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________________ जैन साहित्य संशोधक ४८] [ खंड २ निर्ग्रन्थ होकर भी कान्यकुब्जके राजाकी सभा में रहना और उसके कहनेसे नीतिवाक्यामृतकी रचना करना असंभव नहीं तो विलक्षण अवश्य जान पड़ता है । मूलग्रन्थ और उसके कर्ता के विषय में जितनी बातें मालूम हो सकीं उन्हें लिखकर अब हम टीका और टीकाकारका परिचय देनेकी ओर प्रवृत्त होते हैं:-- PV टीकाकार । जिस एक प्रतिके आधार से यह टीका मुद्रित हुई है, उसमे कहीं भी टीकाकारका नाम नहीं दिया है। संभव है कि टीकाकारकी भी कोई प्रशस्ति रही हो और वह लेखकों के प्रमादसे छूट गई हो । परन्तु टीकाकारने अन्यके आरंभ में जो मंगलाचरणका श्लोक लिखा है, उससे अनुमान होता है कि उनका नाम बहुत करके ' हरिवल ' होगा । हरि हरिवलं नत्वा हरिवर्ण हरिप्रभम् हरीज्यं च बुवे टीका नीतिवाक्यामृतोपरि ॥ यह श्लोक मूल नीतिवाक्यामृत के निम्नलिखित मंगलाचरणका बिल्कुल अनुकरण है:सोमं सोमसमाकारं सोमानं सोमसंभवम् । सोमदेवं मुनिं नत्वा नीतिवाक्यामृतं ब्रुवे ॥ जब टीकाकारका मंगलाचरण मूलका अनुकरण है और मूलकारने अपने मंगलाचरण में अपना नाम भी पर्यायान्तरसे व्यक्त किया है, तब बहुत संभव है कि टीकाकारने भी अपने मंगलाचरण अपना नाम व्यक्त करनेका प्रयत्न किया हो और ऐसा नाम उसमें हरिवल ही हो सकता है जिसके आगे मूलके सोमदेव के समान नत्था पद पड़ा हुआ है। यह भी संभव है कि हरिबल टीकाकारके शुरुका नाम हो और यह इसलिए कि सोमदेवको उन्होंने मूलग्रन्थ कर्ताके गुरुका नाम समझा है । यद्यपि यह केवल अनुमान ही है, परन्तु यदि उनका या उनके गुरुका नाम हरिवल हो, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । टीकाकारने मंगलाचरणमें हरि या वासुदेवको नमस्कार किया है। इससे मालूम होता है कि वे वैष्णव धर्मके उपासक होंगे। 1 वे कहाँ रहनेवाले थे और किस समय में उन्होंने यह टीका लिखी है, इसके जाननेका कोई साधन नहीं है परन्तु यह बात निःसंशय होकर कही जा सकती हैं कि वे बहुश्रुत विद्वान् थे और एक राजनीतिके प्रन्यपर टीका लिखनेकी उनमें यथेष्ट योग्यता थी। इस विपयके उपलब्ध साहित्यका उनके पास काफी संग्रह था और टीकामे उसका पूरा पूरा उपयोग किया गया है। नीतिवाक्यामृतके अधिकांश वाक्योंकी टीकामे उस वाक्यसे मिलते जुलते अभिप्रायवाले उद्धरण देकर उन्होंने मूल अभिप्रायको स्पष्ट करनेका भरसक प्रयत्न किया है । विद्वान् पाठक समक्ष सकते हैं कि यह काम कितना कठिन है और इनके लिए उन्हें कितने ग्रन्थों का अध्ययन करना पड़ा होगा; स्मरणशक्ति भी उनकी कितनी प्रखर होगी । यह टीका पचासों मन्थकारोंके उद्धरणोंसे भरी हुई हैं। इसमें किन किन कवियों, आचाय या ऋपियों के छोक उदधृत किये गये हैं, यह जानने के लिए प्रन्थके अन्तमें उनके नामोंकी और उनके पद्योंकी एक सूची वर्णानुक्रमसे लगा दी गई है, इसलिए यहाँ पर उन नामों का पृथक् उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है । पाठक देखेंगे कि उसमें अनेक नाम बिल्कुल अपरिचित हैं और अनेक ऐसे हैं जिनके नाम तो प्रसिद्ध हैं; परन्तु रचनायें इस समय अनुपलब्ध हैं। इस दृष्टिसे यह टीका और भी बड़े महत्त्वकी है कि इससे राजनीति या सामान्यनीतिसम्बन्धी प्राचीन ग्रन्थकारोंकी रचनाके सम्बन्ध में अनेक नई नई बातें मालूम होंगी । संशोधक आक्षेप | इस ग्रन्थकी प्रेसकापी और प्रुफ संशोधनका काम श्रीयुत पं० पन्नालालजी सोनीने किया है । आपने केवल अपने उत्तरदायित्व पर, मेरी अनुपस्थितिमें, कई टिप्पणियाँ ऐसी लगा दी हैं जिनसे टीकाकारके और उसकी टीकाके विषयमें एक बड़ा भारी भ्रम फैल सकता है अतएव यहाँ पर यह आवश्यक प्रतीत होता है कि उन टिप्पणियों पर भी एक नजर डाल ली जाय । सोनीजीकी टिप्पणियों के आक्षेप दो प्रकार के हैं:--- "
SR No.010005
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages127
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size9 MB
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