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अंक १]
सोमदेवसूरिकृत नीतिवाझ्यामृत। .
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गंगाधारा' स्थान के विपयमें हम कुछ पता न लगा सके जो कि बद्विगकी राजधानी थी और जहाँ यशस्तिलककी रचना समाप्त हुई है। संभवतः यह स्थान धारवाड़के ही आसपास कहीं होगा।
श्रीसोमदेवसूरिने नातिवाक्यामृतकी रचना कब और कहाँ पर की थी, इस वातका विचार करते हुए हमारी दृष्टि उसकी संस्कृत टीकाके निम्नलिखित वाक्यों पर जाती है।
“ अत्र तावदखिलभूपालमौलिलालितचरणयुगलेन रघुवंशावस्थायिपराक्रमपालितकस्य ( कृत्स्न ) कर्णकुन्जेन महाराजश्रीमहेन्द्रदेवेन पूर्वाचार्यकृतार्थशास्त्रदुरवबोधग्रन्थगौरवखिन्नमानसेन सुबोधललितलघुनीतिवाक्यामृतरचनासु प्रवतितः सकलपारिपदत्वानतिग्रन्थस्थ नानादर्शनप्रतिवद्धश्रोतॄणां तत्तदीष्टश्रीकण्ठाच्युतविरंच्यहतां वाचनिकमनस्कृतिसूचनं तथा स्वगुरोः सोमदेवस्य च प्रणामपूर्वकं शास्त्रस्य तत्कर्तृत्वं ख्यापयितुं सकलसत्त्वकृताभयप्रदानं मुनिचन्द्राभिधानः क्षपणकव्रतधी नीतिवाक्यामृतकर्ता निर्विनसिद्धिकरं...श्लोकमेकं जगाद-" पृष्ठ २.
इसका अभिप्राय यह है कि कान्यकुब्जनरेश्वर महाराजा महेन्द्रदेवने पूर्वाचार्यकृत अर्थशास्त्र ( कौटिलीय अर्थशास्त्र ?) की दुर्बोधता और गुरुतासे खिन्न होकर ग्रन्थकर्तीको इस सुबोध, सुन्दर और लघु नीतिवाक्यामृतकी रचना करने में प्रवृत्त क्रिया।
कनौजके राजा महेन्द्रपालदेवका समय वि० संवत् ९६० से ९६४ तक निश्चित हुआ है। कर्पूरमंजरी और.काव्यमीमांसा आदिके को सुप्रसिद्ध कवि राजशेखर इन्हीं महेन्द्रपालदेवके उपाध्याय थे। परन्तु हम, देखते हैं कि यशस्तिलक वि० संवत् १०१६ में समाप्त हुआ है और नीतिवाक्यामृत उससे भी पीछे बना है। क्योंकि नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमें ग्रन्थकाने अपनेको यशोधरमहाराजचरित या यशस्तिलक महाकाव्यका कर्ता प्रकट किया है और इससे प्रकट होता है कि उक्त प्रशस्ति लिखते समय वे यशस्तिलकको समाप्त कर चुके थे। ऐसी अवस्थामें महेन्द्रपालदेवसे कमसे कम ५०-५१ वर्ष बाद नीतिवाक्यामृतका रचनाकाल ठहरता है । तब समझमें नहीं आता कि टीकाकारने सोमदेवको महेन्द्रपालदेवका सामायक कैसे ठहराया है। आश्रय नहीं जो उन्होंने किसी सुनी मुनाई किंवदन्तीके आधारसे पूर्वोक्त वात लिख दी हो।
नीतिवाक्यामृतके टीकाकारका समय अज्ञात है; परंतु यह निश्चित है कि वे मूल ग्रन्थकर्तासे बहुत पीछे हुए है, क्योंकि और तो क्या वे उनके नामसे भी अच्छी तरह परिचित नहीं है । यदि ऐसा न होता तो मंगला. चरणके श्लोककी टीकामें जो ऊपर उद्धृत हो चुकी है, वे अंथकर्ताका नाम 'मुनिचन्द्र' और उनके गुरुका नाम 'सोमदेव' न लिखते । इससे भी मालूम होता है कि उन्होंने ग्रन्थकर्ता और महेन्द्रदेवका समकालिकत्व किंवदन्तकि आधारसेही लिखा है।
___ सोमदेवसूरिने यशस्तिलको एक जगह जो प्राचीन महाकवीयोंकी नामावली दी है, उसमें सबसे अन्तिम नाम राजशेखरका है। इससे मालूम होता है कि राजशेखरका नाम सोमदेवके समयमें प्रसिद्ध हो चुका था. अत एव राजशेखर उनसे अधिक नहीं तो ५० वर्ष पहले अवश्य हुए होंगे और महेन्द्रदेवके वे उपाध्याय थे । इससे भी नीतिवाक्यामृतका उनके समयमें या उनके कहनेसे बनना कम संभव जान पड़ता है।
और यदि कान्यकुजनरेशके कहनेसे सचमुच ही नीतिवाक्यामृत बनाया गया होता, तो इस बातका उल्लेख अन्यकर्ता अवश्य करते; बल्कि महाराजा महेन्द्रपालदेव इसका उल्लेख करनेके लिए स्वयं उनसे आग्रह करते।
पहले बतलाया जा चुका है कि सोमदेवसूरि देवसंघके आचार्य थे और जहाँ तक हम जानते हैं यह संघ दक्षिणमें ही रहा है । अब भी उत्तरमें जो भद्वारकोंकी गद्दियों हैं, उनमेसे कोई भी देवसंघकी नहीं है । यशस्तिलक भी दक्षिणमें ही बना है और उसकी रचनासे भी अनुमान होता है कि उसके कर्ता दाक्षिणात्य हैं । ऐसी अवस्थामें उनका
*देखो नागरीप्रचारिणी पत्रिका (नवीन संस्करण), भाग २, अंक १ में स्वर्गीय पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरीका 'अवन्तिसुन्दरी' शीर्पक नोट।
x" तथा--उर्व-भारवि-भवभूति-भर्तृहरि-भर्तृमेण्ठ-गुणाढ्य-व्यास-भास-वोस-कालिदास-वाण-मयूर-नारायण-कुमारमाघ-राजशेखरादिमहाकविकाव्यपु तत्न तनावसरे भरतप्रणीत काव्याध्याये सर्वजनप्रसिद्धपु तेषु तेप्पाख्यानेषु च कथ तद्विपमा महती प्रसिद्धिः।"
यशस्तिलक आ० ४, पृ०११३।