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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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संड २] जैन [अंक साहित्य संशोधक
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(जैन इतिहास, साहित्य, तत्त्वज्ञान आदि विषयक सचित्र पत्र)
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- संपादक____ - मुनि श्रीजिनविजयजी (एम्. आर. ए. एस्.)
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... ले ख सूचि १ १ योग दर्शन-ले० श्रीयुत पं. सुखलालजी
२. कुंरपाल सोणपाल प्रशस्ति-ले० प्रो. बनारसी दासजी जैन एम् . ए. २६ १३. सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत-ले. श्रीयुत पं. नाथूरामजी प्रेमी... ३६
४. कीरग्रामनो जैन शिलालेख-संपादकीय ... ... ...... ५५ १५. महाकवि पुप्पदंत और उनका सहापुराण-ले० श्रीयुत पं. नाथूरामजी प्रेमी ५७
६. प्रो० ल्युमन अने आवश्यकस्सूत्र-ले० मुनि जि० वि०; वकील के० प्रे० मोदी ८१ ७. स्वाध्याय-समालोचन ... ... ... ... ... ९४
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भकाशंक-
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जैन साहित्य संशोधक कार्यालय,
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ठि. भारत जैन विद्यालय-पूना शहर. ज्येष्ठ, विक्रम सं. १९७९] महावीर नि. सं. २४४९ [जुलाई १९२३.
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ग्राहक वर्गने निवेदन - पहेला खंडनो छल्लो अंक बहार पड्यां पछी आजे लगभग दोढ वर करतार वधारे समय पछी आ अंक ग्राहकोना हाथमां उकतां अनारे ग्राहक वर्गने चुं निवेदन करवू ते काई मुझनु नथी. आ अंक पात्रवानी शरुआत संवत् १९७८ ना आखात्रीजना दिवस थई हती पण तनी नाति सं० १९७५ ना जैठना थाय है. आदला वधा विलंयनां कारणो आपी देवाची पग अत्रने के प्राहकवर्गन सन्ताय बाय तेज लागतुं नथी ती अने ए संबन्धनां जौनं सवार्यसाधकं नी नीतिने अनुसरी मृतकालने भूली जवानी भलातण करिए छीए; अने भविष्य बाटे आशा आपीर छीए के, हवे पछी जल बनशे तेज वेळासर ज ग्राहकांना हाथमा अंक पहुंची जाय तेबी दरेक कोशीश करवानां आवशे.
__-मुनि जिनविजय.
जैन साहित्य संशोधकना द्वितीय खण्डमां केवा केवा विषयो आवशे ते जाणवू होय
तो आ नाचनी नोध ध्यानपूर्वक बांचो • बीजा खण्डमां, जैन बना प्राचीन गौरव उपर अपूर्व प्रकाश पाइनारा अनेक प्राचीन शिलालेखो अने ताम्रपत्री प्रकट थशे.
वीजा सण्डल, जैन संघना संरक्षक जुदा जुदा गन्छानी पट्टावलियो प्रसिद्ध धशे. वीला खण्डमां जैन साहित्यना आभूषणनूत ग्रन्योना परिच्यो अने तेनी प्रशस्तिओ प्रसिद्ध थशे. बीजा खण्डनां, जैन अने बौद्ध साहित्यना नुलना करनारा प्रौढ अने गमीर लखो आवशे.
वीजा खण्डनां, भगवान महावीर देवना निवाण सजय संबंधी जुदा जुद्रा विद्वानाए लखेला लेलोना मापान्तरो तथा स्वतंत्र लेन आवशे. बीजा खण्डमां, प्रो वेबग्नी लखला जन आगनानी विस्तृत समालोचना आपवामां आवशे. बीजा खण्डनां, जैन माहित्यनां झिखित प्राचीन स्थळीनां वर्णनो आवशे. वीजा खण्डमां, बौद्ध साहित्यलां जैनधर्मविषये शा शा विचारा लत्राएला के तेना विचित्र अने अज्ञातपूर्व उल्लेख अवशे. वीजा सण्डमां, जैन संबला आजपर्यंत थई गएला प्रसिद्ध पुरुषोना परिचयो आपवास आवशे.
आ सिवाय बोजा पण अनेक नाना लोटा अपूर्व अपूर्व लेखो प्रकट करवानां आवशे अने सायं तवां ज मुन्दर. मनहर, दर्शनीय अने संग्रहाय अनेक चित्रों पण यथायोग्य आपवान आवशे. वळी, आ मण्डमां कटेलाक ऐतिहासिक प्राचीन प्रबन्धो; अने पट्टावालिओ पण इळ रूपे आपवानां आवनार छे. उदाहरण तरीके सेगनुगाचार्य विरचित विचारणि उपक्रशगच्छ, तपागच्छ, खरतर- : गञ्छ, बृहत्पोशालिक गच्छ आदिनी पट्टावली: जुना रासा; चैत्य परिपाटि तीर्थ माळा. अने विज्ञामि । इत्यादि. इत्यादि.
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जैन साहित्य संशोधक 發长长长长长长长长长长
、清淨丹羽》
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येनूर ( दक्षिण कर्णाटक ) स्थान स्थित मनुष्याकार दिगम्बर जैन प्रतिमा
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॥ ॐ अहम् ॥ ॥ नमोऽस्तु अमणाय भगवते महावीराय ॥ जैन सा हि त्य सं शोध का
'पुरिसा! सच्चमेव समभिनाणाहि । सच्चस्साणाए उवहिए मेहावी मारं तरइ ।' 'ने एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ।' : दिळं, सुयं, मयं, विण्णायं जं एत्य परिकहिज्जइ ।'
-निम्रन्थप्रवचन-आचारांगसूत्र ।
खंड २ ]
हिंदी लेख विभाग.
[ अंक १
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योग दर्शन
(लेखकः-पं. सुखलालजी न्यायाचार्य)
प्रत्येक मनुष्य व्याक्त अपरिमित शक्तियांके तेजका पुञ्ज है, जैसा कि सूर्य । अत एव राष्ट्र तो माना अनेक सूर्योका मण्डल है । फिर भी जब कोई व्यक्ति या राष्ट्र असफलता या नैराश्यके भँवर में पड़ता है तब यह प्रश्न होना सहज है कि इसका कारण क्या है ? | बहुत विचार कर देखनेसे मालूम पडता है कि असफलता व नैराश्यका कारण योगका (स्थिरताका) अभाव है, क्यों कि योग न होनेसे बाई संदेहशील बनी रहती है, और इससे प्रयत्नकी गति अनिश्चित हो जानेके कारण शक्तियां इधर उधर टकरा कर आदमीको बरबाद कर देती हैं । इस कारण सब शक्तियोंको एक केन्द्रगामी बनाने तथा साध्यतक पहुंचानेके लिये अनिवार्यरूपसे सभीको योगकी जरूरत है । यही कारण है कि प्रस्तुत व्याख्यानमालामें योगका विषय रक्खा गया है।
*जरात पुरातत्त्व मादरकी ओरसे होनेवाली आर्यविद्याव्याख्यानमालामें यह व्याख्यान पढा गया था।
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२]
जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २
इस विषयकी शास्त्रीय मीमांसा करनेका उद्देश यह है कि हमें अपने पूर्वजोंकी तथा अपनी सभ्यताकी प्रकृति ठीक मालूम हो, और तद्वारा आर्यसंस्कृतिके एक अंशका थोडा, पर निश्चित रहस्य विदित हो।
योगदर्शन यह सामासिक शब्द है । इसमें योग और दर्शन ये दो शब्द मौलिक हैं ।
योग शब्दका अर्थ-योग शब्द युज् धातु और घञ् प्रत्ययसे सिद्ध हुवा है । युज् धातु दो हैं । एकका अर्थ है जोडना1 और दूसरेका अर्थ है समाधि2-मनःस्थिरता । सामान्य रीतिसे योगका अर्थ संबन्ध करना तथा मानसिक स्थिरता करना इतना ही है, परंतु प्रसंग व प्रकरणके अनुसार उसके अनेक अर्थ हो जानेसे वह बहुरूपी बन जाता है । इसी बहुरूपिताके कारण लोकमान्यको अपने गीतारहस्यमें गीताका तालर्य दिखानेके लिये योगशब्दार्थनिर्णयकी विस्तृत भूमिका रचनी पडी है। परंतु योगदर्शनमें योग शब्दका अर्थ क्या है यह बतलानेके लिये उतनी गहराईमें उतरनेकी कोई आवश्यकता नहीं है; क्यों कि योगदर्शनविषयक सभी ग्रन्थोंमें जहां कहीं योग शब्द आया है वहां उसका एक ही अर्थ है, और उस अर्थका स्पष्टीकरण उस उस ग्रन्थमें ग्रन्थकारने स्वयं ही कर दिया है । भगवान् पंजलिने अपने योगसूत्रमें4 चित्तवृति निरोधको ही योग कहा है, और उस ग्रन्थम सर्वत्र योग शब्दका वही एक मात्र अर्थ विवक्षित है। श्रीमान हरिभद्र सूरिने अपने योग विषयक सभी ग्रन्थोंमें5 मोक्ष प्राप्त कराने वाले धर्मव्या योग कहा है; और उनके उक्त सभी ग्रन्थों में योग शब्दका वही एक मात्र अर्थ विवक्षित है । चित्तवृत्तिनिरोध और मोक्षप्रापक धर्मव्यापार इन दो वाक्योंके अर्थमें स्थूल दृष्टिसे देखने पर बडी मिन्नता मालूम होती हैं, पर सूक्ष्म दृष्टिसे देखने पर उनके अर्थकी अभिन्नता स्पष्ट मालूम हो जाती है । क्यों कि 'चित्तवृत्तिनिरोध' इस शब्दसे वही क्रिया या व्यापार विवक्षित है जो मोक्षके लिये अनुकूल हो और जिससे चित्तकी संसाराभिमुख वृत्तियां रुक जाती हो । ' मोक्षप्रापक धर्मव्यापार ' इस शब्दसे भी वही क्रिया विवक्षित है । अत एव प्रस्तुत विषयमें योग शब्दका अर्थ स्वाभाविक समस्त आत्मशक्तियोंका पूर्ण विकास करानेवाली क्रिया अर्थात् आत्मोन्मुख चेष्टा इतना ही समजना चाहिये6 | योगविषयक वैदिक, जैन और बौद्ध ग्रन्थों में योग, ध्यान, समाधि ये शब्द बहुधा समानार्थक देखे जाते हैं ।
. दर्शन शब्द का अर्थ-नेत्रजन्यज्ञान, निर्विकल्प (निराकार) बोध,8 श्रद्धा, मत10 आदि अनेक अर्थ दर्शन शब्दके देखे जाते हैं। पर प्रस्तुत विषयमें दर्शन शब्दका अर्थ मत यही एक विवक्षित है ।
योगके आविष्कारका श्रेय-जितने देश और जितनी जातियों के आध्यात्मिक महान् पुरुषोंकी जीवनकथा तथा उनका साहित्य उपलब्ध है उसको देखनेवाला कोई भी यह नहीं कह सकता है कि आध्यात्मिक विकास अमुक देश और अमुक जातिकी ही बपौती है, क्यों कि सभी देश और सभी जातियों में न्यूनाधिक रूपसे आध्यात्मिक विकासवाले महात्माओंके पाये जानेके प्रमाण मिलते हैं11 । योगका संबन्ध आध्यात्मिक विकाससे है । अत एव यह स्पष्ट है कि
१ युजूंपी योगे,-७ गण हेमचंद्र धातुपाठ. २ युजिंच् समाधौ,-४ गण हेमचंद्र धातुपाठ. ३ देखो पृष्ठ ५५ से ६० । ४ पा. १ सू. २-योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । ५ योगबिन्दुः श्लोक ३१अध्यात्म भावनाSsध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः। मोक्षेण योजनाद्योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।। योगावशिका गाथा ॥१॥
६ लोर्ड एवेबरीने जो शिक्षाकी पूर्ण व्याख्या की है वह इसी प्रकारकी है:-" Education is the harmonious developement of all our faculties." ७ दृशू प्रेक्षणे-१ गण हेमचन्द्र धातुपाठ. ८ तत्त्वार्य अपत्याल संत्रस्य लोक वार्तिक. ९ तत्त्वार्थ अध्याय १ सूत्र २. १० षड्दर्शन समुच्चय-लोक २-"नीति षडेवात्र" इत्यादि. १४ उदाहरणार्थ जरथोस्त, इसु, महम्मद आदि.
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अंक.१]
योगदर्शन
योगका अस्तित्व सभी और सभी जातियों में रहा है । तथापि कोइ. भी विचारशील मनुष्य इस वातका इनकार नहीं कर सकता है कि योगके आविष्कारका या योगको पराकाष्ठा तक पहुंचानेका श्रेय भारतवर्ष और आर्यजातिको ही है । इसके सबूतमें मुख्यतया तीन बातें पेश की जा सकती हैं । १ योगी, ज्ञानी, तपस्वी आदि आध्यात्मिक महापुरुषोंकी बहुलता; २ साहित्यके आदर्शकी एकरूपता; और ३ लोकरुचि ।
१. योगी, ज्ञानी, तपस्वी आदि आध्यात्मिक महापुरुषोंकी संख्या भारतवर्षमें पहिलेसे आज तक इतनी बडी रही है कि उसके सामने अन्य सब देश और जातियोंके आध्यात्मिक व्यक्तियोंकी कुल संख्या इतनी अल्म जान पड़ती है जितनी कि गंगाके सामने एक छोटीसी नदी ।
२. साहित्यके आदर्शकी एकरूपता-तत्त्वज्ञान, आचार, इतिहास, काव्य, नाटक आदि साहित्यका कोई भी भाग लीजिये उसका अन्तिम आदर्श बहुधा मोक्ष ही होगा । प्राकृतिक दृश्य और कर्मकाण्डके वर्णनने वेदका बहुत बडा भाग रोका है सही, पर इसमें संदेह नहीं कि वह वर्णन वेदका शरीर मात्र है। उसकी आत्मा कुछ ओर ही है और वह है परमात्मचिंतन या आध्यात्मिक भावांका आविष्करण । उपनिषदोंका प्रासाद तो ब्रह्मचिन्तनकी बुनियाद पर ही खडा है । प्रमाणविषयक, प्रमेयविषयक कोई भी तत्त्वज्ञान संबन्धी सूत्रग्रन्थ हो; उसमें भी तत्वज्ञानके साध्यरूपसे मोक्षका ही वर्णन मिलेगा। आचारविषयक सूत्र स्मृति आदि सभी ग्रन्थोंमें आचारपालनका मुख्य उद्देश मोक्ष ही माना गया है । रामायण, महाभारत आदिके मुख्य पात्रोंकी महिमा सिर्फ इस लिये नहीं कि वे एक बडे राज्यके स्वामी थे, पर वह इस लिये है कि अंतम वे संन्यास या तपस्याके द्वारा मोक्षके अनुष्ठानमें ही लग जाते हैं । रामचन्द्रजी प्रथम ही अवस्थामें वशिष्ठसे योग और मोक्षकी शिक्षा पा लेते हैं। युधिष्ठिर भी युद्ध रस लेकर बाण शय्यापर सोये हुए भीष्मपितामहसे शान्तिका ही पाठ पढते हैं । गीता
भी मोक्षक एकतम साधन योगका ही उपदेश देती है। कालिदास जैसे शृंगारप्रिय कहलानेवाले कवि भी अपने मुख्य पात्रोंकी महत्ता मोक्षकी और झुकनेमें ही देखते हैं। जैन आगम और बौद्ध पिटंक तो निवृत्तिप्रधान होनेसे मुख्यतया मोक्षके सिवाय अन्य विषयोंका वर्णन करनेमें बहुत ही संकुचाते हैं। शब्दशास्त्रम
---1 वैशेषिकदर्शन, अ० १ सू० ४ धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां 'साधर्म्यवधाभ्यां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसम्। –न्यायदर्शन अ० १ सू० १ प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतकीनर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्वज्ञानान्निःश्रेयसम् ॥ सांख्यददं.न, अ.१ अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः ॥- वेदान्तदर्शन अ०४, पा० ४, सू० २२ अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् || - जैनदर्शन तत्त्वार्थ अ० १ ० १ सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।। 2 याज्ञवल्क्यस्मृति अ. ३ यातिधर्मानरूपणम् ; मनुस्मृति अ. १२ श्लोक ८३. 3 देखो योगवाशिष्ठ. 4 देखो महाभारत-शान्तिपर्व. 5 कुमारसंभव-सर्ग ३ तथा ५ तपस्या वर्णनम् . शाकुन्तल नाटक अंक ४ कण्वोक्ति.
भूत्वा चिराय चतुरन्तमहीसपत्नी, दीप्यन्तिमप्रतिरथं तनयं निवेश्य । __ भत्रां तदप्तिकुटुम्बभरेण सार्थ, शान्ते करिष्यसि पदं पुनराश्रमेऽस्मिन् ।। शैशवेऽभ्यस्तविद्यानाम् यौवने विषयषिणाम् । वाईके मुनिवृत्तीनाम् योगेनान्ते तनुत्यजाम् ॥८॥ सर्ग: अथ स विषयव्यावृत्तात्मा यथाविधि सूनवे, नृपतिककुदं दत्त्वा यूने सितातपवारणम् । मुनिवनतरुच्छायां देव्या तया सह शिश्चिये, गलितबयसामिवाफूणामिदं हि कुल मतम् ॥ ७० ॥ रधुवंदा: ३..
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जैन साहित्य संशोधक
[संर२
भी शब्दशुद्धिको तत्वज्ञानका द्वार मान कर उसका अन्तिम ध्येय परम श्रेय ही माना है। विशेष क्या ? कामशास्त्र तकका भी आखिरी उद्देश मोक्ष है । इस प्रकार भारतवयि साहित्यका कोई भी खोत देखिये उसकी गाते समुद्र जैसे अपरिमेय एक चतुर्थ पुरुषार्थकी ओर ही होगी। .
३ लोकराच-आध्यात्मिक विषयकी चर्चावाला और खासकर योगविषयक कोई भी ग्रन्थ किसीने भी लिखा कि लोगोंने उसे अपनाया । कंगाल और दीन हीन अवस्थामें भी भारतवर्षीय लोगोंकी उक्त
आभिमाचे यह सूचित करती है कि योगका सम्बन्ध उनके देश व उनकी जातिमें पहलेसे ही चला आता है। इसी कारणसे भारतवर्षकी सभ्यता अरण्यमें उत्पन्न हुई कही जाती है 1। इस पैत्रिक स्वभावके कारण जब कभी भारतीय लोग तीर्थयात्रा या सफरके लिये पहाडों, जंगलों और अन्य तीर्थस्थानोंमें जाते हैं तब वे डेरा तंबू डालनेसे पहले ही योगियोंको, उनके मठोंको और उनके चिन्त कको भी ढूंढा करते हैं। योगकी श्रद्धाका उद्रेक यहां तक देखा जाता है कि किसी नंगे बावेको गांजेकी चिलम पंकते या जटा बढाते देखा कि उसके मुंहके धुंएमें या उसकी जटा व भस्मलेपमें योगका गन्ध आने लगता है । भारतवर्षके पहाड, जंगल और तीर्थस्थान भी बिलकुल योगिशून्य मिलना दुःसंभव है । ऐसी स्थिति अन्य देश और अन्य जातिम दुर्लभ है । इससे यह अनुमान करना सहज है कि योगको आविष्वृत करनेका तथा पराकाष्ठा तक पहुंचानेका श्रेय बहुधा भारतवर्षको और आर्यजातिको ही है। इस बातकी पुष्टि मेक्षमूलर जैसे विदेशीय और भिन्न संस्कारी विद्वान्के कथनसे भी अच्छी तरह होती है ।2।
आर्यसंस्कृतिकी जड और आर्यजातिका लक्षण--ऊपरके कथनसे आर्यसंस्कृतिका मूल आधार क्या है, यह स्पष्ट मालूम हो जाता है । शाश्वत जीवनकी उपादेयता ही आर्यसंस्कृतिकी भित्ति है । इसी पर आर्यसंस्कृतिके चित्रोंका चित्रण किया गया है । वर्णविभाग जैसा सामाजिक संगठन और आश्रमव्यवस्था जैसा वैयक्तिक जीवनविभाग उस चित्रणका अनुपम उदाहरण है । विद्या, रक्षण, विनिमय और सेवा ये चार जो वर्णविभागके उद्देश्य हैं, उनके प्रवाह गार्हस्थ्य जीवनरूप मैदानमें अलग अलग बह कर भी वानप्रस्थके मुहानेमें मिलकर अंतमें संन्यासाश्रमके अपरिमेय समुद्रमें एकरूप हो जाते हैं । सारांश यह है कि सामाजिक, राजनेलिक, धार्मिक आदि सभी संस्कृतियांका निर्माण, स्थूलजीवनकी परिणामविरसता और आध्यात्मिक-जीवनकी परिणामसुन्दरता अपर ही किया गया है । अत एव जो विदेशीय विद्वान् आर्यजातिका लक्षण स्थूलशरीर, उसके डीलडोल, व्यापार-व्यवसाय, भाषा, आदिम देखते हैं वे एकदेशीय मात्र हैं । खेतीबारी, जहाजखेना, पशुओंको चराना आदि जो जो अर्थ आर्यशब्दसे निकाले गये हैं वे आर्यजातिके असाधारण लक्षण नहीं हैं ।
आर्यजातिका असाधारण लक्षण तो परलोकमात्रकी कल्पना भी नहीं है, क्यों कि उसकी दृष्टिमं वह लोक मी' त्याज्य है । उसका सच्चा और अन्तरंग लक्षण स्थूल जगत्के उसपार वर्तमान परमात्मतत्वकी एकाग्रबुद्धिसे ।
उपासना करना यही है । इस सर्वव्यापक उद्देश्यके कारण आर्यजाति अपनेको अन्य सब जातियोंसे श्रेष्ट सम• झती आई है।
१ द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् । शब्दब्रहाण निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।। व्याकरणात्पदसिद्धिः पदसिद्धेरथनिर्णयो भवति । अर्थात्तत्त्वज्ञानं तत्त्वशानालरं श्रेयः ॥
श्रीहमशब्दानुशासनम् अ. १ पा.१ सू. २ लघुन्यास. २ " स्थाविरे धर्म मोक्षं च "कामसूत्र ब.२ पृ. ११ Bombay Edition.
1 देखो कविवर टागोर कृत " साधना"पृषु ४, « Thus in India it was in the forests that our
2 This concentrtion of thought (एकाग्रता) or one-pointedness as the Hindus called it, Is something to us almost unknown.
इत्यादि देखो. पृ. २३-बोल्युम १-सेक्रेड बुक्स ओफ दि ईस्ट, मेक्षमूलर-प्रस्तावना.
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अंक १]
ज्ञान और योगका संबन्ध तथा योगका दरजा - - व्यवहार हो या परमार्थ, किसी भी विषयका शान तभी परिपक्क समझा जा सकता है जब कि ज्ञानानुसार आचरण किया जाय । असलमें यह आचरण ही योग है । अत एव ज्ञान योगका कारणं है । परन्तु योगके पूर्ववर्ति जो ज्ञान होता है वह अस्पष्ट होता है 1 । और योगके बाद होनेवाला अनुभवात्मक ज्ञान स्पष्ट तथा परिपक्व होता है । इसीसे यह समझ लेना चाहिये कि स्पष्ट तथा परिपक्क ज्ञानकी एक मात्र कुंजी योग ही है । आधिभौतिक या आध्यात्मिक कोई भी योग हो, पर वह जिस देश या जिस जातिमें जितने प्रमाण में पुष्ट पाया जाता है उस देश या उस जातिका विकास उतना ही अधिक प्रमाण में होता है । सच्चा शानी वही है जो योगी है 2 । जिसमें योग या एकाग्रता नहीं होती वह योगवाशिष्ठकी परिभाषामें ज्ञानवन्धु है 3 | योगके सिवाय किसी भी मनुष्यकी उत्क्रान्ति हो ही नहीं सकती, क्यों कि मानसिक चंचलताके कारण उसकी सब शक्तियां एक ओर न बह कर भिन्न भिन्न विषयोंमें टकराती हैं, और क्षीण हो कर यों ही नष्ट हो जाती हैं । इसलिये क्या किसान, क्या कारीगर, क्या लेखक, क्या शोधक, क्या त्यागी सभी को अपनी नाना शक्तियोंको केन्द्रस्थ करेनेके लिये योग ही परम साधन है ।
योदर्शन
[ ५
1
व्यावहारिक और पारमार्थिक योग —— योगका कलेवर एकाग्रता है, उसकी आत्मा अहंत्व ममत्वका त्याग है । जिसमें सिर्फ एकाग्रताका ही संबन्ध हो वह व्यावहारिक योग, और जिसमें एकाग्रता के साथ साथ अहंत्व ममत्वके त्यागका भी संबन्ध हो वह पारमार्थिक योग है । यदि योगका उक्त आत्मा किसी भी प्रवृत्ति - चाहे वह दुनियाकी दृष्टिमें बाह्य ही क्यों न समझी जाती हो - वर्तमान हो तो पारमार्थिक योग ही समझना चाहिये । इसके विपरीत स्थूलदृष्टिवाले जिस प्रवृत्तिको आध्यात्मिक समझते हों, उसमें भी यदि योगका उक्त आत्मा न हो तो उसे व्यवहारिक योग ही कहना चाहिये । यही बात गीताके साम्यगर्भित कर्मयोग में कही गई है 4 |
I
योग की दोधारायें - व्यवहारमें किसी भी वस्तुको परिपूर्ण स्वरूपमें तैयार करनेके लिये पहले दो बातोंकी आवश्यकता होती है । जिनमें एक ज्ञान और दूसरी क्रिया है । चितेरेको चित्र तैयार करनेसे पहले उसके स्वरूपका, उसके साधनोंका और साधनोंके उपयोगका ज्ञान होता है, और फिर वह ज्ञान के अनुसार क्रिया भी करता है । तभी वह चित्र तैयार कर पाता है । वैसे ही आध्यात्मिक क्षेत्रमें भी मोक्षके जिज्ञासुके लिये बन्धमोक्ष, आत्मा और बन्धमोक्षके कारणोंका, तथा उनके परिहार, उपादानका ज्ञान होना जरूरी है । एवं ज्ञानानुसार प्रवृत्ति भी आवश्यक है । इसी से संक्षेपमें यह कहा गया है कि " ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः " । योग क्रियामार्गका नाम है । इस मार्ग में प्रवृत्त होनेसे पहले अधिकारी, आत्मा आदि आध्यात्मिक विषयोंका आरंभिक ज्ञान शास्त्रसे, सत्संगसे, या स्वयं प्रतिभा द्वारा कर लेता है । यह तत्त्वविषयक प्राथमिक ज्ञान प्रवर्तक ज्ञान कहलाता है । प्रर्वतक ज्ञान प्राथमिक दशाका ज्ञान होनेसे सबको एकाकार और एकसा नहीं हो सकता । इसीसे योगमार्गमें तथा उसके परिणामस्वरूप मोक्षस्वरूपमें तात्विक भिन्नता न होने पर भी योगमा --
,
1 इसी अभिप्राय गीता योगिको ज्ञानीसे अधिक कहती है। गीता अ. ६ श्लोक ४६तपस्विभ्योऽधिको योगी शानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद् योगी भवार्जुन ! ॥ 2 गीता अ. ५ श्लोक ५---
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥
3 योगवाशिष्ठ निर्वाण प्रकरण, उत्तरार्ध, सर्ग २१
व्याचष्टे यः पठति च शास्त्रं भोगाय शिल्पिवत् । यतते न त्वनुष्ठाने शानबन्धुः स उच्यते ॥ आत्मज्ञानमनासाद्य ज्ञानान्तरलवेन ये । सन्तुष्टाः कष्टं चेष्टंते ते स्मृता शानबन्धवः ॥ इत्यादि । 4 अ. २ श्लोक ४
योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय ! | सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
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'. ८ ] ... ... ... . . . . . जैन साहित्य संशोधक . ..: [खंड २
....... .... .. .. ....... ... ... . .... ............. हैं, जिनमें योगशास्त्रकी तरह सांगोपांग योगप्रक्रियाका वर्णन है8 । अथवा यह कहना चाहिये कि ऋग्वेदमें जो परमात्मचिन्तन अंकुरायमाण था वही उपनिषदोंमें पल्लवित पुष्पित हो कर नाना .. शाखा-प्रशाखाओंके साथ . फल अवस्थाको प्राप्त हुवा । इससे उपनिषदकालमें योगमार्गका पुष्टरूपमें पाया जाना स्वाभाविक ही है। ...
___ उपनिषदोंमें जगत, जीव और परमात्मसम्बन्धी जो तात्विक विचार है, उसको भिन्न भिन्न ऋपियोंने अपनी.. दृष्टिसे सूत्रोंमें अथित किया, और इस तरह उस विचारको दर्शनका रूप मिला । सभी दर्शनकारोंका आखिरी उद्देश . मोक्ष* ही रहा है, इससे उन्होंने अपनी अपनी दृष्टि से तत्त्वविचार करनेके बाद भी संसारसे छुट कर मोक्ष.पानेके ..:: साधनांका निर्देश किया है। तत्त्वविचारणामें मतभेद हो सकता है, पर आचरण यानी चारित्र एक ऐसी वस्तु है जिसमें सभी विचारशील एकमत हो जाते हैं। विना चरित्रका तत्त्वज्ञान कोरी बातें हैं। चारित्र यह योगका किंवा योगांगोंका संक्षिप्त नाम है । अत एव सभी दर्शनकारोंने अपने अपने सूत्रग्रंथों में साधन रूपसे योगकी उपयोगिता अवश्य .. बतलाई है। यहां तक कि-न्यायदर्शन, जिसमें प्रमाण पद्धतिका ही विचार मुख्य है,उसमें भी महर्षि गौतमने योगको स्थान दिया है1। महर्षि कणादने तो अपने वैशेषिक दर्शनमें यम, नियम, शौच आदि योगांगोंका भी महत्त्व गाया हैं2। सांख्यसूत्रमें योगप्रक्रियाके वर्णनवाले कई सूत्र हैं । ब्रह्मसूत्रमें महर्षि बादरायणने तो तीसरे अध्यायका नाम :.. ही साधन अध्याय रक्खा है. और उसमें आसन ध्यान आदि योगांगोंका वर्णन किया है योगदर्शन तो मख्यत: या योगविचारका ही ग्रन्थ ठहरा, अत एव उसमें सांगोपांग योगप्राक्रियाकी,मीमांसाका पाया जाना सहज ही है। : . । योगके स्वरूपके सम्बन्धमें मतभेद न होनेके कारण और उसके प्रतिपादनका उत्तरदायित्व खासकर योगदर्शनके ..
उपर होनेके कारण अन्य दर्शनकारोंने अपने अपने सूत्र ग्रन्थोंमें थोडासा योगविचार करके विशेष जानकारीके लिये जिज्ञासुओंको योगदर्शन देखनेकी सूचना दे दी है। पूर्वमीमांसामें महर्षि जैमिनिने योगका निर्देश तक नहीं किया है सो ठीक ही है, क्यों कि उसमें सकाम कर्मकाण्ड अर्थात् धूम-मार्गकी ही मीमांसा है । कर्मकाण्डकी पहुंच
____8 ब्रह्मविद्योपनिपद्, क्षुरिकोपनिषद्, चूलिकोपनिषद्, नादबिन्दु, ब्रहाबिन्दु, अमृतबिन्दु, ध्यानबिन्दु, ... तेजोविन्दु, योगशिखा, योगतत्त्व, हंस इत्यादि । देखो हुसेनकृत-Philosphy of the Upanishads . . .
-प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगगः । गौ० सू० १, १, १॥-धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां . पदार्थानां साधर्म्यवैधाभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम् ॥ वै० सू० १, १,४॥ अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्त- । पुरुषार्थः। सां० द. १, १॥-पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति।... यो० सू० ४, ३३ ॥ अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् । व्र, सू. ४, ४,२२ ।-सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि . . : मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थ सू० १-१ जैन० द० ।-बौद्ध दर्शनका तीसरा निरोध नामक आर्यसत्य ही मोक्ष है। .
-1 समाधिविशेषाभ्यासात् ४-२-३८ । अरण्यगुहापुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः ४-२-४२ । तदर्थ यमनियमाभ्यासात्मसंस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः ४-२-४६॥
2 अभिपेचनोपवासब्रह्मचर्यगुरुकुलवासवानप्रस्थयशदानप्रोक्षणदिनक्षत्रमन्त्रकालनियमाश्चादृष्टाय । ६-२ : ... -२ । अयतस्य शुचिभोजनादभ्युदयो न विद्यते, नियमाभावाद्, विद्यते वाऽन्तरत्वाद् यमस्य । ६-२-८ ।
3 रागोपहतिर्ध्यानम् ३-३० । वृत्तिनिरोधात् तसिद्धिः ३-३१ । धारणासनस्वकर्मणा तत्सिद्धिः । ३-३२ । निरोधश्छर्दिविधारणाभ्याम् ३-३३ । स्थिरसुखमासनम् ३-३४ ।
4 आसीनः संभवात् ४-१-७ । ध्यानाच्च ४-१-८ । अचलत्वं चांपेक्ष्य ४-१-९ । स्मरन्ति च... ४-१-१०। यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् ४-१-११। . . . '
5 योगशास्त्राच्चाध्यात्मविधिः प्रतिपत्तव्यः। न्यायदर्शन ४-२-४६ भाष्य।
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अंक १,
योगदर्शन'
वर्गतक ही है, मोक्ष उसका साध्य नहीं । और योगका उपयोग तो मोक्षके लिये ही होता है ।
जो योग उपनिषदोंमें सूचित और सूत्रोंमें सूत्रित है, उसीकी महिमा गीतामें अनेक रूपसे गाई गई है। उसमें योगकी तान कभी कर्मके साथ, कभी भक्तिके साथ और कभी शानके साथ सुनाई देती है1। उसके छठे
और तेरहवें अध्यायमें तो योगके मौलिक सब सिद्धान्त और योगकी सारी प्रक्रिया आ जाती है2 | कृष्णके द्वारा अर्जुनको गतिाके रूपमें योगशिक्षा दिला कर ही महाभारत सन्तुष्ट नहीं हुआ। उसके अथक स्वरको देखते हुए कहना पडता है कि ऐसा होना संभव भी न था । अत एव शान्तिपर्व और अनुशासनपर्वमें योगविषयक अनेक सर्ग वर्तमान हैं, जिनमें योगकी अथेति प्रक्रियाका वर्णन पुनरुक्तिकी परवा न करके किया गया है। उसमें बाणशय्यापर लेटे हुए भीष्मसे बार बार पूछनेमें न तो युधिष्ठिरको ही कंटाला आता है, और न उस सुपात्र धार्मिक राजाको शिक्षा देनेमें भीष्मको ही थकावट मालूम होती है।
योगवाशिष्ठका विस्तृत महल तो योगकी ही भूमिकापर खडा किया गया है । उसके छह4 प्रकरण मानों उसके सुदीर्घ कमरे हैं, जिनमें योगसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी विषय रोचकतापूर्वक वर्णन किये गये हैं । योगकी जो जो बातें योगदर्शनमें संक्षेपमें कही गई हैं, उन्हींका विविधरूपमें विस्तार करके ग्रन्थकारने योगवाशिष्ठका कलेवर बहुत बढा दिया है, जिससे यही कहना पडता है कि योगवाशिष्ठ योगका ग्रन्थराज है।।
पुराणमें सिर्फ पुराणशिरामीण भागवतको ही देखिये, उसमें योगका सुमधुर पद्योंमे पूरा वर्णन है ।
योगविषयक विविध साहित्यसे लोगोंकी साचि इतनी परिमार्जित हो गई थी कि तान्त्रिक संप्रदायवालोंने भी तन्त्रग्रन्थों में योगको जगह दी, यहां तक कि योग तन्त्रका एक खासा अंग बन गया। अनेक तान्त्रिक ग्रन्थोंमें योगकी चर्चा है, पर उन सबमें महानिर्वाणतन्त्र, पट्रचक्रनिरूपण आदि मुख्य हैं।
1 गीताके अठारह अध्यायोंमें पहले छह अध्याय कर्मयोग प्रधान, बीचके छह अध्याय भक्तियोग प्रधान और अंतिम छह अध्याय ज्ञानयोग प्रधान हैं।
2 योगी युजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥ १०॥
शुची देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः। नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥११॥ तत्रैकामं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः। उपविश्यासने युज्याद् योगमात्मविशुद्धये ॥ १२ ॥ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं खं दिशश्चानवलोकया॥१३॥ प्रशान्तात्मा विगतभीब्रह्मचारिव्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः |१४|| अ०६
3 शान्तिपर्व १९३, २१७, २४६, २५४, इत्यादि । अनुशासनपर्व ३६, २४६ इत्यादि । 4 वैराग्य, मुमुक्षुन्यवहार, उत्पत्ति, स्थिति, उपशम और निर्वाण | 5 स्कन्ध ३ अध्याय २८; स्कन्ध ११अ० १५, १९, २० आदि। 6 देखो महानिर्वाणतन्त्र ३ अध्याय । देखो षट्चक्रनिरूपणऐक्यं जीवात्मनोराहुर्योगं पोगविशारदाः। शिवात्मनोरभेदेन प्रतिपत्ति परे विदुः ॥ पृष्ट ८२
Tantrik Texts में छपा हुआ । समत्वभावनां नित्यं जीवात्मपरमात्मनोः । समाधिमाहुर्मुनयः प्रोक्तमष्टाङ्गलक्षणम् ॥ पृ० ९१,, यदत्र नात्र निर्भासः स्तिमितोदधिवत् स्मृतम् । स्वरूपशून्यं यदू ध्यानं तत्समाधिर्विधीयते ॥ पृ० ९० त्रिकोणं तस्यान्तः स्फूरति च सततं विद्युदाकाररूपं । तदन्तः शून्यं तत् सकलसुरगणैः सेवितं चातिगुप्तम् ।। पृ. ६०,
"आहारनिहर्हारविहारयोगाः सुसंवता धर्मविदा तु कार्याः। पृ.६१.. ध्यै चिन्तायाम् स्मृतो धातुश्चिन्ता तत्त्वेन निश्चला । एतद् ध्यानमिह प्रोक्तं सगुणं निर्गुणं द्विधा । सगुणं वर्णभेदेन निर्गुणं केवलं तथा ॥ पृ० १३४,,
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[ खंड २
जब नदीमें बाढ आती है तब वह चारों ओरसे बहने लगती है। योगका यही हाल हुवा, और वह आसन, मुद्रा, प्राणायाम आदि बाह्य अंगों में प्रवाहित होने लगा । बाह्य अंगोंका भेद प्रभेद पूर्वक इतना अधिक वर्णन किया गया और उसपर इतना अधिक जोर दिया गया कि जिससे यह योगकी एक शाखा ही अलग बन गई, जो हठयोगके नामसे प्रसिद्ध है ।
१०]
जैन साहित्य संशोधक
हठयोगके अनेक ग्रंथोंमें हठयोगप्रदीपिका, शिवसंहिता, घेरंडसंहिता, गोरक्षपद्धति, गोरक्षशतक आदि मन्थ प्रसिद्ध हैं, जिनमें आसन, वन्ध, मुद्रा, षट्कर्म, कुंभक, रेचक, पूरक आदि बाह्य योगांगों का पेट भर भरके वर्णन किया है; और घेरण्डने तो चौरासी आसनको चौरासी लाख तक पहुंचा दिया है ।
उक्त हठयोगप्रधान ग्रन्थोंमें हठयोगप्रदीपिका ही मुख्य है, क्यों कि उसीका विषय अन्य ग्रन्थोंमें विस्तार रूपसे वर्णन किया गया है। योगविषयक साहित्यके जिज्ञासुओंको योगतारावली, बिन्दुयोग, योगबीज और योगकल्पमका नाम भी भूलना न चाहिये । विक्रमकी सत्रहवी शताब्दी में मैथिल पण्डित भवदेवद्वारा रचित योगनिवन्ध नामक हस्तलिखित ग्रन्य भी देखनेमें आया है, जिसमें विष्णुपुराण आदि अनेक ग्रन्थोंके हवाले देकर योगसम्बन्धी प्रत्येक विषय पर विस्तृत चर्चा की गई है ।
संस्कृत भाषामें योगका वर्णन होनेसे सर्व साधारणकी जिज्ञासाको शान्त न देखकर लोकभाषाके योगियोंने भी अपनी जवानमें योगका आलाप करना शुरू कर दिया।
महाराष्ट्रीय भाषा में गीताकी ज्ञानदेवकृत ज्ञानेश्वरी टीका प्रसिद्ध है, जिसके छट्ठे अध्यायका भाग बडा ही हृदयहारी है। निःसन्देह ज्ञानेश्वरी द्वारा ज्ञानदेवने अपने अनुभव और वाणीको अवन्ध्य कर दिया हैं। सुहींगेवा अंबिये रचित नाथसम्प्रदायानुसारी सिद्धान्तसंहिता भी योगके जिज्ञासुओंके लिये देखनेकी वस्तु है ।
कबीरका बीजक ग्रन्य योगसम्बन्धी भाषासाहित्यका एक सुन्दर मणका है ।
अन्य योगी सन्तोंने भी भाषा में अपने अपने योगानुभवकी प्रसादी लोगोंको चखाई है, जिससे जनताका बहुत बडा माग योगके नाम मात्रसे मुग्ध बन जाता है।
अत एव हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि प्रसिद्ध प्रत्येक प्रान्तीय भाषांम पातञ्जल योगशास्त्रका अनुवाद तथा विवेचन आदि अनेक छोटे बडे ग्रन्थ बन गये है । अंग्रेजी आदि विदेशीय भाषामें भी योगशास्त्रका अनुवाद आदि बहुत कुछ बन गया है 1, जिसमें वूडका भाष्यटीका सहित मूल पातञ्जल योगशास्त्रका अनुवाद विशेष उल्लेख योग्य है ।
जैन सम्प्रदाय निवृत्ति - प्रधान है। उसके प्रवर्तक भगवान् महावीरने बारह सालसे अधिक समय तक मोन धारण करके सिर्फ आत्मचिन्तनद्वारा योगाभ्यासमें ही मुख्यतया जीवन बिताया। उनके हजारों शिष्य 2 तो ऐसे में जिन्होंने घरवार छोड कर योगाभ्यासद्वारा साधुजीवन विताना ही पसंद किया था ।
जैन सम्प्रदायके मौलिक ग्रन्य आगम कहलाते हैं। उनमें साधुचर्याका जो वर्णन है, उसको देखने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि पांच यमः तप, स्वाध्याय आदि नियमः इन्द्रिय-जय - रूल प्रत्याहार इत्यादि जो योगके खास अड़ हैं, उन्हींको, साधुजीवनका एक मात्र प्राण माना है ।
1 प्रो० राजेन्द्रलाल मित्र, स्वामी विवेकानंद, श्रीयुत रामप्रसाद आदि कृत । 2 " चउद्दसहिं समणसाहस्तीहिं छत्तीसाहिं अजिआसाहस्तीहि " उववादसूत्र |
3 देखो आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, मूलाचार, आदि ।
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अंक १]
बोगदर्शन
[१६
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जैनशास्त्रमें योगपर यहां तक भार दिया गया है कि पहले तो वह मुमुक्षुओंको आत्मचिंतनके सिवाय दुसरे कार्याने प्रवृत्ति करनेकी संमति ही नहीं देता; और अनिवार्य रूपसे प्रवृत्ति करनी आवश्यक हो तो.वह निवृत्तिमय : प्रवृत्ति. करनेको कहता है । इसी निवृत्तिमय प्रवृत्तिका नामा उसमें अष्टप्रवचनमाता1. है । साधुजीवनकी दैनिक और रात्रिक चर्या में तीसरे प्रहरके सिवाय अन्य तीनों प्रहरोंमें मुख्यतया स्वाध्याय और ध्यान करनेको ही कहा गया है21.
यह बात भूलनी. न चाहिये कि जैन आगों में योगअर्थमें प्रधानतया ध्यानशब्द प्रयुक्त है। ध्यानके लक्षण, भेद प्रभेद, आलम्बन आदिका विस्तृत वर्णन अनेक जैन आगों में है। आगमके बाद नियुक्तिका नंबर है। उसमें भी आगमगत ध्यानका ही स्पष्टीकरण है । वाचक उमास्वाति कृत तत्त्वार्थसूत्रमें 5 भी ध्यानका वर्णन है, पर उसमें आगम और नियुक्तिकी अपेक्षा कोई अधिक बात नहीं हैं । जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणका ध्यानशतक6 आगमादि उक्त अन्यों में वर्णित ध्यानका स्पष्टीकरण मात्र है। यहां तकके योगविषयक जैन विचारों में आगमोक्त वर्णनकी शैली ही प्रधान रही हैं । पर इस शैलीको श्रीमान् हरिभद्रसूरिने एकदम बदलकर तत्कालिन परिस्थिति व लोकरुचीके अनुसार नवीन परिभाषा दे कर और वर्णनशैली अपूर्वसी बनाकर जैन योग-साहित्यमें नया युग उपस्थित किया। इसके सबूतमें उनके बनाये हुए योगबिन्दु, योगदृष्टीसमुच्चय, योगविंशिका, योगशतका, षोडशक ये अन्य प्रसिद्ध है। इन अन्योंमें उन्होंने सिर्फ जैन-मार्गानुसार योगका वर्णन करके ही संतोष नहीं माना है, किन्तु पातंजल योगसूत्रमें वर्णित योगप्रक्रिया और उसकी खास परिभाषाओंके साथ जैन संकेतोंका मिलान भी किया है । योगदृष्टि समुच्चयमें योगकी आठ दृष्टियोंका जो वर्णन है, वह सारें योगसाहित्यमें एक नवीन दिशा है।
श्रीमान् हरिभद्रसूरिके योगविषयक ग्रन्थ उनकी योगाभिरुचि और योगविषयक व्यापक बुद्धिके खासे नमुने हैं।
इसके बाद श्रीमान् हेमचन्द्रसूरिकृत योगशास्त्रका नंबर आता है। उसमें पातञ्जल-योगशास्त्र निर्दिष्ट आठ योगांगोंके क्रमसे साधु और गृहस्थ जीवनकी आचार-प्रक्रियाका जैन शैलीके अनुसार वर्णन है, जिसमें आसन तथा
1 देखो उत्तराध्ययन अ० २४ । 2 दिवसस्स बउरो भाए, कुन्ना भिक्खु विअक्खणो । तओ उत्तरगुणे कुना, दिणभागेसु चउसुः वि ॥११॥
पढम पोरिसि सज्झायं, बिइअंझाणं झिआयइ । तइआए गोअरकालं, पुणो चउत्थिए सज्झायं ॥१२॥ रति पिचउरो भाए, भिक्खु कुजा विअक्खणो। तओ उत्तरगुणे कुजा, राईभागेसु चउसु वि ॥१७॥
पढमं पोरिसि सज्झायं, बिइअं झाणं झिआयइ ।
तइआए निद्दमोक्खं तु, चउथिए भुजो वि सज्झायं ॥ १८॥-उत्तराध्ययन अ० २६ । 3 देखो स्थानाङ्ग अ० ४ उद्देश १ । समवायाङ्ग स० ४ । भगवती शतक २५-उद्देश ७ । उत्तराध्ययन अ. ३:०, गा० ३५1 4 देखो आवश्यकनियुक्ति कायोत्सर्ग, अध्ययन गा. १४६२-१४८६ ।
5 देखो अ०. ९ सू० २७ से आगे। 6 देखो हारिभद्रीय आवश्यक वृत्ति प्रतिक्रमणाध्ययन पृ० ५८१ 7 यह अन्य जैन ग्रन्थावलिमें उल्लिखित है ,पृ० ११३ ।
8 समाधिरेष एवान्यैः संप्रशातोऽभिधीयते । सम्यक्प्रकर्शरूण वृत्यर्थशानतस्तथा ॥ ४.१८ ॥ असंप्रशात एषोऽपि समाधिर्गीयते परैः । निरुद्धाशेषवृत्यादितत्स्वरूपानुवेधतः ।। ४२० ।। इत्यादि, योगबिन्दु ।
9 मित्रा तारा बला दिप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा । नामानि योगदृष्टींनां लक्षणं च निबोधत ॥ १३ ॥
इन आठ दृष्टियोका स्वरूप, दृष्टान्त आदि विषय, योगजिज्ञासुओंके लिये देखने योग्य है। इसी विषयपर यशोविजयजीने २१, २२, २३, २४ ये चार'द्वात्रिशिंकायें लिखी हैं। साथ ही उन्होंने संस्कृत'न जाननेवालोंके हितार्थ आठ दृष्टियोंकी सज्झाय भी गुजराती भाषामें बनाई है।
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१२]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
प्राणायामसे संबन्ध रखनेवाली अनेक बातोंका विस्तृत स्वरूप है; जिसको देखनेसे यह जान पडता है कि तत्कालीन लोगोंमें हठयोग-प्रक्रियाका कितना अधिक प्रचार था । हेमचन्द्राचार्यने अपने योगशास्त्रमें हरिमद्रसूरिके योगविषयक ग्रन्थोंकी नवीन परिभाषा और रोचक शैलीका कहीं भी उल्लेख नहीं किया है, पर शुभचन्द्रचार्यके शानार्णवगत पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ, और रूपातीत ध्यानका विस्तृत व स्पष्ट वर्णन किया है11 अन्तमें उन्होंने स्वानुभवसे विक्षित, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन ऐसे मनके चार भेदोंका वर्णन करके नवीनता लानेका भी खास कौशल दिखाया है21 निस्सन्देह उनका योगशास्त्र जैन तत्त्वज्ञान और जैन आचारका एक पाठ्य ग्रन्थ है।
इसके बाद उपाध्याय-श्रीयशोविजयकृत योगग्रन्थोंपर नजर ठहरती है। उपाध्यायीका शास्त्रज्ञान, तर्ककौशल और योगानुभव बहुत गम्भीर था। इससे उन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिपद तथा सटीक बत्तीस बत्तीसीयाँ योग संबन्धी विषयोंपर लिखी हैं, जिनमें जैन मन्तव्योंकी सूक्ष्म और रोचक मीमांसा करनेके उपरांत अन्य दर्शन और जैनदर्शनका मिलान भी किया है । इसके सिवा उन्होंने हरिभद्रसूरिकृत योगविशिका तथा घोडशकपर टीका लिख कर प्राचीन गूढ तत्त्वोंका स्पष्ट उद्घाटन भी किया है। इतना ही करके वे सन्तुष्ट नहीं हुए, उन्होंने महर्षि पतञ्जलिकृत योगसूत्रोंके उपर एक छोटीसी वृत्ति भी लिखी है | यह वृत्ति जैन प्रक्रियाके अनुसार लिखी हु
॥ हुई है, इसलिये उसमें यथासंभव योगदर्शनकी भित्ति-स्वरूप सांख्य-प्रक्रियाका जैनप्रक्रियाके साथ मिलान भी किया है, और अनेक स्थलोंमें उसका सयुक्तिक प्रतिवाद भी किया है । उपाध्यायजीने अपनी विवेचनामें जो मध्यस्थता, गुणग्राहकता, सूक्ष्म समन्वयशक्ति और स्पष्टभापिता दिखाई है। ऐसी दूसरे आचार्यों में बहुत कम नजर आती है।
एक योगसार नामक ग्रन्थ भी श्वेताम्बर साहित्यमें है । फर्ताका उल्लेख उसमें नहीं है, पर उसके दृष्टान्त आदि वर्णनसे जान पड़ता है कि हेमचन्द्राचार्यके योगशास्त्रके आधारपर किसी श्वेताम्बर आचार्यके द्वारा वह रचा गया है । दिगम्बर साहित्यमें ज्ञानार्णव तो प्रसिद्ध ही है, पर ध्यानसार और योगप्रदीप ये दो हस्तलिखित ग्रन्थ भी हमारे देखनेमें आये हैं, जो पद्यबन्ध और प्रमाणमें छोटे हैं। इसके सिवाय श्वेताम्बर दिगम्बर संप्रदायके योगविषयक ग्रन्याका कुछ विशेप परिचय जैन ग्रन्थावाल पृ० १०६ से भी मिल सकता है । बस यहां तकहीम जैन योगसाहित्य समाप्त हो जाता है।
बौद्ध सम्प्रदाय भी जैन सम्प्रदायकी तरह निवृत्तिप्रधान है । भगवान् गौतम बुद्धने बुद्धत्व प्रास होनेसे पहले छह वर्पतक मुख्यतया ध्यानद्वारा योगाभ्यास ही किया। उनके हजारों शिष्य भी उसी मार्ग पर चले । मौलिक बौद्धग्रन्थों में जैन आगोंके समान योग अर्थमें बहुधा ध्यान शब्द ही मिलता है, और उनमें ध्यानके
1 देखो प्रकाश ७-१० तक। 2 १२ वॉ प्रकाश श्लोक २-३-४ । 3 अध्यात्मसारके योगाधिकार और ध्यानाधिकारमें प्रधानतया भगवद्गीता तथा पातञ्जलसूत्रका उपयोग करके अनेक जैनप्रक्रियाप्रसिद्ध ध्यानविषयोंका उक्त दोनों ग्रन्गोंके साथ समन्वय किया है, जो बहुत ध्यानपूर्वक देखने योग्य है । अध्यात्मोपनिषद्के शास्त्र, ज्ञान, क्रिया और साम्य इन चारों योगोंमें प्रधानतया योगवाशिष्ठ तथा तैत्तिरयि उपनिषदके वाक्योंका अवतरण दे कर तात्त्विक ऐक्य बतलाया है। योगावतार बत्तीसीमें खास कर पातज्जल योगके पदार्थोंका जैन प्रक्रियाके अनुसार स्पष्टीकरण किया है।
4 इसके लिये उनका ज्ञानसार ग्रन्थ जो उन्होंने अंतिम जीवनमें लिखा मालुम होता है वह ध्यानपूर्वक देखना चाहिए । शास्त्रवार्तासमुच्चयकी उनकी टीका (पृ. १०) भी देखनी आवश्यक है।
5 इसके लिए उनके शास्त्रवार्तासमुच्चयादि ग्रन्थ ध्यानपूर्वक देखने चाहिए, ओर खास कर उनकी पातञ्जल सूत्रवृत्ति मननपूर्वक देखनेसे हमारा कथन अक्षरशः विश्वसनीय मालूम पडेगा ।
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अंक
योगदर्शन
चार भेद नजर आते हैं । उक्त चार भेदके नाम तथा भाव प्रायः वही हैं, जो जनदर्शन तथा योगदर्शनकी प्रक्रियाम हैं1 | बोंद्ध सप्रदायमें समाधि राज नामक ग्रन्थ भी हैं । वैदिक, जैन और बौद्ध संप्रदाय योगविषयक साहित्यका हमने बहुत' संक्षपमें अत्यावश्यक परिचय कराया है, पर इसके विशेष परिचयके लिये-कॅट्लोगस् कॅटलॉगॉरम् 2, वो० १ पृ. ४७७ से ४८१ पर जो योगविषयक ग्रन्योंकी नामावलि है वह देखने योग्य है।
___ यहां एक बात खास ध्यान देनेके योग्य है, वह यह कि यद्यपि वैदिक साहित्यमें अनेक जगह हठयोगकी प्रथाको अग्राह्य कहा है, तथापि उसमें हठयोगकी प्रधानतावाले अनेक ग्रन्थोंका और मार्गोंका निर्माण हुआ है । इसके विपरीत जैन और बौद्ध साहित्यमें हठयोगने स्थान नहीं पाया है, इतना ही नहीं, बल्कि उसमें हठयोगका स्पष्ट निषेध भी किया है।
1. सो खो अहं ब्राह्मण विविच्चेव कामेहि विविंच अकुसलहि' धम्मेहि सवितकं सविचारं विवेकजं पीर्तिसु खं पढमज्झानं उपसंपज्ज विहार्सि; वितकविचारानं वूपसमा अज्झत्तं संपसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितकं अविचारं समाधिज पीतिसुखं दुतियज्झानं उपसंपज्ज विहासि; पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहासि सतो. च संपजानो सुखं च कायेन पटिसंवेदसि, यं तं अरिया आचिक्खन्ति-उपेक्खको सतिमा सुखविंहारीऽति ततियज्झानं उपसंपज विहासि; सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बऽव सोमनस्स दोमनस्सानं अत्यंगमा अदुक्खमसुखं उपेक्सासति पारिसुद्धिं चतुत्थज्झानं उपसंपज मज्झिमनिकाये भयभेखसुत्तं विहासिं ।
इन्हीं चार ध्यानॉका वर्णन दीघनिकाय सामञकफलसुतमें है । देखो प्रो. सि. वि. राजवाडे कृत मराठी अनुवाद पृ. ७२।
यही विचार प्रो. धर्मानंद कौशाम्बी लिखित बुद्धलीलासारसंग्रहमें है । देखो पृ १२८ ।
जैनसूत्रमें शुक्लध्यानके भेदोंका विचार है, उसमें उक्त सवितर्क आदि चार ध्यान जैसा ही वर्णन है। देखो तत्त्वार्य अ. ९ सू०४१-४४ ।
योगशास्त्रमें संप्रशात समाधि तथा समापत्तिओंका वर्णन है। उसमें भी उक्त सवितर्क निर्वितर्क आदि ध्यान जैसा ही विचार है। पा. सू. पा. १-१७, ४२, ४३, ४४ ।
2 थिआडोर आउफ्रेटकृत, लिप्झिगमें प्रकाशित १८९१ की आवृत्ति । 3 उदाहरणार्थःसतीपु युक्तिष्वेतासु हठान्नियमयन्ति ये । चेतस्ते दीपमुत्सृज्य विनिम्नन्ति तमोऽअनैः ॥ ३७॥
विमूढाः कर्तमाक्ता ये हठाच्चेतसो जयम् । ते निबध्नन्ति नागेन्द्रमुन्मत्तं विसतन्ततुभिः॥३८॥ चित्तं चित्तस्य वाऽदूरं सस्थितं स्वशरीरकम् । साधयान्त समुत्सृज्य युक्ति ये तान्हतान् विदुः ॥ ३९ ॥
योगवाशिष्ठ-उपशम प्र. सर्ग ९२. ___4 इसके उदाहरणमें चौद्ध धर्ममें बुद्ध भगवान्ने तो शुरुमें कष्टप्रधान तपस्याका आरंभ करके अंतमें मध्यमप्रतिपदा मार्गका स्वीकार किया है-देखो बुद्धलीलासारसंग्रह,
जैनशास्त्रमें श्रीभद्रबाहुस्वामिने आवश्यकनियुक्तिमें " ऊसासं ण णिरंभइ" १५२० इत्यादि. उक्तिने हठयोगका ही निराकरण किया है। श्रीहेमचन्द्राचार्यने भी अपने योगशास्त्रमें
"तन्नाप्नोति मनःस्वास्थ्यं प्राणायामैः कदार्थतं । प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यात् चित्तविप्लवः ॥" इत्यादि उक्तिसे उसी बातको दोहराया है। श्रीयशोविजयजीने भी पातञ्जलयोगसूत्रकी अपनी वृत्तिमें (१-३४) प्राणायामको योगका आनिश्चित साधन कह कर हठयोगका ही निरसन किया है।
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१४]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
___योगशास्त्र-ऊपरके वर्णनसे मालूम हो जाता है कि-योगप्राक्रियाका वर्णन करनेवाले छोटे वडे अनेक ग्रन्थ हैं । इन सब उपलब्ध ग्रन्थों में महर्षि पतञ्जलिकृत योगशास्त्रका आसन ऊंचा है। इसके तीन कारण है -१ ग्रन्थकी संक्षिप्तता तथा सरलता, २ विषयकी स्पष्टता तथा पूर्णता, ३ और मध्यस्थभाव तथा अनुभवसिद्धता यही कारण है कि योगदर्शन यह नाम सुनते ही सहसा पातञ्जल योगसूत्रका स्मरण हो आता है । श्रीदांकराचार्यने अपने ब्रह्मसूत्रभाष्यमें योगदर्शनका प्रतिवाद करते हुए जो " अथ सम्यग्दर्शनाभपुपायो योगः " ऐसा उल्लेख किया है1, उससे इस बातमें कोई संदेह नहीं रहता कि उनके सामने पातञ्जल योगशास्त्रसे भिन्न दूसरा कोई योगशास्त्र रहा है। क्यों कि पातञ्जल योगशास्त्रका आरम्भ “अथ योगानुशासनम्" इस सूत्रसे होता है, और उक्त भाष्योल्लिखित वाक्यमं भी ग्रन्थारम्भसूचक अथ शब्द है, यद्यपि उक्त भाष्यमें अन्यत्र और भी योगसम्बन्धी दो उल्लेख है2 जिनमें एक तो पातञ्जल योगशास्त्रका संपूर्ण सूत्र ही है। और दूसरा उसका अविकल सूत्र नहीं, किन्तु उसके सूत्रते मिलता जुलता है4 | तथापि " अथ, सम्यग्दर्श नाभ्युपायो योगः " इस उल्लेखनी शब्दरचना और स्वतन्त्रताकी और ध्यान देनेसे यही कहना पडता है कि पिछले दो उल्लेख भी उसी भिन्न योगशास्त्रके होने चाहिये, जिसका अंश " अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः " यह वाक्य माना जाय । अस्तु, जो कुछ हो, आज हमारे सामने तो पतञ्जालका ही योगशास्त्र उपस्थित है,
और वह सर्वप्रिय है; इसलिये बहुत संक्षेपमें भी उसका बाह्य तथा आन्तरिक परिचय कराना अनुपयुक्त न होगा।
इस योगशास्त्रके चार पद और कुल १९५ सूत्र हैं। पहले पादका नाम समाधि, दूसरेका साधन, तीसरेका विभूति, और चोथेका कैवल्यपाद है । प्रथमपादमें मुख्यतया योगका स्वरूप, उसके उपाय और चित्त स्थिरताके उपायोंका वर्णन है । दूसरे पादमें क्रियायोग, आठ योगाङ्ग, उनके फल तथा चतुर्दूहका मुख्य वर्णन है ।।
तीसरे पादमें योगजन्य विभूतियोंके वर्णनकी प्रधानता है। और चौथे पादमें परिणामवादके स्थापन, विज्ञानवादके निराकरण तथा कैवल्य अवस्थाके स्वरूपका वर्णन मुख्य है । महर्षि पतञ्जालिने अपने योगशास्त्रकी नीव सांख्यसिद्धान्तपर डाली है। इसलिये उसके प्रत्येक पादके अन्तमें " योगशास्त्रे सांख्यप्रवचने " इत्यादि उल्लेख मिलता है। " सांख्यप्रवचने" इस विशेषणसे यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि सांख्यके सिवाय अन्यदर्शनके सिद्धांतोंके आधारपर भी रचे हुए योगशास्त्र उस समय
1 ब्रह्मसूत्र २-१-३ भाष्यगत ।
2 "स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः"ब्रह्मसूत्र १-३-३३ भाष्यगत | योगशास्त्रप्रसिद्धाः मनसः पश्च वृत्तयः परिगृह्यन्ते, " प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रासमृतयः नाम " २-४-१२ भाष्यगत ।
पं. वासुदेव शास्त्री अभ्यंकरने अपने ब्रह्मसूत्रके मराठी अनुवादके परिशिष्टमें उक्त दो उल्लेखोंका योगसूत्ररूपसे निर्देश किया है, पर " अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः " इस उल्लेखके संबंधमें कहीं भी ऊहापोह नहीं किया है।
8 मिलाओ पा. २ सू. ४४ । 4 मिलाओ पा. १ सू. ६। 5 हेय, हेयहेतु, हान, हानोपाय ये चतुर्वृह कहलाते हैं । इनका वणर्न सूत्र १६-२६ तकमें है ।
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अंक १]
योगदर्शन
[ १५
A
shrammam
मौजुद थे या रचे जाते थे। इस योगशास्त्रके ऊपर अनेक छोटे बडे टीका ग्रन्थ1 हैं, पर व्यासकृत भाष्य और याचस्पतिकृत टीकासे उसकी उपादेयता बहुत बढ़ गई है।
सब दर्शनाके अन्तिम सायके सम्बन्ध विचार किया जाय तो उसके दो पक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। प्रथम पक्षका अन्तिम साध्य शाश्वत सुख नहीं है । उसका मानना है कि मुक्ति, शाश्वत सुख नामक कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, उसमें जो कुछ है यह दुःखकी आत्यन्तिक निवृत्ति ही । दूसरा पक्ष शाश्वतिक सुखलाभको ही मोक्ष कहता है । ऐसा मोक्ष हो जानेपर दुःखकी आत्यन्तिक निवृत्ति आप ही आप हो जाती है। वैशेषिक नेयायिक 2, सांख्य, योग4, और बौद्धदर्शन प्रथम पक्षके अनुगामी हैं । वेदान्त और जैनदर्शनी, दूसरे पक्षके अनुगामी है।
योगशास्त्रका विषय-विभाग उसके अन्तिमसाध्यानुसार ही है। उसमें गौण मुख्य रूपसे अनेक सिद्धान्तं प्रतिपादित है, पर उन सबका संक्षेपमै वर्गीकरण किया जाय तो उसके चार विभाग हो जाते हैं । १ हेय, २ हेय-हेतु, ३ हान, ४ हानोपाय । यह वर्गीकरण स्वयं सूत्रकारने किया है; और इसीसे भाष्यकारने योगशास्त्रको चतुयूहात्मक कहा है8) सांग्ख्यसूत्र में भी यही वर्गीकरण है । बुद्ध भगवान्ने इसी चतुर्दूहको आर्य-सत्य नामसे प्रसिद्ध किया है; और योगशास्त्रके आठ योगागांकी तरह उन्होंने चौथे आर्य-सत्यके साधनरूपसे आर्य अष्टाङ्गमार्गका उपदेश किया है।
दुःख हेय है10, अविद्या हेयका कारण है11, दुःखका आत्यन्तिक नाश हान है12, और विवेक ख्याति हानका उपाय है।
उक्त वर्गीकरणकी अपेक्षा दूसरी सीतिमे भी योगशास्त्रका विषय-विभाग किया जा सकता है । जिसस कि उसके मन्तव्यांका ज्ञान विशेष लष्ट हो। यह विभाग इस प्रकार है-१ हाता, २ ईश्वर, ३ जगत् , ४ संसारमौनका स्वरूप, और उसके कारण ।
१. हाता दुःन्वसे छुटकारा पानेवाले द्रष्टा अर्थात् चेतनका नाम है । योग-शास्त्रमें सांख्य14
1 व्यास कृत भाष्य, वाचस्पतिकृत तत्त्ववैशारदी टीका, भोजदेवकृत राजमार्तड, नागोजीभट्ट कृत वृत्ति, विज्ञानाभिक्षु कृत वार्तिक, योगचन्द्रिका, मणिप्रभा, भावागणेशीय वृत्ति, बालरामोदासीन कृत टिप्पण आदि ।
" तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः " न्यायदान १-१-२२ । 3 ईश्वरकृष्णकारिका १ 1 4 उसमें हानतत्व भान कर दुःखके आत्यन्तिक नाशको ही हान कहा है। 5 बुद्ध भगवानके तीसरे निरोध नामक आर्यसत्यका मतलब दुःख नाशसे है। 6 वेदान्त दर्शनमें ब्रह्मको सच्चिदानंदस्वरूप माना है, इसीलिये उसमें नित्यसुखकी अभिव्यक्तिका नाम हि मोक्ष है। 7 जैन दर्शनमें भी आत्माको सुखस्वरूप माना है, इसलिये मोशमें स्वाभविक सुखकी अभिव्यक्ति ही उस दर्शनको मान्य है।
8 यथा चिकित्साटावं चतुव्यूहम्-रोगो रोगहेतुरारोग्यं भैषज्यमिति, एवमिदमपि शास्र चतुर्दूहमेव । तद्यथा-संसारः संसारहेनुर्मोक्षो मोक्षोपाय इति । तत्र दुःखबहुलः संसारो हेयः । प्रधानपुरुषयोः संयोगो हेयहेतुः । संयोगस्यात्यन्तिकी निवृत्तिहानम् । हानोपायः सम्यग्दर्शनम् । पा० २ सू० १५ भाष्य ।
9 सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाचा, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि । बुद्धलीलासार संग्रह. पृ. १६० । 10 " दुःखं हेयमानागतम् "२-१६ यो. सू। 11 " द्रष्टुदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः २-१७ । " तत्य हेतुरविद्या" २-२४ यो. सू. ।
12 " तदभावात् संयोगाभावो हानं तद् दृशेः कैवल्यम् " २०-२६ यो. सू । 13 " विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः ॥२-२६. यो. सू । 14 " पुरुषबहुत्वं सिद्धं " ईश्वरकृष्णकारिका- १८ ।
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१६ ]
जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २
वैशेषिक 1- नैयायिक, बौद्ध, जैन 2 और पूर्णप्रज्ञ ( मध्व 3 ) दर्शनके समान द्वैतवाद अर्थात् अनेक चेतन माने गये हैं 4 |
योगशास्त्र चेतनको जैन दर्शनकी तरह देहप्रमाण अर्थात् मध्यमपरिमाणवाला नहीं मानता, और मध्वसम्प्रदायकी तरह अणुप्रमाण भी नहीं मानता 6 किन्तु सांख्य 7 वैशेपिक8, - नैयायिक और शांकरदान्तकी 9 तरह वह उसको व्यापक मानता है 10 |
इसी प्रकार वह चेतनको जैनदर्शनकी तरह 11 परिणामि नित्य नहीं मानता, और न बौद्ध दर्शनकी तरह उसको क्षणिक-अनित्य ही मानता है, किन्तु सांख्य आदि उक्त शेष दर्शनोंकी तरह 12 वह उसे कूटस्थ - नित्य मानता 13 है ।
२. ईश्वरके सम्बन्धमें योगशास्त्रका मत सांख्य दर्शनसे भिन्न है । सांख्य दर्शन नाना चेतनांके अतिरिक्त ईश्वरको नहीं मानता 14, पर योगशास्त्र सम्मत ईश्वरका स्वरूप नैयायिक - वैशेषिक आदि दर्शनों में माने गये ईश्वरस्वरूपसे कुछ भिन्न है । योगशास्त्रने ईश्वरको एक अलग व्यक्ति तथा शास्त्रोपदेशक माना है सहीं, पर उसने नैयायिक आदिकी तरह ईश्वरमें नित्यज्ञान, नित्यईच्छा और नित्यकृतिका सम्बन्धन मान कर इसके स्थान में
1 “व्यवस्थातो नाना” ३-२-२०. वैशेषिकदर्शन। 2" पुद्गलजी वास्त्वनेकद्रव्याणि " ५-५. तत्त्वार्थसूत्र - भाप्य । 3 जीवेश्वरभिदा चैव जडेश्वरभिदा तथा । जीवभेदो मिथश्चैव जवजविभिदा तथा ॥
मिथश्च जडभेदो यः प्रपञ्चो भेदपञ्चकः । सोऽयं सत्योऽप्यनादिश्च सादिश्चेन्नाशमाप्नुयात् ॥ - सर्वदर्शनसंग्रह पूर्णप्रज्ञदर्शन |
4
" कृतार्थ प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात् " २-२२ यो. सू. । 5 असंख्येयभागादिषु जीवानाम् " । १५ । “ प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत् " १६ - तत्त्वार्थसूत्र अ० ५ ।
6 देखो " उत्क्रान्तिगत्यागतीनाम् ” । ब्रह्मसूत्र २-३-१८ पूर्ण भाष्य । तथा मिलान करो अभ्यंकरशास्त्री कृत मराठी शांकरमाष्य अनुवाद भा, ४ पृ. १५३ टिप्पण ४.६ ।
7 " निष्क्रियस्य तदसम्भवात् " सां. सू. १ – ४९, निष्क्रियस्य - विभोः पुरुषस्य गत्यसम्भवात् --भाष्य विज्ञानभिक्षु ।
8 विभवान्महानाकाशस्तथा चात्मा । " ७-१-२२- वै. द. 1 9 देखो ब्र. सू. २-३ - २९. भाष्य । 10 इसलिये कि योगशास्त्र, आत्मस्वरूपके विषयमें सांख्यसिद्धान्तानुसारी है ।
11 “नित्यावस्थितान्यरूपाणि " ३ । “ उत्पादव्ययश्रीन्ययुक्तं सत्" । २९ । “ तद्भावाव्ययं नित्यम् ३० १ तत्त्वार्थसूत्र अ० ५ भाप्य सहित.
