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________________ ANANAM जैन साहित्य संशोधक [खण्ड २ परिशिष्ट नं० २ (उत्तर पुराण के मंगलाचरण के बाद का अंश।) मणे जाएण किं पि श्रमणोज्जे, कावयह दिअहें केण विकज्जें। णिविण्णउ छिउ जाम महाकर, ता सिवणंतरि पत्त सरासई ॥१॥ भणई भडारी सुइयरुश्रोहं, पणवह अरुहं सुहयरुमेहं । इय णिसुणेवि विउँद्धउ कइवरु, सयलकलायर्स णं छण ससहरु ॥ २॥ दिसउ णिहाला किं पि ण पेच्छा, जा विभियमहणियघरे अच्छइ । ताम पराइएण जयवंत, मउलिय, करयलेण पणवंत ॥३॥ दस दिस पसरिय जसतरुकंद, वरमहमत्तवंसणचंदें। छणससिमंडल सण्णिह वयणे, णव कुवलयदलदीहरणयणें ॥४॥ घत्ता। खल संकुले काले कुसीलमइ विणउ करेप्पिणु संवरिय । वच्चंति विसुण्णससुराणवहे जेणसरासइ उद्धरिय ॥ ५॥ इयणु देवियन्वतणुजापं, जयदुंदुहिसरगहिरणिणाएं । जिणवरसमयणिहेलैणखंभे, दुत्थियमित्त ववगयडंभे ॥ ६ ॥ परउवयारहारणित्वहणे, विउसविहुर सयभय णि महणे । ते श्रोहामिय पवरक्खरहे, तेण विगैवें भवें भरहे ॥७॥ वोलाविउ कइ कन्वपिसलउ, किं तुहं सञ्चउ वप्पगहिल्ल किं दीसहि विच्छायउ दुम्मणु, गंधकरणे किंण करहि णियमणु ॥ ८॥ किं किउ काई वि मई अवगैहउ, अवरु कोवि किं विरसुम्माहउ । कुछ दिनों के बाद मन में कुछ युरा मालूम हुआ। जब महाकवि निर्विण्ण हो उठा तव सरखती देवी ने स्वप्न में दर्शन दिया ॥१॥ भरिका सरस्वती बोली कि पुण्यवृक्ष के लिए मेघतुल्य और जन्ममरणरूप रोगों के नाशक अरहंत भगवान को प्रणाम करो। यह सुनकर तत्काल ही सवालकलाओं के आकर कविवर जाग उठे और चारों ओर देखने लगे परन्तु कुछ भी दिखलाई नहीं दिया। उन्हें बडा विस्मय हुआ। वे अपने घर ही थे कि इतने में नयवन्त भरत मंत्री प्रणाम करते हुए वहां आये, जिन का यश दशों दिशाओं में फैल रहा है, जो श्रेष्ठ महामात्यवंशरूप आकाश के चन्द्रमा है, जिन का मुख चन्द्रमण्डल के समान और नेत्र नवीन कमलदलों के समान है, ॥२-४॥ जिन्हों ने इस खलजन संकुल काल में विनय करके शून्यपथ में जाती हुई सरस्वती को रोक रक्खा और उस का उद्धार किया ॥५॥जो ऐयण पिता और देवी माता के पुत्र हैं, जो जिनशासनरूप महल के खंभ हैं, दुस्थितों के मित्र हैं, दंभरहित हैं, परोपकार के भार को उठानेवाले हैं, विद्वानों को कष्ट पहुँचानेवाले सैकडों भयों को दूर करनेवाले हैं, तेज के धाम है, गर्वरहित हैं और भव्य हैं ॥६-७॥ उन्हों ने काव्यराक्षस पुष्पदन्त से कहा कि भैया, क्या तुम सचमुच ही पागल हो गये हो ? तुम उन्मना और छायाहनिसे क्यों दिखते हो ? प्रन्यरचना करने में तुम्हारा मन क्यों नहीं लगता? ॥ ॥ क्या मुझ से तुम्हारा १ सरस्वती । ३ सुष्ठ हतो रुजां रोगाणामोघः संघातो येन स तं । ३ पुण्यतरुमेघ | ४ गतनिद्रो जागरितः। ५आकार। ६ पश्यति । ७ भरतमंत्रिणेति सम्बन्धः श्रीपुष्पदन्तः आलापितः। ८ कन्दो मेघः । ९ महामात्र-महत्तर । १०चन्द्रेण ११ संवृता रक्षिताः सरस्वती। १२ एयण पिता देवी माता तयोः पुत्रेण भरतेन । १३ प्रासाद । १४ मयि पुष्पदन्ते उपकारभावनिर्वाहकेन । १५ निर्मथकेन । १६ रथेन विमानेन । १७ गर्व रहितेन । १८ कोमलालापे। १९ अपराधः । २० अन्यकाव्यकरणवांछः किं त्वं।
SR No.010005
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages127
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size9 MB
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