________________
[ खंड २
जब नदीमें बाढ आती है तब वह चारों ओरसे बहने लगती है। योगका यही हाल हुवा, और वह आसन, मुद्रा, प्राणायाम आदि बाह्य अंगों में प्रवाहित होने लगा । बाह्य अंगोंका भेद प्रभेद पूर्वक इतना अधिक वर्णन किया गया और उसपर इतना अधिक जोर दिया गया कि जिससे यह योगकी एक शाखा ही अलग बन गई, जो हठयोगके नामसे प्रसिद्ध है ।
१०]
जैन साहित्य संशोधक
हठयोगके अनेक ग्रंथोंमें हठयोगप्रदीपिका, शिवसंहिता, घेरंडसंहिता, गोरक्षपद्धति, गोरक्षशतक आदि मन्थ प्रसिद्ध हैं, जिनमें आसन, वन्ध, मुद्रा, षट्कर्म, कुंभक, रेचक, पूरक आदि बाह्य योगांगों का पेट भर भरके वर्णन किया है; और घेरण्डने तो चौरासी आसनको चौरासी लाख तक पहुंचा दिया है ।
उक्त हठयोगप्रधान ग्रन्थोंमें हठयोगप्रदीपिका ही मुख्य है, क्यों कि उसीका विषय अन्य ग्रन्थोंमें विस्तार रूपसे वर्णन किया गया है। योगविषयक साहित्यके जिज्ञासुओंको योगतारावली, बिन्दुयोग, योगबीज और योगकल्पमका नाम भी भूलना न चाहिये । विक्रमकी सत्रहवी शताब्दी में मैथिल पण्डित भवदेवद्वारा रचित योगनिवन्ध नामक हस्तलिखित ग्रन्य भी देखनेमें आया है, जिसमें विष्णुपुराण आदि अनेक ग्रन्थोंके हवाले देकर योगसम्बन्धी प्रत्येक विषय पर विस्तृत चर्चा की गई है ।
संस्कृत भाषामें योगका वर्णन होनेसे सर्व साधारणकी जिज्ञासाको शान्त न देखकर लोकभाषाके योगियोंने भी अपनी जवानमें योगका आलाप करना शुरू कर दिया।
महाराष्ट्रीय भाषा में गीताकी ज्ञानदेवकृत ज्ञानेश्वरी टीका प्रसिद्ध है, जिसके छट्ठे अध्यायका भाग बडा ही हृदयहारी है। निःसन्देह ज्ञानेश्वरी द्वारा ज्ञानदेवने अपने अनुभव और वाणीको अवन्ध्य कर दिया हैं। सुहींगेवा अंबिये रचित नाथसम्प्रदायानुसारी सिद्धान्तसंहिता भी योगके जिज्ञासुओंके लिये देखनेकी वस्तु है ।
कबीरका बीजक ग्रन्य योगसम्बन्धी भाषासाहित्यका एक सुन्दर मणका है ।
अन्य योगी सन्तोंने भी भाषा में अपने अपने योगानुभवकी प्रसादी लोगोंको चखाई है, जिससे जनताका बहुत बडा माग योगके नाम मात्रसे मुग्ध बन जाता है।
अत एव हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि प्रसिद्ध प्रत्येक प्रान्तीय भाषांम पातञ्जल योगशास्त्रका अनुवाद तथा विवेचन आदि अनेक छोटे बडे ग्रन्थ बन गये है । अंग्रेजी आदि विदेशीय भाषामें भी योगशास्त्रका अनुवाद आदि बहुत कुछ बन गया है 1, जिसमें वूडका भाष्यटीका सहित मूल पातञ्जल योगशास्त्रका अनुवाद विशेष उल्लेख योग्य है ।
जैन सम्प्रदाय निवृत्ति - प्रधान है। उसके प्रवर्तक भगवान् महावीरने बारह सालसे अधिक समय तक मोन धारण करके सिर्फ आत्मचिन्तनद्वारा योगाभ्यासमें ही मुख्यतया जीवन बिताया। उनके हजारों शिष्य 2 तो ऐसे में जिन्होंने घरवार छोड कर योगाभ्यासद्वारा साधुजीवन विताना ही पसंद किया था ।
जैन सम्प्रदायके मौलिक ग्रन्य आगम कहलाते हैं। उनमें साधुचर्याका जो वर्णन है, उसको देखने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि पांच यमः तप, स्वाध्याय आदि नियमः इन्द्रिय-जय - रूल प्रत्याहार इत्यादि जो योगके खास अड़ हैं, उन्हींको, साधुजीवनका एक मात्र प्राण माना है ।
1 प्रो० राजेन्द्रलाल मित्र, स्वामी विवेकानंद, श्रीयुत रामप्रसाद आदि कृत । 2 " चउद्दसहिं समणसाहस्तीहिं छत्तीसाहिं अजिआसाहस्तीहि " उववादसूत्र |
3 देखो आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, मूलाचार, आदि ।