12 देखो ई० कृ० कारिका ६३ सांख्यतत्त्वकौमुदी । देखो न्यायदर्शन ४-१-१० | देखो ब्रह्मसूत्र २-१-१४ । २-१ - २७; शांकरभाष्य सहित ।
13 देखो योगसूत्र. “ सदाज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्य अपरिणामित्वात् " ४-१८ | " चितेरप्रतिसंक्रमायास्तदाऽकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनम् " ४ - २२ । तथा " द्वयी चेयं नित्यता, कूटस्थनित्यता, परिणामिनित्यता च । तत्र कूटस्थनित्यता पुरुपस्य, परिणामिनित्यता गुणानाम् " इत्यादि ४-३३ भाष्य ।
14 देखो सांख्यसूत्र १-९२ आदि ।
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'अकं १]
योगदर्शन
[१७
सत्त्वगुणका परमप्रकर्ष मान कर तदारा जगतउद्धारादिकी सब व्यवस्था घटा1 दी है।
३ योगशास्त्र दृश्य जगत्को न तो जैन, वैशेषिक, नैयायिक दर्शनोंकी तरह परमाणुका परिणाम मानता है, न शांकरखेदान्त दर्शनकी तरह ब्रह्मका विवर्त या ब्रहाका परिणाम ही मानता है, और न बौद्धदर्शनकी तरह शून्य या विशान्यत्मक ही मानता है: किन्तु सांख्य दर्शनकी तरह वह उसको प्रकृतिका परिणाम तथा अनादि --अनन्त-प्रवाइस्वरूप मानता है ।
४ योगशास्त्र में वासना क्लेश और कर्मका नाम ही संसार है, तथा वासनादिका अभाव अर्थात् चेतनके स्वरूपावस्थानका नाम मोक्ष है । उसमें संसारका मूल कारण अविद्या और मोक्षका मुख्य हेतु सम्यग्दर्शन अर्थात योगजन्य विवेकख्याति माना गया है ।
__महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टिविशालता-यह पहले कहा जा चुका है कि सांख्य सिद्धान्त और उसकी प्रक्रियाको ले कर पतञ्जलिने अपना योगशास्त्र रचा है, तथापि उनमें एक ऐसी विशेषता अर्थात् दृष्टिविशालता नजर आती है जो अन्य दार्शनिक विद्वानांमें बहुत कम पाई जाती है । इसी विशेषताके कारण उनका योगशास्त्र मानों सर्वदर्शनसमन्वय बन गया है। उदाहरणार्थ सांख्यका निरीश्वरवाद जब वैशेषिक, नैयायिक आदि दर्शनांके द्वारा अच्छी तरह निरस्त हो गया और साधारण लोक-स्वभावका झुकाव भी ईश्वरोपासनाकी ओर विशेष मालूम पडा, तत्र अधिकारिभेद तथा रूचिविचित्रताका विचार करके पतञ्जलिने अपने योगमार्गमें ईश्वरोपासनाको भी स्थान दिया, और ईश्वरके स्वरूपका उन्होंने निष्पक्ष भावसे ऐसा निरूपण4 किया है जो सबको मान्य हो सके।
पतञ्जलिने सोचा कि उपासना करनेवाले सभी लोगोंका साध्य एक ही है, फिर भी वे उपासनाकी भिन्नता और उपासनामें उपयोगी होनेवाली प्रतीकोंकी भिन्नताके व्यामोहमें अज्ञानवश आपस आपसमें लड मरते हैं, और इस धार्मिक कलहमें अपने साध्यको लोक भूल जाते हैं । लोगोंको इस अज्ञानसे हटा कर सतू. पथपर लानेके लिये उन्होंने कह दिया कि तुम्हारा मन जिसमें लगे उसीका ध्यान करो। जैसी प्रतीक तुम्हें पसंद आवे वैसी प्रतीककी5 ही उपासना करो, पर किसी भी तरह अपना मन एकाग्र व स्थिर करो, और तदद्वारा परमात्म-चिन्तनके सच्चे पात्र बनीं। इस उदारताकी मृर्तिस्वरूप मतभेदसहिष्णु आदेशके द्वारा पतञ्जलिने सभी उपासकांको योग-मार्गमें स्थान दिया, और ऐसा करके धर्मके नामसे होनेवाले कलहको कम कर
1 यद्यपि यह व्यवस्था मूल योगसूत्रमें नहीं है, परन्तु भाष्यकार तथा टीकाकारने इसका उपपादन किया है। देखो पातअल यो. पा.१ सू. २४ भाष्य तथा टकिा ।
2 तदा द्रष्टुः स्वरुपावस्थानम् । १-३ योगसूत्र । 3" ईश्वरप्रणिधानाद्वा" १-३३ ।
4 " क्लेशकर्मविपाकादायैरपरागृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः " " तत्र निरशितयं सर्वशीजम् " | " पूर्वेपामपि गुरुः कालेनाऽनवच्छेदात् " । (१-२४, २५, २६)
5 " यथाऽभिमतध्यानाद्वा" १-३९ इसी भावकी सूचक महाभारतमेंध्यानमुत्पादयत्यत्र, संहितावलसंश्रयात् | यथाभिमतमन्त्रण, प्रणवाद्यं जपेत्कृती॥ ( शान्तिपर्व प्र. १९४ श्लो. २०) यह उक्ति है । और योगवाशिष्ठमेंयथाभिवाञ्छितध्यानाच्चिरमेकतयोदितात। एकतत्वघुनाभ्यासात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥
(उपशम प्रकरण सर्ग ७८ श्लो. १६।) यह उक्ति है।
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जैन साहित्य संशोधक
१८ ]
नेका उन्होंने सच्चा मार्ग लोगोंको बतलाया । उनकी इस दृष्टिविशालताका असर अन्य गुण-ग्राही आचायोंपर भी पड़ा 1, और वे उस मतभेदसहिष्णुता के तत्त्वका मर्म समझ गये ।
[ खंड २
वैशेषिक, नैयायिक आदिकी ईश्वरविषयक मान्यताका तथा साधारण लोगोंकी ईश्वरविषयक श्रद्धाका योगमागमें उपयोग करके ही पतञ्जलि चुप न रहे, पर उन्होंने वैदिकेतर दर्शनोंके सिद्धान्त तथा प्रक्रिया जो योगमार्गके लिये सर्वथा उपयोगी जान पड़ी उसका भी अपने योगशास्त्रमें बडी उदारता से संग्रह किया । यद्यपि चौद्ध विद्वान् नागार्जुनके विज्ञानवाद तथा आत्मपरिणामित्ववादको युक्तिहीन समझ कर या योगमार्ग में अनुपयोगी समझ कर उसका निरसन चोयें पादमें किया 2 है. तथापि उन्होंने बुद्धभगवान् के परमप्रिय चार आर्यसत्योंका3 हेय, हेयहेतु, छान और हानोपाय रूपसे स्वीकार निःसंकोच भावसे अपने योगशास्त्र में किया है ।
""
1 पुष्पैश्च बलिना चैव वत्यैः स्तोत्रैश्च शोभनैः । देवानां पूजनं ज्ञेयं शौच श्रदासमन्वितम् ॥ अविशेषेण सर्वेषामधिमुक्तिवशेन वा । गृहिणां माननीया यत्सर्वे देवा महात्मनाम् ॥ सर्वान्देवान्नमस्यन्ति नैकं देवं समाश्रिताः । जितेन्द्रिया जितक्रोधा दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ चारिसंजीवनीचारन्याय एष सतां मतः नान्यथात्रेष्टसिद्धिः स्याद्विशेषेणादिकर्मणाम् ॥ गुणाधिक्यपरिज्ञानाद्विक्षेत्रेऽप्येवदिष्यते । अद्वेषेण तदन्येषां वृत्ताधिक्ये तथात्मनः ॥ योगबिन्दु श्रो. १६-२०
जो विशेषदर्शी होते हैं, वे तो कीसी प्रतीक विशेष या उपासना विशेषको स्वीकार करते हुए भी अन्य प्रकारकी प्रतीक माननेवालों या अन्य प्रकारकी उपासना करनेवालोंसे द्वेष नहीं रखते, पर जो धर्नाभिमानी प्रथमाधिकारी होते हैं वे प्रतीकभेद या उपासनाभेदके व्यामोहसे ही आपस में लड मरते हैं । इस अनिष्ट तत्त्वको दूर करनेके लिये ही श्रीमान् हरिभद्रसूरिने उक्त पद्योंमें प्रथनाधिकारीके लिये सत्र देवोंकी उपासनाको लाभदायक बतलानेका उदार प्रयत्न किया है। इस प्रयत्नका अनुकरण श्रीयशोविजयजीने भी अपनी " पूर्व सेवाद्वात्रिंशिका " " आठदृष्टियोंकी सज्झाय आदि ग्रन्थोंमें किया हैं । एकदेशीय सम्प्रदायाभिनिवेशी लोगोंको समजानेके लिये ' चारिसंजीवनीचार न्यायका उपयोग उक्त दोनों आचायोंने किया है । यह न्याय या मनोरञ्जक और शिक्षाप्रद है ।
::
इस समभावसूचक दृष्टान्तका उपनय श्रीशानविमलने आठदृष्टिकी मज्झाय पर किये हुए अपने पूजराती में बहुत अच्छी तरह घटाया है, जो देखने योग्य है । इसका भाव संक्षेपमें इस प्रकार है । कीसी चीने अपनी सखीसे कहा कि मेरा पति मेरे अधीन न होनेसे मुझे बडा कष्ट है । यह सुन कर उस 'आगन्तुक सन्नीने कोई जडी खिला कर उस पुरुषको बैल बना दिया, और वह अपने स्थानको चली गई । पतिके चैल वन जानेसे उसकी पत्नी दुःखित हुई, पर फिर वह पुरुषरूप बनानेका उपाय न जाननेके कारण उस बैलरूप पतिको चराया करती थी, और उसकी सेवा किया करती थी । कोसी समय अचानक एक विद्याधरके मुखसे ऐसा सुना कि अगर बैलरूप पुरुषको संजीवनी नामक जडी चराई जाय तो वह फिर असली रूप धारण कर सकता है । विद्याधरसे यह भी सुना कि वह जडी अमुक वृक्षके नीचे है। पर उस वृक्षके नीचे अनेक प्रकारकी वनस्पति होनेके कारण वह न्त्री संजीवनीको पहचानने में असमर्थ थी । इससे उस दुःखित स्त्रीने अपने बैल धारि पतिको सब वनस्पतियाँ चरा दीं । जिनमें संजीवनीको भी वह बैल चर गया। जैसे विशेष परीक्षा न होनेके कारण उस स्त्रीने सत्र वनस्पतियों के साथ संजीवनी खिला कर अपने पतिका कृत्रिम वैलरूप छुडाया, औरे असली मनुष्यत्वको प्राप्त कराया, वैसे ही विशेष परीक्षाविकल प्रथमाधिकारी भी सब देवोंकी समभावसे उपासना करते करते योगमार्गमें विकास करके इष्ट लाभ कर सकता है।
2 देखो सू० १५, १८ । उदुःख, समुदय, निरोध और मार्ग ।
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जैन दर्शनके साथ योगशास्त्रका सादृश्य तो अन्य सब दर्शनोंकी अपेक्षा अधिक ही देखनेमें आता है। यह यात स्पष्ट होनेपर भी बहुतोंको विदित ही नहीं है। इसका सबब यह है कि जैनदर्शनके खास अन्यासी ऐसे बहुत कम है जो उदारता पूर्वक योगशास्त्रका अवलोकन करनेवाले हों, और योगशास्त्रके खास अभ्यासी भी ऐसे बहुत कम हैं जिन्होंने जैनदर्शनका बारीकीसे ठीक ठीक अवलोकन किया हो । इसलिये इस विषयका विशेष खुलासा करना यहाँ अप्रासङ्गिक न होगा।
योगशास्त्र और जैनदर्शनका सादृश्य मुख्यतया तीन प्रकारका है। १ शब्दका, २ विषयका और ३ प्रक्रियाका ।
मूल योगसूत्रमें ही नहीं किन्तु उमके भाष्यतकमें ऐसे अनेक शब्द हैं जो जैनेतर दर्शनोंमें प्रसिद्भ नहीं है. या वहत कम प्रसिद्ध है, किन्तु जैन शास्त्र में खास प्रसिद्ध है । जैसे-भवप्रत्यय,1 सवितर्क-सविचारनिर्विचार2, महायत, कृत-कारित अनुमोदित4, प्रकाशावरण, सोपक्रम निरूपक्रम, वजसंहनना, केवली8, कुशल, शानावरणीयकर्मी0, सम्यग्शान,11 सम्यग्दर्शन,12 सर्वश,13 क्षीणक्लेश,15 चरमदेह 16 आदि ।
1"भवप्रत्ययो विदेप्रकृतिलयानाम् " योगसू. १-१९ | " भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् " तत्त्वार्थ अ. १-२२।
ध्यानविदोषरूप अयमें ही जैनशानमें ये शब्द इस प्रकार है "एकाश्रये सवितर्के पूर्वे" (तत्त्वार्थ अ. १-४३) " तत्र सविचारं प्रथमम् " भाष्य " अविचारं द्वितीयम् " तत्त्वा० अ० ९-४४ । योगसूत्रमें ये गन्द इस प्रकार आये है-" तत्र शब्दार्थशानविफल्मः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः " " स्मृतिपरिशुद्धा स्वरूपान्येवार्थमात्रनिभीसा निर्वितर्का" " एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविपया व्याख्याता" १-४२,
3 जनशास्त्रमें मुनिसम्बन्धी पाँच यमांके लिये यह शब्द बहुत ही प्रसिद्ध है। " सर्वतो विरतिमहातमिति तत्वार्थ" अ०७-२ भाष्य । यही दाब्द उसी अर्थमें योगसूत्र २-३१ में है ।
4 ये गन्द जिस भावके लिये योगसूत्र २-३१ में प्रयुक्त है, उसी भावमें जैनशास्त्रमें भी आते हैं, अन्नर सिर्फ इतना है कि जैनप्रन्याम अनुमोदितके स्थानमें बहुधा अनुमतशब्द प्रयुक्त होता है । देखोतन्वार्थ, अ. ६-९।
यत् शन्द्र योगसूत्र २-५२ तथा ३-४३ में है। इसके स्थानमें जैनशास्त्रमें 'शानावरण' शन्द प्रसिद्ध है । देग्यो तत्त्वार्थ, ६-११ आदि ।
ये शब्द योगसूत्र ३-२२ में हैं । जैन कर्मविषयक साहित्यमें ये शब्द बहुत प्रसिद्ध हैं । तत्त्वार्थमें भी इनका प्रयोग हुआ है, देखो-अ. २-५२ भाष्य ।
7 यह शब्द योगसूत्र ३-४६ में प्रयुक्त है। इसके स्थानमें जैन ग्रन्याम 'बजऋषभनाराचसंहनन' ऐसा शब्द मिलता है। देखो तत्त्वार्थ अ०८-१२ भाष्य ।
४ योगसूत्र २-२७ भाष्य. तत्त्वार्थ अ०६-१४। 9 देखो योगसूत्र २-२७ भाप्य, तथा दशर्वकालिकनियुक्ति गाथा १८६ । 10 देखो योगसूत्र २-१६ भाष्य, तथा आवश्यकनियुक्ति गाथा ८९३ । 1] योगसूत्र २-२८ भाष्य, तत्त्वार्थ अ० १-१ । 12 योगसूत्र ४-१५ भाष्य, तत्त्वार्थ अ० १-२ 13 योगमूत्र ३-४९ भाष्य, तत्वार्थ ३-४९।
14 योगसूत्र १-४ भाष्य । जैन शास्त्रमें बहुधा 'क्षीणमोह' 'क्षीणकषाय ' शन्द मिलते हैं। देखो तत्वार्य अ. ९-३८।
15 योगसूत्र २-४ भाभ्य, तत्त्वार्थ अ० २-५२
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जैन साहित्य संशोधक
२ प्रसुम, तनु आदिक्लेशावस्था 1, पाँच यम, 2 योगजन्य विभूति 3 सोपक्रम निरुपमक्रम कर्मका तथा उसके दृष्टान्त, अनेक कार्यों का निर्माण आदि ।
रूपः
२०]
[ खंड २
1 प्रसुप्त, तनु, विछिन्न और उदार इन चार अवस्थाओंका योगसूत्र २-४ में वर्णन है । जैनशान्त्रमें वही भाव मोहनीयकर्मकी सत्ता, उपशमक्षयोपशम विरोधिप्रकृतिके उदयादिकृत व्यवधान और उदयादत्थाके वर्णनरूपसे वर्तमान है । देखो यांगसूत्र २-४ की यशोविजयकृत वृत्ति |
2 पाँच यनौका वर्णन महाभारत आदि ग्रन्थों में है सही, पर उसकी परिपूर्णता " जातिदेशकालसम्याऽनवच्छिन्नाः सार्वभौमा महात्रतम् " योगसूत्र २-३१ में तथा दशकालिक अध्ययन ४ आदि जैनान्त्र पतिपादित महात्रतोंमें देखने में आती है ।
3 योगसूत्रके तीसरे पादमें विभूतियोंका वर्णन है, वे विभूतियाँ दो प्रकारकी हैं । १ वैज्ञानिक शारीरिक । अतीताऽनागतज्ञान, सर्वभूतरुतज्ञान, पूर्वजातिज्ञान, परीचत्तज्ञान, भुवनज्ञान, ताराव्यूहज्ञान, आदि ज्ञानविभूतियाँ हैं । अन्तर्धान हस्तिबल, परकायप्रवेश, अणिमादि ऐश्वर्य तथा रूपलावण्यादि कायसंपत्. इत्यादि शारीरिक विभूतियाँ है । जैनशास्त्र में भी अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, जातिस्मरणज्ञान, पूर्वज्ञान आदि ज्ञानलब्धियाँ हैं, और आमौंषधि विशुडपाध, श्लेष्माधि, सर्वोषधि, जंघाचारण-विद्याचारण, वैक्रिय, आहारक आदि शारीरिक लब्धियाँ हैं । देखो गा० ६९, ७० आवश्यकनियुक्ति लब्धि यह विभूतिका नामान्तर है ।
4 योगभाष्य और जैनग्रन्थोंमें सोपक्रम निरुपक्रम आयुष्कर्मका स्वरूप बिल्कुल एकसा है, इतना ही नहीं बल्कि उस स्वरूपको दिखाते हुए भाष्यकारने यो. सु. ३- २२ के भाग्य में आर्द्र वस्त्र और तृणराशिके जो दो दृष्टान्त लिखे हैं, वे आवश्यकनिर्युक्ति ( गाथा - ९५६ ) तथा विशेषावश्यक भाष्य ( गाथा - ३० ६१ ) आदि जैनशास्त्र में सर्वत्र प्रसिद्ध है, पर तत्त्वार्थ ( अ० - २५२ ) के भाष्यमें उक्त दो दृष्टान्तोंके उपरान्त एक गणितविषयक दृष्टान्त भी लिखा है । इस त्रिपयमें उक्त व्यासभाष्य और तत्त्वार्थभाग्यका शाब्दिक सादृश्य भी बहुत अधिक और अर्थसूचक है ।
" यथाऽऽर्द्रवन्त्रं वितानितं लघीयसा कालेन शुष्येत् तथा सोपक्रमम् । यथा च तदेव सर्पिण्डितं चिरेण मरुत्येद् एवं निरुपक्रमम् । यथा चानिः शुष्के कक्षे मुक्तो वातेन वा समन्ततो युक्तः क्षेपीयसा कालेन दहेतु तथा सोपक्रमम् । यथा वा स एवाऽग्निस्तृणराशौ क्रमशोऽवयवेषु न्यस्तश्विरेण दहेत् तथा निरुपक्रमम् " योग ३ - २२ भाष्य । यथाहि संहतस्य शुकस्यापि तृणराशेरवयवाः क्रमेण दह्यमानस्य चिरेण दाहो भवति, तस्यैव शिथिलप्रकीर्णोपचितस्य सर्वतो युगपदादीपितस्य पवनोपक्रमाभिहतस्याशु दाहो भवति तद्वत् । यथा वा संख्यानार्यः करणलाघवार्थ गुणकारभागहाराभ्यां गाीं छेदादेवापवर्तयति न च संख्येयस्यार्थस्याभावो भवति, तदुपक्रमाभिहतो मरणसनुद्घातदुःखार्त्तः कर्मप्रत्ययमनाभोगयोगपूर्वकं करणविशेषमुत्पाद्य फलोपभोगलाघवार्थ कर्मा
यति न चास्य फलाभाव इति ॥ किं चान्यत् । यथा वा घौतपटो जलार्द्र एव संहतश्विरेण शोषमुपयाति । स एव च वितानितः सूर्यरश्मिवाभिहतः क्षिप्रं शोषमुपयाति । " तत्त्वा० अ० २-५२ भाष्य ।
5 योगबलसे योगी जो अनेक शरीरोंका निर्माण करता है, उसका वर्णन योगसूत्र ४-४ में है, यही विषय वैक्रिय - आहारक - लब्धिरूपसे जैनग्रन्थोंमें वर्णित है ।
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अकं १]
योगदर्शन
३ परिणामि-नित्यता अर्थात् उत्पाद, व्यय, प्रौव्यरूपसे निरूप वस्तु मान कर तदनुसार धर्मधर्मीका विवेचन इत्यादि।
___ इसी विचारसमताके कारण श्रीमान हरिभद्र जैसे जैनाचायाँने महर्षि पतञ्जलिके प्रति अपना हार्दिक आदर प्रकट करके अपने योगविषयक ग्रन्थोंमें गुणग्राहकताका निर्भाक परिचय पूरे तोरसे दिया है2, और जगह जगह पतञ्जलिके योगशास्त्रगत खास साङ्केतिक शब्दोंका जैन सङ्केतोंके साथ मिलान करके सङ्कीर्णदृष्टिवालोंके लिये एकताका मार्ग खोल दिया है । जैन विद्वार यशोविजयवाचकने हरिभद्रसूरिसूचित एकताके मार्गको विशेष विशाल बनाकर पतञ्जलिके योगसूत्रको जैन प्रक्रियाके अनुसार समाझनेका थोडा किन्तु मार्मिक प्रयास किया है। इतना ही नहीं बल्कि अपनी बत्तीसियामें उन्होंने पतञ्चलिके योगसत्रगत कळ विधयोपर खास बत्तीसियाँ भी रची है51 इन सब बातोंको संक्षेपमें बतलानेका उद्देश्य यही है कि महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टिविशालता इतनी अधिक थी कि सभी दार्शनिक व साम्प्रदायिक विद्वान् योगशास्त्रके पास आते ही अपना साम्प्रदायिक अभिनिवेश भूल गये और एकरूपताका अनुभव करने लगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टि-विशालता उनके विशिष्ट योगानुभवका ही फल है, क्योंकि-जब कोई भी मनुष्य शब्द शानकी प्राथमिक भूमिकासे आगे बढ़ता है तब वह शब्दकी पूंछ न खींचकर चिन्ताज्ञान तथा भावनाज्ञानके6 उत्तरोत्तर अधिकाधिक एकतावाले प्रदेश में अभेद आनंदका अनुभव करता है।
आचार्य हरिभद्रकी योगमार्गमें नवीन दिशा-श्रीहरिभद्र प्रसिद्ध जैनाचार्यों में एक हुए । उनकी बहुश्रुतता, सर्वतोमुखी प्रतिभा, मध्यस्थता और समन्वयशक्तिका पूरा परिचय करानका यहाँ प्रसंग नहीं है। इसके लिए
1 जैनशास्त्रमें वस्तुको द्रव्यपर्यायस्वरूप माना है । इसीलिये उसका लक्षण तत्त्वार्थ (अ. ५-२९) में " उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" ऐसा किया है । योगसूत्र (३-१३, १४ ) में जो धर्मधर्मीका विचार है वह उक्त द्रव्यपर्यायउभयरूपता किंवा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इस त्रिरूपताका ही चित्रण है। भिन्नता सिर्फ दोनांमें इतनी ही है कि-योगसूत्र सांख्यसिद्धान्तानुसारी होनेसे "ऋते चितिशक्तः परिणामिनो भावाः "'यह सिद्धान्त मानकर परिणामवादका अर्थात् धर्मलक्षणावस्था परिणामका उपयोग सिर्फ जडभागमें अर्थात् प्रकृतिमें करता है, चेतनमें नहीं । और जैनदर्शन तो " सर्वे भावाः परिणामिनः " ऐसा सिद्धान्त मानकर परिणामवाद अर्थात् उत्पादन्ययरूप पर्यायका उपयोग जड चेतन दोनोंमें करता है। इतनी भिन्नता होनेपर भी परिणामवादकी प्रक्रिया दोनामें एक सी है।
2 उक्तं च योगमार्ग स्तपोनिधूतकल्मपैः । भावियोगहितायोञ्चैर्मोहदीपसमं वचः ॥
(योगवि. श्लो. ६६) टीका 'उक्तं च निरूपितं पुनः योगमार्गऊरध्यात्मविद्भिः पतञ्जलिप्रभृतिभिः ॥ "एतत्प्रधानः सयाद्धः शीलवार योगतत्परः । जानात्यतीन्द्रियानांस्तथा चाह महामतिः" ॥ (योगद्दीष्टसमुच्चय श्लो. १००) टीका ' तथा चाह महामतिः पतञ्जलिः'। ऐसा ही भाव गुणग्राही श्रीयशोविजयजीने अपनी योगावतारद्वात्रिंशिकामें प्रकाशित किया है । देखो-श्लो० २० टीका ।
3 देखो योगविन्दु श्लोक ४१८, ४२०। 4 देखो उनकी बनाई हुई पातञ्जलसूत्रवृत्ति ।
5 देखो पातञ्जलयोगलक्षणविचार, ईशानुग्रहविचार, योगावतार, क्लेशहानोपाय और योगमाहात्म्य द्वात्रिशिका।
6 शब्द, चिन्ता तथा भावनाशानका स्वरूप श्रीयशोविजयजीने अध्यात्मोपनिषद्में लिखा है, जो आध्यात्मिक लोगोंको देखने योग्य है। अध्यात्मोपनिषद् श्लो. ६५, ७४ ।
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२२]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड र
जिशासु महाशय उनकी कृतियोंको देख लेंवे । हरिभद्रसूरिकी शतमुखी प्रतिभाके खोत उनके बनाये हुए चार अनुयोगविषयक1 ग्राम ही नहीं बल्कि जैन न्याय तथा भातवीय तत्कालीन समग्र दार्शनिक सिद्धांतांकी चर्चावाले2 ग्रन्थों में भी बहे हुए हैं। इतना करके ही उनकी प्रतिभा मौन न हुई; उसने योगमार्गमें एक ऐसी दिशा दिखाई जो केवल जैन योगसाहित्यमें ही नहीं बल्कि आर्यजातीय संपूर्ण योगविषयक साहित्यमें एक नई वस्तु है। जैनशास्त्रमें आध्यात्मिक विकासके क्रमका प्राचीन वर्णन चौदह गुणस्थानरूपसे, चार ध्यान रूपसे और बहिरात्म आदि तीन अवस्थाओंके रूपसे मिलता है। हरिभद्रसूरिने उसी आध्यात्मिक विकासके क्रमका योगरूपसे वर्णन किया है। पर उसमें उन्होंने जो शैली रक्खी है वह अभीतक उपलब्ध योगविषयक साहित्यमसे किसी भी ग्रंथम कमसे कम हमारे दखनेमें तो नहीं आई है। हरिभद्रसर अपने ग्रन्थोंमें अनेक योगि. याँका नामनिर्देश करते हैं3, एवं योगविषयक ग्रन्थोंका उल्लेख करते हैं जो अभी प्राप्त भी नहीं हैं। संभव है उन अप्राप्य ग्रन्थों में उनके वर्णनकीसी शैली रही हो, पर हमारे लिये तो यह वर्णनशैली और योग विषयक वस्तु बिल्कुल अपूर्व है। इस समय हरिभद्रसूरिके योगविषयक चार ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं जो हमारे देखनेमें आये है। उनमसे पोडशक और योगविंशिकाके योगवर्णनकी शैली और योगवस्तु एक ही है। योगविंदुकी विचारसरणी और वस्तु योगविशिकासे जुदा है। योगदृष्टि समुञ्चयकी विचारधारा और वस्तु योगबिंदुसे भी जुदा है। इस प्रकार देखनेसे यह कहना पडता है कि हरिभद्रसूरिने एक ही आध्यात्मिक विकासके क्रमका चित्र भिन्न भिन्न ग्रन्थों में भिन्न भिन्न वस्तका उपयोग करके तीन प्रकारसे खींचा है।
कालकी अपरिमित लंबी नदीमें वासनारूप संसारका गहरा प्रवाह बहता है, जिसका पहला छोर [ मूल] तो अनादि है, पर दूसरा [ उत्तर ] छोर सान्त है । इसलिये मुमुक्षुओंके वास्ते सबसे पहले यह प्रश्न बडे महत्वका है कि उक्त अनादि प्रवाहमें आध्यात्मिक विकासका आरंभ कबसे होता है ? और उस आरंभके समय आत्माके लक्षण कैसे हो जाते हैं ? जिनसे कि आरंभिक आध्यात्मिक विकास जाना जा सके। इस प्रश्नका उत्तर आचार्यने योगविंद में दिया है। वे कहते है कि-" जब आत्माके ऊपर मोहका प्रभाव घटनेका आरंभ होता है तभीसे आध्यात्मिक विकासका सूत्रपात हो जाता है। इस सूत्रपातका पूर्ववर्ती समय जो आध्यात्मिकविकासरहित होता है, वह जैनशास्त्र में अचरमपुद्गलपरावर्तके नामसे प्रसिद्ध है। और उत्तरवर्ती समय जो आध्यात्मिक विकासके क्रमवाला होता है, वह चरमयुद्गलपरावर्तके नामसे प्रसिद्ध है। अचरमपुद्गलपरावर्तन और चरमपुद्गलपरावर्तनकालके परिमाणके बीच सिंधु और बिंदुका सा अंतर होता है। जिस आत्माका संसारप्रवाह चरमपुद्गलपरावर्तपरिमाण शेष रहता है, उसको जैन परिभाषामै 'अपुनर्बधक और सांख्यपरिभाषामै 'निवृत्ताधिकार प्रकृति ' कहते हैं। अघुनर्वन्धक या निवृत्ताधिकारप्रकृति आत्माका आंतरिक परिचय इतना ही है कि उसके ऊपर मोहका दबाव कम होकर उलटे मोहके ऊपर उस आत्माका दवाय शुरू होता है। यही आध्यात्मिक विका
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___1 द्रव्यानुयोगविषयक-धर्मसंग्रहणी आदि १, गणितानुयोगविषयक क्षेत्रसमास टीका आदि २, चरणकरणानुयोगविषयक-पञ्चवस्तु, धर्मबिंदु आदि ३, धर्मकथानुयोगविषयक-समराइचकहा आदि ४ ग्रन्थ मुख्य हैं।
2 अनेकान्तजयपताका, पड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि ।
3 गोपेन्द्र ( योगविन्दु श्लोक २०० ) कालातीत ( योगविन्दु श्लोक ३००)। पतञ्जलि, भदन्तभा• स्करबन्धु, भगवदन्त (त्त) वादी (योगदृष्टि० श्लोक १६ टीका )।
4 योग-निर्णय आदि (योगदृष्टि० श्लोक १ टीका) देखो मुक्त्यद्वेपद्वात्रिंशिका २८16देखो योगविंदु १७८, २०१।
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अंक १]
यागदर्शन
[२३
सका पीजारोपण है। यहींते योगमार्गका आरंभ हो बानेके कारण उस आत्माकी प्रत्येक प्रवृत्तिमै सरलता, नम्रता, उदारता, परोपकारपरायणता आदि सदाचार वास्तविक रूपमै दिखाई देते हैं; जो उस विकासोन्मुख आत्माका बाह्य परिचय है। इतना उत्तर देकर आचार्यने योगके आरंभसे लेकर योगकी पराकाष्ठा तकके आध्यात्मिक विकासको क्रमिक वृद्धिको स्पष्ट समझानके लिये उसको पाँच भूमिकाओंमें विभक्त करके हर एक भूमिकाके लक्षण बहुत सष्ट दिखाये हैं1, और जगह जगह जैन परिभाषाके साथ बौद्ध तथा योगदर्शनकी परिभाषाका मिलान करके2 परिभाषाभेदकी दिवारको तोडकर उसकी ओटमें छिपी हुई योगवस्तुकी भिन्नभिन्नदर्शनसम्मत एकरूपताका स्फुट प्रदर्शन कराया है। अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय ये योगमार्गकी पाँच भूमिकायें हैं। इनमेंसे पहली चारको पतंजलि संप्रशात, और अन्तिम भूमिकाको असंप्रशात कहते हैं3 । यही संक्षेपमें योगबिन्दुकी वस्तु है।
योगदृष्टिसयुच्चयमें आध्यात्मिक विकासके क्रमका वर्णन योगन्विदुकी अपेक्षा दूसरे ढंगसे है । उसमें आध्यात्मिक विकासके प्रारंभके पहलेकी स्थितिको अर्थात् अचरमपुद्गलपरावर्त्तपरिमाण संसारकालीन आत्माकी स्थितिको ओघदृष्टि कहकर उसके तरतम भावको अनेक दृष्टांत द्वारा समझाया है, और पीछे आध्यात्मिक विकासके आरंभसे लेकर उसके अंततकमें पाई जानेवाली योगावस्थाको योगदृष्टि कहा है। इस योगावस्थाकी ऋमिक वृद्धिको समझानेके लिये संक्षेपमें उसे आठ भूमिकाओंमें बाँट दिया है। वे आठ भूमिकायें उस अन्यमं आठ योगदृष्टिके नामसे प्रसिद्ध है। इन आठ दृष्टियोंका विभाग पातंजलयोगदर्शन-प्रसिद्ध यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि आठ योगांगोंके आधार पर किया गया है, अर्थात् एक एक दृष्टि में एक एक योगांगका सम्बन्ध मुख्यतया बतलाया है। पहली चार दृष्टियां योगकी प्रारम्भिक अवस्थारूप होनेसे उनमें अविद्याका अल्म अंश रहता है । जिसको प्रस्तुत ग्रंथम अवेद्यसंवेद्यपद कहा है 61 अगली चार दृष्टियोंमें अविद्याका अंश विल्कुल नहीं रहता । इस भावको आचार्यने वेद्यसंवेद्यपद शब्दसे जनाया है। इसके सिवाय प्रस्तुत ग्रंथमें पिछली चार दृष्टियों के समय पाये जानेवाले विशिष्ट आध्यात्मिक विकासको इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग ऐसी तीन योग भूमिकाओंमें विभाजित करके उक्त तीनों योगभूमिकाओंका बहुत रोचक वर्णन किया है।
आचार्यने अन्तमें चार प्रकारके योगियोंका वर्णन करके योगशास्त्रके अधिकारी कौन हो सकते है, यह भी बतला दिया है । यही योगदृष्टिसमुच्चयकी बहुत संक्षिप्त वस्तु है।
योगविंशिकामें आध्यात्मिक विकासकी प्रारंभिक अवस्थाका वर्णन नहीं है, किन्तु उसकी पुष्ट अवस्थाओंका ही वर्णन है। इसीसे उसमें मुख्यतया योगके अधिकारी त्यागी ही माने गये हैं ! प्रस्तुत ग्रन्थमें त्यागी गृहस्थ और साधुकी आवश्यक-क्रियाको ही योगरूप यतलाकर उसके द्वारा आध्यात्मिक विकासकी ऋमिक वृद्धिका वर्णन किया है। और उस आवश्यक क्रियाके द्वारा योगको पाँच भूमिकाओंमें विभाजित किया है । ये पांच भूमिकायें उसमें स्थान, शब्द, अर्थ, सालंबन और निरालंबन नामसे प्रसिद्ध हैं। इन पाँच भूमिकाओंमें कर्मयोग और ज्ञानयोगकी घटना करते हुए आचार्यने पहली दो भूमिकाओंको कर्मयोग और पिछली तीन भूमिकाओंको ज्ञानयोग कहा है। इसके सिवाय प्रत्येक भूमिकामें इच्छा, प्रवृत्ति, स्थैर्य और सिद्धिरूपसे आध्यात्मिक विकासके तरतम भावका प्रदर्शन कराया है; और उस प्रत्येक भूमिका तथा
1 योगबिंदु, ३१, ३५७, ३५६, ३६१, ३६३, ३९६ ।
2 "यत्सम्यग्दर्शनं बोधिस्तत्प्रधानो महोदयः। सत्त्वोऽस्तु बोधिसत्त्वस्तद्धन्तैषोऽन्वर्थतोऽपि हि ॥ २७३॥ घरबोधिसमेतो वा तीर्थकृयो भविष्यति । तथाभव्यत्वतोऽसौ वा बोधिसत्त्वः सतां मतः" ।। २७४ ।। योगबिन्दु । . 3 देखो योगविंदु ४१८, ४२० ।
4 देखो, योगदृष्टिसमुच्चय १४। 5 १३। 6 ७५। 7 ७३ । 8२-१२।
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२४ ]
इच्छा, प्रवृत्ति आदि अवान्तर स्थितिका लक्षण बहुत स्पष्टतया वर्णन किया है 1 । इस प्रकार उक्त पाँच भूमिकाओंकी अन्तर्गत न्निन्न भिन्न स्थितियोंका वर्णन करके योगके अस्सी भेद किये हैं, और उन सबके लक्षण बतलाये हैं, जिनको ध्यानपूर्वक देखनेवाला यह जान सकता है कि मैं विकासकी किस सीढीपर खडा हूँ । योगविंशिकाकी संक्षिप्त वस्तु है ।
उपसंहार — विप्रयकी गहराई और अपनी अपूर्णताका खयाल होते हुए भी यह प्रयास इस लिये किया गया है कि अबतकका अवलोकन और स्मरण संक्षेप में भी लिपिवद्ध हो जाय, जिससे भविष्यत् विशेप प्रगति करना हो तो इस विपयका प्रथम सोपान तैयार रहे। इस प्रवृत्तिमें कई मित्र मेरे सहायक हुए हैं जिनके नामोल्लेख मात्रसे मैं कृतज्ञता प्रकाशित करना नहीं चाहता । उनकी आदरणीय स्मृति मेरे हृदय में अखंड रहेगी ।
जैन साहित्य संशोधक
संवत् १९७८ पौष
दि १ भावनगर.
[ खंड २
पाठकोंके प्रति एक मेरी सूचना है । वह यह कि इस निबंध में अनेक शास्त्रीय पारिभाषिक शब्द आये हैं । खासकर अन्तिम भागमें जैन - पारिभाषिक शब्द अधिक हैं, जो बहुतों को कम विदित होंगे; उनका मैंने विशेष खुलासा नहीं किया है, पर खुलासावाले उस उस ग्रन्थके उपयोगी स्थलोंका निर्देश कर दिया है जिससे विप जिज्ञासु मूलग्रन्थद्वारा ही ऐसे कठिन शब्दोंका खुलासा कर सकेंगे। अगर यह संक्षिप्त निबंध न हो कर वास पुस्तक होती तो इसमें विशेष खुलासोंका भी अवकाश रहता ।
1 योगविंशिका गा०५, ६ ।
इस प्रवृत्तिके लिये मुझको उत्साहित करनेवाले गुजरात पुरातत्त्व संशोधन मंदिरके मंत्री परील रसिकलाल छोटालाल हैं जिनके विद्याप्रेमको में नहीं भूल सकता ।
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लेखक
सुखलाल संघजी.
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कुंरपाल सोणपाल प्रशस्ति
(लेखक-बनारसी दास जैन, एम० ए०, ओरियंटल कालेज, लाहोर.)
१. सन १९२० में एस. एस. जैन कानफ्रेन्स की तरफ से इन्दौर वासी सेठ केसरी चन्द भण्डारी ने मुझे लिखा कि उक्त कान्फ्रेन्स का जो प्राकृत कोश बन रहा है आप उसे देख
कर उस के विषय में अपनी तथा अन्य प्राकृत विद्वानों की सम्मति लेकर लिखें । इस सम्बन्ध में . मुझे उस साल कई नगरों में जाना पड़ा । जब मैं आगरे में था तो मेरा समागम पं० सुखलालजी
से हुआ, उन्हों ने मुझे बतलाया कि यहां के मन्दिर में एक नया शिला लेख निकला है । जिसको अभी किसी ने नहीं देखा । मैं मुनि प्रतापविजयजी को साथ लेकर उसे देखने गया । परन्तु उस समय छाप उतारने की सामग्री विद्यमान न थी इस लिये उस समय मैं वहां अधिक ठहरा भी नहीं क्योंकि लेख को देखने के दो तीन घंटे पीछे मैं वहां से चल पड़ा था।
२. फिर अप्रैल सन १९२१ में मैं पंजाव यूनिवर्सिटी के एम. ए. तथा वी. ए. क्लासों के संस्कृत विद्यार्थियों को लेकर कलकत्ता, पटना, लखनऊ आदि बड़े बड़े नगरों के अजायब घर ( Museums) देखने जा रहा था, तब आगरे में भी ठहरा और उपरोक्त शिलालेख की छाप तय्यार की, परन्तु अब वहां न तो पं. सुखलालजी थे न ही मुनि प्रतापविजयजी थे । वाबू दयालचन्दजी भी कारण वश बाहिर गए हुए थे। इन के अतिरिक्त और कोई श्रावक मुझ से परिचित न थे इसलिये उस वक्त वह छाप मुझ को न मिल सकी । अब कलकत्ता निवासी श्रीयुत वावू पूरणचन्द नाहर द्वारा मैं ने वह छाप प्राप्त की है और उसी के आधारपर पाठकों को इस शिलालेख का परिचय दे रहा हूं।
३. यह लेख लाल पत्थर की शिला पर खुदा हुआ है जो लग भग दो फुट लम्बी और दो फुट चौड़ी है। लेख खोदने से पहिले शिला के चारों और दो दो इंच का हाशिया ( margin) छोड कर रेखा डाल दी गई है। रेखा के वाहिर ऊपर की तरफ " पातसाहि श्री जहांगीर " उभरे हुए अक्षरों में खुदा हुआहै । वाकी का सारा लेख गहिरे अक्षरों में खुदा हुआ है। रेखाओं के अन्दर लेख की ३३ पंक्तियां हैं मगर उन में लेख समाप्त न हो सका इस लिये रेखाओं के वाहिर नीचे दो पंक्तयां (नं ३४ और ३८) दाई ओर क पंक्ति ( नं० ३५ )
और वाई ओर दो पंक्तियां [ नं० ३६-३७ ] और खोदी गई हैं। शिला के दाई ओर नीचे का कुछ भाग टूट गया है जिस से लेख की पंक्ति २८-३४ और ३८ के अन्त के आठ नौ अक्षर
और पंक्ति ३५ के आदि के १४, १५ अक्षर टूट गए हैं । इस से कुँवरपाल सोनपाल के उस समय वर्तमान परिवार के प्रायः सब नाम नष्ट हो गए हैं । पंक्ति ३६-३७ के भी कुछ अक्षर ढ़े नहीं गए।
1 मन्दिर की एक कोठडी में बहुत से पत्थर पडे थे । जब अप्रैल मई सन् १९२०मैं उन पत्थरों को -निकालने लगे तो उन में से यह लेख.भी निकला । अब यह शिला लेख मन्दिर में ही प्रडा -
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२६ ]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
४. लेख के अक्षर शुद्ध जैन लिपि के हैं जो कि हस्त लिखित पुस्तकों ( Mss. ) में पाए जाते हैं। पुस्तकों की भांति लेख की आदि में ई०' यह चिन्ह है जो शायद । ओम् ' शब्द का द्योतक है, क्योंकि प्राचीन शिलालेख तथा ताम्रशासनों में • ओम् ' के लिये कुछ ऐसा ही चिन्ह हुआ करता था। ' च ' और 'व' की आकृति बहुत कुछ मिलती जुलती है। पक्ति ६ और ८ में मार्ग और वर्ग शब्दों में 'ग' के लिये '' 1 चिन्ह आया है जो जैन लिपि का खास चिन्ह है।
५. वर्णविन्यास ( Spelling ) में विशेषता यह है कि " परसवर्ण " कहीं नहीं किया गया अर्थात् स्पीय अक्षरों के पूर्व नासिक्य के स्थान में सर्वदा अनुस्वार लिखा गया है जैसे पंक्ति २ में पङ्कज, विम्व, चन्द्र के स्थान में पंकज, विव, चंद्र लिखे हैं। इसी प्रकार श्लोकार्ध वा श्लोक के अन्त में म् के स्थान में अनुस्वार ही लिखा है जैसे पंक्ति १६ में अठारहवें अर्धश्लोक के अन्त में · श्रुत्वा कल्याणदेशनां । ' पंक्ति २० अर्धश्लोक २१ ‘वित्तवीजमनुत्तरं । ' पंक्ति २२ श्लोकान्त २३ 'चित्तरंजकं । ' पंक्ति २६ श्लोकान्त २८ कारितं ।' इत्यादि । पंक्ति ५ में पत्रिंशत के स्थान में षड्विंशत् लिखा है। विराम का चिन्ह ।' श्लोकपादों के अन्त में भी लगाया है, कहीं कहीं पंक्ति के अन्त में अक्षर के लिये पूरा स्थान न होने से विराम लिख दिया है जैसे पंक्ति ७, ९, १२, १५ आदि में।
६. पट्टावलि को छोड़ कर वाकी तमाम लेख श्लोकवद्ध है । इसकी भाषा शुद्ध संस्कृत हैं परन्तु पंक्ति १५ में पति शब्द का सप्तमी एक वचन : पतौ ' लिखा है जो व्याकरण की रीति से ' पत्यौ ' होना चाहिये था । यद्यपि पंक्ति १६ में 'कारिता' और पंक्ति २६ में 'कारितं' शब्द आए हैं तथापि पंक्ति ३२ में कारिता के लिये ' कारापिता ' लिखा है । यह शब्द जैन लेखकों के संस्कृत ग्रन्थों में बहुधा पाया जाता है और प्राकृत से संस्कृत प्रयोग बना है। पंक्ति १७ में प्राकृत शैली से आनन्द श्रावक का नाम ' आणंद' लिखा है और पंक्ति ११ में 'उत्सुकौ' के स्थान में उच्छुकौ ' शब्द प्रतीत होता है।
७. यह प्रशस्ति जहांगीर वादशाह के समय की है। विक्रम सं० १६७१ में आगरा निवासी कुंरपाल सोनपाल नाम के दो भाइयों ने वहां श्री श्रेयांस नाथ जी का मन्दिर बनवाया था जिस की प्रतिष्ठा अंचल गच्छ के आचार्य श्री कल्याणसागर जी ने कराई थी। उस समय यह प्रशस्ति लिखी गई। मन्दिर की प्रतिष्ठा के साथ ४५० अन्य प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा भी हुई थी जिन में से ६, ७ प्रतिमाओं के लेख वावू पूर्णचन्द नाहर ने अपने . " जैन लेख संग्रह " में दिये हैं। (देखिये उक्त पुस्तक, लेख नं० ३०७-३१२, ४३३)। इन लेखों से कुंरपाल सोनपाल के पूर्वजों का कुछ हाल मालूम नहीं होता लेकिन प्रशस्ति में उन की वंशावलि इस प्रकार दी है।
____ 1 डाक्टर वेबर ( Weber. ) इसको ग्र (झर) पढते हैं जैसा कि बर्लिन नगर के जैन पुस्तकों की सूचि के पृष्ट ५७६ पर आए pograla. शब्द से स्पष्ट प्रतीत होता हैं, वास्तव में यह शद्र
पोग्गल ( Poggla.) हैं । इसी प्रकार पृष्ठ ५२५ पर मियुग्गाम को miyagrama. ( मियग्राम ) लिखा ', हैं। Weber's datalogue of Crakrit Mss in the Royal Lidrary at Berlin.
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अंक १]
कुंरपाल लोणपाल प्रशस्ति
[ २७
श्रीश्रंग
वेसराज
राजपाल
जीणासीह
मल्लसीह
ऋपमदास (अपर नाम रेषा, भार्या रेपश्री) प्रेमन (वा पेमा)
कुंरपाल
सोनपाल
?
तसी
नेतसी
( पुत्री ) जादो . करपाल सोनपाल ओसवाल जाति के लोढा गोत्रीय थे । इन को जहांगीर वादशाह का अमात्य ( मंत्री) करके लिया है। जहांगीर के राज्य सम्बन्धी एक दो फारसी किताबें देखी परन्तु उन में इन का नाम उपलब्ध नहीं हुआ।
८. मूर्तियों के लेखा1 से मालूम होता है कि कुंरपाल सोनपाल के वंश को गाणी वंश कहते थे और इन लेखों से उन के परिवार के कुछ नामों का भी पता चलता है जो प्रशस्ति में पढ़े नहीं जाते जैसे कि:- ऋपभदास के कुंरपाल सोनपाल के सिवाय रूपचंद, चतुर्भुज, धनपाल, दुनीचंद आदि और भी पुत्र थे।
प्रेमन की भार्या का नाम शक्ता देवी था।
पेतसी की भार्या का नाम भक्ता देवी था उन का पुत्र०सांग था। ९. इस के अतिरिक्त “ जैनसाहित्य संशोधक " खण्ड १ अंक ४ में जो सं.१६६७ का “ आगरा संघनो सचित्र सल्वसरिक पत्र " प्रकाशित हुआ है, उस में कुछ नाम प्रशस्ति के नामों से मिलते हैं परन्तु यहनत निश्चयपूर्वक नहीं कही जा सक्ती कि दोनों लेखों में एक ही व्यक्ति का उल्लेख है या भिन्न २ काः
1 येह लेख पैरेग्राफ १३ मे उध्दृत किये गए हैं।
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२८]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
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सांवत्सरिक पत्र पंक्ति ३० . साः पेमन, संः नेतसी " "
३३ साः पेतसी
३४ साः नेतसी, संः रीपभदास " " ३५ . " रीपभदास सोनी १०. प्रशस्ति के समय के संबंध में यह वात बडी ध्यान देने योग्य है कि प्रशस्ति में तो साफ तौर पर वैशाख शुदि ३, विक्रम सं० १६७१ गुरुवासर ( बृहस्पतिवार ) लिखा है परंतु मूर्तियों के लेखों में वैशाख शुदि ३ विक्रम सं. १६७१ शनि ( सनीचर वार ) लिखा है 1 । यह ऐसा विरोध है कि इस के लिये कोई हेतु नहीं दिया जा सक्ता; क्योंकि एक ही स्थान पर एक ही तिथि में वारभेद कैसे हो सकता है । यदि तृतीया वृद्धि तिथि होती तो भी कह सक्ते कि वृहस्पति वार की रात्रि के पिछले पहर में और शनि को दिन के पहिले पहर में तृतीया थी। मगर तृतीया वृद्धि तिथि न थी जैसा कि इंडियन् कैलेंडर 2 में दी हुई सारिणी ( Tables) के अनुसार गणित करने पर गत संवत् ( Expired ) १६७१ वैशाख सुदि ३ शनिवार २ अप्रैल सन् १६१४ (Old Style ) को आती है और उस दिन वह तिथि १७ घडी के अनुमान बाकी थी । रोहिणी नक्षत्र सूर्योदय से १३ घडी पीछे लगा । वैशाख वदि १३ ( अमान्त मासों से चैत्र वदि १३ ) वृद्धि तिथि आती है।
११. प्रशस्ति में दी हुई अंचल गच्छ की पट्टावलि से ज्ञात होता है कि उस गच्छ के प्रवर्तक आचार्य, श्री आर्यरक्षित सूरि, भगवान महावीर स्वामी से ४८ वें पट्ट पर बैठे थे और श्री कल्याण सागर सार गच्छ के १८ वें आचार्य थे। अंचल गच्छ की पट्टावलि डा. भांडारकर और डा. व्यूलर ने भी छापी है। इन में डा. भांडारकर तो पांचवें आचार्य श्री सिंहप्रभ सार का नाम छोड़ गए हैं 3 और डा. ब्यूलर छठे आचार्य श्री अजितसिंहसूरि अपरनाम श्री जिनसिंह सूरि का नाम छोड़ गए हैं 4 । हालां कि जिन आधारों परसे उन्हों ने यह पट्टावलि छापी है उन में साफ़ तौर पर उक्त दोनों आचार्यों के नाम यथास्थान दिये हुए हैं। 5
1 जैन लेख संग्रह, लेख नं. ३०८-११ " श्री मत्संवत १६७१ वर्षे वैशाष सुदि ३ शनौ" 2 The Indian Calendar dy Sewel and Balkrishna Dikshit, 1896.
3 Report on the Search for Sanskrit manuscripts for the year 1883-84 Bomday 1887 p. 130
4 Epigraphia Indica p.39 5 भांडारकर-उक्त पुस्तक पृष्ठ ३२१
४८ श्रीआर्यरक्षितसूरिः चंद्रगच्छे श्रीअंचलगच्छस्थापना शुद्धविधिप्रकाशनात् सं. ११५९ ४९ श्रीविजयसिंह सूरिः ५० श्रीधर्मघोष सूरिः ५१ श्रीमहेंद्रसिंह सूरिः ५२ श्रीसिंहप्रभ सूरिः ५३ श्रीअजितसिंहसूरिः पारके चित्रावालगच्छतो निर्गता सं, १२८५ तपगच्छमतं वस्तुपालतः
गच्छस्थापना
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अक १ ]
कुंरपाल सोणपाल प्रशस्ति
१२. अंत में मैं यह निवेदन करना चाहता हूं कि इस प्रशस्ति के संबंध में दो बातों की अधिक खोज आवश्यक है एक तो यह कि मुगल बादशाहों के इतिहास में कुं[ व ]रपाल और सोनपाल या उन के पिता का नाम ढूंडना चाहिये, और दूसरी यह कि वैसाख सुदि ३ को वहस्पति और शनि क्योंकर हो सक्ते हैं; इस का समाधान करना चाहिये ॥
२९
[ - १३. मूर्तियों के लेख: जैन लेख संग्रहः पृष्ठ ७८, ७९, १०९
नं० ३०७, सम्वत १६७१ आगरावास्तव्य ओसवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गाणी वंसे सं० ऋषभदास भार्या सुः रेप श्री तत्पुत्र संघराज सं० रूपचन्द चतुर्भुज सं० धनपालादि युते श्री मदंचलगच्छे पूज्य श्री १ धर्ममूर्ति सूरि तत् पट्टे पूज्य श्री कल्याणसागर सूरीणामुपदेशेन विद्यमान श्री विसाल जिनविंव प्रति....
नं० ३०८. संवत १६७१ वर्षे ओसवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गाणी वंसे साह क्रुरपाल 1 सं० सोनपाल प्रति० अंचलगच्छे श्री कल्याणसागर सूरीणामुपदेशेन वासुपूज्यबिंवं प्रतिष्ठापितं ॥ नं० ३०९. ॥ श्रीमत्संवत १६७१ वर्षे वैशाष सुदि ३ शनौ आगरा वास्तव्योसवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गावंसे संघपति ऋषभदास भा० रेपश्री पुत्र सं० कुंरपाल सं० सोनपाल प्रवरौ स्वपितृ ऋषभदास पुन्यार्थं श्रीमदंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री पदमप्रभु निर्विवं प्रतिष्ठापितं सं० चागाकृतं ॥
नं० ३१०. श्रीमत्संवत १६७१ वर्षे वैशाष सुदि ३ शनौ श्री आगरावास्तव्य उपकेस ज्ञातीय लोढा गोत्र सा० प्रेमन भार्या शक्तादे पुत्र सा० षेतसी लघुभ्राता सा० नेतसी सुतेन श्रीमदंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री वासपूज्यविंबं प्रतिष्ठापितं सं० कुंरपाल सं० सोनपाल प्रतिष्ठितं ।
लर — उक्त ( Epig. Ind. ) Jaina inscriptions from Satrunjaya, Nos. XXI, XXVII, और Cv.
XXI यह लेख स० १६७५ का है
श्रीसिंहप्रभसूरीशाः सूरयोऽजितसिंहकाः । श्रीमद्देवेन्द्रसूरीशाः श्रीधर्मप्रभसूरयः ॥ ८ ॥ श्रीसिंहतिलकाव्हाश्च श्रीमहेन्द्रप्रभाभिधाः । श्रीमन्तो मेरुतुङ्गाख्या बभूवुः सूरयस्ततः ॥ ९ ॥ XXVII यह लेख सं० १६८३ का है -
तेभ्यः क्रमेण गुरवो जिनसिंहगोत्राः बभूवुरथ पूज्यतमा गणेशाः ॥ देवेन्द्रसिंहगुरवोऽखिललोकमान्याः धर्मप्रभा मुनिवरा विधिपक्षनाथाः ॥ ९॥ पूज्याश्च सिंहतिलकास्तदनु प्रभूत - भाग्या महेन्द्रविभवा गुरवो बभूवुः ॥ चक्रेश्वरी भगवती विहितप्रसादाः श्रीमेरुतुङ्गसूरो नरदेववन्द्याः ॥ १० ॥ CV यह लेख सं १९२१ का है। इस में आचार्य कल्याणसागर तक लेख नं XXVII के ही श्लोक उच्हत किये हैं । इन लेखों की भाषा जैन संस्कृत है ।
1 सिवाय लेख ४३३ के और सब जगह कुंर को क्रूर या क्रुर पढा है ।
2 प्रशस्ति में तथा मूर्ति के अन्य लेखों मे नेतसी ।
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जैन साहित्य संशोधक
नं० ३११. श्रीमत्संवत् १६७१ वैशाष सुदि ३ शनों श्री आगरानगरे ओ लोढा गोते-गावसे सा० पेमन भार्या श्री शक्तादे पुत्र सा० पेतमी मा० भत्तादे पुत श्रा अंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री विमलनाथ वि. सा० Qरपाल....।
___ नं० ३१२. [सं० १६७१ J॥ संत्रपति श्री कुंरपाल सं० सोनपालः स्वमात. अंचलगच्छे पूज्य श्री ५ श्री धर्ममूर्तिसरि पट्टाम्बुजहंस श्री ५ श्री कल्याणसागरसरी श्रीपार्श्वनाथविवं प्रतिष्ठापितं पूज्यमानं चिरं नंदतु ॥
नं० ४३३. श्रीमत्संवत १६७१ व वैशाप सुदि ३ शनी श्री आगरावास्त-योसवाल ज्ञातीय लोहा गोत्रे गावं-जा स० ऋषभदाम भार्या रेषश्री तत्पुत्र श्री कुंरपाल, मोनपाल संवाधिपे स्वानुजवर दुनीचंदस्य पुण्याथै उपकाराय श्री अंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री आदिनाथविवं प्रतिष्ठापितं ॥ ]
प्रशस्ति की नकल
(नोटः- [ ] इन चिन्हों में दिये अक्षर टूट गए हैं या साफ नहीं पढे जाते )
॥ पातसाहि श्री जहांगी[२] ॥ १. ॥ ॐ ॥ श्री सिद्धेभ्यो नमः ॥ स्वस्ति श्री विष्णुपुत्रो निखिल्गुणयुनः पारगो वीत
रागः । पायाद् वः क्षीणका सुरशिखरिममः क लो२. तीर्थप्रदाने ॥ श्री श्रेयान् धर्ममूर्ति विकजनमन: पंकने विन्वाभानः । कल्याणाम्भोधिचन्द्रः
सुरनरनिकरः सेन्य [ मा]३. नः कृपालुः ॥ १ ॥ ऋषभप्रमुखाः सार्वा ! गौतमाया मुनीश्वराः । पापकर्मविनिर्मुक्ताः __ क्षेमं कुर्वन्तु सर्वदा ।। २ ॥ कुर४. पालस्वर्णपालौ । धर्मकृत्यपरायणौ । ववंशकुजमाण्डौ । प्रशस्तिलिख्यते तयोः ॥ ३॥
श्रीमति हायने रम्ये चन्द्रपिरस५. भूमिते १६७१ । पत्रिंशत्तियिशाके १९३६ विक्रमादित्यभूपतेः॥ ४ ॥ राधमासे वस
न्तौ शुक्लायां तृतीयातियो । युक्त तु ६. रोहिणीमेन निषे गुरुवासरे ॥ ५॥ श्री मदश्चल गच्छाख्ये । सर्वगच्छावतंसके ।
सिद्धान्ताख्यातमाग्गेण । राजिते विश्वविस्तृते । ६ । उग्रसे1 लेख में विव 2 वितर्ग खोदकर काटी गई है जित से विराम सा प्रतीत होता है। 3 पद चाहिये। 4 "ल" खोदने से रह गया था। पीछे च न के नीचे खोदा गया है। 5ग के लिये प्रचिन्ह लिखा गया है।
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अंक १]
७. नपुरे रम्ये निरातङ्करसाश्रये । प्रासादमन्दिराकीर्णे । सद्ज्ञातौ छुपकेशवे । ७ । लोढा • गोत्रे विवस्वास्त्रिजगति सुयशा ब्रह्मच
कुंरपाल सोणपाल प्रशस्ति
३१
८. र्यादियुक्तः । श्रीश्रङ्गख्यातनामा गुरुवचनयुतः कामदेवादितुल्यः । जीवाजीवादितत्वे पर - रुचिरमतिर्लोकवर्गेषु याव - 1 ज्जीया
९. चन्द्रार्कविम्बं परिकरभृतकैः सेवितस्त्वं मुदा हि । ८ । लोढा सन्तानविज्ञातो । धनराजा गुणान्वितः । द्वादशव्रतधारी च । शुभ
१०. कर्म्मणि तत्परः । ९ । तत्पुत्रो वेसराजश्च । दयावान् सुजनप्रियः । तूर्यव्रतधरः श्रीमान् > चातुर्यादिगुणैर्युतः । १० । तत्पुत्रौ द्वा
११. वभूतां च । सुरागावर्धितो सदा । जेठू श्रीरङ्गगोलौ च । जिनाज्ञापालानोच्छुकौ । । ११ । तो जाणासीहमलाख्यो नेट्वात्मनौ वभूवतु
१२. : । धर्म्मविदौ च दक्षौ च । महापूज्यौ यशोधनौ । १२ । आसीच्छ्रीरङ्गजो नूनं जिनपाढ़ार्चने रतः । मनीषी सुमना भव्यो राजपा
१३. ल उदारधीः । १३ । आर्या । धनदौ चर्षभदास । पेमाख्यौ विविधसाख्यघ्नयुक्तौ । आस्तां प्राज्ञौ दौ च तत्त्वज्ञौ तौ तु तत्पु
१४. त्री । १४ । रेपाभिधस्तयोर्ज्येष्ठः । कल्पदुरिव सर्वदः । राजमान्यः कुलाधारो । दयालुर्धर्म्मकर्म्मठः । १९ । रेपश्रीस्तत्प्रिया
१५. भव्या । शीलालङ्कारधारिणी । पतिव्रता पतौ रक्ता । सुलशारेवतीनिमा । १६ । श्री पद्मप्रभविस्य नवीनस्य जिनाल
१६. ये । प्रतिष्ठा कारिता येन सत् श्राद्धगुणशालिना । १७ । ललौ तूर्यत्रतं यस्तु । श्रुत्वा कल्याणदेशनां । राजश्रीनन्दनः
१७. श्रेष्ठ । आनन्द श्रावकोपमः । १८ । तत्सूनुः कुंरपालः । किल विमलमतिः स्वर्णपालो द्वितीय- । श्चातुर्यौदार्यधैर्यप्रमु
१८. खगुणनिधिर्भाग्यसौभाग्यशाली । तौ द्वौ रूपाभिरामौ । विविधजिनवृपध्यानकृत्यैकनिष्ठौ। त्यागेः कर्णावतारौ निज
1
१९. कुलतिलकौ वस्तुपालोपमाह । १९ । श्री जहांगीरभूपालामात्यैौ धर्म्मधुरन्धरौ । धनिनौ पुण्यकर्तारौ । विख्यातौ भ्रा
२०. तरौ भुवि । २० । याभ्यामुप्तं नवक्षेत्रे । वित्तबीजमनुत्तरम् । तौ धन्यौ कामदौ लोके । लोढागोत्रावतंसकौ । २१ । अवा
1 च्छ के लिये जैन लिपि का चिन्ह |
2 लेख में आसीछ्रीरंग० लिखा है ।
3 पत्यौ होना चाहिये था ।
4 सच्श्राद्ध ० या सच्छ्राद्ध ० होना चाहिये था । 5 लेख में आनंद० लिखा है ।
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जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
२१. प्य शासनं चारु । जहांगीरपतेर्ननु । कारयामासतुर्धर्म । क्रियासर्व सहोदरौ । २२ ।
शाला पोषधपूर्वा वै यकाभ्यां सा1 २२. विनिर्मिता । अधित्यकात्रिकं यत्र राजते चित्तरञकम् । २३ । समेतशिखरे भव्ये
शत्रुञ्जयेदाचले । अन्येष्वपि च तीर्थेषु गि२३. रिनारिगिरौ2 तथा । २४ । सङ्घाधिपत्यमासाद्य । ताभ्यां यात्रा कृता मुदा । महध्दा
सर्वसामग्र्या । शुद्धसम्यक्त्त्वहेतवे । २५ । तुरङ्गा२४. णां शतं कान्तं । पञ्चविंशतिपूर्वकम् । दत्तं तु तीर्थयात्रायै । गजानां पञ्चविंशतिः
।२६ । अन्यदपि धनं वित्तं । प्रत्तं संख्यातिगं खलु २५. अर्जयामासतुः कीर्ति। मित्थं तौ वसुधातले । २७ । उत्तुङ्गं गगनालम्बि । सच्चित्रं
सध्वजं परम् । नेत्रासेचनकं ताभ्यां । युग्मं चैत्य२६. स्य: कारितम् । २८ । अथ गद्यम् । श्री अञ्चलगच्छे । श्री वीरादष्टचत्वारिंशत्तमे पट्टे ।
श्रीपावकगिरौं श्रीसीमन्धरजिनवचसा श्रीचक्रे [ श्वरीद ]२७. त्तवराः । सिद्धान्तोक्तमार्गप्ररूपकाः । श्रीविधिपक्षगच्छसंस्थापकाः । श्रीआर्यरक्षित
सूरय-१ । स्तत्पदे श्रीजयसिंहसूरि [ २ श्री धर्म घो]२८. पसूरि ३ श्रीमहेन्द्रसूरि ४ श्रीसिंहप्रभसूरि ५ श्री जिनसिंहसूरि ६ श्रीदेवेन्द्रसिंहमूरि
७ श्रीधर्मप्रभसूरि ८ श्री[ सिंहतिलकसू - २९. रि ९ श्रीमहेन्द्रप्रभसूरि १० श्रीमेरुतुङ्गसूरि ११ श्रीजयकीर्तिसूरि १२ । श्रीजय
केशरिसूरि १३ श्रीसिद्धान्तसागर [ सूरि १४ श्री भावसा ] ३०. गरसूरि १५ श्रीगुणनिधानसूरि १६ श्रीधर्ममूर्तिसूरय १७ स्तत्पट्टे सम्प्रति विराज___मानाः । श्रीभट्टारक पुरवराः [--------]4 ३१. णयः श्रीयुगप्रधानाः । पूज्य भट्टारक श्री ५ श्री कल्याणसागर सूरय १८ स्तेषामुप
देशेन श्रीश्रेयांसजिनविम्बा [ दीना ------] ३२. कुंरपालसोनपालाभ्यां प्रतिष्ठा कारापिता । पुनः श्लोकाः। श्रीश्रेयांसजिनेशस्य विम्बं ___ स्थापितमुत्तमं प्रति [[--------] ३३. णामुपदेशतः । २९ । चत्वारि शतमानानि । सार्धान्युपरि तत्क्षणे । प्रतिष्ठितानि
विम्वानि । जिनानां सौख्यकारि [ णाम् । ३०।----] 1 सा शब्द का I चिन्ह २२ वीं पंक्ति में है। 2 गिरिनार० चाहिये था क्यों कि यह शब्द गिरिनगर का अपभ्रंश है। 3 चैत्ययोः चाहिये था। 4 यहां से सात आठ अक्षर टूट गए हैं। 5 यहां से पांच अक्षर टूट गए हैं। 6 सार्दा० लिखा है।
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अक१] कुंरपाल सोनपाल प्रशस्ति
[६ ३४. तु लेभाते । प्राज्यपुण्यप्रभावतः देवगुवोंः सदा भक्तौ । शश्यत्ती नन्दतां चिरम् । ३१ ।
मथ तयोः परिवारः । सङ्घराज [ ----1--1 ३५. ------ -------- --------। ३२ । सनषः
स्वर्णपाल - 1 ---- [चतुर्भुज ] - ------- [ पुत्री ] युगलमुत्तमम्
1 ४३ । प्रेमनस्य त्रयः [भाः ---] ३६. षेतसी तथा । नेतसी विद्यमानस्तु सच्छोलेन सुदर्शनः । ३४ । धीमतः सङ्घराजस्य ।
तेजस्विनो यशस्विनः । चत्वारस्तनुजन्मान ------ मताः ३५कुंरसालस्म स३७. नार्या । - - - - - - - - - - - - - - - - । - - - - पतिप्रिया
। ३६ । तदङ्गजास्ति गम्भीरा जादो नाम्नी [स]-----------
ज्येष्ठमलो गुणाश्रयः । ३७। ३८. सङ्घश्रीसुलसश्रीर्दा । दुर्गश्रीप्रमुखैनिः । वधूजनैयुती भाता । रेषश्री नन्दनी सका
। ३८ । भूपण्डलसमारङ्ग । सिन्ध्वर्कयुक्त [-------------- ------1३८13
लेख का सारांश (लेख की भाषा सरल होने के कारण पूरा अनुवाद नहीं दिया) पंति १-३ मंगलाचरण । , ४-५ प्रशस्ति की रचना काल | विक्रम संवत् चन्द्र ऋषि रस भू अर्थात् १६७१,शफ
संवत् १५३६, राध (वैशाख) मास, वसंत ऋतु, शुछ पक्ष, सुतीया तिथी) गुरुवार रोहिणी नक्षत्र । ६ अंचल गच्छ की प्रशंसा ।
७ उग्रसेनपुर (आगरा नगर) की शोभा का वर्णन | ८-९ उपकेश (ओसवाल) शातीय, लोढा गोत्रीय, श्रीअंग की स्तुति । १. उस के पुत्र वेसराज के गुणों का वर्णन |
११ वेसराज के पुत्र जेठू और श्रीरंग का वर्णन । ११-१२ जेहू के पुत्र जीणामहि और मसीह ] का वर्णन ।
१२ मीरंग का पुत्र राजपाल, तिस का वर्णन । १३ राजपाल की गज दरबार में बडी प्रतिष्ठा था, और उस के ऋपभदास और
पेमन दो पुत्र थे। १४ उन में ऋषभदास (अपरनाम रेषा) पहा था। इस की भार्या रेषश्री । १५-१६ शपभदास ने मंदिर में श्रीपष्मप्रभ के नये विंब की प्रतिष्ठा कराई थी। और यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सका कि पंफि ३४ के अंत और पंक्ति ३५ के आदि में कितने मक्षर २ प्रतीत होता है कि प्रशास्ति या पयासमो गई।
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४]
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31
जैन साहित्य संशोधक
[ खण्ड २
किसी आचार्य की कल्याणकारी देशनों को सुनकर राजश्री के पुवने' - चर्य व्रत धारण किया ।
१७-१८ ऋषभदास के पुत्र फुंरपाल स्वर्णपाल ( सोनपाल ) । तिन के गुणों का वर्णन । दान देने में उन की कर्ण से उपमा ।
१९-२० ये जहांगीर बादशहा के अमात्य (संती ) थे; बडे धनवान थे; सदा शुभकाम झरते और पुण्य क्षेत्रों में धन लगाते थे ।
२१ जहांगीर की आज्ञा से दोनों भाई धर्म का काम करते थे ।
२२--२३ उन्हों ने तीन भवन वाली एक पौषधशाला धनवाई | संघाधिपति बनकर समेत
शिखर, शत्रुंजय, आचू, गिरनार तथा अन्य तीर्थों की यात्रा की ।
२४ १२५ घोडे, २५ हाथी यात्रा के लिये जुदा कर छोडे थे ।
२५ उन्हों ने दो चैत्य बनवाए जो बहुत ही ऊंचे, चित्रों और झंडों से सजे ये थे ।
२६ मंचल गच्छ की उत्पत्ति | भगवान महावीर से ४८ वे पट्ट पर श्री आर्य रक्षित सूरि हुए । उन्हों ने श्री सीमंधर स्वामी की आज्ञा पूर्वक चक्रेश्वरी देवी से वर प्राप्त करके विधिपक्ष अर्थात् अंचलगच्छ चलाये ।
२७-३० पट्टावलि ।
३१-३२ कुंरपाल सोनपालने श्री कल्याणसागरके उपदेश से श्रेयांस नाथजी का मंदिर
बनवाया ।
३३- ३४ और उसी समय ४५० अन्य प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हुई । इस से उत्त की बडी ती हुई ।
३५ संघराजै... बेटे सोनपाल... चतुर्भुज... दो बेटियां । प्रेमन के तीन पुत्र... ३६ पेतसी और नेतखी जो शीलपालने से मानो सुदर्शन ही विद्यमान था । बुद्धिमान, तेजस्वी और यशस्त्री संघराज के चार बेटे थे ।
३७ कुंरपाल की भार्या......उस की पुत्री का नाम नादो था । जेठमल गुण
का धाम **I**
३८ रेपली के दोनो पुत्र ( झुंरपाल सोनपाल ) अपनी पुत्रवधुओं संघश्री, सुलसी, दुर्गश्री आदि के गुणों से शोभा पाते रहें । आशीर्वाद ( जिस के बहुत से अक्षर टूट गए हैं ) ||
"
१ कल्याणदेशना से शायद श्रीकल्याणसागर जी के उपदेश का आशय हो ।
२ शायद उपभदास की माता का नाम राजश्री था ।
३ महाविदेह क्षेत्र में वर्तमान तकिर ।
४ इन प्रतिमाओं का पता लगाना चाहिये । ! यहां से काम ठीक नहीं बैठा
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१५
LAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAMANNAARANAMANNARAI
MamanaravMARAwaruaamanasi-nakamam
अक
कुँरपाल सोनपाल प्रशस्ति [टिप्पणी-कुंवरपाल सेनपाळकी प्रशंसामें किसीएफ फपि हिन्दी भाषामें एक कविता लिखी है जो पाठपके किसीएफ भंडारमें हमारे देखनेमें आई घी और जिसकी नकल हमने अपनी नोटबुक फर की थी। उसका संबंध इस लेखके साथ होनेसे हम यहाँ उसे प्रकट क्रिगे देते हैं। --संपादक ।]
कोरपाल सोनपाल लोढा गुणप्रशंसा
कवित्त सगर भरथ जगि, जगडु जावड भये । पामराय सारंग, सुजश नाम परणी ।। १ सेजेजे संघ चलायो, सुधन सुखेत बायो । संघपतिपद पायो, कवि कोटि किति बरणी ।। २ लाहनि कडाहि ठाम, ठाम ग भांन कहि | आनंद मंगल घरि घरि गावे घरणी ॥३ वस्तपाल तेजपाल, हुये रेखचंद नंद । कोरपाल सोनपाल, कीनी भली करणी ।। ४ कहि लखमण लोढा, दूनीकुं दिखाइ देख | लछिको प्रमान जोपे, एसो लाह लीजिये ।। ५ आन संघपति कोउ, संघ जोपे कीयो चाहे । कोरपाल सोनपाल,-को सो संघ कीजिये ।। ६ सवल राय बिभार, निबल थापना चार | बाधा राइ बंदि छोर, अरि र साजको ।। ७ अडेराय अवठंभ, खितीपती रायखंभ | मंत्रीराय आरंभ, प्रगट सुम साजको ।। ८ कबि कहि रूप भूप, राइन मुकटमनि । त्यागी राई तिलक, बिरद गज वाजको ।। ९ हय गय हेमदान, मांन नंदकी समान | हिंदु सुरताण, सोनपाल रेखराजको ॥१० सैन पर आसनके, पैजपर पासनके | निजदल रंजन, भंजन पर दलको ॥ ११ मदमतवारे, विफरारे,अति भारे भारे । कारे कारे बादरसे, पासव सुजलके ।। १२ कवि कहि रूप, नृप भुपतिनिके सिंगार | अति वडवार ऐरापति समवलके ।। १३ रेखराजनंदकोर पाल सोनपालचंद । हेतवनि देत ऐसे हाथिनिक हलके ।। १४
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सोमदेवररिकृत नीतिवाक्यामृत ।
(प्रन्थ परिच य)
[लेलफ-श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी.] [श्रीयुत पं० नाथूरापजी प्रेमीकी देखरेख में बम्बईसे जो माणिकचन्द्र--दिगम्बर जैनग्रन्थमाला प्रकट होती है, उसमें अभी हाल ही सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत नापका एक अमूल्य ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। इस प्रन्थके कर्ता और विपय आदिका विस्तृत परिचय करानेके लिए प्रेमीजीने प्रन्थके प्रारंभमें एक पाण्डित्यपूर्ण और अनेक ज्ञातव्य बातोंस भरपूर सुन्दर प्रस्तावना लिखी है जो प्रत्येक साहित्य और इतिहास प्रेमीक लिए अवश्य पठनीय और मननीय है । इस लिए हम लेखक सहाशयकी अनुमति लेकर, जनसाहित्यसंशोधकके पाठकोंके ज्ञानार्थ, उस प्रस्तावनाको अविकलवया यहाँ पर प्रकट करते हैं-संपादक []
श्रीमत्सोमदेवसरिका यह ' नीतिवाक्यामृत' संस्कृत साहित्य-सागरका एक अमूल्य और अनुपम रत्न है। इसका प्रधान विषय राजनीति है । राजा और उसके राज्यशासनसे सम्बन्ध रखनेवाली प्रायः सभी भावश्यक वातोंका इसमें विवेचन किया गया है । यह सारा अन्य गद्यमें है और सूत्रपद्धतिसे लिखा गया है। इसकी प्रतिपादनशैली बहुत ही सुन्दर, प्रभावशालिनी और गंभीरतापूर्ण है । बहुत बड़ी बातको एक छोटेसे वाक्यमें कह देनेकी कलामें इसके कती सिद्धहस्त हैं । जैसा कि प्रन्यके नामसे ही प्रकट होता है, इसमें विशाल नीतिसमुद्रका मन्यन करके सारभूत अमृत संग्रह किया गया है और इसका प्रत्येक वाक्य इस नातकी साक्षी देता है। नीतिशासके विद्यार्थी इस अमृतका पान करके अवश्य ही सन्तत होंगे। यह अन्य ३२ समुद्देशोंमें ४ विभक है और प्रत्येक समुद्देशमें उसके नामके अनुसार विषय प्रतिपादित है।
प्राचीन राजनीतिक साहित्य । राजनीति, चार पुरुषामिसे दूसरे भर्थपुरुषार्यके अन्तर्गत है। जो लोग यह समझते हैं कि प्राचीन भारतपासियोंने 'धर्म' और 'मोक्ष' को छोड़कर अन्य पुरुषायोंकी भोर विशेष ध्यान नहीं दिया, वे इस देशके प्राचीन साहित्यसे अपरिचित हैं। यह सच है कि पिछले समयमें इन विषयोंकी ओरसे लोग उदासीन होते गये, इनका पठन पाठन पन्द होता गया और इस कारण इनके सम्बन्धका जो साहित्य था वह धीरे धीरे नष्टप्राय होता गया। फिर भी इस बातके प्रमाण मिळते हैं कि राजनीति आदि विद्याओंकी भी यहाँ खूब उन्नति हुई थी और इनपर अनेकानेक अन्य लिखे गये थे।
___ वात्स्यायनके कामसूत्रमें लिखा है कि प्रजापतिने प्रजाके स्थितिप्रबन्धके लिए त्रिवर्गशासन-(धर्म-अर्थ-काम" विषयक महाशास्त्र) बनाया जिसमें एक लाख अध्याय थे। उसमेके एक एक भागको लेकर मनुने धर्माधिकार, बृहस्पतिने अधिकार, और नन्दीने कामसूत्र, इस प्रकार तीन अधिकार बनाये।इसके बाद इन तीनों विषयोंपर उत्तरोत्तर
x“समुद्देशश्च संक्षेपाभिधानम् "-कामसूत्रटीका, अ० ३।।
" प्रजापतिहि प्रजाः सृष्टा तासां स्थितिनिबन्धनं त्रिवगस्य साधनमध्यायानां शतसहस्रेणाने प्रोवाच । तस्यैकदेशिकं मनुः स्वायंभुवो धर्माधिकारकं पृथक् चकार । बृहस्पीतराधिकारम् । नन्दी सहनेणाध्यायाना पृथक्कामसूत्र अकार ।"-कामसूत्र अ..।
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अक १]
सोमदेवदारकत नातिवाक्यामृत
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संक्षिप्त प्रन्थोंका निर्माण हुआ । पुराणोंमें भी लिखा है कि प्रजापतिके उस्क एक लाख अध्यायनाले निवर्ग-शासनके नारद, इन्द्र, बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज, विशालाक्ष, भीष्म, पराशर, मनु, अन्यान्य महर्पि और विष्णुगुप्त (चाणक्य) ने संक्षिस करके पृथक् पृषक प्रन्योंकी रचना की + । परन्तु इस समय उक्त सब साहित्य प्रायः नष्ट हो गया है। कामपुरुषार्थ पर वात्स्यायनका कामसूत्र, अर्थपुरुषार्थ पर विष्णुगुप्त या चाणक्यका अर्थशास्त्र और धर्मपुरुषार्थ पर मनुके धर्म-शास्त्रका संक्षिप्तसार 'मानवं धर्मशासा'--जो कि भूगु नामक भाचार्यका संग्रह किया हुआ है और मनुस्मृतिके नामसे प्रसिद्ध है--उपलब्ध है। ___ उक्त ग्रन्थों से राजनीतिका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'कौटिलीय अर्थशान 'अभी १३-१४ वर्ष पहले ही उपलब्भ हआ है और उसे मैसूरकी यूनीवर्सिटीने प्रकाशित किया है। यह अवसे लगभग २२०० वर्ष पहले लिखा गया था । सुप्रसिद्ध मौर्यवंशीय सम्राट चन्द्रगुप्तके लिए -जो कि हमारे कथाप्रन्थोंके अनुसार जैनधर्मके उपासक थे और जिन्होंने अन्तमें जिनदक्षिा धारण की थी-आर्य चाणक्यने इस अन्यको निर्माण किया था नन्दवंशका समल उच्छेद करके उसके सिंहासन पर चन्द्रगुप्तको आसीन करानेवाले चाणक्य कितने बढ़े राजनीतिश होंगे, गह कहनेकी आवश्यकता नहीं है। उनकी राजनीतिज्ञताका सबसे अधिक उज्ज्वल प्रमाण यह अर्थशास्त्र है। यह बड़ा ही अद्भुत ग्रन्थ है और उस समयकी शासनव्यवस्था पर ऐसा प्रकाश डालता है जिसकी पहले किसीने कल्पना भी न की थी। इरो पढ़नेसे मालूम होता है कि उस प्राचीन कालमें भी इस देशने राजनीतिमें आश्चर्यजनक उन्नति कर ली थी। इस ग्रन्थमें मनु, भारद्वाज, उशना (शुक्र), बृहस्पति, विशालाक्ष, पिशुन, पराशर, वातव्याधि, कौणपदन्त और बाहुदन्तीपुत्र नामफ प्राचीन आचार्योंके राजनीतिसम्बन्धी मतोंका जगह जगह उल्लेख मिलता है। आर्य चाणक्य प्रारंभमें ही कहते हैं कि पृथिवीके लाभ और पालनके लिए पूर्वाचार्योंने जितने अर्थशास्त्र प्रस्थापित किये हैं, प्रायः उन सबका संग्रह करके यह अर्थशास्त्र लिखा जाता है । इससे मालूम होता है किचाणक्यसे भी पहले इस विपयके अनेकानेक ग्रन्थ मौजूद थे और चाणक्यने उन सबका अध्ययन किया था। परन्तु इस समय उन प्रन्थोंका कोई पता नहीं है।
चाणक्यके वादका एक और प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध है जिसका नाम 'नीतिसार' है और जिने संभवतः चाणक्यके ही शिष्य कामन्दक नामक विद्वानने अर्थशास्त्रको संक्षिप्त करके लिखा है। अर्थशास्त्र प्रायः गद्यमें है। परन्तु नीतिसार लोकबद्ध है। यह भी अपने ढंगका अपूर्व और प्रामाणिक ग्रन्थ है और अर्थशास्त्रको समझनेमें इससे बहुत सहायता मिलती है । इसमें भी विशालाक्ष, पुलोमा, यम आदि प्राचीन नीतिग्रन्थकर्ताओंके मतोंका उल्लेख है।
+ ब्रह्माध्यायसहस्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजम् । तन्नारदेन शक्रेण गुरुणा भार्गवेण च ॥ भारद्धाजविशालाक्षभीमपाराशरैस्तथा । संक्षिप्तं मनुना चैव तथा चान्यैर्महर्षिभिः॥ पतालमायपोहासं विज्ञाय च महात्मना। संक्षिप्तं मनना चैव तथा चान्यैर्महर्षिभिः।। प्रजानामायुषो ह्रासं विज्ञाय च महात्मना । संक्षिप्तं विष्णुगुप्तेन नृपाणामर्थसिद्धये ।
ये श्लोक हमने गुजरातीटीकासहित कामन्दकीय नीतिसारकी भूमिका परसे उध्दृत किये हैं। परन्तु उससे यह नहीं मालूम हो सका कि ये किसं पुराणके हैं।
*सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ मि. विन्सेण्ट स्मिथ आदि विद्वान् भी इस बातको संभव समझते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य जैनधर्मके उपासक थे। 'त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति' नामक प्राकृत ग्रन्थमें-जो विक्रमकी पाँचवीं शताब्दिके लगभगका है-लिखा है कि मुकुटधारी राजाओंमें सबसे अन्तिम राजा चन्द्रगुप्त था जिसने जिनदीक्षा ली ।-देखो जैनहितैषी वर्ष १३, अंक १२ ।
४ सर्वशास्त्रानुपक्रम्य प्रयोगानुपलभ्य च । कौटिल्येनं नरेन्द्रार्थे शासनस्य विधिः कृतः॥ येन शास्त्रं च शस्त्रं च नन्दराजगता च भूः। असणोद्धृतान्याशुतेन शास्त्रमिदं कृतम् ॥ + पृथिव्या लाभे पालने च यावन्त्यर्थशास्त्राणि पूर्वाचायः प्रस्थापितानि प्रायशस्तानि सहत्यैकमिदमर्थशानं कृतम् । +देखो गुजराती प्रेस वम्बईके 'कामन्दकीय नीतिसार' की भूमिका ।
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जैन साहित्य संशोधक फामन्याफे नीतिसारफे बाद जहाँ तक दम आनते हैं, गह नीतिषाक्यामृत अन्य ही ऐसा बना है, जो उस दोनों प्रन्भोंकी श्रेणीमें रक्खा जा सकता है और जिसमें शुद्ध राजनीतिफी चर्चा की गई है। इसका अध्ययन भी फौटिलीय अर्थशास्त्र के समझनमें बड़ी भारी सहायता देता है। ___ नोतिषाक्यामृतकं कर्ताने भी अपने द्वितीय ग्रन्थ ( यशास्तिक) में गुरु,शुक्र,विशालाक्ष, भारद्वाजके नीतिशास्त्रोका उल्लेख किया है। मनुके भी बीसो लोकोंको उद्धृत किया है +1 नीतियाक्यामृतमें विष्णुगुप्त या चाणक्यका और उनके अपशालका उलेख है। बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज, धादिके अभिप्रायोंको भी उन्होंने नीतिवाक्यामृतमें संग्रह किया है जिसका स्पष्टीकरण नांतीवाफ्यामृतको इस संस्कृत टोफासे होता है। स्मृतिकारोसे भी वे अच्छी तरह परिचित मालूम होते हैं । इससे हम कह सकते हैं कि नीतीवाफ्यामृतके कर्ता पूर्वोक्त राजनीतिके साहित्यस यथेष्ट परिचित थे । बहुत संभव है कि उनके समयमें उपक सबका सब साहित्य नहीं तो उसका अधिकांश उपलब्ध होगा। कमसे कम पूर्वाफ आचायोंके प्रन्यो सार या संग्रह भादि अवश्य मिलते होगे।
इन सब बातोंसे और नातिवाक्यामृतको अच्छी तरह पड़नसे हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि नातिवाक्यामृत प्राचीन नीतिसाहित्यका सारभूत अमृत है । दूसरे शब्दोंमें यह उन सबके भाधारसे और कविको विलक्षण प्रतिभास प्रसूत हुआ संग्रह प्रन्य है। जिस तरह कामन्दकने चाणक्यक अर्थशास्त्र के आधारसे संक्षेपमें अपने नातिसारका निर्माण किया है, उसी प्रकार सोमदेवमारने उनके समयमें जितना नीतिसाहित्य प्राप्त था उसके आधारसे यह नीतिवाक्यामृत निर्माण किया है। दोनोंमें अन्तर यह है कि नातिसार श्लोकबद्ध है और फेयल अर्थशास्त्र के आधारसे लिखा गया है, परन्तु नातेवाल्यामृत गधमें है और अनेकानेक अन्धोके आधारसे निर्माण हुआ है, यद्यपि अर्थशास्त्रको भी इसमें यपेष्ट सहायता ली गई है।
फौटिलीय अर्थशास्त्रको भूमिफामें श्रीयुत शामशास्त्रीने लिखा है कि, “यच यशोधरमहाराजसमकालेन सोमदेवसूरिणा नीतिवाक्यामृतं नाम नीतिशास्त्र विरचितं तदपि कामन्दकोयामिव कौटिलीयार्थशास्त्रोदय सक्षिप्य संगृहीतामात सदप्रन्भपदयाक्यशैलीपरीक्षायां निस्संशयं ज्ञायते ।" अर्थात् यशोधर महाराजके समकालिक सोमदेवसूारने जो' नीतिपाक्यामृत' नामका अन्य लिखा है उसके पद और वाक्योंकी शलीकी परीक्षासे यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि वह भी कामन्दकके नीतिसारके समान कौटिलीय अर्थशास्त्रसे ही संक्षिप्त करके लिखा गया है परन्तु हमारी समझमें ___ " न्यायादवसरमलभमानस्य चिरसेवकसमाजस्य विज्ञप्तय इव नर्मसचिवोक्तयः प्रतिपनकामचारच्यवहारेषु स्वेरविहारेषु मम गुरुशुकविशालाक्षपरीक्षितपराशरभीमभीष्मभारद्वाजादिप्रणीतनीतिशास्त्रश्रवणसनाथं श्रुतपथमभजन्त।"यशस्तिलकचम्पू , आश्वास २, पृ० २३६ ।
+"दूपितोऽपि चरेद्धर्म यत्र तत्राश्रमे रतः। समं सवपु भूतेपुन लिङ्गं धर्मकारणम् ॥ ...इति कथमिदमाह वैवस्वतो मनुः। "-यशस्तिलक आ० ४, पृष्ठ १०० । यह श्लोक मनुस्मृति अ० ६ का ६६ चौ श्लोक है। इसके सिवाय यशस्तिलक आश्वास ४, पृ. ९०-९१-११६ (प्रोक्षितं भक्षयेत् ), ११७ (फ्रीत्वा स्वयं), १२७ (सभी ग्लोक), १४९ (सभीग्लोक), २८७ (अधीत्य ) के श्लोक भी मनुस्मृतिम ज्योंके त्यों मिलते हैं । यद्यपि वहाँ यह नहीं लिखा है कि ये मनुके हैं। उक्तं च'रूपमें ही दिये हैं।
४ नीतिवाक्यामृत पृष्ठ०३६ सुत्र ९, पृ.१०७ सुत्र ४, पृ. १७१ सूत्र १४ आदि।
+“विप्रकीताबूढापि पुनर्विवाहदाक्षामईतीति स्मृतिकाराः"-नीवा-पृ०३७७,२०२७, "श्रुतेःस्मृतेबाह्यवाध्यतरे;" यशस्तिलक आ०४, पृ. १०५, " श्रुतिस्मृतीभ्यामतीव बाह्ये"-यशस्तिलक आ०४, पृ० १११; "तथा चस्मृतिः" पृ.१६और " इति स्मृतिकारकीर्तितमप्रमाणीकृत्य"पृ०२८७ ।
यशस्तिलक आ. ४ पृ० १०० में नीतिकार भारद्वाजके पाइगुण्य प्रस्तावके दो श्लोक और विशालाक्षक कुछ वाक्य दिये हैं। ये विशालाक्ष संभवतः वे ही नीतिकार हैं जिनका उल्लेख अर्थशास्त्र और नीतिसारमें किया गया है।
शास्त्रीजीका यह बड़ा भारी भ्रम है, जो सोमदेवसरिको वे यशोधर महाराजके समकालिक समझते हैं। यशोधर अनोंके एक पुराणपुरुप हैं। इनका चरित्न सोमदेवसे भी पहले पुप्पदन्त, बच्छराय आदि कवियोंने लिखा है। पुष्पदन्तका समय शकसंवद ६०६ के लगभग है । और बच्चराय पुष्पदन्तसे भी पहले हुए हैं।
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अंक 1 सोमदेवसरिकृत नीतिवाक्यामृत ।
[३९ शास्त्रीजीने उक्त परीक्षा बारीकीसे या अच्छी तरह विचार करके नहीं की है । यह हम मानते हैं कि नीतिवाक्यामृतकी रचनामें अर्थशास्त्रकी सहायता अवश्य ली गई है, जैसा कि मागे दिये हुए दोनोंके अवतरणोंसे मालूम होगा । पाठक देखेंगे कि दोनोंमें विलक्षण समता है, कहीं फहीं तो दोनोंके पाठ बिल्कुल एकसे मिल गये हैं । परन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि नीतिवाक्यामृत अर्थशास्त्रका ही संक्षित सार है । अर्थशास्त्रका अनुधावन करनेवाला होकर भी वह अनेक अंशोंमें बहुत कुछ स्वतंत्र है । अर्थशास्त्रके अतिरिक्त अन्यान्य नीतिशास्त्रोंके अभिप्राय भी उसमें अपने ढंगसे समावेशित किये गये हैं। इसके सिवाय अन्यकर्ताने अपने देश-काल पर दृष्टि रखते हुए बहुत सी पुरानी बातोंको-जिनकी उस समय जरूरत नहीं रही थी या जो उनकी समझमें अनुचित थीं-छोड़ दिया है या परिवर्तित कर दिया है। साथ ही बहुतसी समयोपयोगी बातें शामिल भी कर दी हैं। ___ यहाँ हम अर्थशास्त्र और नीतिवाक्यामृतके ऐसे अवतरण देते हैं जिनसे दोनोंकी समानता प्रकट होती है:
१-दुप्पणीतः कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वानप्रस्थपरिव्राजकानपि कोपयति, किमङ्ग पुनर्गृहस्थान् । अप्रणीतो हि मात्स्यन्यायमुद्भावयति । वलीयानवलं नसते दण्डधराभावे। -अर्थशास्त्र पृ०९ ।
दुष्प्रणीतो हि दण्डः कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वा सर्वजनविद्वेष फरोति । अप्रणीतो हि दण्डो मात्स्यन्यायमुद्भावयति । वलीयानबलं प्रसते ( इति मात्स्यन्यायः)।
-नीतिवा० पृ० १०४-५। २-ब्रह्मचर्य चापोडशाद्वात् । अतो गोदान दारकर्म च। -अर्थ० पृ० १० । ब्रह्मचर्यमापोडशाद्वात्ततो गोदानपूर्वकं दारकर्म चास्य ।
-नी. १६७। ३-गुरोहितमुदितोदितकुलशीलं पडझे वेदे दैवे निमित्ते दण्डनीत्यां च अभिविनीतमा
पदां दैवमानुपीणां अथवभिरुपायैश्च प्रतिकार कुर्वीत। -अर्थ० पृ०१५-१६। पुरोहितमुदितफुलशीलं पडंगवेदे दैवे निमित्त दण्डनीत्यामभिविनीतमापदां दैवीनां मानुषीणां च प्रतिकर्तारं कुर्वीत ।
नीति० पृ. १५९। ४ परमर्मज्ञः प्रगल्भः छात्रः कापटिकः।-अर्थ पृ० १८ । परमर्मज्ञः प्रगल्भः छातः कापटिकः । -- नी० पृ० १७३। ५-भूयते हि शुकसारिकाभिः मन्त्रो भिन्नः श्वामिरन्यैश्च तिर्यग्योनिभिः। तस्मान्मन्नोदेशमनायुक्तो नोपगच्छेत् ।
-अर्य० पृ० २६। अनायुक्तो न मन्त्रकाले तिष्ठेत् । श्रूयते हि शुकशारिकाभ्यामन्यैश्च तिर्यग्भिमन्त्रभेदः कृतः। -नीतिक पृ० ११ ६-द्वादशवर्या स्त्री प्राप्तव्यवहारा भवति । षोडशपः पुमान् । -अर्य० १५४। द्वादशवर्षा स्त्री पोडशवर्षः पुमान् प्राप्तय्यवहारौ भवतः।
-नीति० ३७३। इस तरहके और भी अनेक अवतरण दिये जा सकते हैं।
यहाँपर पाठकोंको यह भी ध्यानमें रखना चाहिए कि चाणक्यने भी तो अपने पूर्ववर्ती विशालाक्ष, भारद्वाज, वृहस्पति आदिके अन्योका संग्रह करके अपना अन्य लिखा है। ऐसी दशा में यदि सोमदेवकी रचना अर्थशाससे मिलती जुलती हो, तो क्या आश्चर्य है । क्योंकि उन्होंने भी उन्हीं प्रन्योंका मन्यन करके अपना नातिवाक्यामृत विद्या है। यह दूसरी बात है कि नीतिवाक्यामृतकी रचनाके समय प्रन्यकर्ताके सामने अर्थशास्त्र भी उपस्थित था।
परन्तु पाठक इससे नीतिवाक्यामृतके महत्त्वको कम न समझ लें । ऐसे विषयों के प्रन्योका अधिकांश भाग संग्रहरूप ही होता है। क्योंकि उसमे उन सब तस्वोंका समावेश तो नितान्त आवश्यक ही होता है जो प्रत्यक के पूर्वलेखकों द्वारा उस शास्त्रके सम्बन्धमें निश्चित हो चुकते हैं । उनके सिवायजो नये अनुभव और नये तस्य उपलब्ध होते हैं उन्हें ही वह विशेषल्पसे अपने अन्यमें लिपिवद्ध करता है । और हमारी समसमें नीतिवाक्यामृत ऐसी यातोंसे खाली नहीं है । प्रन्यकर्ताकी स्वतंत्र प्रतिभा और मौलिकता उसमें जगह जगह प्रस्फुटित हो रही है।
* देखो पृष्ठ ५ की टिप्पणी 'पृथिव्या लाभे' भादि। .
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जैन साहित्य संशोधक ग्रन्थकर्ताका परिचय।
गुरुपरम्परा। जैसा कि पहले कहा जा चुका है नीतिवाक्यामृतके कर्ता श्रीसोमदेवसूरि हैं । वे देवसंघके आचार्य थे। दिगम्बरसम्प्रदायके सुप्रसिद्ध चार संघोंमसे यह एक है । मंगराज कविके कथनानुसार यह संघ सुप्रसिद्ध तार्किक भष्टाकलंकदेवके बाद स्थापित हुआ था । अकलंकदेवका समय विक्रमकी ९ वीं शताब्दिका प्रथम पाद है। सोमदेवके गुरुका नाम नेमिदेव और दादागुरुका नाम यशोदेव था । यथाः--
श्रीमानस्ति स देवसंघतिलको देवो यशःपूर्वकः,
शिष्यस्तस्य बभूव सद्गुणानिधिः श्रीनेमिदेवाव्यः । तस्याश्चर्यतपः स्थितस्त्रिनवतेजेंतुर्महावादिनां
शिष्योऽभूदिह सोमदेव इति यस्तस्यैप कान्यक्रमः॥ --यशस्तिलकचम्पू । नातिनाक्यामृतकी गद्यप्रशस्तिसे भी यह मालूम होता है कि वे नेमिदेवके शिष्य थे । साथ ही उसमें यह भी लिखा है कि वे महेन्द्रदेव भधारकके अनुज थे । इन तीनों महात्माओं-यशोदेव, नमिदेव और महेन्द्रदेवके सम्बन्धमे हमें और कोई भी बात मालूम नहीं है । न तो इनकी कोई रचना ही उपलब्ध है और न अन्य किसी प्रन्यादिमें इनका कोई उल्लेख ही मिला है। इनके पूर्वके आचार्यो विषयमें भी कुछ ज्ञात नहीं है । सोमदेवसूरिकी शिष्यपरम्परा भी अज्ञात है । यशस्तिलकके टीकाकार श्रीश्रुतसागरसूरिने एक जगह लिखा है कि वादिराज और वादीभसिंह, दोनों ही सोमदेवके शिष्य थे, परन्तु इसके लिए उन्होंने जो प्रमाण दिया है वह किस प्रन्यका है, इसके जाननेका कोई साधन नहीं है । यशस्तिलककी रचना शकसंवत् ८८१ ( विक्रम १०१६ ) में समाप्त हुई है और वादिराजने अपना पार्श्वनाथचरित शकसंवतू. ९४७ (वि०१०८१) में पूर्ण किया है। अर्थात् दोनोंके वीचमें ६६ वर्षका अन्तर है । ऐसी दशामें उनका गुरु शिष्यका नाता होना दुर्घट है । इसके सिवाय वादिराजके गुरुका नाम मतिसागर था और वे द्रविड संघके आचार्य थे । अब रहे वादीमसिंह, सो उनके गुरुका नाम पुष्पषेण था और पुष्पषेण अकलंकदेवके गुरुभाई थे, इसलिए उनका समय सोमदेवसे बहुत पहले जा पड़ता है। एसी अवस्था में वादिराज और वादीभसिंहको सोमदेवका शिष्य नहीं माना जा सकता। प्रत्यकर्ताफे गुरु बढ़े भारी तार्किक थे। उन्होंने ९३ वादियोंको पराजित करके विजयकीर्ति प्राप्त की थी।
इसी तरह महेन्द्रदेव भधारक भी दिग्विजयी विद्वान थे । उनका पादीन्द्रकालानत ' उपपद ही इस बातकी घोषणा करता है।
तार्षिक सोमदेव । श्रीसोमदेवसूरि भी अपने गुरु और अनुजके सदृश बड़े भारी तार्किक विद्वान् थे। इस प्रन्यकी प्रशस्तिमें कहते हैं:सल्पेऽनुग्रहधीः समे सुजनता मान्ये महानादरः, सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्रचरिते श्रीसोमदेवे माय । या स्पर्धेत तथापि दर्पदृढताप्रौढिप्रगाढाग्रह-स्तस्याखार्वतगर्वपर्वतपविर्मद्वाक्कृतान्तायते ॥
सारांश यह कि मैं छोटोंके साथ अनुग्रह, बराबरीवालोके साथ सुजनता और बड़ों के साथ महान् आदरका मर्ताव करता हूँ। इस विषयमें मेरा चरित्र बहुत ही उदार है। परन्तु जो मुझे ऐंठ दिखाता है, उसके लिए, गर्वरूपी पर्वतको विध्वंस करनेवाले मेरे वज-वचन कालस्वरूप हो जाते हैं।
देखो जनहितैषी भाग ११, अंक -८ । . "उर्फ च वादिराजेन महाकविना--.....................स वादिराजोऽपि श्रीसोमदेवाचार्यस्य शिष्याषादीभालेहोऽपि मदीयशिष्यः श्रीवादिराजोऽपि मदीयशिष्यः' इत्युकत्वाच ।"
यशस्तिलकटीका आ०२, पृ०५६५ + ममास्तिलकके ऊपर उदृत हुए श्लोकमें उन महागादियोंकी संभा-जिनको श्रीनमिदेपने पराजित किया थातिरान मतलाई है। परन्तु नीतिवाक्यामृतकी गमप्रशस्तिमें पचपन है। मालम नहीं, इसका क्या कारण है।
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अंक १]
सोमदेषलूरिकृत नीतिवाक्यामृत ।
दर्पान्धबोधबुधसिन्धुरसिंहनादे, वादिद्विपोद्दलनदुर्धरवा विवादे ।
श्री सोमदेवमुनिपे वचनारसाले, वागीश्वरोऽपि पुरतोऽस्ति न वादकाले ॥ भाव यह कि अभिमानी पण्डित गजों के लिए सिंहके समान ललकारनेवाले और वादिगजोंको दलित करनेवाला दुर्धर विवाद करनेवाले श्रीसोमदेव मुनिके सामने, वादके समय वागीश्वर या देवगुरु बृहस्पति भी नहीं ठहर सकते हैं । इसी तरह के और भी कई पद्य हैं जिनसे उनका प्रखर और प्रचण्ड तर्कपाण्डित्य प्रकट होता है । यशस्तिलक चम्पूकी उत्थानिकामें कहा है:
आजन्मकृत्रभ्यालाच्छुष्कात्तक तृणादिव समास्याः । मतिसुरभेरभवदिवं सूक्तपयः सुकृतिनां पुण्यैः ॥ १७
अर्थात् मेरी जिस बुद्धिरूपी गौने जीवन भर तर्करूपी सूखा घास खाया, उसीसे अब यह काव्यरूपी दुग्ध उत्पन्न हो रहा है। इस उक्तिसे अच्छी तरह प्रकट होता है कि श्रीसोमदेवसूरिने अपने जीवनका बहुत बड़ा भाग तर्कशास्त्र के अभ्यास में ही व्यतीत किया था। उनके स्याद्वादाचल सिंह, वादभिपंचानन और तार्किकचक्रवती पद भी इसी बात के द्योतक हैं ।
परन्तु वे केवल तार्किक ही नहीं थे--काव्य, व्याकरण, धर्मशास्त्र और राजनीति आदिके भी धुरंधर विद्वान थे । महाकवि सोमदेव |
उनका यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य - जो निर्णगसागर की काव्यमाला में प्रकाशित हो चुका है-इस बातका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वे महाकवि थे और काव्यकला पर भी उनका असाधारण अधिकार था । समूचे संस्कृत साहित्य में यशस्तिलक एक अद्भुत काव्य है और कवित्वके साथ उसमें ज्ञानका विशाल खजाना संगृहीत है । उसका गद्य भी क दम्बरी तिलकमझरी आदिक टक्करका है। सुभाषितों का तो उसे आकर ही कहना चाहिए । उसकी प्रशंसा में स्वयं प्रन्यकर्त्ताने यत्रतत्र जो सुन्दर पद्य कहे हैं, वे सुनने योग्य हैं:
असहायमनादर्श रत्नं रत्नाकरादिव ।
मत्तः काव्यमिदं जातं सतां हृदयमण्डनम् ॥। १४ समुद्र से निकले हुए असहाय, अनादर्श और सज्जनोंके हृदयकी शोभा बढ़ानेवाले असहाय ( मौलिक ), अनादर्श ( बेजोड़ और हृदयमण्डन काव्यरत्न उत्पन्न हुआ । कर्णाञ्जलिपुटैः पातुं चेतः सूक्तामृते यदि ।
श्रूयतां सोमदेवस्य नव्याः काव्योक्तियुक्तयः ॥ २४६ ॥ यदि आपका चित्त फानोंकी अँजुलीसे सूक्तामृतका पान करना चाहता है, तो सोमदेवकी
सुनिए ।
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प्रथम आश्वास ।
रत्नकी तरह मुझसे भी यह
- द्वितीय आ० । नई नई काव्योक्तियाँ
लोकवित्वे कवित्वे वा यदि चातुर्यचञ्चवः ।
सोमदेवकवेः मूतिं समभ्यस्यन्तु साधवः ॥ ५१३ ॥ - तृतीय भा० । यदि सज्जनोंकी यह इच्छा हो कि वे लोकव्यवहार और कवित्वमें चातुर्य प्राप्त करें तो उन्हें सोमदेव कविकी सूक्तियोंका अभ्यास करना चाहिए ।
मया घागर्थसंभारे भुक्ते सारस्वते रसे । कवयोऽन्ये भविष्यन्ति नूनमुच्छिष्टभोजनाः ॥
चतुर्थ आ०, पृ० १६५ ।
मैं शब्द और अर्थपूर्ण सारे सारस्वत रस ( साहित्य रस ) का स्वाद ले चुका हूँ, अतएव अब जितने दूसरे कवि होंगे, वे निश्चयसे उच्छिष्टभोजी या जूठा खानेवाले होंगे वे कोई नई बात न कह सकेंगे । अरालकालव्यालेन ये लीढा साम्प्रतं तु ते ।
शब्दाः श्री सोमदेवेन प्रोत्थाप्यन्ते किमद्भुतम् ॥ - पंचम आ०, पृ० २६६ । समरूपी विकट सर्पने जिन शब्दोंको निगल लिया था, अतएव जो मृत हो गये थे, यदि उन्हें श्रीसोमदेवने उठा दिया, जिला दिया - तो इसमें कोई आश्रय नही होना चाहिए। ( इसमें ' सोमदेव ' शब्द विष्ट है । सोम चन्द्रवाची है और चन्द्रकी अमृत-किरणोंसे विषमूर्चित जीव सचेत हो जाते हैं । )
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४२ ]
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जैन साहित्य संशोधक
उद्धृत्य शास्त्रजलधेर्नितले निमग्नैः पर्यागतैरिव चिरादभिधानरत्नैः । या सोमदेवविदुषा विहिता विभूपा
वाग्देवता वहतु सम्प्रति तामनर्घाम् ॥ पं० आ०, पृ० २६६ | चिरकालसे शास्त्रसमुद्रके बिल्कुल नीचे डूबे हुए शब्द-रत्नोंका उद्धार करके सोमदेव पण्डितने जो यह बहुमूल्य आभूषण ( काव्य ) बनाया है, उसे श्रीसरस्वती देवी धारण करें ।
इन उक्तियोंसे इस बातका आभास मिलता है कि आचार्य सोमदेव किस श्रेणीके कवि थे और उनका उक्त महाकाव्य कितना महत्त्वपूर्ण है। पूर्वोक्त उक्तियों में अभिमानकी मात्रा विशेष रहने पर भी वे अनेक अंशों में सत्य जान पड़ती हैं । सचमुच ही यशस्तिलक शब्दरत्नोंका बड़ा भारी खजाना है और यदि माघकाव्यके समान कहा जाय कि इस काव्यको पढ़ लेने पर फिर कोई नया शब्द नहीं रह जाता, तो कुछ अत्युक्ति न होगी । इसी तरह इसके द्वारा सभी विपयोंकी व्युत्पत्ति हो सकती है । व्यवहारदक्षता बढ़ाने की तो इसमें ढेर सामग्री है ।
महाकवि सोमदेव वाक्कल्लोलपयोनिधि, कविराजकुंजर और गद्यपद्याविद्याधरचक्रवतीं विशेषण, उनके श्रेष्ठकवि केही परिचायक हैं ।
[ खंड २
धर्माचार्य सोमदेव |
यद्यपि अभीतक सोमदेवसूरिका कोई स्वतंत्र धार्मिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है; परन्तु यशस्तिलकके अन्तिम दो आश्वास- जिनमें उपासकाध्ययन या श्रावकों के आचारका निरूपण किया गया है— इस बातके साक्षी हैं कि वे धर्मके कैसे मर्मज्ञ विद्वान थे । स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्डके बाद श्राचकोंका आचारशास्त्र ऐसी उत्तमता, स्वाधीनता और मार्मिकता के साथ इतने विस्तृतरूपमें आजतक किसी भी विद्वान्की कलम से नहीं लिखा गया है । जो लोग यह समझते हैं : कि धर्मग्रन्थ तो परम्परांसे चले आये हुए ग्रन्थोंके अनुवादमात्र होते हैं - उनमें ग्रन्थकर्ता विशेष क्या कहेगा, उन्हें यह उपासकाध्ययन अवश्य पढ़ना चाहिए और देखना चाहिए कि धर्मशास्त्रों में भी मौलिकता और प्रतिभा के लिए कितना विस्तृत क्षेत्र है । खेद है कि जैनसमाजमें इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थके पठन पाठनका प्रचार बहुत ही कम है और अब तक इसका कोई हिन्दी अनुवाद भी नहीं हुआ है । नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमें लिखा है :--
सकलसमयतर्फे नाकलंकोऽसि वादिन् न भवसि समयोक्तौ हंससिद्धान्त देवः । न च चचनविलासे पूज्यपादोऽसि तत्त्वं वदसि कथमिदानीं सोमदेवेन सार्धम् ॥
अर्थात् हे वादी, न तो तू समस्तदर्शन शास्त्रों पर तर्क करनेके लिए अकलंकदेवके तुल्य है, न जैनसिद्धान्तको कहने के लिए हंससिद्धान्तदेव है और न व्याकरणमें पूज्यपाद है, फिर इस समय सोमदेवके साथ किस बिरते पर बात करने चला है ? *
इस उक्तिसे स्पष्ट है कि सोमदेवसूरि तर्क और सिद्धान्त के समान व्याकरणशास्त्र के भी पण्डित थे । राजनीतिज्ञ सोमदेव ।
सोमदेव के राजनीतिज्ञ होनेका प्रमाण यह नीतिवाक्यामृत तो है ही, इसके सिवाय उनके यशस्तिलकमें भी यशोधर महाराजका चरित्र चित्रण करते समय राजनीतिकी बहुत ही विशद और विस्तृत चर्चा की गई है । पाठकों कोचाहिए कि वे इसके लिए यशस्तिलकका तृतीय आश्वास अवश्य पढ़ें ।
यह आश्वास राजनीतिके तत्वोंसे भरा हुआ है । इस विपयमें वह अद्वितीय है । वर्णन करनेकी शैली बड़ी ही सुन्दर है । कवित्वकी कमनीयता और सरसतासे राजनीतिकी नीरसता मालूम नहीं कहाँ चली गई है। नीतिवाक्यामृत के
* अकलंकदेव -- अष्टशती, राजवार्तिक आदि ग्रन्थोंके रचियता । हंससिद्धान्तदेव - ये कोई सैद्धान्तिक आचार्य जान पड़ते हैं । इनका अब तक और कहीं कोई उल्लेख देखने में नहीं आया । पूज्यपाद - देवनान्द, जैनेन्द्र याकरणके फर्ता |
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अंक १] सोमवसूरिकत मीशिवाक्यामृत ।
[४. अनेक अंशोंका अभिप्राय उसमें किसी न किसी रूपमें अन्तर्निहित जान पड़ता है + ।
जहाँ तक हम जानते हैं जैनविद्वानों और आचामि-दिगम्यर और श्वेताम्बर दोनोंमें-एक सोमदेवने ही 'राजनीतिशास्त्र' पर कलम उठाई है। अतएव जनसाहित्यमें उनका नीतिवाक्यामृत अद्वितीय है । कमसे कम अब तक तो इस विपयका कोई दूसरा जनअन्य उपलब्ध नहीं हुआ है।
प्रन्थ-रचना। इस समय सोमदेवसूरिके केवल दो ही अन्य उपलब्ध हैं -नीतिवाक्यामृत और यशस्तिलकचम्पू । इनके सिवाय-जैसा कि नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिसे मालूम होता है-तीन ग्रन्थ और भी हैं-१ युक्तिचिन्तामणि, २त्रिवर्गमहेन्दमातलिसंजल्प और ३ पण्णवतिप्रकरण । परन्तु अभीतक ये कहीं प्राप्त नहीं हए हैं। उक्त ग्रन्थोंमेंसे युक्तिचिन्तामाणि तो अपने नामसे ही तर्कग्रन्थ मालूम होता है और दूसरा शायद नीतिावपयक होगा। महन्द्र और उसके सारथी मातलिके संवादरूपमें उसमें त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और कामकी चर्चा की गई होगी। सरके नागसे सिवाय इसके कि उसमें ९६ प्रकरण या अध्याय हैं, विषयका कुछ भी अनुमान नहीं हो सकता है।
इन सब ग्रन्थोंगें नीतिवाक्यामृत ही सबसे पिछला ग्रन्थ है। यशोधरमहाराजचरित या यशस्तिलक इसके पहलेका क्योकि नीतिवाक्यामृतमें उसका उल्लेख है। बहुत संभव है कि नीतिवाक्यामृतके बाद भी उन्होंने ग्रन्थरचना की हो और उक्त तीन ग्रन्योंके समान वे भी किसी जगह दीमक या चूहोंके खाद्य बन रहे हों, या सर्वथा नष्ट ही हो चुके हों।
विशाल अध्ययन। यशस्तिलक और नीतिवाक्यामृतके पढ़नेसे मालूम होता है कि सोमदेवसूरिका अध्ययन बहुत ही विशाल था। ऐसा जान पड़ता है कि उनके समयमें जितना साहित्य-न्याय, व्याकरण,काव्य, नीति,दर्शन आदि सम्बन्धी उपलब्ध था. उस सबसे उनका परिचय था। केवल जेन ही नहीं, जनेतर साहित्यसे भी वे अच्छी तरह परिचित थे । यशस्तिलकके चौथे आश्वासमें (पृ० ११३ में) उन्होंने लिखा है कि इन महाकवियोंके काव्योंमें नग्न क्षपणक या दिगम्बर साधुओका उल्लेख क्यों आता है ? उनकी इतनी अधिक प्रसिद्धि क्यों है ?-उर्व, भारवि, भवभूति, भहरि, भ टकण्ट, गुणाढ्य, व्यास, भास, वास, कालिदासx, बाण+, मयूर, नारायण, कुमार, माघ और राजशेखर।
इससे मालूम होता है कि वे पूर्वोक्त कवियोंके काव्योंसे अवश्य परिचित होंगे। प्रथम आश्वासके ९० वे पृष्ठमें उन्होंने इन्द्र, चन्द्र, जैनेन्द्र, आपिशल आर पाणिनिके व्याकरणोंका जिकर किया है। पूज्यपाद
+ नीतिवाक्यामृत और यशस्तिलकके कुछ समानार्थक वचनोंका मिलान कीजिए:१-युभुक्षाकालो भोजनकाल:- नी० वा०, पृ० २५३ ।। चारायणो निशि तिमिः पुनरस्तकाले, मध्ये दिनस्य धिपणश्चरकः प्रभाते। भुक्ति जगाद नृपते,मम चैप सगस्तस्याः स एव समयः क्षुधितो यदैव ॥३२८॥-यशस्तिलक,आ० ३॥ ( पूर्वोक्त पद्यमें चारायण, तिमि, धिपण और चरक इन चार आचार्योंके मतोंका उल्लेख किया गया है।) २-कोफवहिवाकामः निशि भुजीत । चकोरवन्नक्तंकामः दिवापक्वम् ।- नी० वा. पृ० २५७ । अन्ये त्विदमाहुः
यः कोकवहिवाकामः स नक्तं भोक्तुमर्हति ।
स भोक्ता वासरे यश्च रात्रौ रन्ता चकोरवत् ॥ ३३०॥ ---यशस्तिलक, आ०२ * भास महाकविका 'पेया सुरा प्रियतमामुखसक्षिणायं' आदि पद्य भी पाँचवें आश्वसमें (पृ. २५.) उद्धत है।- रघुवंशका भी एक जगह (आश्वास ४, पृ० १९४) उल्लेख है।+ बाण महाकविका एक जगह औ भी (आ०४, पृ.१०१) उल्लेख है और लिखा है कि उन्होंने शिकारकी निन्दा की है।
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ঈদ ভাইৰ মাখি (जैनेन्द्र के कर्ता) और पाणिनिका उल्लेख और भी एक दो जगह हुआ है । गुरु, शुक्र, विशालाक्ष, परी.. क्षित, पराशर, भीम, भीम, भारद्वाज आदि नीतिशास्त्रप्रणेताओंका भी वे कई जगह स्मरण करते हैं। कौटिलीय अर्थशास्त्रसे तो वे अच्छी तरह परिचित हैं ही । हमारे एक पण्डित मित्रके कथनानुसार नीतिवाश्यामृतमें सौ सवा सौ के लगभग ऐसे शब्द हैं जिनका अर्थ वर्तमान कोशोंमे नहीं मिलता । अर्थशास्त्रका अध्येता ही उन्हें सम्म सकता है । अश्वविद्या, गजैविद्या, रत्नपरीक्षा, कामशास्त्र, वैर्धक आदि विद्याओंके आचार्योंका भी उन्होंने कई प्रसंगोंने जिकर किया है । प्रजापतिप्रोक्त चित्रकर्म, वराहमिहिरकृत प्रतिष्टाकाण्ड, आदित्यमत, निमित्ताध्याय, महाभारत, रत्नपरीक्षा, पतंजलिका योगशास्त्र और वररुचि, व्यास, हरवोध, कुमारिलकी उफियोंके उद्धरण दिये हैं । सैद्धान्तवैशेपिक, तार्किक वैशेषिक, पाशुपत, कुलाचार्य, सांख्य, दशवलशासन, जैमिनीय, वाईसत्य, वेदान्तवादि, काणाद, ताथागत, कापिल, ब्रह्माद्वैतवादि, अवधूत आदि दर्शनोंके सिद्धान्तोपर विचार किया है । इनके सिवाय मतग, भृगु, भर्ग, भरत, गौतम, गर्ग, पिंगल, पुलह, पुलोम, पुलस्ति, पग
शर, मरीचि, विरोचन, ध्रुमध्वज, नीलपट, अहिल, आदि अनेक प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध आचार्योंका नामोल्लेख किया है। बहुतसे ऐतिहासिक दृष्टान्तोंका भी उल्लेख किया गया है । जैसे यवनदेश (यूनान? ) में मणिकुण्डला रानोने अपने पुत्रके राज्यके लिए विषदूपित शरावके कुरलेसे अजराजाको, सूरसेन (मथुरा) मे वसन्तमतिने विषमय आलसे रंगे हुए अधरोंसे सुरतविलास नामक राजाको, दशार्ण ( मिलसा) में वृकोदरीने विपलिप्त करधनीसे मदनाणव राजाको, मगध देशमें मदिराक्षीने तीखे दर्पणसे मन्मथविने दुको, पाख्य देशम चण्डरसा रानीने करीने छुड़ी हुई छुरीसे मुण्डीर नामक राजाको मार डाला । इत्यादि । पौराणिक आख्यान भी बहु-से आये हैं। जैसे प्रजापति ब्रह्माका चित्त अपनी लड़की पर चलायमान हो गया, वररुचि या कात्यायनने एक दासीपर रीझकर उसके कहनेसे मचका घड़ा उठाया, आदि। इन सब बातोंसे पाठक जान सकेंगे कि आचार्य सोमदेवका ज्ञान कितना विस्तृत और व्यापक था।
उदार विचारशीलता। यशस्तिलकके प्रारंभके २० वे ले कने सोमदेवसूरि कहते हैं:
लोको युक्तिः कलाश्छन्दोऽलंकाराः समयागमाः ।
सर्वसाधारणाः सद्धिस्तीर्थमार्ग इव स्मृताः ॥ अर्थात् सज्जनोंका कथन है कि व्याकरण, प्रमाणशास्त्र (न्याय ), कलायें, छन्दःशान, अलंफारशास्त्र और (आहेत, जैमिनि, कपिल, चार्वाक, कणाद, बौद्धादिके ) दर्शनशास्त्र तीर्थमार्गके समान सर्वसाधारण हैं । अर्थात् जिस तरह गंगादिके मार्ग पर ब्राह्मण भी चल सकते हैं और चाण्डाल भी, उसी तरह इनपर भी सबका अधिकार है। +
१-" पूज्यपाद इव शब्दतियेषु...पणिपुत्र इव पदप्रयोगेषु " यश आ० २, पृ० २३६ । -२, ३, ४, ५, ६-" रोमपाद इव गजविद्यासु रैवत इव हयनयेषु शुकनाश इव रत्नपरीक्षासु, दत्तक इव कन्तुसिद्धान्तेषु "-भा० ४, पृ. २३६-२३७ । 'दत्तक' कामशास्त्र के प्राचीन आचार्य है । वात्स्यायनने इनका उहख किया है। 'चारायण' भी फामशाखके आचार्य हैं। इनका मत यशस्तिलकके तीसरे आश्वासके ५०९ पृष्ठमें चरकके साथ प्रकट किया गया है।
..., २, ३, ४, ५–उक्त पाचां अन्योंके उद्धरण यश के चौथे आश्वासके पृ० ११२-१३ और ११९ में उद्धृत हैं । महाभारतका नाम नहीं है, परन्तु-पुराणं मानवो धर्मः साड्गो वेदश्चिकित्सितम्' आदि श्लोक महाभारतसे ही उद्धृत किया गया है।
६-तदुक्तं रत्नपरीक्षायाम्-'न केवलं' आदि; आश्वास ५, पृ. २५६ । ७-यशस्तिलक आ० ६, पृ. २७६-७७८-९-आ० ४, पृ० ९९।१०,११-आ० ५, पृ०२५१-५४ । १२-इन सब दर्शनोंका विचार पाँचवें आश्वासके पृ. २६९ से २७७ तक किया गया है। १३-देखो आश्वास ५, पृ० २५२-५५ और २९९ ।
यशस्तिलक आ०४, पृ. १५३ । इन्हीं आख्यानोंका उल्लेख नीतिवाक्यामृत ( पृ. २३२) में भी किया गया है। आश्वास ३. पृ. ४३१ और ५५० में भी ऐसे ही कई ऐतिहासिक दृष्टान्त दिये गये हैं। .
४ यश. आ० ४.पृ. १३८-३९।
+"लोको व्याकरणशान, युक्तिः प्रमाणशास्त्रम, .....समयागमा: जिनजैमिनिकपिलकणचरचार्वाकशाक्यानां सिद्वान्ताः । सर्वसाधारणा: मद्भिः कथिताः प्रतिपादिताः। क इव तीर्थ माग इय । यया तीर्थमार्गे ब्राझगाश्चलन्ति, चाण्डाला अपि गच्छन्ति, नास्ति तत्र दोषः।"-श्रुतसागरी टीका।
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भंक१
सोमदेवशारदार गोतियाफ्याम्मत
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इस उक्तिसे पाठक जान सकते हैं कि उनके विचार ज्ञानके सम्बन्धमें कितने उदार थे । उसे ये सर्वसाधारणको चीज समझते थे और यही कारण है जो उन्होंने धर्माचार्य होकर भी अपने धर्मसे इतर धर्मके माननेवालोंके साहित्यका भी अच्छी तरहसे अध्ययन किया था, यही कारण है जो वे पूज्यपाद और भट्ट अकलंकदेवके साथ पाणिनि आदिका भी आदरके साथ उल्लेख करते हैं और यही कारण है जो उन्होंने अपना यह राजनीतिशाबजनेतर आचार्योंके विचारोंका सार खींचकर बनाया है। यह सच है कि उनका जैन सिद्धान्तों पर अचल विश्वास है और इसीलिए यशस्तिलकमें उन्होंने अन्य सिद्धान्तोका खण्डन करके जैनसिद्धान्तकी उपादेयता प्रतिपादन की है। परन्तु इसके साथ ही वे इस सिद्धान्तके पक्के अनुयायी हैं कि 'युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः।' उनकी यह नीति नहीं थी कि ज्ञानका मार्ग भी संकीर्ण कर दिया जाय और संसारके विशाल ज्ञान-भाण्डारका उपयोग करना छोड़ दिया जाय।
समय और स्थान। नीतिवाक्यामृतके अन्तकी प्रशस्तिमें इस बातका कोई जिकर नहीं है कि वह कब और किस स्थानमें रचा गया था, परन्तु यशस्तिलक चम्पूके अन्तमें इन दोनों बातोंका उल्लेख है:
"शकनृपकालातीतसंवन्सरशतेप्वष्टस्वेकाशीत्यधिकेपु गतेपु अफ ८८१) सिद्धार्थसंवत्सरान्तर्गतचैत्रमासमदनत्रयोदश्यां पाण्ड्य-सिंहल-चोल-चेरमप्रभृतीन्महीपतीन्प्रसाध्य मेलपाटीप्रवर्धमानराज्यप्रभावे श्रीकृष्णराजदेवे सति तत्पादपानोपजीविनः समधिगतपञ्चमहाशब्दमहासामन्ताधिपतेश्चाक्यकुलजन्मनः सामन्तचूडामणेः श्रीमदरिकेसरिणः प्रथमपुत्रस्य श्रीमद्वद्यगराजस्य लक्ष्मीप्रवर्धमानवसुधागयां गङ्गाधारायां विनिमापितमितं कान्यामिति ।".
___ अर्थात् चैत सुदी १३, शकसंवन् ८८१ (विक्रम संवत् १०३६) को जिस समय श्रीकृष्णगजदेव पाण्य सिंहल, चोल, चेर आदि राजाओं पर विजय प्राप्त करके मेलपाटी नामक राजधानीमें राज्य करते थे और उनके चरणकमलोपजीवी सामन्त वदिग-जो चालुक्यवंशीय भरिकेसरीके प्रथम पुत्र थे-गंगाधाराका शासन करते थे, यह काव्य समाप्त हुआ। ____दक्षिणके इतिहाससे पता चलता है कि ये कृष्णराजदेव राष्ट्रकूट या राठौर वंशके महाराजा थे और इनका दूसरा नाम अकालवप था। यह वही वंश है जिसमें भगवज्जिनसेनके परमभक्त महाराज अमोघवर्ष (प्रथम) उत्पन्न हुए थे। अमोघवर्षके पुत्र अकालवप (द्वितीय कृष्ण ) और अकालवर्पके जगतुंग हुए । इन जगत्तुंगके दो पुत्रो. इन्द्र या नित्यवर्प और वहिग या अमांघव (तृतीय) मेसे-अमोघवर्ष तृतीयके पुत्र कृष्णराजदेव या तृतीय कृष्ण थे। इनके समयके शक संवत् ८६७, ८७३, ८७६, और ८८१ के चार शिलालेख मिले हैं, इससे इनका राज्यकाल फमसे कम ८६७ से ८८१ तक सुनिश्चित है। ये दक्षिणके सार्वभौमराजा थे और बड़े प्रतापी थे। इनके अधीन अनेक माण्डलिक या करद राज्य थे । कृष्णराजने-जैसा कि सोमदेवसूरिने लिखा है-सिंहल, चोल, पाण्ड्य और चेर राजाओको युद्ध में पराजित किया था। इनके समयमें कनड़ी भापाका सुप्रसिद्ध कवि पोन हुआ है जो जैन था और जिसने
पाण्डयवर्तमानमें मद्रासका 'तिनेवली' । सिंहल-सिलोन या लंका। चोल-मदरासका कारोमण्डल। चेर केरल, वर्तमान त्रावणकोर । २ मुद्रित प्रन्यमें 'मेल्याटी' पाठ है। ३ मुद्रित पुस्तक 'श्रीमद्वागराजप्रबंधमान- पाठ है।
*जगतंग गद्दीपर नहीं बैठे। अकालवपके वाद जगतंगके पुत्र तृतीय इन्द्रको गद्दी मिली। इन्द्रके दो पुत्र धे-अमोघवर्प (द्वितीय) और गोविन्द (चतुर्थ)। इनमेंसे द्वितीय अमोघवर्ष पहले सिंहासनारूढ हुए; परन्तु कुछ; ही समयके बाद गोविन्द चतुर्थने उन्हें गद्दीसे उतार दिया और आप राजा बन बैठे। गोविन्दके बाद उनके काका अर्थात जगतंगके दूसरे पुत्र अमोघवर्ष (तृतीय) गद्दीपर बैठे। अमोघवर्पके बाद ही कृष्णराजदेव सिंहासनासीन हुए। इन सबके विषयमें विस्तारसे जाननेके लिए डा० भाण्डरकरकृत 'हिस्ट्री आफ दी डेकन' या उसका मराठी अनुबाद पढ़िए ।
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जैन साहित्य संशोधका
............ शान्तिपुराण नामक श्रेष्ठ प्रन्थकी रचना की है। महाराज कृष्णराज देवके दरवारसे इसे 'उगयभापाकविचमवती । की उपाधि मिली थी।
निजामके राज्यमें मलखेड नामका एक ग्राम है जिसका प्राचीन नाम 'मान्यखेट ' है । यह मान्यखेट ही अमोघघर्ष आदि राष्टकट,मग की राजधानी थी और उस समय बहुत ही समृद्ध थी। संभव है कि सोमदेवने इसीको मेलपाटी या मिल्याटी लिखा हो। 'हिस्टरी आफ कनारी लिटरेचर' के लेखकने लिखा है कि पोन कविको उभयभापाकविचक्रवर्तीकी उपाधि देनेवाले राष्ट्रकूट राजा कृष्णराजने मान्यखेटमें सन् ९३९ से १६८ तक राज्य किया है। इससे भी मालूम होता है कि मान्यखेटका ही नाम मेलपाटी होगा; परंतु यदि यह मेलपाटी कोई दूसरा स्थान है तो समझना होगा कि कृष्णराज देवके समयमें मान्यखेटसे राजधानी उठकर उक्त दूसरे स्थानमें चली गई थी। इस बातका पता नहीं लगता कि मान्यखेटमें राष्ट्रकूटोंकी राजधानी कब तक रही।
राष्ट्रकूटोंके समयमें दक्षिणका चालुक्यवंश ( सोलकी ) हतप्रभ हो गया था। क्योंकि इस वंशका सार्वभौमत्व राष्टकटोंने ही छीन लिया था। अतएव जब तक राष्ट्रकूट सार्वभौम रहे तब तक चालुक्य उनके आज्ञाकारी सामन्त या माण्डलिक राजा बनकर ही रहे। जान पड़ता है कि अरिकेसरिका पुत्र बदिग ऐसा ही एक सामन्तराजा था जिसकी गंगाधारा नाजधानीमें यशस्तिलककी रचना समाप्त हुई है।
चालुक्योंकी एक शाखा ‘जोल' नामक प्रान्तपर राज्य करती थी जिसका एक भाग इस सगयके धारवाड़ जिलेमें आता है और श्रीयुक्त आर. नरसिंहाचार्य के मतसे चालक्य अरिकेसरीकी राजधानी 'पुलगेरी में थी जो कि इस समय 'लक्ष्मेश्वर के नामसे प्रसिद्ध है।
इस अरिकेसरीके ही समयमें कनड़ी भाषाका सर्वश्रेष्ठ कवि पम्प हो गया है जिसकी रचना पर मुग्ध होकर अरिकेसरीने धर्मपुर नामका एक ग्राम पारितोपिकमें दिया था। पम्प जैन था। उसके बनाये हुए दो प्रन्थ ही इस समय उपलब्ध है-एक आदिपुराण चम्पू और दूमरा भारत या विक्रमार्जुनविजय। पिछले ग्रन्थमें उसने भरिकेसरीकी वंशावली इस प्रकार दी है-युद्धमल्ल -आरकसरी-नारसिंह-युद्धमल्ल - पहिंग- युद्धमल्लनारसिंह और अरिकेसरी । उक्त ग्रन्थ शक संवत ८६३ (वि० ९९८ में ) समास हुआ है, अर्थात् यह यशस्तिलकसे कोई १८ वर्ष पहले वन चुका था। इसकी रचनाके समय अरिकेसरी राज्य करता था, तब उसके १८ वर्षबाद-यशस्तिलककी रचनाके समय-उसका पुत्र राज्य करता होगा, यह सर्वथा ठीक अँचता है।
_काव्यमाला द्वारा प्रकाशित यशस्तिलकमें अरिकेसरीके पुत्रका नाम 'श्रीमद्वागराज' मुद्रित हुआ है; परन्तु हमारी समझमें वह अशुद्ध है । उसकी जगह 'श्रीमद्वादिगराज' पाठ होना चाहिए । दानवीर सेठ माणिकचंदजीके सरस्वतीभंडारकी वि० सं० १४६४ की लिखी हुई प्रतिमें 'श्रीमद्वद्यगराजस्य पाठ है और इससे हमें अपने कल्पना किये हुए पाठकी शुद्धतामें और भी अधिक विश्वास होता है। ऊपर जो हमने पम्पकवि-लिखित अरिकेसरीकी वंशावली दी है, उस पर पाठकोंको जरा बारीकीसे विचार करना चाहिए। उसमें युद्धमल्ल नामके तीन, आरिकेसरी नामके दो और नारसिह नामके दो राजा है। अनेक राजवंशोंमें प्रायः यही परिपाटी देखी जाती है कि पितामह और पौत्र या प्रपितामह और प्रपौत्रके नाम एकसे रक्खे जाते थे, जैसा कि उक्त वंशावलीसे प्रकट होता है। अतएव हमारा अनुमान है कि इस वंशावलीके अन्तिम राजा आरिफोसरी (पम्पके आश्रयदाता) के पुलका नाम बहिग x ही होगा जो कि लेखकोंके प्रमादसे 'वद्यग' या 'वाग' बन गया है।
__x महाराजा अमोघवर्ष (प्रथम) के पहले शायद राष्ट्रकूटोंकी राजधानी मयूरखण्डी थी जो इस समय नासिक जिलेमें मोरखण्ड किलेके नामसे प्रसिद्ध है।
* दक्षिणके राष्ट्रकूटोंकी वंशावलीमें भी देखिए कि अमोघवर्ष नामके चार, कृष्ण या अकालवर्प नामके तीन, गोविन्द नामके चार, इन्द्र नामके तीन और कर्क नामके तीन राजा लगभग २५० वर्षके बीच में ही हुए हैं।
xश्रद्धय पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझाने अपने 'मोलंकियोंके इतिहास' (प्रथम भाग) में लिखा है कि सोमदेवसूरीने अरिकेसरीके प्रथम पुत्रका नाम नहीं दिया है। परन्तु ऐसा उन्होंने यशस्तिलककी प्रशस्तिके अशुद्ध पाठके कारण समझ लिया है। वास्तवमे नाम दिया है और वह 'दिग' ही है।
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अंक १]
सोमदेवसूरिकृत नीतिवाझ्यामृत। .
