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________________ भंक१ सोमदेवशारदार गोतियाफ्याम्मत Momww...inwwwww wwww इस उक्तिसे पाठक जान सकते हैं कि उनके विचार ज्ञानके सम्बन्धमें कितने उदार थे । उसे ये सर्वसाधारणको चीज समझते थे और यही कारण है जो उन्होंने धर्माचार्य होकर भी अपने धर्मसे इतर धर्मके माननेवालोंके साहित्यका भी अच्छी तरहसे अध्ययन किया था, यही कारण है जो वे पूज्यपाद और भट्ट अकलंकदेवके साथ पाणिनि आदिका भी आदरके साथ उल्लेख करते हैं और यही कारण है जो उन्होंने अपना यह राजनीतिशाबजनेतर आचार्योंके विचारोंका सार खींचकर बनाया है। यह सच है कि उनका जैन सिद्धान्तों पर अचल विश्वास है और इसीलिए यशस्तिलकमें उन्होंने अन्य सिद्धान्तोका खण्डन करके जैनसिद्धान्तकी उपादेयता प्रतिपादन की है। परन्तु इसके साथ ही वे इस सिद्धान्तके पक्के अनुयायी हैं कि 'युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः।' उनकी यह नीति नहीं थी कि ज्ञानका मार्ग भी संकीर्ण कर दिया जाय और संसारके विशाल ज्ञान-भाण्डारका उपयोग करना छोड़ दिया जाय। समय और स्थान। नीतिवाक्यामृतके अन्तकी प्रशस्तिमें इस बातका कोई जिकर नहीं है कि वह कब और किस स्थानमें रचा गया था, परन्तु यशस्तिलक चम्पूके अन्तमें इन दोनों बातोंका उल्लेख है: "शकनृपकालातीतसंवन्सरशतेप्वष्टस्वेकाशीत्यधिकेपु गतेपु अफ ८८१) सिद्धार्थसंवत्सरान्तर्गतचैत्रमासमदनत्रयोदश्यां पाण्ड्य-सिंहल-चोल-चेरमप्रभृतीन्महीपतीन्प्रसाध्य मेलपाटीप्रवर्धमानराज्यप्रभावे श्रीकृष्णराजदेवे सति तत्पादपानोपजीविनः समधिगतपञ्चमहाशब्दमहासामन्ताधिपतेश्चाक्यकुलजन्मनः सामन्तचूडामणेः श्रीमदरिकेसरिणः प्रथमपुत्रस्य श्रीमद्वद्यगराजस्य लक्ष्मीप्रवर्धमानवसुधागयां गङ्गाधारायां विनिमापितमितं कान्यामिति ।". ___ अर्थात् चैत सुदी १३, शकसंवन् ८८१ (विक्रम संवत् १०३६) को जिस समय श्रीकृष्णगजदेव पाण्य सिंहल, चोल, चेर आदि राजाओं पर विजय प्राप्त करके मेलपाटी नामक राजधानीमें राज्य करते थे और उनके चरणकमलोपजीवी सामन्त वदिग-जो चालुक्यवंशीय भरिकेसरीके प्रथम पुत्र थे-गंगाधाराका शासन करते थे, यह काव्य समाप्त हुआ। ____दक्षिणके इतिहाससे पता चलता है कि ये कृष्णराजदेव राष्ट्रकूट या राठौर वंशके महाराजा थे और इनका दूसरा नाम अकालवप था। यह वही वंश है जिसमें भगवज्जिनसेनके परमभक्त महाराज अमोघवर्ष (प्रथम) उत्पन्न हुए थे। अमोघवर्षके पुत्र अकालवप (द्वितीय कृष्ण ) और अकालवर्पके जगतुंग हुए । इन जगत्तुंगके दो पुत्रो. इन्द्र या नित्यवर्प और वहिग या अमांघव (तृतीय) मेसे-अमोघवर्ष तृतीयके पुत्र कृष्णराजदेव या तृतीय कृष्ण थे। इनके समयके शक संवत् ८६७, ८७३, ८७६, और ८८१ के चार शिलालेख मिले हैं, इससे इनका राज्यकाल फमसे कम ८६७ से ८८१ तक सुनिश्चित है। ये दक्षिणके सार्वभौमराजा थे और बड़े प्रतापी थे। इनके अधीन अनेक माण्डलिक या करद राज्य थे । कृष्णराजने-जैसा कि सोमदेवसूरिने लिखा है-सिंहल, चोल, पाण्ड्य और चेर राजाओको युद्ध में पराजित किया था। इनके समयमें कनड़ी भापाका सुप्रसिद्ध कवि पोन हुआ है जो जैन था और जिसने पाण्डयवर्तमानमें मद्रासका 'तिनेवली' । सिंहल-सिलोन या लंका। चोल-मदरासका कारोमण्डल। चेर केरल, वर्तमान त्रावणकोर । २ मुद्रित प्रन्यमें 'मेल्याटी' पाठ है। ३ मुद्रित पुस्तक 'श्रीमद्वागराजप्रबंधमान- पाठ है। *जगतंग गद्दीपर नहीं बैठे। अकालवपके वाद जगतंगके पुत्र तृतीय इन्द्रको गद्दी मिली। इन्द्रके दो पुत्र धे-अमोघवर्प (द्वितीय) और गोविन्द (चतुर्थ)। इनमेंसे द्वितीय अमोघवर्ष पहले सिंहासनारूढ हुए; परन्तु कुछ; ही समयके बाद गोविन्द चतुर्थने उन्हें गद्दीसे उतार दिया और आप राजा बन बैठे। गोविन्दके बाद उनके काका अर्थात जगतंगके दूसरे पुत्र अमोघवर्ष (तृतीय) गद्दीपर बैठे। अमोघवर्पके बाद ही कृष्णराजदेव सिंहासनासीन हुए। इन सबके विषयमें विस्तारसे जाननेके लिए डा० भाण्डरकरकृत 'हिस्ट्री आफ दी डेकन' या उसका मराठी अनुबाद पढ़िए । -
SR No.010005
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages127
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size9 MB
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