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इच्छा, प्रवृत्ति आदि अवान्तर स्थितिका लक्षण बहुत स्पष्टतया वर्णन किया है 1 । इस प्रकार उक्त पाँच भूमिकाओंकी अन्तर्गत न्निन्न भिन्न स्थितियोंका वर्णन करके योगके अस्सी भेद किये हैं, और उन सबके लक्षण बतलाये हैं, जिनको ध्यानपूर्वक देखनेवाला यह जान सकता है कि मैं विकासकी किस सीढीपर खडा हूँ । योगविंशिकाकी संक्षिप्त वस्तु है ।
उपसंहार — विप्रयकी गहराई और अपनी अपूर्णताका खयाल होते हुए भी यह प्रयास इस लिये किया गया है कि अबतकका अवलोकन और स्मरण संक्षेप में भी लिपिवद्ध हो जाय, जिससे भविष्यत् विशेप प्रगति करना हो तो इस विपयका प्रथम सोपान तैयार रहे। इस प्रवृत्तिमें कई मित्र मेरे सहायक हुए हैं जिनके नामोल्लेख मात्रसे मैं कृतज्ञता प्रकाशित करना नहीं चाहता । उनकी आदरणीय स्मृति मेरे हृदय में अखंड रहेगी ।
जैन साहित्य संशोधक
संवत् १९७८ पौष
दि १ भावनगर.
[ खंड २
पाठकोंके प्रति एक मेरी सूचना है । वह यह कि इस निबंध में अनेक शास्त्रीय पारिभाषिक शब्द आये हैं । खासकर अन्तिम भागमें जैन - पारिभाषिक शब्द अधिक हैं, जो बहुतों को कम विदित होंगे; उनका मैंने विशेष खुलासा नहीं किया है, पर खुलासावाले उस उस ग्रन्थके उपयोगी स्थलोंका निर्देश कर दिया है जिससे विप जिज्ञासु मूलग्रन्थद्वारा ही ऐसे कठिन शब्दोंका खुलासा कर सकेंगे। अगर यह संक्षिप्त निबंध न हो कर वास पुस्तक होती तो इसमें विशेष खुलासोंका भी अवकाश रहता ।
1 योगविंशिका गा०५, ६ ।
इस प्रवृत्तिके लिये मुझको उत्साहित करनेवाले गुजरात पुरातत्त्व संशोधन मंदिरके मंत्री परील रसिकलाल छोटालाल हैं जिनके विद्याप्रेमको में नहीं भूल सकता ।
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लेखक
सुखलाल संघजी.