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जैन साहित्य संशोधक
[खण्ड २ की और दुर्जनों की शिकायत की और कहा कि इस कारण मुझ से एक पद भी नहीं लिखा जाता है। अन्त में उन्हों ने कहा कि फिर भी मैं तुम्हारी प्रार्थना को नहीं टाल सकता। तुम मेरे मित्र हो और शालिवाहन तथा श्रीहर्ष से भी बढ़कर विद्वानों का श्रादर करनेवाले हो । तुमने मुझे सदा प्रसन्न रक्खा है। परन्तु जो यह कहा कि मैं सब कुछ देने के लिए तैयार हूँ, सो मैं तुम से अकात्रेम धर्मानुराग के सिवाय और कुछ भी नहीं चाहता हूँ। धन को मैं तिनके के समान गिनता हूँ। मेरा कवित्व केवल जिनचरणों की भक्ति से ही प्रस्फुटित होता हैजीविका की मुझे जरा भी परवा नहीं है । ये सब बातें कविने उत्तरपुराणकी उत्थानिका में प्रकट की है।
पुष्पदन्त दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के अनुयायी थे; परन्तु वे अपने किसी गुरु का कहीं कोई उल्लेख नहीं करते हैं। इसका कारण यही हो सकता है कि वे गृहत्यागी साधु नहीं थे। यह भी संभव है कि पहले वे वेदानुयायो रहे हों और पीछे किसी कारण से जैनधर्म पर उनकी श्रद्धा हो गई हो, अथवा भरतमंत्री के संसर्गसे ही व जैनधर्म के उपासक बन गये हॉ, किसी जैन साधु या मुनिसे उनका परिचयन हुआ हो। उन्होंने अपने को जगह जगह जिनपदमक्त, धर्मासक्त, व्रतसंयुक्त (व्रतीश्रावक) और विगालतशंक (शंका रहित सम्यग्दृष्टी) आदि विशेषण दिये हैं, इसलिए उनके दृढ़ जैन होने में कोई सन्देह नहीं हो सकता। अपने ग्रन्यों में जैनधर्म के तत्त्वों का भी उन्होंने बड़ी योग्यतासे प्रतिपादन किया है।।
पुष्पदन्त का समाव एक विचित्र ही प्रकार का मालूम होता है। उनका 'अभिमानमेरु' नाम उनके स्वभाव को और भी विशेषता से स्पष्ट करता है। 'मान' के सिवाय वे और किसी चीज के भूखे नहीं जान पड़ते। एक बड़े भारी राजा के वैभवशाली मन्त्री का प्राश्रयर पाकर भी वे धन वैभव से अलिप्त ही रहे जान पड़ते हैं। महापुराण के अन्त में उन्होंने अपने लिये जो विशेषण दिये हैं, वे ध्यान देने योग्य है-शून्यभवन और देवकुलिकाओं में रहनेवाल, बिना घर-द्वार के, स्त्री-पुत्र रहित, नदी वापो और तालावों में स्नान करनेवाले, फटे कपड़े
और वल्कल पहिननेवाले, धूलिधूसरित, जमीन पर सोनवाले तथा अपने हाथों को हो प्रोढ़ना बनानेवाले, और समाधि मरण की आकांक्षा रखनेवाले । ये विशेपण इस अकिञ्चन महाकवि के चित्र को आँखों के सामने खड़ा कर देते हैं।
सचमुच ही पुष्पदन्त अद्भुत कवि थे। वे अपने हृदय के आवेगों को रोक नहीं सकते है। वे जिले हृदय से चाहते हैं उसकी प्रशंसा के पुल बांध देते हैं और जिससे घृणा करते हैं उस की निन्दा करने में भी कुछ उठा नहीं रखते। अपनी प्रशंसा करने में भी उनकी कविता क. प्रवाह स्वछन्द गति से प्रवाहित हुआ है। इस प्रशंसा के औचित्य अनौचित्य का विचार भी उनका स्वेच्छाचारी कविहदय नहीं कर सका है। जो खोलकर उन्होंने अपनी प्रशंसा की है। संभव है, इस समय की दृष्टि से वह ठीक मालूम न हो; परन्तु उन को सरस और सुन्दर रचना को देखते हुए तो उस में कोई अत्युक्ति नहीं जान पड़ती।
पुष्पदन्तने अपना आदिपुराण सिद्धार्थसंवत्लर में लिखना शुरू किया था जिस समय तुहिगु नाम के राजा राज्य करते थे और उन्होंने किसी चोल राजा का मस्तक काटा था। इस 'तुडिगु शब्द पर इस अन्य की प्रायः सभी प्रतियों में 'कृष्णराजः' टिप्पणी दी हुई है। इसी अन्य में उक्त राजा का एक जगह 'शुभतुंगदेव' और दूसरी जगह 'भैरवनरेन्द्र' नाम से उल्लख कि गया है और दोनों जगह उक्त नामों पर टिप्पणी दे कर 'कृष्णराजः' लिखा है। इसी तरह यशोधर चरित्र में 'वल्लभनरेन्द्र ' नाम से उल्लेख किया है और वहां भी टिप्पणी में कृष्णराज लिखा है। अर्थात् तडिगु, शुभतुंगदेव, भैरवनरेन्द्र, वल्लमनरेन्द्र और कृष्णराज ये पाँची एक ॥