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जैन साहित्य संशोधका
............ शान्तिपुराण नामक श्रेष्ठ प्रन्थकी रचना की है। महाराज कृष्णराज देवके दरवारसे इसे 'उगयभापाकविचमवती । की उपाधि मिली थी।
निजामके राज्यमें मलखेड नामका एक ग्राम है जिसका प्राचीन नाम 'मान्यखेट ' है । यह मान्यखेट ही अमोघघर्ष आदि राष्टकट,मग की राजधानी थी और उस समय बहुत ही समृद्ध थी। संभव है कि सोमदेवने इसीको मेलपाटी या मिल्याटी लिखा हो। 'हिस्टरी आफ कनारी लिटरेचर' के लेखकने लिखा है कि पोन कविको उभयभापाकविचक्रवर्तीकी उपाधि देनेवाले राष्ट्रकूट राजा कृष्णराजने मान्यखेटमें सन् ९३९ से १६८ तक राज्य किया है। इससे भी मालूम होता है कि मान्यखेटका ही नाम मेलपाटी होगा; परंतु यदि यह मेलपाटी कोई दूसरा स्थान है तो समझना होगा कि कृष्णराज देवके समयमें मान्यखेटसे राजधानी उठकर उक्त दूसरे स्थानमें चली गई थी। इस बातका पता नहीं लगता कि मान्यखेटमें राष्ट्रकूटोंकी राजधानी कब तक रही।
राष्ट्रकूटोंके समयमें दक्षिणका चालुक्यवंश ( सोलकी ) हतप्रभ हो गया था। क्योंकि इस वंशका सार्वभौमत्व राष्टकटोंने ही छीन लिया था। अतएव जब तक राष्ट्रकूट सार्वभौम रहे तब तक चालुक्य उनके आज्ञाकारी सामन्त या माण्डलिक राजा बनकर ही रहे। जान पड़ता है कि अरिकेसरिका पुत्र बदिग ऐसा ही एक सामन्तराजा था जिसकी गंगाधारा नाजधानीमें यशस्तिलककी रचना समाप्त हुई है।
चालुक्योंकी एक शाखा ‘जोल' नामक प्रान्तपर राज्य करती थी जिसका एक भाग इस सगयके धारवाड़ जिलेमें आता है और श्रीयुक्त आर. नरसिंहाचार्य के मतसे चालक्य अरिकेसरीकी राजधानी 'पुलगेरी में थी जो कि इस समय 'लक्ष्मेश्वर के नामसे प्रसिद्ध है।
इस अरिकेसरीके ही समयमें कनड़ी भाषाका सर्वश्रेष्ठ कवि पम्प हो गया है जिसकी रचना पर मुग्ध होकर अरिकेसरीने धर्मपुर नामका एक ग्राम पारितोपिकमें दिया था। पम्प जैन था। उसके बनाये हुए दो प्रन्थ ही इस समय उपलब्ध है-एक आदिपुराण चम्पू और दूमरा भारत या विक्रमार्जुनविजय। पिछले ग्रन्थमें उसने भरिकेसरीकी वंशावली इस प्रकार दी है-युद्धमल्ल -आरकसरी-नारसिंह-युद्धमल्ल - पहिंग- युद्धमल्लनारसिंह और अरिकेसरी । उक्त ग्रन्थ शक संवत ८६३ (वि० ९९८ में ) समास हुआ है, अर्थात् यह यशस्तिलकसे कोई १८ वर्ष पहले वन चुका था। इसकी रचनाके समय अरिकेसरी राज्य करता था, तब उसके १८ वर्षबाद-यशस्तिलककी रचनाके समय-उसका पुत्र राज्य करता होगा, यह सर्वथा ठीक अँचता है।
_काव्यमाला द्वारा प्रकाशित यशस्तिलकमें अरिकेसरीके पुत्रका नाम 'श्रीमद्वागराज' मुद्रित हुआ है; परन्तु हमारी समझमें वह अशुद्ध है । उसकी जगह 'श्रीमद्वादिगराज' पाठ होना चाहिए । दानवीर सेठ माणिकचंदजीके सरस्वतीभंडारकी वि० सं० १४६४ की लिखी हुई प्रतिमें 'श्रीमद्वद्यगराजस्य पाठ है और इससे हमें अपने कल्पना किये हुए पाठकी शुद्धतामें और भी अधिक विश्वास होता है। ऊपर जो हमने पम्पकवि-लिखित अरिकेसरीकी वंशावली दी है, उस पर पाठकोंको जरा बारीकीसे विचार करना चाहिए। उसमें युद्धमल्ल नामके तीन, आरिकेसरी नामके दो और नारसिह नामके दो राजा है। अनेक राजवंशोंमें प्रायः यही परिपाटी देखी जाती है कि पितामह और पौत्र या प्रपितामह और प्रपौत्रके नाम एकसे रक्खे जाते थे, जैसा कि उक्त वंशावलीसे प्रकट होता है। अतएव हमारा अनुमान है कि इस वंशावलीके अन्तिम राजा आरिफोसरी (पम्पके आश्रयदाता) के पुलका नाम बहिग x ही होगा जो कि लेखकोंके प्रमादसे 'वद्यग' या 'वाग' बन गया है।
__x महाराजा अमोघवर्ष (प्रथम) के पहले शायद राष्ट्रकूटोंकी राजधानी मयूरखण्डी थी जो इस समय नासिक जिलेमें मोरखण्ड किलेके नामसे प्रसिद्ध है।
* दक्षिणके राष्ट्रकूटोंकी वंशावलीमें भी देखिए कि अमोघवर्ष नामके चार, कृष्ण या अकालवर्प नामके तीन, गोविन्द नामके चार, इन्द्र नामके तीन और कर्क नामके तीन राजा लगभग २५० वर्षके बीच में ही हुए हैं।
xश्रद्धय पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझाने अपने 'मोलंकियोंके इतिहास' (प्रथम भाग) में लिखा है कि सोमदेवसूरीने अरिकेसरीके प्रथम पुत्रका नाम नहीं दिया है। परन्तु ऐसा उन्होंने यशस्तिलककी प्रशस्तिके अशुद्ध पाठके कारण समझ लिया है। वास्तवमे नाम दिया है और वह 'दिग' ही है।
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