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________________ rwwwwwwwww अंक 1 सोमदेवसरिकृत नीतिवाक्यामृत । [३९ शास्त्रीजीने उक्त परीक्षा बारीकीसे या अच्छी तरह विचार करके नहीं की है । यह हम मानते हैं कि नीतिवाक्यामृतकी रचनामें अर्थशास्त्रकी सहायता अवश्य ली गई है, जैसा कि मागे दिये हुए दोनोंके अवतरणोंसे मालूम होगा । पाठक देखेंगे कि दोनोंमें विलक्षण समता है, कहीं फहीं तो दोनोंके पाठ बिल्कुल एकसे मिल गये हैं । परन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि नीतिवाक्यामृत अर्थशास्त्रका ही संक्षित सार है । अर्थशास्त्रका अनुधावन करनेवाला होकर भी वह अनेक अंशोंमें बहुत कुछ स्वतंत्र है । अर्थशास्त्रके अतिरिक्त अन्यान्य नीतिशास्त्रोंके अभिप्राय भी उसमें अपने ढंगसे समावेशित किये गये हैं। इसके सिवाय अन्यकर्ताने अपने देश-काल पर दृष्टि रखते हुए बहुत सी पुरानी बातोंको-जिनकी उस समय जरूरत नहीं रही थी या जो उनकी समझमें अनुचित थीं-छोड़ दिया है या परिवर्तित कर दिया है। साथ ही बहुतसी समयोपयोगी बातें शामिल भी कर दी हैं। ___ यहाँ हम अर्थशास्त्र और नीतिवाक्यामृतके ऐसे अवतरण देते हैं जिनसे दोनोंकी समानता प्रकट होती है: १-दुप्पणीतः कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वानप्रस्थपरिव्राजकानपि कोपयति, किमङ्ग पुनर्गृहस्थान् । अप्रणीतो हि मात्स्यन्यायमुद्भावयति । वलीयानवलं नसते दण्डधराभावे। -अर्थशास्त्र पृ०९ । दुष्प्रणीतो हि दण्डः कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वा सर्वजनविद्वेष फरोति । अप्रणीतो हि दण्डो मात्स्यन्यायमुद्भावयति । वलीयानबलं प्रसते ( इति मात्स्यन्यायः)। -नीतिवा० पृ० १०४-५। २-ब्रह्मचर्य चापोडशाद्वात् । अतो गोदान दारकर्म च। -अर्थ० पृ० १० । ब्रह्मचर्यमापोडशाद्वात्ततो गोदानपूर्वकं दारकर्म चास्य । -नी. १६७। ३-गुरोहितमुदितोदितकुलशीलं पडझे वेदे दैवे निमित्ते दण्डनीत्यां च अभिविनीतमा पदां दैवमानुपीणां अथवभिरुपायैश्च प्रतिकार कुर्वीत। -अर्थ० पृ०१५-१६। पुरोहितमुदितफुलशीलं पडंगवेदे दैवे निमित्त दण्डनीत्यामभिविनीतमापदां दैवीनां मानुषीणां च प्रतिकर्तारं कुर्वीत । नीति० पृ. १५९। ४ परमर्मज्ञः प्रगल्भः छात्रः कापटिकः।-अर्थ पृ० १८ । परमर्मज्ञः प्रगल्भः छातः कापटिकः । -- नी० पृ० १७३। ५-भूयते हि शुकसारिकाभिः मन्त्रो भिन्नः श्वामिरन्यैश्च तिर्यग्योनिभिः। तस्मान्मन्नोदेशमनायुक्तो नोपगच्छेत् । -अर्य० पृ० २६। अनायुक्तो न मन्त्रकाले तिष्ठेत् । श्रूयते हि शुकशारिकाभ्यामन्यैश्च तिर्यग्भिमन्त्रभेदः कृतः। -नीतिक पृ० ११ ६-द्वादशवर्या स्त्री प्राप्तव्यवहारा भवति । षोडशपः पुमान् । -अर्य० १५४। द्वादशवर्षा स्त्री पोडशवर्षः पुमान् प्राप्तय्यवहारौ भवतः। -नीति० ३७३। इस तरहके और भी अनेक अवतरण दिये जा सकते हैं। यहाँपर पाठकोंको यह भी ध्यानमें रखना चाहिए कि चाणक्यने भी तो अपने पूर्ववर्ती विशालाक्ष, भारद्वाज, वृहस्पति आदिके अन्योका संग्रह करके अपना अन्य लिखा है। ऐसी दशा में यदि सोमदेवकी रचना अर्थशाससे मिलती जुलती हो, तो क्या आश्चर्य है । क्योंकि उन्होंने भी उन्हीं प्रन्योंका मन्यन करके अपना नातिवाक्यामृत विद्या है। यह दूसरी बात है कि नीतिवाक्यामृतकी रचनाके समय प्रन्यकर्ताके सामने अर्थशास्त्र भी उपस्थित था। परन्तु पाठक इससे नीतिवाक्यामृतके महत्त्वको कम न समझ लें । ऐसे विषयों के प्रन्योका अधिकांश भाग संग्रहरूप ही होता है। क्योंकि उसमे उन सब तस्वोंका समावेश तो नितान्त आवश्यक ही होता है जो प्रत्यक के पूर्वलेखकों द्वारा उस शास्त्रके सम्बन्धमें निश्चित हो चुकते हैं । उनके सिवायजो नये अनुभव और नये तस्य उपलब्ध होते हैं उन्हें ही वह विशेषल्पसे अपने अन्यमें लिपिवद्ध करता है । और हमारी समसमें नीतिवाक्यामृत ऐसी यातोंसे खाली नहीं है । प्रन्यकर्ताकी स्वतंत्र प्रतिभा और मौलिकता उसमें जगह जगह प्रस्फुटित हो रही है। * देखो पृष्ठ ५ की टिप्पणी 'पृथिव्या लाभे' भादि। .
SR No.010005
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages127
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size9 MB
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