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MAAMANAA
गंगाधारा' स्थान के विपयमें हम कुछ पता न लगा सके जो कि बद्विगकी राजधानी थी और जहाँ यशस्तिलककी रचना समाप्त हुई है। संभवतः यह स्थान धारवाड़के ही आसपास कहीं होगा।
श्रीसोमदेवसूरिने नातिवाक्यामृतकी रचना कब और कहाँ पर की थी, इस वातका विचार करते हुए हमारी दृष्टि उसकी संस्कृत टीकाके निम्नलिखित वाक्यों पर जाती है।
“ अत्र तावदखिलभूपालमौलिलालितचरणयुगलेन रघुवंशावस्थायिपराक्रमपालितकस्य ( कृत्स्न ) कर्णकुन्जेन महाराजश्रीमहेन्द्रदेवेन पूर्वाचार्यकृतार्थशास्त्रदुरवबोधग्रन्थगौरवखिन्नमानसेन सुबोधललितलघुनीतिवाक्यामृतरचनासु प्रवतितः सकलपारिपदत्वानतिग्रन्थस्थ नानादर्शनप्रतिवद्धश्रोतॄणां तत्तदीष्टश्रीकण्ठाच्युतविरंच्यहतां वाचनिकमनस्कृतिसूचनं तथा स्वगुरोः सोमदेवस्य च प्रणामपूर्वकं शास्त्रस्य तत्कर्तृत्वं ख्यापयितुं सकलसत्त्वकृताभयप्रदानं मुनिचन्द्राभिधानः क्षपणकव्रतधी नीतिवाक्यामृतकर्ता निर्विनसिद्धिकरं...श्लोकमेकं जगाद-" पृष्ठ २.
इसका अभिप्राय यह है कि कान्यकुब्जनरेश्वर महाराजा महेन्द्रदेवने पूर्वाचार्यकृत अर्थशास्त्र ( कौटिलीय अर्थशास्त्र ?) की दुर्बोधता और गुरुतासे खिन्न होकर ग्रन्थकर्तीको इस सुबोध, सुन्दर और लघु नीतिवाक्यामृतकी रचना करने में प्रवृत्त क्रिया।
कनौजके राजा महेन्द्रपालदेवका समय वि० संवत् ९६० से ९६४ तक निश्चित हुआ है। कर्पूरमंजरी और.काव्यमीमांसा आदिके को सुप्रसिद्ध कवि राजशेखर इन्हीं महेन्द्रपालदेवके उपाध्याय थे। परन्तु हम, देखते हैं कि यशस्तिलक वि० संवत् १०१६ में समाप्त हुआ है और नीतिवाक्यामृत उससे भी पीछे बना है। क्योंकि नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमें ग्रन्थकाने अपनेको यशोधरमहाराजचरित या यशस्तिलक महाकाव्यका कर्ता प्रकट किया है और इससे प्रकट होता है कि उक्त प्रशस्ति लिखते समय वे यशस्तिलकको समाप्त कर चुके थे। ऐसी अवस्थामें महेन्द्रपालदेवसे कमसे कम ५०-५१ वर्ष बाद नीतिवाक्यामृतका रचनाकाल ठहरता है । तब समझमें नहीं आता कि टीकाकारने सोमदेवको महेन्द्रपालदेवका सामायक कैसे ठहराया है। आश्रय नहीं जो उन्होंने किसी सुनी मुनाई किंवदन्तीके आधारसे पूर्वोक्त वात लिख दी हो।
नीतिवाक्यामृतके टीकाकारका समय अज्ञात है; परंतु यह निश्चित है कि वे मूल ग्रन्थकर्तासे बहुत पीछे हुए है, क्योंकि और तो क्या वे उनके नामसे भी अच्छी तरह परिचित नहीं है । यदि ऐसा न होता तो मंगला. चरणके श्लोककी टीकामें जो ऊपर उद्धृत हो चुकी है, वे अंथकर्ताका नाम 'मुनिचन्द्र' और उनके गुरुका नाम 'सोमदेव' न लिखते । इससे भी मालूम होता है कि उन्होंने ग्रन्थकर्ता और महेन्द्रदेवका समकालिकत्व किंवदन्तकि आधारसेही लिखा है।
___ सोमदेवसूरिने यशस्तिलको एक जगह जो प्राचीन महाकवीयोंकी नामावली दी है, उसमें सबसे अन्तिम नाम राजशेखरका है। इससे मालूम होता है कि राजशेखरका नाम सोमदेवके समयमें प्रसिद्ध हो चुका था. अत एव राजशेखर उनसे अधिक नहीं तो ५० वर्ष पहले अवश्य हुए होंगे और महेन्द्रदेवके वे उपाध्याय थे । इससे भी नीतिवाक्यामृतका उनके समयमें या उनके कहनेसे बनना कम संभव जान पड़ता है।
और यदि कान्यकुजनरेशके कहनेसे सचमुच ही नीतिवाक्यामृत बनाया गया होता, तो इस बातका उल्लेख अन्यकर्ता अवश्य करते; बल्कि महाराजा महेन्द्रपालदेव इसका उल्लेख करनेके लिए स्वयं उनसे आग्रह करते।
पहले बतलाया जा चुका है कि सोमदेवसूरि देवसंघके आचार्य थे और जहाँ तक हम जानते हैं यह संघ दक्षिणमें ही रहा है । अब भी उत्तरमें जो भद्वारकोंकी गद्दियों हैं, उनमेसे कोई भी देवसंघकी नहीं है । यशस्तिलक भी दक्षिणमें ही बना है और उसकी रचनासे भी अनुमान होता है कि उसके कर्ता दाक्षिणात्य हैं । ऐसी अवस्थामें उनका
*देखो नागरीप्रचारिणी पत्रिका (नवीन संस्करण), भाग २, अंक १ में स्वर्गीय पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरीका 'अवन्तिसुन्दरी' शीर्पक नोट।
x" तथा--उर्व-भारवि-भवभूति-भर्तृहरि-भर्तृमेण्ठ-गुणाढ्य-व्यास-भास-वोस-कालिदास-वाण-मयूर-नारायण-कुमारमाघ-राजशेखरादिमहाकविकाव्यपु तत्न तनावसरे भरतप्रणीत काव्याध्याये सर्वजनप्रसिद्धपु तेषु तेप्पाख्यानेषु च कथ तद्विपमा महती प्रसिद्धिः।"
यशस्तिलक आ० ४, पृ०११३।
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४८]
[ खंड २
निर्ग्रन्थ होकर भी कान्यकुब्जके राजाकी सभा में रहना और उसके कहनेसे नीतिवाक्यामृतकी रचना करना असंभव नहीं तो विलक्षण अवश्य जान पड़ता है ।
मूलग्रन्थ और उसके कर्ता के विषय में जितनी बातें मालूम हो सकीं उन्हें लिखकर अब हम टीका और टीकाकारका परिचय देनेकी ओर प्रवृत्त होते हैं:--
PV
टीकाकार ।
जिस एक प्रतिके आधार से यह टीका मुद्रित हुई है, उसमे कहीं भी टीकाकारका नाम नहीं दिया है। संभव है कि टीकाकारकी भी कोई प्रशस्ति रही हो और वह लेखकों के प्रमादसे छूट गई हो । परन्तु टीकाकारने अन्यके आरंभ में जो मंगलाचरणका श्लोक लिखा है, उससे अनुमान होता है कि उनका नाम बहुत करके ' हरिवल ' होगा । हरि हरिवलं नत्वा हरिवर्ण हरिप्रभम् हरीज्यं च बुवे टीका नीतिवाक्यामृतोपरि ॥
यह श्लोक मूल नीतिवाक्यामृत के निम्नलिखित मंगलाचरणका बिल्कुल अनुकरण है:सोमं सोमसमाकारं सोमानं सोमसंभवम् । सोमदेवं मुनिं नत्वा नीतिवाक्यामृतं ब्रुवे ॥
जब टीकाकारका मंगलाचरण मूलका अनुकरण है और मूलकारने अपने मंगलाचरण में अपना नाम भी पर्यायान्तरसे व्यक्त किया है, तब बहुत संभव है कि टीकाकारने भी अपने मंगलाचरण अपना नाम व्यक्त करनेका प्रयत्न किया हो और ऐसा नाम उसमें हरिवल ही हो सकता है जिसके आगे मूलके सोमदेव के समान नत्था पद पड़ा हुआ है। यह भी संभव है कि हरिबल टीकाकारके शुरुका नाम हो और यह इसलिए कि सोमदेवको उन्होंने मूलग्रन्थ कर्ताके गुरुका नाम समझा है । यद्यपि यह केवल अनुमान ही है, परन्तु यदि उनका या उनके गुरुका नाम हरिवल हो, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है ।
टीकाकारने मंगलाचरणमें हरि या वासुदेवको नमस्कार किया है। इससे मालूम होता है कि वे वैष्णव धर्मके उपासक होंगे।
1
वे कहाँ रहनेवाले थे और किस समय में उन्होंने यह टीका लिखी है, इसके जाननेका कोई साधन नहीं है परन्तु यह बात निःसंशय होकर कही जा सकती हैं कि वे बहुश्रुत विद्वान् थे और एक राजनीतिके प्रन्यपर टीका लिखनेकी उनमें यथेष्ट योग्यता थी। इस विपयके उपलब्ध साहित्यका उनके पास काफी संग्रह था और टीकामे उसका पूरा पूरा उपयोग किया गया है। नीतिवाक्यामृतके अधिकांश वाक्योंकी टीकामे उस वाक्यसे मिलते जुलते अभिप्रायवाले उद्धरण देकर उन्होंने मूल अभिप्रायको स्पष्ट करनेका भरसक प्रयत्न किया है । विद्वान् पाठक समक्ष सकते हैं कि यह काम कितना कठिन है और इनके लिए उन्हें कितने ग्रन्थों का अध्ययन करना पड़ा होगा; स्मरणशक्ति भी उनकी कितनी प्रखर होगी ।
यह टीका पचासों मन्थकारोंके उद्धरणोंसे भरी हुई हैं। इसमें किन किन कवियों, आचाय या ऋपियों के छोक उदधृत किये गये हैं, यह जानने के लिए प्रन्थके अन्तमें उनके नामोंकी और उनके पद्योंकी एक सूची वर्णानुक्रमसे लगा दी गई है, इसलिए यहाँ पर उन नामों का पृथक् उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है । पाठक देखेंगे कि उसमें अनेक नाम बिल्कुल अपरिचित हैं और अनेक ऐसे हैं जिनके नाम तो प्रसिद्ध हैं; परन्तु रचनायें इस समय अनुपलब्ध हैं। इस दृष्टिसे यह टीका और भी बड़े महत्त्वकी है कि इससे राजनीति या सामान्यनीतिसम्बन्धी प्राचीन ग्रन्थकारोंकी रचनाके सम्बन्ध में अनेक नई नई बातें मालूम होंगी ।
संशोधक
आक्षेप |
इस ग्रन्थकी प्रेसकापी और प्रुफ संशोधनका काम श्रीयुत पं० पन्नालालजी सोनीने किया है । आपने केवल अपने उत्तरदायित्व पर, मेरी अनुपस्थितिमें, कई टिप्पणियाँ ऐसी लगा दी हैं जिनसे टीकाकारके और उसकी टीकाके विषयमें एक बड़ा भारी भ्रम फैल सकता है अतएव यहाँ पर यह आवश्यक प्रतीत होता है कि उन टिप्पणियों पर भी एक नजर डाल ली जाय । सोनीजीकी टिप्पणियों के आक्षेप दो प्रकार के हैं:---
"
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[१]
सोमदेवसरिकृत नीतिवाक्यामृत
( vé
१ - टीकाकारने जो मनु, शुक्र और याज्ञवल्क्यके श्लोक उद्धृत किये हैं, वे मनुस्मृति, शुक्रनीति और याज्ञ"ल्क्यस्मृतिमें, नहीं है । यथा पृष्ठ १६५ की टिप्पणी-" श्लोकोऽयं मनुस्मृतौ तु नास्ति । टीकाकर्त्रा स्वमष्टयेन ग्रन्थकर्तृपराभवाभिप्रायेण वहवः श्लोकाः स्वयं विरचय्य तत्र तत्र स्थलेषु विनिवेशिताः ।' यह श्लोक मनुस्मृतिमें तो नहीं है, टीकाकारने अपनी दुष्टतावश मूलकर्ताको नीचा दिखाने के अभिप्रायसे वयं ही बहुतसे श्लोक बनाकर जगह जगह घुसेड़ दिये हैं ।
२ - इस टीकाकारने - जो कि निश्चयपूर्वक अजैन है- बहुतसे सूत्र अपने मत के अनुसार स्वयं बनाकर जोड़ दिये है । यथा पृष्ठ ४९ की टिप्पणी- " अस्य ग्रन्थस्य कर्त्ता कश्चिदजैनविद्वानस्तीति निश्चितं । अतस्तेन स्वमतानुसारेण बहूनि सूत्राणि विरचय्य संयोजितानि । तानि च तत्र तत्र निवेदयिष्यामः । "
पहले आक्षेपके सम्बन्धमें हमारा निवेदन है कि सोनीजी वैदिक धर्मके साहित्य और उसके इतिहाससे सर्वथा अनभिज्ञ हैं; फिर भी उनके साहसकी प्रशंसा करनी चाहिए कि उन्होंने मनु या शुक्र नामके किसी ग्रन्थके किसी एक संस्करणको देखकर ही अपनी अद्भुत राय दे डाली है । खेद है कि उन्हें एक प्राचीन विद्वानके विषयम - केवल इतने कारण से कि वह जैन नहीं है इतनी बड़ी एकतरफा डिक्री जारी कर देनेमें जरा भी झिझक नहीं हुई 1
सोनीजीने सारी टीका मनुके नामके पाँच श्लोकोंपर, याज्ञवल्क्यके एक श्लोकपर, और शुक्र के दो छोकोपर अपने नोट दिये हैं कि ये श्लोक उक्त आचार्यों के ग्रन्थोंमें नहीं हैं। सचमुच ही उपलब्ध मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति और शुक्रनीति उद्धृत श्लोकों का पता नहीं चलता । परन्तु जैसा कि सोनीजी समझते हैं, इसका कारण टीकाकार की दुष्टता या मूलकर्ताको नीचा दिखाने की प्रवृत्ति नहीं है ।
सोनीजीको जानना चाहिए कि हिन्दुओंके धर्मशास्त्रों में समय समय पर बहुत कुछ परिवर्तन होते रहे हैं। अपने निर्माणसमय में वे जिस रूपमें थे, इस समय उस रूपमें नहीं मिलते हैं । उनके संक्षिप्त संस्करण भी हुए हैं और प्राचीन अन्योंके नष्ट हो जानेसे उनके नामसे दूसरोंने भी उसी नामके ग्रन्थ बना दिये हैं । इसके सिवाय एक स्थानकी प्रतिके पाठोसे दूसरे स्थानों की प्रतियों के पाठ नहीं मिलते। इस विषयमें प्राचीन साहित्य के खोजियोंने बहुत कुछ छानबीन की है और इस विषय पर बहुत कुछ प्रकाश डाला है। कौटिलीय अर्थशास्त्रकी भूमिका ने उसके सुप्रसिद्ध सम्पादक पं० आर. शामशास्त्री लिखते हैं:
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'अतश्च चाणक्यकालिकं धर्मशास्त्रमधुनातनाद्याज्ञवल्क्यधर्मशास्त्रादन्यदेवासीदिति प्रतिभाति । एवमेव ये पुनर्मा'नव-बार्हस्पत्यौशनसा भिन्नाभिप्रायास्तत्र तत्र कौटिल्येन परामृष्टाः न तेऽअधुनोपलभ्यमानेषु ततद्धर्मशास्त्रेषु दृश्यन्त इति कौटिल्यपरामृष्टानि तानि शास्त्राण्यन्यान्येवेति बाढं सुवचम् |
33
अर्थात् इससे मालूम होता है कि चाणक्य समयका याज्ञवल्क्य धर्मशास्त्र वर्तमान याज्ञवल्क्य शास्त्र (स्मृति) से कोई जुदा ही था । इसी तरह कौटिल्यने अपने अर्थशास्त्रमें जगह जगह चार्हस्पत्य, औशनस आदिसे जो अपने भिन्न अभिप्राय प्रकट किये हैं वे अभिप्राय इस समय मिलनेवाले उन धर्मशास्त्रों में नहीं दिखलाई देते । अतएव यह अच्छी तरह सिद्ध होता है कि कौटिल्यने जिन शास्त्रोंका उल्लेख किया है, वे इनके सिवाय दूसरे ही थे ।
स्वर्गीय बाबू रमेशचन्द्र दत्तने अपने ' प्राचीन सभ्यता के इतिहास' में लिखा है कि प्राचीन धर्मसूत्रों को सुधार कर उत्तरकालमें स्मृतियाँ बनाई गई हैं- जैसे कि मनु और याज्ञवल्क्यकी स्मृतियाँ। जो धर्मसूत्र खोये गये हैं उनमें एक मनुका सूत्र भी है जिससे कि पीछेके समय में मनुस्मृति बनाई गई है । S
याज्ञवल्क्य स्मृतिके सुप्रसिद्ध टीकाकार विज्ञानेश्वर लिखते हैं:--" याज्ञवल्क्यशिष्यः कश्चन प्रश्नोत्तररूपं याशवल्क्यप्रणीतं धर्मशास्त्रं संक्षिप्य कथयामास, यथा मनुप्रोक्तं भृगुः । अर्थात् याज्ञवल्क्य के किसी शिष्यने याज्ञवल्क्यप्रणीत धर्मशास्त्रको संक्षिप्त करके कहा- जिस तरह कि भृगुने मनुप्रणीत धर्मशास्त्रको संक्षिप्त करके मनुस्मृति लिखी है। इससे मालूम होता है कि उक्त दोनों स्मृतियाँ, मनु और याज्ञवल्क्यके प्राचीन शास्त्रोंके उनके
S रमेशबाबूने अपने इतिहास के चौथे भागमें इस समय मिलनेवाली पृथक पृथकू बीसों स्मृतियों पर अपने विचार प्रकट किये हैं और उसमें बतलाया है कि अधिकांश स्मृतियाँ बहुत पीछेकी बनी हुई हैं और बहुतों में जो प्राचीन भी - बहुत पीछे तक नई नई बातें शामिल की जाती रही हैं।
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जैन साहित्य संशोधक
[खंड २ शिष्यों या परम्पराशिष्यों द्वारा निर्मित किये हुए सार हैं और इस बातको तो सभी जानते हैं कि उपलब्ध मनुस्मृति भूगुप्रणीत हैं-स्वयं मनुप्रणीत नहीं।
बम्बईके गुजराती प्रेसके मालिकोंने कुल्लूकभट्टकी टीकाके सहित मनुस्मृतिका एक सुन्दर संस्करण प्रकाशित किया है। उसके परिशिष्टम ३५५ श्लोक ऐसे दिये हैं जो वर्तमान मनुस्मृति में तो नहीं मिलते हैं। परन्तु हेमादि, मिताक्षरा, पराशरमाधवीय, स्मृतिरत्नाकर, निर्णयसिन्धु आदि अन्योम मनु, वृद्धमनु और बृहन्मनुके नामसे 'उक्तंच' रूपमें उद्धृत किये हैं । इसके सिवाय सैकड़ों श्लोक क्षेपकरूपमें भी दिये हैं, जिनकी कुल्लक महने भी टीका नहीं की है।
___ हमारे जैनग्रन्थों में भी मनुके नामसे अनेक श्लोक उद्धत किये गये हैं जो इस मनुस्मृतिमें नहीं है। उदाहरणार्थ स्वनामधन्य पं. टोडरमल्लजीने अपने मोक्षमार्गप्रकाशके पांचवे अधिकारमें मनुस्मृतिके तीन लोक दिये हैं, जो वर्तमान मनुस्मृतिम नहीं है। इसी तरह 'द्विजवदनचपेट' नामक दिगम्बर जैनग्रन्थमें भी मनुके नामसे ७ श्लोक उद्धत हैं जिनसे वर्तमान मनुस्मृतिम केवल २ मिलते हैं, शेप ५ नहीं है।
शुक्रनीति जो इस समय मिलती है उसके विषयमें तो विद्वानोंकी यह राय है कि वह बहुत पीछेकीबनी हुई हैपाँच छः सौ वर्षसे पहलेकी तो वह किसी तरह हो ही नहीं सकती। शुक्रका प्राचीन अन्य इससे कोई पृथक् ही था + कौटिलीय अर्थशास्त्र लिखा है कि शुक्रके मतसे दण्डनीति एक ही राजविद्या है, इसमें सब विद्यायें गर्मित हैं। परन्तु वर्तमान शुक्रनीतिका को चारों विद्याओंको राजविद्या मानता है-'विद्याश्चतस्न एवेताः' आदि (अ०१ ग्लो०५१)। अतएव इस शुक्रनीतिको शुक्रकी मानना भ्रम है।
इन सब बातों पर विचार करनेसे हम टीकाकार पर यह दोष नहीं लगा सकते कि उसने स्वयं ही श्लोक गढ़कर , मनु आदिके नाम पर मढ़ दिये हैं । हम यह नहीं कहते कि वर्तमान मनुस्कृति उक्त टीकाकारके बादकी है, इस लिए
उस समय यह न उपलब्ध होगी। क्योंकि टीकाकारसे भी पहले मूलका श्रीसोमदेवसूरिने भी मनुके वीस श्लोक उद्धत किये हैं और वे वर्तमान मनुस्मृतिम मिलते हैं। अतएव टीकाकारके समयमै भी यह मनुस्मृति अवश्य होगी; परन्तु इसकी जो प्रति उन्हें उपलब्ध होगी, उसमें टीकोद्धत श्लोकोंका रहना असंभव नहीं माना जा सकता । यह भी संभव है कि किसी दूसरे ग्रन्थकाने इन श्लोकोंको मनुके नामसे उद्धत. किया हो और उस प्रन्यके आधारसे टीकाकारने भी उद्धृत कर लिया हो । जैसे कि अभी मोक्षमार्गप्रकाशके या द्विजवदनचपेटके आधारसे उनमें उद्धत किये हुए मनुस्मृतिक ग्लोकोको, कोई नया लेखक अपने ग्रन्थमें भी लिख दे।
याज्ञवल्क्यस्मृति के श्लोकके विषयमें भी यही बात कही जा सकती है। अब रही शुक्रनीति, सो उसकी प्राचीनतामें तो बहुत ही संदेह है । वह तो इस टीकाकारसे भी पीछेकी रचना जान पड़ती है। इसके सिवाय शुक्रके नामसे तो टीकाकारने दो चार नहीं १५० के लगभग श्लोक उद्धृत किये हैं। तो क्या टीकाकारने वे सबके सब ही मूलकाको नीचा दिखानेकी गरजसे गढ़ लिये होंगे ? और मूलकी तो इसमें अपनी कोई तौहीन ही नहीं समझते हैं। उन्होंने तो अपने यशस्तिलको न जाने कितने विद्वानोंके वाक्य और पद्य जगह जगह उद्धृत करके अपने विषयका प्रतिपादन किया है।
सोनीजीका दूसरा आक्षेप यह है कि काकारने स्वयं ही बहुतसे सूत्र (वाक्य) गढकर मूलमें शामिल कर दिये हैं। विद्यावृद्धसमुद्देशके, नीचे लाखे २१, २३ और २५६ सूत्रोको आप टीकाकर्ताका बतलाते हैं:
१-"वैवाहिकः शालीनो जायावरोऽधोरो गृहस्थाः॥" २१ - २-यालाखिल्य औदुम्बरी वैश्वानराः सद्य:प्रक्षल्यकश्चेति वानप्रस्थाः" ॥ २३
- देखो मोक्षमार्गप्रकाशका बम्बईका संस्करण, पृष्ठ. २०१।
द्विजवदनचपेट ' संस्कृत अन्य है, कोल्हापुरके श्रीयुत पं. कल्लाप्पा भरमाप्या निटवेने जैनबोधक' में और स्वतंत्र पुस्तकाकार भी, अबसे कोई १२-१४ वर्ष पहले, मराठी टीकासहित प्रकाशित किया था।
४ देखो गुजराती प्रेसकी शुक्रनीतिकी भूमिका ।
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AAAAAAMRAPAR
अंक
सोमदेवसरिकत नीतिवाक्यामृत। ३-" कुटीरकवशेदक -हंस-परमहंसा यतयः" ॥ २५
इसका कारण आपने यह बतलाया है कि मुद्रित पुस्तकमें और हस्तालाखेत एलपुस्तकमें ये सूत्र नहीं है। परन्तु इस कारणमे कोई तथ्य नहीं दिखलाई देता । क्योंकि
१-जब तक दश पांच इस्तलिखित प्रतियो प्रमाणमें पेश न की जासकें, तब तक यह नहीं माना जा सकता कि मुद्रित और मलपुस्तकमें जो पाठ नहीं है वे मुलकत्ताके नहीं है-ऊपरसे जोड़ दिये गये है। इस तरहके होन अधिक पाठ जुदी जुदी प्रतियोंमें अकसर मिलते हैं।
२-लकत्ताने पहले वोंक भेद बतलाकर फिर आश्रमोके भेद बतलाये हैं-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्य और यति । फिर ब्राह्मचारियोंके उपकुवांण, नैष्ठिक, और ऋतुप्रद ये तान भेद बतलाकर उनके लक्षण दिये हैं । इसके आगे गृहस्थ, वानप्रस्थ और यातेयोके लक्षण क्रमसे दिये हैं; तब यह स्वाभाविक और क्रमप्राप्त है कि ब्रह्मचारियोंके समान गृहस्थों, वानप्रस्थों और यतियोंके भी भेद बतलाय जाय और वे ही उक्त तीन सूत्रोंमें बतलाये गये हैं। तब यह निश्चय. पूर्वक कहा जा सकता है कि प्रकरणके अनुसार उक्त तानों सूत्र अवश्य रहने चाहिए और मूलकीने ही उन्हें रचा होगा। जिन प्रतियांम उक्त सत्र नहीं है। उनमें उन्हें भलसे ही छटे हए समझना चाहिए।
-यदि इस कारणसं ये मूलकत्ताक नहीं हैं कि इनमें बतलाये हुए भेद जैनमतसम्मत नहीं हैं, तो हमारा प्रदन है कि उपकुवाण, फुतुप्रद आदि ब्रह्मचारियोंक भेद भी किसी जैनग्रन्थमें नहीं लिखे हैं, तब उनके सम्बन्धक जितने सूत्र हैं, उन्हें भी मूलकत्तांके नहीं मानने चाहिए। यदि सूत्रोंक मुलकर्ताकृत होनेकी यही कसौटी सोनीजी ठहरा देवे, तब तो इस प्रन्थका आधस भी आंधक भाग टीकाकार कृत ठहर जायगा । क्योकि इसमे सकड़ों ही सूत्र ऐसे है जिनका जनधर्मक साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है और फाई भी विद्वान उन्हें जनसम्मत सिद्ध नहीं कर सकता।
४-जिसतरह टीकापुस्तकमें अनेक सूत्र अधिक है और जिन्हें सोनाजी टीकाकताको गढन्त समझते हैं, उसी प्रकार मद्रित और मलपस्तकमें भी कुछ सन्न अधिक है (जो टीकापुस्तकमें नहीं है), तब उन्हें किसकी गढन्त समझनी चाहिए? विद्यायुद्धसमुद्देशके ५९ ३ सूत्रफ आगे निम्नलिखित पाठ छूटा हुआ है जो मुद्रित और मूलपुस्तकमें मौजूद है:
“सांख्यं योगी लोकायतं चान्वीक्षिकी । वौद्धाहतोः श्रुतेः प्रतिपक्षत्वात् (नान्वीक्षिकोत्वं), प्रकृतिपुरुपशो हि राजा सत्त्वमवलम्बते । रजः फलं चाफलं च परिहरति, तमोमिनाभिभूयते।"
भला इन सूत्रोको टीकाकारने क्यों छोड़ दिया ? इसमें कही हुई बातें तो उसके प्रतिकूल नहीं था ? और मुद्रित तथा मूलपुस्तक दोनों ही यदि जैनोंके लिए विशेष प्रामाणिक मानी जावें तो उनमें यह अधिक पाठ नहीं होना चाहिए था। क्योंकि इसमें वेदविरोधी होनेके कारण जैन और बौद्धदर्शनको आन्वीक्षिकीस बाहर कर दिया है । और मुद्रित पुस्तकमें तो मूलकर्ताक मंगलाचरण तकका अभाव है । वास्तविक बात यह है कि न इसमे टीकाकारका दोष है और न मुद्रित करानेवालेका । जिस जैसी प्रति मिली है उसने उसके अनुसार टीका लिखी है और पाठ छपाया है । एक प्रतिसे दूसरी और दूसरीसे तीसरी इस तरह प्रतियों होते होते लेखकोंके प्रमादसे अकसर पाठ छूट जाते हैं और टिप्पण आदि मूलमें शामिल हो जाते हैं। ___ हम समझते हैं कि इन बातोसे पाठकोंका यह भ्रम दूर हो जायगा कि टीकाकारने कुछ सूत्र स्वयं रचकर मूलमें जोड़ दिये हैं। यह केवल सोनीजीके मस्तककी उपज है और निस्सार है । खेद है कि हमें उनकी भ्रमपूर्ण टिप्पणियोंके कारण भूमिकाका इतना अधिक स्थान रोकना पड़ा।
एक विचारणीय प्रश्न । इस आशासे अधिक बढ़ी हुई भूमिकाको समाप्त करनेके पहले हम अपने पाठकोंका ध्यान इस और विशेषरूपसे आकर्पित करना चाहते हैं कि वे इस प्रन्यका जरा गहराईके साथ अध्ययन करें और देखें कि इसका जैनधर्मके साथ क्या सम्बन्ध है। हमारी समझमें तो इसका जैनधर्मसे बहुत ही कम मेल खाता है । राजनीति यदि धर्मनिरपेक्ष है, अर्थात् वह किसी विशेष धर्मका पक्ष नहीं करती, तो फिर इसका जिस प्रकार जैनधर्मले कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है
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जैन साहित्य संशोधक उसी प्रकार और धर्मोंसे भी नहीं रहना चाहिए था। परंतु हम देखते हैं कि इसका वर्णाचार और आश्रमाचारकी व्यवस्थाके लिए वैदिक साहित्यकी ओर बहुत अधिक झुकाव है। इस ग्रन्थके विद्यावृद्ध, आन्वीक्षिकी और त्रया समुद्देशोंको अच्छी तरह पढ़नेसे पाठक हमारे अभिप्रायको अच्छी तरह समझ जावेगे। जैनधर्मके मर्मज्ञ विद्वानोंको चाहिए कि वे इस प्रश्नका विचारपूर्वक समाधान करें कि एक जैनाचार्यकी कृतिमे आन्वीक्षिकी और त्रयीको इतनी अधिक प्रधानता क्यों दी गई है। यशस्तिलकके नीचे लिखे पद्योंको भी इस प्रश्नका उत्तर सोचते समय सामने रख लेना चाहिए:
द्वौ हि धर्मा गृहस्थाना लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परस्यादागमाश्रयः॥ जातयोऽनादयः सर्वास्तक्रियापि तथाविधा। ध्रुतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र न क्षतिः॥ स्वजात्यैव विशुद्धानां वर्णानामिह रत्नवत् । तक्रियाविनियोगाय जैनागमाविधिः परम् ।। यद्भवभ्रान्तिनिर्मुक्तिहेतुधीस्तत्र दुलेमा ।
संसारव्यवहारे तु स्वतःसिद्ध वृथागमः ॥ तथा च- सर्व एव हि जैनानां प्रमाण लौकिको विधिः ।
यत्र सम्यक्त्वहानिने यत्र न व्रतदूपणम् ॥ कहीं धीसोमदेवसूरि वर्णाश्रमव्यवस्था और तत्सम्बन्धी वैदिक साहित्यको लौकिक धर्म तो नहीं समझते हैं ? और इसी लिए तो यह नहीं कहते हैं कि यदि इस विषय में श्रुति (वेद) और शास्त्रान्तर (स्मृतियां ) प्रमाण मान जायें तो हमारी क्या हानि है ? राजनीति भी तो लौकिक शास्त्र ही है। हमको माशा है कि विद्वलन इस प्रश्नको ऐसा ही न पड़ा रहने देंगे।
मुद्रण-परिचय । अबसे कोई २५ वर्ष पहले बम्बईकी मेसर्स गोपाल नारायण कम्पनीने इस ग्रन्यको एक सोक्षप्त व्याख्या साथ प्रकाशित किया था और लगभग उसी समय विद्याविलासी वड़ोदानरेशने इसके मराठी और गुजराती अनुवाद प्रकाशित कराये थे । उक्त तीनों संस्करणोंको देखकर-जिन दिनों में स्वगाय स्याद्वादवारिधि पं. गोपालदासजीकी अघांनतामे जनमित्रका सम्पादन करता था मेरी इच्छा इसका हिन्दी अनुवाद करनेकी हुई और तदनुसार मैन इसके कई समुद्देशोका अनुवाद जैनमित्रमें प्रकाशित भी किया; परन्तु इसके मान्वीक्षिकी और त्रया आदि समुद्देशीका जनधमके साथ कोई सामजस्य न कर सकनेके कारण मैं अनुवादकार्यको अधुरा हो छोड़ कर इसको संस्कृत टीकाको खोज करने लगा।
तबसे, इतने दिनोंके बाद, यह टीका प्राप्त हुई और अब यह माणिकचन्द्रप्रन्यमालाके द्वारा प्रकाशित की जा रही है । खेद है कि इसके मध्यके २५-२६ पत्र गायव हैं और वे खोज करनपर भी नहीं निल। इसके सिवाय इसकी कोई दूसरी प्रति भी न मिल सकी और इस कारण इसका संशोधन जैसा चाहिए वैसा न कराया जा सका। टिदोष और अनवधानतासे भी वहतसी अशुद्धियां रह गई है। फिर भी हमें आशा है कि मलप्रन्यके समझनमें इस टीकासे काफी सहायता मिलेगी और इस दृष्टिसे इस अपूर्ण और अशुद्धरूपने भी इसका प्रकाशित करना सार्थक होगा।
हस्तलिखित प्रतिका इतिहास। पहले जनसमाजमें शास्त्रदान करनेकी प्रया विशेषतासे प्रचलित थी। अनेक धनी मानी गृहस्य अन्य लिखा लिखाकर जैनसाधुओं और विद्वानोंको दान किया करते थे और इस पुण्यकत्यसे अपने ज्ञानावरणीय कर्मका निवारण । करते थे। बहुतोंने तो इस कार्यके लिए लेबनशालायें ही खोल रक्खी यो जिनमें निरन्तर शचीन अवाचीन ग्रन्योंकी प्रतियाँ होती रहती थीं। यही कारण है जो उस समय मुद्रणकला न रहने पर भी अन्योंका यथेट प्रचार रहता या और ज्ञानका प्रकाश मन्द नहीं होने पाता था। त्रियोंका इस ओर और भी अधिक लक्ष्य था। हमने ऐसे पचासों इस्तलिखित अन्य देखे हैं जो धर्मप्राणा त्रियोंके द्वारा ही दान किये गये है।
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अंक १]
annamannamam
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सोमदेवमूरिकृत नीतिवाक्यामृत । इस शास्त्रदान प्रथाको उत्तेजित करनेके लिए उस समयके विद्वान् प्रायः प्रत्येक दान किये हुए प्रन्यके अन्तमें दाताको प्रशस्ति लिख दिया करते थे जिसमें उसका और उसके कुटुम्बका गुणकर्तिन रहा करता था। हमारे प्राचीन पुस्तक-भंडारोंके प्रन्यों से इस तरहकी हजारों प्रशस्तियों संग्रह की जा सकती है जिनसे इतिहास-सम्पादनके कार्यमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है।
नौतिवाक्यामृतटीकाकी वह प्रति भी जिसके आधारसे यह अन्य मुद्रित हुभा है इसी प्रकार एक धनी गृहस्थकी धर्मप्राणा स्त्रोके द्वारा दान की गई थी। अन्यके अन्तमे जो प्रशस्ति दी हुई है, उससे मालूम होता है कि कार्तिक सुदी ५ विक्रमसंवत् १५४१ को, हिसार नगरके चन्द्रप्रमचैत्यालयमें, सुलतान बहलोल (लोदी) के राज्यकालमें, यह प्रति दान की गई थी।
नागपुर या नागौरके रहनेवाले खण्डेलवालवंशीय क्षेत्रपालगोत्रीय संघपति कामाकी भार्या साध्वी कमलश्रीने हिसार निवासी पं० मेहा था माहाको इस भकिभावपूर्वक भेट किया था।
कलह नामक संघपतिको भायांका नाम राणी था। उसके चार पुत्र थे-हवा, धीरा, कामा और सुरपति। इनमेसें तांसरे पुत्र संघपति कामाको भाया उक्त साध्वी कमली थी जिसने ग्रन्यं दान किया था। कमलधीसे भीवा औपच्छक नामके दो पुत्र थे । इनमेसे भीवाकी भायां भिउंसिरिके गुरुदास नामक पुत्र था जिसकी गुणधी भायांके गर्भसे रणमल्ल और जट्ट नामके दो पुत्र थे। दुसरे वकको भाया वासिरिके गवणदास पुत्र या जिसकी स्त्रीका नाम सरस्वती था। पाठक देखें कि यह परिवार कितना बड़ा और कितना दीर्घजीवी था। कमलधौके सामने उसके प्रपत्र तक मौजूद थे।
पण्डित मेहा या माहाका दूसरा नाम पं० मेधावी था। ये वही मेधावी हैं जिन्होंने धर्मसंग्रहश्रावकाचार नामका प्रन्य बनाया है और जो मुद्रित हो चुका है। पं० माहा अपनी गुरुपरम्पराके विषयमें कहते हैं कि नन्दिसंघ, बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छके भधारक पद्मनन्दिके शिष्य भ० शुभचन्द्र और उनके शिष्य भ० जिनचन्द्र मेरे गुरु थे। जिनचन्द्रके दो शिष्य और थे-एक रत्ननन्दि और दूसरे विमलकीर्ति ।
___ यह पुस्तकदाताकी प्रशस्ति पं० मेधावीकी ही लिखी हुई मालूम होता है । उन्होंने प्रलोक्यप्राप्ति, मूलाचारकी वसुनन्दिवृत्ति आदि अन्योंमें और भी कई बड़ी बड़ी प्रशस्तियों लिखी हैं । वसुनन्दि वृत्तिको प्रशस्ति वि० सं० १५१६ की और प्रैलोक्यप्रज्ञप्ति की १५१९ की लिखी हुई है * । धर्मसंग्रहश्रावकाचार उन्होंने कार्तिक वदी १३ सं० १५४१ को समाप्त किया है । नीतिवाक्यामृतटीकाकी यह प्रशस्ति धर्मसंग्रहक समाप्त होनेके कोई आठ दिन बाद ही लिखी गई है।
धर्मसंग्रहमें पं० मेधावाने अपने पिताका नाम उद्धरण, माताका भीषुही और पुत्रका जिनदास लिखा है। वे अग्रवाल जातिके थे और अपने समयके एक प्रसिद्ध विद्वान थे। उन्होंने दक्षिणके पुस्तकगच्छके आचार्य श्रुतमुनिसे अन्य कई विद्वानोंके साथ अष्टसहस्री ( विद्यानन्दस्वामीकृत) पढी यो । जान पड़ता है कि उस समय हिसारमे जैन विद्वानोंका अच्छा समूह था । भधरकोंकी गद्दी भी शायद वहाँ पर थी।
यह टीकापुस्तक हिसारसे आमेरके पुस्तक भंडारमें कब और कैसे पहुंची, इसका कोई पता नहीं है । आमेरके भंडारमेसे सं० १९६४ में भारक महेन्द्रकीर्ति द्वारा यह बाहर निकाली गई और उसके बाद जयपुर निवासी पं० इन्द्रलालजी शास्त्रीके प्रयत्नसे हमको इसकी प्राप्ति हुई । इसके लिए हम भारकजी और शास्त्रीजी दोनोंके कृतज्ञ हैं।
इस प्रतिमें १३३ पत्र हैं और प्रत्येक पृष्ठम प्रायः २० पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पत्रकी लम्बाई 110 इंच और चौड़ाई ५॥ इंचसे कुछ कम है । ५१ से ७५ तकके पृष्ठ मौजुद नहीं हैं। बम्बई। ।
निवेदकपौपशुक्ला तृतीया १९७९ वि ।
.. नाथूराम प्रेमी।
*देखो जैनहितैषी भाग १५, अंक ३-४।
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जैन साहित्य संशोधक womenmmmmmmmmmm - [नोट:- भारतीय वायय' का जर्मन भाषामें विस्तृत और परिपूर्ण इतिहास लिखनेवाले प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ. विण्टरनित्स्, जो वर्तमानमें बड्गीय साहित्य सम्राट् कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर संस्थापित शांतिनिकेतनकी विश्वभारती संस्थाको अपने ज्ञानका दान कर रहे हैं। उनके पास 'नीतिवाक्यामृत' की १ प्रति अभिप्रायार्थ भेट की गई थी। इस भेटके स्वीकाररूपमें डॉ. महाशयने ग्रन्थमालाके मंत्री और इस प्रस्तावनाके लेखक श्रीयुत प्रेमीजीके पास जो एक पत्र भेजा है वह यहाँपर मुद्रित किया जाता है । इससे, सोमदेवसूरिके नीतिवाक्यामृतके बारेमें डॉ. महाशयका कैसा अभिप्राय है वह थोडेसे ज्ञात हो जाता है। इस ग्रन्थके बारेमें, जैसा कि डॉ. महाशयने अपने इस पत्रमें सूचित किया है, विशेष उल्लेख, उन्होंने अपने भारतीय वाङ्मयके इतिहासके तीसरे भाग, (जो हालहीमें प्रकाशित हुआ है) पृ० ५०२७-५३० में किया है। -संपादक ।
(Santiniketana, Birbbum, Bengal) '
Srinagar ( Kashmir ) 25-4-23. To Nathurama Premi, Mantri, Manikachanda-Jaina Granthamala,
Bombay. Dear Sir,
I beg to acknowledge the receipt of one copy of Nitivakyamritam Satikam, published in the Jaina Granthamala. As I have pointed out in the third volume of my 'History of Indian Literatura,' the work is of the greatest importance both on account of its contents and especially as the date of its author is well known. Though quoting largely from the Kautilya ArthaSastra, Somadeva is yet quite on original writer and treats his subject from a different point of view. The late Jaipacharya Vijaya Dharma Suri had lent me a copy of the old edition of the book which is very rare. I often urged upon him the necessity of a new edition of this important work. I am very glad that the work is now accessible in such a handy and excelent edition, and I am very much obliged to you for sending me a copy.
It is a pity that the introduction is not in English or in Sanskrit. 28 few Europeans read the Vernacular.
Yours truly, M. WINTERNITZ. (शान्तिनिकेतन, वीरभूम वंगाल)
श्रीनगर (काश्मीर ) ता. २५-४-२१ नाथूराम प्रेमी, मंत्री
माणिकचन्द्र जैन ग्रंथमाला मुंबई. प्रिय महाशय,
आपकी जैन ग्रंथमाळामें प्रकाशितक सटीक नीतिवाक्यामृतकी पुस्तक मुझे मिली। जैसा कि मैंने अपने 'भार' तीय वायका इतिहास' नामक ग्रन्थके तीसरे भागमें लिखा है, यह ग्रन्थ, अन्दरके विषय और इसके कर्ताके समयकी दृष्टिसे बहुत महत्वका है। यद्यपि कौटिल्यके ग्रन्थका, इसमें अनुसरण किया गया है तथापि सोमदेवसरि स्वतंत्र लेखक हो कर विषय प्रतिपादनकी शैली उनकी निराली ही है। जैनाचार्य विजयधर्मसरिने इस ग्रन्थकी अत्यंत दुर्लभ्य ऐसी एक प्रति मुझे दी थी और इस महत्त्वके ग्रन्थकी दूसरी आवृत्ति प्रकट करनी चाहिए ऐसा मैंने आग्रह भी उनसे किया था। अब इस प्रन्यकी सुन्दर आकारमें उत्तम रीतीसे प्रकट की हुई इस आवृत्तिको देख कर मुझे आनंद होता है और आपने जो इसकी एक प्रति मुझे भेजी इस लिए मैं आपका बहुत ही उपकृत हूं।
__इसकी प्रस्तावना इंग्रेजी या संस्कृतमें नहीं लिखी गई इस लिए मुझे खेद होता है, क्यों कि देशभापा जानने वाला युरपियन क्रचित् ही होता है।
आपका, एम विंटरनित्स्
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अंक १j
कीरग्रामनो जनै शिलालेख
कीर ग्रामनो जैन शिलालेख. [पंजाब प्रांतना कांगडा जिल्लामा कीराम करीने एक स्थान छे अने त्यां शिव-वैद्यनाथनुं प्राचीन अने प्रख्यात धाम छे. ए वैद्यनाथना मंदिरमां कोई जैन प्रतिमानुं पाषाण सिंहासन क्याएथी आवी गएलं छेजना उपर नीचे आपेलो लेख कोतरेलो छ. ए लेख एपिग्राफिआ इंडिकाना, १ ला भागना, ११८ पान उपर डॉ० जी. बुल्हरे संक्षिप्त विवेचन साथे प्रकट करलो छे. ए विवेचन अने लेख आ प्रमाणे छे.--संपादक ]
नीचे आपेलो लेख कांगडानों कीरग्राममां आवेला शिव-वैद्यनाथना देवालयांची मळी आवेलो छ. ए लेख जैन नागरी अक्षरोमां बे लीटिओमां लखेलो छ. आ लीटिओ महावारनी प्रतिगानी बेठकनी त्रण वाजुए चार मोटा अने बे नाना भांगमां व्हेंचाएली छे. लेख लगभग सारी स्थितिमा छे. ए। दोल्हण अने आल्हण नामना बे व्यापारिओए आ प्रतिमा बनाव्या विपे तथा देवभद्रसूरिए एनी प्रतिष्ठा कयों विषे उल्लेख करेलो छे. वळी कारणानमा आ बंने भाईओए सहावीरनुं एक मंदिर बंधाव्यानी नोंघ पण एमां करेली छे. वर्तमानमां, कारग्राममां कोई पण जना जैन मंदिरनी हयाती जणाती नथी तेथी एम लागे छे के ए मंदिर नष्ट थई गयु छ अने आ वेसणी कोईए त्यांथी उपाडी लावी शिवना देवालयमा मूकी दोधी छे. ए देवालयना अधिकारिओनी अजाणताने लीधे आ लेख सही सलामत रहेवा पाम्यो होय एम लागे छे..।
मति अन मंदिर बनावनारा गुजराती होवा जोईए ; पंजाबी नहीं. प्रतिष्ठा करनार सूरि पण गुजरातना हता. कारण के दोल्हण अने आल्हण ब्रह्मात्र गोत्र अगर ज्ञातिना हता के जे ज्ञाति गुजरातमां वधारे छे. १८८१ ना सेन्सस रीपोर्ट प्रमाणे पंजाबमां तेज्ञाति जणाती नथी. सरी देवभद्रनो गुजरात साथे संबंध तेमना गुरु अभयदेवना लीधे छे. आ अभयदेवने द पल्लीय ' कहेवामां आवे छे ; अने ते जिनवल्लभ सूरिनी शिष्यसंततिमांना हता. आ जिनवल्लभ ते खरतर गच्छनी पट्टावलीमां कला जे ४३ मां पट्टधर अने युगप्रधान पद्धारी के तेज है.' तेओ एक नवो संप्रदाय जेने अहीं 'संतान, ना विशेषणथी उल्लेखेलो छे ते चलाव्या पछी वि. सं. ११६७ मां स्वर्गस्थ थया हता. तेमना पछी थएला आचार्य जिनदत्तना वखतमां खरतर गच्छन्नी रुद्रपल्लीय शाखानी स्थापना जिनशेखराचार्य वि. सं. १२०४ मां करी हती. तेथी आ लेखमां जणावेला देवभद्रसूरि श्वेतांबर मतना खरतर गच्छनी एक शाखाना हता. जूनी परंपरा प्रमाणे खरतर गच्छनी स्थापना गुजरातना अणहिलवाड पाटणमां थई हती. लेखनी मिति संवत एटले वि. सं. १२९६ फाल्गुण वदि ५, रविवार ' ते डॉक्टर स्क्रम (Dr. Sohram) नी गणना प्रमाणे ई. स. १२४० नी १५ जान्यूआरी बराबर थाय छे. जनरल सर कनिंगहाम जेणे आ लेख प्रथम शोधी काढ्यो हतो तेमणे पोताना आर्किओलॉजिकल रीपोर्टस् (पु. ५ पान १८३) मां ए लेखनी जे नकल आपीछे, ते अधूरी छे. कारण के तेमा 'क्षेत्रगोत्रो' थी 'पुत्राभ्यां अने 'प्रति
अहीं आपली लेखनी नकल पंजाब आर्फिआलॉजिकल व्हसें तरफथी मळेली एक सारी छाप उपरथी पाडेली छे, १ जुओ-क्लॅट (klata) इ.एं, पु. १, .पा. २४८ अने २५४.
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जैन साहित्य संशोधक
खंड ष्ठितं ' थी 'संतानीय' सूधानी बे लीटिओ मूकी दीधेली के आने लीधे तैम ज केटलाक खोटापाठोने लीधे तेमनी नकल उपरथी भापांतर कर केवळ अशक्य छे.
मूळ लेख १. ओ० संवत् १२९६ वर्षे फाल्गुण वदि ५ रवी कारणाने ब्रह्मक्षत्र गोत्रोत्पन्न व्यव० मानू पुत्राभ्यां व्य० दोल्हण आल्हणाभ्यां स्वकारित श्रीमन्महावीर देव चैत्य ॥
२. श्रीमहावीर जिन मूल बिंबं आत्मश्रेयो []] कारितं । प्रतिष्ठितं च श्रीजिनवल्लभ सूरिसंतानीय रुद्रपल्लीय श्रीसदभयदेवसूरि शिष्यैः श्रीदेवभद्र सूरिभिः ॥
भाषांतर ॐ. (लौकिक) वर्ष १२९६ ना फाल्गुण वदि पंचमीने [दिवसे] करिग्राममा ब्रह्मक्षत्र ज्ञातिना व्यापारी मानूना बे पुत्रौ व्यापारी दोल्हण अने आल्हणे पोते बंधावेला श्रीमन्महावीर देवना मन्दिरमा श्री महावीर जिननी मुख्य प्रतिमा, पोताना कल्याणमाटे करावी. तेनी प्रतिष्ठा श्रीजिनवल्लभ सूरिना 'संतानीय' रुद्रपल्लीय श्रीमत्सूरि अभयदेवना शिष्य श्रीसूरि देवभद्रे करी:
३. जनरल कनिंगहाम कहे के शिववैद्यनाथना देवालयना इतिहास साथे ा लेखनो कोई संबंध नथी.
१. पक्ति १ ली-ओं वाचवं; कारग्रामे ना र तथा प्रजोडेला छे ते भूल छे ब्रह्म वाचवं; म नी उपर एक सीकोल मात्र काढी नाखेल छ कदाच 'भातपूत्राभ्यां खरोपाठ होय. कारण के त तमा न ओळखाय तेवा नथी. पण ते बराबर नथी; 'मान' शब्द ज बराबर छे. कारण के तेनी पहेलो व्य व्यवहारी शब्द पडलो छ जे मातृात्रा. पाठ केता निरर्थक अने असंबद्ध थई जाय छे-संपादक.] . __ पंक्ति २ जी-श्रेयोथै नो,थ जतो रह्यो छे; संतानीय नो ता स्पष्ट नथी. '
६. वर्षेने भाषांतर लौकिक वर्षे करूं ह्यु, कारण के विक्रम संवत् पछी वर्षेने बदले घणीवार लौकिक वर्षे वापर घामा आवे छे. पश्चिम तथा उत्तर पश्चिम हिंदुस्थानमा विक्रम संवत्नां वर्षोंने लौकिक वर्षों कहे छे. अने शक संवत्ने शास्त्रीय वर्षों कहे छे. कारण के ते ज्योतिष विगेरे विषयोमा आवे छ. . .
.. लेखमा जे फागुण लख्यु छे ते अर्ध प्राकृत भने अर्ध संस्कृत रूप छे.
