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________________ अकं १] योगदर्शन ३ परिणामि-नित्यता अर्थात् उत्पाद, व्यय, प्रौव्यरूपसे निरूप वस्तु मान कर तदनुसार धर्मधर्मीका विवेचन इत्यादि। ___ इसी विचारसमताके कारण श्रीमान हरिभद्र जैसे जैनाचायाँने महर्षि पतञ्जलिके प्रति अपना हार्दिक आदर प्रकट करके अपने योगविषयक ग्रन्थोंमें गुणग्राहकताका निर्भाक परिचय पूरे तोरसे दिया है2, और जगह जगह पतञ्जलिके योगशास्त्रगत खास साङ्केतिक शब्दोंका जैन सङ्केतोंके साथ मिलान करके सङ्कीर्णदृष्टिवालोंके लिये एकताका मार्ग खोल दिया है । जैन विद्वार यशोविजयवाचकने हरिभद्रसूरिसूचित एकताके मार्गको विशेष विशाल बनाकर पतञ्जलिके योगसूत्रको जैन प्रक्रियाके अनुसार समाझनेका थोडा किन्तु मार्मिक प्रयास किया है। इतना ही नहीं बल्कि अपनी बत्तीसियामें उन्होंने पतञ्चलिके योगसत्रगत कळ विधयोपर खास बत्तीसियाँ भी रची है51 इन सब बातोंको संक्षेपमें बतलानेका उद्देश्य यही है कि महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टिविशालता इतनी अधिक थी कि सभी दार्शनिक व साम्प्रदायिक विद्वान् योगशास्त्रके पास आते ही अपना साम्प्रदायिक अभिनिवेश भूल गये और एकरूपताका अनुभव करने लगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टि-विशालता उनके विशिष्ट योगानुभवका ही फल है, क्योंकि-जब कोई भी मनुष्य शब्द शानकी प्राथमिक भूमिकासे आगे बढ़ता है तब वह शब्दकी पूंछ न खींचकर चिन्ताज्ञान तथा भावनाज्ञानके6 उत्तरोत्तर अधिकाधिक एकतावाले प्रदेश में अभेद आनंदका अनुभव करता है। आचार्य हरिभद्रकी योगमार्गमें नवीन दिशा-श्रीहरिभद्र प्रसिद्ध जैनाचार्यों में एक हुए । उनकी बहुश्रुतता, सर्वतोमुखी प्रतिभा, मध्यस्थता और समन्वयशक्तिका पूरा परिचय करानका यहाँ प्रसंग नहीं है। इसके लिए 1 जैनशास्त्रमें वस्तुको द्रव्यपर्यायस्वरूप माना है । इसीलिये उसका लक्षण तत्त्वार्थ (अ. ५-२९) में " उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" ऐसा किया है । योगसूत्र (३-१३, १४ ) में जो धर्मधर्मीका विचार है वह उक्त द्रव्यपर्यायउभयरूपता किंवा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इस त्रिरूपताका ही चित्रण है। भिन्नता सिर्फ दोनांमें इतनी ही है कि-योगसूत्र सांख्यसिद्धान्तानुसारी होनेसे "ऋते चितिशक्तः परिणामिनो भावाः "'यह सिद्धान्त मानकर परिणामवादका अर्थात् धर्मलक्षणावस्था परिणामका उपयोग सिर्फ जडभागमें अर्थात् प्रकृतिमें करता है, चेतनमें नहीं । और जैनदर्शन तो " सर्वे भावाः परिणामिनः " ऐसा सिद्धान्त मानकर परिणामवाद अर्थात् उत्पादन्ययरूप पर्यायका उपयोग जड चेतन दोनोंमें करता है। इतनी भिन्नता होनेपर भी परिणामवादकी प्रक्रिया दोनामें एक सी है। 2 उक्तं च योगमार्ग स्तपोनिधूतकल्मपैः । भावियोगहितायोञ्चैर्मोहदीपसमं वचः ॥ (योगवि. श्लो. ६६) टीका 'उक्तं च निरूपितं पुनः योगमार्गऊरध्यात्मविद्भिः पतञ्जलिप्रभृतिभिः ॥ "एतत्प्रधानः सयाद्धः शीलवार योगतत्परः । जानात्यतीन्द्रियानांस्तथा चाह महामतिः" ॥ (योगद्दीष्टसमुच्चय श्लो. १००) टीका ' तथा चाह महामतिः पतञ्जलिः'। ऐसा ही भाव गुणग्राही श्रीयशोविजयजीने अपनी योगावतारद्वात्रिंशिकामें प्रकाशित किया है । देखो-श्लो० २० टीका । 3 देखो योगविन्दु श्लोक ४१८, ४२०। 4 देखो उनकी बनाई हुई पातञ्जलसूत्रवृत्ति । 5 देखो पातञ्जलयोगलक्षणविचार, ईशानुग्रहविचार, योगावतार, क्लेशहानोपाय और योगमाहात्म्य द्वात्रिशिका। 6 शब्द, चिन्ता तथा भावनाशानका स्वरूप श्रीयशोविजयजीने अध्यात्मोपनिषद्में लिखा है, जो आध्यात्मिक लोगोंको देखने योग्य है। अध्यात्मोपनिषद् श्लो. ६५, ७४ ।
SR No.010005
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages127
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size9 MB
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