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महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण
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जिस राजासे संत्रस्त होकर पुष्पदन्तकवि. मान्यखेट में आये वह शायद वीरराव था । श्रादिपुराण के प्रभाचन्द्रकृत टिप्पण में इस शब्द पर 'शुद्रक' और ' कार्यापति टिप्पण दिया हमारी समझ में 'कांची ' की जगह कावी लिपिकर्त्ता के दोष से लिख गया है | इस से मालूम होता है कि वीरराव कांची ( काओवरम् ) का राजा होगा और शूद्रक उसका नामान्तर होगा। यह संभवतः पल्लववंशका था । श्रादिपुराणको उत्थानिका के 'णिय सिरि विसेस' और 'पइमण्ड ' आदि दो पद्यों का अभिप्राय अच्छी तरह स्पष्ट नहीं होता है, फिर भी ऐसा भास होता है कि पुष्पदन्त का उक्त वीरराव से पहले सम्बन्ध था और उस के सम्बन्ध में उस ने कुछ काव्य रचना भी की थी। शायद इसी कारण भरतमंत्री ने पुष्पदन्त से कहा है कि वीरराव का वर्णन करने से जो मिथ्यात्व भाव उत्पन्न हुआ है, उस के प्रायश्चित्तस्वरूप यदि तुम श्रादिनाथ के चरित की रचना करो तो तुम्हारा परलोक सुधर जाय । जान पड़ता है कि वरराव कोई दुष्ट और जैनधर्म का द्वेषी राजा था ।
पुष्पदन्त भ्रमण करते करते मान्यखेट के बाहर किसी उद्यान में पड़े हुए थे। वहां अम्मइया और इन्द्रराज नामक दो पुरुषों ने आकर उनसे कहा कि श्राप इस निर्जन स्थान में क्यों पड़े हुए हैं, पास ही यह बड़ा नगर है वहां चलिए। वहां शुभतुंगराजा के महामात्य भरत बड़े विद्याप्रेमी और कवियों के लिए कामधेनु हैं। भरत की लोकोत्तर प्रशंसा सुन कर पुष्पदन्त नगर में गये । वहां भरतमंत्री ने उनका बहुत ही सत्कार किया और उन्हें अपने पास रक्खा। कुछ दिनों के बाद भरत ने उन से काव्यरचना करने के लिए कहा। इस पर कवि ने कहा कि यह समय बहुत बुरा है। संसार दुर्जनों से भरा हुआ है । जहां तहां छिद्रान्वेषी ही दिखलाई देते हैं। प्रवरसेन के स्तुवन्ध जैसे उत्कृष्ट काव्य की भी जब लोग निन्दा करते हैं, तब मुझे इस कार्य में कीर्ति कैसे मिलेगी ? इस पर भरत ने कहा कि दुर्जनों का तो यह स्वभाव ही है, उल्लू को सूर्य भी अच्छा नहीं लगता। उनकी आप को परवा न करनी चाहिए । इस के उत्तर में कवि ने अपनी लघुता प्रकट की और कहा कि मैं दर्शन, व्याकरण, काव्य, छन्दशास्त्र आदि के ज्ञान से कोरा हूं, ऐसी दशा में मुझ से महापुराण की रचना कैसे होगी, यह तो समुद्र को एक कुंडे भरने जैसा कार्य है, फिर भी आप के आग्रह से और जिन भक्ति वश मैं इस की रचना में प्रवृत्त होता हूं, मधुकर जैसा क्षुद्र प्राणी भी विशाल श्राकाश में भ्रमण कर सकता है। उक्त सब बातें श्रादिपुराण की उत्थानिका से ली गई हैं । इस के बाद उत्तरपुराण का प्रारंभ होता है । उस समय कावेराज का चित्त उद्विग्न हो उठा। रचना से उन का जी उचट गया । तव एक दिन सरस्वती देवी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिया और कहा कि अरिहंत भगवान् को नमस्कार करो । यह सुनते ही कविराज जाग उठे। उन्हों ने चारों और देखा; परन्तु कहीं कोई भी दिखलाई न दिया । बड़ा आश्चर्य हुआ। इस के बाद भरतमंत्री उन से मिले । उन्हों ने कहा कि, क्या आप सचमुच ही पागल हो गये हैं ? श्राप का मुख उतरा हुआ है, चित्त ठिकाने नहीं है | ग्रन्थरचना क्यों नहीं करते ? क्या मुझसे आप का कोई अपराध बन पड़ा ? क्या बात है । मैं हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता हूँ। मैं आपका चाहा हुआ सब कुछ देने के लिए तैयार हूँ। यह जीवन अस्थिर और असार है। जब आप को सरस्वती कामधेनु सिद्ध तब आप उसका नवरसरूप दूध क्यों नहीं दोहते ? इस पर कविराज ने फिर वही समय
x पुरानी लिपि में ' व ' और ' व ' लगभग एक से लिखे जाते हैं और इस कारण पीछे के लेखकों ने इन दोनों के भेद को अच्छी तरह न समझने के कारण अकसर 'च' को ' व ' लिखा है ।
* परं मणिउं वणिउं वीर राउ, उप्पण्णउं जो मिच्छत भाउ ।
पच्छितु तासु जइ करहि अज्ज, ता घढई तुज्झ परलोयकज्जु ॥