृत्त्यानुपूर्व्या न तु वर्णत्वादिना तेन नापत्तितादवस्थ्यम् || बाहुलकात्पंज लिउडेत्यादौ प्रकृतिभाव एव । पलि + अंको इत्यत्र लकारोत्तरवर्त्तीकारस्य लकारादेशः । समनु + इतो इत्यत्र नकारोत्तरवकारस्य नकारादेशः ॥ समानयोः पूर्वस्य सवर्णः । ३।२।२२ ॥ समानवर्णद्वयाव्यवधाने पूर्वस्य स्वसवर्ण आदेशः स्यात् । भुमि ॥ समानयोरिति-सदृशयोरित्यर्थः सादृश्यश्वानुपूर्व्या तथा चैकानुपूर्वीकवर्णद्वयस्याव्यवधानमित्यर्थः । पदव्यवच्छेदार्थं वर्णेति पूर्वस्येति रथानषष्ठी पूर्वस्य स्थाने इत्यर्थः । सवर्ण इति कस्य सवर्णं इत्याकांक्षायामाह - स्वसवर्ण इति स्थानिना सह गरिहसम्बन्धात्था निसवर्ण एव भवतीति भावः । द्वयमिति फलितार्थं व्यञ्जनत्रयसमभिव्याहाराभावात् । सावर्ण्यभ्य वर्गेविति सूत्रे दशितम् । अभि + उट्ठेमि इत्यन्त्रेवारस्य भकारे जाते पूर्वभकारस्य सवर्णो वकारः । तरहेभ्यञ्चजमा इदुतोरसवर्णे स्वरे | ३ | २|२४|| तकाररेफहकारेभ्यः परयोरितोः क्रमेण चजझा आदेशाः स्युरसवर्णे स्वरे परे । पच्चपिणइ । पज्जुवसिंया । श्रज्झयणं ॥ तरद्वेभ्य इति - अनवर इति स्थाम्यादेशानां यथासंख्यत्वाभावेऽपि निमित्तादेशानां यथा संख्यस्थेन Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ কােমবে क्रमेणेति लाभः । तथा च तकारात्परयोरिदुतोश्चकारः । रेफात्परयोर्जकारः । हकारात्परयोश्च मकार इत्यर्थः । पति + अप्पिणइ इति प्रथमोदाहरणेऽनेनेकारस्य चकारे तकारस्य परसवर्णः । परि + उवासणेति द्वितीय इकारस्य जकारे रेफस्य परसवर्णः । अहि + अयणमिति तृतीय इकारस्य जकारे,हकारस्य परसवर्णे झकारः ।। सिस्लादिषु संयुक्तस्य वा तस्मिन्पूर्वस्य दीर्घः।४।१।११॥ एषु संयुक्तस्या लोपो वा तस्मिन्सति पूर्वस्वरस्य दीर्घः स्यात् । सीसो, सिस्सो । दूसहो, दुस्सहो । णीणेइ । वीसमइ, विस्समइ । आसासि ॥ आसो, अस्सो . आसत्थो, अस्सत्यो । आभक्खाणं, अभक्खाणं ॥ सिस्सादिष्विति'चोरवणिग्भ्यामिति सूत्रादादेरित्यस्य 'लोपोऽन्यतरस्येति' सूत्रालोप इत्यस्य चानुवृत्तिः । सिस्सादिषु-सिस्सादिगणपठितेषु शब्देषु धातुषु च सिस्सो, दुस्सहो, णिपणेह, विस्समइ, अस्सासिन, असो, असत्थो, अब्भवाणं, मगुस्सो, लुकखो, अमावस्सा, जिब्मा एते सिस्सादयः । आकृतिगणोऽयम् सूत्रत्यै कस्मिन्प्रयोगे सत्प्रवृत्चवारसकरलोपदोघयोः 'प्रवृत्तौ न पुनस्तथा । नामक्खाणमित्यादिषु आभक्खाणमित्येवरूपं न त्वाभाखाणमित्यपि शास्त्रेषु तथानुपलब्धेः प्रयोगानुसारित्वाव सूत्रप्रवृत्तः। खरादस्य यडू बहुलम् । ४.११५६ ।। खरात्परयोरकाराकारयोर्यडागमो बहुलं स्यात् ॥ विपरियासो, विपरित्रासो । पलियं को, पलिअंको॥ स्वरादिति-अकारणाकारस्यापि ग्रहणादाह अकारकिारयोरिति विपरि + आसो इति स्थिते इकारात्परस्याकारस्य यडागमे टिस्वादाकारस्यायवयव विपरियासो । यडागमाभावे विपरिआसो एवं पलि + अंको इत्यत्र यडागमे पलियंको पक्षे पल्लको ॥ . स्वराद्यस्य. स्वरे ॥३।४।२५ ॥ स्वरात्परस्य यकारस्य -लापो बहुलं स्यात् स्वरे परे । जिइदिए । गइंदों ॥ स्वरादिति-बहुलं लोप इत्यनयोः पूर्वसूत्रादनुवृत्तिः । जिय + ईदिए इस्यत्रेकाराकारयोर्मध्ये स्थितस्य यकारस्य लोपः । गय + इंदो इत्यत्राकारद्वयमध्यस्थितस्य यकारस्य लोपः । यलोपे सत्यवशिष्टस्याफारस्य लोपोऽन्यतरस्येति सूत्रेण लोपः । संयुक्ते ॥३॥ ३ ॥२॥ संयुक्त परे पूर्वस्य स्वरस्य हस्वो बहुलं स्यात् । अक्कोसइ । किएणो । पत्तं । भारियत्ता । गाच्छज्जा । गच्छेज्जा । हुज्जा । होज्जा ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुदी संयुक्त इति-बाहुलकावुवाहरणचतुष्टये नित्यं हस्वः । अन्तिमोदाहरणद्वये विभाषया हस्वः । हस्वो पालमित्यनयोः पूर्वसूत्रादनुवृत्तिः । स्वरस्य हस्वदीर्घवृद्धय इति परिभाषया स्वरस्येति लाभः । पूर्वस्येति फलिवार्यः। बा कोसइ = अकोसह । की+ एणो = किरणो। पा+ = पत्तं । भारिया + ता= भारियत्ता । ' गच्छ एजागछिज्जा, गच्छेज्जा । हो+जा= हुजा, होजा ॥ इति स्वरसन्धिप्रकरणम् । 4-08 अथ व्यञ्जनसन्धिः। अहे व्यञ्जनस्य परस्य ॥३।२।२३ ॥ हभिन्ने व्यञ्जने परे पूर्वव्यञ्जनस्य परसवर्ण आदेशः स्यात् ॥ सकारो । उकसो । निचरइ । . इड्ढी ॥ . अह इति-नहः अहः तस्मिन् हभिन्न इत्यर्थः अत्र लाघवान् नमः पर्युदासार्थो गृह्यते न तु प्रसज्यप्रतिषेधार्थः । नमः क्रिययाऽन्वयेनाऽसमर्थसमासकल्पनेन च गौरवात् । पर्युदासो भेदः सादृश्यश्च तथा च हभिन्ने हसदृश इत्यर्थलाभः । सादृश्यश्च व्यजनत्वेनेत्यत आह हमिन्ने व्यञ्जने परे पूर्वस्येति सवर्ण इति च पूर्वसूत्रादनुकृष्येते । अहे इति किम् ? । तुम्हे अम्हे इत्यादौ मकारस्य हकारो माभूदिति । सत् + कारो। उत् + कसो । निर् + चरइ । इत्युदाहरणत्रये पर एव परसवर्णः । इध् + ढी इत्यत्र तु डकारः ढकारस्य सवर्णः । - त्रयाणाम् ॥४।१ । १२ ॥ __ त्रयाणां व्यञ्जनानां संयुक्तस्यादेर्लोपः स्यात् । निच्छुभइ । पुट्ठो ॥ . प्रयाणामिति-लोपोऽन्यतरस्येति सूत्राल्लोपः । चोरवणिग्भ्यामित्यत आदेः। सिस्सादिष्वितिसूत्रासंयुक्तस्येत्येतत्पदनयमनुकृप्यते । व्यञ्जनानामिति विशेष्यं विशेषणबलालभ्यते । शास्त्रेषुव्यन्जनद्वयस्यैव संयोग उपलभ्यतेऽसो यत्र त्रयाणां न्यजनानां संयोगस्तत्र त्रयाणामादिव्यञ्जनस्य लोप इत्यर्थः । निर् + च्छुभईत्यत्रादिम्य जनस्य रेफस्य पुच्छ ठो इत्यत्रादिव्यसनस्य चकारस्य च लोपः ॥ अपूर्वस्य ॥४।१।१३॥ संयुक्तस्यादेर्लोप: स्यात् संयुक्तमपूर्वं चेत् । कमइ । किणेइ । अपूर्वस्य किम् । निकमई । विकेह ॥ अपूर्वस्येति-पूर्ववत्पदन्त्रयस्यानुवृत्तिः । अपूर्वस्येत्यत्र न पूर्वो यस्मात्तदपूर्वमिति विग्रहस्तेन संयुक्तमपूर्व चेदिति फलितार्थः । नि+ कमईत्यत्र संयुक्तप्त्य निपूर्वकत्वात् वि + केहेत्यत्र विपूर्वकस्वाञ्च न लोपः ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ व्यम्जनसन्धिप्रकरणम् दो हो धः ॥ ३ ॥ ४ ॥६॥ दकारात्परस्य हकारस्य धकारः स्यात् । उद्धरो ॥ द इति-दः हः ध इति पदत्रयं क्रमेण पञ्चम्यन्तं पष्ठयन्तं प्रथमान्तभ्च । उद् + हर इत्यत्र हकारस्य हमिवाभावाद व्यञ्जनस्येति सूत्र त्याप्राप्तावनेन हकारस्य चकारो विधीयते । अहणमित्यादिषु अकारात्परस्य माभूदिति प्रथमं पदम् ॥ उदः सरछो, वा ॥ ३ । ४ । ४ ॥ उदः परस्य सकारस्य छकारो वा स्यात् । उच्छाहो । उच्छयो । पक्षे उत्साहो । उस्सयो ॥ उद इति - उद्ः सः छ इति पदत्रयं क्रमेण पञ्चम्यन्तं षष्ठयन्तं प्रयमान्त च । उद उदुपसर्गादित्यर्थः । उद् + साहो इत्यत्र विशेषविहितत्वानिरवकाशवाघ, सकारस्य छकारस्ततोऽहे व्यञ्जनस्येतिसूत्रेण दकारस्य परसवर्णञ्चकारः । एवं उद् + सयो - इत्यत्रापि । पक्षे – छकारस्य वैकल्पिकत्वात्तदभावपक्षेऽद्दे न्यमनस्येति दकारस्य परसव सकारः ॥ वर्णानामभावोऽवसानम् ॥ १ । १ । १८ ॥ स्पष्टम् ॥ वर्णानामिति -- यदनन्तरं कोऽपि वर्णो नास्ति तादृशः पदस्य वाक्यस्य वाऽन्तोऽवसानमित्युच्यते । संज्ञासूत्रमिदम् । अस्य फलन्तुम्नो नुस्वार इत्यत्रानुपदमेव व्यक्तीभविष्यति ॥ नोsनुस्वारोऽवसानव्यञ्जनयोः । ३ । ४ । १॥ अवसाने व्यञ्जने च परे मकारनकारयोरनुस्वारः स्यात् । निओइउं । संसमरह | अच्छंति । नोग्नुस्वार इति - नोरिति पष्टोद्विवचनम् । वर्णोपरि बिन्दुरनुस्वार उच्यते । नन्ववसानस्याभावत्वापरत्वव्यवहारो न स्यादिति चेत्सत्यम् । वुद्धिकृतपरत्वव्यवहारस्य तत्रापि सम्मतत्वात् । निश्रोइड इत्यवसानस्योदाहरणम् । सम् + सरइ = संसरईति । व्यञ्जनस्योदाहरणम् । अच्छ + न्ति — इत्यत्र तकाररूपव्यञ्जने परे नकारस्यानुस्वारः । अहे व्यञ्जन त्येत्यस्यापवादभूतमिदम् । स्वरे वा ॥ ३ । ४ । २ ॥ मकारस्यानुस्वारो वा स्यात्स्वरे परे । कुंथु यरं च । उसभमजित्रं च ॥ स्वर इति नरनुस्वार इति पूर्वसूत्रादनुकृष्यते । कचिदेकदेश इति न्यायेन । कुंथुम् + अरं चेत्यन्त्राकारे परे मकारस्यानुस्वारो जातः । पक्षे कुंथुमरं चेत्यपि । उसभम् + अजिनं चेत्यत्र मकारस्यानुस्वारा - भावः प्रदर्शितो वैकल्पिकत्वात् — पक्षेऽनुस्वारोऽपि ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुदी तस्य स्पर्शेषु तवर्गपञ्चमः । ३ । ४ । ३ ॥ स्पर्शेषु परेष्वनुस्वारस्य परवर्णवर्गस्थः पञ्चमो वर्ण आदेशो वा स्यात् । सङ्कमइ । सञ्चरइ । सण्डीणो । सन्तपइ । सम्पावेइ । पक्षे संकमईत्यादि । - तस्यति-तच्छदस्य पूर्वपरामर्शकस्वाद्विधीयमानोऽनुस्वारः परामृश्यते । स्पृशन्ति स्वस्वस्थानं स्पष्टतयेति स्पर्शाः कादयो मान्ता वर्णाः पञ्चविंशतिस्तेषु परेत्रित्यर्थः ॥ नखर्गेति-द्वितीयतच्छब्देन स्पर्शवर्णः परामृश्यते । तेन स्पर्शरूपपरवणे लभ्यते तस्य यो वर्गः कवर्गादिः तत्र स्थितः पञ्चमो वर्णः उकारादिः सोऽनुस्वारस्यादेशो वा स्यादित्यर्थः । सम् + कमईत्यत्र नोरनुस्वार इति सूत्रेणानुस्वारेऽनेनाजुस्वारस्य परवर्णवर्गः कवर्गस्तस्य पञ्चमो' वर्णः डकारो जातः । संचरईत्यत्र बकारः । संडीणो इत्यत्र णकारः संतपईत्यत्र नकारः । संपावेईत्यत्र मकारश्च । पक्षे पञ्चमवर्गादेशाभावेऽनुस्वारस्यानुस्वार एव तिष्ठनीति भावः ।। अनुस्वारस्य पनि वा ॥ ४ ॥१॥ ३९ ॥ अनुस्वारस्य लोपो चा णमि परे । अहणं । अहएणं । तेसिणं । तेसिएणं ॥ अनुस्वारस्येति लोप इत्यनुवर्तते । णमित्यव्ययं वाक्यालंकारे वर्तते। अहं+ णमित्यत्रानेनानुस्वारलोपे अहणं । लोपाभावे तस्य स्पशेष्वित्यनेन वर्गपञ्चमवर्णादेशे अहरणं । एवं सेसिंणमित्यत्रापि ।। च्चे जादिभ्य श्रोः।३।४।४५ ॥ जादिशब्देभ्यः परस्य प्रथमैकवचनस्य लोपः स्यात् च्चे परे। जच्चेव । तच्चेव । जीवच्चेव । अजीवच्चेव। ञ्चे इति-लोप इत्यस्यानुवृत्तिः । ओरित्युशब्दस्य षष्ठयेकवचनम् । उश्च प्रथमैकवचनप्रत्ययः । खेत्यव्ययं समुच्चयादौ ज श्रादिर्येषां ते जादयस्तेभ्यः । ज, त,जीव, अजीव इत्यादयो जादयः । श्राकृतिगणोऽयम् । न, उ, आवेत्यत्रोलोपे जश्व एवमन्यत्रापि ॥ इति व्यजनसन्धिप्रकरणं समाप्तम् Sidd अथ स्वरविकारप्रकरणम् ----etermscern -- . इ. किवणादीनां मध्यस्य स्वरस्य ॥ ३ ॥ ३ ॥ ४२ ॥ किवणादिगणपठितानां मध्यस्वरस्येकारो वा । किविणो, किवणो । परिमं, चरमं । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ स्वरधिकारप्रकरणम् पुरिसो, पुरुसो । भुइंगो, भुभंगो॥ इरिति-बहुलाधिकाराद्विकल्पलाभः । बहुलशब्दस्थाने तयंकवाशब्दोपादानेन वैकल्पिकमेवेदमिति लभ्यते । एवमन्यत्रापि । यत्रानेकविधं कार्य तत्र बहुलमित्येवोच्यते यत्र विविधमेषकार्य तत्र बहुलमाणफलितो वा शब्द एव पठ्यते । किवणचरमपुरुसमुअंगेत्येते किवणादयः । सुरभिदुरभ्योर्लोपः।३।३। ४३॥ एतयोर्मध्यस्वरस्य लोपो वा स्यात् । सुब्भि, सुरभि । दुभि, दुरभि । सुरभीति-मध्यस्य स्वरस्येति पूर्वसूत्रादनुकृप्यते । सुरभिदुरभिशब्दयोर्मध्य-स्वरोरेफोत्तरवर्त्यकारः तस्यानेन लोपेऽहे व्यसनस्येतिसूत्रेण रेफस्य परसवर्णो वकारादेशः तथा च सुम्मिमिति सिद्धमेवं दुन्भिमित्यपि । मध्यस्वरलोपाभावे सुरभिं दुरभिमिति । श्रोस्तंबूलस्य । ३।३।४४ ॥ तंबूलस्य मध्यस्वरस्यौकारो वा स्यात् । तंबोलं, तंपूलं ॥ .. ओरिति-मभ्यस्य स्वरस्येत्यस्य चानुवृत्तिः ।। कारेलस्येयः ।३।३।४५॥ कारेलस्य मध्यस्वरस्येयादेशो वा स्यात् कारियलं, कारिलं, कारलं ।। कारेल्लस्येति-अत्रापि पूर्ववदनुवृत्तिः । मध्यस्वरोऽत्रैकाररतस्येयादेशे कारियल्लं । इयादेशाभावे संयुक इति सूत्रेण वा हस्वत्वे कारिल्लं । पक्षे कारल्लमिति। अश्चिक्खिलादीनाम् । ३।३। ४६ ॥ एषां मध्यस्वरस्याकारो वा स्यात् । चिक्खलं, चिक्खिलं । अगरू, अगुरू । अ इति-पूर्ववदनुवृत्तिः। चिक्खिलशब्दे मध्यस्खर इकारः । अगुरुशब्दे मध्यस्वरसकारः तयोरकारोबातस्तथा च चिखल, अगर इत्यादिरूपसिद्धिः । चिक्खिलादिराकृतिगणः । ___ अद्वेटगुरुययोः स्वरस्य । ३।३ । ७७॥ वेंटगुरुयशब्दयोः स्वरस्यादरकारो वा स्यात् । वंटं, वें । गरुयं, गुरुयं ॥ अदिति-आदेरित्यस्यानुवृत्तत्वान्मध्यस्येति निवृत्तम् । अदिति प्रथमान्तम् । वेटशब्द आदिस्वर एकारः गुरुयशब्द उकाररतयोरदित्यकारो जायते वंट-~-वृन्तं । गरुयं-गुरुकम् अफाराभावपक्षे वेटे गुरुयमिति । न च वेंटादीनां व्यअनादित्वात्स्वरादित्वं नास्तीति कथं सूत्रप्रवृत्तिरिति । वाच्यम् श्रादिशब्दस्यात्र प्रथमवाचकत्वं नत्वायवयववाचकत्वं दुर्योधनादयः कौरवा इत्यादौ प्रथमार्थकस्यैव दृष्टत्वाच तथा च वेंटादिशब्दे य श्रादिस्वरःप्रथमः खरः तस्याकारः स्याविति फलितार्थः ।। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुदी इनीगणस्य । ३।३।७८॥ नगिणशब्दस्यादेः स्वरस्येकारो वा स्यात् । निगिणं, नगिणं ॥ इरिति-इरिति प्रथमान्तपदम् । श्रादेःस्वरस्येत्यनुवृत्तिः ॥ नगिणमिति-नममित्यर्थः आदिस्वरस्याकारस्येकारे जाते निगिणमिति । इकाराभावे नगिणमिति ॥ उउंबरस्य वा ।४।१।१६ ॥ अस्यादेः स्वरस्य लोपो वा स्यात् । उबरो, उउवरो । उउंबरस्येति- लोपोऽन्यतरस्येति सूत्राल्लोप इत्यनुवर्तते आदेः खरस्येत्यस्य पूर्ववदनुवृत्तिः । आदिरवरस्योकारस्य लोप ऊंबर इति रूपम् । लोपाभावे उउंबरो वा उदुंबरो वृक्षविशेषः ॥ श्रोत्कुतूहलस्य । ३।३ । ७६ ॥ कुतूहलशब्दस्यादेः स्वरस्यौद्वा स्यात् । । कोऊहलं, कुऊहलं । __ओदिति-ओदिति प्रथमान्तमादेशः । अनुवृत्तिः पूर्ववतालोप इति निवृत्तम् । कुतूहलशब्द आदिस्वर उफारः । तस्यौकारे । तकारस्य 'बहुलंगचे'त्यादिना यकारे लोपे च कोउहलं । ओकाराभावे कुहलमिति । ऊतः कुतूहलस्य । ३।३।१२। कुतूहलस्योतो ह्रस्वो वा स्यात् । कोउहलं, कुउहलं । ऊत इति-हस्वो वेत्यनयोरनुवृत्तिः । ऊत इत्यनेन दीर्घोकार एव गृह्यते हस्तविधिसामर्थ्यात् । तथा च कुतूहलशब्दान्तर्गततकारोत्तरवयूकारस्य हस्वत्वे कोहलं कुउहलं हस्वाभावे दीर्घरूपं तूपरि दर्शितमेव। ' खुड्डस्य के ।३।२।४४ ॥ अस्य दीर्घो वा कप्रत्यये पर खुड्डाकं, खुड्डकं ॥ खुड्डुस्येति-धी? वेत्यनयोरनुवृत्तिः । स्वरस्य हस्वदीर्घत्यादिना स्वरस्योपस्थितिः । अन्त्यस्य षष्ठया इति परिभाषयाऽन्त्यस्वरस्यैव दीर्घः के इति सप्तमीनिर्देशादप्यव्यवहितपूर्वस्यैव दीर्घविधानादकारस्यैव दीर्घो नतूकारस्य खुड (क्षुद्र) शब्दास्वार्थेक प्रत्ययस्तथा च खुड्ड + इत्यत्राकारस्य दीर्घे खुट्टाक दीर्घाभावे खुडुकमिति॥ ककारस्य विकल्पेन गकारयकारसद्भावे खुडाग,खुडुगं, खुडाय खुड्डयमिति रूपचतुष्टयमने साधयिष्यते ॥ . वईत ऊत् । ३।१।७६ ॥ वईशब्दस्योकारो वा स्यात् वऊ, वई ॥ ___ वईत इति–तकारउभारणार्थः । वईत इति षष्ठथेकवचनान्तम् । अन्त्यस्य षष्ठया इत्यनेनान्त्यस्यादेशः । के नईशब्दो वाफपर्यायः बाणीसियावत् । तस्योकारे जाते वऊ । ऊकाराभावे वईति ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनविकारप्रकरणम् विच्छियस्य चस्य मः।३।४।१२॥ अस्य चकारस्य मकारो वा स्यात् । विछिए । विच्छियस्येति-वृश्चिकपर्यायविच्छियशब्दघटकचकारस्य मकारादेशरतत्राकार उच्चारणार्थः ।मकारस्प मोरित्यनुस्वारे विछिए। ___ उसियस्य । ३।४।१३ ॥ विच्छियशब्दस्येयस्योसादेशो वा । विच्छू, विच्छिए ॥ उसिति-विच्छियस्येति पूर्वसूत्रादनुवर्तते । उसादेशे सकारस्येत्त्वादनेकवर्णसिदित्यनेन सर्वादेशः । वेन विच्छियशब्दघटकेयस्य स्थान उसादेशे विच्छू । उसादेशाभावे विच्छिए। - आलिसिन्दस्य सेरत् ॥३।४।११॥ आलिसिन्दशब्दसम्बन्धिसेरकारोऽन्तादेशो वा आलिसन्दो, आलिसिन्दो । प्रालीसन्दस्थति- अन्त्यस्य पष्ठथा इति परिभाषयासकारोत्तरेकारस्याकारादेशआलिसन्दो । अकारा. देशाभावे आलिसिन्दो॥ ॥ इति स्वरविकारप्रकरणम् ॥ अथ व्यञ्जनविकारप्रकरणम् । अनादरसंयुक्तस्य कस्य गः ।३ । ३ । ६१॥ . असयुक्तानादिककारस्य गकारो वा स्यात् अहिगरणं; अहियरणं, अहिअरणं, अहिकरणं । अनादेरिति किम् । करणम् । असंयुक्तस्य किम् । विकिणइ । अनादेरिति-न आदिरादिभूतः सोऽनादिः पदस्यादाववर्तमान इत्यर्थः । न संयुक्तो व्यसनान्तरेणेत्यसंयुक्तः पदश्चात्र समस्तमसमस्तमुभयं गृह्यते यत्र समासस्तत्रोत्तरपदापेक्षयादिभूतत्वेपि समस्तपदापेक्षयाऽनादित्वं प्राह्यं तेनाहिगरणमित्यादौ न दोषः अहि+ करणमित्यत्रानेन ककारस्य गकारे अहिगरणं । बहुल गचेत्यादिना गकारस्य यकारे अहियरणं स्वराद्यस्येति यकारलोपे अहिअरणं । गकारस्य वैकल्पिकत्वाद्गकाराभावे महिकरणमिति । अनादेरित्यस्य प्रत्युदाहरणं करणमिति असंयुक्तस्य प्रत्युदाहरणं विकिणईति ॥ बहुलं गचजतदबवानां यः।३।३।६३ ॥ अनादिभूतासंयुक्तानामेपां यकारो बहुलं स्यात् । जयं, जगं । सोयं सोचं । प्रायणं, जि णं । अवयरणं, अवतरणं । उयरं, उदरं । अलाऊ, अलाबू । जुयलं, जुवलं ।। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. जेनसिद्धान्तकौमुदी . बहुलमिति-बाहुलकं चतुर्विधं पूर्व व्याख्यातमेव ततः कचिनित्यं यकारः कषिद्विकल्पेन कचिन्न भवत्येव-गचेत्यादि-गश्च चश्व जश्च तश्च दश्च बश्च वश्च गचजतदबवाः इतरेतरयोगद्वन्द्वः तेषां गचजतदबवानाम । अनादेरसंयुक्तस्येति पूर्वसूत्रादनुवर्तते । तस्य बहुवचनान्तत्वेन विपरिणामः विशेष्यस्य बहुवचनान्तत्वात् । गकारादिसप्तवर्णानां विकल्पेन यकारसद्भावे जयं, जगमित्यादीनि सप्तोदाहरणानि क्रमशो दर्शितानि । प्रत्येक रूपढ़यमुदाहृतम् । स्वराधस्येति यकारलोपे तु तृतीयमपि रूपं भवति तत्स्वयमूह्यम् ॥ . रुधिरादीनां धभयो) धा । ३।३। ६४॥ एषामनाद्यसंयुक्तधकारभंकारयोर्हकारो वा स्यात् । रुहिरं, रुधिरं । एहन्तो, एंधन्तो। नहं, नभं ॥ : ...::: ... रुधिरादीनामिति-अनादेरसंयुक्तस्येत्येतस्यानुवृत्तिः एकवचनान्तस्य द्विवचनान्तत्वेन विपरिणामेन धभयोविशेषणत्वम् अनादेरिति किं १ धम्मो । असंयुक्तस्य किं ? रुध्धो । धकारस्य हकारत्वे रुहिरमित्यायुदाहरणद्वयम् । भंकारस्य हकारत्वे नहमित्याधुदाहरणम् ॥ नो णः।३।४।१५॥ श्रादावनादौ च नकारस्य बहुलं णकारः स्यात् । णमंसइ, नमसइ । णिचरइ निचरइ । आकएणइ, आकन्नइ । किएणं, किन्न। .. न इनि-षष्ठ्यन्तं पदं नकारस्येत्यर्थः । णइतिप्रथमान्तमकार उधारणार्थः । णमंसह इत्यत्र धातावादिभूत जकारस्प णकारः । आकएणइ इत्यन्नानादिभूतसंयुक्तनकारस्य णकारः णिवरइ इत्यत्रोपसर्गस्थादिभूतासंयुक्त नकारस्य प्रकारः । बहुलप्रहणात् कचिद्विकल्पेन कषिन्नित्यं यथाप्रयोग द्रष्टव्यमित्युक्त प्रागेत्र ॥...... .... कोडंबादीनां डोलः।३।४ । २२ ॥....... कोडंबादिशब्दसंबंन्धिडकारस्य लो बहुलं. स्यात् । कोलंबो, कोडंचो । : .. कोडबादिष्विति" इति षष्ठ्यन्तं पदम् । डकारस्थेत्यर्थः ल इतिप्रथमान्तमकार उच्चारणार्थः। बहुलनित्यनुवर्तते डंफारस्य लकारे कोलंबो । लकारामावे कोडंबो ।। ....:.:.:. ::.. . .....: पॉक्ख रादीनां । ।४।२३।। ..; . .. . .- :: पोक्खरादिशब्दसंबंधिरेफस्य बहुलं लः स्यात् । पोक्खलं, पोक्खर पिलिहा, "परिहा .. . "पालयामि । ..... * पोखरादिष्विति-बहुल ल इत्यनुवर्त्तते । बहुलग्रहणात् पोक्खलमित्यादौ विकल्पेन ला पालवामीलादौ नित्यम् । नातिगणोपम् ।।... Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यम्जनविकारप्रकरणम् ........ ... ... ... .. लुक्खादीनां हः।२।३।.८०॥ ...: . : ' एषामुपधाया हकारो वा स्यात् । लूहं, लुक्खं । जीहा, 'जिब्भा। रिसहो; रिसभो । ककुह, ___... ककुदं । गाहा, गाथा' । हो, वुधो । दिवह, दिवस | भेसह, भैसज । खुहा खुधा । ___ एषामेति-उपधाया वा इत्येतयोरनुवृत्तिः लुक्खजिम्भाशब्दयोरुपधाभूतयोः खकारभकारयोहकारे सिंस्सादित्वात्संयुक्त यादेोपे पूर्वत्य च दीर्घ लुहं जीहा हकारलोपदीर्घामावेच लुक्ख, जिब्भा । स्वरविशेषवाचक.: रिसभशब्दे भकारस्य हकारे रिसहो हकाराभावे रिसभो । एवं ककुदादिष्वप्युपधाभूतानां दकारादीनां विकल्पेन हकारे काहं ककुदमित्यादि लुक्सं, जिब्भा, रिसभो, ककुई, गाथा, बुधो, दिवस,खुधा, भेषजमेते लुक्सादयः आकविगणोयम् ॥ आतपादीनां पोवः।३।४।१६॥ एषां पकारस्य वकारादेशो वा स्यात् । आतवो, आतपो । कवोतो, कपोतो । वाहणा, पाहणा। ... वो जूपो । दुरूत्रं, दुरूप । अणुवालय, अणुपालयं । विवरीयं, विपरीयं-। वत्तियं, पत्तियं । पिवीलिका, पिपीलिका। . . . . . पातपादीनामिति चेत्यनुवर्तते । आतपो, कपोतो, पिपीलिका, पाहणा, जूपो, दुरुपं, अणुपालयं, विपरीयं पत्तियमित्येत प्रातपादयः । आकृतिगणोयम् । अनादेमध्यस्य वान्त्यस्य पकारस्य विकल्पेन यथाप्रयो..ग:वकारः । पिपीलिकाशब्दे पकारद्वयमध्ये द्वितीयपकारस्यैव वकारस्तथा प्रयोगदर्शनात् ॥ .:. ' :... ... . . वा कुतूहलादीनाम् । २।३। ७१॥ .. : ... कुतूहलादीनामुपधाया द्वित्वं वा स्यात् । कोऊहल्लं, कोउहल्लं, कुऊहल्लं, कुउहन्लं पचे . कोऊहलमित्यादि । दुगुल्लं, दुगूलं, दुकूलं । जुहिछिल्लो, जुहिदिठलो । ... . वेति--उपधाया द्वित्वमित्यनयोः . पूर्वसूत्रादनुवृत्तिः । कुतूहलशब्दस्य विकल्पेन प्रथमोकारस्यौत्त्वेन द्वितीयोकारस्य हस्वत्वेन च रूपचतुष्टयं भवतीति प्रा निदर्शितम् । तत्रोपधाभूतस्य. लकारस्य, विकल्पेन द्वित्वे लद्वयघटित रूपचतुष्टयमेकलकारघटितं रूपचतुष्टयं च तदुक्तं कोऊहलमित्यादीनि आदिशब्देन कोउहलं, कुझ. हलं, कुउहलमिति त्रीणि रूपाणि ज्ञेयानि । दुकूज़राब्दे कस्य गकारे लस्य द्विवे संयुक्त हखत्वे च दुगुल्लं । द्विवाभावे दुगूलं । गवाभावे च दुकूलं । जुहिट्ठिल (युधिष्ठिर) शब्दे लस्य द्वित्वे । जुहिछिल्लो । 'द्वित्वाभावे । 'जुहिद्विलो आकृतिगोयम् ।। वज्जादीनां वस्योः ।३।४।१६ ॥ . वज्जादिशब्दानां वस्योसांदेशो वा स्यात् । आउज्जो, आवज्जो । आउज्जणं, आवज्जणं । . . . उसहो, उसभो, यसहो, यसभो। . Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ... जैनसिद्धान्तकौमुदी रज्जादीनामिति-उसासकारत्येत्त्वाइनेकवर्णसिदित्यनेन सर्वादेशस्तथा चाकारसहितवकारस्योसादेशः। भावबावजणयोर्वत्योसादेशे, प्रकृतिभावे च पाउलो, आउज्जणं आदेशाभावे श्रावज्जो, आवजणं । लुक्सा दिवाटुपयाभूतभकारत्य विकल्पेन हकारे वत्योसि च उसहो उसभो । उसादेशाभावे वसहो, वसंभो। . वीभत्थस्य छो वा । २।३ । ६० ॥ अस्योपधायाश्छकारो वा स्यात् वीभच्छो, बीभत्थो । बीभत्थस्येति-उपधाया वेत्यत्यानुवृत्तिः । उपयाभूतत्व धकारस्य छकारे अहेव्यञ्जनस्वे त्यनेन तकारस्य परसवः बीमच्छो । छकारामावे वीभत्यो । बीभत्स इत्यर्थः ॥ . . . . . . . . इतो बीभत्थस्य।३।३।१४॥ अस्य ईतो हस्त्रो वा स्यात् । विभच्छो, विभत्थो । ... .... इत इति-पठ्येकवचनान्तम् । तकार उचारणार्थः । ईतः ईकारस्येत्यर्थः । जेमादीनामित्य तो हस्त्र इत्यनुवर्चते । छकारयकारघटितलपद्वयत्य हत्खने विभच्छो, विभत्यो इति ।। पुडपुरयोरुत्तरपदयोः।४।१।१७॥ अनयोरादेर्लोपो वा स्यात् । ताल, तालपुडं । गोउरं गोपुरं ॥ .. . पुडेति-प्रादेर्लोपोवेत्येतेषामनुवृत्तिः । उत्तरपदशब्दस्य समासचरमावयवरूड़त्वात् समास उत्तरपद- . भूतयोः पुडपुरशब्दयोरित्यर्थः ।आदिभूतपकारस्य लोपेतालउड । लोपाभावे तालपुढं । एवं गोऽरं गोपुरमिति ॥ परिवारस्य तः।२।३१६४॥ . . . . . अस्योपधाया लकारों का ख्याल परिवालो: परिवारों !. पारेवारत्येनि-त्रीमत्यत्येत्या उपधाया इत्यत्यानुवृतिः पवारशब्द उपबाभूतो स्कारस्वत्य लकारादेशे परिवालो । आदेशाभावे परिवारो।। उडजस्य वः।२।३।६१॥ अस्योपधाचा वकारो वा स्यात् । उडवं, उड्यं, उडजं । उडजस्येति-उपधाया चा इत्येतयोरनुवृत्तिः । उहजराब्द उपधाभूतो. जकारस्तस्य वकारे उडवं । वकाराभावे जकारस्य यचार उदयं । यकाराभावे उद्घजमिति ।। . रित्त्राः ।३।३।७२ ॥ उउशब्दस्यादरिरित्याशी वा स्यात् । रिऊ उऊ । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यञ्जनविकारप्रकरणम् रिरिति-रिरितिप्रथमान्तम् । उओरितिषष्ठ्यन्तम् । खेत्तस्यादेरिति सूत्रादादेरित्यनुकृष्यते । श्रदेरित्यस्य विशेषेणोपादानादन्त्यस्य षष्ठ्या इत्यस्य न प्रवृत्तिः । अनेनादेशे रिक । आदेशाभावे उऊ । ऋतुरित्यर्थः । उचरन्त्यस्य डुदुयाः । ३ । ४ । ५ ॥ अस्यान्त्यस्य दुयइत्येते आदेशाः स्युः उडू, उर्दू, उ । उनोरिति — उउशन्दस्य षष्ठयैकवचनम् । त्रयाणामादेशानामनेकवर्णत्वादन्त्यस्य षष्ठया इति परिभाषां, बाधित्वाऽनेकवर्णसिदित्यनेन, सर्वादेशे प्राप्ते सूत्रे ऽन्त्यस्येति, विशेषे गोपात्तं, तत्सामर्थ्यान सर्वादेशः, किन्त्वन्त्यस्योकारस्यैव । दुइत्यादेशे उड् । हुइत्यादेशे, उदू । यादेशे, स्वराद्यस्येति यलोपेच उभ इति ॥ खेत्तस्यादेश्छुः । ३ । ३ । ६६ ॥ स्यादेकारो वा स्यात् । छेत्तं, खेत्तं । 1 खेत्तस्येति—-वेत्यनुवर्त्तते श्रादेरित्यस्योपादानादन्त्यस्य षष्ठ्या इति न प्रवर्त्तते । आदिभूतस्य खकारस्य छारे छेत्तं । छकाराभावे खेत्तमिति ॥ सणियमः सणिम् । ४ । ४ । २८ ॥ सणियं शब्दस्य सणिम्, आदेशो वा स्याच्चरे परे । सर्णिचरो, संणियंचर।। सणिमिति - -चर इति, पूर्व सूत्रादनुवर्त्तते । सणियमित्यव्ययम् । शनैरित्यर्थः । सणियं चरति इति विग्रहे सणियमित्यस्य सणिमादेशे मकारस्यानुस्वारे सचिरो । आदेशाभावे सरिण्यंचरो ॥ सणियमश्वरश्च्छो वा । २ । ४ । ८७ ॥ अस्मात्परस्य चर्धातोरादेश्च्छकारो वा स्यात् । सणिच्छरो । सयिच्छरो । सणियमइति-आदेरित्यस्यानुवृत्ति: । एक देशविकृतमनन्यवदिति सणिमादेशेपि सनियमः परत्वमक्षतम् । आदिभूतस्य चकारस्य च्छकारादेशे त्रयाणामित्यनुस्वारस्य लोपे सणिच्छरो । सणिमादेशाभावे सणिय च्छरो ॥ दसे से | ३ | ४ | १७ ॥ सिशब्दस्याकारान्तादेशो वा लेसाशब्दे परे । असलेसा, असिलेसा | अदिति - अन्त्यस्य, षष्ठ्या, इत्यनेनासेः, पष्ठ्यन्तत्वादन्तादेशः, असिशब्दघटके कारस्या का रादेशे असलेखा । चकारादेशाभावे असिलेसा अश्लेपानक्षत्रविशेषः । सो द्विः । ३ । ४ । १८ ॥ असे सकारस्य द्वित्वं वा स्याल्लेसाशब्दे परे अस्तलेसा, अस्सिलेसा । असेरिति - असेलेंस इति पदद्वयं पूर्वसूत्रादनुकृष्यते । स इति पठ्यन्तं सकारस्येत्यर्थं असिशन्द - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकोमुदी सम्बन्धिसकारस्यनतु लेसाशब्दसम्बन्धिसकारस्य । तथाचानेन सकारस्य द्वित्वे पूर्वसूत्रेणेकारस्याकारादेशे अस्ससेसी द्विस्वाभावेऽकारादेशाभावे न अस्सिलेसा। . . . .. . , इलोरस्सिलेसयोः।३।४। ६६ ॥ “अस्सिलेसाशब्दघटकयोरिकारलकारयोर्वा लोप । अस्सेसा ॥ . इलारिति-वा लोप · इति पदद्वयमनुवर्तते । अस्सिले माशब्दसंबन्धीकारलकारयोोप अस्ससा । ... सकारद्वयघटितरूपत्यैव सूत्रउ आदानादे कस कारवटितम्येलोर्न तो . । इलोर्लोराभावपक्षे रूपवतुष्टय तूरदर्शितमेव॥ ____ मिलेच्छस्थ खुः।२।३।६३ ।। . . . ! .. ... मिलेच्छशब्दस्योपधायां खुरादेशो वा स्यात् । मिलेक्खू । मिलेच्छस्थति-उपधाया वेत्येतदनुवर्तते । उधाभूास्य छ कारस्य खु इत्यादेशेऽवशिष्टस्य कारस्य परसवर्णवे मिलेक्खू । एतोऽदुतौ । ३।३। ५१ ॥ मिलेच्छशब्दसम्बन्धिन एकारस्याकारोकारौ वा स्तः मिलक्खू, मिलुक्खू पक्षे मिलिच्छो, __ मिलेच्छो। एताति-वामिलेच्छस्येत्यनुवर्तते मिलेच्छशब्दघटकेकारस्याकारे वादेशे परसवर्णे मिलक्खू । एकारस्यो कारे मिलुक्खू । अकारो काराभावे संयुक्त हस्वत्वे मिलिच्छो । हस्तस्वाभावे मिलेच्छो॥ मेच्छः ।३।३ । ५० ॥ मिलेच्छस्य मेच्छादेशो वा स्यात् । भेच्छो, मिच्छो ।, मेच्छइति–वा मिलेच्छस्येत्यनुवर्तते । मेच्छादेशे सति न खुर्नवाकारोकारौ । संयुक्ते हस्वस्तु भवत्येव । तेन स्पद्वयम् मेच्छो, मिच्छो ॥. . :. . ... मत्तिये तोष्टौ । ३।३। ५८ ।। मत्तियाशब्दस्थिततकारद्वयस्य टकारद्वयं वा स्यात् मट्टिया, मत्तिया । . मत्तियइतिः-सोरिति षष्ठीद्विवचनं तस्य तकारयोरित्यर्थः टाविति प्रथमाद्विवचनं तस्य टकारावित्यर्थः अहेरत्तस्य व्यौ । २ । ३ । ६५ ॥ .. ' अहेरुपसर्गात्परस्यात्तस्यांपधायाष्ठकारथकारी पर्यायेण वा स्याताम् । अझंड, अज्झत्थं ।। अहेरिति-अहि+ अत्तमित्यत्रोपधाभूतस्य द्वितीय तकारस्य ठकारादेशे पूर्वतकारस्य परसवर्णेन टकारेअहि+ अमितिजाते तरहेभ्यश्चजमा इत्यनेन हकारोत्तरवर्ती कारस्य झकारे हकारस्य परसवर्णेन जकारे अज्मद । एवं यकारे अज्झन्थमिति ।। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पम्ममधिकारप्रकरणम् पिच्चे च्चस्य तियः।३।३।५७॥ णिशब्दघटकस्य चस्य तियादेशो वा स्यात् । णिश्यं, णितियं, शिवं । णिचइति-आदेशस्यानेकवर्णत्वादकारसहितकारद्वयम्य स्थाने तियादेशः । तकारस्य यकारे यलोपेच. पिइये । यकाराभावे णितियं । तियादेशाभावे हि ॥ गिहस्य गहधरहराः । ३।३॥ ५५ ॥ एते आदेशाः पर्यायेण वा स्युः । गहें, घरं, हरं, गिहं ।। गिहस्येति-अनेकवर्णवात्सर्वादेशाः वेत्यनुवर्तते ॥ पर्यायेणेति-कविद्गहादेशः कचिघरादेशः कविध्धरादेश इत्यर्थः पजाये ज्जायस्य रियागः । ३।३।५६ ॥ पजायशब्दघटकल्य जायस्य रियागादेशो वा स्यात् परियागो, पजायो । पजायइति-अनेकवर्णत्वात्समप्रस्य जायभागस्य रियागादेशे परियागो । यकारस्य लोपे परिभागोपि भादेशामाने पनायो।। परिवाट्या डः।२।३।६६॥ परिवाटीशब्दस्योपधाया डकारादेशो वा स्यात् । परिवाडी, परिवाटी। परिवाट्याइति-उपधाया वा इत्येतत्पदद्वयमनुवर्तते उपधाभूतस्य टकारस्य डकारे परिवाडी । काराभावे परिवाटी । बाहुलकाद्वकारस्य न यकारः। उ इत्यत्राकार उदारणार्थः ।। तत्थस्य तहः । ३.३ ॥ ५३॥ तत्थस्य तहादेशो वा स्यात् । तह, वत्थं । तत्थस्येति-भनेकवर्णत्वात्सर्वादेशः । वेत्यनुवर्तते तत्यं सत्यम् ॥ धणोईक्तको । ४ । २।४॥ धणुशब्दस्य हक्खा इत्येतावागमौ वा स्तः । धणुहं, धणुक्वं, धएं। धणोरिति-हक्खको कित्त्वादन्त्यावयवत्वं अवयवावयविभावस्य पप्ठ्यर्थस्य निश्चयात् वयाचहगागमे धणुई । लगागमे अणुक्खं । तदभावे धणु। परिहे पः फः।३।४।१४॥ परिहाशब्दघटकपकारस्य फकारो वा स्यात् । फरिहा, परिहा । परिहाति-परिहइति सप्तम्यन्तम् । सप्तम्यर्थः घटकलम् ।पइति षष्ठ्यन्तम् । पकारस्पेस्याका कारावाः। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुदी महरहस्य मरहट्ठः । ३।३। ५२ ॥ अस्य मरहट्ठादेशो वा स्यात् । मरहट्ट, महरहें । महरहस्येति-अनेकवर्णत्वात् सर्वादेशः । महाराष्ट्रमित्यर्थः पउमस्य पाम्मः । ३ । ३ । ५६ ॥ पउमशब्दस्य पोम्मादेशा वा स्यात् । पोम्म, पउमं । पउमस्येति-अनेकवर्णत्वात्सर्वादेशः । पोम्ममित्यत्र बाहुल्याद् हस्वो ना पउममित्यत्र प्रकृतिभावान सन्धिः। यजोर्जः । ३।३ । ७३ ॥ यजुशब्दस्यादेर्जकारो वा स्यात् । जजुव्वेदो, यजुवेदो। यजेरिति-खेत्तस्यादेरिति सूत्राद्वादेरित्यनुवर्तते । श्रादिभूतस्य यकारस्य जकारेजजुब्वेदो । जकाराभावे यजुवेदो॥ . उसिणपसिणयोः सिणस्य रहः । ३ । ३ । ६० ॥ अनयोः सिणस्य बहादेशो वा स्यात् । उण्हं, उसिणं । पण्हं, पसिणो । उसिणेति-अनेकवर्णत्वात्मिणस्यसर्वस्यादेशः । उसिणमित्यत्र सिणस्य बहादेशे उण्हं । पक्षे उसिणं । सम्पमित्यर्थः एवं परहो, पसिणो । प्रश्न इत्यर्थः। - ने कसो घः। २।