1. मल बिंब शब्दने भाष'तर कर्या शिवाय ज हुँ रहेवा दऊ छु. तेनो खास मर्थ शो छे तेनी खबर नथी. हुँ धारू छु के बीजी नानी मोटी प्रतिमाभोथी तेने खास भोळखावा माटे तेनु नाम आq पाडयु हशे. एनो अर्थ कदाय । • मुख्य प्रतिमा' थई शके. [एज अर्थ थाय छे. सं०]
१. प्रतिष्ठितं च ए संस्कृतना नियम प्रमाणे शुद्ध नथी. पण जैन पुस्तकोमा ए धो ठेकाणे जोवामा भाषे छे. खरी हराते प्रतिष्ठापितं च भगर प्रतिष्ठा ता.च एषो पाठ जोईए,
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महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण ।
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[ अपभ्रंश भाषा का एक महाकवि और महान् ग्रन्थ । ]
( लेखक - श्रीयुत पं. नाथूरामजी प्रेमी । )
भारत में अनेक शताब्दियों तक जो श्रार्य भाषायें प्रचलित रही हैं, वे सब प्राकृत कहलाती हैं । प्राकृत शब्द का अर्थ है स्वाभाविक - कृत्रिमता के दोष से रहित और संस्कृत का अर्थ है संस्कार की हुई मार्जित भाषा । वैदिक सूक्त जिस सरल और प्रचलित भाषा में लिखे गये थे, उस भाषा को प्राकृत ही कहना चाहिए । इस श्रादि प्राकृत भाषा से जिन सव श्रार्य भाषाओं का विकास हुआ है, उनकी गणना दूसरी श्रेणी की प्राकृत में होती है । यह द्वितीय श्रेणी की प्राकृत अशोक के शिलालेखों में मिलती है । वौद्धशास्त्रों की प्रधान भाषा पाली भी इसी दूसरी श्रेणी की प्राकृतों में से है । इस समय प्राकृत कहने से पाली की अपेक्षा उन्नत भाषा का बोध होता है ।
शोक के समय की प्रार्य भाषा की दो प्रधान शाखायें घीं, एक पश्चिमी प्राकृत और दूसरी पूर्वीय प्राकृत । पश्चिमी प्राकृत को सौरसेनी या सूरसेन (मथुरा) की भाषा कहते थे और पूर्वीय को मागधी या मगध की भाषा । इन दोनों पूर्वीय और पश्चिमी भाषाओं के बीचों बीच एक और भाषा बोली जाती थी जो अर्ध मागधी के नाम से प्रसिद्ध थी । कहा जाता है कि भगवान् महावीर ने इसी भाषा के द्वारा अपने सिद्धांतों का प्रचार किया था । प्राचीन जैन ग्रन्थ इसी भाषा में लिखे गये थे । प्राचीन मराठी के साथ इस भाषा का बहुत ही निकट सम्बन्ध है । प्राचीन प्राकृत काव्य इसी प्राचीन मराठी में लिखे गये हैं ।
उक्त दूसरी श्रेणी की प्राकृत भाषाओं के बाद की भाषा अपभ्रंश कहलाती है । जो दूसरी श्रेणी की प्राकृत का पिछला और विशेष विकसित रूप है । यो अपभ्रंश का साधारण श्रदुषित या विकृत होता है; परन्तु भाषा के सम्बन्ध में प्रयुक्त होने पर इस का अर्थ उन्नत या विकसित होता है । वर्तमान प्रचलित आर्य भाषायें जिन भाषाओं से निकली हैं, उनकी गणना अपभ्रंश में होती है । इन अपभ्रंश भाषाओं में भी एक समय अनेकानेक ग्रन्थ लिखे गये थे जिनमें से बहुत से इस समय भी मिलते हैं । जान पड़ता है, इन भाषाओं का साहित्य बहुत प्रौढ़ हो गया था और सर्वसाधारण में बहुत ही श्रादर की दृष्टि से देखा जाता था । इस साहित्य में हम उस समय की बोलचाल की भाषाओं की अस्पष्ट छाया पा सकते हैं। विक्रम की सातवीं शताब्दि तक के अपभ्रंश साहित्य का पता लगा है। इसके बाद जान पड़ता है कि इस भाषा का प्रचार नहीं रहा। अपभ्रंश के पहले की प्राकृत भाषाओं का प्रचार दसवीं शताब्दि के वाद नहीं रहा ।
उक्त अपभ्रंश भाषाओं की गणना दूसरी श्रेणी की ही प्राकृत में की जाती है । उनके बाद आधुनिक भाषाओं का काल श्राता है जिन्हें हम तीसरी श्रेणी की प्राकृत में गिनते हैं । इन इभाषाओं का निदर्शन हम तेरहवीं शताब्दि के लगभग पाते हैं । श्रतएव मौटे हिसाब से कहा जा सकता है कि दशवीं शताब्दि से श्राधुनिक आर्य भाषाओं का प्रचलन आरम्भ हुआ है और अपभ्रंश से ही इन सब का विकास हुआ है । संक्षेप में प्राकृत भाषाओं का यही इतिहास है ।
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जैन साहित्य संशोधक
[ खण्ड २
इस लेख में हम जिस महाकवि का परिचय देना चाहते हैं, उसकी रचना इन्हीं श्रपभ्रंश भाषाओं में की एक भाषा में हुई है जिसे हम दक्षिण महाराष्ट्र की अपभ्रंश कह सकते हैं । दक्षिण की होने पर पाठक देखेंगे कि इसकी प्रकृति हमारी हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी भाषाओं से कितनी मिलती जुलती हुई है ।
हमें पुष्पदन्त से भी पहले के अपभ्रंश साहित्य के कुछ ग्रन्थ मिले हैं जिन का परिचय हम आगे के किसी श्रंक में देना चाहते हैं ।
महाकवि पुष्पदन्त कहां के रहनेवाले थे, इसका पता नहीं लगता । उनके ग्रन्थों में जो कुछ लिखा है उसके अनुसार हम उन्हें सब से पहले मेलाड़ि नगर में जो संभवतः मान्यखेट का ही दूसरा नाम है, पाते हैं। वहां वे पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए श्रा पहुंचते हैं और वहीं से उनके कवि-जीवन का प्रारम्भ होता है ।
५८
काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम केशव और माता का मुग्धादेवी था । एक जगह उन्होंने अपने पिता का नाम कन्दढ़ लिखा है जो केशव के ही पर्यायवाची शब्द कृष्ण का अपभ्रंश रूप है । ' खण्ड ' यह शायद उनका प्रचलित नाम था जो उनके ग्रन्थों में जगह २ व्यवहृत हुआ है । श्रभिमानमेरु, काव्यरत्नाकर, कव्वोपसल्ल ( काव्यपिशाच ) या काव्यराक्षस, कविकुलतिलक, सरस्वतीनिलय श्रादि उनके उपनाम थे ।
वे शरीर से कृश थे, कृष्णवर्ण थे, कुरूप थे परन्तु सदा प्रसन्नमुख रहते थे। उन्होंने आपको स्त्रीपुत्र हीन लिखा है; परन्तु संभव है यह उस समय की ही अवस्था का द्योतक हो जब वे मान्यखेटपुर में थे और अपने (उपलब्ध) ग्रन्थों की रचना कर रहे थे । इसके पहले जहां के वे रहनेवाले ये वहां शायद वे गृहस्य रहे हो और विवाद आदि भी हुआ हो । यद्यपि अपने ग्रन्थों में उन्होंने अपना बहुत कुछ परिचय दिया है; परन्तु उससे यह नहीं मालूम होता है कि मान्य-" खेट में आने के पहले उनकी क्या अवस्था थी और न यही स्पष्ट होता है कि वास्तव में उन्होंने अपनी जन्मभूमि क्यों छोड़ी थी । केवल यही मालूम होता है कि दुष्टों ने उनको अपमानित किया था और उन्हीं से संत्रस्त होकर वे भटकते भटकते बड़े ही दुर्गम और लम्बे रास्ते को तय करके मान्यखेट तक श्राये थे । उनके हृदय पर कोई बड़ी ही गहरी ठेस लगी थी और इस से उन्हें सारी पृथ्वी दुर्जनों से ही भरी हुई दिखलाई देती थी। लोगों की इस दुर्जनता का और संसार की नीरसता का उन्होंने अपने ग्रन्थों की उत्थानिकाओं में बार बार और बहुत अधिक वर्णन किया है। अपने समय को भी उन्होंने खूब ही कोसा है, उसे कलिमलमलिन, निर्दय, निर्गुण, दुर्नीतिपूर्ण और विपरीत विशेषण दिये हैं और कहा है कि "जो जो दीसई सो सो दुज्जणु, णिष्फलु नीरसु गं सुक्कड वणु । " अर्थात् जो जो दिखते हैं वे सव दुर्जन हैं, सूखे हुए, बन के समान निष्फल और नीरस हैं।
ऐसा जान पड़ता है कि वे किसी राजा के द्वारा सताये हुए थे और उसी के कारण उन्हें अपनी जन्मभूमि छोड़नी पड़ी थी। इसी कारण उन्होंने कई जगह राजाओं पर गहरे कटाक्ष किये हैं । उनके भ्रकुटित नेत्रों और प्रभुवचनों को देखने सुनने की अपेक्षा मर जाना अच्छा वतलाया है । वे भरत मंत्री से कहते हैं कि - " वह लक्ष्मी किस काम की जिसने दुरते हुए चैवरों की हवा से सारे गुणों को उड़ा दिया है, श्रभिषेक के जल सुजनता को धो डाला है, और जो विद्वानों से विरक्त रहती है । x x इस समय लोग नीरस और निर्विशेष हो गये है, वे गुणीजनों से, द्वेष करते हैं, इसी लिए मुझे इस वन की शरण लेनी पड़ी है । "
* गंधव्वेकण्हडणं दणेण आयई भवाई किय थिर मणेण । --यशोधरचरित्र ।
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[1]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण
५६
जिस राजासे संत्रस्त होकर पुष्पदन्तकवि. मान्यखेट में आये वह शायद वीरराव था । श्रादिपुराण के प्रभाचन्द्रकृत टिप्पण में इस शब्द पर 'शुद्रक' और ' कार्यापति टिप्पण दिया हमारी समझ में 'कांची ' की जगह कावी लिपिकर्त्ता के दोष से लिख गया है | इस से मालूम होता है कि वीरराव कांची ( काओवरम् ) का राजा होगा और शूद्रक उसका नामान्तर होगा। यह संभवतः पल्लववंशका था । श्रादिपुराणको उत्थानिका के 'णिय सिरि विसेस' और 'पइमण्ड ' आदि दो पद्यों का अभिप्राय अच्छी तरह स्पष्ट नहीं होता है, फिर भी ऐसा भास होता है कि पुष्पदन्त का उक्त वीरराव से पहले सम्बन्ध था और उस के सम्बन्ध में उस ने कुछ काव्य रचना भी की थी। शायद इसी कारण भरतमंत्री ने पुष्पदन्त से कहा है कि वीरराव का वर्णन करने से जो मिथ्यात्व भाव उत्पन्न हुआ है, उस के प्रायश्चित्तस्वरूप यदि तुम श्रादिनाथ के चरित की रचना करो तो तुम्हारा परलोक सुधर जाय । जान पड़ता है कि वरराव कोई दुष्ट और जैनधर्म का द्वेषी राजा था ।
पुष्पदन्त भ्रमण करते करते मान्यखेट के बाहर किसी उद्यान में पड़े हुए थे। वहां अम्मइया और इन्द्रराज नामक दो पुरुषों ने आकर उनसे कहा कि श्राप इस निर्जन स्थान में क्यों पड़े हुए हैं, पास ही यह बड़ा नगर है वहां चलिए। वहां शुभतुंगराजा के महामात्य भरत बड़े विद्याप्रेमी और कवियों के लिए कामधेनु हैं। भरत की लोकोत्तर प्रशंसा सुन कर पुष्पदन्त नगर में गये । वहां भरतमंत्री ने उनका बहुत ही सत्कार किया और उन्हें अपने पास रक्खा। कुछ दिनों के बाद भरत ने उन से काव्यरचना करने के लिए कहा। इस पर कवि ने कहा कि यह समय बहुत बुरा है। संसार दुर्जनों से भरा हुआ है । जहां तहां छिद्रान्वेषी ही दिखलाई देते हैं। प्रवरसेन के स्तुवन्ध जैसे उत्कृष्ट काव्य की भी जब लोग निन्दा करते हैं, तब मुझे इस कार्य में कीर्ति कैसे मिलेगी ? इस पर भरत ने कहा कि दुर्जनों का तो यह स्वभाव ही है, उल्लू को सूर्य भी अच्छा नहीं लगता। उनकी आप को परवा न करनी चाहिए । इस के उत्तर में कवि ने अपनी लघुता प्रकट की और कहा कि मैं दर्शन, व्याकरण, काव्य, छन्दशास्त्र आदि के ज्ञान से कोरा हूं, ऐसी दशा में मुझ से महापुराण की रचना कैसे होगी, यह तो समुद्र को एक कुंडे भरने जैसा कार्य है, फिर भी आप के आग्रह से और जिन भक्ति वश मैं इस की रचना में प्रवृत्त होता हूं, मधुकर जैसा क्षुद्र प्राणी भी विशाल श्राकाश में भ्रमण कर सकता है। उक्त सब बातें श्रादिपुराण की उत्थानिका से ली गई हैं । इस के बाद उत्तरपुराण का प्रारंभ होता है । उस समय कावेराज का चित्त उद्विग्न हो उठा। रचना से उन का जी उचट गया । तव एक दिन सरस्वती देवी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिया और कहा कि अरिहंत भगवान् को नमस्कार करो । यह सुनते ही कविराज जाग उठे। उन्हों ने चारों और देखा; परन्तु कहीं कोई भी दिखलाई न दिया । बड़ा आश्चर्य हुआ। इस के बाद भरतमंत्री उन से मिले । उन्हों ने कहा कि, क्या आप सचमुच ही पागल हो गये हैं ? श्राप का मुख उतरा हुआ है, चित्त ठिकाने नहीं है | ग्रन्थरचना क्यों नहीं करते ? क्या मुझसे आप का कोई अपराध बन पड़ा ? क्या बात है । मैं हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता हूँ। मैं आपका चाहा हुआ सब कुछ देने के लिए तैयार हूँ। यह जीवन अस्थिर और असार है। जब आप को सरस्वती कामधेनु सिद्ध तब आप उसका नवरसरूप दूध क्यों नहीं दोहते ? इस पर कविराज ने फिर वही समय
x पुरानी लिपि में ' व ' और ' व ' लगभग एक से लिखे जाते हैं और इस कारण पीछे के लेखकों ने इन दोनों के भेद को अच्छी तरह न समझने के कारण अकसर 'च' को ' व ' लिखा है ।
* परं मणिउं वणिउं वीर राउ, उप्पण्णउं जो मिच्छत भाउ ।
पच्छितु तासु जइ करहि अज्ज, ता घढई तुज्झ परलोयकज्जु ॥
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जैन साहित्य संशोधक
[खण्ड २ की और दुर्जनों की शिकायत की और कहा कि इस कारण मुझ से एक पद भी नहीं लिखा जाता है। अन्त में उन्हों ने कहा कि फिर भी मैं तुम्हारी प्रार्थना को नहीं टाल सकता। तुम मेरे मित्र हो और शालिवाहन तथा श्रीहर्ष से भी बढ़कर विद्वानों का श्रादर करनेवाले हो । तुमने मुझे सदा प्रसन्न रक्खा है। परन्तु जो यह कहा कि मैं सब कुछ देने के लिए तैयार हूँ, सो मैं तुम से अकात्रेम धर्मानुराग के सिवाय और कुछ भी नहीं चाहता हूँ। धन को मैं तिनके के समान गिनता हूँ। मेरा कवित्व केवल जिनचरणों की भक्ति से ही प्रस्फुटित होता हैजीविका की मुझे जरा भी परवा नहीं है । ये सब बातें कविने उत्तरपुराणकी उत्थानिका में प्रकट की है।
पुष्पदन्त दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के अनुयायी थे; परन्तु वे अपने किसी गुरु का कहीं कोई उल्लेख नहीं करते हैं। इसका कारण यही हो सकता है कि वे गृहत्यागी साधु नहीं थे। यह भी संभव है कि पहले वे वेदानुयायो रहे हों और पीछे किसी कारण से जैनधर्म पर उनकी श्रद्धा हो गई हो, अथवा भरतमंत्री के संसर्गसे ही व जैनधर्म के उपासक बन गये हॉ, किसी जैन साधु या मुनिसे उनका परिचयन हुआ हो। उन्होंने अपने को जगह जगह जिनपदमक्त, धर्मासक्त, व्रतसंयुक्त (व्रतीश्रावक) और विगालतशंक (शंका रहित सम्यग्दृष्टी) आदि विशेषण दिये हैं, इसलिए उनके दृढ़ जैन होने में कोई सन्देह नहीं हो सकता। अपने ग्रन्यों में जैनधर्म के तत्त्वों का भी उन्होंने बड़ी योग्यतासे प्रतिपादन किया है।।
पुष्पदन्त का समाव एक विचित्र ही प्रकार का मालूम होता है। उनका 'अभिमानमेरु' नाम उनके स्वभाव को और भी विशेषता से स्पष्ट करता है। 'मान' के सिवाय वे और किसी चीज के भूखे नहीं जान पड़ते। एक बड़े भारी राजा के वैभवशाली मन्त्री का प्राश्रयर पाकर भी वे धन वैभव से अलिप्त ही रहे जान पड़ते हैं। महापुराण के अन्त में उन्होंने अपने लिये जो विशेषण दिये हैं, वे ध्यान देने योग्य है-शून्यभवन और देवकुलिकाओं में रहनेवाल, बिना घर-द्वार के, स्त्री-पुत्र रहित, नदी वापो और तालावों में स्नान करनेवाले, फटे कपड़े
और वल्कल पहिननेवाले, धूलिधूसरित, जमीन पर सोनवाले तथा अपने हाथों को हो प्रोढ़ना बनानेवाले, और समाधि मरण की आकांक्षा रखनेवाले । ये विशेपण इस अकिञ्चन महाकवि के चित्र को आँखों के सामने खड़ा कर देते हैं।
सचमुच ही पुष्पदन्त अद्भुत कवि थे। वे अपने हृदय के आवेगों को रोक नहीं सकते है। वे जिले हृदय से चाहते हैं उसकी प्रशंसा के पुल बांध देते हैं और जिससे घृणा करते हैं उस की निन्दा करने में भी कुछ उठा नहीं रखते। अपनी प्रशंसा करने में भी उनकी कविता क. प्रवाह स्वछन्द गति से प्रवाहित हुआ है। इस प्रशंसा के औचित्य अनौचित्य का विचार भी उनका स्वेच्छाचारी कविहदय नहीं कर सका है। जो खोलकर उन्होंने अपनी प्रशंसा की है। संभव है, इस समय की दृष्टि से वह ठीक मालूम न हो; परन्तु उन को सरस और सुन्दर रचना को देखते हुए तो उस में कोई अत्युक्ति नहीं जान पड़ती।
पुष्पदन्तने अपना आदिपुराण सिद्धार्थसंवत्लर में लिखना शुरू किया था जिस समय तुहिगु नाम के राजा राज्य करते थे और उन्होंने किसी चोल राजा का मस्तक काटा था। इस 'तुडिगु शब्द पर इस अन्य की प्रायः सभी प्रतियों में 'कृष्णराजः' टिप्पणी दी हुई है। इसी अन्य में उक्त राजा का एक जगह 'शुभतुंगदेव' और दूसरी जगह 'भैरवनरेन्द्र' नाम से उल्लख कि गया है और दोनों जगह उक्त नामों पर टिप्पणी दे कर 'कृष्णराजः' लिखा है। इसी तरह यशोधर चरित्र में 'वल्लभनरेन्द्र ' नाम से उल्लेख किया है और वहां भी टिप्पणी में कृष्णराज लिखा है। अर्थात् तडिगु, शुभतुंगदेव, भैरवनरेन्द्र, वल्लमनरेन्द्र और कृष्णराज ये पाँची एक ॥
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अंक १]
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महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण राजा के नाम हैं और इन्हीं के समय में पुष्पदन्तने अपने ग्रन्थों की रचना की है। एक जगह तुडिग को 'भुवनैकराम ' विशेषण दिया है, जो कि उसकी एक विरुद थी। इसके सिवाय उसे 'राजाधिराज' लिखा है। श्रादिपुराण के २७ वें परिच्छेद के प्रारंभ में भरतमन्त्री की प्रशंसा करते हुए उसे 'भारत' (महाभारत ) की उपमा दी है:-"गुरु धर्मोद्भवपावनमभिनन्दितकृष्णार्जुनगुणोपेतं । भीमपराकमसारं भारतमिव भरत तव चरितम् ॥” इसका 'अभिनन्दित कृष्णार्जुनगुणोपेतम् ' विशेषण निश्चय से कृष्णराज को लक्ष्य करके ही लिखा गया है।
उत्तरपुराण के अन्त में ग्रन्थ के समाप्त होने का समय संवत् ६०६, आसाढ़ सुदी १०, क्रोधनसंवत्सर लिखा है। क्रोधनसंवत्सर से ६ वर्ष पहले सिद्धार्थसंवत्सर आता है, अतः आदिपुराण की रचना का समय संवत् ६०० होना चाहिए । दक्षिण में शक संवत् का ही प्रचार अधिक रहा है, अतएव उक्त ६०० और ६०६ को शक संवत् हो मानना चाहिए।
उत्तरपुराण की प्रशस्ति से मालूम होता है कि उक्त अन्य मान्यखेट नगर में बनाया गया था, जो इस समय मालखेड नाम से प्रसिद्ध है और निजाम के राज्य में है। उत्तरपुराण के ५० वें परिच्छेद के प्रारंभ में लिखा है:
दीनानाथधनं सदाबहुजनं प्रोत्फुल्लवल्लीवनम्, ___ मान्याखेटपुरं पुरंदरपुरीलीलाहरं सुन्दरम् । धारानाथनरेन्द्रकोपशिखिना दग्धं विदग्धप्रियम्,
___ वेदानी वसतिं करिष्यति पुनः श्री पुष्पदन्तः कविः ॥ इससे मालूम होता है, शक संवत् ६०० और ६०६ के बीच में किसी समय धारानगरी के किसी राजा ने इस बड़े भारी वैमवशाली नगर को बरबाद किया था।
पुष्पदन्तने अपना महापुराण पूर्वोक्त शुभतुंग या कृष्णराज के महामात्य भरत के श्राग्रह से और यशोधर चरित भरतमंत्री के पुत्र रणरण या गएणराज के लिए कर्णाभरणस्वरूप बनाया है। राण भी अपने पिता के सदृश वल्लभनरन्द्र या कृष्णराज का महामात्य हो गया था । भरत और णण्ण की पुष्पदन्तने बहुत ही प्रशंसा की है और उन के लोकोत्तर गुणों का वर्णन किया है। महापुराण के सब मिलाकर १०२ परिच्छेद हैं, जिन में से कोई ४० परिच्छेदों के प्रारंभ में पुष्पदन्त ने भरतमंत्री की प्रशंसा के सूचक सुन्दर संस्कृत पद्य दिये हैं जिन्हें हमने इस लेख के अन्त में उद्धत कर दिया है। उन्हें पढ़ने से पाठकों को भरत की महिमा का बहुत कुछ परिचय हो जायगा। इसी तरह यशोधर चरित के चार परिच्छेदों में रणराज की प्रशंसा के जो पद्य हैं, वे भी उध्दत कर दिये गये हैं।
उक्त प्रशस्ति-पद्यों के सिवाय पुष्पदन्तने श्रादि और उत्तरपुराण की उत्थानिकाओं में भरत-. मंत्री को निःशेष कलाविज्ञानकुशल, प्राकृतकविकाव्यरसावलुब्ध, अमत्सर, सत्यप्रतिज्ञ, योद्धा परस्त्रीपराङ्मुख, त्यागभोगभावोद्गमशक्तियुक्त, कविकल्पवृक्ष आदि अनेक विशेषण दिये हैं।
यशोधरचारत में भरत के पुत्र नन्न का गोत्र कौण्डिण्य बतलाया है । अतः संभवतः ये ग्राह्मण ही होंगे, परन्तु जैनधर्म के प्रगाढ़ भक्त थे । भरत के पिता का नाम ऐयण या अण्णय्या और माता का श्रीदेवी था। उन के सात पुत्र थे-१ देवल्ल, २ भोगल्ल, ३ णण्ण, ४ सोहण, ५ गुणवर्म, ६ दंगइया,
और ७ संतइया । इन में तीसरा पुत्र णण्ण था, और भरत के बाद, इसी ने महामात्य या प्रधानमंत्री के पद को सुशोभित किया था। आदिपुराण के ३४ वे परिच्छेद के प्रारंभ में नीच लिखा हुआ एक संस्कृत पद्य दिया है:
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जैन साहित्य संशोधक
[खण्ड २ तीवापदिवसेषु बन्धुरहितेनैकेन तेजस्विना
सन्तानक्रमतो गतापि हि रमाऽऽकृष्ट प्रभोः सेवया। यस्याचारपदं वदन्ति कवयः सौजन्यसत्यास्पदं
सोऽयं श्रीभरतो जयत्यनुपमः काले कलौ साम्प्रतम् ॥ अर्थात् बड़ी ही विपत्ति के दिनों में जिस अकेले और बन्धुरहित तेजस्वी ने सन्तानक्रम से चली गई हुई भी लक्ष्मी को अपने प्रभु की सेवा से फिर आकृष्ट कर ली और कविगण जिस के चरित्र को सौजन्य और सत्य का स्थान बतलाते हैं, वह भरत इस कलिकाल में अपनी जोड़ नहीं रखता।
इससे जान पड़ता है कि भरत के पूर्वजों के हाथ से उक्त मंत्रीपद चला गया था और उसे भरत ने ही अपनी योग्यता से फिर से प्राप्त किया था। अपनी पूर्वावस्था में उन्होंने बड़ी विपत्ति भोगी थी और उस समय उन का कोई वन्धु या सहायक नहीं था।
यशोधरचरित की रचना महापुराण के कितने समय बाद हुई, इस के जानने का कोई साधन नहीं है। यशोधरचरित में समय सम्बन्धी कोई उल्लेख नहीं है, परन्तु यह निश्चय है कि उस समय राजसिंहासन को वल्लभनरन्द्र या कृष्णराज ही सुशोभित करते थे । हाँ, मंत्री का पद भरत के पुत्र णगण को मिल गया था। गएण के उस समय कई पुत्र भी मौजूद थे जिन को यशोधरचरित्र के दूसरे परिच्छेद के प्रारंभ में आशीर्वाद दिया गया है। मालूम नहीं उस समय भरत जीते थे या नहीं। महापुराण जिस समय बनाया गया है उस समय पुष्पदन्त-भरत के ही घर रहते थे-" देवीसुत्र सुदणिहि तेण हउं णिलए तुहारए अच्छमि ।" ६७ वे परिच्छेद के प्रारंभ में कहा है:
इह पठितमुदारं वाचकैर्गीयमानं इह लिखितमजनं लेखकैश्चारुकाव्यम् ।
गतवति कविमित्रे मित्रतां पुष्पदन्ते भरत तव गृहेऽस्मिन्माति विद्याविनोदः॥ इस से भी आभास मिलता है कि कविराज भरत के ही गृह में रहते थे और उन का काव्य वहीं पढ़ा, गाया और लिखा जाता था।
इस के बाद यशोधरचरित जव लिखा गया है, तब वे एण्ण के ही घर रहते थे"णण्णहु मंदिरणिवसंतु संतु, अहिमाणमेरु कविपुप्फयंतु । " परन्तु इसी अन्य के अन्त में लिखा है कि गन्धर्व (नगर? ) में कन्हड़ (केशव) के पुत्र ने पूर्वभवों का वर्णन स्थिर मन होकर किया-"गंधवे कण्हडणंदणेण" इत्यादि । तव क्या यह गन्धर्व नगर कोई दूसरा स्थान है ? संभव है, यह मान्यखेटका ही दूसरा नाम हो अथवा कोई दूसरा स्थान हो जहाँ कुछ समय टिककर कविने ग्रन्थ का उक्त अंश लिखा हो । यह भी संभव है कि णण्ण के महल का ही नाम गन्धर्व या गन्धर्वभवन हो। ___यशोधरचरित जिस समय समाप्त हुश्रा है उस समय कोई बड़ा भारी दुर्भिक्ष पड़ा था जिस का वर्णन कविने इन शब्दों में किया है-"जगह जगह मनुष्यों की खोपाडेयां और ठठरियां पड़ी थीं, रंक ही रंक दिखलाई पड़ते थे। बड़ा भारी दुष्काल था। ऐसे समय में भी गएणने मुझे रहने को अच्छा स्थान, खाने को सरस आहार, पहिनने को स्वच्छ वस्त्र देकर उपकृत किया । " जान पड़ता है यह घटना उस समय की होगी जब धारानरेशने मान्यखेट को लूट कर बरबाद कर दिया था। ऐसी सैनिक लूटों के वाद अक्सर दुर्मिक्ष पड़ा करते हैं। ___महापुराण में कविने नीचे लिखे ग्रन्थकारों और ग्रन्थों का उल्लेख किया है। कवि के समय निरूपण में इन नामों से बहुत सहायता मिल सकती है
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अंक १]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण
१३
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१ अकलंक, २ कपिल, ३ फणार या कणाद, ४ द्विज (ब्राह्मण), ५ सुगत (बौद्ध), ६ पुरन्दर (चार्वाक ), ७ दन्तिल, ८ विशाख, ६ लुद्धाचार्य, १० भरत ( नाट्य शास्त्र कर्ता ), ११ पतंजलि (व्याकरण भाष्यकार ), १२ इतिहासपुराण, १३ व्यास, १४ कालिदास, १५ चतुर्मुख खयंभू, १६ श्रीहर्ष, १७ द्रोण, १८ कवि ईशान बाण, १६ धवल जय धवल सिद्धान्त, २० रुद्रट, २१ न्यासकार, और २२ जसचिन्ह (प्राकृत लक्षण कर्ता), २३ जिनसेन, २४ वीरसेन।
यशोधर चरित के अन्त में केवल एक ही ग्रन्थकार कवि 'बच्छराय' (वत्सराज) का उल्लेख किया गया है जिस के कथासूत्र के आधार पर उक्त चरित की रचना की गई है"मह दोसण दिजह पच्चे कइइ कडवच्छराय तं सत्त लइह।" यह तो करने की आवश्य कि ये वच्छराय कोई जैनकवि ही थे । क्योंकि यशोधर की कथा जैनसाहित्य की ही चीज है।
उत्तरपुराण के अन्त में महावीर भगवान् के निर्वाण के बाद की गुरुपरम्परा दी गई है। उसमें लोहाचार्य तक की परम्परा त्रिलोकप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, गुणभद्रकृत उत्तरपुराण, इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार के ही समान है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में जहां जसवाहु नाम है, वहां इसमें भद्रबाहु है । एक वडा भारी अन्तर यह है कि इसमें गोवर्धन के बाद भद्रबाहु का नाम ही नहीं है, साथ उसके बदले कोई दूसरा नाम भी नहीं दिया है । इतिहासज्ञों के लिए यह बात खास ध्यान देने योग्य है। सब के बाद इसमें जिनसेन और वीरसेन का नाम दिया हुआ है, जो प्राचारंग के एकदेश के ज्ञाता थे। जान पड़ता है ये जिनसेन संस्कृत शादिपुराण के कर्ता से भिन्न हैं।
आदिपुराण (पुष्पदन्तकृत) के पांचवे परिच्छेद में नीचे लिखे देशों के नाम दिये हैं जिन्हें भगवान् ऋषभदेव ने बसाया था
पल्लव, सैन्धव (सिन्ध), कोकण, कौशल, टक्क, आभीर, कीर, खस, केरल, अंग, कलिंग, बंग, जालंधर, वत्स, यवन, कुरु, गुर्जर, बर्बर, द्रविड, गौड, कर्णाट, वराडिव (वैराट?), पारस, पारियात्र, पुनाट, सूर, सोरठ, विदेह, लाड, कोग, वैगि, मालव, पांचाल, मगध, भट्ट, भोट (भूटान), नेपाल, ओण्द, पौण्डू, हरि, कुरु, भंगाल।
. पुष्पदन्त के बनाये हुए दो ग्रन्थ हमें प्राप्त हुए हैं, एक तिसठिमहापुरिसगुणालंकार जिस का दूसरा नाम महापुराण है और जिसके आदिपुराण और उत्तरपुराण ये दो भाग हैं । इसकी श्लोकसंख्या १३ हजार के लगभग है और इसमें सब मिलाकर १०२ परिच्छेद हैं । श्रादिपुराण में प्रथम तीर्थकर आदिनाथ का और उत्तरपुराण में शेष २३ तीर्थंकरों का और अन्य शलाकापुरुषों का चरित्र है । उत्तरपुराण में पद्मपुराण और हरिवंशपुराण भी शामिल हैं और ये पृथक् रूप में भी अनेक पुस्तकभण्डारों में मिलते हैं। पुष्पदन्त का दुसरा ग्रन्थ यशोधर चरित है जिस के चार परिच्छेद हैं और छोटा है। इसमें यशोधर नामक राजा का चरित्र वर्णित है जो कोई पुराण पूरुष था।
उक्त दो अन्यों के सिवाय नागकुमार चरित नाम का एक ग्रन्थ है जो कारंजा (वरार) के पुस्तकभण्डार में है और जिस के प्राप्त करने के लिए हम प्रयत्न कर रहे हैं।
१ यह एक जैन कवि है। इस के बनाये हए दो ग्रन्थ हमें प्राप्त हुए हैं-पउमचरिय'या रामायण जिसके पिछले कुछ सर्ग उस के पुन त्रिभुवन स्वयंभुदेवन पूर्ण किए हैं और दूसरा हरिवंशपुराण जिस का उद्धार विक्रम की १६ वी शताब्दि के एक दूसरे विद्वान्ने किया है। शायद इसका आधिकांश नष्ट हो गया था। ये दोनों ग्रन्थ अपभ्रंश भाषा में ही हैं। इनका विस्तृत परिचय शीघ्र ही दिया जायगा ।
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जैन साहित्य संशोधक
खण्ड ६ हमें सब से पहले बंबई के सुप्रसिद्ध सठे सुखानन्दजी की कृपा से पुष्पदन्त का आदिपुराण देखने को मिला और उसी को देखकर हमें इस कवि का परिचय लिखने का उत्साह हुआ। सेठजी इस ग्रन्थ को फतेहपुर (जयपुर) के सरस्वतीभण्डार से लाये थे । उक्त सरस्वतीभण्डार. का यह ८६ ३ नम्बर का ग्रन्थ है और बहुत ही शुद्ध है। उसमें कहीं कहीं टिप्पणी भी दी है, वि० संवत्१५२८ का लिखा हुआ है उसमें प्रति करानेवाले की एक विस्तृत प्रशस्ति दी हुई. है जो उपयोगी समझ कर इस लेख के परिशिष्ट में दे दी गई है।
इस ग्रन्थ की दो प्रतियां हमें पूने के भाण्डारकर श्रोरियण्टल रिसर्च इन्स्टिटयूट में मिली जिनमें से एक वि० सं० १९२५ की लिखी हुई है और दूसरी वि० सं० १८८३ की लिखी हुई हैx | इस ग्रन्थ का एक टिप्पण भी हमें उक्त संस्था में मिला जो प्रभाचन्द्र कृत है और जिसकी लोकसंख्या १६५० है। इसमें प्रति लिखने का और टिप्पणकार का समय श्रादि नहीं दिया है। ___ इसके बाद उक्त इन्स्टि० में इमें उत्तरपुराण की भी एक शुद्धप्रति मिल गई जो बहुत ही शुद्ध है और सं० १६३० की लिखी हुई है। इस पर यत्र तत्र टिप्पणियां भी दी हुई हैं ।
यशोधर चरित की एक प्रति हमें वंबई के तेरहपन्थी मन्दिर के पुस्तकभण्डार से प्राप्त हुई जो बहुत ही पुरानी है अर्थात् १३६० की लिखी हुई है और प्रायः शुद्ध है, और दुसरी भाण्डारकर इन्स्टि० से, जो वि० संवत् १६१५ की लिखी हुई है।। . इस इन्स्टिटयूट में हरिवंशपुराण की भी एक बहुत ही शुद्ध, टिप्पणयुक्त, और प्राचीन प्रति है, मिलान करने से मालूम हुआ कि यह उत्तरपुराण का ही एक अंश है।
पुष्पदन्त के ग्रन्थ पूर्वकाल में बहुत प्रसिद्ध रहे हैं और इस कारण उनकी प्रतियां अनेक भण्डारों में मिलती हैं। उन पर टिप्पणपंजिकायें और टिप्पणअन्य भी लिखे गये हैं और तलाश करने से अब भी प्राप्त हो सकते हैं। जयपुर के पाटोदी के मन्दिर में उत्तरपुराण का एक टिप्पण ग्रन्थ है जिसके कर्ता श्रीचन्द्र (१) मुनि मालूम होते हैं और जो विक्रम संवत् १०८०में भोजदेव के राज्य में बनाया गया है। जयपुर के बाबा दुलीचन्दजी के. भण्डार में पुष्पदन्त के प्रायः सभी ग्रन्थों की पंजिकार्य हैं; श्रागरे के मोतोकटरे के मन्दिर में उत्तरपुराण की पंजिका है । प्रयत्न. करने पर भी हम इन्हें प्राप्त नहीं कर सके।
इस समय हम पुष्पदन्त के नागकुमार चरित और उनके अन्यों को पंजिकाओं को प्राप्त . करने का प्रयत्न कर रहे हैं। उनके मिल जाने पर आगामी अंक में पुष्पदन्त का समय निर्णय किया जायगा और उनके ग्रन्थों में जिन जिन व्यक्तियों का उल्लेख हुआ है उन सब के समय पर विचार करके निश्चित किया जायगा कि वास्तव में पुष्पदन्त के ग्रन्थ कब बने हैं।
आगामी अंक में पुप्पदन्त को भाषा और उनके कवित्व को भी आलोचना करने का विचार है।
परिशिष्ट में पुष्पदन्त के ग्रन्थों के वे सब अंश दे दिये गये हैं जो महत्वपूर्ण हैं और जिनके आधार से यह लेख लिखा गया है। अधिक प्रयोजनीय अंशों का अनुवाद भी टिप्पणी में दे दिया है।
इस लेख के तैयार करने में श्रीमान् मुनिमहोदय जिनावजयजी से बहुत अधिक सहायता मिली है। इसकी बहुत कुछ सामग्री भी उन्हीं की कृपा से प्राप्त हुई है, अतएव में उनका बहुत ही कृतज्ञ हूं।
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* नं. ११३९ आफ १८९१-९५४ नं. १०५० आफ १८८७-९१ ।
* नं. ५६३ आफ १८७५-७६.४ नं ११०६ आफ १८८४-८७ । नं. ११६३ आफ १८९१-९५। ११३५ आफ १८८४.८७.देखा जैनमित्र, गुरुवार, आश्विन सुदी ५ वीर सं. २४४७ में श्रीयुत पं. पन्नालालजी वाकलीवाल का "सं.वि. १०८० के प्रभाचन्द्र" शीर्षक लेख ।
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अक १]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण
परिशिष्ट नं० १ (श्रादिपुराण के प्रारंभ का कुछ अंश ।)
औं नमो वीतरागाय । सिद्धिवर्मणरंजणु परमनिरंजणु भुश्रणकमलसरणेसरूं। पणवेवि विग्यविणासणु निरुवमसासणु रिसहणाहपरमेसरु॥ ध्रुवकम् ॥
x तं कदमि पुराणु पसिद्धणामु, सिद्धत्थरिसे भुवणाहिराम। उवद्धज्जूड भूभंगभीसु, तोडेप्पिणु चोडहो तणउं सीसु ॥१॥ भुवणेकराम रायाहिराउ, जहिं अच्छह तुडि[ महाणुभाउ । तं (?) दीण दिण्ण घणकणयपयरु, महिपरिभमंत मेवाडिणयरु ॥२॥ अवदेरिय खलयण गुणमहंतु, दियहदि पराइउ पुप्फयंतु । दुग्गदीहरपंथेगरीd, णव इंदु जेम देहेण खाणु ॥ ३ ॥ तरुकुसुमरेणुरंजियसमीर,मायंदरांछ गुंदलियकीर । णंदणवणे किर वौसमइ जाम, तहिं विपिण पुरिस संपत्त ताम ॥ ४॥ पणवेपिणु तेहिं पवुत्त एव, भो खण्डै गलिय पावावलव । परिभमिरभमररचगुमुगुमंत, किं किर णिवसहि णिज्जणवणंत ॥ ५ ॥ करिसरवहिरिय दिश्चकवाले, पइसरहि ण किं पुरवरविसाले। तं सुणेवि भणई अहिमाणमेरु, परि खजउ गिरकंदकले ॥ ६ ॥ णउ दुजणभउंहा वंकियाई, दसिंतु कलुसमाकियाई ॥
घत्ता। वरुणरवरु धवलच्छिह, होउ मच्छिह, मरउ सोणिमुहणिग्गमे । खलकुच्छियपहुवयगई, भिडियणयणई, म णिहालउ सूरुग्गमे ॥७॥
चमराणिलउड्डावियगुणाएं, अहिसेयधोयसुयणतणाएं । भावार्थ-इस प्रसिद्ध पुराणको मैं सिद्धार्थ संवत्सर में कहता हूं जब राजाधिराज भुवनैकराम तुहिगुने बोड राजा का सुन्दर जटायुक और भ्रकुटि भंगिसे भीषण मस्तक काटा ॥ १ ॥ उन्हों ने दीन दुखियों को प्रचुर धन दिया । इसी समय पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए और खलजनों द्वार। अपमानित हुए पुष्पदन्त कवि मेवाडि या मेलाटी नगरी में आये। दुर्गम और लम्बा रास्ता तय करते करते उनका शरीर नवीन चन्द्रमा के समान क्षीण हो गया था। २-३॥ नन्दन वन नामक उद्यान में विधाम ले रहे थे जहां का वायु पुष्षों के पराग से महक रहा था और आम्रवृक्षों पर शुकों के झुण्ड क्रीड़ा कर रहे थे। इतने में ही वहां दो पुरुष पहुंचे ॥४॥ उन्होंने प्रणाम करके कहा कि हे निष्पाप खंडकवि, आप इस निर्जन वन में जो भ्रमरों के गुंजार से गूंज रहा है क्यों ठहरे हैं ? हाथियों के शब्दों से दिशाओं को बधिर करनवाले इस विशाल नगर में क्यों नहीं चलते? यह सुन कर आभमानमेरु पुष्पदन्तने कहा कि गिरिकन्दराओं के जंगली फल खा लेन। अच्छा, परन्तु दुर्जनों की कलुपित टेढी भौहें देखना अच्छा नहीं ॥ ५-६॥ उज्ज्वल नेत्रोंवाली माता की कुंख से जन्म लेते ही मर जाना अच्छा परन्तु प्रभु के दुष्ट वचन और भ्रकुटित नयन संवरे सवेरे देखना अच्छा नहीं ॥७॥
वह लक्ष्मी किस मतलब की जिसने दुरते हुए चॅवरों की हवा से सारे गुणों को उड़ा दिया हो. आभिषेक के जल
सिद्धार्थ संवत्सरे । २ विरुदः। ३ कृष्णराजः। ४ दुर्गमदीर्घतराकाशमार्गणागतः। ५मन्दतेजः। ६ मिलित ७ पुष्पदन्तः। ८ हस्तिशब्दात् । ९दिक्चवक्रवलये। ।
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६६
- जैन साहित्य संशोधक
श्रविवेयपं दप्पुत्तालियाएं, मोहंधयाएं मारणसीलयाएं ॥ ८ ॥ सत्तंगरजभरभारियाएं, पिउपुत्तरमणरलयारियांएं । विससहजम्मपं जडरत्तियाएं, किं लच्छिए विउसविरत्तियाएं ॥ ६ ॥ संपइ जणु गीरसु शिव्विसेसु, गुणवंत जहिं सुरगुरुवि देसु । तर्हि श्रम्हई लइ काणणु जे सरणु, श्रहिमार्णे सहुं वरि होउ मरण ॥ १० ॥ अम्मय इंदराप ितेहि, श्रयरिणय तं पहसिय मुद्देहि । गुरुविण्य पण्यपणवियसिरेहि, पडिवयणु दिण्णु णायरणरोहं ॥ ११ ॥
यत्ता |
जणमणतिमिरोसारण, मयतरुवारण, णियकुलगयणदिवायर । भो भो केसवतणुरुह, रावसररुहमुह, कव्वरयणरयणायर ॥ १२ ॥ वंभंडमंडवारूढकिंत्ति, श्रणवरय रहय जिणणाहभत्ति । सुहतुंगदेवकमकमलभसलु, पीसेसकलाविण्याणकुसल ॥ १३ ॥ पाययकइकन्व रसावलुध्दु, संपीय सरासइसुरादुदूधु । कमलच्छु श्रमच्छरु सच्चसंधु, रणभरधुरधरणुग्धिटुखंधु ॥ १४ ॥ सविलासविलासिणिद्दियय येणु, सुपसिद्ध महाकइकामधेणु । काणीणदीणपरिपूरियासु, जसपसरपसाहियदसदिसासु ॥ १५ ॥ पररमणिपरम्मुह सुद्धसीलु, उण्णयमइ सुयरणुद्धरगंलीलु । गुरुयणपयपणवियउत्तमंगु, सिरिदेविनंवगन्भुन्भवंगु ॥ १६ ॥ अण्णइयत उं तगुरु पसत्य, इत्थिवदागोल्लियदीददत्यु | महमत्तवं सधयवडु गहीरु, लक्खणलक्खकिय वरसरीरु ॥ १७ ॥
[ खण्ड २
से सुजनता को धो डाला हो, अविवेक से दर्प को बढ़ाया हो, जो मोहसे अन्धी हो, मारणशील हो, सप्तांग राज्य के भार से लदी हुई हो, पिता और पुत्र दोनों में रमण करनेवाली ( घृणितव्याभिचारिणी ) हो, विषके साथ जिसका जन्म हुआ हो, जो जढ़ ( या जल ) में रक्त हो, और जो विद्वानों से विरत रहती हो ॥ ८-९ ॥
इस समय लोग नीरस और विशेषतारहित हो गये हैं। अब तो गुणवन्त बृहस्पृति का भी द्वेष किया जाता है । इसी लिए मैंने इस वन का शरण लिया है। मैंने सोचा है कि इस तरह अभिमान के साथ मर जाना भी अच्छा है ॥१०॥ कवि के ये वचन सुनकर उन दो आगत नागरिकों ने अम्मय ( ? ) और इन्द्रराजने -- प्रसन्न मुख से और बड़े विनय से मस्तक झुकाकर कहा--" हे मनुष्यों के हृदयान्धकार को दूर करनेवाले, नवीन कमलसदृश मुखवाले, मदरहित, अपने कुलरूपी आकाश के चन्द्रमा, काव्यरत्नरत्नाकर, और केशव के पुत्र पुष्पदन्तजी, क्या आपने भरत ( मंत्री ) का नाम नहीं सुना ? जिस की कीर्ति ब्रम्हाण्डरूपमण्डपपर आरूढ हो रही है, जो निरन्तर जिन भगवान की भक्ति में अनुरक्त रहता है, शुभतुंगदेव ( राजा और इस नाम का मन्दिर ) के चरणकमलों का भ्रमर है, सारी कला और विद्याओं में कुशल है, प्राकृत कवियों के काव्यरसपर लुब्ध रहता है और जिसने सरस्वतीरूप सुरभि का खूब दूध पिया है, लक्ष्मी जिसे चाहती है, जो मत्सर रहित है, सत्यप्रतिज्ञ है, युद्धों के बोझे को ढोते ढोते जिस के कन्धे घिस गये हैं, जो विलासवती मुन्दरियों के हृदय का चुरानेवाला है, बड़े वंड प्रसिद्ध महाकवियों के लिए कामधेनु है, दीन दुखियाओं की आशाओं को पूरा करनेवाला है, जिस के यश ने दशों दिशाओं को जीत लिया है, जो परस्त्रियों की ओर कभी नजर नहीं उठाता, शुद्ध शीलयुक्त है, जिस की मति उन्नत है, लीला मात्र से जो सुजनों का उद्धार कर देता है, गुरुजनों के चरणोंपर जिस का मस्तक सदैव झुका रहता है, जो श्रीदेवी माता और अण्णय पिता का पुत्र है, जिस के हाथ हाथी के समान दान ( या मदजल ) से आर्द्र रहते हैं, जो महामात्यवंशका ध्वजपट है, गंभीर है, जिस का शरीर शुभ लक्षणों से युक्त है और जो दुर्व्यसनरूपी सिंहों के लिए जो अष्टापद के समान है ॥११- १७ ॥ आइए, उसके नेत्रों
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अंक १]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण mmmmmmam दुश्वसण सीहसंघायसरहु, णवियाणहि किं णामेण भरहु ।
पत्ता। आउ जाहुंतहो मंदिरु णयणाणंदिरु सुकइकहत्तणु जाणई । सो गुणगणतत्तिल्लउ तिहुअणिमल्लउ णिच्छउ पई सम्माणई ॥ १८॥ जो विहिणा णिम्मिउं कव्वपिंडु, तं णिसुणेवि सो संचलिउ खंडु । आवंतु दिड भरहेण केम, वाईसरिसरिकल्लोलु जेम ॥ १६ ॥ पुणु तासु तेण विरइउ पहाणु, घरु प्रायहो अब्भागयविहाणु । संभासणु पियवयणेहिं रम्मु, हिम्मुक्कडंभु णं परमधम्मु ॥२०॥ तुहूं आयउ णं गुणमणि णिहाणु, तुहुं श्रायउ णं पंकयहो भाणु । पुणु एम भणेप्पिणु मणहराई, पहखीणरीणतणु सहयराई ॥२१॥ वर राहाणविलेवणभूसणाई, दिएणई देवंगइणिवसणाई।। अश्चंत रसालई भोयणाई, गलियाई जाम कहवय दिणाई ॥ २२॥ देवीसुएण कइ भाणउं ताम, भो पुप्फयंत ससिलिहियणाम । णियसिरिविसेसणिजियसुरिंदु, गिरिधार वीरु भइरव गरिंदु ॥ २३ ॥ पइ मरिणउं वरिण वीरराउ, उप्पण्णउं जो मिच्छत्तभाउ । पच्छिन्तु तासु जह करहि प्रज, ता घडइ तुज्मु परलोयकज्जु ॥२४॥ तुहूं देउ कोवि भन्वयणबंधु, पुरुएवचरियभारस्स खंधु । अभत्थिोसि देदेहि तेम, णिविग्घे लहु णिवहह जेम ॥ २५ ॥
घता। अइललियएं गंभीरएं सालंकारएं वायएं ताकि किज्जइ।
जह कुसुमसरवियारउ अरुहु भडारउ सम्भावेण शुणिजह॥२६॥ को आनन्द देनेवाले मन्दिर में चालिए। वह सुकवियों के कवित्वका मर्मज्ञ है, गुणगणों से तृप्त है और तीनों भवनों के लिए भला है, वह निश्चय से आप का सम्मान करेगां॥ १८॥
यह सुन कर वह खण्ड कवि-जिस के शरीर को मानों विधाताने काव्य का मूर्तिमान पिण्ड ही बनाया हैउस ओर को चल दिया। उस समय भरत मंत्रीने उस को इस तरह आते देखा जिस तरह सरस्वतीरूपी सरिता की एक तरंग ही आ रही है ॥ १९॥ तब उस ने अभ्यागत विधान के अनुसार उस का सब प्रकार से अतिथिसत्कार किया और बहुत ही प्रिय, दंभरहित धर्मवचनों से संभाषण किया ॥२०॥ कहा हे गुणमणिनिधान, आप भले पधारे, कमल के लिए जैसे सूर्य प्रसन्नताका कारण है, उसी तरह आप मेरे लिए हैं । ऐसा कहकर उस के मार्ग श्रम से क्षीण हा शरीर को सुख देनेवाले मनोहर मान, विलेपन और आभूषणों से उस का सत्कार किया और देवों के निवास करने योग्य स्थान में ठहराया। इसके बाद अत्यन्त रसाल भोजन से उसे तृप्त किया । इस तरह कुछ दिन बीत गये ॥२१-२२॥ देवी सुत (भरत.) ने कहा-हे श्लाघनीय नामधारी पुष्पदन्त, भैरव नरेन्द्र ( कृष्णराज ) अपने वैभव से सुरेन्द्र को भी जीतनेवाले और पर्वत के समान धीर वीर हैं ।। २३ ॥ तुमने कांची नरेश वीरराज शुद्रक (१) का
किया है, और उसे माना है अत: इस से जो मिथ्यात्वभाव उत्पन्न हुआ है उस का यदि तुम आज पायश्चित कर डालो तो इस से तुम्हारा परलोक का कार्य बन जाय ॥ २४ ॥ भव्यजनों के लिए बन्धुतुल्य तुम्हें परुदेव (आदिनाथ)चरित्र की रचना करनी चाहिए। मैं तुम्हारी अभ्यर्थना करता हूँ। इस काव्यरचना से तम निर्विघ्नता पूर्वक निवृति प्राप्त करोगे ॥ २५॥ वह अतिशय ललित, गंभीर और अलंकारयुक्त रचना भी किस काम की जिस में कामबाणों को व्यर्थ करनेवाले अहेतु भटारक की सद्भावपूर्वक स्तुति न की गई हो ? ॥२६॥
१ भइरव-कृष्णराजः। ।
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जैन साहित्य संशोधक
[खण्डं २ सियदंतपंतिधवलीकयासु, ता जंपइ घरवायाविलासु । मो देवीणंदण जयसिरीह, किं किजइ कन्वु सुपुरिससीह ॥ २७॥ गोपजिपहिं णं घणदिणोहिं, सुरवरचावहिं वणिग्गुणोहैं । मइलियचित्तहिं णं जरघरेहि, छिद्दण्णेसिहि णं घिसहरेहिं ॥ २८ ॥ जडवाइपहिं णं गयरसेहिं, दोसायरेहि णं रक्खसोहिं । श्राचक्खिय परपुंठोपलेहिं, वर कइ णिदिज्जइ हयखलेहिं ॥ २६ ॥ जो वाल वुद्ध संतोसहेउ,रामाहिरामु लक्खणसमेउ । जो सुम्मई कईवइ विहियेसेउ, तासु वि दुजणु कि परे म होउ ॥ ३० ॥
घत्ता। उ मा बुद्धिपरिग्गहु, उ सुयसंगहु, णउ कासुधि केरउ बत्तु । मणु किह करमि कइत्तणु, ण लहमि कित्तणु, जगु जे पिसुणसयसंकुलु ॥ ३१ ॥ तं णिसुणेवि भरहें वुर ताव, भो कइकुलतिलय विमुक्ताव । सिमिसिमिसिमंतकिमि भरियरंधु, मेलवि कलेवरु कुणिमगंधु ॥ ३२॥ ववगयविवेउ मसिकसणकाउ, सुंदरपएसे किं रमई काउ । णिक्कारणु दारुणु बद्धरोसु, दुज्जणु ससहावें लेइ दोसु ॥ ३३ ॥ हयतिमिरणियरु वरकराणिहाणु, रण मुहाइ उलयहो उइउ भाणु । जइ ता किं सो मंडियसराई, उ रुचा वियसियसिरिहरहं ॥ ३४॥ को गणई पिसुणु अविसहियतेउ, भुक्कउ छणयंदहो सारमे। जिण चलणकमल भत्तिल्लएण, ताजपिउ कन्वपिसल्लपण ॥ ३५ ॥
पत्ता । एउ हवं होमि घियक्खणु, ण मुणमि लक्खणु, छंदु देसि णवि यामि। __तब उस वाणी विलास कवि ने अपनी श्वेत दन्तावली से दिशाओं को उज्ज्वल करते कहा-हे देवीनन्दन (भरत ) हे सुपुरुषसिंह, मैं काव्य क्या करूं ? श्रेष्ठ कवियों की खलजन निन्दा करते हैं। वे मेघों से घिरे हुए दिन के समान गोवजिंत (प्रकाशरहित और वाणीरहित ), इन्द्रधनुष के समान निर्गुण, जीर्ण गृह के समान मलिनचित्त (चित्र), सर्प के समान छिद्रान्वेषी, गत रस के समान जडवादी, राक्षसों के समान दोपायर (दोषाचर और दोषाकर) और पीठ पीछे निन्दा करनेवाले होते हैं। कविपति प्रवरसेन के सेतुबन्ध (काव्य) की भी जब इन दुर्जनों ने निन्दा की तब फिर ओरों की तो बातही क्या है ? ॥२९-३०॥
फिर न तो मुझ में युद्धि है, न शास्त्रज्ञान है और न और किसी का बल है, तब बतलाइए कि मैं कैसे काव्यरचना करूं ? मुझे इस कार्य में यश कैसे मिलेगा ! यह संसार दुर्जनों से भरा हुआ है ॥ ३१ ॥
यह सुनकर भरत ने कहा-हे कविकुलतिलक और हे विमुकताप, जिस में कीड़े बिलबिला रहे हैं और वहत हो धुणित दुर्गन्ध निकल रही है, ऐसी लाशको छोड़ कर विवेकरहित काले कौए क्या और किसी सुन्दर स्थान में क्रीडा कर सकते हैं। अकारण ही अतिशय रुष्ट रहनेवाले दुर्जन स्वभाव से ही दोषों को ग्रहण करते हैं ॥ ३२-३३ ॥ उल्लुओं को यदि अन्धकार का नाश करनेवाला और तेजस्वी किरणोंवाला ऊगा हुआ सूर्य नहीं सुहाता तो क्या सरोवरों की शोभा बढानेवाले विकसित धमलों को भी न सुहायेगा ? ॥ ३४ ॥ इन खलजनों की परवा कौन करता है ? हाथी के पीछे कुत्ते भौंकते ही रहते हैं।
यह सुनकर जिन भगवान के चरणकमलों की भक्ति में लीन रहनेवाले काव्यराक्षस (पुप्पदन्त ) ने कहा ॥ ३५॥ आप का यह कथन ठीक है, परन्तु न तो मैं विचक्षण हूं और न व्याकरण, छन्द आदि जानता
१ परपृष्ठिमांसः परोक्षवादश्च । २ बाला अंगदादयः, वृद्धा जांबवदादयः अन्यत्र श्रुतहीनाः श्रुताट्याश्च । ३ हनुमान | ४ कृतसमुद्रवंघः अन्यत्र तसेतुबंध नाम् काव्यं । ५ पानां । ६ काव्यराक्षसेन । ७ कुक्कुरः ।
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अंक १]
६६
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महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण जा विरइय जयवंदाहिं आसिमुर्णिदहिं सा कह केम समाणमि ॥ ३६ ॥ अकलंक कविल कर्णयर मयाई, दिय सुगय पुरंदर णय सयाई । दन्तिलविसाहि लुद्धारियाई, गउ णायई भरह वियारियाई ॥ ३७॥ गउ पीय पायजेलिजलाई, अइहीस पराणहं गिम्मलाई। भावाहिउ भारह-भासि वासु, कोहलु कोमलगिरु कालिदासु ॥ ३८॥ चउमुई सयंभु सिरिहेरिसु दोणु, णालोइउ का ईसाणु वाणु । एउ धाउ ण लिंगु ण गुणसमासु, मउ कम्मु करणु किरिया विसेसु ॥ ३६॥ एउ संधि ण कारउ पयसमत्ति, उ जाणिय मई एकवि विहत्ति । गउज्झिायमसहधामु, सिद्धतु धवल जयधवल रणामु॥४०॥ पडुरुहडु जड णिण्णासयारु, परियच्छिउ णालंकारसारु । पिंगल पत्थारु समुद्दे पडिउ, ण कयाइ महारइ चित्ते चडिउ ॥ ४१ ॥ जैसधुसिंधु कल्लोलसितु, ण कलाकोसले हियवउ णिहित्तु । हउं वप्प निरक्खरु कुक्खिमुक्खु, परवेसे हिंडमि चम्मरुक्नु ॥ ४२ ॥ अर दुग्गमु होइ महापुराणु, कुंडएण मवई को जलविहाणु। अमरासुरगुरुयणमणहरोहि, जं आसि कयउ मुणिगणहरोह ॥४३॥ तं हउं कामि भत्तीभरण, किं गहे ण भमिज्जइ महुअरेण । पहु विणउ पयासिउ सज्जणाह, मुहे मसि कुच्चउ कउ दुज्जणाहं ॥४४॥
हूं, ऐसी दशा में जिस चरित को बड़े बड़े जगद्वन्द्य मुनियों ने रचा है उसे मैं कैसे बना सकूँगा ? ॥ ३६ ॥ मैं अकलंक । जैन दार्शनिक ), कपिल ( सांख्यकार ), कणचर (कणाद) के मतों का ज्ञाता नहीं हूं, दिय (ब्राह्मण), सुगत
बौद्ध), पुरन्दर (चार्वाक), आदि सैकडों नयों को, दन्तिल, विशाख,लुब्ध (प्राकलरक्षणकर्ता ) आदि को नहीं जानता । भरत के नाट्यशास्त्र से मैं परिचित नहीं ॥३७॥ पतंजलि ( भाप्यकार ) के और इतिहास पुराणों के निर्मल जल को मैंने पिया नहीं, भावों के आधिकारी भारतभाषी व्यास, कोमलवाणीवाले कालिदास, चतुर्मुख
खयंभ कवि, श्रीहर्ष, द्रोण, कवीश्वर बाण का अवलोकन नहीं किया । धातु, लिंग, गुण, समास, कर्म, करण, क्रियाविशेषण, सन्धि, पदसमास, विभक्ति इन सब में से मैं कुछ भी नहीं जानता। आगम शब्दों के स्थानभूत छ
और जयधवल सिद्धान्त भी मैंने नहीं पढ़े॥ ३८-४० ॥ चतुर रुद्रट का अलंकार शास्त्र भी मुझे परिज्ञात नहीं, पिंगल प्रस्तार आदि भी कभी मेरे चित्तपर नहीं चढ़े॥४१॥ यशः चिन्हकवि के काव्यसिन्धु की कल्लोलों से मैं कभी सिक्त नहीं हुआ। कलाकौशल से भी मैं कोरा हूं । इस तरह मैं बेचारा निरक्षर मूर्ख हूं, मनुष्य के वेष में पशु के तुल्य घूमता फिरता हूं ॥ ४२ ॥ महापुराण बहुत ही दुर्गम है । समुद्र कहीं एक कूडे में भरा जा सकता है ? फिर भी जिसे सुर असुरों के मनको हरनेवाले मुनि गणधरों ने कहा था, उसे अब मैं भक्ति भाववश करता हूं। भौरा छोटा होनेपर भी क्या विशाल आकाश में भ्रमण नहीं करता है? अब में सज्जनों से यही विनती करता हूं कि आप दुर्जनों के मुंह पर स्याही की ग्रूची फेर दें॥ ४४ ॥
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८ सांख्यमते मूलकारः।९ वैशेषिकमते मूलकारः। १० चार्वाकमते प्रन्यकारः। ११ पाणिनिव्याकरणभाष्यं ( पतंजलि)। १२ एकपुरुषाश्रित कथा । १३ भारतभाषी व्यास । १४ श्रीहर्षे । १५ कवि ईशानः वाणः । १६ परिज्ञातः। १७ प्राकृत लक्षण कर्ता।
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ANANAM
जैन साहित्य संशोधक
[खण्ड २ परिशिष्ट नं० २ (उत्तर पुराण के मंगलाचरण के बाद का अंश।) मणे जाएण किं पि श्रमणोज्जे, कावयह दिअहें केण विकज्जें। णिविण्णउ छिउ जाम महाकर, ता सिवणंतरि पत्त सरासई ॥१॥ भणई भडारी सुइयरुश्रोहं, पणवह अरुहं सुहयरुमेहं । इय णिसुणेवि विउँद्धउ कइवरु, सयलकलायर्स णं छण ससहरु ॥ २॥ दिसउ णिहाला किं पि ण पेच्छा, जा विभियमहणियघरे अच्छइ । ताम पराइएण जयवंत, मउलिय, करयलेण पणवंत ॥३॥ दस दिस पसरिय जसतरुकंद, वरमहमत्तवंसणचंदें। छणससिमंडल सण्णिह वयणे, णव कुवलयदलदीहरणयणें ॥४॥
घत्ता। खल संकुले काले कुसीलमइ विणउ करेप्पिणु संवरिय । वच्चंति विसुण्णससुराणवहे जेणसरासइ उद्धरिय ॥ ५॥ इयणु देवियन्वतणुजापं, जयदुंदुहिसरगहिरणिणाएं । जिणवरसमयणिहेलैणखंभे, दुत्थियमित्त ववगयडंभे ॥ ६ ॥ परउवयारहारणित्वहणे, विउसविहुर सयभय णि महणे । ते श्रोहामिय पवरक्खरहे, तेण विगैवें भवें भरहे ॥७॥ वोलाविउ कइ कन्वपिसलउ, किं तुहं सञ्चउ वप्पगहिल्ल किं दीसहि विच्छायउ दुम्मणु, गंधकरणे किंण करहि णियमणु ॥ ८॥ किं किउ काई वि मई अवगैहउ, अवरु कोवि किं विरसुम्माहउ ।
कुछ दिनों के बाद मन में कुछ युरा मालूम हुआ। जब महाकवि निर्विण्ण हो उठा तव सरखती देवी ने स्वप्न में दर्शन दिया ॥१॥ भरिका सरस्वती बोली कि पुण्यवृक्ष के लिए मेघतुल्य और जन्ममरणरूप रोगों के नाशक अरहंत भगवान को प्रणाम करो। यह सुनकर तत्काल ही सवालकलाओं के आकर कविवर जाग उठे और चारों ओर देखने लगे परन्तु कुछ भी दिखलाई नहीं दिया। उन्हें बडा विस्मय हुआ। वे अपने घर ही थे कि इतने में नयवन्त भरत मंत्री प्रणाम करते हुए वहां आये, जिन का यश दशों दिशाओं में फैल रहा है, जो श्रेष्ठ महामात्यवंशरूप आकाश के चन्द्रमा है, जिन का मुख चन्द्रमण्डल के समान और नेत्र नवीन कमलदलों के समान है, ॥२-४॥ जिन्हों ने इस खलजन संकुल काल में विनय करके शून्यपथ में जाती हुई सरस्वती को रोक रक्खा और उस का उद्धार किया ॥५॥जो ऐयण पिता और देवी माता के पुत्र हैं, जो जिनशासनरूप महल के खंभ हैं, दुस्थितों के मित्र हैं, दंभरहित हैं, परोपकार के भार को उठानेवाले हैं, विद्वानों को कष्ट पहुँचानेवाले सैकडों भयों को दूर करनेवाले हैं, तेज के धाम है, गर्वरहित हैं और भव्य हैं ॥६-७॥ उन्हों ने काव्यराक्षस पुष्पदन्त से कहा कि भैया, क्या तुम सचमुच ही पागल हो गये हो ? तुम उन्मना और छायाहनिसे क्यों दिखते हो ? प्रन्यरचना करने में तुम्हारा मन क्यों नहीं लगता? ॥ ॥ क्या मुझ से तुम्हारा
१ सरस्वती । ३ सुष्ठ हतो रुजां रोगाणामोघः संघातो येन स तं । ३ पुण्यतरुमेघ | ४ गतनिद्रो जागरितः। ५आकार। ६ पश्यति । ७ भरतमंत्रिणेति सम्बन्धः श्रीपुष्पदन्तः आलापितः। ८ कन्दो मेघः । ९ महामात्र-महत्तर । १०चन्द्रेण ११ संवृता रक्षिताः सरस्वती। १२ एयण पिता देवी माता तयोः पुत्रेण भरतेन । १३ प्रासाद । १४ मयि पुष्पदन्ते उपकारभावनिर्वाहकेन । १५ निर्मथकेन । १६ रथेन विमानेन । १७ गर्व रहितेन । १८ कोमलालापे। १९ अपराधः । २० अन्यकाव्यकरणवांछः किं त्वं।
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अंक १
७१
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महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराणं भणु भणु भणियउं सयलु पडिच्चैमि, हउ कयपंजलियरु ओहच्छभिः ॥ १६ ॥
घता। अथिरेण असारे जीविएण, किं अप्पड सम्मोहाहं । तुहु सिद्धहे वाणीघेणुमहे, एवरसखीरु ण दोहहिं ॥१०॥ तं णिमणोप्पणु दर विहसते मित्तमुहारविंदु जोयते । कसणसरीरे सुद्धकुकवे, मुद्धापविगब्भि संभूवें ॥ ११ ॥ कासव गोत्ते केसव पुत्ते, का कुलतिलपं सरसोणलएं। उत्तमसत्ते, जिणापयभत्ते ॥१२॥ (8) पुप्फयंत करणा पडिउत्तउ, भो भो भरह णिसुणि णित्तक्खुत्त । कलिमलमलिणु कालु विवरेरउ, णिग्घिणु णिग्गुणु दुरणयगारउ ॥१३॥ जो जो दसिइ सो सो दुज्जणु, णिप्फलु पीरसु णं सुकर वणु। रोउ राउणं संझहे केरउ, अंत्ये पयइ मणु ण महार उ। उत्वेड जे वित्थरद णिरारित, एकु वि पैउ विरएवउ भारिउ ॥१४॥
घत्ता। दोसेणे होउ तं पउ भणमि चोज्ज अवरुमणे थक्कर। जगुएउ चडाविउ चौउजिइ तिह गुणेण सहवंकउ ॥ जयवि तो वि जिणगुणगणु घराणमि, कि हं पई अभत्थिउ अवगण्णमि।
कोई अपराध बन पडा है अथवा और किसी रस का उमाह हुआ है अर्थात् कोई दूसरा काव्य बनाने की इच्छा हुई है ? योलो, योलो, मैं हाथ जोड कर तुम्हारे सामने खडा हूँ, तुम जो कुछ कहोगे मैं सब कुछ देने के लिए तैयार हूं ॥९॥
___ इस अस्थिर और असार जीवन से तुम क्यों आप को सम्मोहित कर रहे हो ? तुम्हें वाणीरूप कामधेनु सिद्ध हो गई है, उससे तुम नवरसरूप दूध क्यों नहीं दोहते?॥ १० ॥
यह सुनकर मुसकराते हुए और अपने मित्र के मुखकमल की, ओर निहारते हुए कृशशरीर, अतिशय कुरूप, मग्यादेवी और केशव ब्राह्मण के पुत्र, काश्यपगोत्रीय, कविकुलतिलक, सरस्वतीनिलय, दृढव्रत और जिनपदभक पुष्पदन्त कवि ने प्रत्युत्तर दिया कि, हे भरत, यह निश्चय है कि इस कलिमलमलिन, निर्दय, निर्गुण और दुनौतिपूर्ण विपरीत काल में जो जो दिखते हैं सो सब दुर्जन है,सब सूखे हुए वन के समान निष्फल और नीरस हैं। राजा लोग सन्ध्याकाल की लालिमा के सदृश हैं । इस लिए मेरा मन अर्थ में अर्थात् काव्य रचना में प्रवृत्त नहीं होता है। इस समय मुझे जो उद्वेग हो गया है, उस से एक पद बनाना भी मेरे लिए भारी हो गया है ॥ ११-१४॥
यह जगत यदि दोष से वक्र होता तो मेरे मन में आश्चर्य नहीं होता किन्तु यह तो चढ़ाये हुए चाप (धनुष) सदृश गुण से भी वक्र होता है (धनुष की डोरी 'गुण' कहलाती है । धनुष गुण या डोरी चढ़ा ने से टेडा होता
यद्यपि जगत की यह दशा है तो भी मैं जिन गुणवर्णन करूंगा। तुम मेरी अभ्यर्थना करते हो. तब मैं तुम्हारी अवगणना कैसे कर सकता हूँ? तुम त्याग भोग और भावोद्गम शक्ति से और निरन्तर की जानेवाली कविमैत्री से
२१ सर्वे प्रतीच्छामि । २२ एष तिष्ठामि । २३ तव सिद्धायाः ।
भरतस्य । २ सुम्ह कुरूपेण । ३ मुग्धादेवी। ४ वाणीनिलयेन मन्दिरण। ५सत्वेन दृढव्रतेन । ६ निश्चित । ७ विपरीतः । ८ शुष्कवनमिव जनः। ९ राजा सन्ध्यारागसदृशः। १० शब्दार्थे न प्रवर्तते । ११ एकमपि पदं चितुं भारो महान् । १२ दोषेण सह जगत् चेत् वक्रं भवति तदाधये न, किन्तु गुणेनापि सह वकं तदाश्चर्यमाञ्चित्त । १३ चापः।
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जैन साहित्य संशोधक
[खण्ड २ चाय भोय भाउग्गमसात्तिए, पई अणवरय रइय कामित्तिए ॥ १६ ॥ राउ सालिवाहणु वि विसेसिउ, पई णियजसु भुषणयले पयासिउ । कालिदासु जे खैध णीयउ, तहो सिरिहरिसहो तुहुँ जगि बीयर्ड ॥ १७ ॥ तुटुं कइकामधेणु कइवच्छल, तुहूं कइकप्परुक्खु ढोइयफल । तुहु कइ सुरवरकीलागिरिवरु, तुहूं कइ रायहंसमाणससरु ॥ १८॥ मं? मयालसु मयणुम्मत्तउ, लोउ असेसुवि तिठ्ठए भुत्तउ । केण वि कव्वपिसलउ मएिणो, केण वि थट्टु भणेवि अवगरिणउ । णिञ्चमेव सम्भव पउंजिउँ, पई पुणु विणउ करे वि हउं रंजिउं ॥ १६ ॥
घता। धणु तणुसमु ममु ण तं गहणु णेहु णिकॉरिमु इच्छमि । देवीसुश्र सुदणिहि तेण इउं णिलए तुहारए अच्छमि ॥२०॥ मह समयागमे जीयहे ललियहे, वोल्लइ कोइल अंबयकलिय। काणणे चंचरीउ रुणुरुंटइ, कोरु किरण हरिसेण विसट्टइ ॥ २१ ॥ मझु कात्तणु जिणपयमत्तिहे, पसरह उणियजीवियवित्ति है। विमलगुणाहरणंकियदेहउ, एह भरह णिसुणइ पइं जेहउं ।। २२ ।। कमलगंधु घिप्पंइ सारंगें, गउ सालूर णीसॉरंगे।' गमणलील जा कयरिंगें सा किंणासिजा सारंगे ॥२३: ।। वड्ढियसजण दूसणवसणे, सुका कित्ति कि हम्मैइ पिसुणे ।
कहमि कन्तु वम्मेहसंहारण, अजियपुराणु भवरणवतारणु ॥ २४ ॥ शालिवाहन राजा से भी बढ़ गये हो और अपने यश को तुमने पृथ्वीतलपर प्रकाशित कर दिया है। इस समय जगत में तुम दूसरे श्रीहर्ष हो जिसने कविकालिदास को अपने कन्धे पर चढ़ा लिया था। ६-७ ॥ तुम कविकामधेनु, कविवत्सल, कविकल्पवृक्ष, कविनन्दनवन और कविराजहंस समान सरोवर हो ॥१८॥ ये सारे लोग मूर्ख, मदालस, और मदोन्मत्त बनें रहें, (इन से मुझे कुछ प्रयोजन नहीं )। किसी ने मुझे काव्यराक्षस कह कर माना और किसी ने दूंठ कह कर मेरी अवमानना की । परन्तु तुमने सदा ही सद्भावों का प्रयोग करके और विनय करके मुझे प्रसन्न रक्खा है ॥ १९ ॥
____ मैं धन को तिन के के समान गिनता हूं और उसे नहीं चाहता हूं। हे देवीसुत श्रुतनिधि भरत, मैं अकारण प्रेम का भूखा हूं और इसी से तुम्हारे महल में रहता हूं ॥२०॥
वसन्त का आगमन होनपर जब आमों में सुन्दर मौर आते हैं तब कोयल बोलती है और बगीचों में भार गंजारव करते हैं, ऐसे समय में क्या तोते भी हर्ष से नहीं बोलने लगते हैं ? ॥२१॥ जिन भगवान के चरणों की भक्ति से ही मेरी कविता स्फुरायमान होती है अपने जीवित की वृत्ति से या जीविकानिर्वाह के खयाल से नहीं। हे विमलगुणाभरणाकित हे भरत, अब मेरी यह रचना सुन ॥ २२॥ कमलों की सुगन्ध भ्रमरगण ग्रहण करते हैं, निःसार शरीर मेंढ़क नहीं। हाथी या हंस जिस चाल से चलते हैं, उस से क्या हरिण चल सकते हैं? इसी तरह से जिन्हें सज्जनों को दोष लगाने की आदत पड़ गई है, ऐसे दुर्जन क्या सुकवियों की कीर्ति को मिटा सकते हैं ? अब मैं मन्मथसंहारक और भवसमुद्रतारक अजितपुराण नामक काव्य को कहता हूं।
१४ त्यागः । १५ स्कन्धे धृतो येन श्रीहर्षेण । १६ तेन सदृशो महान् त्वं । १७ भूखों लोकः । १८ सद्भाव । १९ अकृत्रिम धर्मानुरागं ।
१ वसन्तसमागमे । २ जातायाः सहकारकलिकायाः। ३ आम्र कलिकानिमितं । ४ गृह्यते । ५ भ्रमरेण । ६ भेकेन । ७ निःसारांगण निकृष्ट शरीरेण । ८ हस्तिना हंसेन वा । ९मृगेण । १. हन्यते। ११ कथयामि। १२ मन्मथ ।
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अंक १]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण
परिशिष्ट नं. ३ (उत्तरपुराण के अन्त का कुछ अंश ।) णिवुए धीरे गलियमयरायउ इंदभूह गणि केवलि जायउ। सो विउलइरिहे गउणिव्याणहो कम्मविमुक्को सासयठाणहो ॥१॥ तहि वासरे उप्पएणउ केवलु मुणि हे सुधम्महो पक्खालियमलु । तं णिव्वाणए जंवू णामहो पंचमु दिवणाणु हयकामहो ॥२॥ गंदि सुणदिमित्तु अवरुवि मुणि, गोवद्धणु चउत्थु जलहरमणि । ए पच्छए समत्य सुयपारय गिरसियमिच्छामयभवणीरय ॥३॥ पुण वि विसहु जह पोहिल खत्तिउ जयणाउ वि सिद्धत्थुह यत्तिउ। दिहिसेणकउ विजउ वृद्धिल्उ, गंगु धम्मसेणु विणीसल्लउ॥४॥ पुणु णक्खतउ पुणु जसवालउ, पंडु णामु ध्रुवसेणु गुणालउ ।
घत्ता । अणु कंसउ अप्पउ जिणे वि थिउ पुणु सुहदु जणसुहयरु । जसभर्दु श्रखुद्द अमंदमहणाणे णावइ गणहरु ॥५॥ भबाहु लोहंकु भडारउ आयारांगधारि जससारउ । एयहिं सव्वु सत्यु मणे माणिउ, सेसाई एक्कु देसु परियाणिउं ॥ ६ ॥ निणसणेण वीरसेणेण वि जिणसासणु सेविउ मयगिरिपवि । पुढ्ययाले णिसुणिउं सई भरई, राएं रिखु-बहुदावियविरहे ॥ ७ ॥ एवं रायपरिवाडिए णिसुणिलं, धम्मु महामुणिणाहहिं पिसुणिउ । सेणियराउ धम्म सोयारहं. पच्छिलउ वजियभयभारहं ॥८॥ ताहमि पच्छए बहुरसणडिए, भरहे काराविउ पद्धडियए। पदेवि सुणेवि आयएणेवि इयकले, पयडिउ मन्माएं इय माहियले ॥ ६ ॥ कम्मक्खयकारणु गणे दिउं, एम महापुराणु मई सिउं ।। एत्यु जिणिंद मम्गे श्रोणाहिउ, बुद्धिविहीणे जं मई साहिउ ॥ १०॥ तं महो खमहो तिलोयही सारी, अरुहुग्गय सुअएवि भडारी। चउवीस वि महुं कलुस स्वयंकर, दंतु समाहि बोहि तित्थंकर ॥ ११ ॥
घत्ता। दुई छिंद णंदउ भुयणयले णिरुवम करणरसायणु । आयएणउ मरणउ ताम जणु जाम चंदु तारायणु ॥१२॥ वरिसउ मेहजालु वसुहारहि, महि पिञ्चउ बहु धण्णपयाराहिं। णंदउ सासणु वीर जिणेसहो, सेणिउ णिग्गउ गरयणिवासहो ॥ १३ ॥ लग्गउ ण्हवणारंभहो सुरवइ, णंदड पय सुहं णंदउ परवइ।
णंदउ देस सुहिक्खु वियंभउ, जणु मिच्छतु दुचित्तु णिसंभउ ॥ १४॥ रखों का नाश हो और यह कर्णरसायन काव्य पृथ्वीतल पर विस्तार लाम करे । जब तक चन्द्रमा और तारे है. तब तक लोग इसे सुनें और इसका आदर करें ॥ १२॥
पृथ्वी पर मेघ खूब बरसें और तरह तरह के धान्य पकें, वीरभगवान का शासन बढ़े, राजा श्रेणिक नरक निवास से बाहर निकले और (तीर्थकर होने पर ) इन्द्र उस का जन्माभिषेक करें । प्रजा का सुख बढे और राजा आनन्दित हो। देश में सुाभक्ष (सुकाल) हो और लोगों का मिष्यात्व भाव नष्ट हो ॥ १३-१४॥अंकित
चित्लामिणकडेमा ॥ १४॥ चन्द्रमा और
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७४
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जैन साहित्य संशोधक
[खण्ड २ पडिवण्णए पडिपालण सूरहो, होउ संति भरहहो गिरिधीरहो। होउ संति बहु गुणगुणवंतह, संतहं दयवंतहं भयवंतहं ॥ १५॥ होउ संति वहु गुणहि महलहो, तासु जे पुत्तहो सिरि देवलहो । एउं महापुराणु रयणुज्जले, जे पयडेवउ सयले धरायले ।। १६ ॥ चविह दाणुजय कयचित्तहो, भरह परमसभाव सुमित्तहो। भोगल्लहो जयजसविच्छरियहो, होउ संति णिरु णिरुवमचरियहो ॥१७॥ होउ संति णण्णहो गुणवंतहो, कुलवच्छल सामत्य महंतहो । णिञ्चमेव पालियजिणधम्महं, होउ संति सोहण गुणवम्महं ॥ १८ ॥ होउ संति सुश्रणहो दंगइयहो, होउ संति संतहो संतइयहो । जिणपयपणमण वियलियगवई, होउ संति पीसेसहं भव्यहं ॥ १६ ॥
घत्ता । इय दिवहो कव्वहो तणउं फलु लहुं जिणणाहु-पयच्छउ । सिरि भरहहो अरुहहो जहिं गमणु पुप्फयंतु तहिं गच्छउ ।। २० ॥ सिद्धिविलासिणि मणहरदूएं, मुद्धाएवी तणुसंभूएं। णिद्धणसधणलोयसमचित्ते, सव्वजीवणिक्कारणमित्ते ॥ २१ ॥ सहसलिल परिवढियसोते, केसवपुत्ते कासवगुत्ते । विमल सरासइ जणियविलासे, सुएणभवण-देवउलणिवासें ॥ २२ ॥ कलिमल पवल पडल परिचत्ते, णिग्घरेण निप्पुत्तकलत्ते। गइवावीतलाय सरण्हाणे, जर चीवरवक्कल परिहाणे ॥२३॥ धीरे धूलीधूसरियंगे, दूरयरुज्भिय दुजरासंगे। महि सयणयले करपंगुरणे, मग्गिय पंडियपंडियमरणे ॥ २४ ॥ मएणखेडपुरवर णिवसंते, मणे अरहंतु देउ भायंतें। भरहमण्णणिजे णयणिलएं, कन्वपवंधजणियजणपुलपं ॥२५॥ पुष्फयंतकयणा धुयपंके, जइ अहिमाणमरुणाम।
पालन में शूर और पर्वत के समान धीर भरत (मंत्री) को शान्ति प्राप्त हो। गुणवन्त, दयावन्त, ज्ञानवन्त सज्जनों को शान्ति प्राप्त हो ॥ १५॥ उस के (भरत के ?) पुत्र अतिशय गुणवन्त श्री देवल्ल को शान्ति मिले जिस ने कि इस महापुराण को रत्नोज्ज्वल धरातल पर फैलाया और जिस का चित्त चारों प्रकार के दान करने में उद्यत रहता है तथा जो भरत के लिए परम सद्भावयुक्त मित्र के तुल्य है। जिस का यश संसार में फैल रहा है और जिस का चरित्र उपमारहित है, उस भोगल्ल को शान्ति प्राप्त हो ।। १६-१७॥ कुलवत्सल, समर्थ, गुणवन्त और महन्त रणरण को शान्ति प्राप्त हो । निरन्तर जैन धर्म का पालन करनेवाले सोहण और गुणवर्म को शान्ति मिले॥ १८॥ सुजन दंगइय और सन्त संतइय को शान्ति प्राप्त हो। जिनभगवान के चरणों में मस्तक झुकानेवाले और गर्वरहित अन्य सब भव्यजनों को
र उपमा
प्राप्त हो । जिनभगवाहण और गुणवर्म कोणवन्त और महन्त
भी शान्ति मिले ।
इस दिव्य काव्य की रचना का फल जिननाथ की कृपा से मैं यह चाहता हूं कि श्री भरत और अहंत का गमन जहां हो पुष्पदन्त भी वहीं जावे ॥२०॥ सिद्धिरूपी विलासिनी के मनोहर दूत, मुग्धादेवी के पुत्र, निर्धनों और सपनों को बराबर समझनेवाले, सर्वजीवों के निष्कारण मित्र, शब्द सलिल से बंढा है काव्य स्रोत जिन का, केशवक पुत्र, काश्यप गोत्रीय, विमल सरस्वती से उत्पन्न विलासोंवाले, शून्य भवन और देव कुलों में रहनेवाले, कलिकाल के मत के प्रबल पटलों से रहित, विना घरद्वार के, पुत्रकलत्रहीन, नदी, वापिका और सरोवर में स्नान करनेवाले, फटे कपड़े ओर वल्कल पहननेवाले, धूलिधुसरित अंग, दुर्जनों के संग से दूर रहनेवाले, जमीन पर सोनेवाले. अपने हाथों को ही ओढनेवाले, पाण्डितपण्डितमरण की प्रतीक्षा करनेवाले, मान्यखेट पुर में निवास करनेवाले, मन में अरहन्त देवका ध्यान करनेवाले, भरतमंत्रीद्वारा सम्मानित, नीति के निलय, अपने काव्यरचनासे लोगों को पुलकित करनेवाले, पापरूप कीचड़ जिन क
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अंक ११
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण कयउं कन्वु भत्तिए परमत्थे, छसय छडोत्तर कयसामत्यें ॥ २६ ॥ कोहण संवच्छरे आसाढए, दहमए दियहे चंदरुहरूढए ॥
घत्ता । सिरि अरुहदो भररहो बहुगुणहो कइकुलतिलए भासिउ ।
सुपहाणु पुराणु तिसहिहिमि पुरिसहं चरिउ समासिउ ॥ २७ ॥ इय महापुराणे तिसठिमहापुरिसगुणालंकारे महाभवभरहाणुमणिणए महाकइपुप्फयंत विरइए महाकव्वे दुइत्तरसइमो परिच्छेश्रो समत्तो ॥ १०२॥
(प्राचीन पत्र ) संवत् १६३० वर्षे भाद्रपदमासे शुक्लपक्षे पूर्णिमातिथौ कविवासरे उत्तरा भाद्रपद नक्षत्रे नेमिनाथचैत्यालये श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये
भ० श्रीपानंदिदेवास्तत्पट्टे भ० श्रीशु [भचन्द्रदेवास्त] पट्टे भ० श्रीजिनचन्द्रदेवास्तत्पट्टे भ० (श्रीप्रभाचन्द्रदेवास्तत्सिष्य मं० श्रीध...............स्तत्लिष्य मं० श्री ललितकीर्ति देवास्तत्शिष्य मं० श्री चंद्रकीर्ति देवास्तद............(खंडेल) वालान्वये सावडा गोत्रे सा० धेल्हा तद्भार्या घिल्हसरिस्तत्पुत्रौ द्वौ प्र० सा...............छायलदे तत्पुत्रः सा० वीरम तद्भार्या वीरमदे तत्पुत्रः सा० नाथू तद्भार्या...............तीय जिनपूजापुरंदर सा० श्री धणराज तद्भाय हे प्र० सती सीताक........
