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जैन साहित्य संशोधक
२ प्रसुम, तनु आदिक्लेशावस्था 1, पाँच यम, 2 योगजन्य विभूति 3 सोपक्रम निरुपमक्रम कर्मका तथा उसके दृष्टान्त, अनेक कार्यों का निर्माण आदि ।
रूपः
२०]
[ खंड २
1 प्रसुप्त, तनु, विछिन्न और उदार इन चार अवस्थाओंका योगसूत्र २-४ में वर्णन है । जैनशान्त्रमें वही भाव मोहनीयकर्मकी सत्ता, उपशमक्षयोपशम विरोधिप्रकृतिके उदयादिकृत व्यवधान और उदयादत्थाके वर्णनरूपसे वर्तमान है । देखो यांगसूत्र २-४ की यशोविजयकृत वृत्ति |
2 पाँच यनौका वर्णन महाभारत आदि ग्रन्थों में है सही, पर उसकी परिपूर्णता " जातिदेशकालसम्याऽनवच्छिन्नाः सार्वभौमा महात्रतम् " योगसूत्र २-३१ में तथा दशकालिक अध्ययन ४ आदि जैनान्त्र पतिपादित महात्रतोंमें देखने में आती है ।
3 योगसूत्रके तीसरे पादमें विभूतियोंका वर्णन है, वे विभूतियाँ दो प्रकारकी हैं । १ वैज्ञानिक शारीरिक । अतीताऽनागतज्ञान, सर्वभूतरुतज्ञान, पूर्वजातिज्ञान, परीचत्तज्ञान, भुवनज्ञान, ताराव्यूहज्ञान, आदि ज्ञानविभूतियाँ हैं । अन्तर्धान हस्तिबल, परकायप्रवेश, अणिमादि ऐश्वर्य तथा रूपलावण्यादि कायसंपत्. इत्यादि शारीरिक विभूतियाँ है । जैनशास्त्र में भी अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, जातिस्मरणज्ञान, पूर्वज्ञान आदि ज्ञानलब्धियाँ हैं, और आमौंषधि विशुडपाध, श्लेष्माधि, सर्वोषधि, जंघाचारण-विद्याचारण, वैक्रिय, आहारक आदि शारीरिक लब्धियाँ हैं । देखो गा० ६९, ७० आवश्यकनियुक्ति लब्धि यह विभूतिका नामान्तर है ।
4 योगभाष्य और जैनग्रन्थोंमें सोपक्रम निरुपक्रम आयुष्कर्मका स्वरूप बिल्कुल एकसा है, इतना ही नहीं बल्कि उस स्वरूपको दिखाते हुए भाष्यकारने यो. सु. ३- २२ के भाग्य में आर्द्र वस्त्र और तृणराशिके जो दो दृष्टान्त लिखे हैं, वे आवश्यकनिर्युक्ति ( गाथा - ९५६ ) तथा विशेषावश्यक भाष्य ( गाथा - ३० ६१ ) आदि जैनशास्त्र में सर्वत्र प्रसिद्ध है, पर तत्त्वार्थ ( अ० - २५२ ) के भाष्यमें उक्त दो दृष्टान्तोंके उपरान्त एक गणितविषयक दृष्टान्त भी लिखा है । इस त्रिपयमें उक्त व्यासभाष्य और तत्त्वार्थभाग्यका शाब्दिक सादृश्य भी बहुत अधिक और अर्थसूचक है ।
" यथाऽऽर्द्रवन्त्रं वितानितं लघीयसा कालेन शुष्येत् तथा सोपक्रमम् । यथा च तदेव सर्पिण्डितं चिरेण मरुत्येद् एवं निरुपक्रमम् । यथा चानिः शुष्के कक्षे मुक्तो वातेन वा समन्ततो युक्तः क्षेपीयसा कालेन दहेतु तथा सोपक्रमम् । यथा वा स एवाऽग्निस्तृणराशौ क्रमशोऽवयवेषु न्यस्तश्विरेण दहेत् तथा निरुपक्रमम् " योग ३ - २२ भाष्य । यथाहि संहतस्य शुकस्यापि तृणराशेरवयवाः क्रमेण दह्यमानस्य चिरेण दाहो भवति, तस्यैव शिथिलप्रकीर्णोपचितस्य सर्वतो युगपदादीपितस्य पवनोपक्रमाभिहतस्याशु दाहो भवति तद्वत् । यथा वा संख्यानार्यः करणलाघवार्थ गुणकारभागहाराभ्यां गाीं छेदादेवापवर्तयति न च संख्येयस्यार्थस्याभावो भवति, तदुपक्रमाभिहतो मरणसनुद्घातदुःखार्त्तः कर्मप्रत्ययमनाभोगयोगपूर्वकं करणविशेषमुत्पाद्य फलोपभोगलाघवार्थ कर्मा
यति न चास्य फलाभाव इति ॥ किं चान्यत् । यथा वा घौतपटो जलार्द्र एव संहतश्विरेण शोषमुपयाति । स एव च वितानितः सूर्यरश्मिवाभिहतः क्षिप्रं शोषमुपयाति । " तत्त्वा० अ० २-५२ भाष्य ।
5 योगबलसे योगी जो अनेक शरीरोंका निर्माण करता है, उसका वर्णन योगसूत्र ४-४ में है, यही विषय वैक्रिय - आहारक - लब्धिरूपसे जैनग्रन्थोंमें वर्णित है ।