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________________ जैन साहित्य संशोधक १८ ] नेका उन्होंने सच्चा मार्ग लोगोंको बतलाया । उनकी इस दृष्टिविशालताका असर अन्य गुण-ग्राही आचायोंपर भी पड़ा 1, और वे उस मतभेदसहिष्णुता के तत्त्वका मर्म समझ गये । [ खंड २ वैशेषिक, नैयायिक आदिकी ईश्वरविषयक मान्यताका तथा साधारण लोगोंकी ईश्वरविषयक श्रद्धाका योगमागमें उपयोग करके ही पतञ्जलि चुप न रहे, पर उन्होंने वैदिकेतर दर्शनोंके सिद्धान्त तथा प्रक्रिया जो योगमार्गके लिये सर्वथा उपयोगी जान पड़ी उसका भी अपने योगशास्त्रमें बडी उदारता से संग्रह किया । यद्यपि चौद्ध विद्वान् नागार्जुनके विज्ञानवाद तथा आत्मपरिणामित्ववादको युक्तिहीन समझ कर या योगमार्ग में अनुपयोगी समझ कर उसका निरसन चोयें पादमें किया 2 है. तथापि उन्होंने बुद्धभगवान् के परमप्रिय चार आर्यसत्योंका3 हेय, हेयहेतु, छान और हानोपाय रूपसे स्वीकार निःसंकोच भावसे अपने योगशास्त्र में किया है । "" 1 पुष्पैश्च बलिना चैव वत्यैः स्तोत्रैश्च शोभनैः । देवानां पूजनं ज्ञेयं शौच श्रदासमन्वितम् ॥ अविशेषेण सर्वेषामधिमुक्तिवशेन वा । गृहिणां माननीया यत्सर्वे देवा महात्मनाम् ॥ सर्वान्देवान्नमस्यन्ति नैकं देवं समाश्रिताः । जितेन्द्रिया जितक्रोधा दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ चारिसंजीवनीचारन्याय एष सतां मतः नान्यथात्रेष्टसिद्धिः स्याद्विशेषेणादिकर्मणाम् ॥ गुणाधिक्यपरिज्ञानाद्विक्षेत्रेऽप्येवदिष्यते । अद्वेषेण तदन्येषां वृत्ताधिक्ये तथात्मनः ॥ योगबिन्दु श्रो. १६-२० जो विशेषदर्शी होते हैं, वे तो कीसी प्रतीक विशेष या उपासना विशेषको स्वीकार करते हुए भी अन्य प्रकारकी प्रतीक माननेवालों या अन्य प्रकारकी उपासना करनेवालोंसे द्वेष नहीं रखते, पर जो धर्नाभिमानी प्रथमाधिकारी होते हैं वे प्रतीकभेद या उपासनाभेदके व्यामोहसे ही आपस में लड मरते हैं । इस अनिष्ट तत्त्वको दूर करनेके लिये ही श्रीमान् हरिभद्रसूरिने उक्त पद्योंमें प्रथनाधिकारीके लिये सत्र देवोंकी उपासनाको लाभदायक बतलानेका उदार प्रयत्न किया है। इस प्रयत्नका अनुकरण श्रीयशोविजयजीने भी अपनी " पूर्व सेवाद्वात्रिंशिका " " आठदृष्टियोंकी सज्झाय आदि ग्रन्थोंमें किया हैं । एकदेशीय सम्प्रदायाभिनिवेशी लोगोंको समजानेके लिये ' चारिसंजीवनीचार न्यायका उपयोग उक्त दोनों आचायोंने किया है । यह न्याय या मनोरञ्जक और शिक्षाप्रद है । :: इस समभावसूचक दृष्टान्तका उपनय श्रीशानविमलने आठदृष्टिकी मज्झाय पर किये हुए अपने पूजराती में बहुत अच्छी तरह घटाया है, जो देखने योग्य है । इसका भाव संक्षेपमें इस प्रकार है । कीसी चीने अपनी सखीसे कहा कि मेरा पति मेरे अधीन न होनेसे मुझे बडा कष्ट है । यह सुन कर उस 'आगन्तुक सन्नीने कोई जडी खिला कर उस पुरुषको बैल बना दिया, और वह अपने स्थानको चली गई । पतिके चैल वन जानेसे उसकी पत्नी दुःखित हुई, पर फिर वह पुरुषरूप बनानेका उपाय न जाननेके कारण उस बैलरूप पतिको चराया करती थी, और उसकी सेवा किया करती थी । कोसी समय अचानक एक विद्याधरके मुखसे ऐसा सुना कि अगर बैलरूप पुरुषको संजीवनी नामक जडी चराई जाय तो वह फिर असली रूप धारण कर सकता है । विद्याधरसे यह भी सुना कि वह जडी अमुक वृक्षके नीचे है। पर उस वृक्षके नीचे अनेक प्रकारकी वनस्पति होनेके कारण वह न्त्री संजीवनीको पहचानने में असमर्थ थी । इससे उस दुःखित स्त्रीने अपने बैल धारि पतिको सब वनस्पतियाँ चरा दीं । जिनमें संजीवनीको भी वह बैल चर गया। जैसे विशेष परीक्षा न होनेके कारण उस स्त्रीने सत्र वनस्पतियों के साथ संजीवनी खिला कर अपने पतिका कृत्रिम वैलरूप छुडाया, औरे असली मनुष्यत्वको प्राप्त कराया, वैसे ही विशेष परीक्षाविकल प्रथमाधिकारी भी सब देवोंकी समभावसे उपासना करते करते योगमार्गमें विकास करके इष्ट लाभ कर सकता है। 2 देखो सू० १५, १८ । उदुःख, समुदय, निरोध और मार्ग ।
SR No.010005
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages127
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size9 MB
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