SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ - जैन साहित्य संशोधक श्रविवेयपं दप्पुत्तालियाएं, मोहंधयाएं मारणसीलयाएं ॥ ८ ॥ सत्तंगरजभरभारियाएं, पिउपुत्तरमणरलयारियांएं । विससहजम्मपं जडरत्तियाएं, किं लच्छिए विउसविरत्तियाएं ॥ ६ ॥ संपइ जणु गीरसु शिव्विसेसु, गुणवंत जहिं सुरगुरुवि देसु । तर्हि श्रम्हई लइ काणणु जे सरणु, श्रहिमार्णे सहुं वरि होउ मरण ॥ १० ॥ अम्मय इंदराप ितेहि, श्रयरिणय तं पहसिय मुद्देहि । गुरुविण्य पण्यपणवियसिरेहि, पडिवयणु दिण्णु णायरणरोहं ॥ ११ ॥ यत्ता | जणमणतिमिरोसारण, मयतरुवारण, णियकुलगयणदिवायर । भो भो केसवतणुरुह, रावसररुहमुह, कव्वरयणरयणायर ॥ १२ ॥ वंभंडमंडवारूढकिंत्ति, श्रणवरय रहय जिणणाहभत्ति । सुहतुंगदेवकमकमलभसलु, पीसेसकलाविण्याणकुसल ॥ १३ ॥ पाययकइकन्व रसावलुध्दु, संपीय सरासइसुरादुदूधु । कमलच्छु श्रमच्छरु सच्चसंधु, रणभरधुरधरणुग्धिटुखंधु ॥ १४ ॥ सविलासविलासिणिद्दियय येणु, सुपसिद्ध महाकइकामधेणु । काणीणदीणपरिपूरियासु, जसपसरपसाहियदसदिसासु ॥ १५ ॥ पररमणिपरम्मुह सुद्धसीलु, उण्णयमइ सुयरणुद्धरगंलीलु । गुरुयणपयपणवियउत्तमंगु, सिरिदेविनंवगन्भुन्भवंगु ॥ १६ ॥ अण्णइयत उं तगुरु पसत्य, इत्थिवदागोल्लियदीददत्यु | महमत्तवं सधयवडु गहीरु, लक्खणलक्खकिय वरसरीरु ॥ १७ ॥ [ खण्ड २ से सुजनता को धो डाला हो, अविवेक से दर्प को बढ़ाया हो, जो मोहसे अन्धी हो, मारणशील हो, सप्तांग राज्य के भार से लदी हुई हो, पिता और पुत्र दोनों में रमण करनेवाली ( घृणितव्याभिचारिणी ) हो, विषके साथ जिसका जन्म हुआ हो, जो जढ़ ( या जल ) में रक्त हो, और जो विद्वानों से विरत रहती हो ॥ ८-९ ॥ इस समय लोग नीरस और विशेषतारहित हो गये हैं। अब तो गुणवन्त बृहस्पृति का भी द्वेष किया जाता है । इसी लिए मैंने इस वन का शरण लिया है। मैंने सोचा है कि इस तरह अभिमान के साथ मर जाना भी अच्छा है ॥१०॥ कवि के ये वचन सुनकर उन दो आगत नागरिकों ने अम्मय ( ? ) और इन्द्रराजने -- प्रसन्न मुख से और बड़े विनय से मस्तक झुकाकर कहा--" हे मनुष्यों के हृदयान्धकार को दूर करनेवाले, नवीन कमलसदृश मुखवाले, मदरहित, अपने कुलरूपी आकाश के चन्द्रमा, काव्यरत्नरत्नाकर, और केशव के पुत्र पुष्पदन्तजी, क्या आपने भरत ( मंत्री ) का नाम नहीं सुना ? जिस की कीर्ति ब्रम्हाण्डरूपमण्डपपर आरूढ हो रही है, जो निरन्तर जिन भगवान की भक्ति में अनुरक्त रहता है, शुभतुंगदेव ( राजा और इस नाम का मन्दिर ) के चरणकमलों का भ्रमर है, सारी कला और विद्याओं में कुशल है, प्राकृत कवियों के काव्यरसपर लुब्ध रहता है और जिसने सरस्वतीरूप सुरभि का खूब दूध पिया है, लक्ष्मी जिसे चाहती है, जो मत्सर रहित है, सत्यप्रतिज्ञ है, युद्धों के बोझे को ढोते ढोते जिस के कन्धे घिस गये हैं, जो विलासवती मुन्दरियों के हृदय का चुरानेवाला है, बड़े वंड प्रसिद्ध महाकवियों के लिए कामधेनु है, दीन दुखियाओं की आशाओं को पूरा करनेवाला है, जिस के यश ने दशों दिशाओं को जीत लिया है, जो परस्त्रियों की ओर कभी नजर नहीं उठाता, शुद्ध शीलयुक्त है, जिस की मति उन्नत है, लीला मात्र से जो सुजनों का उद्धार कर देता है, गुरुजनों के चरणोंपर जिस का मस्तक सदैव झुका रहता है, जो श्रीदेवी माता और अण्णय पिता का पुत्र है, जिस के हाथ हाथी के समान दान ( या मदजल ) से आर्द्र रहते हैं, जो महामात्यवंशका ध्वजपट है, गंभीर है, जिस का शरीर शुभ लक्षणों से युक्त है और जो दुर्व्यसनरूपी सिंहों के लिए जो अष्टापद के समान है ॥११- १७ ॥ आइए, उसके नेत्रों
SR No.010005
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages127
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy