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जैन साहित्य संशोधक
[खंड २ शिष्यों या परम्पराशिष्यों द्वारा निर्मित किये हुए सार हैं और इस बातको तो सभी जानते हैं कि उपलब्ध मनुस्मृति भूगुप्रणीत हैं-स्वयं मनुप्रणीत नहीं।
बम्बईके गुजराती प्रेसके मालिकोंने कुल्लूकभट्टकी टीकाके सहित मनुस्मृतिका एक सुन्दर संस्करण प्रकाशित किया है। उसके परिशिष्टम ३५५ श्लोक ऐसे दिये हैं जो वर्तमान मनुस्मृति में तो नहीं मिलते हैं। परन्तु हेमादि, मिताक्षरा, पराशरमाधवीय, स्मृतिरत्नाकर, निर्णयसिन्धु आदि अन्योम मनु, वृद्धमनु और बृहन्मनुके नामसे 'उक्तंच' रूपमें उद्धृत किये हैं । इसके सिवाय सैकड़ों श्लोक क्षेपकरूपमें भी दिये हैं, जिनकी कुल्लक महने भी टीका नहीं की है।
___ हमारे जैनग्रन्थों में भी मनुके नामसे अनेक श्लोक उद्धत किये गये हैं जो इस मनुस्मृतिमें नहीं है। उदाहरणार्थ स्वनामधन्य पं. टोडरमल्लजीने अपने मोक्षमार्गप्रकाशके पांचवे अधिकारमें मनुस्मृतिके तीन लोक दिये हैं, जो वर्तमान मनुस्मृतिम नहीं है। इसी तरह 'द्विजवदनचपेट' नामक दिगम्बर जैनग्रन्थमें भी मनुके नामसे ७ श्लोक उद्धत हैं जिनसे वर्तमान मनुस्मृतिम केवल २ मिलते हैं, शेप ५ नहीं है।
शुक्रनीति जो इस समय मिलती है उसके विषयमें तो विद्वानोंकी यह राय है कि वह बहुत पीछेकीबनी हुई हैपाँच छः सौ वर्षसे पहलेकी तो वह किसी तरह हो ही नहीं सकती। शुक्रका प्राचीन अन्य इससे कोई पृथक् ही था + कौटिलीय अर्थशास्त्र लिखा है कि शुक्रके मतसे दण्डनीति एक ही राजविद्या है, इसमें सब विद्यायें गर्मित हैं। परन्तु वर्तमान शुक्रनीतिका को चारों विद्याओंको राजविद्या मानता है-'विद्याश्चतस्न एवेताः' आदि (अ०१ ग्लो०५१)। अतएव इस शुक्रनीतिको शुक्रकी मानना भ्रम है।
इन सब बातों पर विचार करनेसे हम टीकाकार पर यह दोष नहीं लगा सकते कि उसने स्वयं ही श्लोक गढ़कर , मनु आदिके नाम पर मढ़ दिये हैं । हम यह नहीं कहते कि वर्तमान मनुस्कृति उक्त टीकाकारके बादकी है, इस लिए
उस समय यह न उपलब्ध होगी। क्योंकि टीकाकारसे भी पहले मूलका श्रीसोमदेवसूरिने भी मनुके वीस श्लोक उद्धत किये हैं और वे वर्तमान मनुस्मृतिम मिलते हैं। अतएव टीकाकारके समयमै भी यह मनुस्मृति अवश्य होगी; परन्तु इसकी जो प्रति उन्हें उपलब्ध होगी, उसमें टीकोद्धत श्लोकोंका रहना असंभव नहीं माना जा सकता । यह भी संभव है कि किसी दूसरे ग्रन्थकाने इन श्लोकोंको मनुके नामसे उद्धत. किया हो और उस प्रन्यके आधारसे टीकाकारने भी उद्धृत कर लिया हो । जैसे कि अभी मोक्षमार्गप्रकाशके या द्विजवदनचपेटके आधारसे उनमें उद्धत किये हुए मनुस्मृतिक ग्लोकोको, कोई नया लेखक अपने ग्रन्थमें भी लिख दे।
याज्ञवल्क्यस्मृति के श्लोकके विषयमें भी यही बात कही जा सकती है। अब रही शुक्रनीति, सो उसकी प्राचीनतामें तो बहुत ही संदेह है । वह तो इस टीकाकारसे भी पीछेकी रचना जान पड़ती है। इसके सिवाय शुक्रके नामसे तो टीकाकारने दो चार नहीं १५० के लगभग श्लोक उद्धृत किये हैं। तो क्या टीकाकारने वे सबके सब ही मूलकाको नीचा दिखानेकी गरजसे गढ़ लिये होंगे ? और मूलकी तो इसमें अपनी कोई तौहीन ही नहीं समझते हैं। उन्होंने तो अपने यशस्तिलको न जाने कितने विद्वानोंके वाक्य और पद्य जगह जगह उद्धृत करके अपने विषयका प्रतिपादन किया है।
सोनीजीका दूसरा आक्षेप यह है कि काकारने स्वयं ही बहुतसे सूत्र (वाक्य) गढकर मूलमें शामिल कर दिये हैं। विद्यावृद्धसमुद्देशके, नीचे लाखे २१, २३ और २५६ सूत्रोको आप टीकाकर्ताका बतलाते हैं:
१-"वैवाहिकः शालीनो जायावरोऽधोरो गृहस्थाः॥" २१ - २-यालाखिल्य औदुम्बरी वैश्वानराः सद्य:प्रक्षल्यकश्चेति वानप्रस्थाः" ॥ २३
- देखो मोक्षमार्गप्रकाशका बम्बईका संस्करण, पृष्ठ. २०१।
द्विजवदनचपेट ' संस्कृत अन्य है, कोल्हापुरके श्रीयुत पं. कल्लाप्पा भरमाप्या निटवेने जैनबोधक' में और स्वतंत्र पुस्तकाकार भी, अबसे कोई १२-१४ वर्ष पहले, मराठी टीकासहित प्रकाशित किया था।
४ देखो गुजराती प्रेसकी शुक्रनीतिकी भूमिका ।