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भाग १५.
श्रीवर्द्धमानाय नमः ।
जैनहितैषी
आषाढ़, श्रावण सं० २४४७ । जुलाई, अगस्त सन् १६२१
विषय-सूची ।
१. भगवजिनसेनका विशेष परिचय
२.
एक विद्वान् के कुछ विचार
३. अस्पृश्यता निवारक आन्दोलन और महात्मा गान्धी, लेखक
पं. नाथूरामजी प्रेमी ...
बाबू ऋषभदासजी वकील मेरठ के विचार
४.
५. मानकी मरम्मतका अनोखा उपाय, लेखक - पं. नाथूरामजी प्रेमी
६. स्वदेशी वर्दी
७.
...
...
ब्रुवल्लुव नायनाट कुरल अनु. बाबू दयानन्दजी गौयलीय
जैनधर्मका हिंसातत्व लेखक - श्रीयुत मुनिविजयजी
८.
६.
ऐलक पद कल्पना
१०. जैनहितैषीपर विद्वानोंके विचार
११. तेरा द्वार लेखक – भगवन्त गणपति गोयलीय, बम्बई एक गृहस्थक' ब्रह्मचर्याणुव्रत
१२.
१३. विविध विषय
१४, पुस्तक-परिचय
•
...
सम्पादक, बाबू जुगुल किशोर मुख्तार ।
श्रीलक्ष्मीनारायण प्रेस, काशी)
...
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२५७-२६२
२६२-२६४
२६४-२७६
२७६-२८२
२८२-२८६
२८६-२१०
२६०-२६३
२६३ - ३००
३००-३१७
३१७-३१८
३१८-३१६
३१६-३२०
३२०-३३२
३२३-३२४
श्रंक ६-१०
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नियमावली |
१ जैनहितैषी का वार्षिक मूल्य ३) तीन रुपया पेशगी है ।
२ ग्राहक वर्ष के श्रारम्भसे किये जाते हैं और बीच में वं श्रंकसे । श्रधे वर्षका मल्य १॥
}
३ प्रत्येक अंक का मूल्य । चार आने । ४ लेख, बदलेके पत्र, समालोचनार्थ पुस्तक आदि
'बाबू जुगुल किशोरजी मुख्तार सरसावा (सहारनपुर ) " के पास भेजना चाहिए। सिर्फ प्रबन्ध और मूल्य आदि सम्बन्धी पत्रव्यवहार इस पतेसे किया जाय:
मैनेजर जैन ग्रंथ - रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई ।
राणा प्रतापसिंह | मेवाड़के प्रसिद्ध राणाके चरित्र के आधारपर लिखा हुआ अपूर्व नाटक । मूल लेखक – स्वर्गीय द्विजेन्द्रलाल राय । वीरता, देशभक्ति और अटल प्रतिज्ञाकी जीती जागती तसवीरें । पढ़कर तबियत फड़क उठती है । मू० १॥) जिल्लका २ )
अन्तस्तल । हृदयके भीतरी भावों द्वेष, हिंसा, प्रेम, भय श्रादिके अपूर्वचित्र लेखक, सुकवि पं० चतुरसेन शास्त्री ||=
नये नये ग्रन्थ |
कालिदास और भवभूति ।
महाकवि कालिदासके अभिज्ञान शाकुन्तलकी और भवभूतिके उत्तररामचरितकी अपूर्व, अद्भुत और मर्मस्पर्शी समालोचना | मूल लेखक, स्वर्गीय नाटक
कार द्विजेन्द्रलाल राय । प्रत्येक *fa साहित्यप्रेमी और संस्कृतज्ञोंको यह ग्रन्थ पढ़ना चाहिए। मूल्य १ ॥ ), सजिल्दका २ )
साहित्य-मीमांसा ।
पूर्वीय और पाश्चात्य साहित्यकी, काव्यों और नाटकोंकी मार्मिक और तुलनात्मक पद्धतिसे की हुई आलोचना । इसमें श्रार्यसाहित्य की जो महत्ता, उपकारिता और विशेषता दिखलाई गई है, उसे पढ़कर पाठक फड़क उठेंगे। हिन्दी में इस विषयका यह सबसे पहला ग्रन्थ है। मूल्य १ ॥ )
अरबी काव्यदर्शन ।
