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जैन साहित्य संशोधक
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जिशासु महाशय उनकी कृतियोंको देख लेंवे । हरिभद्रसूरिकी शतमुखी प्रतिभाके खोत उनके बनाये हुए चार अनुयोगविषयक1 ग्राम ही नहीं बल्कि जैन न्याय तथा भातवीय तत्कालीन समग्र दार्शनिक सिद्धांतांकी चर्चावाले2 ग्रन्थों में भी बहे हुए हैं। इतना करके ही उनकी प्रतिभा मौन न हुई; उसने योगमार्गमें एक ऐसी दिशा दिखाई जो केवल जैन योगसाहित्यमें ही नहीं बल्कि आर्यजातीय संपूर्ण योगविषयक साहित्यमें एक नई वस्तु है। जैनशास्त्रमें आध्यात्मिक विकासके क्रमका प्राचीन वर्णन चौदह गुणस्थानरूपसे, चार ध्यान रूपसे और बहिरात्म आदि तीन अवस्थाओंके रूपसे मिलता है। हरिभद्रसूरिने उसी आध्यात्मिक विकासके क्रमका योगरूपसे वर्णन किया है। पर उसमें उन्होंने जो शैली रक्खी है वह अभीतक उपलब्ध योगविषयक साहित्यमसे किसी भी ग्रंथम कमसे कम हमारे दखनेमें तो नहीं आई है। हरिभद्रसर अपने ग्रन्थोंमें अनेक योगि. याँका नामनिर्देश करते हैं3, एवं योगविषयक ग्रन्थोंका उल्लेख करते हैं जो अभी प्राप्त भी नहीं हैं। संभव है उन अप्राप्य ग्रन्थों में उनके वर्णनकीसी शैली रही हो, पर हमारे लिये तो यह वर्णनशैली और योग विषयक वस्तु बिल्कुल अपूर्व है। इस समय हरिभद्रसूरिके योगविषयक चार ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं जो हमारे देखनेमें आये है। उनमसे पोडशक और योगविंशिकाके योगवर्णनकी शैली और योगवस्तु एक ही है। योगविंदुकी विचारसरणी और वस्तु योगविशिकासे जुदा है। योगदृष्टि समुञ्चयकी विचारधारा और वस्तु योगबिंदुसे भी जुदा है। इस प्रकार देखनेसे यह कहना पडता है कि हरिभद्रसूरिने एक ही आध्यात्मिक विकासके क्रमका चित्र भिन्न भिन्न ग्रन्थों में भिन्न भिन्न वस्तका उपयोग करके तीन प्रकारसे खींचा है।
कालकी अपरिमित लंबी नदीमें वासनारूप संसारका गहरा प्रवाह बहता है, जिसका पहला छोर [ मूल] तो अनादि है, पर दूसरा [ उत्तर ] छोर सान्त है । इसलिये मुमुक्षुओंके वास्ते सबसे पहले यह प्रश्न बडे महत्वका है कि उक्त अनादि प्रवाहमें आध्यात्मिक विकासका आरंभ कबसे होता है ? और उस आरंभके समय आत्माके लक्षण कैसे हो जाते हैं ? जिनसे कि आरंभिक आध्यात्मिक विकास जाना जा सके। इस प्रश्नका उत्तर आचार्यने योगविंद में दिया है। वे कहते है कि-" जब आत्माके ऊपर मोहका प्रभाव घटनेका आरंभ होता है तभीसे आध्यात्मिक विकासका सूत्रपात हो जाता है। इस सूत्रपातका पूर्ववर्ती समय जो आध्यात्मिकविकासरहित होता है, वह जैनशास्त्र में अचरमपुद्गलपरावर्तके नामसे प्रसिद्ध है। और उत्तरवर्ती समय जो आध्यात्मिक विकासके क्रमवाला होता है, वह चरमयुद्गलपरावर्तके नामसे प्रसिद्ध है। अचरमपुद्गलपरावर्तन और चरमपुद्गलपरावर्तनकालके परिमाणके बीच सिंधु और बिंदुका सा अंतर होता है। जिस आत्माका संसारप्रवाह चरमपुद्गलपरावर्तपरिमाण शेष रहता है, उसको जैन परिभाषामै 'अपुनर्बधक और सांख्यपरिभाषामै 'निवृत्ताधिकार प्रकृति ' कहते हैं। अघुनर्वन्धक या निवृत्ताधिकारप्रकृति आत्माका आंतरिक परिचय इतना ही है कि उसके ऊपर मोहका दबाव कम होकर उलटे मोहके ऊपर उस आत्माका दवाय शुरू होता है। यही आध्यात्मिक विका
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___1 द्रव्यानुयोगविषयक-धर्मसंग्रहणी आदि १, गणितानुयोगविषयक क्षेत्रसमास टीका आदि २, चरणकरणानुयोगविषयक-पञ्चवस्तु, धर्मबिंदु आदि ३, धर्मकथानुयोगविषयक-समराइचकहा आदि ४ ग्रन्थ मुख्य हैं।
2 अनेकान्तजयपताका, पड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि ।
3 गोपेन्द्र ( योगविन्दु श्लोक २०० ) कालातीत ( योगविन्दु श्लोक ३००)। पतञ्जलि, भदन्तभा• स्करबन्धु, भगवदन्त (त्त) वादी (योगदृष्टि० श्लोक १६ टीका )।
4 योग-निर्णय आदि (योगदृष्टि० श्लोक १ टीका) देखो मुक्त्यद्वेपद्वात्रिंशिका २८16देखो योगविंदु १७८, २०१।