परिशिष्ट नं०४ ( महापुराण के परिच्छेदों के प्रारंभिक पद्य ) १ आदित्योदयपर्वताद्गुरुतराचन्द्रार्कचूडामणेराहेमाचलतः कुशेशनिलयादासेतुबन्धादृढात् । आपातालतलादहीन्द्रभवनादावर्गमार्ग गता कीर्तिर्यस्य न वेत्ति भद्र भरतस्याभाति खण्डस्य च ॥ ३ बलिजीमूतदधीचिषु सर्वेषु स्वर्गतामुपगतेषु ।
संप्रत्यनन्यगतिकस्त्यागगुणो भरतमावसति ॥ ४ श्राश्रयवसेन भवति प्रायः सर्वस्य वस्तुनोऽतिशयः ।
भरताश्रयण संप्रति पश्य गुणा मुख्यता प्राप्ताः॥ ५ भूलीला त्यज मुंच संगतकुचद्वंद्वादिगवाक्षमा,
मा त्वं दर्शय चारुमध्यलतिकां तन्वंगि कामाहता। • मुग्धे श्रीमदनिंद्यखंडसुकवेधुर्गुणैरुन्नतः
खप्नप्येष परांगनां न भरतः शौचांवुधेवाछति ॥ ६ श्रीर्वाग्देव्यै कुप्यति वाग्देवी द्वेष्टि संततं लक्ष्म्यै ।
भरतमनुगम्य सांप्रतमनयोरात्यांतकं प्रेम ॥ ७हो भद्र प्रचंडावनिपतिभवने त्यागसंख्यातकर्ता
कोयं श्यामप्रधानं प्रवरकरिफराकारवाहुः प्रसन्नः। धन्यः प्रालेयापिण्डोपमधवलयशो धौतधात्रीतलांत:ख्यातो बन्धुः कवीनां भरत इति कथं पांथ जानासिनो त्वं ॥
धो गया है और अभिमानमेरु जिन का चिन्ह या उपनाम है, उन 'पुष्पदन्त कवि ने यह काव्य भक्ति के वश हो कर ६.६ के क्रोधन नामक संवत्सर में आसाढ़ के दशवें दिन सोमवार को बनाया ॥ २५-२६ ॥ कविकुलातलक में पुराणप्रसिद्ध त्रेसष्ट पुरुषों का चरित संक्षेप से वर्णन किया ॥ २७ ॥
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जैन साहित्य संशोधक
= मातर्वतुंघरि कुतूहलिनो ममैतदापृच्छतः कथय सत्यमपास्य साक्ष्यं । त्यागी गुणी प्रियतमः सुभगोऽभिमानी किं वास्ति नास्ति सदृशो भरतार्यतुल्यः ॥ ९ एको दिव्यकयाविचारचतुरः श्रोता बुघोऽन्यः प्रिय एकः काव्यपदार्थसंगतमविश्वान्यः परार्वोद्यतः । एकः सत्कविरन्य एक महतामाधारभूतो बुधा द्वावेतौ सखि पुष्पदन्त - भरतौ भद्रे भुवो भूषण ॥ १. जंगं दम्मं रम्मं दीवश्री चंदादेवं धरती पलको दो वि हत्या सुवत्यं । पिया रिहा शिवं कवकीलाविणोश्रो श्रदीयतं वित्तं ईसरो पुष्फयंतो ॥ ११ सूर्याचज गमीरिमा जलनिधेः स्यैय सुराद्वेर्वियोः
सौम्यत्वं कुनुमायुधातु सुभगं त्यागं वलेः संभ्रमात् । एकीकृत्य विनिर्मितोऽतिचतुरो धात्रा सखे सांप्रतं भरतायो गुणवान् सुतव्ययशसः खण्डः कवेर्वल्लभः ॥ १४ केतातुमासिकंदा घवलदिलिगोगिण्यतांकुरांश, लेलाही बद्धमूला जलहिजलसमुन्भूयडंडीरवत्ता । मंडे वित्यरंती श्रमयरसमयं चंदविदं फलंती, फुलंती वारहं जयइ रावलया तुम भरसकिती ॥ १५ त्यागो यस्य करोति याचकमनस्तृष्णकुरोच्छेदनं, कीर्तिर्यस्य मनीषिणां वितनुते रोमांचच वपुः । सौजन्यं जनेषु यस्य कुरुते प्रेमांवयं निर्वृति,
risa मनः प्रभुर्वत मत्कार्मिंग सूक्तिमिः ॥ १६ प्रतिवति चष्टं वैदिजनैः स्वैरसंगमावसति । भरतस्य वल्लभाऽसौ कीर्तिस्तदपीह चित्रतरं ॥ १७ मिंगकंपितवन भरतयशः सकलपाण्डुरितकेशम् । अत्यंवृद्धिगतमपि भुवनं भ्रमति चित्रम् ॥ १८ शशधरविस्वात्कान्तिस्तेजस्तपनाङ्गमरितालुः ।
इति गुणसमुच्चयेन प्रायो भरतः कृतो विधिना | १९ श्यामवचिनयनभगं लावण्यप्रायमंगमादाय ।
मरतच्छलेन संप्रति कामः कामाकृतिमुपेतः t २१ यस्य जनप्रसिद्धमत्सरभरमनवमपास्य चारुणि, प्रतिपक्षपातद्वानश्रीरुरसि सदा विराजते । वसति सरस्वती च सानन्दमनाविलवदनपंकजे, स जयति जयतु जगति भरद्देश्वर सुखमयममलमंगलः ॥ २२ मकरदलितकुम्भमुक्ताफलकरमरभातुरानना, मृगपतिनादरेण यस्योऽद्धृतमनघमनर्धमासनम् ।
[२
निर्मलतरपत्रित्रभूषणगणभूषितवपुरदारुणा,
भारतमल्ल सास्तु देवी तब बहुविधमंविका मुद्दे ॥ २३ अंगुलिदलकतापमलमति नखनिकुरंदकर्णिकं
१ बद्दी पद्य ५० वें परिच्छेद के प्रारंभ में की दिया है। २ यह ९५ वें परिच्छेद के प्रारंभ में भी है। इस १०२ में परिच्छेद में भी है । ४ यह ३९ वे परि० में भी है
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अंक १
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण सुरपतिमुकुटकोटिमाणिक्यमधुव्रतचक्रघुवितम् । विलसद्णुप्रतापनिर्मलजलजन्मावलासकोमलं
घटयतु मंगलानि भरतेश्वर तव जिनपादपंकजम् ॥ २४ हिमगिरिशिखरनिकरपरिपंडुरधवलियगगनमण्डलं
पुलकमिवातनोति केतकतरुवरतरुकुसमसंकटे। विकसितपणिफणासु सुरसरितामणिरुचिगतमधः
क्षितरिदमतिचित्रकारि भरतेश्वर जगतस्तावकं यशः॥ २५ उन्नतातिमनुमात्रपात्रता भाति भद्र भरतस्य भूतले ।
काव्यकोतिघंटारवो गृहे यस्य पुष्पदंतो दिशागजः॥ २६ घनधवलताश्रयाणामचलास्थातकराणा मुहुम्रमताम् ।
गणनेव नास्ति लोके भरतगुणानामरीणां च ॥ २७ गुरुधर्मोद्भवपावनमभिनंदितकृष्णार्जुनगुणोपेतम् । ___भीमपरामक्रसारं भारतमिव भरत तव चरितं ॥ २८ मुखमलिनोदरसद्मनि गुणहतहृदये सदैव यद्वसति ।
चित्रमिदमत्र भरते शुक्लापि सरस्वती रक्ता। २९ तंत्रीवाद्यैरनिद्यैर्वरकविरचितैर्गद्यपद्यैरनेकै, ___ कांतं कुंदावदातं दिशि दिशि च यशो यस्य गीतं सुरौधैः ।
काले तृष्णाकराल कलिमलकलितेप्यद्य विद्याविनोदो
सोयं संसारसारः प्रियसखि भरतो भाति भूमण्डलेऽस्मिन् ॥ ३ वंभंडाहंडलखोणिमंडलुच्छालयकित्तिपसरस्स।
खंडस्स समं समसीसियाए कइणो ण लजति ।। ३३ विनयांकुरसातवाहनादौ नृपचके दिवमीयुषि क्रमेण !
भरत तव योन्यसजनानामुपकारो भवति प्रसक्त एवे ॥ ३४ तीत्रापदिवसेषु वन्धुरहितेनैकेन तेजस्विना
सन्तानक्रमतो गतापि हि रमाकृष्टा प्रभोः सेवया। यस्याचारपदं वदति कवयः सौजन्यसत्यास्पद
सोऽयं श्रीभरतो जयत्यनुपमः काले कलौ सांप्रतम् ॥ ३५ इति भरतस्य जिनेश्वरसामायिकशिरोमणेर्गुणान्वक्तुम् ।
मातुं च वार्खितोयं चुलुकैः कस्यास्ति सामर्थ्यम् । ५६ अत्र प्राकृतलक्षणानि सकला नीतिः स्थितिश्छन्दसा
मर्यालंकृतयो रसाश्च विविधास्तत्त्वार्थनिर्णीतयः। किंचान्यद्यदिहास्ति जैनचरिते नान्यत्र तद्विद्यते
देवे तो भरतेश-पुष्पदसनौ सिद्धं ययोरीदृशम् ॥ ६३ बन्धुः सौजन्यवाः कविखलधिषणाध्वांतविध्वंसमानुः
प्रौढालंकारसारामलतनुविभवा भारती यस्य नित्यम् । वक्त्रांमोजानुरागक्रमनिहितपदा राजहंसीव भाति 'प्रोद्यद्भीरभावा स जयति भरते धार्मिके पुष्पदन्तः ।। ६४ श्राखंडोइमरारुचंडमरुकं चंडीशमाश्रित्य यः
कुर्वकाममकांडतांडवविधिं डिंडीरपिंडच्छविः।
हसाउंबरमुडमंडललसद्भागीरथीनायक १यही पद्य २७ वें परिच्छेद में भी दिया है। २ यही पद्य ८८३ परिच्छेद में भी है। ३ यही पद्य ४०वें पा पंछद में भी है। ४ पूने की प्रति में यह पद्य तेरहवें परिच्छेद में भी लिखा है।
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वानि।
जैन साहित्य संशोधक वांछन्नित्थमहं कुतूहलवती खंडस्य कीर्तिः कृतेः। ६५ आजन्म कवितारसैकधिषणा सौभाग्यभाजो गिरा
दृश्यन्ते कवयो विशालसकलग्रन्थानुगा बोधतः । किंतु प्रौढनिरूदगूढमतिना श्रीपुष्पदंतेन मोः ।
साम्यं विभ्रति नैव जातु कविना शीघ्रं त्वतःप्राकृतेः॥ ६६ यस्येह कुंदामलचन्द्रराचिः सम
प्रसाधयंती ननु बंभ्रमीति जयत्वसौ श्रीभरतो नितान्तम् ॥ पीयूषसूतिकिरणा हरहासुहारकुंदप्रसूनसुरतीरिणिशफनागाः।
क्षीरोदशेषवलसत्तमहंस चैव किं खंडकाव्यधवला भरतस्तु यूयम् ॥ ६७ इह पठितमुदारं वाचकैर्गीयमानं इह लिखितमजलं लेखकैश्वारुकाव्यम् । गतवति कविमित्र मित्रतां पुष्पदन्ते भरत तव गृहेस्मिन्भाति विद्याविनोदः ॥ ६८ चंचच्चंद्रमरीचिचंचुरचुरीचातुर्यचक्रोचिंता
चंचंती विचटच्चमत्कृतिकविः प्रोदामकाव्याक्रियाम् । अचंती निजगत्सुकोमलतया बांधुर्यधुर्या रसैः
खण्डस्यैव महाकवेः सभरतान्नित्यं कृतिः शोभते ।। . ८० लोके दुर्जनसंकुले इतकुले तृष्णावसे नीरसे
सालंकारवचौविवारचतुरे लालित्यलीलाधरे । भद्रे देवि सरस्वति प्रियतमे काले कलौ सांप्रतं कं यास्यस्यभिमानरत्ननिलयं श्रीपुष्पदंतं विना ।।
____ परिशिष्ट न० ५
(यशोधरचरित के कुछ अंश ।) तिहुयणसिरिकतहो अइसयवंतहो अरहंतो वम्महहो । पणविवि परमेष्ठिर्ह पविमलदिठिाई चरणजुयलु णयसयमहहो ॥ ध्रुवकम् । . कुंडिल्लगुत्तणहदिणयरासु, वल्लहनरिंदघरमहयरासु । णण्णहु मंदिरणिवसंतु संतु, अहिमाणमेरु कइ पुष्फयंत ॥ चिंतइ हो वण नारीकहाए, पजत्तउ कय दुक्खयपहाए । कय धम्मणिवद्धी कावि कहविं, कहियाई जाइ सिव सोक्खलामि॥
X अग्गइ कइराउ पुप्फयंत सरसइणिलो ।
देवियहं सरूओ वण्णइ कइयणकुलतिलो॥ xx
४. इय जसहरमहारायचरिए महामहल णण्णकण्णाहरणे महाकइ पुप्फयंतविरइए महाकव्वे जसहररायपटबंधो नाम पढमो परिच्छेश्रो सम्मत्तो ॥१॥
नित्यं यो हि पदारविन्दयुग़लं भक्त्या नमत्यर्हतामर्थ चिंतयति त्रिवर्गकुशलो जैनश्रुतानां भृशम् । साधुभ्यश्च चतुर्विधं चतुरधीदर्दानं ददाति त्रिधा
स श्रीमानिह भूतले सह सुतैर्ननाभिधो नंदतात् ॥
xx १ शोभमान । २ चपल । ३ चौर्य । ४ समूह। ५ शोभमाना । ६ विद्युतत् चमत्कृत्या कवयो यया । . अच्छंती ८ मनोहरता। ९ यह पय बम्बई की प्रति में नहीं है। .
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अंक १]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण
नक्षत्राधीशरोचिप्रचयशु चित्रोद्दामकर्त्या निकेतो, निताशेषशास्त्रस्त्रिदशपतिनुताशेषवित्पाद्भक्तः । भ्राता भव्यप्रजानां सततमिह भवाम्भोधिसंसारभीरुनीतिशो निर्जिताक्षः प्रणयविनयतान्नंदतान्नन्ननामा ॥'
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श्राश्रान्तदान परितोषितवन्द्यवृन्दो दारिद्ररौद्रकरिकुंभविभेददक्षः । श्रीपुष्पदन्तकविकाव्यरसाभितृप्तः श्रीमान्सदा जगति नंदतु नन्ननामा ॥ *
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गंधव्वें कदडणंदणेण श्रायहं भवाई किय थिरमण । महु दोस दिन पुवे कहउ कइवच्छराय तं सुत्त लहई ॥
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पावनिसुंभणि मुद्दाबंभुणि, उरुप्पार्पण सामलवणि । कासवगुप्ति के सवपुति, जिणपयभक्ति धम्मासति ॥ वयसंजुत्तं उत्तमसप्तं, वियलियसंकं श्रहिमार्णेकः। पहलियतुंड कयणा खंड, रंजियवुहसह कयजसहरकह ॥ जो श्राइ चंग मण्णइ, लिइ लिहावइ पढइ पढावइ । जो मणसावर सो नर पावर, विहुणियघणरय सासयसंपय ॥ जण वयनीरसि दुरियमलीमसि, कयनिंदायारे दूसहि दुहयारे । पडियकवालए नरकंकालए, बहुरंकालए इटुक्कालए ॥ पवरागारि सरसाहारि, सन्दह चेला वरतंबोलइ । महु उवयारि पुण्णिप्पेरिङ, गुणभत्तिलड गुण्यमल्लउ ॥ होउ चिराउसु वरिसउ पाउसु, तिप्पड मेइणि धणकणदाइणि । विलसउ गोविणि गाउ कामिणि, घुम्मउ मद्दलु पसरउ मंगलु ॥ सन्ति वियंभउ दुक्ख निसुंभंड, धम्मुच्छ्राहिं सहुनरनाहिं । सुह नंद पय जय परमप्पय, जय जय जिरणवर जय भवभयहर ॥ विमल सुकेवलणाणसमुज्जलु, मह उप्पजउ इच्छिउ दिजउ । म श्रमुत कव्वु कुतइ, जं दीणाहिउ काइवि साहिउ || घातं माइ महासह देवि सरासह निहयसयलसंदेह दुह ।
म खम भडारी तिहुयगसारी पुप्फयंत जिणवयणरुह || २३ ॥ इयजसहरुमद्दारायचरिए.. .. चउत्थो परिच्छेश्रो सम्मत्तो ॥ छ ॥ मंगलमस्तु । संवत् १३६० वर्षे आषाढ सुदि १३ शनौ श्रद्येह श्रीमहाराजाधिराज श्रीसुरत्राण महमदराज्ये दुर्गमंडप पडिगनायागे वगडी नामनि प्राग्वाटवंशीय सा० भावडसंताने सा० मल्हौ पुत्र रामा भ्रार्तृ देल्हाकेन द्वाभ्यां जसोधरपुस्तिका लेखिता । सा चिरं नंदतु ॥ छ ॥ शुभमस्तु ॥
परिशिष्ट नं० ६
आदिपुराण की प्रति लिखानेवाले की प्रशस्ति । ) पराविवि रिससरु विहियपणसरु लोयालोय पयासणु । वरमुन्तिरमणवरु जम्ममरणहरु कम्ममहारि विणासणु ॥ मैयनयणवाणससद्दमिपसु संवच्छुरेषु पच्छ गए । विक्कमरायहो सुइसेयपक्ख णवमी बुहवारे सचिन्तरिक्ख ॥ गोवगिरीणयरि णिउ डुंगरिंदै, हुउ पयपाडियसामंतविंदु |
१ यह पद्य तीसरे परिच्छंद के प्रारंभ में है । २ यह पद्य चौथे परिच्छेद के प्रारंभ का है, परन्तु बम्बई और पूने की दोनों प्रतियों में नहीं है। छपी हुई भाषावली प्रति में है । ३ यह पद्य बम्बई की प्रति में नहीं है।
४ मद-नयन - वाण - शशधर मितेसु, अर्थात् वि० संवत् १५२१ । ५ ग्वालियर - गोपाचल । ६ डूंगर सिंहराजा ।
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जैन साहित्य संशोधक'
तो सुउ सकित्तिधवलियादियंत सिकित्ति सिंह विलच्छिकंतु ॥ सिरिकसंग मंडणू मुटु, गुणकिति जॅईसरु जए श्रदु । जसकिति किति मंडिय तिलोउ तो सीसु मल्यकित्ति जिश्रसोड ॥ गुणभट्ट भट्ठे तो पट्टि सूरि जें जिरावयणामिउ रसिउ भूरि । सिरि जसवाल - कुलगह ससंकु, सिरि उल्हासाहु सया संकु || तो जाया गयँसिरि णामधेय, तहि सुन हंसराजु दया श्रमेय । उल्हा चउधरियहु णारि श्ररण, भावसिरिणाम शियगुणपसरण || तत्त चारि हारिमल्ल, सिरि परमसिंह जिउ श्रुतुल्ल । लच्छीहरुमाणिक मणिसमाणु, घेना रायालयविमा || पत्ता - सिरि हंसराय चउधरिय घरे विजसिरि भज्जा महिया ।
त सुय गुणसायर सुहपउरेसर परिमियमयगणरहिया || तर्हि लल्ला रयण सुबुद्धिधाम, मयणुजि वीरू मंडेहिहाणु | सिरि परमसिंह भज्जा सुपुज्ज, वीराणामे वरगुणसमुज ॥ तर्हे सुड सोनिग गामेण धीरु, सूआ घरिणि पसहु जणि श्रभीरु । वोई वल्लहलहंगवग्ग, वीधो हिहाण सयदलकरग्ग ।
रणजि घरिणी मीया अहिक्ख, सिरि परमसिंह घरे लीलसिक्ख । तर्हे चारिपुत्त हियपियरचित्त सिरि चित्त वाल, डालू विचित्त ॥ तीयउ कुलदीव सो पयच्छु, तह मयणवालु चउर पसत्यु | माणिक माणिणि काममल्लि, लखणसिरि णाम पारो मतल्लि ॥ घेगा। घरिणिउ णं कामऋत्यु, संगहिउ जाहि जिराधम्मवत्यु | मयणाभज्जो यति माह भीय गामेण सया सोलण सीय ॥ लल्ला पिय मणसिरि पढम श्रण, पट्टो मंगाभिक्खो सुवण्ण । सुश्र रामचंद्र कुलकमलनंदु, नंदउ चिरु इन्ह णं वीयचंदु । नंदा पूना वे भज्जन्तु, चिरु जीवउ वीरू कमलवन्तु ॥ पयाहं मति सिरि पोमसिंह, जिरा सासराणंदरावणसिंह । विज्जुलचंचलु लच्छी सहाउ, श्रालोइवि हुउ जिणधम्मभाउ | जिरा गंधु लिहाविउ लक्खु एक्कु, सावयलक्खाहारातिरिक्कु । मुणि भोय भुंजाविय सहासु, चउवीस जिगालउ किउ सुभासु ॥ घना चउधारेय निमित्त दवु, तेराज्जिर लाइविजें उच्व । पुरुवजिणायद जि विचित्तु, ससिहरु सुपाडिहेरत ॥ म्मिविउ भवंबुहि जाणवन्तु, रयणत्तयजुयजुयपासजुक्त । कारिय पठ्ठ जिसमा दिट्ठ, अवलोइवि सयल सचित्तिदिठ्ठ पता - गंदउ सिरिहंसराउ सुहउ, गंदउ परमसिंहु ससुउ ।
गंदउ परिवार लच्छिकलिउ, गंदर लोड गुणोह जुउ ॥ श्रायासस्स जिणस्स य जिह अंत कोवि लहइ न गुणस्स । सिरि पोमसिंह तिह ते को पारइ गुणणिहाणस्स ॥ १ सिरि परमसिंह पउम इह लोप जड़ ग होतु ता पउमा । कीला कत्थ करती सुदाणपूया विणोप ि॥ २ ॥
[ खण्ड २
४ कीर्तिसिंह, डूंगरसिंह का पुत्र । ५ गुणकीर्ति यतीश्वर । ६ यशः कीर्ति । ७ मलयकीर्ति यशः कीर्ति के शिष्य 1 ८ जिनवचनामृतसिक । ९ गयसिरि जाया जश्री नामकी भार्या । १० ज्येष्ठ — जेठा ।
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प्रो. ल्युमन अने आवश्यक सूत्र
जर्मनीना प्रसिद्ध प्रोफेसर ल्युमन जैन आगमोना घणा उंडा अभ्यासी छे. लगभग अर्धा सैका जेटला लांया समयथी तेओ जैन साहित्यनुं अवगाहन करता आल्या छे अने अनेक जैन सूत्रोप्रन्थोना सूळ, नियुक्ति, भाष्य, टीका टिप्पणी आदिने अर्वाचीन शास्त्रीय पद्धतिए संशोधित-अनुवादित करी तेमणे प्रकाशमा आण्या छ.ए बधामां आवश्यकसूत्र अने तेने लगता साहित्य उपर जे तेमणे अथाग परिश्रम उठान्यो छे अने ते विषयमा जे निबन्धो आदि लख्या छे ते तो खरेखर तेमनी जैन साहित्य विपयक सूक्ष्म-प्रवीणतानी आश्चर्य-कारक साक्षी आपे छे.
जर्मनीना लीप्झीक शहेरमाथी प्रकट थती ओरिएन्टल सोसायटीनी ग्रन्थमाळा (Abhand. lungen fur die Kunde des Morgenlandes) मां आवश्यक-कथा (Die Avashyaka Exzahlungen) नामे एक अन्य छपाववानी तेमणे सुरुआत करी हती,जेमा आवश्यक सूत्रनी चूर्णि अने टीकामां आवती वधी कथाओ मूळ रूपे आपी, जुदी जुदी प्रतोमा मळी आवतां तेमनां पाठान्तरो तथा वीजा वीजा प्रन्योमा मळी आवतां रूपान्तरोनी घणी विस्तृत रूपरेखा आलेखवानी तेमनी इच्छा हती. परंतु, ते माटे जोइतां वां साधनो-भाष्य, चूर्णि, टीका आदिनी जुदी जुदी प्रतो विगेरे-न मळी शकवाथी, पचासेक पानां छापी तेमने ए कार्य बन्ध करवु पड्युं हतुं. ते दरम्यान सने १८९४ मां जिनेवा (Geneve) मां भराएली इन्टर नेशनल ओरिएन्टल कोंग्रेसमां वांचवा माटे आवश्यकसूत्र साहित्य उपर जर्मन भापामां एक विस्तृत निबंध तेमणे तैयार कयौँ हतो जेमां आवश्यक सूत्रने लगतुं जेटलू साहित्य मळी आवे छे तेनुं अतिसूक्ष्मरीते विवेचन कर्यु हतुंए निबन्ध (Uebersicht uber die Avashyaka-Litteratur) ना नामे तेमणे स्वतंत्ररीते प्रकट कर्यो छे, जेना डेमी साइझना आखा कागळ जेवडा ५० उपर पानां छे. एमां प्रथम श्वेतांबर अने दिगंबर बने जैन संप्रदायोमा आवश्यकने शु स्थान छे ते वताव्यु छ; अने पछी . आवश्यक सूत्रनी भद्रवाहुकृत नियुक्तिमा आवता वधा विषयोनो वहु खूबी भरेलो सार आप्यो छे. ए सारमा साथे साथे नियुक्तिमा आवता विपयोने वीजा बीजां सूत्रो अने भाष्यो विगेरेमा आवता तेज विषयो साथे, कोष्टको करी करी गाथाओवार सरखान्या छे. आवश्यकचूर्णि अने हरिभद्रकृत टीकामां परस्पर जे जे विशेष छे ते सघळा मूळ पाठो साथे समजाव्या छे. पछी जिनभद्र क्षमाश्रमणकृत विशेपावश्यक भाष्यन लवाणथी विवेचन कयु छे. एमां पण पहेलां, विशेपावश्यक ए शुं छे, तेनी टीका विगेरे कोणे करेली छे, ए वताव्युं छे; अने त्यार बाद नियुक्तिनी गाथाओने भाष्यना विवरण साथे विषयवार समजावी छे. अने ए उपरांत पछी आखा भाष्यनो सार आप्यो छे. एटलुं करीने पण ए जर्मनदेशीय. गीतार्थने संतोप न थयो तेथी ए निवन्धनी एक जूदी पूर्ति करी छे, जेमा विशेषावश्यक भाष्यनी शीलांकाचार्यकृत प्राचीन अने दुर्लभ्य टीकामां जे जे विशेष विशेष उल्लेखो छे ते बधा सूळरूपे गाथावार छपावी दीधा छ अने छेवटे ए दीकानी साथी जूनी ताडपत्नी प्रति जे हालमां पूनाना भांडारकर
११
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८२ ]
खंड २
ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टीट्युटमां सुरक्षित छ, तेना अतिजीर्ण शीर्णथएलांकेटलांए पानाना फोटोग्राफस् आप्या छे.
१
प्रो० ल्युमनना अथाग परिश्रम भरेला ए आखा निवन्धनो अविकल गुजराती अनुवाद कराववानो अमारो विचार चाली रह्यो छे पण कमनसीवे हजी असते ए निवन्धनी पूरी नकल मी नथी. पूनाना भांडारकर ओ० रो० इन्स्टीट्यूटमांना सर भांडारकरना पुस्तकसंग्रहमांथी फक्त एना कटेला प्रुफसीटस् ज अमने जोवा मळ्या छे, जे प्रो०ल्यूसने डॉ०भांडारकरने, ए निवन्ध छपाती वखते, पूनानी प्रतो साये सरखावी जोवा माटे मोकल्या होय एम देखाय है. ए संबन्धमां खुद प्रो० ल्युसनसाथे ज अमारो पत्रव्यवहार चाले छे जेनो सविस्तर खुलासो मळतां भाषांतरनी व्यवस्था करवामां आवशे. ते दरम्यान, जैन साहित्य संशोधकना वाचकोने ए असूल्य निवन्धनो कांइक परिचय थाय तेटला माटे मजकुर प्रोफेसरे ए निबन्धसां आवश्यक निर्युक्ति अने विशेपावश्यक भाध्यमां आवता गणधरवाद नामे विपयना उपर जे एक प्रकरण लख्यूं छे तेनो अनुवाद आपएि छीए. ए अनुवाद कार्यमां, सि. आर. डी. वाडेकर, वी. ए. नामना सज्जने जर्मन भाषा समजाववा माटे जे सहायता अपीछे तेनी आभार साधे अमारे अहीं खास नोंध लेवी जोईए.
↓
विद्य वैशाखः संवत् १९७९ विशेषावश्यकभाष्य अने तेनी टीकामां मळी आवतां वैदिक अने दार्शनिक अवतरणो.
- सुनि जिन विजय - केशवलाल, भे. मोदी.
१ इन्दभूइ २ अगिभूइ
जैन साहित्य संशोधक
आवश्यक नियुक्तिमा छट्ठा भागनी १ थी ६४ मी सुधीनी गाथाओमां गणधरवाद नामे विषय आवेलो छे. एमां केवी रीते महावीरे ११ ब्राह्मणोना तत्त्वज्ञान विषयक संशय दूर करी, शिष्यो साधे तेमने पोताना शिष्यो वनाच्या एनुं टुंकुं अने एक ज प्रकारनुं वर्णन आपलं हे. ए अन्यारे ब्राह्मणो महावीरना मुख्य शिष्य होई गणधरो कहेवाय हे. शरुआतनां २ थी ७ सुधी गाधामां संक्षेपसां गणधरोनो ड्रंक परिचय अने संशयात्मक विपयती नोंध आपी छे अने पछी ८ थी ६४ सुधी गाथामां तेनो ज विस्तार आपेलो छे. गाथावार हकीकत आ प्रमाणे:
२. उन्नत अने विशालकुळमां उत्पन्न घएला अग्यारे ब्राह्मण पावानामक स्थानसां सोमिल ब्राह्मणे आरंभेला यज्ञपाटकमां आवेला हवा.
३-४. तेमनां नाम---
५ त्राग्भूइ ४ विवक्त
६ मण्डिय ७ मोरियपुत्त
८ अकंपिय
९ अवलभाय
१० मेयज्ज
११ पहाल
५ सुहम्म
५. आ अग्यारेसांयी फक्त एक सुधर्म ( ५मा गणधर ) नीज शिष्य परंपरा आगळ चाली. वाकीना कोईनो शिष्य समुदाय रह्यो नहीं.
१ ए लाखा पुस्तकना अमे पण फोटोग्राफस् पढाव्या छे. खरेखर ए प्रति एक दर्शनीय प्रति हे अने एना ए फोटोग्राफ्सूनी नकल दरेक पुस्तक भंडारमां मुकवामां आवे एवी आमारी खास भळामग है.
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त्रीजो
अंक १]
प्रो. ल्युमन अने आवश्यकसूत्र 886 ३ . ६ ट्ठी गाथामा क्रमथी ए अग्यारेना मनमा जे जे बाबतनो संशय हतो तेनी नोंध छे.अने ते आ प्रमाणे छ
जीवे' कम्मे तज्जीव' भूय तारिसय५'बन्ध-मोखे य । .
देवा नेरइया वा पुण्णे परलोग निव्वाणे' ॥ ६ (५९६) ' . ७. पहेला पांचे गणधरोने ५०००-५०० शिष्यो हता; ६-७ ने ३५०-३५० अने ठेला ४ ने ३००-३०० शिष्यो हता.
__ महावीर दरेकने नाम गोत्र पूर्वक बोलावे छे अने पछी तेना मनना संशयन नाम लई, 'तूं वेदना पदोनो अर्थ जाणतो नथी, तेनो अर्थ आ प्रमाणे छ' एम एक ज प्रकारनो जवाब आपे छे. • गाथावार गणधरोनो उल्लेख आ प्रमाणे
१७. - पहेलो गणधर, जीव विषयक ___ संशय. २५. बीजो
कर्म विषयक
तज्जीव तच्छरीर वि. , ३५. चोथो
पञ्च भूत वि० ३९. पांचमो
सदृशोत्पत्ति वि० ४३. . छो
बन्ध मोक्ष वि० ४७. सातमी , देवमृष्टि वि० ५१. आठमो " नरकसृष्टि वि० नवमो
पुण्य विषयक दशमो
परलोक वि० ६३. अग्यारमो , निर्वाण वि० आ अग्यारे गणधरोना मनना संशयनो महावीरे जे खुलासो कयौँ हतो तेनो उल्लेख सूळ नियुक्तिमा करवामां आव्यो नथी. निन्हवोनी हकीकतनी पेठे ज ए हकीकत पण निर्णय वगर ज
आपवामां आवेली छ. चूर्णिमां फक्त पहेला गणधरना संशयनो खुलासा करवानो थोडोक प्रयत्न करवामां आव्यो छे. पण जिनभद्र आ बाबतनो घणो उत्तम विस्तार करे छे. ए विषय माटे तेमणे ४०० उपरांत गाथाओ लखी छे अने तेना विवरणमां घणी विशेष वातो आपी छे. हरिभद्रसूरि आ विवरणमाथी घणांक अवतरणो पोतानी टीकामां ले छे अने एज अवतरणो विशेषावश्यक भाष्यमांना गणधरवादनी टीकाओना आधारभूत बने छे. वळी हरिभद्रनी टीका उपरथी किश्चिद्गणधरवाद नामनो पण एक ग्रन्थ लखायो छे, जेमां केटलोक वधारे विस्तार करवामां आवेलो होई वेदनां घणां खरां अवतरणो उपरांत छछी अने ते पछी आवती गाथामांनी हकीकतर्नु पण निरूपण करेलुं छे. आनी श्लोक संख्या लगभग २५० जेटली छे अने पूनाना पुस्तकभंडारमा नं० १६, २९१ वाळी प्रतना २० थी.२३ मा सुधीना पानाओमां ए लखेलो छे. दशवैकालिकनी लघुवृत्तिमां पण संक्षेपथी आ विषय चर्चेलो छे.
____ आ विषयने लगता जे केटलांक वैदिक अने दार्शनिक अवतरणो जिनभद्र आपे छे अने तेमनो जे अर्थ जैन मतानुसार करे छे ते जाणवां जेवां छे. आमांनां घणां खरां अवतरणो तो तेमणे फक्त
५९.
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nawwwwwwwww
१७
जैन साहित्य संशोधक पोतानी टीकामां ज आपलां छे; पण ते स्वोपन टीका उपलब्ध नथी। तेथी हरिभद्र, शीलांक अने हेमचन्द्र-के जमणे ए स्वोपज्ञ टीकानो पोतानी टीकाओमां उपयोग को छ-तेमणे ए अवतरणो लीधेला होवाथी आपणे ए टीकाओमाथी ज ते लेवानां छ. भाष्यना मूळमां ज जे अवतरणो आपेला छे ते खास काळा अक्षरोमां आपवामां आव्यां छे. बाकीनां कया टीकाकारे कयां अवतरणो लोधां छे ते जुदी जुदी रीते बताववामां आव्यां छ. ए अवतरणो कया प्रन्थोमांथी लेवामां आवेलां छे तेनो काई उल्लेख टीकाकारो करता नथी. तेथी कवना उपनिपद्वाक्यकोप अने योजां तेवां वेदसंबंधी पुस्तको उपरथी घणांकनां स्थळो खोळी काढवानो प्रयत्न कर्यो छे. ए तो चोकस छे के जे अवतरणो जिनभद्रे लीयां छे ते घणां प्रमाणभूत छे अने तेमना वखतना ब्राह्मणो वादविवादमा ए वाक्योनी खूब चर्चा करता होवा जाइए. ब्राह्मणोनां दर्शनशास्त्रोमा परस्पर विरुद्ध विचार दर्शावनारां ए वाक्यो उपरथी दरेक गणधरनो संशय उभी करवामां आव्यो छे. प्रसिद्ध उपनिपदोना मूळ पाठो साथे सरखावतां ए वाक्योमा जे केटलीक भूलो नजरे पडे छे तेनुं कारण विनकाळजीपूर्वक एओनो उपयोग करवामां आवेलो हो जोईए. ४२, ५ (१५५३).
*( यदाहुनास्तिका) एतावानेव पुरुपो ऽयं यावानिन्द्रियगोचरः। भद्रे, वृकपद पश्य यद् वदन्ति बहुश्रुताः ॥ * I पिब खाद व साधु शोभने यदतीतं वरगात्रि तत्र ते । न हि भीर गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कडेवरम् ॥
(भट्टोऽज्याह) ४ आ अंक ते प्रो. ल्युमने पोताना मूळ निवन्धमा विशेषावश्यकभाष्यना जे ५ विभागो पाडया छे तेना सूचक छे. एमां पहलो अंक प्रकरणने अने वीजो गाथानंबरने सूचवे छे. आ पछी जे कौंसमा आकडा आपेल छ ते काशीनी यशोविजय जैनग्रन्थमाळामां प्रकट थएल सटीक विशेषावश्यकभाष्यमांनी चालू गाथासंख्या सूचवे छे. मुद्रित ग्रंथमा १५४८ मी गाथा ज्यां पूरी थाय छे त्यां उक्त प्रो० ना वर्गीकरण प्रमाणे प्रथम विभाग पूरो थाय छे अने १५४९ मी गाथायी बीजो विभाग शरू थाय छ ते २०२४ मी गाथाए पूरो थाय छ . ए विभागां गणधरवाद नामनो विषय आवे छे अने तेनी कुल ४७६ गाथा छे.
8-( ) आवा गोळ कौंसमा आपेला पाठो आवश्यकसूत्रनी हारिभद्री टीकामां आपवामां आवेला नथी; तेम ज[ ] आवा चौखुणा कौंसमा आपेला पाठो विशेपावश्यक भाष्यनी शीलांकाचार्यकृत टीकामा आपेला नथी; एम समजवू.
+ आ अंको आवश्यकनी हारिभद्री टीकामां दरेक गणधरना माटे जे शंका-समाधानात्मक अवतरणो आपवामा आवेला छेतेनो क्रमनिर्देश सन्यवे छे. एमांनो मोटो अक्षर ए गणधरनी संख्या बतावे छ अने तेनी आगळ जे नानो अक्षर के ते अवतरणनी संख्या जणावे छे.
I आ चिन्हवाळा अवतरणो फक्त आवश्यक चूर्णिमा ज मळी आवे छे.
* आ बन्ने श्लोको हरिभद्रकृत पढ्दर्शनसमुच्चयना छेवटना लोकायत प्रकरणमा, श्लोक ८१-८२, छे (मुद्रित पृ० ३०१, ३०४, कलकत्ता) त्यो बीजा श्लोकनो प्रथम पाद 'पिव खाद च चारुलोचने' आ प्रमाणे छ.
२. शीलांकाचार्यनी टीकामा 'यथाहुः पाठ छे. ३. शी. टी. 'एके.'४. चर्णिमा 'एके आहः' एटलो ज पाठ छे. ५.विशेपावश्यकनी हेमचंद्रकृत टीकानी केटलकि प्रतोमा आना ठेकाणे लोकोऽयं पाठ छ.
६० शी. ह.हे. नी केटलीक प्रतोमा वदन्त्यबहश्रताः' पण पाठ छे.
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अंक १]
११३१..
प्रो. ल्युमन अने अवश्यकसूत्र
[८५ विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्याय तान्येवानुविनश्यति, न प्रेत्य सम्झास्ति।
- बृहदारण्यकोपनिषद् २, ४, १२.-आगळ गाया ३९अने १३७, नो टीकार्मा, ।मद्रित पृष्ठ ६८.त्या ७२० मां) पण आ अवतरण आवे है.तया भाष्यना मूळा, गाया ४०२,४१४, ४२१ (मु० पृ० ६८१) मा मा अवतरण अनुवादित है,
(सुगतस्त्वाह) न रूपं मिक्षवः पुद्गल इति [ आदि ] अन्ये त्वाहुः I वासांसि पोर्णानि यया विहाय नवानि गृहाते नरोऽपराणि । तया शरीराप्यपरापराणि पहाति गृहाति च पायं जीवः ॥ [ (तथा च वेदः)] न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वाव सन्त मियाप्रिये न स्पृशतः।
-छान्दोग्योपनिषद् ८,१२,१. -आगळ (गाया) ४३.१०३. २५६. ३१३ नी टीकामा द्रित पृष्ठ ६८२. ७०६.७५९. ७७७.मां) पण आ अवतरण उत है. त्या भाष्य-मूळ गाया-३१३१%D४६७१ (मु..७७७. ८३१) मी मा मबतरण अनुवादित छे.
([तथा] अग्निहोत्रं सुहुयात् स्वर्गकामः) मध्युपनिषद् ६,३६.-आगळ गाया ४३.९५, २५२. ३३४. (नु. पृ. ६८२. ७०२.७५८. ७८४) नी टीचमा पुनः सप्टत. मूळ गाया ९२% १३६२= ३९९२ -४२२२, (मु. पृ. ७००. ७२०. ८०७. ८१४ ) मा अनुवादित. गाया ३३४. (नु.ए.७८४ ) मां सूचित । सरखावो-हरिभद्रनी आवश्यत्तिमा चैत्यवन्दनवृत्ति आव०५.१९; त्या शान्त्रवार्तासमुच्चय ६०५, वळी ए हा अन्यना १५७ मा लोकमा माना जेवु न एक अवतरण छे जे तैत्तिरीयवहिताना २ नानी आदिमा छे.
([कपिलागमे तु प्रतिपाद्यते] अस्ति पुरुषः) अकी निर्गुणो मौका (चिपः)
-
७. आना ठेकाणे ह० मा 'तया' पाठ छे. ८. भगवद्गीता २, २२ (महाभारत ६, ९००) मां उत्तरार्द्ध आ प्रमाणे छे:
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ - चूर्णिमां एक बीतुं वधारे नीचे प्रमाणेनुं अवतरण छे:
काया पन्नो मुत्तो निच्चो कत्ता तहेव भोचा य ।
तणुमेचो गुणवन्तो उड्ढाई वण्णिो जीवो॥ सरखावो-दशवकालिक नियुक्ति गाया २२७ अने ते पछीनी. (नु. पृ० १२१)
९ सुत्रकृतांग १,१,१-१४ नी टीकामा शीलांकाचार्य 'तया चौक' करीने आ अवतरण नीचे प्रमाणे आपे है:
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२,३३(१५८०).
जैन साहित्य संशोधक [ नीलविज्ञानं मे उत्पन्नमार्यात् ] सरखावो-सर्वदर्शनसंग्रह पृ.
१९,७-१० (एक एव हि भूतात्मा भूते भूते प्रतिष्ठितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ।।१०
-ब्रह्मविन्दु-उपनिषत् १२. यशस्तिलक चम्यू, आश्वास ६, कल्प 1. (पृ.२७३ निर्णयसागर) .
यथाविशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः । सङ्कीर्णमिव मात्राभिभिन्नाभिरभिमन्यते ।। तथेदममलं ब्रह्म निर्विकल्पमविद्यया । कलुपत्वसिवापन्नं भेदरूपं प्रकाशते ॥ "ऊर्ध्वसूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययस् । छन्दांसि यस्य पनि यस्तं वेद स वेदवित् ।। -भगवद्गीता१५-१; (महाभारत ६-1३८३.) पुरुप एवेदं निं सर्व यद् भूतं यच्च भाव्यं ।' उतामृतत्वस्येशानो यदन्ननातिरोहति ॥ -वाजसनेयी संहिता ३१, २. श्वेताश्वतरोपनिषद् !-१५.
१९९१
अकर्ता निर्गुणो भोक्ता आत्मा सांस्यनिदर्शने । स्याद्वादमद्धरी, श्लोक १५ मां महिषेण भाखो लोक आ प्रमाणे आपे है:
असूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः। .
अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म आत्मा कापिलदर्शने ॥ (बनारस, यशोविजय जैन अन्यमाला, पृ. ११३ पड्दर्शनसनुचयनो टीकामां गुणरत्न पण आश्लोक उदत करे हे. (जुओ कलकत्ता आवृत्ति, पृ. १०५) वळी सरखावो-पड्दर्शनसमुच्चय, मूळ श्लोक ४..
१. ब्रह्मविन्दूपनिषद् ( आनन्दावन मुद्रित, पृ. ३३८) मां चीजो पाद 'भूते भूते व्यवस्थितः' आ प्रमाणे है, भने यशस्तिलक चन्यू (निर्णयसागर-भुद्रित, पृ. २७३-उत्तर भाग ) मां बीजा सने श्रीजा पादनो पाठ-'देहे देहे व्यवस्थितः । एकवानक्या चापि मा प्रमाणे है. वळी, शीलांकाचायनी आचारांगसूत्र टीका (आगमोदय समिति मुद्रित, पृ.१८) अने सूत्रकृतांन सत्र टीका (आ.स.नु. पृ.१९)मां पण आ लाक रडत छे.
११. उपनिषद्मा 'भव्यं' पाठ उपलब्ध थाय हे.
* प्रो. ल्यूमन आ शब्द उपर एक नाचे प्रमाणेनी खास नोंघ करे है: “केटलाक प्रसिद्ध उपनिषदोनायी जैन विद्वानोए लीवेलां आ अवतरणो संकाओ सुधी बहु ध्यान खेचाया बगर ज लखाता आवतां हतां अने तेयो जनोए करेली तेमनी नोंधनां स्वभाविकराते न केटलीक मुलो थएली छे. उदाहरण तरीक२१ मार्नु निं तया ७२र्नु अवतरण."-आमांना प्रथम नि शब्द रूपरनी नोटमा ते लखे हे के-" वर्तमाना वैदिक वाङ्मयना हस्तलिखित प्रन्योमा अनुस्वार भाटे जे चिन्ह वपराय ठे, ते ८ मा सैका अगर तेनी पहेलां ग्नि अक्षर जे देखतुं हशे अने तेथी वैदिक चिन्हयीअजाण एवान ग्रन्यकारोए तेने एक खास शब्द मानी लीवलो लागे है. भने तेयी तमगे पुल्य एवंदं सर्व'एमसल वाक्यमा निशब्द वधारी 'इदना 'द उपर बीजो अनुस्वार बढावा दीवी होय एन जणाय है."-प्रो. ल्युमन्नी मा नॉव अमने जरा विचारणीय लागे हे. लिपिमेदना ज्ञानना अमावे एवी भूलो थवी जो के घणी संभावित मात्रज नयी पण सुज्ञात है. दाखला तरीके जैन लिपिमा 'मा' भक्षरने
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अंक १j
प्रो. ल्युमन अने आवश्यकसूत्र यदेजति यनैजति यद्रे यद्वान्तके। यदन्तरस्य सर्वस्य यदु सवस्यास्य वाह्यतः॥१२
-वाजसनेयी संहिता ४०,५. २,५० (१५९८).१६ [ तथा ] श्रुतौ [ अपि] उक्तं
अस्तमिते आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते शान्तेऽग्नौ शान्तायां वाचि किंज्योतिरेवायं पुरुषः ? 'आत्मज्योतिः सम्राडिति होवाच ।।
-यू. आ. उप. ४, ३, ६, आमांना केटलांक वाक्यो ए ज उपनिषद्ना ५.३, २ मां पण आवे छे. भाष्यनी मूळ गाथा २, ५० मा पण आ अवतरण
अनुवादित छे. २,९५ (१६४३).
(स सर्वविद् यस्यैषा महिमा भुवि दिव्ये । ब्रह्मपुरे ह्येप व्योम्न्यात्मा सुप्रतिष्ठितः ॥'
-मुण्डकोपनिषद्, २, २,७. पूर्वार्ध. तमक्षरं वेदयतेऽथ यस्तु स सर्वज्ञः सर्ववित् सर्वमेवाविवेश || ११
-प्रश्नोपनिषद्, ४, ११. उत्तरार्ध. एकया पूर्णाहुत्या सर्वान् कामानवाप्नोति । १५
-सरखावो, तै० ब्रा० ३, ८, १०,५. बदले घणा भागे जूना लहिआमओ 'प्र' भावा रूपमा लखता. ए रूपने बराबर न समजवाथी प्रो. वेवरे बर्लिन लाई. बेरीना म्यनुस्क्रिप्टस् केटलॉगमा 'समुग्गय ' जेवी शब्दोनी रोमन जोडणी: ' Samugrya' आवी खोटी करी घणों घोटाळो उभो कयों छे. एवी जरीते वीजा विद्वानोना हाये पण भ्रम थई शके ते स्पष्ट छे. पण अमने अहिं बीजीरीते ए नोध विचारणीय लागे छ; अने ते ए छे के आवश्यकटीका की हरिभद्रसरिने वैदिक साहित्य के तेना संकेतथी अपरिचित मानी शकाय तेम नथी. कारण के ते पोते जैन दीक्षा लीघा पहेलां जातिए ब्राह्मण अने विद्याए सर्वशास्त्र निष्णात हता, ए सुविभुत छे. अने जो ते वात वाजुए मूकिए तो पण तेमणे जुदा नद दर्शनो अने मतोना विषयमा जे अनेकानेक अपूर्व अने गहन ग्रन्थोलख्या छे तेम ज सांख्य,वेदांत, न्याय, मीमांसाभार वैदिक संप्रदायोनी जे खूब सूक्ष्म रीते आलोचना-प्रत्यालोचना करी छे ते जोता स्पष्ट जणाय छे के तेभो वेद. बाणा सत्र, स्मृति भने उपनिषदोना घणा ऊंडा अभ्यासी अने ज्ञाता हता. तेथी तेमना जेवा विद्वान् आवा आबाल-प्रसिद्ध अन स्वारना चिन्हने न समजी शके अने तेने कांई बीजु ज कल्पी ले, ए मानवु बिल्कुल अशक्य छे. हरिभवसार आ शब्दने 'निं' कहे छे अन एने वाक्यालंकार रूपे उक्त वाक्यमा वपराएलो लखे छे.-निमिति वा लंकारे -आवश्यकसूत्र, आ. स. पू. २४४ ) वर्तमान उपनिषदोमां पण पाठ-मेद अने पाठ-फेर क्या ओळ पएला छे जेथी आपणे जैन विद्वानोना आवा पाठान्तरोने एकदम भ्रमोत्पन्न कही शकिए.
१२. ईशावास्योपनिषद्मा पण आ श्रुति आवेली छे अने त्या 'यद्' ना ठेकाणे सर्वत्र 'तद्' पाठ मळे छे.. १३. उपलब्ध उपनिषदमा वर्तमान पाठ ा प्रमाणे छे:
___ यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्यैप महिमा भुवि । दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येप व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठितः ॥ .. १४. वर्तमान पाठ आ प्रमाणे
तदक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य स सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेशेति । -हरिभद्रसूरिए शास्त्रवार्तासमुच्चय, ६२४, मां पण मा अवतरणो सूचवेल छे ( मुद्रित पृ. ३८५). १५. हरिभद्रसूरिए पोतानी ललितविस्तरा नामे चैत्यवन्दनवृत्ति ५-११ (मुद्रित पृ. ११) मां पण आ अवतरण उद्धरेल छ, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३, ८, १०,५, मां आने मळंती हकीकतनो आ प्रमाणे उल्लेख आवेलो छ।
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८]
२,१०१ (१६४९), ३२
२, १२६ ( १६७४ ).
२,१४१ (१६८९ ) ४१
४३
जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २
एप वः प्रथमो यो योऽग्निष्टोमः, योऽनेनानिष्ट्वाऽन्येन यजते, स गर्तमभ्यपतत् ।
- तान्यमहात्राह्मण १६, १, २.
द्वादश मासाः संवत्सरो - १
अग्निरुष्णोअग्निर्हिमस्य भेषजं -- १७
० सं०५, २, ५.५.
- वा० स० सं० २३, १०० सं० ७,४, १८, २.
सत्येन लभ्यत्तपसा प
ब्रह्मचर्येण नित्यस् | ज्योतिर्मयो हि शुद्धो
ये पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मानः ॥ ૧૯
लुण्ड० उ०३, १, ५. हेमचन्द्र बळी २, १३७ मी गायानी टीकानां पन सा अवतरण टांके छे.
( एक विज्ञानसन्ततयः सत्त्वाः ।
[ यत् सत् तत् सर्वं क्षणिकस् ] ) १९ ( [ क्षणिकाः सर्वसंस्काराः ] ) २०.
- का वाक्य अभयदेवसूरिए भग बती सूनी टीका १०, १ मां तथा मलयगिरिए नन्द्रिसूत्री टीकाम पण टांकेलं छे. वळी लुओ षड्दर्शनसमुन्वयनी गुणरत्नकृत टीका १.
स्वप्नोपमं वै सकलमित्येष ब्रह्मविधिरखसा विज्ञेयः । द्यावापृथिवी ।
पृथिवी देवता [ आपो देवता ] - शीलांकाचार्य आ अवतरण मा पछीनी गायामां आपे के.
२,२२४ (१७७२.५९
पुरुषो वै पुरुषत्वमते, पशव: पशुत्वम् । - हेमचंद्र आ अवतरण
यो दीक्षानतिरेचयति । सप्ताहं प्रचरन्ति । सप्त वैशीर्षम्याः प्राणाः । प्राणा दीक्षा । प्राणैरेव प्राणी दीक्षामवदन्वे । पूर्णाहुतिमुक्तनां जुहोति । सर्व वै पूर्णाहुतिः । सर्वनैवाप्नोति । अयो इयं वै पूर्णाहुतिः । अस्यामेव प्रतितिष्ठति ।
१६. आखुं वाक्य आ प्रमाणे छे:- ' द्वादश भावाः संवत्सरः संवत्सरेणैवात्या अन्नं पचति यदभिचित् । ' १७. पूरुं अवतरण आ प्रमाणे- ' सूर्य एकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुनः । अभिनित्य भेषजं भूमिरावपनं महत् ।। १७. उपनिषदां उपलब्ध पाठ मा प्रमाणे हे
सत्येन लभ्यस्तता ह्येष आत्मा सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण निलन् । अन्तः शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुत्रो यं पयन्ति यतयः क्षीणदोषाः ॥
१९. द्रष्टव्य—चन्द्रप्रभसूरिकृत प्रमेचरत्नकोप ८, पृ. ३० । महापण्डित रत्नकीर्तिकृत क्षगमहूगसिद्धिप्रकरण (बिलिओचिका इण्डिका ) पृ० ५४, मां का वाक्य वद सत् तर क्षणिकम् ' मा प्रमाणे छे. वळी, सुमो रत्नप्रमत रत्नाकरावतारिका परिच्छेद ५ ( यशोविजय जैनप्रन्यनाला मुद्रित, पृ० ७६ )
२०. ए आखो लोक आ प्रमाणे हे
क्षणिकाः सर्व संस्कारा अस्मितानां कुतः क्रिया । भूवियय क्रिया व कारकं सैव चोच्यते ॥
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अंक १]
प्रो. ल्युमन अने आवश्यक सूत्र.
२, २५२-बालू गाथा १८००-मां पण आपे छे. शृगालो वै एष जायते यः सपुरीपो दह्यते ।
मा अवतरण वळी आगळ २, २५२-चालू गाथा १८००--
नी टीकामा आवे छे; तथा मूळ भाष्य २, २५२ मा पण सूचित छे. २,२५२ (१८००). [(अमिष्टोमेन यमराज्यमभिजयति।)]
--मैन्युपनि० ६, ३६. २, २५६ (१८०४).६.
स एप विगुणो विभुर्न वद्धयते संसरति वा, न मुच्यते मोचयति वा । -सरखावो सांख्यकारिका ६२. न वा एप बाह्यमभ्यन्तरं वा वेद ।
-सरखावो, बृहदारण्यकोपनिपद् ४, ३, २१. २,३१८ (१८६६ )... स एप यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्गलोकं गच्छति ।
-शतपथ ब्राह्मण १२,५,२,८. वळी शीलांकाचार्य भागळ २,४०३चालू गाथा१९५१-नी टीकामां पण आ अवतरण ले छे.
अपाम सोमास् ,.अमृता अभूम, अगसन् ज्योतिः, आविदास देवान् । किं नूनमस्मान तृणवदरातिः,
किमु धूर्तिरमृत सय॑स्य । ऋग्वेद संहिता ८, ४८, ३, तथा अथर्वशिरा उपनि० ३.२१
[को जानाति मायोपमान, गीर्वाणान् इन्द्र-यम-वरुण-कुबेरादीन् ?]-कळी २, ३३४-चार गाथा १८८२-नी टीकामां पण आ
अवतरण छे. २,३३५ (१८८३). (उक्थ-पोडारी-प्रभृति-ऋतुभिः यथाश्रुति यम-सोम-सूर्य-सुर
गुरुस्वाराज्यानि जयति ।
-सरसावो, मैत्र्युपनिषद्, ६, ३६. अहीं मूळ भाष्यमा न आ अवतरण अनुवादित छे. २२
[(इन्द्र आगच्छ मेधातिथे मेपवृषण)] -तैत्तिरीय आरण्यक १, १२,३; शतपथ ब्राह्मण ३,३, ४, १८. (आखं वाक्य
आ प्रमाणे-'इन्द्रागन्छ हरिव आगच्छ मेधातिथेः । मेष वृषणस्य मेने।') २, ३३९ (१८८७). ८. [नारको वै एप जायते यः शूद्रान्नमश्नाति । २१. उपनिषदमा वर्तमान पाठ नीचे प्रमाणे -
अपाम सोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान् ।।
किमस्मान्कृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृतं मायै च ॥ --आनन्दाश्रममुद्रित, पृ० १०) २२. उपनिषदा आ बावतनो नीचे प्रमाणे उल्लेख मळे ठे--'अमिहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामो यमराज्यममिष्टोमेनामि. यजति सोमराज्यमुक्येन, सूर्यराज्यं षोडशिना, स्वाराज्यमतिरानेण, प्राजापत्यमासहस्रसंवत्सरान्तक्रतुनेति ।' आनन्दाश्रम मुद्रित, पृ० ४५७.
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30]
२, ३६० ( १९०८ ).
२३
-२, ४०३ ( १९५१ ). १२१०२
२, ४२६ (१९७४) १.१ १
११२
२, ४२७ (१९७५).
जैन साहित्य संशोधक
न ह वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति ॥ ] ( केनाञ्जितानि नयनानि मृगाङ्गनानां को वा करोति विविधागरुहान् सयूरान् । कश्चोत्पलेषु दलसन्निचयं करोति
२४
को वा दधाति विनयं कुलजेपु पुंस्सु ॥ ) २३ सरखावो, अश्वघोषकृत बुद्ध चरित, कॉवेलसंपादित पृ. ७७. पुण्यः पुण्येन [ ( कर्मणा ) पापः पापेन कर्मणा ]
[ खंड २
---बृह ० आ०उ१०४, ४, ५ . हेमचंद्रसूरि आ अवतरण २,९५ - चालू गाथा १६४३ - नी टीकामां ले छे.
सवै अयमात्मा ज्ञानमयः । - बृ० आ० उ० ४, ४, ५.
,
जरास वा एतत्सर्वं यदग्निहोत्रस् ।
तै० आ० १०,६४.महा. ना. उप० २५. वळी हेमचन्द्र गाथा २,४७५ - चालू गा० २०२३ - नी टीकामां पण आ अवतरण ले छे.
ब्रह्मणी [ वेदितव्ये ] परमपरं च [ तत्र परं सत्यम्; ज्ञानप्रनन्तरं ब्रह्म ] - सरखावो, मैत्र्युपनिषद् ६, २२ ब्रह्मबिन्दूपनिषद् १७.
( सैपा गुहा दुरवगाहा )
( यथाहु: [ सौगतविशेपाः केचित् तद् यथा ]
दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् ।
२३. हेमचन्द्रसूरि,गाथा १६४३नी टीकामां, आ पद्यगत भावने जणावनारा नीचे प्रमाणेना त्रण श्लोको आपे छेसर्वहेतुनिराशंसं भावानां जन्म वर्ण्यते । स्वभावादिभिस्ते हि नाहुः स्वमपि कारणम् ॥ राजीवकण्टकादीनां वैचित्र्यं कः करोति हि । मयूरचन्द्रिकादिर्वा विचित्रः केन निर्मितः ॥ कादाचित्कं यदत्रास्ति निःशेषं तदहेतुकम् । यथा कण्टकतैक्ष्ण्यादि तथा चैते सुखादयः ॥
- सूत्रकृतागसूत्रनी टीकामां शीलांकाचार्य ( मुद्रित पृ० २१ आ. स.) आवी ज मतलबवाळो एक अन्य श्लोक आपे छे
कण्टकस्य च तीक्ष्णत्वं, मयूरस्य विचित्रता । वर्णाश्च ताम्रचूडानां, स्वभावेन भवन्ति हि ॥
२४. आचारागसूत्रनी टीकामां शीलांकाचार्य ( आ. स. मु. पृ. १७) आ उपरना पद्यनी साथे अश्वघोषवा पद्य तथा एक त्रीजुं पण अन्य पद्य आपे छे. यथा---
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कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां च । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ॥ ( बुद्धचरित. ९-५२ ) स्वभावतः प्रवृत्तानां निवृत्तानां स्वभावतः । नाहं कर्तेति भूतानां यः पश्यति स पश्यति ॥
-- शान्त्याचार्ये उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २५ मानी टीकामां आ अने बीजां केटलॉक अवतरण ( उदाहरणार्थ भगवद्गीता १८,४२) उध्दृत करेलां छे; तेम ज आव ज जातनां बीजां पण केलांक अवतरणो (उदाहरणार्थ --- महानारायणोपनिषद् १०, ५: कैवल्य उ० २; अने वाजसनेयी संहिता ३१, १८ श्वेताश्वतरोपनिषद् ३, ८) तेमणे अध्ययन १२, गाथा ११-१५ नी टीकामां आपेलां छे.
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अंक १]
प्रो. ल्युमन अने आवश्यकत
९१
दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काश्चित् स्नेइायात् केवलप्रेति शांतिम् । जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित् क्लेशक्षयात् केवळ मेति शांति ॥ • यशस्तिलक चम्पू ६, १ मां पण आ श्लोको आपेला छे. पण त्यां चरणव्यतिक्रम थलो नजरे पड़े छे.
--
एक अवतरण वळी आवेलुं छे जे ऊपरना १' वाळा अवतरण साथै संबन्ध घरावतुं होय तेन जणाय छे, अने हेमचन्द्रना लखवा उपरथी वे कोई उपनिपनी टीकामांनुं (उदा० वृहदारउपनिषद्) होय तेम मालुम पडे छे. जिनभद्र गूळ ते आ प्रमाणे नोंचे छे.
४०. गोयम, वेय-पयाणं इमाणमत्थं च तं न याणासि । जं विन्नाणघणो च्चिय भूएहिंतो समुन्याय ॥
४१. मन्नासे मज्जुंगेसु व मयभावो भूय-समुदय-भूओ । विन्नाणमेतं आया भूएऽणु विणस्सइ स भूओ ॥
४२. अत्यि न य पेच्चसन्ना जं पुव्वभवेऽभिहाणं ' असुगों चि । जं भणियं न भवाओ भवन्तरं जाइ जीवो त्ति ॥
छेवटनी गायामांना वाक्य उपर हेमचन्द्र आ प्रमाणे टीका करे छे–' किमिह वाक्ये तात्पर्य - -वृत्त्या प्रोक्तं भवति इत्याह- सर्वयात्मनः समुत्पद्य विनष्टत्वात् न भवान्तरं कोऽपि यातत्युिक्तं भवति ।' ज्यारे शीलांक पोतानी हमेशानी विरल- व्याख्यापद्धति प्रमाणे एटलं ज लखे छे के —— एवं न भवाद् भवा-न्तरमस्वीरयुक्तं भवति '
विशेषावश्यक २, २२६ मां वनस्पति अने प्राणी विद्या संबंधी अन्धविश्वास सूचवनाएं एक अवतरण आवे छे, ते पण हुं आनी पूरवणी रूपे अहीं नोंची लेवा इच्छं छु. ए अवतरणोनो' विपय, सदृशांची सदृशनी ज उत्पत्ति थई शके, एवो कोई नियम नथी; एछे एना उपर टीकाकारे खूब विवेचना करी छे. ए अवतरण वाळी गाथाओ आ प्रमाणे छे:
२२६. जाइ लरो संग/ओ भूतणओ सासवाणु लित्तामो । संजाय गोलोमाविलोम -संजोगओ दुव्वा ॥
२२७. इति रुक्साउव्वेदे, जोणिविहाणे य विसरिसेर्हितो ।
दीसइ जम्हा जम्मं, सुधम्म, तं नायमेगन्तो ॥
सरख वो, पंचतन्त्र श्लोक १, १०७. ए ठेकाणे कविसंप्रदायनी पद्धति वाद करतां ऊपरना अन्धविश्वासवाळा अवतरणसांनी त्रीजी हकीकतनो उल्लेख करेलो छे – जनके 'दुर्वा पि गोलोमतः ' । आ अवतरणमांनी पहेली हकीकत के ' शृंगपांथी शर उत्पन्न याय छे ' तेनो उल्लेख वार्ताना रूपम एक प्रत्येकबुद्धी कथामां आवे छे. त्यां जणाव्या प्रमाणे एक शवनी खोपरी, आंख अने मोढामांथी वांसना त्रण फणगा नीकळ्या हवा. आ गाथासां जे योनिविधान शब्द आवेलो छे तेनो अर्थ टीका- ' -कारे लख्या प्रमाणे ' योनिप्राभृत' हे अने ए नाप एक ग्रन्यनुं छे जे पूनाना केटलॉगमां नं० १६६ -२६६; तथा २१, १२४२ मां नोंघेलो .