अरबी साहित्यका इतिहास, उसकी विशेषतायें और नामी नामी कवियोंकी कविताओंके नमूने । हिन्दी में बिलकुल नई चीज । लेखक, पं० महेशप्रसाद साधु, मौलवी श्रालिम-फाजिल । मू० १1)
सुप्रसुखदास- जार्ज ईलियट के सिद्ध उपन्यास 'साइलस मारनर' का हिन्दी रूपान्तर । इस पुस्तकको हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठ उपन्यास-लेखक श्रीयुत् प्रेमचन्दजी ने लिखा है । बढ़िया एण्टिक पेपर पर बड़ी ही सुन्दरतासे छुपाया गया है । उपन्यास बहुत ही अच्छा और भावपूर्ण है । मूल्य ॥ =)
स्वाधीनता - जान स्टुअर्ट मिलकी 'लिबर्टी'का अनुवाद | यह ग्रन्थ बहुत दिनों से मिलता नहीं था, इसलिये फिरसे छपाया गया है । स्वाधीनता की इतनी अच्छी तात्विक आलोचना आपको कहीं न मिलेगी । प्रत्येक विचारशीलको यह ग्रन्थ पढ़ना चाहिए। मूल्य २) सजिल्दका २ |
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हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ।
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पन्द्रहवाँ भाग। अंक -१०
जैनहितैषी।
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बैशाख, ज्येष्ठ २५४७ मई, जून १९२
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न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी' ॥
- भगवजिनसेनका विशेष
नामके मुनिवंशमें उत्पन्न हुए थे। आपके
गुरु श्री वीरसेन प्राचार्य 'आर्यनन्दी के परिचय ।
शिष्य और 'चन्द्रसेन' प्राचार्य के प्रशिष्य आदि पुराणके पूर्व भाग और 'जय- थे। और इसलिये, उपलब्ध साहित्यमें, धवला' टीकाके उत्तर भागके रचयिता आपकी गुरु परम्परा इन्हीं चन्द्रसेना. भगवजिनसेनका जो कुछ परिचय अभी चार्य से प्रारम्भ होती है, एलाचार्यसे. तक श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीकी नहीं । पलाचार्यसे वीरसेनने सिर्फ 'विद्वद्रत्न माला' से साधारण जनताको सिद्धान्त शास्त्र पढ़ा था, इसलिये वे प्राप्त हुआ है, उससे कुछ अधिक और उस विषयमें उनके एक विद्यागुरु अवश्य विशेष परिचय आज हम अपने पाठकों को थे परन्तु दीक्षागुरु नहीं थे, यह सुनिश्चित देते हैं । इस परिचयके आधार स्वयं है। और इसी लिये एलाचार्यसे भगवभगवजिनसेनके वाक्य हैं जिनको उन्होंने जिनसेनकी गुरु-परम्पराका प्रारम्भ होना जयधवला टीकाके अन्तमें प्रशस्ति * मानना ठीक नहीं है। यथारूपसे दिया है।
यस्तपोदीप्त किरणैर्भव्यांभोजानि बोधयन् । . इस प्रशस्तिसे मालूम होता है कि, व्यद्योतिष्ट मुनी.. पंचस्तूपान्वयाम्बरे॥२० उक्त श्री जिनसेनाचार्य 'पंचस्तूपान्वयन प्रशिष्यश्चंद्रसेनस्य यः शिष्योप्यायनंदिना।
य* ह पूरा प्रशस्ति श्राराके जैनसिद्धान्त भवन में कुलं गुणं च संतानं स्वगुणैरुदजिज्वलत्।।२१ मौजूद है। यह सेन मंघका ही नामान्तर अथवा उसकी एक
तस्य शिष्योऽभवच्छ्रीमान् : शाखा विशेष है।
जिनसेन समिबुधीः ।
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२५.