४।७४ ॥ नेः परस्य कम्घातोरादेषकारो वा स्यात् । निघसो, निकसो । नेरिति-न्युपसर्गादित्यर्थः । कस् आकर्षणे । आदिभूतस्य (ककारस्य छकारे निमसो । धकाराभावे निकसो । आदेरित्यस्य खेत्तस्यादेरित्यतोनुवृत्तिः ॥ गिम्हस्य प्रिंसुः।३।३ । ५४ ॥ . . . . अस्य प्रिंसु इत्यादेशो वा स्यात् । घिसू, गिम्हो । गिम्हस्येति-अनेकवर्णत्वादनेकवर्णसिदित्यनेन सर्वादेशः । संदेिशे पिंसू । आदेशाभावे गिहो ।। ॥ इति व्यजनविकारप्रकरणम् ।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ विभक्तिप्रकरणम् तन्त्र पुल्लिगशब्दा अविभक्ति नाम । १।१।२४ ॥ विभक्तिरहितं शब्दस्वरूपं नामसंज्ञं स्यात् । अविभक्तीति-विभक्तिच सुप्त्यादिरित्युक्तं प्राक् ।नास्ति, विभक्तिय॑स्य वदविभक्ति-विभक्तिरहितमित्यर्थः विशेषणस्य, नपुंसकत्वासदनुरोधेन विशेष्यं शब्दस्वरूपमध्याहियते । नचैवं धातोरपि नामत्वं स्यादिति वाच्यम् । सत्यपि नामत्वे तस्मान नामविभक्तयो भवन्ति किन्तु निरवकाशत्वात्यादय एव प्रत्यया भवन्ति । विभकिसहित- . स्यापि नामसंज्ञायां विभक्तचन्तादपि पुनर्विभक्तिप्रत्ययः स्यादित्यत आहाविभक्तीति शब्दस्वरूपं चार्थवदेव नस्वर्थशून्यमर्यवाहणपरिभाषया तेन घडो पडो इत्यादौ प्रत्येकवर्णस्य धकारादेर्न नामसंज्ञा किन्तु घड इति समुदायस्यैव । नामसंझायाः फलन्तु सत्या नामसंज्ञायां तस्मात् सुविभक्तिः । - उदन्मेदिणे एदणातोदिहितोस्साएमीसवः सुप् । १ । १ ॥ २५ ॥ उत् अत्, म इन्, इण इहि, अएत् अण, अतोत् इहितो, स्स अण; मि इसु, एते सुप संज्ञाः स्युः । तत्र उत् ; अत् इति प्रथमा । म, इत् इति द्वितीया । इण, इहि इति तृतीया । अएद , अण इति चतुर्थी । अप्रोत्, इहितो इति पंचमी । स्स, अण इति षष्ठी । मि, इसु इति सप्तमी। उदिति-उब अब मश्च इव इणश्व इहिश्च भएच अणश्च अतोच इहिंतोश्च स्सश्च अणश्च मिश्च इसुश्चेतिद्वन्दः । उदादावन्त्यतकारोऽसन्देहाथः । द्वितीयकवचने मकारेऽकार उच्चारणार्थः । संस्कृतवद्विवचनमत्र नास्ति । एकातिरिक्तस्यैव बहुत्वेन बहुवचने तदन्तर्भावाद्विवचनस्यानर्थक्यात् । विभक्ष्यस्तु संस्कृतवत्सप्तैव । तथाच सप्तैकवचनप्रत्ययाः सप्त बहुवचनप्रत्ययास्तेषां सुविति संज्ञा विधीयतेऽनेनेति ॥ सुपश्च । १।१।३३ ॥ सुपः प्रथमादिक्रमेण द्वौ द्वावेकवचनबहुवचनसंज्ञौ स्तः। · क्रमेणेति-प्रथमादिषु सप्तविभक्तिषु पूर्वोचरितमेकवचनसंज्ञं स्यात् पश्चादुश्चरितं बहुवचनसंज्ञस्यात् यथा इत् भत्, अत्रोतः प्रथमोपरितत्वादेकवचनसंझा । अतः पश्चादुश्चरितत्वाद्वहुवचनसंज्ञा । एवं सप्तस्वपि ।। . Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुदी एकवचनम् । १ ।२।६॥ . नाम्न एकवचनं स्यात् ।। एकवचनमिति-- अत्रैकत्वविवक्षाया अपेक्षा नास्ति सामान्यतो नानो विधानात् । अतएवाव्ययेभ्यां भावतिङन्तेभ्यश्चैकवचनं भवति ॥ ... बहुत्वे बहुवचनम् । १।२ । १०॥ . बहुत्वविवक्षायां बहुवचनं स्यात् । बहुत्वइति-एकत्वातिरिक्तमत्र बहुत्वं विवक्षितं तेन द्वित्वस्याप्येकातिरित्तत्वेन बहुत्वाक्षतिः । . प्रत्ययः परः।१।२।१॥ . . . . . ' अधिकारोंयमाद्वितीयाध्यायद्वितीयपादसमाप्तः । अधिकार इति-अधिकारत्वं च स्वदेशे वाक्यार्थबोधाजनकत्वे सति विधिशास्त्रेण सह वाक्या . ........ .. .' बोधजनकत्वमित्युक्तमेव प्रा तीयाध्यायस्य द्वितीयपा दिसमाप्तिपर्यन्तमनुगच्छति । नान्नः सुप।१।२।८॥ नामसंशकाच्छब्दस्वरूपात्सुष्प्रत्ययाः स्युः । अकारान्त पुल्लिंगो जिणशब्दः । .. : ... नान्न इति-पञ्चम्यन्तमिदमधिकृतपरशब्देनान्वेति विभक्तिरहितशब्दस्वरूपस्य नामेतिसंज्ञेत्युक्तमनुपदम् । सुबिति प्रथमान्तं विशेषणमधिकृतेन विशेष्यीभूतप्रत्ययशब्देन युज्यते । प्रत्यय इत्यस्य बहुवचनत्वेन विपरिणामः सुप्रत्ययानां बहुत्वात् । नामानि त्रिंविधानि पुल्लिङ्गकानि स्त्रीलिङ्गकानि नपुंसकलिङ्गकानि च तत्र पुल्लिङ्गस्य प्राधान्यात्प्रथमन्तान्येवोदाहियन्ते । तत्राप्यकारान्तत्वादिनाऽनेक विधत्वेप्यकारस्य स्वरेषु प्रथमोश्चरित- ... त्वेन प्रथममकारान्तनाम्न उदाहरणत्वेनोपन्यासः तदुक्तंमकारान्तः पुल्लिङ्गो जिणशब्दः। जिण रागद्वेषजेता जिन- . स्तीर्थकर इत्यर्थः । .. .. : ..:.. इतः पंसि।४।३१॥२॥::::: :; ... अकारान्तपुंल्लिंगानाम्नः प्रथमैकवचनस्योकारस्येकारो वा स्यात् । जिणे जिणो जिणा। .. . . . . . . . . . जि जिणे . .' इदिति-अतो नाम्न इत्यनुवर्तते, इत् + उतः पुंसि इति पदत्रयम् । तत्रोत इतिषष्ठ्यन्तम् । विशेषणे . तदन्तस्येति परिभाषयाऽकारान्तादिति लाभः पुंस्यनन्तरं वर्तमानांदिति शेषः । तथाच' पुल्लिंगो वर्तमानाद- । कारान्तनान्न इत्यर्थः । जिण+ उ इति!स्थितेऽनेनोकारस्यकारे वृद्धिरूपे परसवर्णे जिणे । इकाराभावे वृद्धिरूपे परसवर्णे जिणो । जिण +अ इति स्थितेऽदिदुतः सवर्ण इति दीर्घे जिणा। जिण 'म् इति स्थिते मोरित्यनुस्वारे जिणं । जिण + इ-इति स्थितेऽतः स्वर इत्योन परसवर्णे जिणें ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभातिप्रकरणम् . इणाणेहीसीसूनां ।४।२।१४॥ . ... ... एपां ममागमो वा स्यात् । जिणेणं, जिणेण । जिणेहिं, जिणेहि । . . . इणेति-इसणाश्च श्रणश्च इहिश्च इसिश्च इसुश्चेति द्वन्द्वः । इणादयः पञ्च सुष्प्रत्ययाः । तत्रेणेति तृतीयैकवचनम् । अणेति षष्ठीबहुवचनम् । इहीति तृतीयाबहुवचनम् । इसीतिसवणामोत्तरषष्ठीबहुवचनम् । इसु इति सप्तमीबहुवचनम् । मम् वा इति पदद्वयं पूर्वसूत्रादनुवर्त्तते । जिण-+ इणेति तृतीयैकवचनेऽनेनममागमे तस्य चान्त्यस्वरात्परत्वे मकारस्यानुस्वारेऽकारेकारयोः परसवर्णे जिणेणं । ममागमाभावे जिणेण । एवं तृतीयाबहुवचने जिणेहिं जिणेहि इतिरूपद्वयम् ॥ . . ... . . अएतः स्सो नाम्नः । ४।३१.३० ॥ . : . नाम्नः परस्य चतुर्थेकवचनस्य स्लादेशो वाऽस्त्रियाम् । जिणस्स, जिणाए । जिणाणं, जिणाण । . :: . अएतं इति-"वा स्त्रियामिति पूर्वसूत्रादनुवर्तते । अएत इति षष्ठ्यन्तम् । नाम्न इति पञ्चम्यन्तम् । अएदिति चतुर्येकवचनप्रत्ययस्तत्र तकार उच्चारणार्थः । जिण + अए इत्यत्रानेन स्सादेशे जिणस्स । स्सादेशाभावे जिणाए । जिण+ अणेत्यत्र ममागमे सवर्णदीऽनुस्वारे जिणाणं । ममागमाभावे जिणाण ॥ अतोऽएदतोतोरबाही क्वचित् । ४ । ३ । ३१ ॥ अकारान्तानाम्नः परयोश्चतुर्थीपञ्चम्येकवचनयोः क्रमेणायाही आदेशौ स्तः कचिदस्त्रि ___ याम् । जिणाय । जिणाहि । 'अत इति-विशेषणं तदन्तस्येति परिभाषयाऽत इत्यस्याकारान्तादिति लाभः । वा स्त्रियां नाम्न इत्यस्यानुवृत्तिः । समानां स्थान्यादेशादीनां यथासंख्यं स्यादिति न्यायादएतः अयादेशः अतोतः अह्यादेशः स्यादित्यर्थः । एतावादेशौ न सर्वत्र भवतः किन्तु कचिदेव शास्त्रे तथाप्रयोगदर्शनादुक्तं कचिदिति । अनेकवर्णत्वात् सर्वादेशः । जिण + अए इति स्थितेऽनेनायादेशे सवर्णदीर्घे जिणाय । जिण+ अतोत् इति स्थितेऽतोतः ब्रह्मादेशे सवर्णदीघे जिणाहि । अस्त्रियामित्यनुवर्तते स्त्रीभिन्ने पुंसि क्लोवे चेति तदर्थः । . .... अतोतोऽतः।३।४।६१ ॥ अकारान्तानाम्नः परस्य पञ्चम्येकवचनस्यातोतोऽन्त्यस्य लोपो वा स्यात् । जिणा, जिणाओ । जिणेहितो । जिणस्स । जिणाणं, जिणाण । . . . अतोत इति-अन्त्यस्य षष्ठ्या इति परिभाषयाऽन्त्यस्येति लाभः । अत इत्यस्य विशेषणत्वाद्विशेषणं तदन्तस्येत्यनयाऽकारान्तादिति लाभः । लोपो वेति पदद्वयमनुकृप्यते। जिण+ अतोदितिस्थितेऽनेनान्त्यस्यौकारस्य लोपे तकारस्य यकारे तस्य लोपे सवर्णदीचे च जिणा । लोपाभावे च जिणाओ। कचिज्जिणाहि इत्युक्त. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धान्तकौमुदी वानुपदम् । पथामीबहुवचने जिण + इहिंतो इत्यत्र परसवर्णे जिरोहिंतो । षष्ठ्या एकवचने किश्विद्विकाराभावादेकमेव रूपम् । बहुवचने तु ममागमविकल्पेन जियांग जिरणाखेति रूपद्वयम् ॥ सिः । ४ । ३ । ३२ ॥ नाम्नः परस्य सप्तम्येकवचनस्य मेः स्यादेशो वा स्यादस्त्रियाम् । ( सिरिति- नाम्नः मेः अस्त्रियां वेति पदचतुष्टयं पूर्वसूत्रादनुवर्त्तते । अनेकवर्णत्वात् संपूर्णस्य मे: स्थाने सिरियादेशः । अस्त्रियामित्यस्य पुंसि क्लीबे चेत्यर्थः । मौ व्यञ्जनादौ नाम्नः । ४ । २ । १८ ॥ व्यञ्जनादौ सप्तम्येकवचने परे नाम्नो ममागमः स्यात् । जिसि, जिमि । माविति --ममिति पूर्वसूत्रादनुवर्त्तते । माविति सप्तम्यन्तम् । व्यञ्जनादाविति तद्विशेषणम् । व्यञ्जनमादिर्यस्येति बहुव्रीहिः । यदा मेरिसा देशस्तदा व्यञ्जनादित्वं नास्तीति तन्निवृत्यर्थं व्यञ्जनादाविति स्त्रीलिंगोऽपि मेअनादित्वाभावात्तन्निवृत्तिः । स्वराणामन्त्यादिति परिभाषया नाम्नोऽन्त्यस्वरात्परो ममागमः । ममि मकारो मित्कार्यार्थः । अकार उच्चारणार्थः । अवशिष्टस्य मकारस्य नोरित्यनेनानुस्वारः । जिण + मि इत्यत्र मेः स्यादेशे ममागमे जिसि । स्यादेशाभावेऽप्यनेन ममागमे जिमि स्यादेशे मिपरत्वं नास्तीति न शङक्यं यदादेशस्तद्वद्भवतीति न्यायात्स्यादेशोपि मिवद्भवतीति न ममागमे बाधः । मेरिरतो नाम्नो वा । ४ । ३ । १ ॥ अकारान्तान्नाम्नः परस्य सप्तम्येकवचनस्य मेरिसादेशो वा स्यात् । जिणे । जिणेसुं, जिसु । मेरिति - सित्त्वात्सर्वादेश: जिण + मि इति स्थितेऽनेन मेरिसादेशे परसवर्णे जिणे इति सिद्धम् । जिण + इ इति स्थिते इणाणेहीत्यनेन ममागमेऽनुस्वारे परसवर्णे च जिणेसुं । ममभावे जिणेसु । 'अत्पुंसि वातः । ४ । ३ । ६ ॥ अकारान्तान्नाम्नः परस्यामन्त्रणार्थक प्रथमैकवचनस्योतोऽद्वा स्यात्पुंसि । भो जिणा, भो जिखे । भो जिणो । भो जिणा । एवं गोयमप्रभृतयः । 1 " आदेति–नाम्नः आमन्त्रणे उतः इति पदत्रयमनुवर्त्तते आमन्त्रण इति सप्तम्यन्तपदस्यानुवृत्तेनोत इत्यनेन सहान्वयः । सप्तम्यर्थो वाचकत्वं । श्रामन्त्रणं चेह स्वाभिमुखीकरणं । सम्बोधनमिति यावत् । नपुंसकलिंगानिवृत्त्यर्थं पुंसीति । जिण + उ इति स्थितेऽनेनोकारस्याकारे सवर्णदीर्घे जिला । तदभावे इकारादेशे परसवर्णे जिणे । आदेशाभावे परसवर्णे भो जिणो । जिए + अदिति बहुवचने सवर्णदीर्घे भो जिणा । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्तिप्रकरणम् UH. अट्ठादतोऽः । ४ । ३ । ६५ ॥ अट्ठशब्दात्परस्याएत्प्रत्पयस्यासादेशो वा स्यात् । श्रट्ठा, अस्स, अट्टाए । शेष जिरोषत् । श्रद्वादिति -- वेत्यनुवर्त्तते । सित्त्वात्सर्वादेशः । अट्ठ + अएदिति चतुभ्यैकवचनेऽनेनासादेशे - सवर्णदीर्घे अट्ठा | पते रसादेशे अटुस्स । तदभावे सवर्णदीर्घे अट्ठाए ॥ : न्तस्य सोमस्य मः । ४ । ३ । ४८ ॥ प्रथमाद्वितीयैकवचनसहितस्य न्तमन्तसम्बन्धिन्तस्य वा म श्रादेशः स्यात् । भगवं, भगबन्ते, भगवन्तो । भगवं, भगवन्तं । मतिमं, मतिमन्ते, मतिमन्तो । मतिमं मतिमन्तं । एवं कारयं कारयन्ते कारयन्तो इत्यादि । न्तस्येति - न्तमन्तयोरिति पूर्वसूत्रादनुवर्त्तते । उच्च मश्च उन्मौ ताभ्यां संहितः सोन्मः तस्य । उदिति प्रथमैकवचनप्रत्ययः । म इति द्वितीयैकवचनप्रत्ययः । श्रादेशे सकारस्यत्वाद्विभक्तिप्रत्यय महितस्य न्तस्य स्थाने मादेशः । चकार उच्चारणार्थः मकारः शिष्यते तस्य नोरित्यनेनानुस्वारः । अन्तादिशब्देषु न्तस्यादेशो माभूदिति न्तमन्तयोरिति न्तो वर्त्तमानार्थककृत्प्रत्ययः । मन्तश्च सम्बन्धार्थकतद्धित प्रत्ययो बोध्यः । भगवन्त + उदिति स्थिते मादेशेऽनुस्वारे भगवं । मादेशाभावे उत इकारादेशे परसवर्णे भगवन्ते । इकारादेशाभावे परसवर्णे भगवन्तो । एवं प्रथमैकवचने रूपन्त्रयम् । गकारस्य यकारे तु रूपषट्कम् । द्वितीयैकवचने मसादेशे - भगवं । मसादेशाभावे भगवन्तं एवं मतिममित्यादीनि । ननु न्तस्य मन्तसम्बन्धित्वेपि न्तसम्बन्धित्वं कथं ? स्वस्मिन्स्व सम्बन्धित्वाभावादिति चेन्न लौकिकन्यायात् व्यपदेशिवद्भावात्स्वस्मि अपि स्वसम्बन्धित्वं : : विशिष्टोऽपदेशः - मुख्यव्यवहारो व्यपदेशः सोऽस्यास्तीति व्यपदेशी - यथा : मन्तघटक न्तशब्दः तत्र सम्भन्धित्वस्य मुख्यव्यवहारात् । तेन तुल्यं तद्वत् तद्भावात् । यथा मन्तशब्दे - मुख्यसम्बन्धित्वव्यवहारस्तथा केवलन्तशब्देपि व्यवहारो भवतीत्यदोषः । न्तमन्तयन्तत् । ४ । ३ । ४६ ॥ न्तमन्तसम्बन्धिन्तात्परयोः प्रथमाद्वितीयाबहुवचनयोरुकारादेशो वा स्यात् । भगवन्तो, भगवन्ता | भगवन्तो, भगवन्ते । मतिमन्तो, मतिमन्ता । मतिमन्तो, मतिमन्ते । न्तमन्तयोरिति - भदितोरुर्वेति पदद्वयमनुवर्त्तते । अदितिप्रथमा बहुवचनप्रत्ययः । इदिति द्वितीयाबहुवचनप्रत्ययः । श्रच इञ्चादितौ तयोः । तकार उच्चारणार्थः । भगवन्त + अ इति स्थितेऽनेनाकारस्यो कारे परसवर्णे भगवन्तो । इकाराभावे सवर्णदीर्घे भगवन्ता । द्वितीयाबहुवचने भगवन्त + इ इति स्थिते इकारस्योकारादेशे परसवर्णे भगवन्तो । उकारादेशाभावे परसवर्णे भगवन्ते । एवं मतिमन्तो इत्यादीनि । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धान्तकौमुदी इणस्सयोरसुसौ । ४।३।४७॥ ....... हन्तमन्तसम्बन्धिन्तात्परयोः तृतीयाषष्ठ्येकवचनयोः क्रमेणा सुसादेशौ स्तः । -- प्रणेति—न्तमन्तयोन्र्तादित्यनुवर्त्तते । इणश्च स्सश्चेति द्वन्द्वः । यथासंख्यमिणस्यास् स्सस्य चोसादेशः न्तस्यास्रुसोः । ४ । १ ।.१० ॥... 104 अस्यादेर्लोपः स्यादसुसोः परयोः । भगवता, भगवया । भगवतो, भगवओो । मतिमता, मतिमतो ! 374 19 Jode! : 41080 P011271. · न्तस्येति---आदेर्लोप इतिपदद्वयमनुवर्त्तते । प्रत्ययाप्रत्वययोरितिपरिभाषया न्तमन्तप्रत्ययस्यैवप्रहणम् । तेनान्तादिशब्दघटको न्तो न गृह्यते । न्तस्यादिर्नकारस्तस्य लोप इत्यर्थः । भगवन्त + इति स्थितेऽस्रादेशेऽनेन नकारलोपे सवर्णदीर्घे भगवता । तकारस्य यकारे भगवया । भगवन्त + स्स इत्यत्रो सादेशे न लोपे परसवर्णे भगवतो । तकारस्य यकारे लोपे च भगवच्च एवं मतिमतेत्यादि । ..:... 1 प 4 श्र 132 इह्यदत्रोदिहितोऽणेषु न्तस्य । ४ । १ । २५ उपप ... एषु परेषु न्तस्यादेलोंपो वा स्यात् । भगवएहिं, भगवंतेहिं । भगवयाए, भगवंताए । भगवया, भगवयाओं, भगवंता, भगवंताओ । भगवएहिंतो, भगवंतेर्हितो । भगवयाणं भगवंताणं । TITANIC . शेषं जिवत् । 7 m3 पिन क # इहीति खादेर्लोपो वेत्यनुवर्त्तते । इहिश्च अएच्च अभवः इहिंतोश्चांणरचे तीतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ भग वन्त इहिमित्यत्र तस्यादेर्नकारस्य लोपे तकारस्य यकार लोपे भगवई । पक्षे भगवन्तेहिं । चतुर्थ्येकवचने, भगवयाए भगवन्ताए । पञ्चम्यां भगवया, भगवय़ाओ, भगवन्ता, भगवन्ताओ। षष्ठी हुँ वचने भगवयाणं, भगवन्ताणमित्यादि । शेषं -- सप्तम्येकवचनादिकं जिरणशब्दवत् ॥ सादिदस्य भवंतस्य भे वा । ४ । ३ । २३ ॥ ५ पद क प्रथमाद्वितीयाषष्ठीबहुवचनसंहितस्य भवतस्य मे वा स्यात् । मे । भवंतो भवंता । भवंते, 3 भवंताणं । :.. मत पत 'सादिदणस्येति-भव इव अणश्चेति द्वन्द्वः । तैः सहितः सादिदणस्तस्य । अदिति इदिति अति च क्रमेण प्रथमाद्वितीयाषष्ठीबहुवचनानि । स्थलत्रयेप्यनेन में इत्यादेशे भे । पत्ते भवन्तो भवन्ते इत्यादीनि रूपाणि : सोतोरस्य तारस्य | ३ | ४ | ६७ ॥ 'तारप्रत्ययं सम्बन्धिनो रस्य प्रथमैकवचनसहितस्य वा लोपः स्यात्ः । कत्ता, कत्तारे, कंत्तारो । पसत्था, पंसत्थारे, पसत्थारों ।: Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्तिप्रकरणम् . . “सोतइति-उतासहितस्येति समासः ना लोप इति पदद्वयमनुवर्तते । कर्तरि ताराकणाविति सूत्रण जायमानस्य कर्थकतारप्रत्ययस्यात्र प्रहणं प्रत्ययाऽप्रत्यययोर्मध्ये प्रत्ययस्य प्रहणमिति परिभाषया । तेन समवतार इत्यादिस्थले. नातिप्रसङ्गः । एकदेशविकृतमनन्यवदिति परिभाषाश्रयणेन पसत्यारशब्दे थारस्यापि तारखमा तम् । कत्तार+ उदित्यत्र प्रत्ययसहितस्य रस्य लोपे कत्ता । लोपाभावपक्षे कत्तारे, कत्तारो । पसत्था इतिप्रपूर्वकसस्धातोस्तारप्रत्यये तकारस्य थकारे सकारस्य परसवर्णे पसत्यार इति सिद्धम् । पंसत्यार + उदित्यत्र सोतोरस्य लोपे पसत्था । पक्षे पसत्यारे, पसत्यारो इति ॥ ... . उस्ताराद्वा।४।३ .. ...:.:.:: तारप्रत्ययान्तात्परयोः प्रथमाद्वितीयावहुवचनयोरुकारादेशो वा स्यात् । कत्तारो, कचारा । कत्तारं । कत्तारो, कत्तारे । एवं पसत्यारो, भत्तारो इत्यादि । उरिति-अदितोरुति पदत्रयं पूर्वसूत्रानुवर्तते । कत्तार+ अदित्यत्र प्रथमावहुवचनस्योकारादेशे वृद्धौच कत्तारो । आदेशाभावे परसवर्णे कत्तारा । कत्तारमिति-द्वितीयैकवचनान्तमिदम् । कंचार + इवित्यत्रानेनोकारादेशे कत्तारो । पक्षे वृद्धौ कत्तारे । एवमिति-पसत्यारो, पसत्थारा । पसत्यारं । पसत्यारो, पसत्यारे । भत्तारो, भत्तारा । भत्तारं । भत्तारो, भत्तारे इत्यादीनि रूपाणि कत्तारवद्वोध्यानि ॥ ... . . उस्तारस्यारस्य तृतीयादौ वा ॥ ४।३।१६॥ ." ___ तारप्रत्ययसम्बन्धिन आरस्योसादेशो वा स्यात्तृतीयादिषु परेषु । उस्तारस्येति-वेत्यनुवर्तते । सित्त्वात्सर्वादेशः। १............. . अस्त्रियामिणस्य पाः। ४ । ३ । ५२॥ इदुद्भयां परस्यणप्रत्ययस्य णादेशः स्यादस्त्रियाम् । कत्तुणा । प्रसत्थुणा । भत्तुणा । .. पक्षे कत्तारेणं । पसत्यारेणं । भत्तारेणं । ' इणस्येति इदुयामित्यनुवर्तते । कत्तार + इणेत्यत्रारभागस्योकारे 'जातेऽनेनेणप्रत्ययस्य णादेशे कसुणा । उकाराभावे कत्तारेण । ममागमे कत्तारेणं । एवं पसत्थुणा । पसत्यारेण, -पसत्यारेणं । भत्तुणा । भत्तारेण, भत्तारेणं । उसादेशपक्षे शेष साहुवत् । उसादेशाभावे जिणवदिति । आमन्त्रणेतु विशेषस्तमेव दर्शयति उतोऽत्तारादारस्यामन्त्रणे ॥३।४। ४२ ॥ तारप्रत्ययान्ताभानः परस्यामन्त्रणोतोऽकारादेशः स्यादारस्य लोपच हे कत्त हे भत्त। .. ... ... .. . हे पसत्य ! पक्षे जिणवत्। ', .. उतइति-प्रत्ययमहणे यस्मात्स विहितस्तदादेस्तदन्तस्य महणमिति परिभाषया प्रत्ययान्सादिति नामः! Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धान्तकौमुदी लोप इत्यस्यानुवृत्तिः । कत्तार +उ इति स्थितेऽनेनोकार स्याकारादेशे आरभागस्य च लोपे कत इति । एवं भत्त इत्यादि । अन्त्यस्य षष्ठ्या इत्यनेनान्त्यस्य लोपो न भवति आरस्येति विशेषोपादानादुक्तपरिभाषया अत्राप्रवृत्तेः । किन्तु सर्वस्यैव !. चोरायादिभ्यः । ४ । ३ । १५ ॥ एभ्यः परस्य प्रथमाया एकवचनस्याकारादेशः स्यात् । राया । अप्पा | अत्ता । इति - इति प्रथमान्तम् । उत इत्यनुवर्त्तते । आदिशब्देनाप्पादयोः गृह्यन्ते । राय + उदित्यत्राने नाकारादेशे सवर्णदीर्घे राया । एव मप्पादयः ܕ 14: एभ्यः परस्यामन्त्रणैकवचनस्य डमादेशः स्यात् । रायादिभ्य इति - उत आमन्त्रण इति चानुवर्त्तते । वर्त्तमानस्येति शेषः आमन्त्रणे वर्त्तमानस्य प्रथमैकवचनस्येत्यर्थः । हे राय + उदित्यत्रानेनोतो डमादेशो भवति । : डिति टेः । ४ । १ । २६ ॥ डिति परे लोपः स्यात् । हे रायं । डितीति- लोप इत्यनुवर्त्तते । टिसंज्ञा समाख्याता पूर्वम् । डमादेशे सति तस्मिन्नतो लोपे हे रायें। - एव न दीर्घः । 1 रायादिभ्यो डम् । ४ । ३ । १३ ॥ ***.: अणो रायादिभ्यः । ४ । ३ । ३७ ॥ रायादिभ्यः परयोः प्रथमाद्वितीययोर्बहुवचनयोरणो इत्यादेशः स्यात् । रायाणो । अदितोरिति---अदितोरित्यस्यानुवृत्तिः । अच इच अंदितौ तयोः । अणोरिति प्रथमैकवचनान्तम् । राय + अदित्यत्रानेनाणवादेशे सवर्णदीर्घे रायाणो । द्वितीयाबहुवचनेपि रायाणो । मायादिभ्यो वा | ४ | ३ | ६५ ॥ :: f ; 'रायादिभ्यः परस्य मप्रत्ययस्याणडागमो वा स्यात् । रायाणं, रायं । म इति—म इति षष्ठ्यन्तम् | अणडिति प्रथमान्तम् । राय +म् इत्यत्र टित्वान्मका दीर्घं मोनुस्वारे रायाणं । आगमाभावे रायं । 3428 सेणस्य । ४ । ३ । १६ ॥ - तृतीयैकवचनसहितस्य रायशब्दस्य रन्नेत्यादेशः स्यात् । रना । रायस्येति—अनेकवर्णत्वात्सर्वादेशः । कचिदेकदेशन्यायेन सेयस्येति विशेषणबलाच रायशब्दमात्रा-. तुवृत्तेर्विशेषणानुरूपविभक्तिविपरिणामांचं वृत्तौ रायशब्दस्येत्युक्तम् Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाक्तिप्रकरणम् इणयोरिः। ४ । ३ । १७ ॥ रायशब्दस्यकारोऽन्तादेशः स्यादिह्यणयोः परयोः । राईहि, राईहिं । इहीति-रायस्येत्यनुवर्तते । अन्त्यस्य षष्ठ्या इत्यनेनान्त्यादेशः। राय + इहि-अत्र यकारोत्तराकारस्येकारादेशे यलोपे सवर्णदीचे राईहि । ममागमे राईहिं ।। सस्सस्य रन्नोः।४।३।१८॥ षष्ठ्येकवचनसहितस्य रायशब्दस्य रनो इत्यादेशः स्यात् । रन्नो । सईण, राईणं । शेषं जिणवत् । सस्सस्येति-रायस्येत्यस्यानुवृत्तिः । स्सेन सहितः सस्सस्तस्य । रनोरिति प्रथमैकवचनान्तम् । राय+ स्सेत्यत्रानेनादेशे रनो। राय + प्रणेत्यत्राकारस्येकारादेशे यलोपे सवर्णदीर्घे राईण । ममागमे राईणं । पंचमीसप्तम्यादिपु जिणवद्रूपाणि बोध्यानि ॥ अत्ताप्पाभ्याम् । ४।३।५३ ॥ आभ्यां परस्येणप्रत्ययस्य णा इत्यादेशः स्यात् । अत्तणा । अप्पणा। अत्तति-इणस्य णेत्यस्यानुवृत्तिः । अनेकवर्णत्वात्सर्वादेशः । अत्ताप्पशब्दावात्मवाचकौ । तद्रूपाणिप्रथमाद्वितीययो रायवद्भवन्ति-तृतीयैकवचनेऽनेन णादेशे भत्तणा, अप्पणा । स्सस्य पोः।४।३।५४ ॥ आभ्यां परस्य स्सप्रत्ययस्य णो इत्यादेशः स्यात् । अत्तणो । अप्पणो । शेषं जिणवत् । . सस्सस्येति-अत्ताप्पाभ्यामिति पूर्वसूत्रादनुवर्त्तते । अनेकवर्णत्वात्सर्वादेशः । चतुर्थीषष्ठ्येकवचनेऽनेन णो इत्यादेशे अत्तणो । अप्पणो । अन्यानि रूपाणि जिणशब्दवज्ञेयानि । इणातोत्स्सेषु जसादीनां सक् । ४।३।६६॥ . एपु परेषु जसादीनां सगागमो वा स्यात् । इणेति चेत्यनुवर्तते । जस, मण, वय, काय, तेय, चक्खु, जोग, एते जसादयः । कित्वादन्त्यावयवः तेन जसादीनां सान्तत्वं निष्पद्यते । सान्तादिणस्याः।४।३।५५ ॥ सकारान्तानाम्नः परस्येणप्रत्ययस्यासादेशः स्यात् । जससा । मणसा । वयसा । कायसा। तेयसा । चक्खुसा । जोगसा । सान्तादिति-सान्तादिति पञ्चम्यन्तं विशेषणम् । नाम्न इति विशेष्येण तदन्वयः । श्रासादेशे सकार इत्संज्ञकस्तेन सित्त्वात्सर्वादेशः । जसादीनां सगागमेन सान्तत्वे निष्पन्नेऽनेनेणस्यासादेशे जससा, मणसा, Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुदी वयसा इत्यादि । सगागमाभावे तु जसेण, मणेण, वएण, कारण इत्यादि । असोल्स्सयोरोः। ४।३। ५६ ॥ सकारान्तानाम्नः परयोरतोत्स्सयोरोसादेशः स्यात् । जससो । मणसो । वयसो । कायसो । तेयसो । चक्खुसो । जोगसो। . . . . . असोदिति-सान्तादित्यस्यानुवृत्तिः । अतोच.स्सश्च प्रतोत्स्लो तयोः। सित्त्वात्सर्वादेशः । जसादीनां सगागमे सति सान्तोऽस्य सूत्रस्य प्रवृत्तिः । पञ्चमीषष्ठ्येकवचनयोरोत्वे जससो, मणसो इत्यादि । सगागमा. भावे जसस्स । मणस्स । वयस्स इत्यादि । मण + मि इत्यत्र मेरादेरित्यनेन मकारस्य सकारे मौ व्यञ्जनादा... विति ममागमे मणंसि । ममागमस्य वाहुल्येन कचित्तदभावे मणसि । सकाराभाचे ममागमे मणमि ॥ कास्नयोहः। ४।३ । ६७ ॥ . . . एतयोरुकारादेशो वा स्यादिणप्रत्यये परे । कम्मुणा । धम्मुणा । शेषं जिणवत् । कम्मधम्मयोरिति-इणे वेति पदद्वयानुवृत्तिः । अन्त्यस्य पठ्येति परिभापयाऽन्त्यादेशः । एतयोः-कम्मधम्मशब्दयोः । उकारादेशे सतीणस्य णेत्यनेन णादेशे कम्मुणा | धम्मुणा । पक्षे कम्मेण । धम्मेण तृतीयैकवचनं विनाऽन्यत्र जिणंशब्दवद्रूपाणि ज्ञेयानि । । । इकारान्तः पुल्लिंगो मुणिशब्दः। . . . . . आदिदु या स्वरे सुपि पूर्वस्य । ३ । २ । ३२ । आकारादिकारादुकाराच स्वरादौ सुपि परे पूर्वपरयोः पूर्वसवर्णदीर्घ एकादेशः स्यात् । मुणी · · · आदिदुद्व इति--पूर्वपरयोः सवर्णः दीर्घ इत्येतत्पदन्नयमनुवर्तते । सवर्णे स्वरेऽदित इति सूत्रेण दी सिद्धेप्यसवर्णस्वरादौ सुपि दीर्घविधानार्थमिदं सूत्रम् । तथा च सवर्णे सुप्यप्यनेनैव दीर्घो विशेषविहितत्वात्।आच्च इच्च उच्चा दिदुतस्तेभ्यः । स्वरे सुपीति सप्तम्यन्तं वर्णविधौ तदादाविति परिभाषयास्वरादाविति लाभः । मुणि+ उदित्यत्राने कारोकारयोः पूर्वसवर्णदीधैंकादेशे मुणी। ' . . . . इदुइयां णोरदितोः।४।३।४६॥ इदुद्भ्यां परयोः प्रथमाद्वितीयाबहुवचनयोों इत्यादेशो वा स्यात्पुंसि । मुणियो, मुणी । मुणिं । मुणिणो, मुणी । झुणिंणा । मुणीहिं, मुणीहि । इदुझ्यामिति-पुंसि वेति पदद्वयस्यानुवृत्तिः । मुणि+ अइत्यत्रानेन णो इत्यादेशे मुणिणो । आदेशाभावे पूर्वसवर्णदीर्घ मुणी । एवमप्रेपि ॥ मुणि + इणेत्यत्र इणस्य णेत्यनेन णादेशे मुणिणा। मुणि+ इहि-अत्र सवर्णदीर्घे ममागमे चमुणीहिं । ममागमाभावे मुणीहि ।।. ... अएदतोत्स्सानामस्त्रियाम् । ४।३। ५०॥ . इदुनयां परेषामेषां णो इत्यादेशो वा स्यादस्त्रियाम् । मुणिणो, मुणिस्सा मुणीए । मुणीणं, Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकारान्तपुल्लिङ्गाः मुणोण । मुणिणो, मुणीओ । युणीहिन्तो । मुणिणो, झुणिस । मुणीणं । माणसिं, मुरिणमि, मुणीसु॥ अपदिति-इदुद्भयाम् , णो, वेति पदत्रयस्यानुवृत्तिः । अएञ्च अतोच्च स्सश्च अएदतोत्स्सास्तेषामिति विग्रहः । मुणि + अए इत्यत्रानेन हो इत्यादेशे मुणिणो पक्षे अएतः स इति स्सादेशे मुणिस्स पक्षे आदि'दुद्भय-इत्यादिना पूर्वसवर्णदोघे मुणीए इति रूपं भवति । गुणि + अण इत्यत्र 'आदिदुद्भय' इत्यादिना पूर्वसवर्णदीर्घ इणाणेहीसीसूनामित्यनेन वैकल्पिके ममागमे मुणीणं; ममागमाभावे मुणीण । मुणि+ अश्रोत् : अत्रानेन णो इत्यादेशे मुणिगो; पक्षे अकारस्य पूर्वसवर्ण दीर्घादेशे प्रकृतिभावे मुणीो । मुणि + इहिंतो अत्रादिदुतः इति सूत्रं प्रवाध्य पूर्वसवर्णदीचे मुाहिन्तो । मुणि + स्स इत्यत्रानेन सूत्रेण णो इत्यादेशे मुणिणो; पक्षे मुणिस । मुणीणं पूर्ववत् । मुणि+मि इत्यत्र सिरिति स्यादेशे मौ व्यञ्जनादौ नान इत्यनेन ममागमें : मुर्णिसि; स्यादेशाभावे मुणिमि । मुणि + इसु अत्र सवर्णदीचे मुणीसु । . . इदुद्भयामामन्त्रण उत्तः । ३।४।६८॥ . . : इकारोकाराभ्यां परस्यामन्त्रणैकवचनस्य लोपो वा स्यात् । भो ! भुणि ! मुणी । झुणिणो, मुणी । एवं तवस्सिगिरिजलहिप्रभृतयः । 'इदुन्यामिति-लोपो वेति पदद्वयमनुवर्तते। मुणि + उ इत्यत्रानेनोतोलोपे भो ! मुणि! पक्षे पूर्वसवर्णदार्धे भो ! मुणी ! । मुणि + अ इत्यत्राएदतोत्सानामस्त्रियामिति सूत्रेण णो इत्यादेशे भो ! मुणिणो, पक्षे पूर्व सवर्णदोघे भो ! मुणी । एवं सर्वत्र बोध्यम् ।। अथ उकारान्ताः पुल्लिङ्गाः . . . . . . . अतोऽयोडबोडौ पुंसि ॥ ४।३ । ५१ ॥ इकारोकाराभ्यां परस्य प्रथमाबहुवचनस्य क्रमेणायोड् अवोड् इत्यादेशौ वा स्यातां पुंसि । साहवो, साहुणो, साहू । साहुं । साहुणो, साहू । साहुणा । साहूहिं, साहूहि । साहुस्स साहुणो । साहूण । साहूणं, साहूण । साहुणो, साहूओ । साहूहिन्तो । साहुस्स, साहुणो । साहूणं, साहूंण । साहुंसि, साहुंमि । साहूसु । भो साहु ! साहू ! साहबो, साहुणो, साहू । एवं सवन्नुभाणुप्रभृतयः। । अतोऽवोडेति-इदुद्भयाम, वा, इति चानुवर्तते । अत इति पाठ्यन्तम् । अयोडवोडौ इति प्रथमाद्विवचनान्तम् । पुंसीति सप्तम्यन्तम् । इकारात्परस्यायोड् उकारात्परस्यावोडित्यर्थः । साहु + अ इत्यत्रानेन. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुदी सूत्रेणाकारस्यावोडादेशे डित्वाट्टोपे साहवो, एतदभावे णो इत्यादेशे साहुणो, पक्षे पूर्वसवर्णदीर्घे साहूँ ॥ साहु +म् इत्यत्रानुस्वारे साहुं । साहु इ इत्यत्रेकारस्य णो इत्यादेशे साहुणो, पक्षे पूर्वसवर्णदीर्घे साहू ॥ साहु + इणेत्यत्र 'इणस्य णा' इत्यनेन णादेशे साहुणा । साहु + इहि इत्यत्रेणाणेहीसीसूनामिति वैकल्पिके ममागमे पूर्वसवर्णदीर्घ साहूहिं, ममागमाभावे पूर्वसवर्णदीचे साहूहि ॥ साहु + अए इत्यत्र 'भएतः स्सो नानः' इत्यनेन स्सादेशे साहुस्स, तदभावे णो इत्यादेशे साहुणो। तदभावे पूर्वसवर्णदीर्घे साहूए । साहु + अण इत्यत्र पूर्वसवर्णदीर्घ इणाणेहिसीसूनामिति सूत्रेण वैकलिसके ममागने मस्यानुस्वारे साहूणे, पक्षे साहूण ॥ साह + अतो इत्यत्र अएदतोत्स्सानामस्त्रियामित्यनेन णो इत्यादेशे साहुणो, पक्षे तकारस्य यकारे लोपे पूर्वसवर्णदी प्रकृतिभावे साहूओ । साहु + इहिन्तो इत्यत्र पूर्वसवर्णदीर्घे साहूहिन्तो । साहुस्स, साहुणो साहूणं, साहूण ।। अन्न पूर्ववज्ञेयम् । साहु +मि इत्यत्र सिरिति सूत्रेण स्यादेशे मौ व्यजनादौ नाम्न इत्यनेन ममागमेऽनुस्वारे साहुंसि, स्यादेशाभावे साहुंमि, साहु + इसु इत्यत्र पूर्वसवर्णदीर्घे साहूसु । साहु + उ इत्यत्रोतो लोपे भो ! साहु ! पूर्वसवर्णदीर्घे भो ! साहू ! शेषं पूर्ववत् ।। एवं सवन्नुभाणुप्रभृतयो बोध्याः ॥ बहोरवेडतो वा पुंसि । ४।३। ५७ ॥ बहुशब्दात्परस्य प्रथमाबहुवचनस्यावेडादेशो वा स्यात् बहवे, बहवो, बहुणो । वह बहोरिति-बहोरिति पञ्चम्यन्तम् । अवेडिति प्रथमान्तम् । अत इति षष्ठयन्तम् । वेत्यनुवर्तते । बहु+अ इत्यत्रानेन सूत्रेणावेडादेशे डिवाटुकारस्य लोपे बहवे, अवेडादेशाभावेऽतोऽयोडवोडौ पुंसीति सूत्रेणावोडादेशे उलोपे बहवो, पक्षे णो इत्यादेशे बहुणो पूर्वसवर्णदीचे बहू । बहुशब्दो बहुत्वसंख्याविशिष्टअतो वाचकः नित्यं बहुवचनान्तः ।। शेष साहुवत् ।। पितुप्रभृतिभ्यो डाः। ४।३।४॥ एभ्यो विहितस्योत्प्रत्ययस्य डादेशः स्यात् । पिया, पिता । पितुप्रभृतिम्य इति--उतइत्यनुवर्तते । पितु + उत् इत्यत्रानेनोतः स्थाने डादेशे तकारस्य यकारे पिया । यकाराभावे पिता ॥ अतोडरोः।४।३।५॥ पितुप्रभृतिभ्यः शब्देभ्यः परस्यातो 'डरों' इत्यादेशः स्यात् । पियरो, पितरो । अत इति-पितुप्रभृतिभ्य इत्यनुवर्त्तते । पितु + अत् इत्यत्रानेन सूत्रेणातो डरो इत्यादेशे डस्य लोपे डिवाडिलोपे तस्य यत्वे पियरो, यत्वाभावे पितरो ।। अयञ्चादेशो नित्यम्तेन पक्षे पूर्वसवर्णदीर्घ विधाय पितू इत्येवं न भवति ॥ मो डरम् । ४ । ३ । ७॥ पितुप्रभृतिभ्यः शब्देभ्यः परस्य मस्य डरमित्यादेशः स्यात् । पियरं पितरं । । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकारान्तपुल्लिङ्गाः म इति-पितुप्रभृतिभ्य इत्यस्यानुवृत्तिः । पितु + म इत्यत्रानेन सूत्रेण मकारस्य डरमित्यादेशे डलोपे डित्वाहिलोपे तकारस्य यकारे मस्यानुस्वारे पियर, यकाराभावपक्षे पितरं । अनादेशस्य नित्यत्वात् पितुमिति न ॥ ए स्सस्य वा । ४ । ३।६॥ पितुप्रभृतिभ्यः शब्देभ्यः परस्य स्सस्यैसादेशो वा स्यात् । पिउए, पिउस्स, पिउणो । एः स्लेति-पितुप्रभृतिभ्य इत्यनुवर्तते । अत्र स्सप्रत्ययस्य सामान्यतयोक्तत्वेन चतुर्येकवचने स्सादेशेऽप्ययमादेशो बोध्यः । पितु + अए इत्यत्राएतः स्सो नान इति सूत्रेण स्सादेशेऽनेन सूत्रेणैकारादेशे तकारस्य यकारे लोपे प्रकृतिभावे च पिउए, एतदभावे पिउस्स, स्सादेशाभावेऽएदतोत्स्सानामस्त्रियामिति सूत्रेण 'हो' इत्यादेशे पिउणो । एवं षष्ठ्येकवचनेऽपि ॥ उत आमन्त्रणे डश्च । ४।३।८॥ पितुप्रभृतिशब्देभ्यः परस्यामन्त्रणैकवचनस्योतो डडरमावादेशौ स्याता पर्यायेण । हे पिय ।। हे पियरम् ! । शेपं साहुवत् एवं भातु, नत्तु, जामात्वादयः । उत इति-पितुप्रभृतिभ्य इत्यनुवर्तते डरमिति च पितु +उ इति स्थितेऽनेनोकारस्य डादेशे डलोपे विवाहिलोपे वकारस्य यत्ने 'स्वराद्यस्य स्वरे, इत्यत्र बहुलमित्यनुवृत्त्या यलोपाभावे हे पिय ! उकारस्य डरमादेशपक्षे डलोपे डिवाहिलोपे तकारस्य यकारे हे पियरम् ! अत्रापि पूर्ववद्यलोपाभावः बहुवचने प्रथमाबहुवचनवत् ।। शेपमिति पिउणो, विऊ द्वि० व० पिउणा, पिऊहिं, पिऊहि ॥४०॥ पिउणं, पिऊण च० बहु० ॥ पिउणो, पिऊओ, पिऊहिंतो पञ्चमी । पष्ठी चतुर्थावत् ॥ पिउंसि, पिउंमि । पिऊसु । स० । श्रोत उदिहीहिंतविसुषु । ३ । २ । २६ ॥ श्रोतः परेषु उत् इहि इहितो इसु इत्येतेषु परेपु पूर्वपरयोः पूर्वसजातीयः स्यात् गो। प्रोत इति-पूर्वपरयोः पूर्व इत्यनुवर्तते । गोशब्दादुति प्रत्ययेऽनेनौकारस्योकारस्यचोभयोः स्थाने बोकारे गो । एवमेव गोहिं । गोहितो । गोसु ॥ डावोगा।४।३। ३६ ॥ गोः परयोरदितो वोरादेशो भवति । गावो । डायोरिति-अदितोरित्यनुवर्तते । प्रथमाबहुवचनेऽतो द्वितीयाबहुवचने इतश्चानेन डावोभवति । तथा च गोशब्दादति विभक्तो डायादेशे डिति टिलोपे गावो । एवमेव द्वितीयाबहुवचने बोध्यम् । मिणाएदतोत्स्समिषु गोर्गवः । ४।३।२० ॥ एषु परेषु गोशब्दस्य गवादेशः स्यात् । गवं । गावो । गवेण । गोहिं । गवाए । गवं । गवा. गवाओ । गोहितो । गवस्स । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसिद्धान्तकौमुदी मिणाएदिति-मश्चेणश्चाएञ्चाओञ्च रसश्च मिश्चेति विग्रह इतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनेकवर्णत्वात्सर्वादेशः । 'देशोऽदन्तः । अतएवैतदादेशे निणवत्कार्याणि भवन्ति ।। स्मर्त्तव्यानि । गोहिं इत्यादौ तु गोवत्कार्याणि नन्ति ॥ गोशब्दादणमि विभक्तौ वक्ष्यमाणसूत्रेण डवमादेशे टिलोपे गवं । एवमेव पष्ठीबहुवचनेऽपि ॥ __ अणस्य डकन्छ । ४ । ३ १ २१ ॥ गोः परस्याणप्रत्ययस्य डबमादेशः स्यात् । गर्व । गवे, गवंसि, गमि । गोसु । हे गो! । गावो ।। . अणल्य इति-डावोरिति सूत्रतो गोरित्यनुवर्तते । अनेकवर्णवात्सर्वादेशः । गोशब्दादणस्य डवमादेशे . टेलोपे गवं । मस्यानुस्वारः । सम्बोधने प्रथमावत् सामान्यतया उदतोरुपादानात् ।। .. अथ सब्वणामशब्दाः - संवादीनि संवणामानि । १।१ । २६ ॥ - सन्नादयः शब्दाः सव्वणामसंज्ञाः स्युः सव्ये, सब्यो । सवादय इति-सव्वादीन्युद्दिश्य सव्वणामसंज्ञा विधीयते न तु सब्बणाममुद्दिश्य सव्वादिसंज्ञा लाघवार्थमेव संज्ञाया आवश्यकतयैकस्यानेकसंज्ञाकरणे लाववाभावेन तत्करणं व्यर्थ स्यात् । किञ्च यच्छन्दयोगः प्राथम्यमित्याधुद्देश्य लक्षणलक्षिततया सन्वादेरेवोद्देश्यत्वमुचितम् । न च संज्ञाया लावव' प्रयोजनकतया सादिसंज्ञामपहाय नववर्णघटितगुरुसंज्ञाविधाने किं फलमिति वाच्यं, सबेर्सि णामं सव्वणाममिति महासंज्ञया सर्वार्थवाचकस्यैव सव्वणामसंज्ञाया लाभेन यत्र कस्यचित् सव्वेति नाम कृत्वा सनशब्दः प्रयुज्यते तत्र सब्वशब्दस्य सर्वार्थवाचकत्वाभावेन सञ्चणमसंज्ञाया अप्रवृत्तरेव फलत्वात् । एवमपि । सव्व + उ इति स्थिते 'इदुतः पुंस्यत' इत्यनेनोकारस्येकारे वृद्धावेकारे सव्वे; इकाराभावे वृध्द्यावोकारे सव्वो ॥ हः सव्वणामात् । ४।३।५८ ॥ अकारान्तसवणामशब्दात्प्रथमावहुवचनस्येकारादेशः स्यात्पुंलि । सव्ये । सच्वं । सके। सम्वेणं, सव्वेण । सबहिं, सव्वेहि । सवस्ल, सवाए । इ. सब्बेति-पुंसीत्यनुवर्तते अत इति च यद्यपि सामान्यतः प्रथमाविभक्तौ विधानेऽपि नक्षतिः प्रथमैक. बचनेऽपि 'सच्चे' इत्यस्येष्ठत्वात् । ननु तथा सति सम्धी इति कथं भवेदिति चेन्न, वहुलग्रहणसम्बन्धात्प्रयमैकवचने विकल्पेन प्रवृत्त्योक्तरूपसिद्धः । तथापि वहुलग्रहणसम्बन्धाभावसूचनायैव तथोक्तमन्यथाऽत्रापि विकल्पः Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवणामशब्दाः • सम्भवेत् । तथा चात्रापि सव्वो इत्यनिष्टं रूपं विकल्पेन स्यात् । सव्व + अ इत्यत्रानेनाकास्येकारे वृद्धावेकारे सन्वे ।। सव्व+म् इत्यत्रानुस्वारे सव्वं । सब्वे पूर्ववत् ॥ सव्व + इण इत्यत्रेणाणेहोसीसूनामिति सूत्रेण विकल्पेन ममागमेऽनुस्वारे वृद्धौ सव्वेणं, ममागमाभावे सम्वेण । सव्व + इहि अत्र ममागमेऽनुस्वारे वृद्धौ सव्वेहि, ममागमाभावपक्षे सव्वेहि ॥ सव्व+ अए इति स्थितेऽएतः स्स-इत्यादिना स्सादेशे सव्वस्स, पक्षेऽदिद्युत इति सूत्रं प्रबाध्य पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे सव्वाए ॥ • . . अणस्येतिरस्त्रिया । ४।३।६१॥. . अकारान्तसव्वणामशब्दात्परस्याणप्रत्ययस्यसिरादेशः स्यादस्त्रियाम् । सव्वेसि, सव्वेसि । सव्वा, सन्याओ । सव्वेहितो। सदस्स । सव्वेसि, सव्येसि | सव्वंसि, सव्वंमि, सच्चे । सव्वेसु । अणस्येसिरिति-सन्त्रणामात्, अत इति पदद्वयमनुवर्तते । अनेकवर्णत्वात्सर्वादेशः । सव्व+ अण इत्यत्रानेन 'इसि' इत्यादेशे इणाणेहीसीसूनामित्यनेन वैकल्पिके ममागमेऽनुस्वारेऽतः स्वरे परस्य सवर्ण इति सूत्रेण वृद्धौ सव्वेसिं, ममागमाभावे सव्वेसि ॥ सव्व + अतोदिति स्थितेऽतोतोऽतः इति सूत्रेणौकारस्य लोपे तकारस्य यकारे लोपे पूर्वसवर्णदीर्घ च सव्वा, पक्षे पूर्वसवर्णदीर्घं तकारस्य यत्वे यस्य लोपे प्रकृतिभावे सव्वायो । सव्व + इहिंतो इति स्थिते वृद्धौ बहुलग्रहणात्तकारस्य यकाराभावेसव्वेहितो । सव्वस्स । सव्येसिं पूर्ववत् ॥ सेस्सिं वा । ४ । ३ । ५६॥ . . . . . अकारान्तरायणामशब्दात्परस्य सप्तम्येकवचनस्य सेः स्तिमादेशो वा स्यात् । सवस्ति । लेस्सिमिति-अतः सव्वणामादिति पदद्वयमनुवर्तते । सन्व +मि इत्यत्र सिरित्यनेन स्यादेशेऽनेन सूत्रेण सेः सिमादेशेऽनुस्वारे । सव्वस्सिं ।। पने-सब्ब+ मि इत्यत्र सिरित्यनेन स्यादेशे मौ व्यञ्जनादौ नान्न इत्यनेन ममागमेऽनुस्वारे सव्वंसि, स्यादेशाभावे सव्वंमि पक्षे 'मेरिस्' इति सूत्रेण इसादेशे वृद्धौ सव्वे । सच + इसु इत्यत्र वृद्धौ सव्वेसु ॥ . .: . :: जतकेभ्योऽतोतो:वा म्हाः । ४।३। ६२॥ सर्वनामसंज्ञकेभ्य एभ्यः परस्य पञ्चम्येकवचनस्यः म्हादेशो वा स्यादस्त्रियाम् । जम्हा । . शेष सव्वशब्दवत् । । ....... . - जतकेभ्य इति-जश्च तश्च कश्चेति द्वन्द्वः । सवणामात् , अस्रियामिति पदद्वयमनुवर्तते ! अनेकवर्णत्वात्सर्वादेशः । ज+अतोदित्यत्रानेन सूत्रेण विभक्तेहादेशे जम्हा, म्हादेशाभावेऽतोतोऽतइति सूत्रेणौकारस्य लोपे तस्य यत्वे यलोपे पूर्वसवर्णदीधै च जा, पक्षे पूर्वसवर्णदीचे तकारस्य . यकारे लोपे प्रकृतिभावे जाओ। शेषमिति-जे, जो । ने ॥ ७० ॥ जं । जे ॥ द्वि० ॥ जेणं, जेण, जेहिं, जेहि ॥ ४० ॥ जस्स, जाए । जेसिं, Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुदी जेसि ॥ १० ॥ जेहिंतो ॥ पं० बहु० ॥ जस्स । जेसिं, जेसि, ॥ १० ॥ जसि, जमि, जे, जस्ति । जेसु ।। स० ॥ शेषं सव्वशब्दवदित्यत्र जशब्दस्येति शेषः । तादिशब्देषु विशेषरूपार्णा मूल एव । दर्शितत्वात् । उत्येततयोरक्लाबे सः ।२।३ । ७८ ॥ एततशब्दयोरुपधायाः प्रथमैकवचने परे सकारादेशः स्यादक्लीवे । उत्येतेति-उपधाया इत्यनुवर्तते । उति, एतयोः , अक्लीवे, स, इति पदचतुष्टयम् । एतश्च तश्चेति द्वन्द्वः अन्यवचने परे क्लीवे च सकाराभावादुतीति अक्लीवे इति चोक्तम् । सकारोत्तराकार उच्चारणार्थः । एतताभ्यां पुंसि वा । ३ । ४ । ७० ॥ आभ्यां परस्य प्रथमैकवचनस्य लोपो वा स्यात्पुंसि । स, से, सो । ते । एतताभ्यामिति-उत इति लोप इति द्वयोरनुवृत्तिः । त + उ-इत्यत्रोत्येततयोरक्लीवे स इत्यनेन तकारस्य सकारेऽनेन विभक्तोंपे स, लोपाभावे 'इदुतः पुंस्यत्' इति सूत्रेणोकारस्येकारे वृद्धौ से, तदभावे वृद्धौ सो। ते । तं । ते ॥ तेणं, तेण । तेहिं, तेहि । तस्स, ताए । तेसिं, तेसि । त+अतोदित्यत्र 'जतकेभ्योऽतोतो वा म्हा' इति विभक्तम्हादेशे तम्हा, एतदभावेऽतोतोऽत इति सूत्रेणौकारस्य लोपे तकारस्य यकारे यलोपे पूर्वसवर्णदीधैं च ता, पक्षे पूर्वसवर्णदीधे तस्य यत्वे लोपे प्रकृतिभावे ताओ । तेहितो।। तस्य सस्स्सय सेः। ४।३ । ७२ ॥ . तशब्दस्य षष्ठयेकवचनस्ससहितस्य 'से' इत्यादेशो वा स्यात् । से, तस्स । तेसिं, तेसि । शेषं जशब्दवत् । - तस्येति-सेन सहितः सस्सस्तस्येत्यर्थः । वेत्यनुवर्तते । षष्ठथेकवचन एवायमादेशो नतु चतुर्थ्यामप्यनभिधानात्तदाह पष्ठयेकवचनेति । त+ स्सेत्यत्रानेन प्रकृतिप्रत्ययोरुभयोः स्थाने 'से' इत्यादेशे से, तस्येत्यर्थः । पक्ष तकारस्य स्सादेशे तस्स । तेसिं, तेसि । तसि, तमि, ते तस्सि । तेसु । के, को । के। कं । के । केणं, फेण । हिं, केहि । कस्स, काए । केसि, केसि । कम्हा, का, काओ ॥ : __ कादिहिन्तोरितो डोः । ४ । ३ । ३३ ॥ 'कशब्दात्परस्येहितोप्रत्ययस्यादे'ओ' इत्यादेशः स्यादस्त्रियाम् । कोहितो । शेषं जशब्दवत् । ___ कादीति-कात्, इहिंतोः, इतः, डओरिति पदचतुष्टयम् । अस्त्रियामित्यनुवर्तते । क + इहिंतोऽत्रानेन विभफेरादेरिकारस्य 'डओ' इत्यादेशे डलोपे डित्त्वाहिलोपे प्रकृतिभावे कओहितो । कस्स । केसि, फेसि । इत्यादि । इमस्य सोतः पुंस्ययम् । ४।३ । २४ ॥ . इमशब्दस्योप्रत्ययसहितस्यायमित्यादेशो वा स्यात्पुंसि । अयं, इमे ।। .. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वणामशब्दा इमस्येति-उता सह+सोत् सस्य सोत इत्यर्थः । वेत्यनुवर्तते । इम+8 इत्यन्न प्रकृतिप्रत्यययोरुभयोः स्थानेऽयमित्यादेशे अयम् , पक्षे 'इदुतः पुंस्यत' इत्यनेनेकारादेशे वृद्धौ इमे । इमस्य मोर्णट् । ४।२।५॥ . इमसम्बन्धिनो 'मो' इत्यस्य णडागमो वा स्यात् । इणमो, इमो । इमे । इमस्येति-चेत्यनुवर्तते । इम । उ इत्यत्रे काराभावे वृद्धौ 'इमो' इति स्थितेऽनेन सूत्रेण मो इत्यस्य णडागमे रित्वादाद्यवयवे इणमा, णडागमाभाव इमो । इणमो इत्यत्र "जंबू ! इणमो अण्हयसंवरविणिच्छय पवयणस्स निस्संद" इति पण्ह० १, १; प्रमाणमस्ति । इम + अ इति स्थिते 'इ: सव्वणामादत' इत्यनेनाकारस्येकारादेशे वृद्धावेकारे इमे। मस्य णो मि । ४ । ३ । २७ ॥ इम शब्दसम्बन्धिमकारस्य णकारादेशो वा स्यान्मप्रत्यये परे । इणं, इमं । इमे । मस्येति- इमस्येति वेति चानुवर्तते । इम + म् इत्यत्रानेन मकारस्य णकारेऽनुस्वारे इणं,पक्षे इमं । इणमित्यत्र "गोयमो इणमन्यमी । उत्त० २३ । ३१ ॥ इणमक्खेवं पुच्छे, भग० २ । १, इति प्रमाणमस्ति । इमे ।। पूर्ववत् । अस्त्रियामिणेऽणः । ४ । ३ ।२८ ॥ . इमशब्दस्याणादेशो वा स्यादिणप्रत्यये परेऽस्त्रियाम् । अणेण, इमेणं, इमेण । इमेहि, इमेहि । इमस्स, इमाए । इमेसि, इमेसि । इमा, इमाओ । इमेहिन्तो । इमस्येति-इमस्येत्यनुवर्तते अनेकवर्णत्वात्सर्वादेशः । इम + इण इत्यवस्थायामनेनेमस्याणादेशे वृद्धौ श्रणेण, पक्षे वृद्धौ वैकल्पिके ममागमे च कृते ऽनुस्वारे इमेणं, ममागमाभावपक्षे इमेण । इम + इहि अत्र ममागमे वृद्धी इमेहि, ममागमाभावे इमेहि ॥ इम X अए इत्यत्राएतः स्सोनाम्न, इत्यनेन स्सादेशे इमस्स, स्सादेशाभावे तु पूर्वसवर्णदीर्घ प्रकृतिभावे इमाए । शxण इत्यत्राणस्येसिरस्त्रियामिति सूत्रेण 'इसिरित्यादेशे 'इणाणेहीसीसूनाम् , इति विकल्पेन ममागमेऽनुस्वारे 'अतः स्वरे परस्य सवर्ण इत्यनेन वृद्धौ इमेसि ममागमाभावे इमेसि ॥ इमxअतोदित्यत्रातोतोऽत,इति सूत्रेणौकारस्य लोपे तकारस्य यकारे लोपे पूर्वसवर्णदीचे इमा, पक्षे पूर्वसवर्णदीपें तस्य यत्वे यलोपे प्रकृतिभावे इमाओ । इम इहिंतोइत्यत्र वृद्धौ इमेहितो ॥ . सिस्सयोरस् । ४ । ३ । २६ ॥ इमशब्दस्यासादेशो वा स्यात् स्सिस्सयोः परयोरस्त्रियाम् । अस्स, इमस्स । इमेसि, इमेसि । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुदी - स्सिस्सयोरिति इमस्य, वा, अस्त्रियामिति पदत्रयमनुवर्तते । सित्त्वात्सर्वादेशः । अत्र सशब्देन पष्ट्येकवचनस्यैव ग्रहणं नतु चतुयेकवचनस्य चतुझं तादृशप्रयोगस्यादर्शनात् । इम + रस इत्यत्रानेन सूत्रेणेमस्यासादेशे इत्संज्ञकस्य सस्य लोपे अस्स,पक्षे इमस्स । इमेसिं, इमेसि ॥ पूर्ववत् ।। इमस्सि कस्सिंवत् ।। - अयः सौ । ४।३ । २६ ॥ . इमशब्दस्यायादेशो वा स्यात् सौ परे । अयंसि, अस्सि, इमम्सि, इमंसि, इमंमि इमे. इमेसु । एस. एसे, एसो । एए । एयं । एए । एएणं, एएण । एएहि, एएहि । एएस्स, एथाए. एएसिं. एंएसि । एया, एयाओ। एएहितो । एयस्स । एएसिं एएसि एयंसि. एमि, एए. एयस्सि, एएसु। एवमन्नकयरेयरादयः ।। श्रय इति-इमस्य, वा, इतिधानुवर्तते । अनेकवर्णत्वात्सर्वादेशः । इम+मि इत्यत्र 'सिः' इति सूत्रेण ; स्यादेशेऽनेन सूत्रेणेमस्यायादेशे ममागमेऽनुस्वारे अयंसि, "अयंसि लोए ॥ इत्युत्त० १७१२० ।। पक्षे सेः स्ति मिति सेर्विकल्पेन सिमादेशे 'स्सिस्सयोरस्' इति सूत्रणेमस्यासादेशे. मस्यानुस्वारे. अस्ति, असादेशाभावे इमस्सि, सिमादेशाभावे ममागमेऽनुस्वारे इमंसि, स्यादेशाभावे तु इममि पक्षे मेरिसिति सूत्रेणेसादेशे वृद्धौ : इमे । इम+ इसु इत्यत्र वृद्धौ इमेसु ॥ एत + उ इत्यत्रोत्येततयोरक्कीबे स इत्यनेनोपधायास्तकारस्य : सकारे । एतताभ्यामलीबे वो, इत्यनेन विभक्तोंपे एस, लोपाभावे 'इदुतः पुंस्यत इति सूत्रेणोकारस्येकारे : वृद्धौ एसे इत्वाभावे वृद्धौ एसो । एत + अ इत्यत्र 'इ: सव्वणामादतः' इति सूत्रेणाकारस्येकारे तकारस्य यकारे लोपे वृद्धौ प्रकृतिभावे एए ॥ एत+म् इत्यत्र तकारस्य यत्वे लोपाभावेऽनुस्वारे एयं । एत+ इ इत्यत्र तस्य यत्वे लोपे वृद्धौ एए ॥ एत+ इण इत्यत्र तस्य यत्वे लोपे ममागमेऽनुस्वारे वृद्धौ च एएणं, ममागमाभावे एएण। । एत + इहि अन तस्य यत्वे लोपे वैकल्पिके ममागमेऽनुस्वारे वृद्धौ च एएहि, ममागमाभावे एएहि ॥ एत+भए इत्यत्राएतःस्सो नान्नः' इति सूत्रेण स्सादेशे एयस्स, बहुलग्रहणात्तकारस्य यकाराभावे एतस्स, स्सादेशाभावे तकारस्य यकारे पूर्वसवर्णदीधैं प्रकृतिभावे बहुलग्रहणाद् यकारस्य लोपाभावे एयाए। . एत + अण इत्यत्र 'अणस्येसिरस्त्रियामिति सूत्रेणेस्यादेशे 'इणाणेहीसीसूनाम्' इति वैकल्पिके ममागमेऽनुस्वारे तकारस्य यकारे । लोपे च वृद्धौ एएसिं, ममागमाभावपक्षे एएसि ।। एत+अतोदित्यत्रातोतोऽत इति सूत्रेणीकारस्य लोपे तकारस्य यस्वे लोपे एत + अ इति जाते पूर्वसवर्ण दीर्थे तकारस्य यकारे बहुलग्रहणाल्लोपाभावे. एया, ओकारस्य लोपा भावपक्षे पूर्ववत् सर्वकायें प्रकृतिभावे एयाओ । एत + इहिंतो इत्यत्र वृद्धौ एतशब्दस्थतकारस्य यकारे लोपे बहुलमहणाद्विभक्तिस्थतकारस्य यत्वाभावे प्रकृतिभावे एएहितो ॥ एयस्स । एयसिं, एएसि ॥ पूर्ववत् ॥ एत । मि इत्यत्र स्यादेशे तस्य यस्वे ममागमेऽनुस्वारे एयसि, स्यादेशाभावे एयंमि; पक्षे मेरिसादेशे तकारस्य यफारे Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचणामशब्दा लोपे वृद्धौ प्रकृतिभावे एए । से:स्सिमिति रिसमादेशे तकारस्य यकारे एयसि । एत + इसु इत्यत्र वृद्धौ राकारस्य यफारे लोपे प्रकृतिभावे एएसु ॥ अम्हस्य महमो सोतः । ४ । ३ । ७६ ॥ उप्रत्ययसहितस्याम्हशब्दस्य ह अहमित्यादेशौ पर्यायेण स्याताम् । हं, अहं । अम्हत्येति-उता सह वर्तमानः सोत् तस्येति वहुव्रीहिः । अम्हशब्दस्यानेन हमादेशेऽनुस्वारे हं, अहमादशे अहं। • वा सातो वयम् । ४।३।८२ ॥ ____ अप्रत्ययसहितस्याम्हशब्दस्य वयमित्यादेशो वा स्यात् । वयं, अम्हं ॥ जागति-अम्हस्येत्यनुवर्तते । अता सह वर्तमानः सात् तस्येति बहुव्रीहिः । अम्ह + अ इत्यत्रानेन प्रकृतिप्रत्यययोरुभयोः स्थाने वयमादेशेऽनुस्वारे वयं; पक्षे 'इ.. सब्वणामादतः' इति सूत्रेणाकारस्येकारे वृद्धो अम्हे ।। समो नेमंगलमलमः । ४।३।७७ ॥ मप्रत्ययसहिनस्याम्हशब्दस्य मे, मं, मम, ममम् इत्येते आदेशाः पर्यायेण स्युः । मे, में, मम ममम् ।। सम इति-अम्हस्येत्यनुवर्तते । मकारेण सह वर्तमानः सम तस्येति बहुव्रीहिः । अम्ह + म् इत्यत्रानेन प्रकृतिप्रत्यययोरुभयोः स्थाने मे इत्यादेशे मे, तदभावे 'म' इत्यादेशे मं, तदभावे 'मम' इत्यादेशे मम, एतदा भावे मममित्यादेशेऽनुस्वारे ममं ॥ एवं रूपचतुष्टयम् ॥ सेतो नेनाचौ । ४।३। ८३ ॥ द्वितीयाबहुवचनसहितस्याम्हशब्दस्य ने नो इत्यादेशौ वा स्याताम् । णे; ने, णो, नो, अम्हे । सेतो नेनेति-अम्हस्य, वा, इतिपदद्वयमनुवर्तते । इता सह सेत् तस्येति बहुव्रीहिः । अम्ह + इ इत्यत्रानेन प्रकृतिप्रत्यययोरुभयोः स्थाने ने, इत्यादेशे णत्वे णे, णत्वाभावे. ने, एवं णो, नो, पक्षे वृद्धौ अम्हे-।। . सेणस्य मेमएभयाः । ४ । ३ । ७८ ॥ इणप्रत्ययसहितस्याम्हशब्दस्य मे, मए, मया इत्येत आदेशाः पर्यायेण स्युः । मे, मए, मया । नेणस्यनि-अम्हस्येत्यनुवर्तते । इणेन सह वर्तमानः सेणस्तस्येति बहुव्रीहिः । मेश्च, मएश्च मयाश्चेति द्वन्द्वः । अम्ह + इण इत्यत्रेणसहितस्याम्हशब्दम्य स्थानेऽनेन सूत्रेण मे इत्यादेशे मे, मए इत्यादेशे प्रकृतिभावे मए, मया इत्यादेशे मया । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुदी सेहेर्नेः । ४।३।८४॥ इहिप्रत्ययसहितस्याम्हशब्दस्य ने इत्यादेशो वा स्यात् । णे, अम्हेहिं, अम्हेहि ॥ सेहेरिति-अम्हस्य, वा, इतिद्वयोरनुवृत्तिः । इहिसहितः सेहिस्तस्येति वहुव्रीहिः। अम्ह + इहि इत्यत्रानेनेहिसहितस्याम्हशब्दस्य ने इत्यादेशे णत्वे णे; पक्षे वृद्धौ वैकल्पिके ममागमेऽनुस्वारेऽम्हेहि, ममागमाभावेऽ म्हेहि । दिटुं चाणे सुयंच णे । आचा०।१।४।२॥ सातोतो समाप्रोममाहितावौ। ४ ।३। ८०॥ पञ्चम्येकवचनसहितस्याम्हशब्दस्य ममाओ ममाहितो इत्येतावादेशौ पर्यायेण स्याताम् । ___ममाओ, ममाहितो । अम्हेहितो । सातोत इति-अम्हस्येत्यनुवर्तते । अतोता सह सातोत् तस्येति वहुव्रीहिः ममाओश्च ममाहितोश्चेति द्वन्द्वः । अम्ह + अतोदित्यत्रानेन सूत्रेणातोत्सहितस्याम्हशब्दस्य स्थाने ममाओ इत्यादेशे प्रकृतिभावे ममाओ, पक्षे ममाहिती इत्यादेशे ममाहितो । अम्ह + इहिंतो इत्यत्र वृद्धौ अम्हेहितो । बहुलप्रहणान्न सर्वत्र तकारस्य यकारः॥ सस्सस्य मेमममममझमहंमोमज्झाः । ४ । ३ । ७६ ॥ स्सप्रत्ययसाहितस्याम्हशब्दस्य मे मम ममं मज्झं महं मो मज्झ इत्येते आदेशाः स्युः पर्या येण । मे, मम, ममं, मझ, महं, मो, मझ। सस्सस्येति-अम्हस्येत्यनुवर्तते।स्सेन सह सस्सस्तस्येति विग्रहः। मेश्च ममश्चममञ्च मन्मश्च महश्च मोश्च मन्मश्चेति द्वन्द्वः । अम्ह + स्स इत्यन्न प्रकृतिप्रत्यययोरुभयोःस्थानेऽनेन सूत्रेण मे इत्यादेशेमे, ममादेशे मम, मममादेशेऽ नुस्वारे मम, मन्ममादेशे नुस्वारे मझ,महमादेशेऽनुस्वारे मह, मो इत्यादेशे मो, मज्मादेशे मज्म । अम्हं साणस्य । ४।३।८५॥ ___अणसहितस्याम्हशब्दस्याम्हमादेशो वा स्यात् । अहं । अम्हमिति-श्रणेन सह साणस्तस्येति बहुव्रीहिः । अम्हस्य, वेति द्वयोरनुवृत्तिः । अम्ह + अंण ' इत्यत्रानेन प्रकृतिप्रत्यययोरुभयोःस्थाने 'अम्हमि' त्यादेशेऽनुस्वारे अम्हं। नेनवस्साकमः । ४ । ३ । ८६॥ अणसहितस्याम्हशब्दस्य ने, नो, अस्साकमित्येत आदेशा वा स्युः । णे, ने, णो, नो,अस्साक, अम्हाणं । नेनवेति-साणस्य, अम्हस्य, वेति पदन्नयमनुवर्तते । अम्हमण । इत्यत्रानेन ने इत्यादेशे णत्वे णे, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हशब्दाः णत्वाभावे ने, नो इत्यादेशे णत्वे णो, णत्वाभावेनो, अस्साकमादेशेऽनुस्वारे अस्साक, एतदभावे ममागमे पूर्वसवर्णदीपेऽनुस्वारे अम्हाणं ॥णे इत्यत्र "एयं णे पेच्च भवे" ओव० २५, इति प्रमाणम् ॥ एतदस्माकं प्रेत्य भव इति तदर्थः मम्हि ससेः। ४ । ३ । ८७ ॥ सिप्रत्ययसहितस्याम्हशब्दस्य मम्हिमादेशा वा स्यात् । मम्हि । महिमिति-अम्हस्येति वेति चानुवर्तते । सिना सह ससिस्तस्येति विग्रहः । अम्ह+मि इत्यत्र 'सिः' इतिसूत्रेण मेः स्यादेशेऽनेन सिसहितस्याम्हस्य 'मम्हिम्' इत्यादेशेऽनुस्वारे महि ॥ दृश्यते च "तं भई णं भवतु देवाणुप्पियाणं मन्हि जस्स अणुप्पभावेण अक्किट्टे नाव विहरामिः" भग० ॥३-१॥ तद्भद्रं भवतु देवानुप्रियाणां मयि यस्यानुप्रभावेणाक्लिष्टो यावद्विहारामि ।। पटे सौ ममम् । ४ । ३ । ८१ ॥ अम्हशब्दस्य मममित्यादेशः स्यात् सप्तम्येकवचने परे । ममंसि, ममंमि । अम्हेसु ॥ माविति-अम्हस्येत्यनुवर्तते । अम्हामि इत्यत्र मेः स्यादेशेऽम्हशब्दस्यानेन सूत्रेण मममादेशेऽनुस्वारेममंसि स्यादेशाभावेऽनेन मममादेशेऽनुस्वारे ममंमि । अत्र बाहुलकाल्लोपो न । अम्ह+इसु इत्यत्र वृद्धौ अम्हेसु ॥ अथ तुम्हशब्दः॥ सोतस्तुम्हस्य तन्तुमेतुममः । ४ । ३ । ८८ ॥ उप्रत्ययसहितस्य तुम्हशब्दस्य तं तुमे तुमम् इत्येत आदेशाः पर्यायेण स्युः । तं, तुमे, तुमम् । __सोत इनि-उता सह सोत्तस्येति बहुव्रीहिः । तञ्च तुमेश्च तुमश्चेति द्वन्द्वः तुम्ह +उ इत्यत्रानेन सूत्रेणोप्रत्ययसहितस्य तुम्हशब्दस्य तमादेशेऽनुस्वारे तं, तुमे इत्यादेशे तुमे,, तुममित्यादेशेऽनुस्वारे तुमं ॥ बहुवचनेषु तुब्भतुज्झौ था । ४ ।३।८६ ॥ तुम्हशब्दस्य बहुवचने परे तुम्भ तुज्झ इत्येतावादेशौ वा स्तः पर्यायेण । तुब्भे, तुज्झे, तुम्हे । बहुवचनेविति-तुम्हस्येत्यनुवर्तते । तुभश्च तुज्मश्चेति द्वन्द्वः । तुम्ह +अ इत्यत्रानेन तुम्भादेशे 'इः सव्वणामादतः' इत्यनेनाकारस्येकारे वृद्धौ तुम्भे, तुझादेशपक्षे तुझे, एतदभावे तुम्हे ॥ समस्तेः । ४ । ३ । १०॥ मप्रत्ययसहितस्य तुम्हशब्दस्य 'ते' इत्यादेशो वा स्यात् । ते । पक्षे । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुद्री . . सम इति-तुम्हस्येति वेति चानुवर्तते । म सहितः सम् तस्येति समासः तुम्ह + म् इत्यत्रानेन प्रकृतिप्रत्यययोरुभयोः 'ते' इत्यादेशे ते, पक्षे ते इत्यादेशाभाव इत्यर्थः । . मिमोस्तुम्हस्य हस्य । ३ । ४ । ५७॥ मिप्रत्यये म्प्रत्यये च परे तुम्हसम्बन्धिहकारस्य लोपः स्यात् । तुमं । तुम्भे, तुज्झे, तुम्हे ।' मिमोरिति-लोप, इत्यनुवर्तते । मिमोरिति सप्तम्यन्तम् । तुम्हन म् इत्यत्रानेन हकारस्य लोपेऽ नुस्वारे तुमं । तुम्ह + इ इत्यत्र 'बहुवचनेषु तुव्भतुज्झो वा' इतिसूत्रेण तुम्भादेशे वृद्धौ तुन्भे तुज्झादशपक्षे तुज्झे पक्षे तुम्हे ।। सेणस्य तुमः। ४ । ३ । १२ ॥ इणप्रत्ययसहितस्य तुम्हशब्दस्य तुमे इत्यादेशः स्यात् । तुमे । तुम्भेहि, तुज्झहि, तुम्हेहि, तुम्भेहि, तुज्झहि; तुम्हेहि । सेणस्येति-इणेन सहितः सेणस्तस्येति विग्रहः । तुम्हस्येत्यनुवर्तते । तुम्ह +इण इत्यत्रानेनेणसहितस्य तुम्हस्य ते इत्यादेशे तुमे। तुम्ह + इहि इत्यत्र 'वहुवचनेषु तुम्भतुझौ वा' इतिसूत्रेण तुब्भादेश 'इणणेहीसीसूनामिति' सूत्रेण ममागमेऽनुस्वारे वृद्धौ तुम्भेहिं, ममागमाभावे तुम्भेहि, तुझादेशे तुझेहिं, तुज्झहि, आदेशाभावपक्षेतु तुम्हेहि, तुम्हेहि ॥ सातोतस्तुमाहितोः । ४ । ३ । ६४ ॥ अतोत्प्रत्ययसहितस्य तुम्हशब्दस्य 'तुमाहितो' इत्यादेशः स्यात् । तुमाहिन्तो । तुन्भेहितो तुज्झहिन्तो, तुम्हेहिंतो । सातोत इति-अतोता सह वर्तते सातोत्तस्येति वहुव्रीहिः । तुम्हस्येत्यनुवर्तते । तुम्ह+रतोदित्यत्रानेन प्रकृतिप्रत्ययसमुदायस्य तुमाहितो इत्यादेशे तुमाहितो । तुम्ह इहिंतो इति स्थिते तुम्भादेशे वृद्धौ तुन्भेहितो, तुज्झादेशे तुझेहितो, एतदभावे वृद्धौ तुम्हेहितो।। ___ सस्सस्य तेतवतुझंतुमं तुहंतुसंतुज्झाः । ४।३ । ६३ ।। स्सप्रत्ययसहितस्य तुम्हशब्दस्यैत आदेशाः पर्यायेण स्युः । ते, तब, तुझ, तुम, तुहं, तुम्भ, तुज्झ । सस्सस्यीत-स्सेन सहितः सरसस्तस्येति समासः । तुम्हस्येत्यनुवर्तते। तुम्हस्स इत्यवस्थायां स्ससहितस्य तुम्हस्यानेन सूत्रेण ते इत्यादेशे ते, एवं तव तुज्झमित्यादिकमपि बोध्यम् । चतुर्थ्येकवचनेऽ येताशमेव "एतःस्सो नाम्नः" इत्यत्र बहलमित्यनवर्तनान्नित्यमेवात्र प्रवत्तौ तमाए इत्यादेरसम्भवात् ।। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ताः स्त्रीलिङ्गाः अणस्य मः।४।३।११॥ तुम्हशब्दसम्बन्धिनोऽणप्रत्ययस्य मादेशो या स्यात् । तुम्भं, तुझ, तुम्हं, तुम्हाणं । तुमंसि, तुमंमि । तुम्भेसु, तुज्झेसु, तुम्हेसु । अणस्येनि-अणस्येति षष्ठ-यन्तम् । मः प्रथमान्तम् । अकार उच्चारणार्थः तुम्ह + अण इत्यत्र "बहुवचनेषु तुम्भतुज्मो वा" इत्यनेन तुम्भादेशेऽनेन सूत्रेण मकारेऽनुस्वारे तुम्भ, तुझादेशे तुझ, तदभावे तुम्हें । मादेशाभावे तुम्हाणं । तुझाणं, तुम्भाणं, इत्यपि बोध्यं सूत्रप्राप्तेः समानत्वात् । एवं चतुर्थीवहुवचनेप्येताहशमेव रूपं बोध्यम् । तुम्ह + मि इत्यत्र मिमोस्तुम्हस्य हस्येति सूत्रेण हलोपे मौ व्यञ्जनादौ नाम्न इति सूत्रेण ममागमेऽनुस्वारे 'सि' रित्यनेन सूत्रेण स्यादेशे तुमंसि, स्यादेशाभावे तुमंमि । मकारस्य लोपस्तु बाहुलकान्न । तेन 'तुमे' इति न भवति । तुम्ह + इसु इत्यत्र तुम्भादेशे वृद्धौ तुम्भेसु एवं तुन्भेसु पक्षे तुम्हेसु । ॥ इति स्वरान्ताः पुल्लिङ्गाः ॥ अथ स्वरान्ताः स्त्रीलिङ्गाः॥ -~- Tra नत्राकारान्तो मालाशब्दः । माला॥ नत्रेनि-तत्र तेषु स्वरान्तस्त्रीलिङ्गेषु मालाशब्दः कथ्यते । माला + उ इत्यत्र : आदिदुद्भधः-" इति सूत्रेण पूर्वसवर्णदीर्घ भाला। अदितोरोगादिदुझ्यः स्त्रियां वा । ४ । ३ । ७० ॥ आदिदुद्भ्यः परयोः प्रथमाद्वितीयाबहुवचनयोरोगागमो वा स्यात् स्त्रियाम् । मालाओ, माला । आदिनोगिनि-अच्च इच्चेति द्वन्द्वः । माला + अ इत्यत्रानेनौगागमे कित्त्वादन्त्यावयवे माला + अ ओ इति जाते पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे मालाओ, ओगागमाभावे पूर्वसवर्णदीचे माला ॥ आदीदूतां हखो बहुलंमि । ३।३।१॥ श्राकारेकारोकाराणां मपरे हस्वो बहुलं स्यात् । मालं । मालाश्रो, माला । श्रादीनामिनि-आच्च ईच्च ऊच्चेति द्वन्द्वः । माला+म् इति स्थितेऽनेनाकारस्य हस्वत्वेऽनुस्वारे च मालं । माला+ इ इत्यत्र 'आदितोरोदादिदुद्धः खियां वेति सूत्रेण 'ओक्' इत्यागमे माला + इमो इति जाते पूर्वसवर्णदीर्थे प्रकृतिभावे मालाओ, पक्षे पूर्वसवर्णदीचे माला ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुदी इणस्समीनामएः । ४ । ३ । ७१ ॥ आदिदुद्भयः परेषामेषां विभक्तीनामए इत्यादेशः स्यात् स्त्रियाम् । मालाए । मालाहिं, मालाहि । मालाए । मालाणं । मालाओ मालाहिन्तो। मालाए । मालाणं । मालाए । मालासु इणस्समीति-आदिदुद्भयः स्त्रियामिति पदद्वयमनुवर्तते । अनेकवर्णत्वात्सर्वादेशः । माला + इण इत्य त्रानेन 'अए' इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीधै प्रकृतिभावे मालाए । माला । इहि इत्यत्रेणाणेहीसीसूनामिति सूत्रेण बैकल्पिके ममागमेऽनुस्वारे पूर्वसवर्णदीर्घ मालाहिं, ममागमाभावे मालाहि । माला+अए इत्यत्र पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे मालाए । माला+अण इत्यत्र ममागमेऽनुस्वारे पूर्वसवर्णदीधैं मालाणं ॥ माला+अतोदित्यत्र पूर्वसवर्णदीघे तकारस्थ यकारे लोपे प्रकृतिभावे च मालाओ । माला इहितो इत्यत्र पूर्वसवर्णदीचे मालाहितो। माला+स्स इत्यत्रानेन सूत्रेण स्सस्याए इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीर्घ प्रकृतिभावे मालाए । अत्र माला स्स इति दशायां 'संयुक्त' इति सूत्रेण हस्वस्तु न भवति, 'निमित्तं विनाशोन्मुखं दृष्ट्वा तत्प्रयुक्त कार्य न कुर्वन्ति' इति परिभाषया स्सकारस्य विनाशभावित्वेन तन्निमित्तकहस्वाप्रवृत्तेः । मालाणं पूर्ववत् ॥ माला मि इत्यत्रानेन सूत्रेण मेः 'अए' इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे मालाए । माला + इसु इत्यत्र पूर्वसवर्णदीघे मालासु ॥ __ आतो डे: । ४ । ३ । १० ॥ श्राकारान्तानाम्नः परस्यामन्त्रणैकवचनम्य डे इत्यादेशो वा स्यात् । भो माले ! माला । आन इति-धा, उतः, मामन्त्रणे, नाम्न इत्येतेषामनुकृत्तिः । माला+3 इत्यत्रानेनोकारस्य 'डे' इत्यावेशे डिवादाकारस्य लोपे भो माले !, पक्षे पूर्वसवर्णदीर्घ माला ! । बहुवचने प्रथमाबहुवचनवत् ।। अम्माया डोश्च । ४।३।११॥ अम्मा शब्दात्परस्यामन्त्रणैकवचनस्य डो इत्यादेशो वा स्यात् । भो अम्मो ! भो अम्मे ! भो अम्मा !।. अभ्मेति-आमन्त्रणे उतः वा इति पदत्रयमनुवर्तते । अम्मा+उ इत्यत्रानेनोकारस्य डो इत्यादेशे डित्त्वाहिलोपे भो अम्मो !, डे इत्यादेशे भो अम्मे ! आदेशाभावपक्षेतु पूर्वसवर्णदीर्घे भो अम्मा !! शेषं मालावत् ॥ मिमातोऽणस्य । ४ । ३ । ६० ।। आकारान्तसव्वणामशब्दात् परस्याणस्य सिमादेशः स्यात् । सव्वासि ॥ षष्ठी बहुवचनेऽ ___प्येवमेव ॥ शेष मालावत् ॥ सिमान इति-विशेषणन्तदन्तस्येत्यनेनाकारान्तादिति लाभः । सव्वणामात् इति पदमनुवर्तते । भनेकवर्णत्वात्सर्यादेशः । सव्वा+भण इत्यत्रानेन सूत्रेण सिमादेशेऽनुस्वारे सव्वासि ॥ शेषमिति सव्वा । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ स्वरान्ता स्त्रीलिङ्गा सव्वाओ, सव्वा ॥१॥ सम्वं । सव्वाश्रो, सव्वा ॥ २ ॥ सव्वाए । सव्वाईि, सव्वाहि ॥ ३॥ सव्वाए । चतुर्थी एक व० ।। सव्वाो । सव्वाहितो ।। ५ ।। सव्वाए । सव्वासि ॥ ६॥ सव्वाए । सव्वासु ॥७। हे सव्वे ! हे सव्वा !! हे सव्वाओ ! हे सव्वा ।। आमन्त्रणम् ॥ इणे जातयोरिः ४।३।६६॥ जाताशब्दयोरिकारादेशो वा स्यादिणे परे । जाए, जाए | जाहि, जाहि ॥ इण इति-अन्त्यस्य पठथेति परिभापया जाताशब्दयोरन्त्यस्येकारादेशः । वेत्यनुवर्तते । जा। जाओ, जा ॥ जं । जाओ, जा ॥ जा + इण इत्यत्रानेन सूत्रेण जाशब्दस्येकारादेशे 'इणस्समीनामएः' इति सूत्रेणेणस्याए' इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे जीए, इकारादेशाभावे पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे जाए । जा + इहि ममागमेऽनुस्वारे पूर्वसवर्णदीचे जाहिं, ममागमाभावपक्ष जाहि ।। अएस्समीनां जाकातेमाभ्यो डीसे । ४।३।६८। जा का ता इमाशब्दभ्यः परेषां चतुर्थीषष्ठसिप्तम्येकवचनानां 'डीसे' इत्यादेशो वा स्यात् । जाँसे, जाए ३॥ शेषं सव्वाशब्दवत् । एवं काताशब्दौ । अएस्सेति चेत्यनुवर्तते । अएश्च स्सश्च मिश्च अएस्समयस्तेषामिति विग्रहः । जो च काच ता धेमा च जाकातेमास्तेभ्य इति समासः । जा+ अए इत्यत्रानेन विभक्तेः 'डीसे"इत्यादेशे डित्वाहिलोपे जीसे, पते पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे जाए । जासिं ॥ जाओ । जाहिंतो॥ जा + स्स इत्यत्राप्यनेन डीसे इत्यादेशे आकारलोपे जीसे, पक्षे जाए । जासि ॥ जीसे, जाए। जासु ॥ हे जे ! हे जा!। हे जाओ !, हे जा !॥ एवं काशब्दे ताशब्दे चाप्यूह्यम् ॥ स्त्रियामियम् । ४ । ३ । १५ ॥ इमशब्दस्योप्रत्ययसहितस्येयमित्यादेशो वा स्यात् स्त्रियाम् । इयं, इमा। स्त्रियामिति-इमस्य सोतः वेति पदत्रयस्यानुवृत्तिः । इमा + उ इत्यत्रानेन सूत्रेण प्रकृतिप्रत्यययोरुभयो स्माने इयमित्यादेशेऽनुस्वारे इयं, पक्षे पूर्वसवर्णदीर्थे । डेरिमात्स्त्रियाम् । ४ । ३।