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· जैन साहित्य संशोधक.
स्वाध्याय-समालोचन आमरे के श्रीआत्मानन्द पुस्तक प्रचारक मंडलने एक महत्त्वके प्रन्थका प्रकाशन किया है। इसका नाम है पातञ्जल योगदर्शन | यों तो पातञ्जल योगदर्शन के अनेक संस्करण, अनेक स्थानोंसे, अनेक रीतिसे और अनेक भापाओंमें प्रकट हो चुके हैं लेकिन हम जो इस संस्करणको महत्त्वका कहते हैं उसका खास कारण यह है कि इस संस्करणमें जो व्याख्या प्रकट हुई है वह संस्कृतसाहित्यके ज्ञाताओके लिये एक विशेष वस्तु है । पातञ्जल योगदर्शन एक वैदिक संप्रदाय है । ब्राह्मण संप्रदायके जो छ दर्शन गिने जाते हैं उनमें इसका विशिष्ट स्थान है। सांख्य और योग ये दोनों दर्शन युगलरूपसे व्यवहृत होते हैं और सब दर्शनोंमें प्राचीन हैं । असलमें सांख्य दर्शनका ही एक विशेपरूप योग दर्शन है । सांख्य दर्शनमें ईश्वरस्वरूप किसी व्यक्ति या तत्त्वका अस्तित्व नहीं माना जाता और योगदर्शनमें उसको आश्रय दिया गया है-इतना ही इनमें मुख्य भेद है । जैन और बौद्ध: दर्शनमें ऐसे अनेक तत्त्व और सिद्धान्त हैं जो सांख्य और योग दर्शनके तत्त्व और सिद्धान्तोंके. साथ समता रखते हैं। इस लिये बहुत प्राचीन कालसे जैन और बौद्ध विद्वानोंको सांख्य और योग दर्शनके अध्ययन और मननका परिचय रहा है । इसी परिचयका उदाहरण स्वरूप यह प्रस्तुत ग्रन्थ है । इस ग्रन्थसें पातञ्जल योगदर्शनके सूत्रों पर जैन धर्मके एक अति प्रसिद्ध और महाविद्वान् पुरुषने व्याख्या लिखी है वह प्रकट की गई है। व्याख्याकार है न्यायाचार्य महोपाध्याय श्रीयशोविजय गणी । इस व्याख्या में महोपाध्याय ने पातञ्जल योगसूत्रोंका जैन प्रक्रियाके अनुसार अर्थ किया है | व्यासकृत सूळ भाप्यके विचारोंके साथ जहां जहां अपना मतभेद मालूम दिया वहां । उपाध्यायजीने बडी गंभीर भाषामें अपने विचारका समर्थन और भाध्यकारके विचारोंका निरसन किया है और यही इस व्याख्याकी खास विशिष्टता है।
___ इस ग्रन्थका संपादन विद्वद्वर्य पं सुखलालंजीने किया है । जहां तक हम जानते हैं, जैन साहित्यमें अभी तक कोई तात्त्विक ग्रंथ ऐसी उत्तम रीतिसे संपादित हो कर प्रकट नहीं हुआ। ग्रन्थके महत्त्व और रहस्यको समझानेके लिये पंडितजीने परिचय, प्रस्तावना और सार इस प्रकारके तीन निबन्ध हिन्दी भाषामें लिखकर इसके साथ लगाये हैं जिनके पढनेसे. एक अन्यके पूर्ण अभ्यासके लिये जितने अंतरंग और बाह्य प्रश्नोत्तरोंकी आवश्यकता होती है, उन सबका ज्ञान पूरी: तरहसे हो जाता है । परिचय नामक निबन्धमें, पंडितजीने योगसूत्र, योगवृत्ति, योगविंशिका आदिका परिचय कराया है और प्रस्तावनामें जैन और योगदशनकी तुलना. तथा तद्विषयक साहित्यका विवेचन किया है । यह प्रस्तावना केसी महत्त्वकी और कितने पांडित्यसे भरी हुई है इसका खयाल तो पाठकोंको इसके पढने ही से आ सकता है और इसी लिये हमने इस सारी प्रस्तावनाको इसी अंककी आदिमें उध्दृत की है।
_इस पुस्तकमें योगदर्शनके सिवा एक योगविंशिका नामका ग्रन्थ भी सम्मिलित है जो मूल. हरिभद्रसूरिका बनाया हुआ है और उस पर टीका सइन्हीं यशोविजयजीने की है । जैन दर्शनमें 'योग' को क्या स्थान है और उसकी क्या प्रक्रिया है यह जानने के लिये यह योगविंशिकाः बहुत ही उपयोगी है। . - पुस्तके अंतमें योगसूत्रवृत्ति और योग विशिकावृत्ति का हिन्दी सार दिया है जिससे संस्कृतः . . न जानने वाले भी इन ग्रन्थगत पदार्थोंको सरलतासे समझ सकते हैं । इस पुस्तकका ऐसा उपयुक्त संस्करण निकालनेके लिये संपादक महाशय पं. सुखलालजी तथा मंडलके उत्साही संचालक श्रीयुतः बाबू दयालचंदजी-दोनों सजन विद्वानोंक विशेष धन्यवादके पात्र हैं।
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जैन साहित्य संशोधक ग्रंथमाला
अध्यापक कॉवेल लिखित
प्राकृत व्याकरण-संक्षिप्त परिचय
संपादक मुनि जिनविजयजी
एम्. आर्. ए. एम्. ( आचार्य-गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर-अमदाबाद )
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( जैन साहित्य संशोधक-खण्ड २, अंक १-परिशिष्ट )
प्रकाशक
जैन साहित्य संशोधक कार्यालय भारत जैन विद्यालय-पूना शहर.
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नि वे द न આ પ્રાકૃત વ્યાકરણ સંક્ષિણ-પરિચય, કેમ્બ્રીજ યુનિવર્સિટીના એક વખતના સંસ્કૃતના અધ્યાપક અને એડીનબર્ગ યુનિવર્સિટીના નિરરી એલએલ. ડી. શ્રી ઈ. બી. કૌલે લખેલા A SHORT INTRODUCTION TO THE ORDINARY PRAKARIT OF THE SANSKRIT DRAMAS નામના નિબંધને અવિકલ ગુજરાતી અનુવાદ છે. જેમને સંસ્કૃત ભાષાને સાધારણ અભ્યાસ હોય અને જેઓ પ્રાકૃત ભાષાને ટુંક પરિચય કરવા માંગતા હોય તેમને આ નિબંધ ઘણે મદત કર્તા થઈ પડે એવું જણાયાથી, આ રૂપમાં પ્રકટ કરવામાં આવે છે. આ નિબંધ મૂળ સન ૧૮૫૪માં મજકુર પ્રોફેસરે વરસરિત બાત કફ ની જ્યારે પ્રથમ આવૃત્તિ વ્હાર પાડી હતી તેની પ્રસ્તાવના રૂપે લખ્યું હતું. અને પછી ૧૮૭૫ માં કેટલાક સુધારા-વધારા સાથે, લંડનની TRUBNER and Co. એ એક પુસ્તિકાના રૂપમાં એને જુદી છપાવ્યું હતું. એ પુસ્તિકા આજે દુલભ્ય હાઈ બુકસેલરે તેની ૩-૪ રૂપિઆ જેટલી કિંમત લે છે. તેથી ગુજરાતી ભાષાભિજ્ઞ વિદ્યાથીઓને આ નિબંધ સુલભ થઈ પડે તેવા [હેતુથી આ પત્રના પરિશિષ્ટ રૂપે પ્રકટ કરવામાં આવે છે. આશા છે કે સાધકના વાંચનારાઓને તેમજ અન્ય તેવા અભ્યાસિઓને આ પ્રયાસ ઉપગી થઈ પડશે. ચેક પૂર્ણિમા, ૧૯૭૯
–સંપાદક
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अध्यापक कॉवेल लिखित प्राकृत व्याकरण-संक्षिप्त परिचय
ઈ.સ. પૂર્વેના સૈકાઓમાં, ભારતવર્ષમાં સંસ્કૃત ભાષામાંથી અપભ્રષ્ટ થઈને કેટલીક ભાષાઓ (બેલીઓ) ઉત્પન્ન થઈ જેને સાધારણ રીતે પ્રાકૃત કહેવામાં આવે છે. આ ભાષાઓની શોધ ખેળને વિષય ભાષાશાસ્ત્રીને તેમજ ઈતિહાસ લખકને ઘણો રસ આપી શકે તેમ છે. હાલની પ્રચલિત ભાષાઓ અને મહા સંસ્કૃત વચ્ચે સંબંધ છેડી શૃંખલાનું કામ બનાવનાર આ પ્રાકૃત ભાષાઓનું (અને ખાસકરીને પ્રાકૃત' નામક ભાષાનું જ્ઞાન હાલમાં વપરાતાં કેટલાંક રૂપે સમજવાને ઉપચગી છે એટલું જ નહિ, પરંતુ તેઓ ભાષાસંઘની એક ઈયુરેપીઅન શાખાના ઈતિહાસમાં પ્રકાશ પાડે છે, તથા લૅટીનમાંથી ઉત્પન્ન થએલી આધુનિક ઈટાલીઅન અને ફ્રેંચ ભાષાઓ સરખાવતાં જે સ્વરમાધુર્યનું આપણને ભાન થાય છે તે માધુર્યના નિયમોના અનુપમ દ્રષ્ટાંતે પૂરાં પાડે છે. તદુપરાંત બીજા ઘણા રસાત્પાદક ઐતિહાસિક પ્રશ્નને સાથે પ્રાકૃત ભાષાને નિકટને સંબંધ છે. સાલનના દ્ધાનાં તથા ભારતવર્ષના જૈનેના ધમપુસ્તકેની ભાષાએ પ્રાકૃતનાં ભિન્ન ભિન્ન રૂપે છે; અને ખરેખર બ્રાહ્મણની સંસ્કૃતને વિરોધ દર્શાવીને જનસમાજના હૃદય ઉપર સચોટ અસર કરવા માટે બૈદ્ધ ગ્રંથમાં પાલિ ભાષાને ઉપગ કરવામાં આવ્યું છે. જ્યારે એલેકઝાન્ડરના આધિપત્ય તળે ગ્રીક લેકે ભારતવર્ષના સંબંધમાં આવ્યા ત્યારે પ્રાકૃત ભાષા જનસમાજમાં પ્રચલિત હશે. જેમાં ઈ. સ. પૂર્વે લગભગ ૨૫૦ વર્ષના એન્ટીકસ અને બીજા ગ્રીક રાજાઓનાં નામે આવે છે એવા અશોક રાજાના શિલાલેખાની ભાષા પણ એક જાતની પ્રાકૃતજ છે, તે જ પ્રમાણે બેકયાના ગ્રીક રાજાના દ્વિભાષિક સિક્કાઓ ઉપર પણ પ્રાકૃત ભાષા લખેલી જોવામાં આવે છે. જુના હિંદુ નાટકામાં પણ આ ભાષાઓને હિસ્સ ઓછો નથી, કારણ કે તેમાં મુખ્ય નાયકે સંસ્કૃતને ઉપયોગ કરે છે, પણ સ્ત્રીઓ અને સેવકે જુદી જુદી જાતની પ્રાકૃત ભાષા વાપરે છે, જેમાંના પરસ્પર ફેરફારે બોલનારની કક્ષા પ્રમાણે, સ્વરમાધુર્યના નિયમનું અનુસરણ કરે છે.
હૈયાકરણે “પ્રાકૃત' શબ્દને પ્રૉમ બાત એમ જણાવી પ્રતિ એટલે સંસ્કૃત સાથે સંબંધ જોડે છે. આ વિષયમાં હેમચનીચે પ્રમાણે જણાવ્યું છે. પ્રાતિ પર તત્ર સર્વ તત્ત સાત વા પ્રતા પણ મૂળ તેના અર્થ “સાધારણ અગર અસંસ્કારી” એ હશે, કારણ કે મહાભારતમાં એક સ્થળે બ્રાહણેને ધિક્કાર કર નહિ એમ જણાવી લખ્યું છે કે –
दुर्वेदा वा सुवेदा वा प्राकृताः संस्कृतास्तथा ॥ લભગભ આધુનિક વૈયાકરણે “પ્રાકૃત' નામ તળે ઘણી ભાષાઓને સમાવેશ કરે છે, પરંતુ તેમાંની ઘણી ખરી પાછળથી થયેલાં ક્ષુલ્લક રૂપાંતર માત્ર છે. જેમ જુને વૈમ્યાકરણ તેમ તેના ગ્રંથમાં થેડી પ્રાકૃત ભાષાઓ. તે જ પ્રમાણે ઘણા પુરાણુ વૈખ્યાકરણ વરરૂચિએ ફકત ચાર જ પ્રાકૃત ભાષાઓનું વિવેચન કર્યું છે, જેવી કે મહારાષ્ટ્ર, પૈશાચી, માગધી, અને શેરસેની. આમાંથી પહેલા એટલે મહારાષ્ટ્ર ભાષાને તેણે વિશેષ મહત્ત્વની ગણે છે તથા કૈસન સાહેબે પણ પિતાના
૧. પિશાચી ભાષા ખાસ ઉપયોગી છે કારણકે જયા તે ભાષામાં લખાયેલી છે,
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અધ્યાપક કાવેલ લિખિત
↑ બ’૩ ૨
* ઈન્સ્ટીટયુશન્સ ’ નામના લેખમાં તેને જ મુખ્ય ગણી છે. વરરૂચિના પ્રાકૃત પ્રકાશમાં પ્રથમ નવ પ્રકરણામાં તેનુ‘ વ્યાકરણ આપવામાં આવ્યુ છે, અને બાકીનાં ત્રણ પ્રકરણેામાં માકીની ત્રણ ભાષાએની વિશિષ્ટતા જણાવી છે.
મૃચ્છકટિક નાટકમાં પ્રાકૃત ભાષાઓનું એક વિચિત્ર ભડાળ ભેગું કરવામાં આવેલુ' છે જેથી કરીને તે નાટક ઉપયોગી પ્રાકૃત રૂપાની ખાણ ખન્યુ છે. વળી, વિદ્યુમાવશીના ચોથા અકમાં પુરુરવ રાજાના આત્મપ્રલાપની ભાષા તદ્દન ભિન્ન જ છે, અને એક તતની કાવ્યમાં વપરાતી અપભ્રંશ ભાષા છે, જેને આધુનિક વૈયાકરણા મૂળ પ્રાકૃતથી, ઘણીજ જુદી ગણે છે. આ અપવાદો સિવાય સસ્કૃત નાટકામાં—ગદ્યમાં' સારસેની, અને પદ્યમાં મહારષ્ટ્રી, સાધારણું પ્રાકૃત જ ૧૫રાય છે. આ અન્ને માટેના નિયમા સરખાજ છે, પરંતુ ગદ્યમાં વપરાતી ભાષા કેવળ વ્યંજના ઉડાડી દેવામાં થોડી છૂટ લે છે, તથા ધાતુ અને પ્રાતિપત્તિકનાં કેટલાંક રૂપે તેનાં પાતાનાં ખાસ હાય છે, જે નીચે જણાવવામાં આવશે. તે પણ નાટકાની ભાષા, ખાસ કરીને ગદ્યમાં, વરૂચિના નિયમાથી ઘણી વાર વિરૂદ્ધ જાય છે.
આ લઘુ વ્યાકરણ નાટકમાં વપરાતી સાધારણ પ્રાકૃત માટે ખાસ કરીને બનાવવામાં આવ્યુ છે. ખરેખર, અત્યાર સુધી પદ્યાત્મક પ્રાકૃતનાં ઘણાં ઉદાહરણેા જાણવામાં ન હતાં; ફ્ક્ત નાટકામાં તથા અલ કારના ગ્રામાં આવેલાં પ્રાકૃત પદ્યાનાં થોડાંક નમુનાઓ જણાયા હતા પણ પ્રે, વેખરે હાલકવિના સમશતકના કેટલાક ભાગ છપાવ્યા છે જેને લીધે મહારાષ્ટ્રી ભાષાનું મેટુ ક્ષેત્ર ખુલ્લું થયુ... છે. તે કાવ્યમાં પ્રાકૃતના અભ્યાસને માટે ઘણી ઉપયેગી એવી આયા એ છે પરંતુ મારા પ્રસ્તુત કાય॰ માટે તે બહું ઉપચાગી નહિં હવાથી મે' આ લેખમાં તેમને ઉપચાગ મહુજ થાડા કયા છે. તા પણ પરિશિષ્ટમાં હાલકવિની દશેક આર્યાએ એ' આપી છે.
વિભાગ ૧
લભભગ સ થા સહષ્કૃત શબ્દોમાં કેટલાક ફેરફારા કરીને અને કેટલાક અક્ષરા ઉડાડીને પ્રાકૃત રૂપા સિદ્ધ થયાં છે. સંસ્કૃતના અણીશુદ્ધ ઉચ્ચારાને બદલે પ્રાકૃતમાં અસ્પષ્ટ અને અધ ઉચ્ચાર કરવામાં આવે છે, તથા સસ્કૃત ભાષાના સ્વભાવની વિરૂદ્ધ જઈને વારવાર સ્વરસમૂહના બાધ કરવામાં આવે છે. નીચેના પ્રકરણમાં, પ્રથમ તે શબ્દોના અક્ષરામાં થતા ફેરફાર વિષે અને, પછીથી, પ્રાતિપકિ અને ધાતુએનાં રૂપામાં થતા ફેરફાર વિષે વિવેચન કરીશુ.
સ્વર પ્રકરણ.
પ્રાકૃતમાં , જે, છે, આ સિવાયના બધા સ્વરો સસ્કૃત પ્રમાણે છે.
કોઈ શબ્દમાં પ્રથમ અક્ષર = હાચ તે તેના રિ થાય છે, જેમ કે ગાળ ને બદલે ળ; કેટલીક વાર ≈ ની પહેલાં વ્યંજન હોય તે તે વ્યજનને લેાપ કરવામાં આવે છે, જેમ કે સદરાસણ. જે ૪ ની પહેલાં ન્યુ’જન આવ્યા હાય તા ૬ ના અ અથવા ૬ થાય છે, અને જો તે વ્યંજન એઇસ્થાનીય હાય તા ા ના લુ થાય છે, જેમ કે તુવ~તળ, હ્રતા, સૃઘ્રિ—વિકિ મુશ—મિલ, પૃથવી—પટ્ટી, પ્રવૃત્તિપત્તિ પરં તુ આવા ફેરફાર શબ્દના પ્રથમાક્ષર માં ભાગ્યે જ થાય છે, તે પણ લિ ( વિ), રન્નુમ્બ ( જી ), હજુ ( તુ),
૧. શાન્તન ના ચેથા અંકમાં ધીવર માગધી ભાષાના ઉપયાગ કરે છે, તેમજ મુદ્રાક્ષલ માં કેટલાંક યાત્રા નિકૃષ્ટ ભાષા વાપરે છે,
૨. ડૉ. પીÀલે શારસેનીવિષે કુન્હેના ખીàજ પુ॰ ૮ માં વિવેચન કર્યું છે, પર`તુ તેમના કેટલાક નિર્ણય અનિશ્ચિત છે.
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અ'ક ૧ |
પ્રાકૃત વ્યાકરણુ–સ`ક્ષિપ્ત પરિચય,
[ ૩
પ્રાકૃત શબ્દમાં ક્યું આવી શકતા નથી; તેથી TM અન્તવાળા સસ્કૃત શબ્દોનું ષષ્ઠી અહુવચનનુ' રૂપ અકારાન્ત અથવા પુકારાન્ત શબ્દો પ્રમાણે થાય છે. પક્ષ તુ જિન્ન થાય છે.
ઘે નું જ્ અગર અ ૬ ( કવચિત્ ર્ અથવા ) થાય છે, જેમ કે લેજ ( રોલ ), દૃશ્ય ( રે ). ઔ નુ' ઓ અગર આ ૩ ( કવચિત્ ૩ ) થાય છે, જેમ કે ક્ષેમુદું (જામુદ્દી), ૧૩૮ (પૌર ), કુંવર ( સાથૅ ).
ખાકી રહેલા સ્વામાંથી ૬ અને એ સધ્યક્ષર હાતા નથી, અને યથાનિયમાનુસાર “હસ્ત્ર ચા દીર્ઘ હાઈ શકે.
પ્રાકૃતના એક મુખ્ય નિયમ નીચે પ્રમાણે છેઃ—
મૂળ શબ્દમાં જોડાક્ષરની પહેલાં દીઘ॰ સ્વર આવ્સે હાય તા પ્રાકૃતમાં તે સ્વર હસ્વ થાય છે, જેમ કે આ,, નુ* અનુક્રમે અ, ૬, ૩ થાય છે; ( F અને એ એમ જ રહી શકે છે ), જેમ કે માથે—મા, કોથ—વિઘ્ન, પૂર્વ—પુચ્છ તેમાં બે પેટા નિયમા નીચે પ્રમાણે છે: (અ) જો પ્રાકૃતમાં પણ દીઘ સ્વર રાખવામાં આવે તા જોડાક્ષરમાંથી એક વ્યંજનના લાપ થાય છે, જેમ કે ઈશ્વર-~~ ક્રૂત્તર અથવા ફ્સ્સ, વિશ્વાસ—વીલાસો અથવા વિસ્તારો; (વ) જોડાક્ષરની પહેલાં આવેલા હૅવ સ્વર દીઘ થાય છે અને એક વ્યંજનના લેપ થાય છે, જેમ કે લા—સૌદા, કાઈકવાર જોડાક્ષરની પહેલાંના છુ ને ૐ ને બદલે હૈં અને અે થાય છે, જેમ કે પિન્કુ—પે૩, ૩૩—તોળ્યું. ઘણી વાર T ની પહેલાંના અ ને બદલે ઘ થાય છે, જેમ કે પર્વત—પત્ત, સૌંથૅ વે, આશ્ચયમો. કેટલાક શબ્દોમાં પહેલા અક્ષરમાં ૩ નું અ થાય છે, જેમ કે મુલુરુ મત્તુ, પુરુષ અને માલ નુ’ અનિયમિત રૂપ પુલિ અને મેત્ત થાય છે.
આ નિયમિત ફેરફારા ઉપરાંત વ્યાકરણેામાં અને પ્રાકૃત લેખામાં, તથા ખાસ કરીને સસશતકમાં કેટલાક સ્વરીના ફેરફારા અનિયમિત રીતે થાય છે જેમ કે સમૃદ્ધિ સમિદ્ધિ અથવા સામાજ, ઉત્પાત—લગ અથવા સલામ, ટટ્ટુ—પ૬૪, વિગેરે. સામાસિક શબ્દો કે જેમાં વાર'વાર સ્વરા હૅસ્વ દીઘ થયા કરે છે તથા કેટલીક વાર આખા અક્ષરા લુપ્ત કરવામાં આવે છે તેમાં આવી અનિયમિતતા વાર'વાર જોવામાં આવે છે, જેમ કે યમુનાતટ—નળબર અને નવાઅડ; સુળમાર—સુમાર અને સોમાર; રાની—અરજી અને રાજ, વિષે ( સરખાવા-વર્ ૪૦ ૪, ૨; વેખર, સપ્તશ॰ પા૦ ૩૨, ૩૩. )
૨. કેવળ વ્યંજન પ્રકરણ,
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(અ). સામાન્ય પ્રાકૃતમાં ર્ અને વ્ નથી, અને તેમને બદલે સ્ વપરાય છે. પછી દ’ત્યાક્ષર ન આવ્ચેા હૈાય તા સાધારણ રીતે તેના શ્ થાય છે. શબ્દના આરભમાં આવેલા યુ ના ત્ થાય છે. સામાન્ય રીતે આટલા નિયમ અપવાદ રૂપે આવે છે [તા પણુ, નાટકામાં કેટલીકવાર ઙળ ( પુન: ), અ (ચ) થાય છે, પરંતુ આવા ફેરફારો વરચિએ સ્વીકાર્યા નથી. વળી, વ૪૦ ૨, ૩૨-૪૧ માં આવેલા શબ્દો, જે આ પુસ્તકને અંતે આપવામાં આવ્યા છે તે જીએ ]. સુ, આ એવાં શબ્દો જ્યારે કેટલાક શબ્દોના આરંભમાં લગાડવામાં આવે છે ત્યારે તેવા શબ્દોનો પહેલા વ્ય ́જન લુપ્ત થાય છે, જેમ કે આર્યપુત—અજ્ઞપત્ત, કુમાર સલમા.
(વ) છેવટના મૈં અને ર્ જે અનુસ્વારના રૂપમાં પરિણત થાય છે, તે સિવાયના ખાડા વ્ય’જનાના લાપ થાય છે. ઘણી વાર છેવટના અનુસ્વારના લાપ થાય છે. કેટલાંક નામાના અત્ય ન્ય*જનાને આ અગર આ લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે પ્રાતૃપ્—પાસ, ક્ષત્િ—સરિયા
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અધ્યાપકોલ લિખિત
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() વચમાં આવેલા ખેડા અક્ષરે –
, , , ૬, ૨, દૂ, , , ને વિકલ્પ લેપ થાય છે પરંતુ અને ને જ્યારે લેપ ન થાય ત્યારે તેમને બદલે ઘણી વાર દુ અને " અગર છૂ થાય છે. આવી રીતે તે લેપ ગદ્ય કરતાં પદ્યમાં વિશેષ જોવામાં આવે છે. પ્રતિ ઉપસગને બદલે પ્રાકૃતમાં કે લખવામાં આવે છે.
ને ઘણી વાર લેપ થાય છે, જેમ કે વાયુ-વાડ, નથ–ા, ને શુ થાય છે; અને ૨ ને રૂ થાય છે, અને કેટલીક વાર નિ થાય છે.
જૂ, ૬, ૪, ૬, એમ જ રહે છે, અગર તે તેમને £ થાય છે (જ્યારે શું ને શું ન થાય ત્યારે, અને ખાસ કરીને ગદ્યમાં, છ થાય છે.) ૪, જૂ, અને સ્ માં ફેરફાર થતો નથી. રૂને હંમેશા જૂ થાય છે, પણ સાધારણ રીતે અવિકૃત રહે છે, અને કદાચ તેને જૂ પણ થાય. (૨૦ ૨, ૨૬, સરખા લેસન સાહેબનું વ્યાકરણ, પાન ૨૦૮.)
ને બદલે ઘણી વાર થાય છે અને આ પ્રમાણે માગધી અને બીજી કેટલીક હળકી ભાષાએમાં નિયમિતપણે થાય છે. , , , , શુ અવિકૃત રહે છે. ૫ અને ૬ ને બદલે શું થાય છે, પરંતુ રસ અને તેના ઉપરથી થતા શબ્દોમાં તથા લિવર માં, ૨ ને શું થાય છે, જેમ કે ઇફરાબાર, વિવશ તેમજ, શ–પં.
શબ્દની મધ્યમાંના ખેડા વ્યંજનેને કેટલીકવાર બેવડાવવામાં આવે છે, જેમ કે – અથવા ઇમ, મ – અથવા સિવ (વર૦ ૩, પર, ૫૮).
૩. જોડાક્ષર પ્રકરણ પ્રાકૃત ભાષાના ખાસ ફેરફાર જોડાક્ષરોમાં થાય છે. જ્યારે વધારે સંસ્કૃત જોડાક્ષરે મળી જઈને એકાદ પ્રાકૃત રૂપ સિદ્ધ થાય છે ત્યારે તે રૂપ એકાએક ઓળખી શકાતું નથી. પ્રાકૃતમાં જુદા જુદા વગરના બે વ્યંજનનું જોડાણ રહી શકતું નથી, તેથી તે વ્યંજનેમાંથી એકને લેપ કરી, અને બીજાને બેવડાવી એક વગના કરવા પડે છે. સામાન્ય નિયમ તરીકે, જોડાક્ષરોમાંના પહેલા વ્યંજનને લેપ થાય છે, પરંતુ ૪, ૫, ૬ પહેલા ન હોય તે પણ તેમને લેપ થાય છે, અને ૨, , અને ને સર્વત્ર લેપ થાય છે. આ ઉપરાંત કેટલાક અપવાદો પણ છે. એક નિયમ ખાસ યાદ રાખવા જોઈએ કે-જ્યારે કઈ જોડાક્ષરમાં ઊમાક્ષર આવ્યું હોય, ત્યારે તેને લેપ કરી તેને બદલે તેની સાથે જોડાયેલા વ્યંજન પછી મહાપ્રાણ વ્યંજન મુકવામાં આવે છે. જેમ કે રવી, વન અથવા ક્ષ ને બદલે બ્રણ થાય, અગર તે, ઊકમાક્ષરની સાથે જોડાયેલા વ્યંજનની પછી મહાપ્રાણ વ્યંજન ન હોય તે ઊષ્માક્ષરને બદલે ૬ મકવામાં આવે છે, જેમ કે અથવા ને બદલે શું. પરંતુ જ્યારે આવી પરિસ્થિતિ સામાસિક શબ્દના પદોમાં આવી હોય ત્યારે ઉપયુકત નિયમ જળવાતું નથી, જેમ કે તિરાતિર..(તિવા એમ ન થાય.) હું અને શું કદી પણ બેવડાતા નથી. જોડાક્ષરમાં શું આવ્યું હોય તે છેવટે લખાય છે, જેમ કે ગ્રાહ્મણ-વા. જોડાક્ષરમાં શું આવ્યું હોય તેનું અનુસ્વાર થાય છે, આ નિયમ ર્ અને ઊષ્માક્ષારમાં પણ કેઈક વખતે લાગુ પડે છે, જેમ કે રન-, વા-વૈવા, અશ્વ—સંવ, – અંકુ (જુઓ વર૦૪, ૧૫). કેટલીક વાર જેડાક્ષરની વચમાં એક ના સ્વર મૂકવામાં આવે છે;
૧. પ્રાકૃત અક્ષર હશે કે નહિ તે શંકાસ્પદ છે, કારણ કે પ્રતિમાં હંમેશાં ર લખેલે હોય છે. ૨. હૂ અને વારંવાર એક બીજાને બદલે વપરાય છે, જેમકે વેળ. પા. ૧૯, ૧-૨, માં -
સામે ( પરિફરિચામઃ ), તથા શાલ, પા. ૨૬, ૧-૧૨, ( બેથલીંગ ), મ હત્રિમ , [મંત્રમત(૪)] ',
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પ્રાકૃત વ્યાકરણશક્ષિપ્ત પરિચય. महर्प-हरिस (तुम वर० ३, ५६-६६), eी पार ये भी मावा य नाथाय छ, रेम चौर्य-चोरि.
પ્રાકૃત જોડાક્ષરેની તાલિકા, નીચેની તાલિકામાં સંસ્કૃત જોડાક્ષરોનાં પ્રાકૃત રૂપે આપ્યાં છે, જેમાંના ફેરફાર શબ્દના મધ્યમાં થાય છે એમ સમજવું; પણ તે પ્રાકૃત જોડાક્ષરમાંના પહેલા અક્ષરને લેપ કરવાથી તે રૂપ शहना मारममा पYपयोगभा माव; भ यक्ष-जक्ख; पण क्षत-खदा ते प्रभारी શબ્દની વચમાં હોય તે ઇ ને જ થાય છે, અને આરંભમાં હોય તે ક ને પ થાય છે.
कक, क्त (?), क्य, फ, के, ल्क, क्ल, कम उत्कण्ठा, मुक्त, चाणक्य, शक, अर्क, विक्लव, उल्का, पक्क, न म मनुष्भे उकण्ठा, मुक्क, चाणक, सक, अक्क, उक्का, विक्कव, पिक થાય છે.
पख-ख, ख्य,क्ष, क्ष, (क्ष्य), क, स्क, (ख), स्ख, खि, रेभ उत्खण्डित, आख्या, यक्ष, उत्क्षिप्त, मुष्क, स्कन्ध, स्खलित, दुःख ने मह उक्खण्डित, अक्खा, जवख, उक्खित्त, मुपख, खन्द, खलिस, दुक्ख थाय छे.
___ ग्ग- द, न, ग्म, ग्य, ग्र, गे, लग रेभ खड़, मुद्ग, नग्न, युग्म, योग्य, समग्र, वर्ग, वलित न मह खग्ग, मुग्ग, णग्ग, जुग्ग, जोग्ग, समग्ग, वग्ग, वग्गिद थाय छे...
ग्घ (इ), छ, घ्न, घ्र, घरेभ उद्घाटित, विघ्न, शीघ्र, निघृण ने महले उग्याडिद, विग्ध, सिग्ध, णिग्विण थाय छे.
म सोभ-सोह (मथा सक्खोह ?). घच्य, त्य, चं; अच्युत, नित्य, चर्चरिका ने मासे अच्चुद, णिच, चच्चरिआ थाय छे..
च्छ%थ्य, छ, छ, क्ष, क्ष, क्ष्म, त्स, त्स्य, प्स, श्च म : मिथ्या, सूच्छी. कृच्छ्राणक, अक्षि, उत्क्षिप्त, लक्ष्मी, वत्स, मत्स्य, लिप्सा, आश्चर्य ने महल मिच्छा, मुच्छा, कुच्छाणय, अच्छि, उच्छित्त, लच्छी, वच्छ, मच्छ, लिच्छा, अच्छेर थाय छे.
ज्ज-ज, ज्ञ ()ज, ज, ज्व, द्या ये, य्य. (भाग्य); रेम कुब्ज, सर्वज्ञ. वज्र, गर्जित, प्रज्वलित, विद्या, कार्य, शय्या ने मल खुज्ज, सव्वज्ज, वज्ज, गज्जिद, पज्जलिद, विज्जा, काज, सेज्जा थाय छे.
ज्झ=ध्य, ह्य; म मध्य, वाहक, ने महले मज्झ, वज्झम थाय छे. हत रेभ नर्तकी नु णट्टई थाय छे. 8-प्ट,
प्ठाभ दृष्टि, गोष्टी दिहि, गोडी थाय छे. इत, द (लाग्य )भगत, गर्दभ नुगड़, गडह थाय छे. १. क-क ध नारअमानवामां आवछे, गुमे। मृच्छ०, पा.२८ १-२० ०५२ स्टेजरनी नोट.
२. मासशन सभासभा क-क, स्क क्राय छे, म निकम्प-निष्कम्प माडी अन्य स्थणे क्स थाय छे.ते प्रभारी चश्च मने प्प-स्स, मगर ध्य.
विशित वनमालेच नेवाभा माव छ, ५ मास ४शन निचम (निश्चय) २१ शहाभार જેમાં નિર ઉપસર્ગ ૪ થી શરૂથતા શબ્દ સાથે જોડાએલે છે.
४. अधि (अस्थि-डा), तथा ठिम (स्थित ) भांट मे स्थ ने भाटेवराय छे.
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AAAAAAMAN
.
६] અધ્યાપક કાવલ લિખિત
[ ખંડ ૨ व्य रम आन्य अङ्क थाय छे.
= (१), श, म्न, न, ण्य, न्य, णे, ण्व, स्व, २३ रुग्ण, यक्ष, प्रद्युम्न, प्रसन्न, पुण्य, अन्योन्य, वर्ण, कण्व. अन्वेषणा, न रुण्ण जपण, पज्जुण्ण, पसण्ण, पुण्ण, अण्णोण्ण, वपण, कण्ण, अण्णेसणाथाय छे.
पह-क्ष्ण श्न. प्ण, स्न, हण, हम तीक्ष्ण, प्रश्न, विष्णु, प्रस्तुत, पूर्वाहण, यहि ने पहले तिण्ह, पण्ह, विण्ड, पण्हुद, पुवण्ह, वण्हि थाय छे.
तक्त, प्त, न, म, त्र, त्व, ते; म भक्त, सुप्त, पत्नी, आत्मा, शठ, सत्त्व, मुहूर्त पहले भत्त, सुत्त, पत्ती, अत्ता, सन्ट, सत्त, मुहुत्त थाय छ.
स्थक्थ, त्र,' थे, स्त, स्थ; रेम सिक्थक, तत्र, पाथे, हस्त, अवस्था ने पहले सित्था , तत्थ, पत्थ, हत्थ, अवत्था थाय छ. ___ब्द, (?), द्र, दे, द म हे शब्द, भद्र, शार्दूल, अद्वैत ने गले सह, भद्द, सङ्कल, अ६इअ थाय छे. ___-ग्ध, ब्ध, धे, ध्वा मस्निग्ध, लब्ध, अर्ध, अध्वन्, न म सिणिद्ध, लद्ध, अद्ध,
अद्धा थाय छे. ____न्द-न्त (शौरसेनीमा हाय थाय छ.) म किन्तु, प्रभावान् ने मह किन्दु, पहाववन्दी थाय छ.२
प्प-त्प, प्य, प्र, प, ल्प, प्ल, क्मा' म उत्पल, विशप्य, अप्रिय, सपणीय, अल्प, विप्लव, रुक्मान महले उप्पल, विण्णप्प, अप्पिस, सप्पणीय, अप्प, विप्पव, रुप्प थाय छे.
..प्फ-फ, प्फ, (फ), स्फ, प्प, स्प; म उत्फुल्ल, निष्फल, स्फुट, पुष्प, शरीरस्पर्श ने महले उप्फुल्ल, णिष्फल्ल, फुड, पुप्फ, सरीरप्फंस थाय छे.
ब्ब-द्व, ब, व्राम उद्वन्ध्य, अब्राह्मण्य २. मह उब्वन्धिय, अव्वम्हणम्.
ब्म-ग्भ, भ, भ्य, भ्र, भे; भ प्राग्भार, सद्भाव, अभ्यर्थना, अभ्र, गर्भ ने पहले पम्भार, सम्भाव, अब्भत्थणा. अब्भ, गम्भ थाय छे.
म्म-स, एम, न्म, म्य, मे, म५ भ दिङ्मुख. षण्मुख, जन्म, सौम्य, धर्मन् , गुल्म ने पहले दिम्मुह, छम्मुह, जम्म, लोम्म, चम्म, गुम्म थाय छे. __म्ह-म, क्षम, स्म, सामग्रीष्म, पक्ष्मन् , विस्मय, ब्राह्मण ने मलेगिम्ह, पम्ह, विम्हा, बम्हण थाय छे.
ग्य-र्य, ज, ( भागधी ) भ कार्य, दुर्जनः ने पहले कय्ये, दुय्यणे थाय छे. रिह, य (हाय ); रेभ तादृश, चौर्य ने पहले तारिस, चोरिअ थाय छे. १. वनमहो त्थ मा भव्ययामा १५शय छ, म एत्थ (अत्र ), तत्थ (तत्र ). २. नुमा मालिनु शाकुं०, पा. १५५ नाट
3. आत्मा तुं प्राकृत अप्पा तथा अत्ता मे छे. प्प-स्प, स्फ, त सभासमान, भ. चउप्पहोचतुष्पथः
४. ब्म-ह, भविमल-विह्वल, ५. मिल्ल , रेभ मिलाण=म्लान मा सन, ५.२५८. जी, व-द्व, रमवारह-द्वादश.
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અંક ૧]
પ્રાકૃત વ્યાકરસંક્ષિપ્ત પરિંચય. g=7, 8, (a),(ભાગ્યેજ), જેમ કે રાય, નિર્જન, પર્યાા ને બદલે સર્ણ gિs, પણ થાય છે.
હૃ=gજેમ કે દુરનું રહ્યું થાય છે. રા= ૨, (), છે, જેમ કે ચ, પૂર્વ ને બદલે જેવ, પુત્ર થાય છે.
, , , ; જેમ કે વન, અર્થ, અશ્વ, મનશ્વિના ને બદલે સા, સંકુ, ચંપો, મલિ થાય છે.
a =ઈ, મ, ય, , શ્ય, , ગ, ઘ, ચ, , ; જેમ કે , રિમ, રાવરયાત્રા, विधान्त, अश्व, शुप्म, पुष्य, परिप्वजामि, तस्य, सहस्र, तपस्विनू ने EC इस्सा, रस्सि, राजરસ્વત્રિ, વિરત, યાર, હોરર પુરણ, ત્રિમામિ, તæ, સહ્ય, તવતી થાય છે.
તા.ક–જે સંસ્કૃત શબ્દોમાં ત્રણ વ્યંજન જોડાયેલા હોય છે તેમાંના અર્ધસ્વરને પ્રાકૃત કરતી વખતે, લેપ કરવામાં આવે છે, અને ત્યાર પછી બાકી રહેલા વ્યંજને માટે ઉપયુકત નિયમો લાગુ પાડવામાં આવે છે, જેમ કે મચ = Hછે; પરંતુ આવા (અર્ધસ્વર વાળા) જેડાક્ષરની પહેલાં અનુનાસિક વ્યંજન આવ્યો હોય તે બાકી રહેલા જોડાક્ષરની બાબતમાં સામાન્ય નિયમ લાગી શકે છે માત્ર અનુનાસિક પછી તેઓ બેવડાતા નથી, (વર૦ ૩, ૫૬) જેમ કે વિશ્વ =વિ. [ શ ને ૪ (વર૦ ૩, ૨૮) પ્રમાણે થાય છે.]
ઉપયુક્ત નિયમે ઉપરાંત, હાલ કવિના સપ્તશતકની જેમ બીજા પદ્યમાં ઘણું અનિયમિતતા જેવામાં આવે છે જેમ કે ગ્રેવી નું પ્રાકૃત રૂપ વરરૂચિએ તેમ તથા તે આપ્યું છે. તેજ પ્રમાણે રમત નું પ્રાકૃત રૂપ હમ (સત્તાન, પા. ૧૦૫, તથા સરિ૦ ૭૪), તથા Urg રથ (મતી, પા ૯૦), વિગેરે જોવામાં આવે છે..
વિભાગ ૨, પ્રાપ્ત નામે પાંચ જાતનાં હોઈ શકે. ૧ સકારાંત તથા નકારાંત, ૨ દકારાંત તથા કારાંત, ૩ ૩કારાંત તથા કારાંત, ૪ મૂળરૂપે ગાકારાંત; ૫ વ્યંજનાંત.
છેલ્લા બે વિભાગમાં પડે એવાં નામે ઘણાં ડાં છે. થાકારાંત પુલિંગ શબ્દને સર અથવા આ અંતવાળા બનાવવામાં આવે છે, જેમ કે પિતા-પિમ પિત્રા-પિ, મમત્તા, મર્તાસત્તાજી પ્રથમ તથા દ્વિતીયા બહુવચનમાં, તૃતીયા અને પછી એકવચનમાં, તેમજ સમી બહુવચનમાં, છેવટના ને બદલે ૩ મૂકવામાં આવે છે, અને પછી સકારાંત શબ્દની માફક તેનાં રૂપે ચાલે છે, જેમ કે મા-મg, મ7-માળ. આવું રૂપ વપરાયેલું પણ જોવામાં આવે છે, જેમ કે મઢ-મgટ. સંબન્ધદશક નામનું પ્રથમા એકવચન સા અંતવાળું પણ હોય છે, જેમ કે પિતા-પિકા માતૃ-ભાભા, અને ત્યાર પછી સાકારાંત સ્ત્રીલિંગ નામોની માફક તનાં રૂપે ચાલે છે. મ નું સંબોધનરૂપ મુદ્દા થાય છે અને તેનું સ્ત્રીલિંગરૂપ મદિની અથવા મળી થાય છે.
વ્યંજનાત નામોની દ્વિવિધ ગતિ થાય છે: (૧) તેમને અંત્ય વ્યંજન ઉડી જાય છે અને ત્યાર બાદ ઉપર બતાવેલી પહેલા ત્રણ રીતે તેમનાં રૂપ ચાલે છે (નપુંસકલિંગ નામ પુલિંગ બની જાય છે), જેમ કે (રર) નું પ્રથમાનું રૂપ છે, જેમાં (જર્મન) નું જન્મ થાય છે અથવા (૨) મુળ શબ્દને જ કે આ લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે રા નું રો સરિા નું સતરા જે વિભકિતઓના પ્રત્યે વ્યંજનથી શરૂ થતા હોય તેમને માટે સાધારણ રીતે આ નિયમો લાગે છે. આ ઉપરથી જણાશે કે આ યુક્તિઓ વાપરવાનું કારણ વ્યંજનથી શરૂ થતા
૧. , જેમકે તે (° ૮૪), જેમાં જૂની પછી જ આવે છે ?
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. मेवयन.
અધ્યાપક વેલ લિખિત “
[ ખંડ ૨ પ્રત્યય વ્યંજનાત શબ્દ સાથે જોડાતાં જે નવા જોડાક્ષરે ઉત્પન્ન થાય તથા જે નવા ફેરફાર કરવા. પડે તે દૂર કરવાનું હોવું જોઈએ. પરંતુ વરથી શરૂ થતા વિભકિતના પ્રત્યા આગળ ઘણું ખરું સંસ્કૃત રૂપ જ રાખવામાં આવે છે. અલબત, તેમાં પ્રાકૃત નિયમ પ્રમાણે ફેરફાર થાય છે, જેમ કે भवदा (भवत् नु तृतीयानु ३५), आउसा ( आयुषा, आयुस् नु तृतीयानु३५).
પ્રાકૃતમાં દ્વિવચન નથી તેમજ ચતુથી વિભકિત નથી (ચતુથીને બદલે પછી વપરાય છે); ५'यमी मक्यनना में प्रत्यया छः हिंतो 'भाथी' नाममा प्रेम राय छ, भने सुतो भाथी' ના અર્થમાં સાધારણ રીતે વપરાય છે. ખાસ ઉપગી એવાં પહેલા ત્રણ પ્રકારનાં રૂપે નીચેપ્રમાણે છે. હકારાંત શબ્દના રૂપ કારાંત પ્રમાણે ચાલતાં હોવાથી ખાસ અહીં આપવામાં આવ્યાં નથી.
નામનાં રૂપાખ્યાન वच्छ-वृक्ष
(नपुंस० वण-वन)
महुपयन. प्र० वच्छो (नपुं० वणं)
वच्छा (नपुं. वणाई, इ, वणा;
वणानि गधमा १५२राय छ). द्वि० वच्छं - ,
वच्छे वच्छा (नपुं० प्रथमा०) तृ० वच्छेण,-णं
वच्छेहि,-हि पं० वच्छादो,-दु-१
विच्छेहि,-हि विच्छाहि, वच्छा
विच्छासुंतो, वच्छेसुंतो वच्छस्स
वच्छाणं-ण स० वच्छे, वच्छम्मि
वच्छेसु-सुं सं० वच्छ, वच्छा (नपुं० वण)
वच्छा (नपुं० वणाई-इ). अग्गि-अग्नि (पुल्लिंग)
दहि-दधि (नपुंस०).
બહુવચન प्र०. अग्गी (नपुं० दहिं)
अग्गीओ, अग्गिणो (नपुं. दहीई,-) द्वि० अग्गि - "
अग्गिणो अग्गी (8).अग्गिणा
अग्गीहि,-हि पं० अग्गीदो, दु,-हि
अग्नीहितो, संतो. ष० अग्गिणो, अग्गिस्त
अग्गीणं,-ण. स० अग्गिम्मि
अग्गीस,-सं सं० अग्गि (नपुं. दहि)
अग्गीओ, अग्गिणो (नपुं. दहीई,-इ). माला (स्त्रीलिंग) , એક વચન
मक्यन. प्र० माला
मालाओ,- माला द्वि० मालं पं. मालदो-दु-हि.
मालाहिंतो,-संतो. १. मधमा सामान्य शेत दो वाणु ३५.१५२सय छे. .
२. माला भाट यो वर५, २०., तथा शाकुं०मा पा० १५ १५२, दअमाणा श६५२ माघेसी બાથલીંગની ટીકા,
मे वयन.
तु०
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- અંક ૧ 1
પ્રાકૃત વ્યાકરણ-સંક્ષિપ્ત પરિચય.
५०
स०
એક વચન.
}
तृ
णई,-आ
५०
ई-ए
: | સાહિત કાકા
માપ - -
मालासु,-सुं सं० माले
મહાવ્યો-૩ * પ્રાકૃતમાં સ્ત્રીલીંગી કારત અને ઈંકારાંત તથા સકારાંત અને કારાંત નાનાં રૂપમાં ફેર ફાર હેત નથી.
નકલી (સ્ત્રીટિંગ)
બહુવચન. प्र० नई
-૩ (દિતયા ઘઉં? જુઓ * द्वि० गई
લેસન, પા. ૩૦૭, નોટ ૨.) पं० णईदो, दु,-हि
णईहितो, संतो गईहि,-हि બાળ
जईसु,K सं० गइ
णईओ,उ - તા તથા સ્વ છેડાવાળાં ભાવવાચક નામે પ્રાકૃતમાં ર અને ૩ળ છેડાવાળાં બની જાય છે, જેમ કે ના, ના. મન અને જૂ પ્રત્યયેનાં પ્રાકૃતમાં જુદાં જુદાં રૂપે થાય છે, જેમ કે
g, ૪, ગાઢ, વંત, પંત (ગદ્યમાં ચંદ્ર, દં), જેમ કે વિકાછું (વિવાદ). તારવ્હીલ્યા gs પ્રત્યય વપરાય છે, જેમ કે સિ. સ્વાર્થ વા (૪) પ્રચય જોડવામાં આવે છે. જેમ કે અમર– મમરા, દિવ્યા() પ્રત્યયને બદલે સત્ર થાય છે, જેમ કે કમતિ –ઉમરઉત્ત, થાયથિ-સાસત્તિા (સ્ત્રીલિંગ). •
વિભાગ ૩
સર્વનામ પ્રકરણું. પ્રાકતમાં સર્વનામનાં રૂપે નામ પ્રમાણે ચાલે છે. અને તે ઉપરાંત કેટલાંક નવાં રૂપ પણ ઉમેરાય છે. નીચે આપેલાં ૪=૪ નાં રૂપો ઉપરથી બીજા ખાસ ઉપયોગી રૂપે સમજાઈ જશે.
પ્રાકૃતમાં વ્યંજનાત શબ્દ રાખવામાં આવતા નથી, તેથી સંસ્કૃતનાં કેટલાંક સર્વનામને પ્રાકૃતમાં વિભક્તિના પ્રત્યે લગાડતાં કેટલાક ફેરફાર કરવા પડે છે, જેમ કે શિ, ચ, તર્ ને બદલે જા, ર, ત થાય છે. તદ્ નું ઘર, અને કોઈકવાર થાય છે (તેથી શાકાતમા )
મનું મન થાય છે; ચ નું શુ થાય છે. લિમ્, ચર્, તદ્દનું બીજું રૂપ વિ, તિ, તિ પણ થાય છે. જોકે આ પાછળના રૂપે સ્ત્રીલિંગમાં વપરાય છે તે પણ પુલિંગની અને નપુંસકલિંગની તતીયા અને ષટીમાં તેમનાં કેટલાંક રૂપે આવે છે. ફુવF નું પણ તૃતીયાનું મના રૂપ થાય છે. ખરી રીતે પ્રાકૃતમાં સર્વનામનાં રૂપમાં બહુ નિયમિતતા જોવામાં આવતી નથી, તેથી ફરિત ખરી રીતે પુલિંગ સસમીનું રૂપ હોવા છતાં ઘણું વાર સ્ત્રીલિંગમાં વપરાયું છે જેમ કે શshત્તા (મનીયર વીલીયમ), પા. ૩૬, ૨; ૧૧૫, ૩. - વરરૂચિએ ખાસ આપેલાં કેટલાંક રૂપે હું નીચે આપું છું. તમાર્ટ અને પ્રતિમાને બદલે તો અને ઘરો (૬, ૧૦,૨૦) તા અને સંસ્થાને બદલે લે (૬, ૧૧), તે અને તાલ ને
વ્યા. ૨
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amanamaAnnanamamianamannasammaanmanumanmannanon
anammanmannamammarAmAnamamarAmAamanawwammamamal
१.] અધ્યાપક કાવેલ લિખિત
[ અંક ૨ Hd सिं. अदस् प्रथमान्यनत्रणे विभा अह. नव३थियनी त पक्ष एनम् भने पनाम् नमनाभा १५शयदुनवामी मावे छ. कियद, तावत् विश्न महले केहह, केत्तिम, तेह्ह, तेत्तिम विगैरे माता छ (४,२५); परंतु भरी:रीत केहह विगैरे कीहश वि.न मा डा .
जन्य (युnि .) . से क्यान.
मक्यन प्र० जो (जं नपुं० किं-किम् )
जे (जाई, नपुं०) द्वि० जं - तु० जेण, जिणा
जेहि, जेहि पं० जतो,-तु, जदो-दु
जाहितो, जासुंतो ष० जस्स, जास
जाणं,-ण, जेसि जस्सि-स्सि
जेसु, हुं जम्मि,-म्मि जहिं, जहि, जत्थ
श्रीलि. कोयन.
भयन. प्र० जा
जाओ-उ, जीओ, उ द्वि० जे पं० जादो, दु, जीदो (१)
जाहितो, संतो, जीहितो,-संतो
जाहिं, जीहिं प० जस्सा जासे (१)
जालिं, जाणं,-ण, जीणं,-ण, जीसिं, जीए-२, जिस्सा, जीसे
(जासां, जेसि) स०
जीमा-म
जासु, सुं, जीसु-सुं વરરૂચિએ (૬, ૨૫-૫૩) માં પુરૂષ સર્વનામે આપ્યાં છે. જે રૂપે નાટકમાં કદી પણ આવતાં નથી તેમને મેં વૃકેટમાં મૂકયા છે. બહુવચનનાં રૂપે તદ્દન જુદી જ રીતે થાય છે, જેમ કે तुज्य, तुम्ह, तुम्म, अम्ह, तथा मझ.
अस्मद् मे क्यन.
મહુવચન प्र० अहं (ई, अह, अहम्मि)
अम्हे (वयं मधमा वय, वर०.२०,२५) द्वि० मे, ममं (अहम्मि)
अम्हे, णो (णे) तु० मे, मए (मह, ममाइ)
अम्हेहि,-हि पं० भत्तो (मरत्तो, ममादो, दु ममाहि) अम्हाहितो, सुतो १० ,मे, मम, मज्क्ष, महर
णो, अम्ह, अम्हाणं, अम्हे (मज्झ?). स० मा (मए, ममम्मि)
अम्हेसु
-
याय छे.
1.जी,
नमानस पटीमा कीस 'शाभाटे मेवा अथ भाशय २. प. 64G समश. भां ममं भने मह ३. १५vi mय छे. 3.माया त सप्तश भां अम्हं, मम्मं, म्ह, अम्हि, अम्हाण ३५ो पशय
छ,
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-
28.1
પ્રાકૃત વ્યાકરણ-સંક્ષિપ્ત પરિચય.
युष्मद् तु प्र० तुम, तुं (त)
तुझे, तुम्हे द्वि० (तं, तुं) तुम
तुज्झे, तुम्हे, वो तु० तइ, तप, तुमए, तुमे, (तुमाइ) ते, दे । तुज्झेहि, तुम्मेहि, तुम्हेहि पं० तत्तो (तइत्तो, तुमादो, दु, तुमाहि) | तुम्हार्हितो,-संतो ष० (तुमो) तुह, तुज्झ, तुम्ह, तुम्म, तुव, | वो, (भे) तुज्झाणं, तुम्हाणं
तुम,ते. दे स० तइ, तुइ, तए, (तुमए, तुमे तुमम्मि | तुज्झेसु, तुम्हेनु
प्रथमन सभ्यावाय शहानां प्राकृत३५ एअ मगर एक, दो (प्रथ० भने द्विती०-दो, दुवे, दोणि; षष्ठी दोण्ह), ति (प्रथ०-तिण्णि, षष्ठी-तिण्हं ) थाय छे. पष् न मत छ थाय छे.
વિભાગ ૪,
ક્રિયાપદ પ્રકરણ ખરી રીતે જોતાં પ્રાકૃતમાં એકજ ગણુ (=સંસ્કૃતિને પહેલે અને છઠ) છે. સામાન્ય રીતે બધા ધાતુઓને આજ ગણુમાં લાવવા પ્રયત્ન કરવામાં આવે છે, તે પણ અન્યાન્ય ગણના કેટલાંક રૂપે નાટકમાં જોવામાં આવે છે.
નામે પ્ર#િામાં જણાવ્યા પ્રમાણે ક્રિયાપદમાં પણ દ્વિવચનરૂપ થતાં નથી. કરિ પ્રગમાં ફક્ત વર્તમાનકાળ, સામાન્ય ભવિષ્યકાળ, તથા આજ્ઞાથ જેવામાં આવે છે.
वभिनन . એક વચન.
मक्यन. प्र० पु० हसामि, हसमि.
हसामो, मु,-म, हसिमो, मु, म हसम्हि
हसमो, मु, म, हसम्हो, म्ह द्वि० पु० हससि
हसह (गधमा हसध,-धं)
हसित्था (हसत्थ?) तु० पु० हसदि' हसइ
हसन्ति। मध्यम प्रयोगमा ऋणे ५३पना क्यनना ३२॥ थाय छ, २३ १. मणे, २. सहसे, 3 सहदे, भथा सहए.
माज्ञा એક વચન
. मक्यन. १. हसमु (वर०७.१८)
हसामो, म हसमो,-म, हसम्ह. २. हससु, हस, हसाहि, हसस्स
हसह, हसघ-ध ३. हसतु', हसर
हसन्तु.
૧. આ ગદ્યમાં વપરાતું રૂપ છે. તે જ પ્રમાણે હું વાળાં સામાન્યરૂપ, તથા ૮ વાળા ભૂત કૃદંત પણુ ગદ્યમાં વપરાતાં રૂપ છે.
२. भस् ''नाथानीय प्रभारी छ. मे क्यन. १. मम्हि, २. असि, ३. आत्थ, म५० अम्हो, अम्ह, ३ सन्ति. ते प्रभारी महासभा १०१ म्हि, २ सि ३ त्यि, महु१०१ हो, म्ह, २ त्य, भनयतनभूतभा १०१. भासिं, आसि, २. ३. आसि,
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૧૨ ]
ખ
અધ્યાપક વેલ લિખિત
[ ખંડ ૨ કેઈપણ પુરૂષપ્રત્યયની પહેલાં અને બદલે ઇ વિકલ્પ કરી શકાય છે (ર૦ ૧,૩૪), જેમ કે દૂમિ, વિગેરે દહિ, દ, વિ. બીજા શબ્દોમાં કહીએ તે, અવ નું ટૂંકું રૂપ કહેવાથી એમ કહી શકાય કે પ્રાકૃતમાં ક્રિયાપદનાં રૂપો સંસ્કૃતના દસમાં ગણના ક્રિયાપદ પ્રમાણે વિકલ્પ થાય છે. સુકારાંત અને સકારાંત પહેલા ગણના સંસ્કૃત ક્રિયાપદના અા અને બા ને બદલે અને જો મૂકવામાં આવે છે, જેમ કે
ક , અતિ–હોષિઅથવા જૂને લેપ થાય છે, અને રૂને રાખવામાં આવે છે, જેમ કે જાદુ, દલિ. ગાકારાંત ક્રિયાપદામાં મૂકવામાં આવે છે, જેમકે હૃતિ–૪૬, ત્રિ–મg. ચેથા ગણુના ધાતુઓમાં અસ્ય વ્યંજને બેવડાય છે, જેમ કે રિ–કુત્તિ, અથવા ને લેપ કરીને જુદુજ રૂપ કરવામાં આવે છે, જેમ કે લુચાર-. સાતમા ગણના ધાતુઓમાં અનુનાસિક ઉમેરવામાં આવે છે, અને પછી બીજા ગણની માફક તેમનાં રૂપે ચલાવવામાં આવે છે, જેમ કે અળદ્ધિ- રિ, જે રૂ. પાંચમા ગણના ધાતુઓમાં જ ઉમેરવામાં આવે છેજેમ કે રોજિ-રૂણાનિ, વર્તુ-ટ્યુરિંતુ કેટલીક વાર સંસ્કૃત રૂપ પણ રાખવામાં આવે છે, જેમ કે રિમિ, સુકુ તથા પુહિ. નવમા ગણમાં ળ અને બેઉ વપરાય છે, જેમ કે જ્ઞાત્રિ અને રારિ (કાનાર). તે ઉપરાંત કાઢ અને નાદિ રૂપ પણ લેવામાં આવે છે.
વિધ્યર્થનાં માત્ર કેટલાંક ત્રુટિત રૂપે જ જોવામાં આવે છે, જેમ કે ૧. ચં, જી, ૩. અરે, (પણ જુઓ-બરનું રાતર, પા. ૨.)
પ્રાકૃતમાં ભવિષ્યકાળનાં ઘણાં રૂપ છે. () ખાસ ઉપગમાં આવતાં રૂપોના પ્રત્યે નીચે પ્રમાણે છે. એકવચન. ૧. ૩, તા. ૨. લિ. ૩. રિ, ૪૬. બહુવચન. ૧.રા. ૨. ર૩, ૩, ૩. સાત્તિ.
આ પ્રત્યે લગાડતાં પહેલાં શુ લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે સિલ્સ વિગેરે. મૂળ સંસ્કૃત પ્રત્યય ચ નું આ ર તે પ્રાકૃત રૂપ છે. -
(૪) બીજા પ્રત્યમાં તને બદલે છ વપરાય છે, જેમ કે તોછે (૪ નું પ્રથમ પુરૂષી એકવચન). (જુઓ ૨૦૭,૧૬, ૧૭.).
(#) ત્રીજી જાતનાં પ્રત્યામાં સ્ત્ર ને બદલે હિ વપરાય છે, જેમ કે મિ વિગેરે. આ ઉપરાંત પહેલા પુરૂષ એકવચન અને બહુવચનનાં ઢવિદ્યામિ અને લિમો એવાં રૂપ થાય છે. [ વળી, ઘઉં ( નું રૂ૫), રાઈ (વા નું રૂપ) પણ થાય છે; વર૦ ૭. ૨૬ જાઉં રૂપ વેબરના સારા પાત્ર ૧૦ માં વપરાએલું છે.]
| વળી, , અને ના પ્રત્યે લગાડતાં કેટલાંક વિરલ રૂપ બને છે, (ર૦ ૭, ૨૦-૨૨), જેમ કે , ના, ઘોહિ૬, હોગાદિ, વિગેરે. કેટલાંક ફુલ અને ન અંતવાળા ભૂતાર્થ વચનનાં વિરલ રૂપ પણ દેખાય છે, (વર૦ ૭, ૨૩-૨૪) જેમ કે કુથ, દોહા (અન્); જુઓ પ્લેસન્સ ઈસ્ટ, પા. ૩પ૩-૮. સતo માં ૪ અને શા છેડાવાળાં કેટલાંક વિધ્યર્થ રૂપે વપરાએલાં છે.]
પ્રાકૃતમાં કર્મણિ પ્રગમાં કરિનાજ પ્રત્યે વપરાય છે, અને ૨ પ્રત્યયને બદલે હું અથવા = પ્રત્યય લગાડે છે, જેમ કે પછી, દ્ધ અથવા હિas ( ). કેટલીક વાર જ રાખવામાં આવતાં પૂર્વના વ્યંજન પ્રમાણે તેનું રૂપાંતર થાય છે, જેમ કે રામ? (અ ); હિત અગર સ (દરતે).
- પ્રેરક ભેદના પણ બે રૂપો છેએકમાં સંસ્કૃતના અને ઇ કરવામાં આવે છે, જેમ કે વા. ઉપરથી રિ થાય છે (ધાતુમાંના પહેલા અસરના જ ને જ કરવામાં આવે છે, વર૦ ૭. ૨૫)
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મક ૧ 1
પ્રાકૃત વ્યાકરણ–સ`ક્ષિપ્ત પરિચય.
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ખીજામાં આવે ( આવે?) લગાડવામાં આવે છે; જેમ કે વેક્િ અથવા ાવૅવિ ( અહી', પ્રથમના આ ને વિકલ્પે આ થયા છે, વ૦ ૭. ૨૭ ).
જો ધાતુના અંત્યાક્ષર વ્યંજનહાય તા તુમુન રૂપ કરતી વખતે તુમ્ લગાડવામાં આવે છે, પણ "ત્યાક્ષર સ્વર હાય તા દુન્ લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે વર્ ઉપરથી વત્તુક ની ઉપરથી નેવું. ઘણીવાર વ્યંજનાંત ધાતુને હું અથવા ૬ લગાડીને ધાતુને સ્વરાંત બનાવવામાં આવે છે, અને ત્યાર પછી તેને તુર્કી પ્રત્યય લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે રમિવુ (રન્તુ ), કાવ્યમાં ઘણી વાર નો લાપ કરવામાં આવે છે, જેમ કે દૂર્ ઉપરથી લેવું, લિૐ
સંસ્કૃતના વા . અ'તવાળા હૃદન્ત બનાવવાને પ્રાકૃતમાં સૂળ અગર ળ પ્રત્યય લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે માત્ર ઉપરથી શાળા, ચેત્જ્ ઉપરથી ઘેTMળ. સસ્કૃતના ૬ અતવાળા કૃત અનાવવાને પ્રાકૃતમાં ત્ર લાગે છે,અને ગદ્યમાં ઘણાં ખરાં આના રૂપ વપરાય છે, જેમ કે ગેર્ શત્ નુ વિન. કેટલીક વાર ગદ્યમાં વા ને સ્થાને દુઃ વપરાય છે, જેમ કે વસ્તુલ ( ત્લા); મહુલ (પત્ત્તા ), વિગેરે. ( વર્૦ ૧૨. ૧૦ ),
કત રિ વર્તમાન કૃદંતને અતે અંત પ્રત્યય ( અથવા, વ૬૦ ૭. ૩૪ પ્રમાણે પંત ) લાગે છે; જેમ કે પહંત, સુખંત (વરુચિ ૭. ૧૧) ના કહેવા પ્રમાણે સ્ત્રીલિ’ગનાં પન તેમજ પઢતી એમ એ રૂપા થાય છે...મધ્યમ પ્રયાગમાં વર્તમાન કૃદંતને પ્રત્યય માળ છે . ( સ્ત્રીલિ’ગમાં માળી અથવા માળા પ્રત્યય લાગે છે ).
કમ`ણિ પ્રયાગમાં ન્ત અને મા પ્રત્યો લાગે છે, અને તેની પહેલાં પુત્ત્ત પ્રત્યય લાગે છે, જેમ કે નિત ( જાયંમાળ ), તેમજ, કાન્ત (વામાન ), લીગમાળ ( રચમા ), ભૂતકૃતના રૂપો સસ્કૃતપ્રમાણે થઇ તેમાં પ્રાકૃતના નિયમો પ્રમાણે ફેરફાર થાય છે, જેમ કે સુવ્ અથવા સુબ-શ્રુત, અદ્રુ જીય; કાઈક વાર ૢ વચ્ચે ઉમેરવામાં આવે છે, જેમ કે ધરિત્ (ધૃત ), શિક્ ( શ્રુત ). આ ઉપરાંત કેટલાંક અનિયમિત રૂપે થાય છે, જેમ કે પળ ( વિત્ત ). વિધ્યથ કૃદ’તનાથ ના તેની પહેલાંના વ્યંજન પ્રમાણે ફેરફાર થાય છે, જેમ કે વિપ (વિષ્ય ), ( ( જાય ); અનીય પ્રત્યયને ખદલે અજ્ઞેય, અથવા ળજ્ઞ થાય છે, જેમ કે દૂબળીન ( પૂનનીય ), ળિા ( નળીય ).
પ્રાકૃતમાં પરાક્ષભૂત કાળ નથી. તેના ઠેકાણે અકમક ધાતુના અર્થમાં ભૂતકાલવાચક ધાતુસાધિત વિશેષણ ( તંત જ્ત ) ના ઉપયોગ કરવામાં આવે છે. અને સકમ ક ધાતુના અર્થમાં તેવાજ રૂપની કર્તાની તૃતીયા અને સકમની પ્રથમા વિભકિત વડે કામ લેવામાં આવે છે.
અવ્યસાવિષે પ્રાકૃતમાં વિશેષ જાણવા જેવું કાંઇ નથી. ફક્ત એટલું જ જાણવું જોઈએ કે વૃત્તિ ને બદલે ત્તિ મૂકવામાં આવે છે, જેની પહેલાં આ, અથવા તે હસ્વ મનાવવામાં આવે છે, અને અનુસ્વારની પછી આવેતેા ત થઈ જાય છે. હૅસ્વ સ્વર અગર હૈં, ઔ પછી લઘુ આવે તેના હો થાય છે, તથા દીર્ઘ સ્વરની:પછી ( તથા અનુસ્વાર પછી પણું ) ફ્લુ થાય છે. તેજ પ્રમાણે વ ને મલે સૈન્ય અથવા નૈન્ય, અને પંન્વ તેમજ પુત્ર થાય છે. વ ને બદલે પવિત્ર તથા ષ થાય છે; અપિ નો સ્વર પછી આવે તે તેનું વિ અથવા વિ થાય છે, અને અનુસ્વાર પછી આવે તાત્તિ થાય છે, તથા વાક્યના આર્ભમાં વે થાય છે.