जैनहितैषी। .. [भाग १५ आविद्धावपि यत्करणौ
भावको आपने नीचे लिखे पद्यों में प्रगट विद्वौ ज्ञानशलाकया ॥२२॥ किया हैस्वयं वीरसेन प्राचार्यने. धवल यस्मिन्नासन्नभव्यत्वान्मुक्तिलक्ष्मीः समुत्सुका सिद्धान्तकी* प्रशस्तिमें 'धवला टीकाके स्वयंवरितुकामेव श्रोतिमालामयूपुजत् ।।२३ अन्तमें जिन विशेषणोंके साथ अपना येनानुचरितं बाल्याब्रह्मव्रतमखंडितम् । परिचय दिया है, उनसे भी यही मालूम स्वयंवरविधानेन चित्रमूढा सरस्वती ॥२४॥ होता है कि श्राप आर्यनंदिके शिष्य, योनातिसुन्दर।कारो न चातिचतुरो मुनिः । चन्द्रसेनके प्रशिष्य और पंवस्तूपान्वय. तथाप्यनन्यशरणायं सरस्वत्युपाचरत् ।।२५ को प्रकाशित करनेवाले सूर्य थे। यथा
आप स्वभावसे ही बुद्धिमान् , शांत अजज्जणांदिसिस्सेणु.
और विनयी थे, और इन ( बुद्धि, शांति, जवकम्मस्स चंदसेणस्स । विनय ) गुणों के द्वारा आपने अनेक तह णत्तुवेण पंचथूहण्णय ।
प्राचार्योका अाराधन किया था। अर्थात, भाणुणा मुणिणा ॥ ४ ॥
इन गुणों के कारण कितने ही प्राचार्य
उस समय आपपर प्रसन्न थे । आप . श्री जिनसेन आविद्धकर्ण थे अर्थात्, शरीरसे यद्यपि पतले दुबले थे, तो भी उनके दोनों कान बिंधे हुए थे, ऐसा तपोगणके अनुष्ठानमें कमी नहीं करते थे। ऊपर उधृत किये हुए पद्य नं० २० के शरीरले कृश होनेपर भी आप गुणोंमें उत्तरार्धसे पाया जाता है। साथ ही यह
कृश गहीं थे। आपने कपिल सिद्धान्तोंभी मालूम होता है कि पाविद्धकर्ण होनेपर
सांख्यतत्वों-को ग्रहण नहीं किया और न , भी आपके कान पुनः ज्ञानशलाकासे विद्ध
उनपर भले प्रकार विचार ही किया । तो किये गये थे, जिसका भाव यही जान'
भी आर अध्यात्म विद्या-समुद्र के उत्कृष्ट पड़ता है कि, मुनि-दीक्षाके बाद अथवा
पारको पहुँच गये थे। आपका समय, पहले आपको गुरुका खास उपदेश मिला
निरंतर ज्ञानाराधनमें ही व्यतीत हुआ था और उससे आपको बहुत कुछ प्रबोध की प्राप्ति हुई थी । आप बाल-ब्रह्मचारी
करता था, इसीसे तत्वदर्शीजन आपको
ज्ञमयपिंड (?) कहते थे। इन सब बातोंके थे।बाल्यावस्थासे ही आपने अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रतका पालन किया था। अतिसुन्दरा.
द्योतक पद्य, प्रशस्तिमें, इस प्रकार हैंकार और अति चतुर न होनेपर भी सर- धीः शमो विनयश्चेति यस्य नैसर्गिकागुणाः । स्वती आपपर मुग्ध थी और उसने सूरीनाराधयंतिम्म गुणैराराध्यते न कः ।।२६।। अनन्य-शरण होकर उस समय आपका यः कृशोऽपि शरीरेण न कृशोभूत तपोगुणैः। ही आश्रय लिया था। साथ ही, आसन्न- नकुशत्वं हि शारीरंगुणरेव कृशः कृशः॥२७॥ भव्य होने की वजहसे, मुक्तिलक्ष्मीने स्वयं- यो नाग्रहीत्कापलिकान्नाप्यचिन्तयदंजसा । पराकी तरह समुत्सुक होकर आपके तथाप्यध्यात्मविद्याब्धेः परं पारमशिश्रयत् २८ कंठमें श्रुतमाला डाली थी। इस अलंकृत
ज्ञानाराधनया यस्य गतः कालो निरन्तरं । - यद प्रशस्ति भी आराके जैनसिद्धान्त भवन में