३८॥ इमशब्दात्परयोरदितार्डे इत्यादेशो वा स्यात् स्त्रियाम् । इमे, इमाओ, इमा । इमं । इमे, इमाओ, इमा । इमाए । इमाहि, इमाहि ॥ इमीसे, इमाए । इमार्सि ॥ इमाओ । इमाहिन्तो ।। डेरिति-अदितोवेति पदद्वयमनुवर्तते । इमा + अ इत्यत्रानेनाकारस्य डे इत्यादेशे डित्त्वादाकारलोपेइमे, एतदभावे श्रोगागमे पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे इमाओ, तदभावे पूर्वसवर्णदीचे इमा ॥ इमं । इमे, इमाओ. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जैनसिद्धान्तकौमुदी इमा ॥२॥ इमाए । इमाहिं, इमाहिः ॥ ३ ।। इसीसे, इमाए । इमासि ॥ ४॥ इमाओ । इमाहितो ॥ ५ ॥ एतेषां साधुत्वं पूर्ववद्बोध्यम् ॥ सस्य डीएः स्त्रियालिमात् । ४ । ३ । ६३॥ . . . . . . :: इमाशब्दात्परस्य स्सप्रत्ययस्य 'डीए' इत्यादेशो वा स्यात् स्त्रियाम् ॥ इमाए, इमीसे, इमाए। ___ इमासि ॥ इमासे, इसाए। __स्तस्योति-वेति पदमनुवर्तते । इमा + स्ल इत्यत्रानेन स्सस्य 'डीए' इत्यादेशे डित्त्वादाकारस्य लोपे प्रकृतिभावे इमीए, पक्षे 'अएस्समीनां', इत्यादिना विभक्ते 'डर्डीसे' इत्यादेशे डित्त्वादाकारलोपे इमीसे, तदभावे 'इणस्समानामए' रित्यनेन स्सस्याए इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीचे व्यस्तोचारणसामर्थ्यात् प्रकृतिभावे इमाए । इमासि ॥ पूर्ववत् ॥ इमा + मि इत्यत्र परत्वाद् "अएस्समीना" इत्यनेन 'डोसे' इत्यादेशे डित्त्वादाकारलोपे इमीसे पक्षे मेः 'अए' इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीर्धे प्रकृतिभावे इमाए । मेडींसाए: कचिद् । ४ । ३ । ६४.॥. . . . . . . इम शब्दात्परस्य मिप्रत्ययस्य डीमाएरित्यादेशो वा स्यात् स्त्रियां क्वचित् । इमीसाए । इमासु ॥ __. • एसा । एयाओ, एया । शेषं सव्वावत् ।। मेरिति-इमात्स्त्रियां वेत्यनुवर्तते । 'इमीसाएं इत्यपि प्रयोगः कचिद् दृश्यते, अतएवोक्तं क्वचिदिति इमा + मि इत्यन्नानेन मेः 'डीसाए' इत्यादेशे डिवादाकारलोपे इमीसाए । इमा + इसु इत्यत्र पूर्वसवर्णदीचे इमासु ॥ एता + उ इत्यत्र 'उत्येततयोरक्लीवे सः' इत्यनेन सूत्रेण तस्य सत्वे पूर्वसवर्णदोघे एसा । एसो + अ इत्यत्र तकारस्य यकारे "अदितोरोगादिदुद्भयः स्त्रियांवा" इत्यनेनौगागमे एया+अओ इति जाते पूर्वसवर्णदीर्धे प्रकृतिभावे एयाओ, ओगागमाभावे एया ॥ शेषं सव्वाशब्दवद्वोध्यम् ।। इकारान्तः स्त्रीलिङ्गो दिटिशब्दः॥ दिही । दिट्ठीओ, दिही । दिहिं । दिहीओ, दिट्ठी ॥ दिट्ठीए । दिट्ठीहि, दिट्ठीहि ॥ दिट्ठीए. दिट्ठीणं ॥ दिट्ठीओ । दिट्ठीहितो ॥ दिट्टाए । दिट्ठीणं ॥ दिट्ठीए । दिहीसु. ॥ भो :.. . दिही !। भो दिट्ठीओ ! भो दिही !॥ . दिष्ट्रीति-दिद्धि + उ इत्यत्र 'आदिवर्णोवणेभ्य' इति सूत्रेण पूर्वसवर्णदीर्धे दिछी । दिद्वि + अ इत्यत्र 'अदितोरोगादिदुद्भयः स्त्रियां वा' इति सूत्रेण विकल्पेनौगागमे दिष्टिः+ अ ओ इति जाते.पूर्वसवर्णदीधै प्रकृतिभावे दिट्ठीओ, पक्षे पूर्व सवर्णदीचे दिछी । दिद्धि + म् इत्यत्रानुस्वारे दिलुि । दिद्धि+ इ इत्यत्रागांगमें पूर्व संवर्णदीर्घ प्रकृतिभावे दिट्ठोओ, ओगागमाभावे पूर्वसवर्णदीचे दिट्ठी ॥ विढिइण इत्यत्रेणस्समीनामएरिति सूत्रेण विभक्त 'रए' इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे दिट्ठीए । दिवि + इहि 'इत्यत्रेणाणेहीसीसूनामिति ममांगमे Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्ता स्त्रीलिङ्ग अनुस्वारे पूर्वसवर्णदीर्धे दिट्ठीहिं, ममागमाभावे दिट्ठीहि ॥ दिठ्ठि + अए अत्र पूर्वसवर्णदीर्घ प्रकृतिभावे दिठ्ठीए । दिट्ठि+ अण इत्यत्र ममागमे पूर्वसवर्णदीर्धेऽनुस्वारे दिट्ठीणं । दिद्वि + अतोदित्यत्र पूर्वसवर्णदीचे तकारस्ट यकारे लोपे प्रकृतिभावे दिट्ठीओ । दिठ्ठि + इहिंतो इत्यत्र पूर्वसवर्णदीचे दिट्ठीहितो । दिठ्ठि + स्स इत्यत्र स्स्स्य 'अए' इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे दिट्ठीए । दिट्ठीणं । पूर्ववत् ।। दिट्ठि + मि इत्यत्र विभक्ते 'रए' इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे दिट्ठीए । दिट्ठि + इसु इत्यत्र पूर्वसवर्णदीचे दिट्ठीसु । दिद्वि + उ इत्यत्र पूर्वसवर्णदीघे भो दिट्ठी ! । दिट्ठी + अ इत्यत्रौगागमे पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे भोदिट्ठीओ ! ओगागाभावे भो दिट्ठी ॥ ईकारान्तः स्त्रीलिङ्गः समशब्दः ॥ - समणी । समणीओ, 'समर्णा ॥ समणिं । समणीओ, समर्णा ।। समणीए । समणीहि, समणीहि ॥ समणीए । समीणं ।। समणीओ । समणीहिन्तो ।। समाए॥ समणीणं ॥ सम ए । समणीसु ॥ . समणीति-समणी + उ इत्यन्न 'आदिवर्णोवर्णेभ्य' इति पूर्वसवर्णदीर्घ समणी । समणी + अ इत्यत्र अदितोरोगा-इत्यादिनौगागमे पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे समणीओ, ओगागमाभाव पूर्वसवर्णदीचे समणी ।। समणी + म् इत्यत्रादीदूतां वहुलं मि' इति सूत्रेणेकारस्य ह्रस्वत्वेऽनुस्वारे समणि । समणी + इ इत्यत्रौग़ागमे समणी + इओ इति सजाते पूर्वसवर्णदीर्घ प्रकृतिभावे समणीओ, पक्षे पूर्वसवर्णदीर्घ समणी ॥ समणी + इणेत्यत्रेणस्याए इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीधै प्रकृतिभावे समाए । समणी + इहि इत्यत्र ममागमेऽनुस्वारे पूर्वसवर्ण दोघे समीहि, ममागमाभावे समणीहि ॥ समणी + अए अत्र पूर्वसवर्णदीर्धे प्रकृतिभावे समणीए.! समणी +श्रण इत्यत्र ममागमे पूर्वसवर्णदीपेऽनुस्वारे समणोणं ।। समणी + अतोदित्यत्र तकारस्य यकारे लोपे पूर्वसवर्णदीर्धे प्रकृतिभावे च समणीओ । समणी + इहितो अत्र पूर्वसवर्णदीर्घ समणीहितो ।। समणी + रस इत्यत्र स्सस्याए इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीर्घ प्रकृतिभावे समणीए । समणीणं । पूर्ववत् ।। समणी + मि इत्यत्र मेः 'अए' इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे समणीए । समणी + इसु इत्यत्र पूर्वसवर्णदीर्घ समणीसु ॥ .. इदूद्भ यां डिडू । ४ । ३ । १२ ॥ ईदूदन्ताभ्यां परस्यामन्त्रणैकवचनस्य डिडू इत्यादेशौ क्रमेण वा स्तः हे सगणि !, हे समणी !! ... हे समणीओ !, हे समणी ! ।। . ईदूयामिति-आमन्त्रणे, उतः, वाइति पदत्रयमनुवर्तते । डिश्च दुश्च डिडू इति द्वन्द्वः । यथासंख्या. नादीकारात्परस्य विभक्तर्डिः, ऊकारात्परस्य विभक्ते भवतीत्याह क्रमेणेति । समणी + उ इत्यत्रानेनोकारस्य . Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ 'जैनसिद्धान्तकौमुदी 'डि' इत्यादेशे डिवादीकारलोपे हे समणि ! पक्षे पूर्वसवर्णदीर्घ हे समणी ! । हे समणीओ !, हे समणी ! ॥ प्रथमाबहुवचनवत् ॥ उकारान्तः स्त्रीलिङ्गो धेणुशब्दः । घेणू । घेणो , घेणू ॥धेणुं । घेणूओ, घेणू ॥ धेरणए । घेणहि, घेणूहि ।। धेणूए । धेणूण ॥ घेणूओ । घेणाहन्तो ॥ घेणूए । घेणूणं ॥ घेणूए, घेणूसु ॥ भो धेणु !, घेणू ! । भो घेणूओ ! भो धेणू !॥ धेविति-धेणु + उ इत्यत्र "आदिवर्णोवणेभ्य" इति सूत्रेण पूर्वसवर्णदीघे घेणू । धेणु + अइत्यत्रादितोरोगादिदुद्भयः स्त्रियां वा इति सूत्रेणौगागमे घेणु + अ श्रो. इतिस्थिते पूर्वसवर्णदीर्धे प्रकृतिभावे घेणूओ ! पक्षे पूर्वसवर्णदीचे घेणू ॥ धेणु+म् इतिस्थिते ऽनुस्वारे धेणुं । घेणु + इ इत्यत्रौगागमे पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे घेणूओ पक्षे पूर्वसवर्णदीर्धे घेणू ॥ घेणु + इण इत्यत्रेणस्समीनामएरितिसूत्रेण विभक्तरए इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे घेणूए । घेणु + इहि इत्यत्र ममागमे ऽनुस्वारे पूर्वसवर्णदीर्घे घेणूहि, ममागमाभावे घेणूहि ॥ घेणु + अए इत्यत्र पूर्वसवर्णदीधै प्रकृतिभावे घेणूए । धेणु + अण इत्यत्र ममागमे पूर्वसवर्णदी ऽनुखारे घेणूणं ॥ धेणु + अतोदित्यत्र पूर्वसवर्णदीर्धे तकारस्य यकारे लोपे प्रकृतिभावे घेणूओ । घेणु + इहितो इत्यत्र पूर्वसवर्णदीघे घेणूहितो ॥ घेणु + स्स इत्यत्र स्सस्याए इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीधैं प्रकृतिभावे च घेणूए । घेणूणं ॥ पूर्ववत् ॥ धेणु + मि इत्यत्र मेः 'अए' इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीधै प्रकृतिभावे घेणूए । धेणु + इसु इत्यत्र पूर्वसवर्णदीचे घेणूसु ॥ घेणु + उ इत्यत्रेद्भयां डिडू' इति सूत्रेण विभक्त 'ई' इत्यादेशे डित्त्वादुकारलो हे घेणु ! पक्षे पूर्वसवर्णदी घेणू ! । धेणु + अ इत्यत्रौगागमे पूर्वसवर्णदीर्थे प्रकृतिभावे हे घेणुओ ! पक्षे पूर्वसवर्णदीचे हे घेणू !॥ ऊकारान्तः स्त्रीलिङ्गो वहूशब्दः॥ वहू । वहूओ, बहू । बहुं। वहूओ, वह ॥ वहुए। वहूहिं , बहूहि ॥ वहुए। वहूणं ॥ वहूओ । वहूहितो ।। वहूए । वहूणं ।। वहूए वहसु ॥ भो बहु ! भो वह ! भो वहूओ ! भो वह ! ॥ वहिति-बहू + उ इत्यत्र पूर्वसंवर्णदीधै वहू । बहू + अ इत्यत्रादितोरोगा-' इत्यादिनौगागमे वहू + अ ओ इति जाते पूर्वसवर्णदीर्धे प्रकृतिभावे वहूओ, पक्षे पूर्वसवर्णदीर्घ बहू । बहू + म् इत्यत्र "आदि. दूतां बहुलं मि" इति सूत्रेण हस्खेऽनुस्वारे वहुं । वहू + इ अनौगागमे पूर्वसवर्णदीधै प्रकृतिभावे वहूरो, ओगागमाभावपक्षे पूर्वसवर्णदीर्धे वहू ॥ वहू + इण अत्रेणस्याए इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीर्घ प्रकृतिभावे वहूए । वहू + इहि इत्यत्र ममागमेऽनुस्वारे पूर्वसवर्णदीधैं वहूहिं, ममागमाभावे वहूहि ॥ वह + अए इत्यत्र पूर्वसवर्णधीचे प्रकृतिभावे वहूए । वहु + अण इत्यत्र ममागमे पूर्वसवर्णदीर्धेऽनुस्खारे वहूणं ॥ वहू +अतोदित्यत्र Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरान्त नपुंसक लिङ्गाः तकारस्य यकारे लोपे पूर्वसवर्णदीपें प्रकृतिभावे वहूओ। वहू + इहिती इत्यत्र पूर्वसवर्णदीर्घ वहूहिंतो ।। बहू + स्स इत्यत्र स्सस्य 'अए' इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीर्घ प्रकृतिभावे वहूए । वहणं । पूर्ववत् ॥ वहू + मि इत्यत्र विभक्ते 'रए' इत्यादेशे पूर्वसवर्णदीचे प्रकृतिभावे वहूए । वह + इसु इत्यत्र पूर्वसवर्णदीधै वहूसु ॥ वहू + उ 'इत्यत्रेदूद्भयां डिडू' इत्यनेनोकारस्य 'डु' इत्यादेशे डित्त्वादूकारलोपे भोवहु !, पक्षे पूर्वसवर्णदीचे भो वहू !। भो बहूओ!, ॥ भो वहू ! प्रथमाबहुवचनवत् ॥ ॥ इति ॥ अथ स्वरान्तनपुंसकलिङ्गाः -2000 --- क्लीवान्मो वा । ४।३।३॥ नपुंसकात्परस्य प्रथमाया एकवचनस्य मादेशो वा स्यात् ॥ वणं । दाह । महं॥ क्लीबादिति-उत इत्यनुवर्तते । अकार उच्चारणार्थः । क्लीवो नपुंसकस्तदाह नपुंसकादिति । वण+उ इत्यत्रानेनोकारस्य मकारेऽनुस्खारे वणं । दहि + उ इत्यत्रानेन मकारेऽनुस्वारे च दहिं । महु + उ इत्यत्रानेन मकारेऽनुस्वारे महुँ । पक्षे पुंवत् ।। णिती।४।३।४४॥ क्लीवात्परयोः प्रथमाद्वितीयावहुवचनयोः प्रत्येकं णि ति इत्येतावादेशौ पर्यायेण स्तः॥ णितीति-श्लीवात् अदितोः प्रत्येकमिति पदत्रयमनुवर्तते । णिश्च तिश्चेति द्वन्द्वः । वण+इत्यत्रानेन सूत्रेणाकारस्य 'णि' इत्यादेशे-वण+णि इति जाते ___णित्यो नः । ३ । २ । ३७ ॥ नाम्नः स्वरस्य दीर्घः स्यापिणत्योः परयोः । वणाणि । दहीणि । महूणि ॥ णित्योरिति-दीर्घ इत्यस्यानुवृत्तिः। णिश्च तिश्च णिती तयोणित्योः। वण + णि इत्यत्रानेन सूत्रेण णकारोत्तरवर्तिनोऽकारस्य दी वणाणि । दहि + अ इत्यत्र 'णिती' इति सूत्रेणाकारस्य ण्यादेशेऽनेनेकारस्य दी वहीणि। एवं महु + अ इत्यत्र णितीत्यनेनाकारस्य ण्यादेशेऽनेन सूत्रेणोकारस्य दीघे महूणि । एवं सर्वत्र • बोम्यम् ।। तेर्वा । ४।२।१६॥ . आदेशभूतस्य तिशब्दस्य ममागमो वा स्यात् । वणाई, वणाइ । दहीई, दहीइ । महुई, . महूइ । एवं द्वितीयायामपि ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुदी तेरिति-ममित्यनुवर्तते । तिशब्दश्चादित्स्थानिक एवान्यस्यासम्भवात् । वण + अ इत्यत्र णितीत्यनेन विभक्तेः 'ति' इत्यादेशेऽकारस्य 'णित्यो' रिति दीचे वणा+ति इति जातेऽनेन वैकल्पिके ममागमेऽनुस्वारे तकारस्य यकारे लोपे प्रकृतिभावे वणाई, ममागमाभावे वणाइ । एवं दहाई, दहीइ । महूई, महूइ । एवं द्वितीयायामपि । तद्यथा वणं | वणाणि; वणाई, वणाइ । दहिं । दहीणि, दही, दहीइ ॥ महुं । महूणि, महूई. महूइ ॥ क्लीवे नित्यम् । ३ । ४ । ६६ ।। नाम्नः परस्यामन्त्रणार्थकप्रथमैकवचनस्य नित्यं लोपः स्यात् ।। हे वण! | हे वणाणि !, वणाई, वणाइ ॥ हे दहि ! । हे दहीण !, हे दहीई !, हे दहीइ ॥ हे महु ! । हे महाण ! हे महूई 1, हे महूइ ! ॥ शेषं पुंवत् ॥ सबं । सवाणि, सवाई, सब्बाइ । जं । जाणि, जाई, जाइ ।। तं । ताणि, ताई, ताइ ।। कं । काणि, काई, काइ ॥ इमं । इमाणि, इमाई, इमाइ । एयं । एयाणि, इयाई, एयाइ ॥ शेषं पुंवत् ।। क्लीव इति-आमन्त्रणे उतः लोप इति पदत्रयमनुवर्तते । वण + उ इत्यनानेनोकारस्य लोपे हे वण ! वणाणीत्यादि तु पूर्ववत् । एवं हे दहीत्यादि बोध्यम् । शेष पुंवदिति, तत्र वणशब्दस्य रूपाणि जिण शब्दवत् । दहिशब्दस्य रूपाणि मुणिशब्दवत् । एवं सव्वादे रूपाणि यथाययं योध्यानि ।। इति नपुंसकलिङ्गाः॥ संख्यावाचकास्त्रिलिङ्गाः ।। वेडोरणी प्रत्येकम् । ४ । ३ । ४३ ।। दुशब्दात्परयोरदित्यत्यययोः प्रत्येकं वे डोषिण इत्येतावादेशौ वा स्तः ॥ दुवे, दोषिण ॥ वेडोरणीति-अदितोरिति दोरिति चानुवर्तते । वेश्च डोरिणश्च वेडोरणी । दु+ अ इत्यत्रानेनाकारस्य 'वे' इत्यादेशे दुवे, 'डोएिण' इत्यादेशे तु दोरिण ।। एवं द्वितीयावहुवचनेऽपिबोध्यम् ॥ 'अतोऽयोडवोडौ पुंसि' इत्यादि सूत्राणां त्वत्र न प्रवृत्तिः, विशेषविहितेनानेन बाधात् । न च दुशब्दस्य द्वित्ववाचकत्वेन बहुवचनान्तत्वमयुक्तमिति वाच्यम्, एकातिरिक्तस्यैव बहुत्वेन बहुवचनान्तत्वाचतेः एवमग्रेऽपि ।। डोदाः।४।३।४१॥ दुशब्दात्परयोरदितात्यययो ' ' इत्यादेशः स्यानित्यम् । दो॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्यावाचकास्त्रिलिङ्गा डोरिनि-अदितोः नित्यमिति च द्वयमप्यनुवर्तते । नित्यमित्यनुवर्तनाद्वहुलमित्यस्यासम्बन्धः । दु+भ इत्यत्र पूर्वसूत्रस्य वैकल्पिकत्वेनाप्रवृत्तावनेन 'डो' इत्यादेशे डित्त्वाटुकारलोपे दो । एवं द्वितीयाबहुवचनेऽपि ।। अोदियणहितविसुषु दोः ॥ ४ । ३ । २२ ॥ दुशब्दस्यौकारादेशो नित्यं स्यादिहि अण इहितो इसु प्रत्ययेषु ॥ श्रोदिति-नित्यमित्यनुवर्तते । इहिश्च अणश्च इहिंतोश्च इसुश्च इह्मणेहिंतविसवस्तेष्विति विग्रहः । __इहीहिंतविसूनां द्वादिभ्यः स्वरस्य । ४ । १।१५ ॥ दुप्रभृतिभ्यः संख्यावाचकेभ्यः परेपामेपामादिस्वरस्य लोपः स्यात् । दोहिं, दोहि ॥ इहीहिंतेति-प्रादेः लोप इति पदद्वयस्यानुवृत्तिः । इहिश्च इहितोश्च इसुश्च इहीहिंतर्विसवस्तेषामित्यर्थः । दु प्रभृतीनां संज्ञाभूतत्वे एतदप्रवृत्त्यर्थमुक्वं संख्यावाचकेभ्य इति । एवमन्यत्रापि बोध्यम् । दु+ इहि इत्यत्र 'भोदिसणेहितविसुपु दोः' इति सूत्रेण दुशब्दसम्बन्धिन उकारस्यौकारेऽनेन विभक्तरादिस्वरस्येकारस्य लोपे 'इणाणेहीसीसूनामिति' सूत्रेण ममागमेऽनुस्वारे दोहिं, ममागमाभावे दोहि ॥ संख्याया अणस्य रहः । ४ । ४ । ५॥ संख्यार्थकशब्दात्परस्याणप्रत्ययस्य रह इत्यादेशः स्यात् । दोएहं ।। दोहितो ।। दोएहं ॥ दोसु ।। संख्याया इति-दु+अण इत्यत्र दोरुकारस्यौकारेऽनेनाणत्य बहादेशे "तस्थानापन्नस्तद्धर्म लभते" इति न्यायाद् बहादेशस्याणत्वेन ममागमेऽनुस्वारे ॥ दु + इहिंतो इत्यत्रोकारस्यौकारे विभक्तरादिस्वरस्येकारस्य लोपे दोहितो । दोण्हं ।। पूर्ववत् दु+ इसु इत्यत्रोकारस्यौकारे विभक्तरादिस्वरस्य लोपे दोसु ॥ तेरिणा । ४ । ३ । ४२ ॥ तिशब्दात्परयोरदिन्प्रत्यययोर्षिण इत्यादेशो वा स्यात् ॥ तिषिण । तेरिति-अदितोरित्यस्यानुवृत्तिः । ति + अ इत्यत्रानेनाकारस्स 'रिण' इत्यादेशे तिरिण । एवं द्वितीयायामपि ॥ डयोः ।४।३।४०॥ तिशब्दात्परयोरदितो 'ईयो' इत्यादेशः स्यात् । तो ॥ तो ॥ तिहिं, तिहि ॥ तिराई ॥ तिहिंतो ।। तिण्हं ।। तिसु ॥ डयोरिति-तेः अदितोरितिद्वयोरनुवृत्तिः । ति + अ इत्यत्र 'रिण' इत्यादेशाभावेऽनेनाकारस्य 'डयो' इत्यादेशे डित्त्वाचेरिकारस्य लोपे यकारलोपे प्रकृतिभावे तो॥ एवं द्वितीयायामपि ॥ ति + इहि इत्यत्र इणाणेहीसोसूनामिति सूत्रेण विकल्पेन ममागमेऽनुस्वारे तिहि' ममागमाभावे तिहि ॥ ति + अण इत्यत्र, Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुदी 'संख्याया अणस्य ग्रहः' इत्यनेनाणस्य बहादेसे “तत्स्थानापन्नस्तद्धर्म लभते” इति न्यायेन बहादेशस्याणत्वेन . ममागमेऽनुस्वारे तिण्हं ॥ ति + इहिंतो इत्यत्र विभक्तराधस्वरस्य लोपे तिहिंतो। तिण्हं ॥ पूर्ववत् ।। ति + इमु इस्यन्न विभक्त राद्यस्वरस्येकोरस्य लोपे तिसु ॥ : रोरदितोर्वा । ४ । ३ । ३६ ॥ * चतुशब्दात्परयोरदितो 'रो' इत्यादेशो वा स्यात् ॥ चउरों ॥ चउरो॥ रोरिति-घतोरित्यनुवर्तते । रोः अदितोः वा इतिच्छेदः । चतु + अ इत्यत्रानेनाकारस्य 'से' इत्यादेशे तकारस्य यत्वे लोपे प्रकृतिभावे चउरो॥ एवं द्वितीयाविभक्तावपि चतु+ई इत्यत्रेकारस्य 'रो' इत्यादेशे तकारस्य : यकारे लोपे प्रकृतिभावे च चउरो॥ .: . . . . सादितश्चत्तारि चतोर्नित्यम् । ४।३ । ४५॥ . . .. ... .. ' अदिअत्ययसहितस्य चउशब्दस्य 'चत्तार' इत्यादेशो नित्यं स्यात् ।। चत्तारि ।। चत्तारि ।। चउहि, चउहि ॥ चउण्हं ॥ चउहिन्तो ॥ चउण्हं चउसु ॥ . सादित इति-अच्च इच्च अदिती अदिभ्यां सहितः सादित् तस्येति विग्रहः । चउ+अ इत्यत्र 'रो' इत्यादेशाभावपक्षेऽनेन प्रकृतिप्रत्यययोरुभयोः स्थाने 'चत्तारि' इत्यादेशे चत्तारि ॥ एवं द्वितीयायामपि ।। च+इहि इत्यत्र ममागमेऽनुस्वारे विभक्त रादेः ग्वरस्य लोपे चाहिं । ममागमाभावे चउहि ।। चर + अण इत्यत्र बहादेशे ममागमेऽनुरवारे चचएहं ॥ चत+ इहिंतो इत्यत्र विभक्तरादेः स्वरस्य लोपे चनहितो । पयह ॥ पूर्ववत् ॥ घउ + इसु इत्यत्र विभक्त रादेःस्वरस्य लोपे चउम् ॥ अदितोः पञ्चादिभ्यः । ३।४ । ४३ ॥ संख्यावाचकेभ्यः पञ्चादिभ्यः परयोरदितोर्लोपः स्यात् ॥ पञ्च ॥ पञ्च ॥ पचहि, पंचहि ॥ . पचण्हं ॥ पंचहिन्तो ॥ पंचण्हं ।। पंचसु ॥ एवं छ शब्दादारभ्याहारसपर्यन्तं बोध्यम् ॥ . अदितोरिति-लोप इत्यनुवर्तते । पञ्च+अ इत्यत्रानेन विभक्तोपे पञ्च ॥ एवं द्वितीयायामपि । पर+इहि इत्यत्र ममागमेऽनुस्वारे विभक्तरादिस्वरस्य लोपे. पञ्चहि, ममागमाभावे पञ्चहि ।। पञ्च+ पण .. इत्यत्र एहादेशे ममागमेऽनुस्वारे पंचण्हं ॥ पञ्च + इहिंतो इत्यत्र विभक्तरादेः स्वरस्य लोपे पञ्चहिन्तो ।। पञ्चहं ॥ पूर्ववत् ।। पंच + इसु इत्यत्र विभक्ते रादिस्वरस्य लोपे पंचसु ॥ एवं । वीसादौ विशेषकार्यस्य । वक्ष्यमाणत्वेनाद्वारसपर्यन्तमित्युक्तम् ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथाव्ययप्रकरणम् संख्या तेः । ३ । ४ । ४४ ॥ संख्याथ कतिप्रत्ययान्तात्परयोरदितार्लोपः स्यात् ॥ कति । जति । तति । वीसाद्याः शब्दाः संख्यासंख्येयोभयवाचकाः, तत्र संख्येयवाचकत्वे नित्यमेकवचनान्ताः संख्यावाचकत्वे तूभय. ५७ वचनान्ताः ॥ संख्येति — अदितोलोंप इत्यनुवर्तते । संख्यायां वर्तमानादित्यर्थः । प्रत्ययाप्रत्यययोरिति परिभाषया ति प्रत्ययान्तादिति लाभः । कति + अ इत्यन्त्रानेन विभक्तेलोंपे कति शेषं तिशब्दवत् ॥ एवं द्वितीयायामपि वोध्यम् । एवं जतिततिशब्दावपि । वोसादिशब्दानां संख्या संख्येयवाचकत्वेऽपि संख्याविशिष्टवाचकत्वं नित्यमेकवचनान्तता । संख्यापरत्वे तु बहुबचनान्ततापि ॥ वीसादिभ्यः ||३|१४॥ · नउइशब्दपर्यन्तानां वीसा (दिशब्दानां प्रथमायां नपुंसकवद्रूपं स्यान्नित्यम् । वसिं । चत्तालीसं । तृतीयादौ तु वीसाए । चत्तालसाए इत्यादि ॥ बीसादिभ्य प्रति–उत इति डमिति उदद्वयस्यानुवृत्तिः । वीसाशब्दादारभ्य नउइशब्दपर्यन्तान नित्यस्त्रीलिङ्गानां प्रथमायां नपुंसकखनातिदेशोऽनेन क्रियते सतादोनां तु सर्वविभक्तौ पुंनपुंसकत्वमिति तत्रांति-देशापेक्षा नास्ति ॥ द्वितीयायां नपुंसकत्वविधानं व्यर्थ, मप्रत्यये परे स्वत एव ह्रस्वसिद्धेरतः 'प्रथमाया' मित्येवोक्तं ॥ वीखाशब्दात्पूर्वेषामपि संख्यावा वकानां त्रिलिङ्गत्वम् || नउइशब्दोपादानेन नवनउइपर्यन्तस्य ग्रहणं नवनउइशब्देऽपि नउइशब्दस्य विद्यमानत्वात् ॥ वोसा + अ इत्यत्रानेनाकारस्य डमादेशे ङित्त्वादा- . कारलोपेऽनुस्वारे वीसं ॥ ॥ इति ॥ अथाव्ययप्रकरणम् ॥ सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सर्वासु च विभक्तिषु ॥ वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्येति तदव्ययम् ॥ १ ॥ सदृशमिति—त्रिषु लिङ्गेषु सदृशं = समानमेकप्रकारमिति यावत्, सर्वासु च विभक्तिषु समानं सर्वेषु वचनेषु च समानमत एव यन्न व्येति विविधप्रकारं प्राप्नोति तदव्ययम् ॥ १ ॥ अव्ययसहादि । १ । १ । ३५ ॥ श्रहादिगणपठितमव्ययसंज्ञकं स्यात् ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तकौमुदी .. भह । अं । अण । अइरा । अइव । अईव । अंग। अंतर । अंतरेण । अंते । अंतो । अकम्हा । अचिरं । अजस्सं । अज । अज्जयाए । अन्जसुए । अणिसं । अति । अस्थि । अदु । अदुत्तरं । अदुवा । अघो । अभि । अभिक्खं । अभिक्खणं । अलं । अलमथु । अवि । अवित्र । अविआई। असई । असति । अहवणं । अहावरं । अहे । अहो । आ। आई। आउ । आए । श्राविर् । इई। इइ । इति । इति । इय । इव । ईस । ईसि । ईसिं । उ । उण । उणो। उदाउ । उहाई । उपरि । उप्पिं । उवरि । उस्सरणं । उस्सन्नं । ए । एम । एमाइ । एमेव । एयावंति । एव । एवं । एवरह किं । किञ्च । किणाई । किरणं । किर । किल । कोस । कद् । कु । खलु । खिप्पं । च । चण | चणं । चि । चिट्ठ। चिय । थे । च । जइ । जति । जदि । जा । जाउ । जाव । जावं । जावत् । जुगवं । झत्ति । ण । एं । णवरं । णवरि । गहु । णाइ । णाणा । णिहो । णु । गुणं । णो । राणं । राहतं। ताताव । तावं । तावत् । ति । ति । तु । थ । दिया । दुछु । दूग। परिणयं । धिद्धि । घिर । घिसि । न । नणु । नमो । नवरं । नवरि । नहु । नाणा । नूणं । नो। नोणं । पए । पगे । पच्छा। पमिइ । पमित्ति । परेव्वं । पसदं । पाउ । पाउर् । पाए । पाओ। पातो । पायं । पि । पिव । पिहं । पिहु । पिहो । पुढो । पुण । पुणो । पुरच्छा । पुरत्या । पुग। पुरे । पुला । बहि । बहिं । बहिया। भंते । भिसं । भुजो। भूजो । मे। भो। मज्झे । मणयं । मणा । माहं । मिव । मिहो। मुसा । मुहा । मुहु । य । युगवं । रह । रहो । राओ । रिते । वि । विव । विसं । विसु । व्व । सई । सद् । संपइ । संपयं । संपाओ । सक्खं । सणि। सद्धिं । समं । समनं । समंता । सयं । सययं । सयराह । सायं । सुइरं । सुप । सुदछु । सुतरं । सेवं । हता। हंद । हंदि । हंभो । हउं । हणि हणि । हद्धी । हव्वं । हिजो । हो । हुरत्था । हुलियं । हे । हेटु । हेवा । हेट्ठि । हेछिल्ला । हेहो। अव्ययमिनि-अहशब्द आदिर्यस्य तदहादि इति तद्गुणसंविज्ञानो बहुव्रीहिः । स्वान्वयिनि स्त्र विशेपणस्याप्यन्वयेऽयं समासः । यथा लम्वकर्ण पुरुषमानयेत्यादौ । पुरुषान्धयिन्यानयने लम्बकर्णस्यापि सम्बन्धात्तद्गुणसंविज्ञानस्तद्भिन्नोऽतद्गुणसंविज्ञानो यथा दृष्टसागरं पुरुपमानयेत्यादौ, अत्र हि पुरुपान्वयिन्यानयने लागरस्य नान्वयः । तथा प्रकृतेऽपि स्वान्वयिसंज्ञायामहशब्दस्यापि सम्बन्धात्तद्गुणसंविज्ञान एव ।। न व्येति लिङ्गसंख्याकारकप्रयुक्तविकारान्न प्राप्नोति यत् तदव्ययम् । अत एव 'सदशं त्रिषु लिङ्गषु, इति श्रुतिरपि सङ्गता । अहशब्दस्यान्यार्थे नोयमानकलशादिवत् स्वतो मङ्गलस्वेन तमेव शब्दमाधवयवीकृत्य गणो निर्दिष्टः । अत एव विपरीतशंकालेशोऽपि न । अहादिगणस्तु मूल एव निर्दिष्टः । तत्र क्रमेणार्थी उच्यन्ते । अह आनन्तर्यादौ । अ अण निषेधे । अइग तत्काले । अव आईअधिके । अंग आमन्त्रणे । अन्तर अन्तरेण अभाववति । अंते अंतो मध्यदेशे । अकम्हा दैधादित्यर्थे । अचिरं शीघ्रतायाम् । अजस्सं निरन्तरे । अन्ज अस्मिन्नहनि । अजयाए अद्यप्रभृत्यर्थे । आजसुए अद्यश्व इत्यर्थे । अणिसं सतते । अति अतिशये. । अस्थि अस्तीति सिडन्तप्रतिरूपकमव्ययम् । अदु अदुत्तरं आनन्तर्यादौ । अदुवा पक्षान्तरे । अधो नाचैरित्यर्थे । अभि आभिमुख्ये । अभिक्खणं अभिक्खं पौनः पुन्ये । अलं पर्याह्यादौ । अलमंथु अलमस्वित्यर्थे । अवि समुच्चयादौ । अविअ पक्षान्तरे । अवियाई सम्भावनायाम् । असई असतिं पौन:पुन्थे। अहवणं अयवार्थे । अहावरं अहे ततः परमित्यर्थे । अहो नीचदशे । आ मर्यादा मिविध्यादौ । आई वाक्यालंकारे। आउ पक्षान्तरे । आए समीपे । आविर् प्रकटीभावे । इ ई प्राकट्ये । - इइ इति इत्ति इथ प्रकारे । इव सादृश्ये । ईस ईसि ईसिं अल्पत्वे । उ, उण उणो पुनरित्यर्थे । उदाहु उहाई Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबाव्यय प्रकरणम् . पक्षान्तरे । उपरि उप्पिं उवरि उपर्यर्थे । उस्सरणं उस्सन्न प्रायोऽर्थे । उपरि पूर्वप्रकारे । ए सम्बोधने एतत्प्रकारे च । एम एमाइ इत्यादौ । एमेव एतत्प्रकारे। एयावंति-इयत्तायाम् । एव अवधारणे । एवं पूर्वोतरीतौ । एहं वाक्यालकारे । किं जिज्ञासायां । किंच पक्षान्तरे । किणाइ किञ्चिन्मानमित्यर्थे । किरणं जिज्ञासायाम् । केर किल निश्चये । कीस कस्मादित्यर्थे । कद्, कु कुत्सायाम् । खलु निश्चये वाक्यालङ्कारे च । खिप्पंशीघ्रतायाम् च, च, समुच्चयादौ । चण, चणं, चि, चे, चेदित्यर्थे । चिट्ठ भृशमित्यर्थे । चिय चैवार्थे । जइ, जति, जदि, यद्यर्थे । जाउ कदातिदित्यर्थे । जा, जाव, जावं, जावत् यावदित्यर्थे । जुगवं एकस्मिन्काले । मत्ति शीघ्रतायाम् । ण निषेधे । णं वाक्यालङ्कारे । णवरं, णवरि कैवल्यार्थे । णहु णाइ निषेधे । णाणा अनेकस्मिन् । णिहो नीचदेशे ! गु प्रश्न । णूणं निश्चये । णो निषेधे । एणं एहं वाक्यालङ्कारे । तं तत्रेत्यर्थे । ता, ताव, तावं, तावत् तावदित्यर्थे । ति त्ति पूर्वोक्तप्रकारे समाप्तौ च । तु समुच्चये। थवाक्यालङ्कारे ! दिया दिवसे । दुद्छु असम्यगर्थे । दूरा दूरदेशे। धणियं अतिशये । धिद्धि, घिर, थिसि, धिक्कारार्थे । न निषेधे । नणु शङ्कायाम् । नग्नो नमस्कारे । नवरं नवरि कैवल्यार्थे। नहु निषेधे। नाणा अनेकस्मिन् । नूणं निश्चये । नो, नोणं, विषेधे । पए, पगे, प्रभाते । पच्छा उत्तरत्र । पमिय, पभित्ति प्रारभ्येत्यर्थे । परेव्वं परदिने । पसढं प्रसह्येत्यर्थे । पाउ, पाउर् प्रादुर्भावे । पाए प्रायोऽर्थे । पाओ, पातो प्रभाते, पायं प्रायोऽर्थे प्रभाते च । पि अभ्यर्थे । पिव इवार्थे । पिह, पिहु, पिहो, पुढो, पृथगर्थे । पुण, पुणौ पुनरित्यर्थे । पुरच्छा, पुरत्था, पुरे अग्रे इत्यर्थे । पुरा, पुला पूर्वकाले अग्रेच । वहि, बहि, वहिया, वाह्ये । भंते पूज्यसम्बोधने । मिसं अतिशये । . भुज्जो भूज्जो वाहुल्ये । भे, भो सम्बोधने । मज्झे मध्ये । मणयं, मणा अल्पे । माहं निषेधे । मिव इवार्थे । मिथो परस्परस्मिन् । मुसा असत्ये । मुहा निष्प्रयोजने । मुहु पौनःपुन्ये । य चार्थे । युगवं एककाले । रह रहो एकान्ते । राओ रात्रावित्यर्थे । रिते विनार्थे । वि अप्यर्थे । विव इवार्थे । विसं वीसु पृथक्त्वे । व्व इवार्थे । 'सई सकृदथे सदार्थे च । संपइ, संपयं एतत्काले । संपाओ प्रभाते । सक्खं प्रत्यक्षज्ञाने । सणिभं रानैरित्यर्थे । सद्धिं समं सहार्थे । समंतं समंता सर्वप्रकारेणेत्यर्थे । सयं सकृदित्यर्थे स्वयमित्यर्थे वा । सययं सतते । सयराहं सत्वरमित्यर्थे । सायं सूर्यास्तमनसमये । सुइ दीर्घकाले । सुए अनागतदिने । सुद्छु सौष्ठवे उतरं सहजत इत्यर्थे । सेवं तदेवमित्यर्थे । हंता स्वीकारे । हंद आश्चर्यार्थे । हंदि, हंभो आमन्त्रणे, क्रुद्ध बोधने विकल्पविषादपश्चात्तापनिश्चयेषु च । । हउँ हा इत्यर्थे । हणि हणि प्रतिदिनम् । हद्धी खेदे । हन्वं शीघ्रतायाम् । हिजो अतीतदिवसे । ही आश्चर्ये । हुरत्या बहिर्देशे । हुलियं शीघ्रतायाम् । हे सम्बोधने । हु, हेट्ठा, हेट्ठि, हेडिल्ला नीचदेशे। हे, हो, आमन्त्रणे ॥ अत्यादय उपसर्गाश्च । १ । १ । ३८ ॥ अत्यादय उपसर्गसंज्ञा अव्ययसंज्ञाश्वस्युः । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .....जनासद आध, अहि, अभिः o आमा अब, उब, आ, ओ, उद्, उप " MER: मान लोप्रभृतितडिताः । १ । १ . .::.. णि नि, णि, निर दुर्, प, प्प पडि, पति, परा, परि; पलि, विपम् एतेऽत्यादयः ।। अत्यादय इति चकारोऽत्राव्ययसंज्ञासमावेशार्थः । तेनोभयसंज्ञा भवत्येपामत बाहेक तत्रोपसर्गसंज्ञा क्रियायोगेऽव्ययसंज्ञान क्रियायोग विनापोति विशेषः । अनि, अइ : उत्कोतिशय गणादिम् । अणु, अनु, पश्चात्सादृश्यसमीपलक्षणाद्यर्थेषु । अधि, अहि, अधिकरणाधिकारापाय अभि. आंभिमुख्यादो। अब उव. निश्चयावगत्यनादरालम्बनादिपुः । सम्यगादौ । ओ. अववत् ।। उर्जादौं । उप,उब समीपादौ । श्रोव उववत् । ओं शब्दस्यापि समीपादौ वृत्तिः, णिं,नि निषेधादौ । रणर्.. . अमावे निश्चयादौ । दुर पीडादौ । पप्प प्रकर्षाडौ। पति पति, व्याप्रिलक्षणादौ । पा प्राधान्यादौ । परि, ए। . सर्वत्रादौ । वि, वियोगादौ ॥ सोप्रभृतितद्धितप्रत्ययान्ताः शब्दा अव्ययसंज्ञाः स्युः । कमसी इत्यादयः ।। लो प्रभृतीनि-अव्ययमित्यनुवर्तते । प्रभृतीति कथनेन स्स सिन ह ह हा हि अम् आ आवन्ति इ । " इण इण्ण इह ई ए क्खुचो चणं चि चिय रहं पिंह राहु ता ति तो त्य त्वदा दाणिं घा. या सि हियं हुए '' इत्यादि तद्धितप्रत्ययान्तानामपि अव्ययसंज्ञा भवति । अत्र प्रत्ययप्रहण परिभाषया. तदन्तविधिः यद्यपि संज्ञा - विधौ अन्यत्र प्रत्ययग्रहणे तदन्तविधिन तथापि प्रयोजनं सर्वनामाव्ययसंज्ञायामिति वचनात्तदन्तविधिः । केवलयोः कृत्तद्धितयोः संज्ञाया निष्फलत्वात् । अत एवोक्तप्रत्ययान्तेभ्यः शब्डेभ्यः परस्य सुपः "अध्ययात्सुक " इति वक्ष्यमाणसूत्रेण लोपो भवति । कमसो क्रमश इत्यर्थे । सोप्रत्ययान्तोऽयं शब्दः । एवं बहुत्तो, पां • दवदवस्स, एकस्सि इत्यादयः ॥ हेत्वर्थादि ऋतः १ ॥ १ ॥३६॥ - हेत्वादिकृत्प्रत्ययान्ताः शब्दा अव्ययसंज्ञकाः स्युः ।। गच्छित्तए । गच्छित्ता । अभिगन्न गणिउँ। घेतुं । गहिउँ । पगहि तु । नेऊणं । भजिऊणं । गमेऊणें । पडिविसजिय । उस्सक्किया किच्च । किच्चा । कटु । उवागम्म । पकत्थ ॥ हेत्वर्थति-अव्ययमित्यनुवर्तते।। हेतुरो येषां ते हेवर्धास्त आदयो येषां ते हेत्वर्थादयः । ते च कृती " विग्रहः । उदाहरणन्तु क्रमेण मूल एव स्पष्टम् । अत्रापि पूर्ववत्तदन्तविधिः । । अव्ययीभावोऽव्ययसंज्ञः स्यात् । . . . .. . . . १। ३७ ॥ अव्ययीभीयति-व्ययमित्यनुवर्तते । उदाहरणंच मूल एव तत्प्रकरणे प्रदरोयिष्ये ।। SA : वन्य Page #77 -------------------------------------------------------------------------- _