________________
२. Î
मांग आई कि संस्कृत के विद्वान अर्धमागधी भाषा से अपरिचित होने के कारण उन्हें इस म्याकरण के समझने तथा समझाने में कितनी ही कठिनाइयाँ आती हैं । अतः इसकी यदि कोई सरल, टीका वनजाय तो अध्ययनार्थी तथा अध्यापक दोनों के अनुकूल हो ।
P
इस मांग की पूर्ति के लिए श्री शतावधानाजी महाराज ने "जनसिद्धान्तकौमुदी" की संस्कृत टीका लिखमी :..:. प्रारम्भ की। साथ ही साथ मूल में पर्याप्त परिवर्तन किया गया। कितने ही सूत्र तो बिलकुल ही नवीन योजित किये 'गये और पुराने निकाल डाले गये । कितनों ही में अल्पाधिक परिवर्तन किया गया । प्रथमावृत्ति में समस्त धातु अकारान्त ही रक्खे गये थे, परन्तु इस आवृति में धातुओं को व्यन्जनान्त बना कर तत्पश्चात् अकार, एकारादि विकरण संयोजित किये गये हैं । इस तरह करने से सूत्रों में लाघघता भी आ गई है, जो कि पद्धति व्याकरणकारों ने वहु माननीय मानी है कहा भी है कि- अर्धमात्रा लाघवेन वैयाकरणाः पुत्रोत्सवं मन्यन्ते ।" -
: पहली आवृत्ति में समयाभाव के कारण कुछ अव्यवस्था सी प्रतीत होती थी, वह इस आवृत्ति में सुधार दी गई है।
'
सं० १९९० के साल में जब श्री शतावधानाजी महाराज का चौमासा जैपुर नगर में था, जैन सिद्धान्त-कौमुदी की टीका सभी तैयार हो चुकी थी तथा मुद्रगार्थ श्रीयुत अगरचन्द्रजी भैरोंशन जी सेठिया जो के पास बीकानेर प्रेषित:की जा चुकी थी। किन्तु उनके प्रस में छपने का कार्य उन दिनों में न चल रहा था । अतः छपने की व्यवस्था न हो सकी । इसी मध्य में बरेली निवासी श्रीयुत सेठ नगराजंजी नाहर जो कि जंगलपुर निवासी सेठ राजा गोकलदासजी की जयपुर वाली दुकान पर सुनीस हैं । उनके भाई रायबहादुर सेठ चांदमलजी का स्वर्गवास हो जाने पर उनकी स्मृत्यर्थं जैन सिद्धान्तकौमुदी व्याकरण टीका सहित प्रकाशित करने की इच्छा प्रकट की । तदनुसार बीकानेर से ब्या-: करण की प्रति मंगाकर "प्रभात प्रिंटिंग वर्क्स" अजमेर से प्रकाशित करने की व्यवस्था की । परन्तु वहाँ प्रूफ सुधारने की व्यवस्था न होने से मात्र सात आठ फर्मों ही छप सके ।
इस कठिनाई के कारण पुस्तक प्रकाशन का कार्य लाहौर लाना पड़ा। जहाँ कि पुनः प्रथम से ही यह ग्रन्थ पेगा । छपे हुए साढ़े सात फर्मों में सन्धि, पटूलिंग पूर्ण हो जाते हैं । सेठ श्री नगराज़जी नांहरकी इच्छानुसार भभी मात्र उतना ही भाग विद्यार्थियों के उपयोगार्थं प्रकाशित कर पाठक वर्ग की सेवा में अर्पण किया जा रहा है । आशा जिज्ञासु सहृदय इससे लाभ उठावेंगे। कुछ मास के पश्चात् सम्पूर्ण ग्रन्थः प्रकाशित हो सकेगा, ऐसी पूर्ण सम्भावना है. ।. सुपुः किं बहुना ?---
ता० १९-७-३५
अमृतसर
. विनीत सेवक-.
रामकुमार " स्नातक "
विद्याभूषण.