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________________ जैन साहित्य संशोधक ग्रन्थकर्ताका परिचय। गुरुपरम्परा। जैसा कि पहले कहा जा चुका है नीतिवाक्यामृतके कर्ता श्रीसोमदेवसूरि हैं । वे देवसंघके आचार्य थे। दिगम्बरसम्प्रदायके सुप्रसिद्ध चार संघोंमसे यह एक है । मंगराज कविके कथनानुसार यह संघ सुप्रसिद्ध तार्किक भष्टाकलंकदेवके बाद स्थापित हुआ था । अकलंकदेवका समय विक्रमकी ९ वीं शताब्दिका प्रथम पाद है। सोमदेवके गुरुका नाम नेमिदेव और दादागुरुका नाम यशोदेव था । यथाः-- श्रीमानस्ति स देवसंघतिलको देवो यशःपूर्वकः, शिष्यस्तस्य बभूव सद्गुणानिधिः श्रीनेमिदेवाव्यः । तस्याश्चर्यतपः स्थितस्त्रिनवतेजेंतुर्महावादिनां शिष्योऽभूदिह सोमदेव इति यस्तस्यैप कान्यक्रमः॥ --यशस्तिलकचम्पू । नातिनाक्यामृतकी गद्यप्रशस्तिसे भी यह मालूम होता है कि वे नेमिदेवके शिष्य थे । साथ ही उसमें यह भी लिखा है कि वे महेन्द्रदेव भधारकके अनुज थे । इन तीनों महात्माओं-यशोदेव, नमिदेव और महेन्द्रदेवके सम्बन्धमे हमें और कोई भी बात मालूम नहीं है । न तो इनकी कोई रचना ही उपलब्ध है और न अन्य किसी प्रन्यादिमें इनका कोई उल्लेख ही मिला है। इनके पूर्वके आचार्यो विषयमें भी कुछ ज्ञात नहीं है । सोमदेवसूरिकी शिष्यपरम्परा भी अज्ञात है । यशस्तिलकके टीकाकार श्रीश्रुतसागरसूरिने एक जगह लिखा है कि वादिराज और वादीभसिंह, दोनों ही सोमदेवके शिष्य थे, परन्तु इसके लिए उन्होंने जो प्रमाण दिया है वह किस प्रन्यका है, इसके जाननेका कोई साधन नहीं है । यशस्तिलककी रचना शकसंवत् ८८१ ( विक्रम १०१६ ) में समाप्त हुई है और वादिराजने अपना पार्श्वनाथचरित शकसंवतू. ९४७ (वि०१०८१) में पूर्ण किया है। अर्थात् दोनोंके वीचमें ६६ वर्षका अन्तर है । ऐसी दशामें उनका गुरु शिष्यका नाता होना दुर्घट है । इसके सिवाय वादिराजके गुरुका नाम मतिसागर था और वे द्रविड संघके आचार्य थे । अब रहे वादीमसिंह, सो उनके गुरुका नाम पुष्पषेण था और पुष्पषेण अकलंकदेवके गुरुभाई थे, इसलिए उनका समय सोमदेवसे बहुत पहले जा पड़ता है। एसी अवस्था में वादिराज और वादीभसिंहको सोमदेवका शिष्य नहीं माना जा सकता। प्रत्यकर्ताफे गुरु बढ़े भारी तार्किक थे। उन्होंने ९३ वादियोंको पराजित करके विजयकीर्ति प्राप्त की थी। इसी तरह महेन्द्रदेव भधारक भी दिग्विजयी विद्वान थे । उनका पादीन्द्रकालानत ' उपपद ही इस बातकी घोषणा करता है। तार्षिक सोमदेव । श्रीसोमदेवसूरि भी अपने गुरु और अनुजके सदृश बड़े भारी तार्किक विद्वान् थे। इस प्रन्यकी प्रशस्तिमें कहते हैं:सल्पेऽनुग्रहधीः समे सुजनता मान्ये महानादरः, सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्रचरिते श्रीसोमदेवे माय । या स्पर्धेत तथापि दर्पदृढताप्रौढिप्रगाढाग्रह-स्तस्याखार्वतगर्वपर्वतपविर्मद्वाक्कृतान्तायते ॥ सारांश यह कि मैं छोटोंके साथ अनुग्रह, बराबरीवालोके साथ सुजनता और बड़ों के साथ महान् आदरका मर्ताव करता हूँ। इस विषयमें मेरा चरित्र बहुत ही उदार है। परन्तु जो मुझे ऐंठ दिखाता है, उसके लिए, गर्वरूपी पर्वतको विध्वंस करनेवाले मेरे वज-वचन कालस्वरूप हो जाते हैं। देखो जनहितैषी भाग ११, अंक -८ । . "उर्फ च वादिराजेन महाकविना--.....................स वादिराजोऽपि श्रीसोमदेवाचार्यस्य शिष्याषादीभालेहोऽपि मदीयशिष्यः श्रीवादिराजोऽपि मदीयशिष्यः' इत्युकत्वाच ।" यशस्तिलकटीका आ०२, पृ०५६५ + ममास्तिलकके ऊपर उदृत हुए श्लोकमें उन महागादियोंकी संभा-जिनको श्रीनमिदेपने पराजित किया थातिरान मतलाई है। परन्तु नीतिवाक्यामृतकी गमप्रशस्तिमें पचपन है। मालम नहीं, इसका क्या कारण है।
SR No.010005
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages127
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size9 MB
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