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________________ के श्री महावीराय नमः १ प्रस्तावना। AAL न आगमों की भाषा के विषय में कितने ही समय से विद्वत्समाज में मतभेद पड़ा हुआ है। कुछ ज समय पूर्व समाचार पत्रों में इस विषय की चर्चा भी चली थी । एक पक्ष का कहना था कि आगमों PRAST की भाषा प्राकृत है । जबकि अन्य पक्षं का कथन था कि आगमों की भाषा अर्ध-मागधी है। KAR वस्तुतः संस्कृतातिरिक्त समस्त भापायें प्राकृन ही कही जाती थीं । अतः प्रथम पक्ष की E mak मान्यता भी निस्सार न थी। परन्तु "प्राकृत" यह शब्द संस्कृतातिरिक्त समस्त भाषाओं के लिए सामान्य शब्द है । पाली, शौरसेनी, अपभ्रंश आदि समस्त भागाओं का समावेश प्राकृत में ही है। श्री हेमचन्द्राचार्यजी ने अपने स्वयं निर्माणित "प्राकृत व्याकरण" में अपभ्रंशादि छहों ही भेदों को प्राकृत में सम्मिलित किया है, तथैव छहों ही के रक्षणादि का प्रतिपादन किया है। परन्तु हां, विशेष नाम छहों ही भाषाओं के भिन्न २ हैं । जैनागमों की भापाका विशेष नाम प्राकृत नहीं परन्तु अर्धमागधी है। जिस प्रकार कि चौद्धों का आगम साहित्य पाली भाषा में है, उसी प्रकार जैन आगम साहित्य अर्धमागधी भाषा में है । कारण कि तीर्थकर भगवान् अर्धमागधी भाषा में ही उपदेश देते थे तमा गणधर उसी भाषा में सूत्र प्रथित करते थे। जैनागमों में मुरयतया द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, धर्मकथानुयोग तथा चरणकरणानुयोग अर्थात् तत्वज्ञान, गणितज्ञान, महापुरुषों के चरित्र तथा आचार विचार सम्बन्धी विषय वर्णित किये गये हैं। तथैव इन सबका उद्देश्य मोक्षसाधन ही है । परन्तु वह भापा जानने में न आवे तव तक विषय की यथार्थता एवं महत्वता समझ में नहीं आ सकती। किसी भी भापा के साहित्य का ज्ञान प्राप्त करना हो तो उस भाषा का ज्याकरण तथा कोप इन दोनों अंगों का ज्ञान प्राप्त करना परमावश्यक है । जैन आगमों पर भाष्य, नियुकि, चूर्णिका, दीपिका, टीका बाकावबोध टया आदि रचे गये, एवं पृथक् पृथक भाषाओं में भापान्तर भी हुवे। परन्तु उस भाषा को साक्षात् समझने के लिये जो न्याकरण और कोप की कमी थी, वह ज्यों की त्यों बनी रही। श्री हेमचन्द्राचार्य जी तथा चण्ड ने व्याकरण बनाये परन्तु प्राकृत भाषा तथा महाराष्ट्रीय प्राकृत भाषा के । अर्धमागधी का नहीं। जैन साहित्य क्षेत्र में इस त्रुटि को पूर्ण करने के लिये भारत रत्न शतावधानी श्रीरत्नचन्द्रजी, महाराज ने कितने हो वर्षों से प्रयत्न किया । सात वर्ष पर्यन्त सतत् परिश्रम द्वारा अर्धभागधी कोष तैयार किया एवं तदन्तर ही न्याकरण बनाना प्रारम्भ किया। बीकानेर निवासी श्रीयुत अगरचन्द्रजी भैरोंदानजी लेठियाकी हार्दिक सहानुभूति से "जैन सिद्धान्त कोमुदी" नामक अर्धमागधी व्याकरण उन्होंने स्वकीय प्रेत में छपाया ! कितने ही जिज्ञासुओं की यह
SR No.010021
Book TitleJain Siddhanta Kaumudi Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Maharaj
PublisherNagrajji Nahar Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size4 MB
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