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________________ ६५ अक १] महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण परिशिष्ट नं० १ (श्रादिपुराण के प्रारंभ का कुछ अंश ।) औं नमो वीतरागाय । सिद्धिवर्मणरंजणु परमनिरंजणु भुश्रणकमलसरणेसरूं। पणवेवि विग्यविणासणु निरुवमसासणु रिसहणाहपरमेसरु॥ ध्रुवकम् ॥ x तं कदमि पुराणु पसिद्धणामु, सिद्धत्थरिसे भुवणाहिराम। उवद्धज्जूड भूभंगभीसु, तोडेप्पिणु चोडहो तणउं सीसु ॥१॥ भुवणेकराम रायाहिराउ, जहिं अच्छह तुडि[ महाणुभाउ । तं (?) दीण दिण्ण घणकणयपयरु, महिपरिभमंत मेवाडिणयरु ॥२॥ अवदेरिय खलयण गुणमहंतु, दियहदि पराइउ पुप्फयंतु । दुग्गदीहरपंथेगरीd, णव इंदु जेम देहेण खाणु ॥ ३ ॥ तरुकुसुमरेणुरंजियसमीर,मायंदरांछ गुंदलियकीर । णंदणवणे किर वौसमइ जाम, तहिं विपिण पुरिस संपत्त ताम ॥ ४॥ पणवेपिणु तेहिं पवुत्त एव, भो खण्डै गलिय पावावलव । परिभमिरभमररचगुमुगुमंत, किं किर णिवसहि णिज्जणवणंत ॥ ५ ॥ करिसरवहिरिय दिश्चकवाले, पइसरहि ण किं पुरवरविसाले। तं सुणेवि भणई अहिमाणमेरु, परि खजउ गिरकंदकले ॥ ६ ॥ णउ दुजणभउंहा वंकियाई, दसिंतु कलुसमाकियाई ॥ घत्ता। वरुणरवरु धवलच्छिह, होउ मच्छिह, मरउ सोणिमुहणिग्गमे । खलकुच्छियपहुवयगई, भिडियणयणई, म णिहालउ सूरुग्गमे ॥७॥ चमराणिलउड्डावियगुणाएं, अहिसेयधोयसुयणतणाएं । भावार्थ-इस प्रसिद्ध पुराणको मैं सिद्धार्थ संवत्सर में कहता हूं जब राजाधिराज भुवनैकराम तुहिगुने बोड राजा का सुन्दर जटायुक और भ्रकुटि भंगिसे भीषण मस्तक काटा ॥ १ ॥ उन्हों ने दीन दुखियों को प्रचुर धन दिया । इसी समय पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए और खलजनों द्वार। अपमानित हुए पुष्पदन्त कवि मेवाडि या मेलाटी नगरी में आये। दुर्गम और लम्बा रास्ता तय करते करते उनका शरीर नवीन चन्द्रमा के समान क्षीण हो गया था। २-३॥ नन्दन वन नामक उद्यान में विधाम ले रहे थे जहां का वायु पुष्षों के पराग से महक रहा था और आम्रवृक्षों पर शुकों के झुण्ड क्रीड़ा कर रहे थे। इतने में ही वहां दो पुरुष पहुंचे ॥४॥ उन्होंने प्रणाम करके कहा कि हे निष्पाप खंडकवि, आप इस निर्जन वन में जो भ्रमरों के गुंजार से गूंज रहा है क्यों ठहरे हैं ? हाथियों के शब्दों से दिशाओं को बधिर करनवाले इस विशाल नगर में क्यों नहीं चलते? यह सुन कर आभमानमेरु पुष्पदन्तने कहा कि गिरिकन्दराओं के जंगली फल खा लेन। अच्छा, परन्तु दुर्जनों की कलुपित टेढी भौहें देखना अच्छा नहीं ॥ ५-६॥ उज्ज्वल नेत्रोंवाली माता की कुंख से जन्म लेते ही मर जाना अच्छा परन्तु प्रभु के दुष्ट वचन और भ्रकुटित नयन संवरे सवेरे देखना अच्छा नहीं ॥७॥ वह लक्ष्मी किस मतलब की जिसने दुरते हुए चॅवरों की हवा से सारे गुणों को उड़ा दिया हो. आभिषेक के जल सिद्धार्थ संवत्सरे । २ विरुदः। ३ कृष्णराजः। ४ दुर्गमदीर्घतराकाशमार्गणागतः। ५मन्दतेजः। ६ मिलित ७ पुष्पदन्तः। ८ हस्तिशब्दात् । ९दिक्चवक्रवलये। ।
SR No.010005
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages127
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size9 MB
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