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આ સ્થળે માગધી ભાષાનુનામ જણાવવાની જરૂર ગણુ છું. તેમાં ૬ અગર જ્ ને ખઇલે
૧. કાવ્યમાં સ્વરની પહેલાં આવેલ અનુસ્વાર પેાતાની સાથેના અત્યસ્વરને દીર્ઘ બનાવે છે. પણ જો અનુસ્વારને ક્રૂ તરીકે લખવામાં આવે તા તે સ્વર -હસ્વ જ રહે છે, અને ત્યાર બાદ એ એઉ શબ્દોની સધિ થાય છે; જુઓ વેખર, સસરા૦-પા૦ ૪૭,
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ri.
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सध्या
अवससिभित......
थाय छ, तथा रनमा ल्याय 2 जन महायुतभाई नमः य्य याय है। 'म संत नामना अथभा.मे क्यनमा छेवट ए भाइभाव छ, रेभमाशे (माप:): ... ... ..
ઉપરના નિબંધમાં,ધરવા પ્રમાણે, સાધારણ વિદ્યાથીઓને કાળિદાસ અગર ભાવસતિનાં નાટકેમાંનું પ્રાકૃત સમજવા માટે જોઈએ તેટલું જ્ઞાન આપવામાં આવ્યું છે. અલબત, મૃચ્છકટિક અગર વિમેવશીયનું પ્રાકૃત સમજવાને કેટલાક વિશેષ જ્ઞાનની જરૂર છે.
१.२२ तना:अल्यास:वधारवा:हाय तेभनीयना अयानु नख:- .::
1 Lassen's Institutiones Linguae Pracritical,1837.2. Weber's ससशतकof हाल mith his excellent introduction, 3870. 3. वररुचि ना प्राकृतप्रकाश, १८५४. 4. प्राकृत बालभाषा-(मागधी)-व्याकरण of Hemchandra, Bombay, 1873 श्री अथनी - विवेयनाम આવૃત્તિ ડૉ. પશ્ચલે તૈયાર કરે છે. તે ગ્રંથ ખાસ કરીને જૈન પ્રાકૃત માટે.ઉપયોગી છે. આ
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परिशिष्टः-मन भास्टिव सोसायटीना म गेन' नी भायमा स्तमा . વેબરે પ્રકટ કરેલા હાલકવિના સપ્તશતકમાંથી આયાવૃત્તની દસ ગાથાઓ નીચે આપી છે.
१. पानपडिअस्स पइणो पुडिं पुचे समारहतम्मि ।
दढमण्णदूमिआप वि हासो परिणीय निकन्तो ।। (११.) २. अन्न भए तेण विणा अणुइयसुहाइ संभरन्तीए।
___अहिणवमेहाण रवो णिसामियो वझपडहो व्व । (२८), ३. तुल्झ वसई चि हिअयं इमेहि दिटो तुम ति अच्छीई।
तुह विरहे किसिआइ ति तीए अंगाइ विपिभाई। (४०) , ४. कलंकिर सरहिमयो पवसइ पिओ ति.सुणीअइ जणम्मि।
तह वड्ढ भवइ णिसे जह से कल्लं विमण होइ ।। (४५.) ५. अइसणेण पेम्म अवेइ अइदसणेण वि अवेइ ।
पिणजणजम्पिएण वि अवेई, एमे वि अव । (८०.) . ६. दक्खिपणेण वि एन्तो सुहम सुहावेसि संम्हं हिमआई। . :
णिकइप्रवेण जाणं गओ सि, का णिचुदी ताण ॥ (८४.) ., ७. तइया कसब महुअर ण रमसि अण्णासु पुष्फजाई। .....
बद्धफलभारगरुहं मालइमेण्हि परिश्चअसि ॥ (८१). ८. उप्पण्णत्ये कजे अइचिन्तन्तो गुणागुणे तम्मि !
अइसुइरसहपेच्छि-तणेण पुरिसो हर कर्ज ॥ (२१८).. ... ९. कलहतरे वि अविणि-गमाइ हिममम्मि जरमुवगमाई।
सुअणकाइ रहस्सा- डहइ आउफ्लप.अम्गी ।। (३२८). . . : १०. वोलीणोलच्छिअर-अनोची पुत्ति किण्ण दूमेसि। . . . . :
दिदडप्पणपोरा-णजणवमा जम्मभूमि व्व ॥ (३४२.) ... .. ..
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॥ ॐ अहम् ॥ ॥ नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते श्रीमहावीराय ।
॥ उपकेशगच्छीया पट्टावलिः॥
॥ श्रीमत्पार्धजिनेंद्राय नमः ॥ श्रीमत्केशीकुमारगणधरेभ्यो नमः ॥ श्रीमद्रत्नप्रभसूरिसद्गुरुभ्यो नमः ॥ ओकेशशद्वन्यार्थाः लिख्यंत ॥ इशिक ऐश्वर्ये, ओकेषु गृहेषु इष्टे पूज्यमाना सती या सा ओकेशा सत्यिका नाम्नी गोत्रदेवता । अल ओक शहो अकारांतः तस्यां भवस्तस्या अयमिति वा ओकेशः। भवे इत्यग् प्रत्ययः, तस्येदमित्यनेन वा अणप्रत्ययः । सत्यिका देवी हि नवरातादिषु पर्वसु अस्मिन् गणे पूज्यते सा चास्य गणम्य अधिष्टानी अतएवाम्य गच्छम्य ओकेश इति यथार्थ नाम प्रोद्यते सद्भिरिति प्रथमोऽर्थः ॥ १ ॥
ईशनमीशः ऐश्वर्य ओकर्महर्द्धिकश्राद्धप्रमुखलोकानां गृहरीशो यस्यां मा ओकेशा ओसिका नयरी । तत भव ओकेशः । ओसिकानगर्या हि अन्य गणम्य ओकेश इति नाम श्रीरत्नप्रभसूरीश्वरतो विख्यातं जातमिति द्वितीयोऽर्थः ॥ २ ॥
अः कृष्णः उः शंकरः को ब्रह्मा । एपां द्वंद्वसमासे ओकास्ते ईशते पूज्यमानाः संतो देवत्वेन मन्यमानाः संतश्च येभ्यस्ते ओकेशाः। ओके कृष्णशंभुब्रमभिदेवेरीशते येते वा ओकेशाः । परशासनजनाः क्षत्रियराज्यपुनादयः प्रतिबोधविधानात्तेपामयं ओकेशः । तस्येदमित्यणप्रत्ययः । श्रीरत्नप्रभसूरिभिस्तेषां पारार्थिकधर्मनिष्ठातः सिद्धान्तोक्तविशुद्धजैनधर्मनिष्ठायां प्रतिबोधदानेन प्रवर्तना कृता । तथा च श्रूयते पूर्व हि श्रीरत्नप्रभसूरीणां गुरवः श्रीपापित्यीयकेशीकुमारानगारसंतानयित्वेन विख्यातिमतो जगति जज्ञिरे । नतः प्राप्तमूरिमंताः समत्तंत्रा रमणीयाऽतिशयनिचयाः स्वकीयनिस्तुपशमुखीप्रागभारसंभारात् ज्ञातहिदशसूरयः श्रीमच्छ्रीरत्नप्रभसूरयः कियति गते काले विहरंतः संतः श्रीओसिका नगयीं समवसृताः । तप्त्यां च सर्व लोकाः पारतीथिकधर्मधारिणो संति । न कोपि जैनधम्मर्धारी । ततः साध्वाचारं प्रतिपालयाद्भिः सिद्धान्तोक्ततीर्थंकरधर्मशुभकर्मप्ररूपणां कुर्वद्भिः सद्भिः श्रीरत्नप्रभसूरिभिः पारतीर्थकानेकच्छेकविवकिलाकाः प्रतिबोधितास्ततः एते ओकेशा इति विरूदो विख्यातो जातः । इति तृतीयो अर्थः ॥ ३ ॥
अः कृष्णः, आः ब्रह्मा. उः शंकरः, एपां द्वंद्वे आवम्ततः ओभिः कृष्णब्रह्मशंकरदेवेः कायते स्तूयते देवाधिदेवत्वादिति ओकः प्रस्तावात् श्रीवर्धमानस्वामी कचिदिति ड प्रत्ययः, ओकश्चासा ईशश्च ओकेशस्नम्याय ओकेशः वर्तमानतीर्थाधिपतिश्रीवर्षमानजिनपतितीर्थाश्रयणादिति चतुर्थोऽर्थः ॥ ४ ॥
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२]
उपगच्छीया पट्टावली
अः अर्हन्,अः म्यादर्हति सिद्धे त्रेत्युक्तः । प्रस्तावादिह अ इति शब्देन श्रीवर्धमानस्वामी प्रोच्यते । ततः अस्य ओको गृहं चैत्यमिति यावत् ओकः श्रीवर्धमानम्वामिचत्यमित्यर्थः । नम्मादीशः ऐश्वर्य यस्य स ओकेशः यनोयं गणः श्रीमहावीरतीर्थकरसान्निध्यतः स्फातिमवापेति पंचमोऽर्थः ॥ ५ ॥ एवमस्य पदस्यानेकेप्यर्थाः संत्रोभुवति परं किं वहुश्रमेणेति ॥
1
अथ उपकेशशब्दस्य कियंतोऽर्था लिख्यतेः । उप समीपे केशाः शिरोरुहाः सत्यस्येति उपकेशः । श्रीपार्श्वापत्यीयकेशिकुमारानगारः । एतदुत्पत्तिवृत्तांतस्तुः श्रीस्थानांगवृत्त्यादा सप्रपंच: प्रतीत एवास्ति । नन एवावगंतव्यः। ततः उपकेशः श्रीकेशिकुमागनगारः पूर्वजो गुरुविंद्यते यस्मिन् गणे म उपकेशः । अभ्रादित्वाद प्रत्ययः । अस्मिन्गछे हि श्री केशिकुमागनगारः प्राचीनो गुरुरासीत् । ततो यथार्थमुपकेश इति नाम जातमिति प्रथमोऽर्थः ॥ १ ॥
उपवर्जितास्त्यक्ताः केशा यत्र सः उपकेशः ओसिकानगरी तस्यां हि सत्यिका देव्याश्चैत्यमस्ति । ग्रे च धनैर्जनैः प्रथमजानचालकानां सुदिने दिने मुंडनं कार्यते तत उपवेश इति यथार्थं नाम ओसिकानगर्याः प्रख्यातं जातं । तत्र भवो यो गच्छः स उपकेश: प्रोद्यते सद्भिविद्वद्भिः । अत्र हि भवे इत्यनेन सूत्रेण अणि प्रत्यये संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाद्बुद्धेरभावः । श्रीरत्नप्रभमूरितो अनेकधावक प्रतिबोधविधानानंतरं लोके गच्छम्य उपकेशेति नाम प्रसिद्धं जातमिति द्वितीयोऽर्थः ॥ ३ ॥
को ब्रह्मा, अः कृष्णः, अः शंकरः ततो द्वंद्वे काः । तैरीष्टे ऐश्वर्यमनुभवति यः सः केशकानां ईशः ऐश्वर्य यम्पाद्वा केशः पारतीर्थिकधर्म्मः सः उपवर्जितन्त्यक्तो यस्मात्स उपकेशस्तीर्थकृदुक्तविशुद्धधर्मः म विद्यते यस्मिन् गच्छे म उपकेशः । अत्रापि अभ्रादित्वादप्रत्ययः । इति तृतीयोऽर्थः ॥ ३ ॥
कंमुखंई लक्ष्मीः क्यों ते ईशे स्वायत्ते यत्र यन्माद्वा स केश: - अर्थात् जनो धर्मः । म उपममीपे अधिको वाऽस्माद्गच्छात्म उपवेशः इति चतुर्थोऽर्थः ॥ ४ ॥
कश्च अश्च ईशश्च केशाः-ब्रह्माविष्णुमहेशाः । तद्धर्मनिराकरणाचे उपहता येन सः उपकेशः । प्रकरणाढ्त्र श्रीरत्नप्रभसूरिः गुरुः तम्यायं उपकेशः । अत्रापि तस्येदमित्यणि प्रत्यय पूर्ववदृद्धेः अभावो न दोषपोषायेति पंचमोऽर्थः ॥ ६ ॥
इत्यमन्येऽप्यनेके अर्थ ग्रन्थानुसारेण विधीयते परमलं बहुश्रमेणेति । एवमुक्तव्य क्तयुक्तिव्यक्तिशक्त्या ओकेशोपलक्षणे उभे अपि नाम्नी यथार्थ व प्राचनः ॥ इति ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी समाप्ता ॥ संवत् १६९९ वर्षे ॥ श्रीमद्विक्रमनगरे मकलवादिवृंदकंदकुदाल श्रीकाकुदाचार्य संतानीय श्रीमछ्रीसिद्धसूरीणां आग्रहतः श्रीमद्बृहत् खरतरगच्छीयवाचनाचार्यश्रीज्ञानविमलगणिशिप्यपंडितश्रीवल्लभगणिविरचिता चेयम् | श्रीरस्तु ||
ग्रीष्महेमंतिकान् मासानू. अष्टौ भिक्षुः प्रचक्रमे । रक्षार्थ सर्वजंतूनां वर्षास्वैकत्र संवमेत् ॥ ? ॥
मनुष्याणां सव्र्व्वेषु पदार्येषु सारो धर्म एव । मनुष्यत्वं 'वर्मेणैव वर्ण्यते ॥ स धम्मो वर्षा मुनिपार्श्वीत श्रोतव्यः । यतयो वर्षास्वक्त्र तिष्ठन्ति किमर्थं सर्व जंतूनां रक्षार्थ । धर्मस्य सारं स
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जैन साहित्य संशोधक जीवेषु दया । वर्षाः पृथ्वी जीवाकुला भवति संयमो विराध्यते । अतो जीवरक्षार्थ चतुर्मासकल्प तिष्ठंति । शिवशासने पि जीवदयास्वरूपमेवं न्यावर्णित -
पश्यन् परिहरन जंतून मार्जन्या मृदुसूक्ष्मया । एकाहविचरेद्यन्तु चंद्रायणफलं भवेत् ॥ १ ॥ महाभारते कृष्णद्वीपायनेनाप्युक्तं
यो दद्यात्क्रांचनं मेरुः कृत्स्नां चापि वसुंधरां । एकस्य जीवितं दद्यात् न च तुल्य युधिष्ठिरः ॥२॥ परेप्यवं वदंति जनवाक्यम्य किं वाच्यं । मुनयः क्षेत्रम्य त्रयोदश गुणान वीक्ष्य तिष्ठति
चखिल १ पाण २ थंडिल ३ वसहि ४ गोरस ५ जणा ६ उले ७ विज्ने ८ । ओसह ९ धन्ना १० हिवइ १० पासंडा ११ भिन्नु १२ सिज्झाय ॥ १३ ॥ एते त्रयोदश गुणाः । तत्र स्थिता दशधा समाचार्ग पालयंतिइच्छा : मिच्छा २ तहकारो ३ आवम्सिया ४ निसीहिया ५ आपुच्छणा य ६ पडिपुच्छ ७ छंदणा य ८ निमंत्रणा य ९ उपसंपयाकाले ।। १० ॥ समाचारी भवे दसहा ॥१॥
पुनः धर्मशास्त्रण्युपदिशति । श्राद्धा वासनावानितचित्ताः शृण्वति । परं चातुर्मासकात्पंचाशदिने व्यतिक्रांते कल्पावसरं ।
वीसहि दिणेही कम्पो पंचगहाणीय कप्पठवणायं ।
नव (९) सय तेण (९३) पहिं वृच्छिन्ना संघआणाए ॥ १ ॥ ___ अधुना कल्पावमरे अन्यग्रन्थादगे न यथा दिव्यकोन्तुभाभरणं प्राप्य अन्यरत्नाभरणेषु निरादरत्वं जायते यथा च कुंडपातालामृतं प्राप्यांवुजलास्वादो न रोचते । भारतीभूपणकविजनवचनरचनामासाद्य मामान्यजनवचांमि न रोचते । चक्रवर्तिन अग्रे मामान्यराजानोऽपसरते देवानां नंदीश्रवणेनान्यशन्दा हीनतां व्रजति । गन्धहस्तिनो गंधे अन्यगजेंना मदजलविकला भवंति । केवलज्ञानागमने अन्य ज्ञाना अपसरंनि । वल्पवृक्षाग्रेऽन्ये तरवाः न रानते । सूर्योदये ग्वद्योतस्य का प्रभाः। मुक्तिसौख्याने कानि सौख्यानि । सिंहध्वनेः पुरो यथा अन्य शब्दा न गनते तथा कल्पावसरे अन्यानि शास्त्राणि आदरो न। म कल्पो अनेकविधः-श्रीशत्रुजयकल्पः गिरनारगिर कल्पः कदंव निरिकल्पः अर्बुदाचलकल्पः अष्टापदकल्पः समेतगिरकपः हस्तिनापुरकल्पः मथुरानगरीकल्पः सत्यपुरकल्पः शंखेसरकल्पः स्तंभनतर्थि कल्पः यतीनां विहारकल्पः वस्त्रस्य कल्पसंज्ञा अनेन प्रकारेण अनेके कल्पसंज्ञाः । एके कल्पाः एवं विधा वर्त्तते । यस्य प्रमाणेन श्री पादलिप्ताचायों याक्वायाति साधवो विहृत्य तावत् पंच तीर्थ नमस्कार विधायागच्छंति । एके कल्पास्ते उच्यते येपां प्रमाणेन अदृशीकरणं आकाशगमनं स्वर्णसिद्धिः लक्ष्मी प्राप्ति मित्र पुत बांधवस्वजन प्राप्ति प्रभृति लब्धयः संपद्यते । परमयं कल्पोऽमेय महिमा निधिः इह लोकाभीट सौख्यकारणं । अयं कल्पो दशाश्रुतस्कंधम्याप्टममध्ययन । नवमपूर्वात श्री भद्रवाहु स्वामिनोद्धनः अमेयमहिमानिधानः सर्व पापक्षयं कर: यथा श्रूयमानः द्रुमेषु कल्पद्रुः सर्वकामफलप्रदः यथौषधीषु पीयूष सरोग हरं परं रत्नेषु गुरुडोद्गारं यथा । सर्वविपापहारः मंत्राधिराजो मंत्रेषु यथा सर्वार्थ साधकः । यथा पर्वसु दीपाली सर्वात्मा सुखावहा तथा कल्प: सद्धर्मे शास्त्रेषु सर्व पापहरस्तथा सर्व सिद्धान्त मध्ये
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४ ]
उपगच्छीया पट्टावलिः
श्रीकल्पो गुरुतरः यथा पर्वतानां मध्ये मेरुः तीर्थ माहि शत्रुंजयः दानमध्ये अभयदान अक्षरमध्ये ॐकार देवेष्विन्द्रः ज्योतिपीपु चंद्र गजेंन्द्रेप्वैरावण समुद्रेषु स्वयंभुरमणः तुरंगमेषु रेवत ऋतुषु वसंत मृतिकयांतूरी सुगंधी कम्तुरी धातुषु पीतं मोहनेषु गीतं काष्टेषु चंदनं इंद्रियेषु नेत्रं व्यवहार पर्वमु दीपालिका धर्मशास्त्रेषु कल्पः सर्व पापहरः सर्व दुखक्षयंकरः । यथा जनमेजय राजा अष्टादश पर्व श्रवणात् १८ विप्र हत्या त्यागः यवनिका श्यामत्वं जातं । यथा एकस्मिन् दिवसे जनमेजय राजाग्रे. पुरोहितेन कथितं पूर्वं त्रेतायुगे पांडवैश्च कैारवः कृता अष्टादशाक्षोहिणिमृताः महाभारतो जातः । राजा प्रोक्तं को नाभवत् यत्तेषां निवारयति पुरोहितेन कथितं त्वां न निवारयामि । यतः अद्य दिवसात पष्टे मासे त्वं आखेटके न गंतव्यं यदा गमिष्यति तदा सूकरमृगं तेषां केटके अश्वो न क्षेपणीयं यदा अम्त्रो क्षेपयति तदा सगर्भ मृगी तस्यां वाणं न मोचनीयं यदा मुंचति तदा तस्या उदरं मध्ये पुत्रिका भविष्यति सा न गृहीतव्या यदा ग्राहयति तदा तस्या पाणिग्रहणं न करणीयं यढ़ा प्राणिग्रहणं करोति तदा तस्या पट्टराज्ञपिदं न दातव्यं तस्य कथितं न मान्यं । इत्यादि भविष्यति वचनानि मया तव कथिताः स्युः परं त्वं न तिष्ठसि । अथ पट् मासाः द्वित्रिदिवसोना गता तदा मालाकारेणागत्य राज्ञः कथितं भो राजन् तव वनो सूकरैः भग्नः । राज्ञा अश्वं सज्जीकृत्य तेषां पृष्ठे गतः । ते पूर्वोक्तानि वचनानि सर्वे कृंता गढवालस्य पुत्रिका दत्ता एषा त्वं पालय तेन पालिता परं स्वरूपा । अन्यढ़ा राज्ञा दृष्टा सा परिणीता पूर्ववचनानि सर्वे विस्मृताः राज्ञा पट्टराज्ञी कृता । अन्यदा राज्ञा यज्ञो मंडितः अष्टादशपुराणवेत्तारः अष्टादश ब्राह्मणा आकारिताः यज्ञं यजमानं कश्चिद्दूतेन देशान्तरादागतेन नृपोः आहूतः राज्ञा विप्राणां कथितं अहं उत्तिष्ठामि
कथितं हि यज्ञस्य विघातो भवति परं तव शररिसमाना पट्टराज्ञी अस्ति राजा उत्थित ततः कटके. किचिच्छात्त्रस्य रहस्यो आगतः तं ब्राह्मणाः हसिताः राज्ञी ज्ञातं एते मम हसिता क्रुद्धा राज्ञः कथितं एते विनष्टा मां हसति ततः यदि एते मारयिष्यति तदा तत्र मम संबंधः । राज्ञा ते मारिता अष्टादशधा कुष्टा जातं । ततः पूर्वपुरोहितेन कथितं वरं त्वया न कृतं राज्ञा कथितं अधुना कथय किं करोमि तेन कथितं अष्टादृश पुराणानि निसंदेहानि शृणु । ते चामि- आदि पर्व १ सभा पर्व २ विराट पर्व ३ आरण्यक पर्व उद्यान पर्व५ भीष्म पर्व६ द्रोण पर्व७ कर्ण पर्व ८ शल्य पर्व९ सौतिक पर्व १० गर्मपाल पर्व ११ शान्ति पर्व १२ शासन पर्व १३ आसुमान्य पर्व १४ मेपक पर्व १५ मृशल पर्व १६ यज्ञ पर्व १७ स्वर्गारोहण पर्व १८ ॥ एभिरष्टादशविप्रहत्याक्षयकृतायवनिकाश्यामत्वं जाताः । तथा अयमपि अधुना ये मुनयः उपवासत्रयेण वाचयेति चतुर्विधसंघो अष्टमेन शृणोति तदा तस्मिन्नेव भवे मोक्षः । यदि द्रव्यक्षेत्र कालसद्भावा भवति । न चेत्तदा तृतीयभवे पंचमे भवे सप्तमे भवे अवश्य मोक्षः । पूर्व मुनयः पाक्षिकसूत्रवत् ऊर्ध्वस्थाः कथयति चतुर्विध संघ उद्भर्वसन्नेव श्रणोति परं श्रीवीरनिर्वाणात ९९३ वर्षे गते आनंदपुरे ध्रुवमेन राज्ञः सभायां पुत्रशोकापनोदाय देवार्द्धमुनिना सभासमक्षं वाचितः श्रावकाः तांबूलदानादिप्रभावना कृता । ताद्दनादाभ्य सा रीतिः । परं त्वस्य कालस्य वाचनैवोच्यते न तु व्याख्या । पूर्वे ये पादलिमाचार्य-सिद्धमेनदिवाकरप्रभृतयो अभूवन् तैरपि वाचनैवोक्ता अन्येषां का वार्ता । यतः सिद्धान्ते इत्युक्तमस्ति सव्वनणं जइहु वालुआ इत्यादि । एवंविधम्य कल्पस्य यदहं वाचनामनोरथं करोसिस बाहुभ्यां ममुद्रतरणमभिलषामि । यथा कुब्ज उच्चफलं लातुमिच्छति तथाऽहं यदिच्छामि वाचनां; कर्तुं तत् संघस्य सांनिध्यं पुनः गुरूणां प्रासादः । यद्वर्षाकाले मयुरो नृत्यं करोति तज्जलधरगर्जिनप्रमाणं । दृपद्रूपचंद्र
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जैन साहित्य संशोधक कांतमणिर्यदमृतं स्तूते तच्चंद्रस्य प्रमाणं । सूर्यसारथी रविःआरूणः पंगोपि यदाकाशमुल्लंघयति तत्सूर्यस्य प्रमाणं । पुत्तालिका नृत्यं करोति तदिदजालिकस्य प्रमाणं । तथाऽहं मंदबुद्धिः मूर्खशिरोमणिः प्रमाणे सप्रमाणता नास्ति, लक्षणे सल्लक्षणता न, अलंकारस्याऽलंकरणं नहि, साहित्ये साहित्यं नास्ति, छंदासि सुछंदता न; एवंविधो पि वाचनाय साहसं करोमि तत् सद्गुरूणां प्रसादः। पुरातनैर्व्याख्या कृता। ममापि युक्तिः । कथं
जं देवो सायरो लहरिगज्जतनीरपडिपुन्नो । ता किंगामतलाओ जलमरिओ लहरिगा देऊ ॥ १॥ जइ भरह भावछंदे नच्चइ नवरंग चंगमा तरूणी। ता किंगामगहिल्ली तालिछंदेन नच्चेइ ॥ २॥ जइ दुद्धधवलखीरी तडफडइ विविहभंगेहि । ता कुक्कसकणसहिया रव्वडिया मा तडव्वडह ॥३॥ ___ अहं यद्वेमि तद्गुरूणां प्रसादः । टोलो रोलो रुलंतो अहियं विन्नाण नाण परिहीणो ।दिव्व वंदणिज्जो विहिओ गुरुसुत्तहारेण ॥४॥
ते गुरवः श्रीपार्श्वनाथसंतानीयाः । १ श्रीपार्श्वनाथशिष्यः प्रथमो गणधरः श्रीशुभदत्तः। २ तत्पट्टे श्रीहरिदत्तः । ३ तत्पट्टे श्रीआर्यसमुद्रः । ४ तत्पट्टे श्रीकेशीगणधरः तेन परदेशीनृपः प्रतिवोधितः । राजप्रश्नीयउपांगे प्रसिद्धः ।
५ तत्पद्देश्रीस्वयंप्रभसूरिः । (स्वयंप्रभसूरिशिष्य बुद्धकीर्तिसुं वौधमत नकिल्यो, आचारांग टीकासु जाणनो ) अन्यदा स्वयंप्रभसूरि देशनां ददतां उपरि रत्नचूडविद्याधरो नंदीस्वरे गच्छन् तत्र विमानः स्तंमितः । तेन चिंतितः मदीयो विमानः केन स्तमितः । यावत् पश्यति तावदधो गुरुदेशनाददंतं पश्यति । स चिंतयते मयाऽविनयः कृतः यतः जंगमतीर्थस्य उल्लंघनं कृतं । स आगतः गुरुं वंदति धर्म श्रुत्वा प्रतिवुद्धः । स गुरुं विज्ञपयति मम परंपरागता श्रीपार्श्वजिनस्य प्रतिमास्ति तस्या वंदने मम नियमोऽस्ति सा रावणलंकेश्वरस्य चैत्यालये अभवत्। यावत् रामेण लंका विध्वांसता तावद् मदीयपूर्वजेन चंद्रचूडनरनाथेन वैताव्य आनीता। सा प्रतिमा मम पाश्चस्ति। तया सह अहं चारित्रं ग्रहीष्यामि। गुरुणा लाभं ज्ञात्वा तस्मै दीक्षा दत्ता । क्रमेण द्वादशांगी चतुर्दश पूर्वी वभूव गुरुणा स्वपदे स्थापितः। श्रीमद्वीरजिनेश्वरात् द्विपंचाशतवर्षे (५२) आचार्य पदे स्थापितः । पंचाशतसाधुभिसह धरां विचरति । श्रीलक्ष्मीमहास्थानं तस्याभिधानं १ पूर्व नाम गुजरातिमध्ये कृतयुगे रयणमाला २ त्रेतायुगे रयणमाला ३ द्वापरे श्रीवीरनयरी ४ कलियुगे भीनमाल ६ तत्र श्रीराजाभीमसेन तत्पुतश्रीपुंज तत्पुत्र उत्पलकुमार अपरनाम श्रीकुमार तस्य वांधव श्रीसुरसुंदर युवराज राज्यमारधुरंधर । तयोरमात्य चांद्रवंशीय द्वौ भ्राता तत्र निवासी सा०उहड १ उद्धरण २ लघु भ्राता गृहे सुवर्ण संख्या आप्टादश कोट्यः संति । वृदभ्रातुहे ९९ नवनवति लक्षा संति । ये कोटीश्वरास्ते दुर्गमध्ये वसंति ये लक्षश्वरास्ते बाह्ये वसंति । तत ऊहडेन एकलक्ष भ्रातुः पार्थे उच्छीणे याचितं । ' ततो वांधवेन एवं कथितं भवते विना नगरं उध्वसमस्ति, भवतां समागमे वासो भविष्यति । एवं ज्ञात्वा राजकुमार ऊहडेन आलोचितवान् नूतनं नगरं वसेयं ततो मम वचनं अग्रे आयातः । ढीलीपुरे राजा श्री साधु तस्य उहडेन ५५ तुरंगमा भेटिकृता उवएसा संतुष्टो ददौ । ततो भीनमालात् अष्टादश १८ । सहस्र कुटुंव अगात् । द्वादश योजना नगरी जाताः। तत्र श्रीमद्रत्नप्रभसूरीपंचसयासीप्य समेत लुणद्रही समायाति । मासकल्प अरण्ये स्थिता । गोची मुनीश्वरा ब्रजति परं भिक्षा न लभते । लोका मिथ्यात्व वासिताः यादृशा गता तादृशा आगता मुनीश्वराः । पाताणि प्रतिलेप्य मासं यावत् संतोषेण स्थिताः पश्चात् विहारः कृतः । पुनः कदाचित् तत्रायातः । शासनदेव्या कथितं भो आचार्य अत्र चतुर्मासकं कुरु ।
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उपकेशगच्छीया पट्टावलिः तव महालामो भविष्यति । गुरुः पंच त्रिंशत् मुनिभिः सह स्थितः । मासी द्विमासी तृमासी चतुर्मासी उप्पोसित कारिका । अथ मंत्रीश्वर उहड सुतं भुजगेन दप्टः। अनेक मंत्रवादिनः आहूताः परं न कोपि समर्यन्तैः कथितं अयं मृतः दाघो दयितां । तस्य स्त्री काप्टभक्षणे स्मशाने आयाता । श्रेष्टस्य महान् दुःखो जातः । वादित्रान् आकर्ण्य लघुशिप्यः तत्रागतः झंपाणो दृष्ट्वा एवं कथापयति भो ! जीवितं कर्म ज्वालयत तैः श्रेष्टिने कथित एषः मुनीश्वरः एवं कथयति श्रेष्टिना झंपाणो वालितःशुल्लकः प्रनष्टः गुरुः पृप्ठे स्थितः। मृतकामानीय गुरु अने मुंचति श्रेष्टि गुरु चरणे शिरं निवेश्य एवं कथयति भो दयालु मम देवो रुष्टः मम ग्रहो शून्यो भवति । तेन कारणेन मम पुत्रमिक्षां देहि । गुरुणा पासु जलमानीय चरणी प्रताल्य तस्य छंटितं। सहसात्कारेण सज्जो वभूव हर्ष वादित्राणि वमव । लोकः कयितं श्रेष्टि सुतः नूतन नन्मो आगतः । श्रेष्टिना गुरूणां अग्रे अनेकमणि मुक्ताफल सुवर्ण वल्लादि आनीय भगवान् गृह्यतां । गुल्या कथितं मम न कार्य परं भवद्भिः जिन धम्मों गातां । सपाद लक्ष श्रावकानां प्रति बोधि कारक । पूर्व श्रेष्ठिना नारायण प्रासादं कारयितुमारव्यं । स दिवसे करोति रात्रों पतति सर्वे दशाननः पृष्टा न कोपि उपायो कयितं तेन रत्नप्रमाचार्यों प्रष्ट:-~-भगवान् मम प्रासादो रात्रों पतति। गुरुणा प्रोक्तंकस्य नामेन कारयतः । नारायण नामेन । एवं नहि महावीर नामेन कुरु मंगलं भविष्यति । प्रासादस्य विघ्नं न भविष्यति श्रेष्टिना तथैव प्रतिपन्न । अथ शामनदेव्या गुरुणां कथितं हे मगवन् अम्य प्रासाद योग्यं मया देव गृहात् उत्तरन्यां दिशी लूणद्रहाभिधानं इंगरिकायां श्री महावीर विवं कारयितुमारव्यं । तत्र तेन श्रेष्टिना गोपाल वचनात् गोदुग्ध सावकारणं ज्ञात्वा सर्वेपि दर्शनिनः पृष्टाः तैः पृथक् पृथक् भाषया अन्यदन्यदुक्तं । ततः श्रेष्टिना स आचार्योऽभिवंद्य पृष्टः नतः शासन देव्या वाक्यात् आचायों ज्ञात्वा एवं कथयति तत्र त्वत्प्रासाद योग्य विवो भविष्यति परं षट् मासैः मार्द्ध सप्त दिनः निष्कासनीयं । श्रेष्टि उच्छुक संजातः । किंचिनैर्दिनः निष्कासित: निंबु फल प्रमाण हृदयस्य प्रन्यीद्वय सहित। आत्रायः प्रोक्तं अद्यापिकिंचित् असंपूर्ण विवं विलंबन्न श्रेष्टिना प्रोक्तंगुरूणां कर प्रासादात् संपूर्ण भविष्यति। तेनावसरे कोरंटकम्य श्राद्धानां आव्हानं आगतं । भगवन् प्रतिष्ठार्थमागच्छ । गुरुणा कयितं मुहूर्त वेलायां आगच्छामि।।
समत्या ७० वत्सराणां चरम-जिनपतेर्मुक्तजातस्य वर्षे पंचम्यां शुक्लपक्ष सुरगुरुदिवसे ब्रह्मणः सन्महुत्ते । रत्नाचार्यः सकलगुणयुत्तः सर्वसंधानुज्ञातैः श्रीमद्वीरस्य विवे मवशतमयने निर्मितेयं प्रतिष्ठा :॥ १ ॥ उपकेशे च कोरटे तुल्यं श्री वीरविंबयोः
प्रतिष्ठा निर्मिता शक्त्या श्रीरत्नप्रभसूरिभिः ॥ २॥ निजलपेण उपकेसे प्रतिष्टा कृता वैक्रिय रूपेण कोरंटकेप्रतिष्टा कृता श्राद्धै द्रन्यन्ययः कृतः। ततस्तेन श्रेष्ठिना श्रीऔपकेश पुरस्य श्रीमहावीर चिंत्र पूजा आरात्रिका स्नात्रकरण देव वंदनादिविधिः श्रीरत्नप्रमाचार्यात् शिक्षिता । तदनंतरं मिथ्यात्वामावात् श्रावकत्वं केषांचित् श्रेष्टिसंबंधिनां संजातं। ततः आचार्येण ते सम्यक्त्वधारी कृता । एकदा प्रोक्तं भो यूयं श्रादा तेषां देवीनां निर्दयचित्ताया महिष बोत्कटादि
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जैन साहित्य संशोधक जीववधास्थि भंगशब्द श्रवण कुतुहलप्रियया अविरतायाः रक्तांकितभूमितले आर्द्रचर्मवद्धवंदनमाले निष्ठुरजनसेवितं धर्मध्यानविद्यापके महावीमत्सरोद्रे श्री सच्चिकादेवि गृहे गंतुन वुध्यते । इति आचार्यवचः श्रुत्वा ते प्रोचुः प्रमो युक्तमेतत् परं रौद्रा देवी यदि छलिस्याम तदा सा कुटुंवान् मारयति। पुनराचार्यैः प्रोक्तं अहं रक्षां करिस्यामि । इत्याचार्यवाक्यं श्रुत्वा ते देवी गृहेगमनात् स्थिताः। आचार्याणां प्रत्यक्षीय देन्या सकोपमित्युक्तं आचार्य मम सेवकान् मम देवगृहे आगच्छमानान् निवारणाय त्वं न भविष्यति । इत्युक्त्वा गता देवी परंसातिशय कालभावात् महाप्रभावात् अनेकसुरकृतप्रातिहार्ये आचार्ये देवी न प्रभवति । एकदा छलं लब्ध्वा देव्या आचार्यस्य कालवेलायां किंचित् स्वाध्यायादि रहितस्य वामनेत्रभ्राधिष्टिता। वेदाना जाता । आचार्यैः यावत् सावधानीभूय पीडायाः कारणं चिंतितं तावत् देवी प्रत्यक्षीभूय इत्ति प्रोक्तं मया पडिा कृता । अहं स्वशक्त्या त्वां स्फेटयिष्यामि इति सावष्टंमं आचार्योक्तं श्रुत्वा समयाकूतं सा विनयं प्रोक्तं भवादृशानां ऋषीणां विग्रहं विवादो न युक्तः । यदि त्वं कडमडडं ददासि तदाहं वेदनां अपहरामि । आचंद्राकै त्वत्किंकरी भवामि इति श्रुत्वा आचार्यः प्रोक्तं कडडमडडं दापयिप्यामि । इत्युक्ता गता देवी। प्रभाते श्रावकानामाकार्य तैः पक्वान्न खज्जकादि सुंडकद्वयं कर्पूरकुंकुमादिभोगश्च आनीय श्रीसच्चिकादेवी देवगृहे श्रीरत्नप्रभाचार्यः श्रावकैः साधै गतः। ततः श्रावकैः पार्धात् पूजां कराप्य वामदक्षिणहस्ताम्यां पक्वान्नसुंडकादि चूर्णयद्भिः आचार्यैः प्रोक्तं देवी कडडमडडं दत्तमस्ति । अतः परं ममोपासिका त्वं इति वचनानंतरं एव समीपस्थ कुमारिका शरीरे आवेशः कृतः । ततः प्रोक्तं प्रभो मया अन्य कडडमडडं याचितं अन्यं दत्तं । आचार्यैः प्रोक्तं त्वया वधोयाचितः स तुलातुं दातुं न वुध्यते इत्यादिसिद्धान्तवाक्यं कुमारी शरीरस्था श्रीसच्चिकादेवी सर्वलोक प्रत्यक्ष श्रीरत्नप्रभाचार्यैः प्रतिबोधिता । श्रीउपकेशपुरस्था श्रीमहावीरभक्ता कृता सम्यक्त्वधारिणी संजाता । आस्तां मांसं कुसुममपि रक्तं नेच्छति । कुमारिका शरीरे अवतीर्णा सती इति वक्ति भो मम सेवका यत्र उपकेशपुरस्थं स्वंयभू महावीरविवं पूजयति श्रीरत्नप्रभाचार्य उपसेवति भगवन् शिष्य प्रशिप्यं वा सेवति तस्याहं तोपं गच्छामि। तस्य दुरितं दलयामि यस्य पूजा चित्ते धारयामि। एतानि शरीरे अवतीर्णा सा कुमारी कथ्यतां । श्रीसञ्चिकादेव्या वचनात् क्रमेण श्रुत्वा प्रचुरा जनाः श्रावकत्वं प्रतिपन्नाः । क्रमेण श्रीरत्नप्रभाचार्य ८४ वर्षे स्वर्ग गतः।
८ तत्पट्टे यक्षदेवाचार्यः माणभद्र यक्ष प्रतिबोध कर्ता संघस्य विष्नो निवारितः । ९ तत्पट्टे कक्कसूरि। १० तत्पटे देवगुप्तसार । ११ तत्पट्टे सिद्ध सूरि । १२ तत्पट्टे रत्नप्रम सूरि । १३ तत्पट्टे यसदेव सूरि ।
१४ तत्पट्टे कक्क सूरि। स्वयंभूश्रीमहावीर स्नात्र विधि काले, कोसौ विधिः कदा किमर्थं संजातः इत्युच्यते-तस्मिन्नेव देव गृहे अष्टान्हिकादिकमहोत्सवं कुर्वतास्तेषां मध्ये अपरिणतवयसा केषांचित् चित्ते इयं दुर्बुद्धिः संजाताः। यदुत भगवत् महावीरस्य हृदये ग्रन्थी द्वयं पूजां कुर्वतां कुशोमा करोति अतः मशकरोगवत् छेदयितां को दोषः। वृद्धैः कथितं अयं अघटितः टंकिना घातो न अर्हः। विशेषतो अस्मिन् स्वयंभू श्री महावीर विवे । वृद्धवाक्यमवगण्य प्रच्छन्नं सूत्रधारस्य द्रव्यं दत्वा ग्रन्थिद्वयं छेदितं तत्क्षणादेव सूत्रधारो मृतः। ग्रन्थिच्छेदप्रदेशे तु रक्त धारा छुटिता । तत उपद्रवो जातः । तदा उपकेशगच्छाधिपति श्रीकक्क सूरिमिः पायम्दिः चतुर्विधसंघेनाहूता वृत्तांतं कथितं । आचार्यैः चतुर्विधसंघ स
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उपकरागच्छीया पट्टावलिः
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हितेन उपवास त्रयं कृतं । तृतीय उपवास प्रान्ते रात्रिसमये शासनदेवी प्रत्यक्षी भूय आचार्याय प्रोक्तं-हे प्रभो न युक्तं कृतं वालश्रावकैः मद् घटितं बिंबं आशातितं । कलानीशकृतं अतोनंतरं उपकेशनगरं शनैः २ उपभ्रंसं भविष्यति । गच्छे विरोधो भविष्यति । श्रावकाणां कलहो भविष्यति । गोष्ठिका नगरात् दिशोदिशं यास्यति । आचार्यैः प्रोक्तं परमेश्वरि भवितव्यं भवत्येव परं त्वं श्रवतु रुधिरं निवारय । देव्या प्रोक्तं घृत घटेन दधि घटेन इक्षुरस घटेन दुग्घ घटेन जल घटेन कृतोपवासत्रय यदा भविष्यति तदा अष्टादशा गोत्र मेलं कुरु; मी १ तातड गोत्रं । २ बापणा गोत्रं । ३ कर्णाट गोत्रं । ४ वल गोत्रं । ५ मोराक्ष गोत्रं । ६ कुल हट गोत्रं । ७ विरिहट गोत्रं । ८ श्री श्रीमाल गोत्रं । ९ श्रेष्टिगोत्रं । एते दक्षिण बाहु । १ सुचती गोत्रं । २ आइचणा गोत्रं । ३ चारवेडया गोत्रं । ४ भाद्र गोत्रं । ५ चींचट गोत्रं ( देशलहरासाखा) । ६ कुंभट गोत्रं । ७ कनउजया गोत्रं । ८ डिंडभ गोत्रं । ९ लघु श्रेष्टि गोत्रं । एते वाम बाहु स्नात्रं कर्तव्यं नान्यथाऽशिवो शान्तिर्भविष्यति । मूल प्रतिष्ठानंतरं वीर प्रतिष्ठा दिवसातीते शतत्रये ३०३ अ नेहासि ग्रंथियुगस्य वीरोरस्थस्य भेदोऽजनि दैव योगात् इत्युक्तं श्रीमदुपकेशगच्छचरित्र सूत्रे श्लोक - १७२ १५ तत्पट्टे श्रीदेवगुप्तसूरि । १६ तत्पट्टे सिद्ध सूरि । १७ तत्पट्टे रत्नप्रभ सूरि । १८ एवं अनुक्रमेण श्रीवीरात् वर्षे १८५ श्रीयदेवसूरिर्बभूव महाप्रभावकर्ता द्वादशवर्षे दुर्भिक्षमध्ये वज्र स्वामी शिष्य वज्रसेनस्य गुरोः परलोकप्राप्ते यक्षदेवसूरिणा चत्वारि शाखाः स्थापिताः
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२१ तत्पट्टे सिद्ध सूरि ।
१९ तत्पट्टे कक्कसूरि । २२ तत्पट्टे रत्नप्रभसूरि । २५ तत्पट्टे देवगुप्तसूरि ।
२० तत्पट्टे देवगुप्तसूरि । २३ तत्पट्टे यक्षदेव सूरि २६ तत्पट्टे सिद्ध सूरि ।
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२४ तत्पट्टे कक सूरि । २७ तत्पट्टे रत्नप्रभसूरि ।
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२९ तत्पट्टे कक्कसूरि ।
३० तत्पट्टे देवगुप्त सूरि ।
२८ तत्पट्टे यक्षदेव सूरि ३१ तत्पट्टे सिद्धसूरि ।
३२ तत्पट्टे रत्नप्रभ सूरि
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३३ तत्पट्टे यक्षदेव सूरि ।
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३ ४ तत्पट्टे ककुदाचार्य । तत्पट्टे देवगुप्ताचार्य । तत्पट्टे सिद्धाचार्य । एतानि पंच उपकेशगच्छाधिपाचार्याणां मूलनामानि । तत्पट्टे कक्कसूरि द्वादश वर्षेयावत् षष्ट तपं आचाम्लसहितं कृतवान् । तस्य स्मरणस्तोत्रेण मरोटकोटे सोमकश्रेष्टिस्य श्रृंखला त्रुटिता । तेन चिंतितं यस्य गुरोः नामस्मरणेन बंधनरहितो जातः एकवारं तस्य पादौ वंदामि । स भरुकच्छे आगतः । अटणवेलायां सर्वे मुनीश्वरा अटनार्थं गतास्ति । सच्चका
अग्रे स्थितास्ति । द्वारो दत्तोस्ति तेन विकल्पं कृतं । शच्यका शिक्षा दत्ता मुखे रुधिरो वमति । मुनीश्वरा आगता । वृद्धगणेशेन ज्ञातं भगवन् द्वारे सोमकश्रेष्टी पतितोस्ति । आचार्यैः ज्ञातं अयं सच्चिकाकृतं । सच्चिका आहूता कथितं त्वया किं कृतं । भगवन् मया योग्यं कृतं । रे पापिष्ट यस्य गुरुनामग्रहणे बंधनानि श्रृंखलानि त्रुटितानि संति स अणाचारे रतो न भविष्यति । परं एतेन आत्मकृतं लब्धं । गुरुणा प्रोक्तं कोपं त्यज शांतिं कुरु ।तया कथितं यदि असौ शान्तिर्भविष्यति तदा अस्माकं आगमनं न भविष्यति प्रत्यक्षं । गुरुणा चिंतितं भवितव्यं भवत्येव स सज्जक्कृितः । सच्चिकावचनात् द्वयोर्नाम भंडारे कृताः श्रीरप्रसूरि अपरश्री यक्षदेवसूरि एते सप्रभावा एतदनेहसि अस्य उपेकशगणस्य द्वाविंशति शाखा नामानि दत्तानि
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जैन साहित्य संशोधक १ नागेन्द्र. २ चन्द्र ३ निवृत्ति ४ विद्याधराणां स्थाने १ सुंदर २ प्रभ ३ कनक ४ मेरु ५ सार ६ चंद्र ७ सागर ८ हंस ९ तिलक १० कलस ११ रत्न १२ समुद्र १३ कल्लोल १४ रंग १५ शेखर १६ विशाल १७ राज १८ कुमार १९ देव २० आनंद २१ आदित्य २२ कुंभ इति । ततः तेनैव कक्कसूरिणा अबूंदाचलमेखलायां तृपार्तस्य संघस्य डंड स्थापनेन जलं प्रगटि कृतं । तेनैव साधर्मिक वात्सल्ये जेसलपुरात् भरुकच्छे घृतो आनीतः।।
३५ तत्पट्टे श्रीदेवगुप्तसूरि । तत्पदमहोत्सवे पाठकाः पंच स्थापिता जयतिलकादि। तेन जयतिलकेन श्रीशान्तिनाथचरित्रं निर्मितं ।।
३६ तत्पट्टे सिद्ध सूरि। ३७ तत्पट्टे कक्क सूरि। ३८ तत्पट्टे देवगुप्तसूरि । ३९ तत्पट्टे सिद्धसूरि। ४० तत्पट्टे कक्क सूरि । ४१ तत्पट्टे देवगुप्तसूरि। सं०९९५ वर्षे बभूव ।
४२ क्षत्रीयवंशोत्पन्नत्वात् वीणावादने तत्परं क्रियाविषयं सिथिलः । ततः चतुर्विधसंघेन तत्पट्टे वीस विस्वोपकारकः स्थापितः श्रीसिद्धसूरिः ।
४३ तत्पट्टे कक्कसूरिः पंचप्रमाणग्रन्थकर्ता । ४४ तत्पट्टे संवत् १०७२ वर्षे श्रीदेवगुप्तसूरि । ४५ तत्पट्टे नवपद प्रकरण-स्वोपज्ञटीकाकर्ता सिद्धसूरि । ४६ तत्पट्टे कक्क सूरि । ४७ तत्पट्टे देवगुप्तसूरि । ४८ तत्पट्टे सिद्ध सूरि । ४९ तत्पट्टे कक्कसूरि ।
५० तत्पट्टे संवत् ११०८ वर्षे देवगुप्त सूरिभूव । भीनमाल नगरे साह भईसाक्षेन पद महोसवे सप्तलक्ष धन व्ययो कृतः। ततोः गुरुणा पादप्रक्षाल्येन जले विषापहार लब्धी येन भइसाक्ष श्रेष्ठिना श्री देवगुप्त सूरेः पद महोत्सवः कृतः। स पूर्व डिंडवाण पूरे भइसा भार्या छगणाणि स्थाप्यते ततो गुरूपदेशेन ज्वालितानि छगणानिरुप्यमयानि भवति ततो तेन रुप्येन गदहिया मुद्रा पातिता । भइसाक्ष माता श्री शत्रुजय यात्रागता खरच तुट्यते पत्तन मध्ये ईश्वरश्रेष्ठिनः पार्थे खरचो याचिता। तेन पृष्टं भवती कस्य माता तेन कथितं अहं भइसाक्ष माता । तेन हसितं अस्माकं गृहे पानीयमानयंति तेषां माता इति वित कितं। ततोऽनंतरं पश्चात् धनं गृहीत्वा यात्रां कृत्वा संघभक्ति कृत्वा गृहे जगाम । पुत्रेण प्रष्ट मातः मम कियभूमी नामं वर्तते । माता कथितं भवतां प्रतोली द्वारं यावन्नाममस्ति । तेन वचनेन असंतोषो जातः। श्रेष्टि हास्यवचनं कथितं । तद्वचनं वालयिस्यामि तदा द्वितीय वेला भोजयिप्यामि । एवं प्रतिज्ञां कृत्वा पत्तने सामान्यवेपे द्वार हट्टे गतः । भो श्रेष्टि रूप्यं ग्रहिप्यास । तेन कथितं रोषभरेण यत्किचिदानयिष्यसि तत्सर्वे गृह्णामि । संचकारो याचितः तेन युष्माभिर्दीयते सवालक्ष मुद्रिका दत्ता । ततो गर्दभयानि भारयत्वा पत्तने जगाम । पृष्टं एतत्कि रुप्यं वर्तते एवं श्रुत्वा श्रेष्टिनः चमत्कृताः स श्रीष्टि समग्र पत्तनश्रेष्टि मेल. यित्वा चरणे पपात । भइसाक्षस्तदेव कथितं गुर्जरधरीत्रीमध्ये महिषेण पानीयमानयेतुं तदा मोचयामि । तद्धनं देशे सप्तक्षेत्रे व्ययो कृतः । ततो गादिया इति शाखा जाता ।
५१तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि । ५२ तत्पट्टे श्री कक्कसूरि संवत् ११५४ वर्षे वभूव । येन हेमसूरि कुमारपाल वचसा कृपाहीना मुनिवरा निष्कासिता ।
५३ तत्पट्टे देवगुप्तसूरि येन लक्ष द्रव्यं त्यजितं । ५४ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि । ५५ तत्पट्टे संवत् १२५२ श्री ककरिबभूव येन मरोट कोटः प्रगटी कृतं ।
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१०]
उपकेशगच्छीया पट्टावलिः १६ तत्पट्टे श्री देवगुप्तसूरि । ५७ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि। ५८ तत्पट्टे श्री कक्कसूरि ।
६० तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि। ६१ तत्पट्टे श्री कक्कसूरि । ५९ तत्पट्टे श्री देवगुप्तसूरि । ६२ तत्पट्टे श्री देवगुप्तसूरि । ६३तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि । ६४तत्पट्टे श्री कक्कसूरि । ६५तत्पट्टे श्रीदेवगुप्तसूरि ।
६६ तत्पट्टे संवत् १३३० वर्षे चीचट गोत्रेऽतएव उवरराय स्थापितः श्री अर्बुदाचल तलहटीकालंकारो वरणीनगरतः शा० देशलेन श्री शत्रुजयादि सप्त तीर्थेषु चउदश १४ कोटि द्रव्य व्ययेन चउदश यात्रा कृता चतुर्दश वारान् । प्रथमं देवगुप्तसूरि तत्पट्टे सिद्धसूरि प्रमुख समग्र सुविहित सूरि हस्तेन संघपति तिलकः कारितं । उक्तं च ।
श्री देशलः सुकृत पेसल वित्त कोटी। चंचच्चतुर्दश जगज्जनितावदातः । शत्रुजय प्रमुख विश्रुत सप्त तीर्थः । यात्रा चतुर्दश चकार महामहेन ॥ १ ॥
तत्पुत्र समरसहजाभ्यां विमलवसत्युद्धारः कारितः संवत् १३७१ वर्षे । तथा एवमपरेरपि तिर्थयात्रा कृत्वा संघपतेः पदं स्वाकीरितं इत्युक्तमुपदेशरसाले । साह देसलेन पाल्हणपुरे श्री सिद्धसूरि पद महोत्सवो कृतः । तेन सिद्धसूरिणा समराग्रहेण शत्रुजये षष्ठोद्धारे श्री आदिनाथस्य प्रतिष्ठा कृता ।
६७ तत्पट्टे संवत् १३७१ वर्षे साह महजागरेण श्री कक्कसूरि पढ़ महोत्सवो कृतः । येन गच्छप्रवंधः कृतः । तत्र देसल पुत्राः समर-सहजानां चरित्रमस्ति । एवं उपकेश गच्छे अनेक प्रमावका ग्रन्थकर्तारो निरीहा सूरयो अभूवन् तेपां कियद् गण्यते एवं
६८ तत्पट्टे श्री देवगुप्तसूरि वभूवः । कवि सार्वभौम विद्वच्चक्रचूडामणि सिद्धन्तपारगामी सर्वशास्त्रपारंगत । श्री सारंगधरेण संवत् १४०९ वर्षे दिल्यां मध्ये पढ़ महोत्सवो विहितः सुवर्णसहस्र पंचक व्ययेन ।
६९ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरिः संवत् १४७५ वर्षे गुणभूरय अणहिलपाटक पत्तने चोरवेडीया गोत्रे साह झावा नीवागरेण पद महोत्सवः कृतः गुरूणां ।
७० तत्पट्टे संवत् १४९८ वर्षे श्री कक्कसूरयः चित्रकुटे चोरवेडीया गोने साह सारंग सोनागर राजाभ्यां पढ़ महोत्सवो कृतः येन चतुर्दश शत चतु: चत्वारिंसत् अधिक १४४४ कच्छ मध्ये अमारी प्रवर्ताविता । याम श्री वीरभद्रः प्रतिवोधितः। संस्कृतप्राकृतपरमामृतप्रवाहा विरचित निखिलशास्त्रावगाहाः वाणीविलासवाचस्पतितुल्याः सकलकलारंजितकोविदाः धर्मबुद्धिधुरंधरा सकलपुरंदराः ।
___७१ तत्पट्टे सं० १५२८ वर्षे जोधपुरे श्रेष्टि गोत्रे मंत्रीश्वर जयतागरेण श्री देवगुप्तसूरेः महोत्सवे नव महोत्सवो कृतः । श्री पार्श्वनाथस्य प्रासादः कारितः पौषधशालायां च । श्री शत्रुजय यात्रा कृता । पंच पाठकाः स्थापिताः । तेषां नामानि श्री धनसार १ उ० देवकल्लोल २ उ० पद्मतिलक ३ उ० हंसराज ४ उ. मतिसागर ५।।
___७२ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरया. गुणभूरयः । श्री श्रेष्टि गोत्रे मंत्रीश्वर दशरथात्मजेन मनीश्वर लोलागरण संवत १५६५ वर्षे मेदिनीपरे पट महोत्सवः कृतः ।
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जैन साहित्य संशोधक
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७३ तत्पट्टे श्री कक्कसूरयः श्री जोधपुरे मंवत् १९९९ वर्षे गच्छाधिपो जातः श्रेष्टि गोत्रे मंत्रि जगात्मजेन मंत्रीश्वर धरमसिंहेन पढ़ महोत्सवो कृतः ।
७४ तत्पट्टे श्री देवगुप्त सूरयः श्री श्रेष्टी गोत्रे मंत्रि सहसवीर पुत्रेण संवत् १६३१ मंत्री देवागरेण पढ़ महोत्सवः कृतः ।
७९ तत्पट्टे विद्यमान संवत् १६९९ वर्ष चैत्रसुदि १३ सिद्धसूरिर्वभूव श्री श्रेष्टी गोने मंत्रि मुगुट मंत्रि शेखर सर्व विश्व विख्यात राज्यभार धुरंधर मंत्रीश्वर महामंत्रि श्री ठाकुरसिंह विक्रमपुरे महा महोत्सवेन पढ़ महोच्छवो कृतः ।
७६ संवत् १६८९ वर्षे फाल्गुण शुद्धि ३ श्री ऋकसूरिर्वभूव । श्री श्रेष्टि गोत्रे मंत्रि मुगुट मंत्रि टाकुरसिंह तत्पुत्र मं० सावलकेन तत्पत्नी साहिवदेन पढ़ महोत्सवो कृतः ।
संवत् १७२७ वर्षे मृगशिर मुद ३ दिने श्री देवगुप्तमूरिर्वभूव श्रेष्ट गोत्रे मंत्रि ईश्वरदासेन पढ़ महोत्सवो कृतः ।
७८ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि संजातः । श्रेष्टि गोत्रे मंत्रि सगतसिंहेन पट्टाभिषेकः कृतः संक्र १७६७ वर्षे मृगशिर सुदि १० दिने जातः ।
७९ तत्पट्टे श्री कक्क्सूरिर्वभूव । मंत्रि दोलतरामेन सं० १७८३ वर्षे आसाढ वढि १३ दिने पढ़ महोत्सवो कृतः ।
८० तत्पट्टे देवगुप्तसूरि सं० १८०७ वर्षे बभूव । मुहता दोलतरामजीना पढ़ महोत्सवो कृतः । ८१ तत्पट्टे श्री सिद्धमूरिर्वभूव । संवत् १८४७ वर्षे महासुदि १० दिने पट्टाभिषेकः संजातः । मुं० श्री खुशालचंद्रेण पदमहोत्सवो कृतः । तेषां प्रासादात् अहं कल्पवाचनं करोमि । पुनः दीक्षा गुरु प्रसादात् ८२ तत्पट्टे श्रीकक्कसूरिर्वभूव । संवत् १८९१ रा वर्षे चैत्र सुद ८ अष्टमीदिने पट्टाभिषेकः संजातः । वैद्यमुं० टाकुर सुन मुं० सिरदारसिंह गृहे समस्त श्रीसंत्रेन बीकानेर मध्ये पदमहोत्सवः कृतः ।
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८३ तत्पट्टे श्रीदेवगुप्तसूरिर्बभूव । संवत् १९०९ वर्षे भाद्रवा सुदि १३ चंद्रवासरे पट्टाभिषेकः संजातः । श्रेष्टि गोत्रे वैद्य मुहता शाखायां प्रेमराजो तस्य परिवारे हठीसिंघजी ऋषभदासजी मेवराजजीकानां उनसँगे गृहीत्वा श्रीफलोधीनगरमध्ये समस्त वैद्य मुहता पट्टाभिषेको कृतः । तेषां प्रासादात् अहं कल्पवाचनां करोमि ।
८१ तत्पट्टे श्रीसिद्धसूरिर्बभूव । संवत् १९३९ वर्षे मात्र कृष्ण ११ दिने पट्टाभिषेक संजातः श्रष्टि गोत्रे वैद्यमुहता शाखायां ठाकुर सुत महारावजी श्रीहरि सिंघजी पढ़ महोत्सवः कृतः वृद्ध गृहे मध्ये धांसीवाळा सुरजमलजी हस्तात् समस्त श्रीसंघसहितेन विक्रम पुरमध्ये देवदुप्य राज्य द्वारात् समागता । तेषां प्रासादात् अहं कल्पवाचनां करोमि इति ॥
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उपकेशगीया पट्टावलिः .श्रीरत्नप्रभसूरिस्तोत्रम् ॥
॥श्रीमद्रत्नप्रभमुन्सिन्म्यो नमः ।। वामेयपट्टे शुमदत्तनामा तच्छिप्यजातो हग्दत्तमुम्न्यः ।। आर्यावधिः केशी स्वयंप्रभोपि सूरीशरत्नप्रभलब्धिपात्रः ।। १ ।। मन्यावलीकमलकाननराजशृंगं श्रियःप्रवृत्तिमुनिमानमग़नहमं ॥ श्रीपाश्वनाथपदपकजगकं रत्नप्रमं गणव सनत स्तर्वामि ॥२॥ विद्याद्रपदाकलिनोपि कामं श्रीमत्स्वयंप्रभुगिरः परिपीय योत्र । दीक्षावधुमुदवहन्मुद्रमादयानो ग्न्नप्रभम्म दिशताकमलाविलामं ॥ ३ ॥ मंत्रीश्वरोहहसुनो मुजगेन दृष्टः संजीवितः मकललोकमभाममतं ।। यन्यांत्रिवारिम्हपुप्कमित्रनेन रत्नप्रभम्म दिशतात्कमलाविलामं ॥ ४ ॥ मिथ्यात्वमोहतिमिगणि विध्य येन भव्यात्मनां मनमि तिग्मचव विश्थे । मंदर्शितं मालदर्शनतत्त्वन्पं रत्नप्रभम्स दिशतात्कमलाविलामं ॥ ५ ॥ येनापशनगरे गुनदिव्यशक्त्या कान्टके व विवे महती प्रतिष्ठा । श्रीवर्गियुगलम्य वरम्य येन रन्नप्रभन्म दिशतात्कमलाविलामं ॥ ६ ॥ श्रीपत्यिकामगवनी ममभूत्यसन्ना सर्वज्ञशासनसमुन्नतिवृद्धिकी । यदशनारमन्हस्यमत्राप्य मन्या रत्नत्रयम्स दिशतात्कमनाविलासं ॥ ७ ॥ गृहंति यन्य मुगुरोर्गुरूनाममंत्रं मन्यवतत्त्वगुणगौरवगर्मितं ये।। तेयां गृह प्रतिदिनं विलमंनि पद्मा रत्नप्रभस दिशतात्कमलाविलासं ॥ ८ ॥
कल्पद्रुमः करतले मुकामधेनु-श्चिंतामणिः स्फुरति गयनाभिगमा । O186 यायोलमत्त्रमयुगांवुजपूजनेन रत्नप्रभन्स दिशतात्कमलाविलामं ॥ ९ ॥
इत्यं भक्तिभरण देवतिलकचातुबालागुरोः श्रीगन्नप्रभसूनिताजगुगे: स्तोत्रं करोति स्म यः । प्रातः कान्यमिदं पठत्यविरतं तन्यालये सर्वदा ।।
सानंदं प्रमदेव दीन्यतितरां साम्राज्यलक्ष्मीः स्वयं ॥ १० ॥ इति ओएसनगरे सपाललावकाः प्रतियोविता ओएमवालज्ञातिः स्थापिता तस्य स्तोत्रमिदं ।
मावान्ब्यान पद्धती प्रत्यहं पठनीयं ॥ संपूर्ण ॥ ग्रंयाग्रंथ ॥ ३१५ ॥ श्रीरस्तु ।।
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जैन साहित्य संशोधक समिति
पेटन. श्रीयुत हीरालाल अमृतलाल शाह. बी. ए. मुंबई.
वाईस पेटून. श्रीयुत केशवलाल प्रेमचंद सोदी. वी. ए. एल्एल्. वी. वकील अमदावाद.. श्रीयुत अपरचंद घेलामाई गांधी, मुंबई.
सहायक. शेठ परमानंददास रतनजी, मुंबई. श्रीयुत सनसुखलाल रवजीभाई मेहता, मुंबई. मोठ कांतिलाल गगलभाई हाथीभाई, पूना. शेठ केशवलाल मणीलाल शाह, पूना. शेठ बाबूलाल नानचंद भगवानदास झवेरी, पूना.
सभासद. श्रीयुत वावृ राजकुमार सिंहजी बद्रीदासजी, कलकत्ता. श्रीयुत बाबू पूरणचंदजी नाहार. एम्. ए. एलएल. बी. कलकत्ता. शेठ लालभाई कल्याणमाई झवेरी, वडोदरा (मुंबई.) शेठ नरोत्तनदाम भाणजी, मुंबई. शेठ दागोदरदास, त्रिमुवनदास भाणजी, मुंबई. शेठ त्रिभुवनदास भाणजी जैन कन्याशाला, भावनगर. शेठ केशवजीभाई माणेकचंद, मुंबई. शेठ देवकरणभाई मूळजीभाई, मुंबई. शेठ गुलाबचंद देवचंद, मुंबई. श्रीयुत मोतीचंद गिरधरलाल कापडिया, बी. ए. एलएल वी. सोलीसीटर, मुंबई. श्रीयुत केशरी चंदजी भंडारी, इंदौर, शाह अमृतलाल एण्ड भगवानदास कुं० मुंबई. शाह चंदुलाल वीरचंद कृष्णाजी, पूना. शेठ लाधाजी सोतीलाल, पूना. शाह धनजीभाई वस्त्रतचंद साणंदवाळा, ( असदाबाद) शाह वाकमाई शामचंद, तळेगाम ( ढमढेरे ). शाह चुनिलाल झवेरचद, मुंबई.. शाह भोगीलाल चुनिलाल, सोलापुरवझार, पूना कॅप.
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पाली, प्राकृतं, संस्कृत, गुजराती, हिन्दी भाषानां
केटलांक उत्तम पुस्तको
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.......... Team
१ प्राकृत कथासंग्रह. सं० मुनि जिनविजय ( पुरातत्त्वमन्दिर ग्रंथावली) . २.. पाली पाठावली.. :: ..., ४ ३. कुमारपाल प्रतिबोध (प्राकृत ऐतिहासिक ग्रंथ; गायकवाड सीरीझ): .. ४. हरिभद्राचार्यस्य समयनिर्णय (जे. सा. स. ग्रंथमाळा..).....
५..प्राकृत व्याकरण संक्षिप्त परिचय
६. सुपासनाह चरियं (प्राकृत भाषानो महान् चरित्रग्रंथ ) .. . ७. मुरसुन्दरी परियं (प्राकृत भाषामां एक सुंदर कथा:)..
८. उपकेश गच्छीय पट्टावली (संस्कृत)...... .९. गुणस्थानक्रमारोह (हिन्दी भापान्तर-विस्तृत विवेचन.)". .. १०. परिशिष्ट पर्व (हिन्दी भापासां उत्तम भापांतर)..:.. : -४ , ११: छेदसूत्राणि ( आमां कल्प- व्यवहार-निशीथ नामना.त्रण छेदसूत्री बहु शुद्ध अनेक
उत्तम पद्धतीएं छपावेला छे,जे अत्यंत दुर्लभ छ घणी थोडी नकली छपावेली के.)२ १२. साधुशिक्षा ( सुन्दर हिन्दी भाषांतर) :...... ... ।।१३. जैन धर्मर्नु अहिंसातत्त्व ( तारित विवेचन):
. १४. सुखी जीवन (वांचवालायक शांतिप्रद सुंदर गुजराती पुस्तक) ...... १५. नयकर्णिका (उत्तम गुजराती विवचन):: : : :
.. ए सिवाय, आत्म तिलक प्रन्थ माळामा छपाएलां नानां मोटी पुस्तकों में प्रभावना करक '. होई नामनी किंमते ज वेधवामां आवे छे ते पण नीचेनों ठेकाणे मळे छे.....
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__. गुजरात पुरातत्त्वमंदिर, ....:.
- एलीस अधि, . .. , . . अहमदाबाद (गुजरात) . . .
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भारत जनसभाला भारत जैन विद्यालय, ..... :: :
. ....... ..." ..पूना सिटी (दक्षिण)
मुद्रक-पृष्टः १-३३ जैन साहित्य मुद्रणालय, पृ०:५७-८० चित्रशाला प्रेस; और बाली
- सव-हनुमान प्रेस, सदाशिव पेठ, पूना सीटी.-प्रकाशक चिमनलाल... .... .. एल्. शाहा, भारत जैन विद्यालय, पूना शहर:...
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