ततोन (ज्ञ?)मयपिण्डं-यमाहुस्तत्वदार्शन:२९ मोजूद है।
आपने जयधवला टीकाके उत्तर
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भगवजिनसेनका विशेष परिचय |
अङ्क ६-१० ]
भागको अपने गुरु ( वीरसेन ) की आशा से लिखा था । गुरुने उत्तर भागका बहुत कुछ वक्तव्य प्रकाशित किया था । उसे देखकर ही अल्प वक्तव्य रूप यह उत्तरार्ध आपने पूर्ण किया है, जो प्रायः संस्कृत भाषामें है और कहीं कहीं संस्कृत मिश्र भाषाको लिये हुए है; ऐसा आप निम्न पद्यों द्वारा सूचित करते हैंतेने दमनतिप्रौढमतिना गुरुशासनात् । लिखितं विशदैरे भिरक्षरैः पुण्यशासनम् ३० गुरुणार्धेऽग्रिमे भूरिवक्तव्ये संप्रकाशिते । तन्निरीक्ष्याल्पवक्तव्यपश्चार्धस्तेन पूरित: ३१ प्रायः प्राकृतभारत्या क्वचित्संस्कृतमिश्रया । मणिप्रवालन्यायेन प्रोक्तोऽयं ग्रंथविस्तरः ३२
कुछ आगे चलकर अपनी टीका सम्बन्धर्मे आपने यह भी बतलाया है कि थोड़े ही अक्षरों द्वारा सूत्रार्थका विवेचन करनेमें हम जैसों की टीका उक्त, अनुक्त औौर दुरुक्तका चिन्तनं करनेवाली (वार्तिक रूप) टीका नहीं हो सकती । इसलिये पूर्वापर शोधन के साथ हम जैसोंका जो शनैः शनैः ( शनकैस् ) टीकन है, उसीको बुधजन टीका रूपसे ग्रहण करें, यही हमारी पद्धति है । यथातत्सूत्रार्थविवेचने कतिपयैरे वाक्षरे मदृशामुक्तानुक्तदुरुक्त चिन्तनपरा
टीकेतिकः संभवः ॥ ३७ ॥ तत्पूर्वापरशोधनेन शनकै
यन्मादृशां टीकनम् । सा टीकेत्यनुगृह्यतां बुधजनैरेवाहिनः पद्धतिः ||३८||
इन पद्योंमें आए हुए 'माटशां' (हम जैसोंकी) और 'नः' ( हमारी ) शब्दों से यह बात साफ तौरसे उद्घोषित होती है कि यह प्रशस्ति जयधवला टीकाके उत्तर भाग के रचयिता स्वयं भगवजिनसेना
२५६
चार्यकी बनाई हुई है और इसके द्वारा उन्होंने श्रात्म-परिचय दिया है, जिससे विज्ञ पाठक आचार्य महोदय की शारीरिक, मानसिक और बुद्ध्यादि विषयक स्थितिका बहुत कुछ अनुभव कर सकते हैं।
*
प्रशस्ति में टीकाका नाम कहीं 'वीरसेनीया' और कही' 'जयधवला' दिया है । साथ ही अन्तिम पद्यसे पहले, पद्यमें # उसे 'श्रीपालसंपादिल' भी बतलाया है ! इस पर से श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीने, अपनी विद्वद्वत्ल-माला में, यह निष्कर्ष निकाला है कि
"वास्तव में कषाय प्रभृतकी जो बीरसेन और जिनसेन स्वामी कृत ६० हजार श्लोक-प्रमाण टीका है, उसका नाम तो 'वीरसेनीया' है; और इस वीरसेनीया टीका सहित जो कषाय प्राभृतके मूलसूत्र और चूर्णिसूत्र, वार्तिक वगैरह अन्य आचार्यों की टीकाएँ हैं, उन सबके संग्रहको 'जयधवला' टीका कहते हैं । यह संग्रह 'श्रीपाल' नामके किसी श्राचार्यने किया है, इसी लिये जयधवलाको 'श्रीपाल - संपादिता' विशेषण दिया है ।"
हमारी रायमें प्रेमी जीका निष्कर्ष ठीक नहीं है, और उसके निकाले जाने की वजह यही मालूम होती है कि उस समय आपके सामने पूरी प्रशस्ति नहीं थी। आपको श्रागे पीछेके कुछ ही पद्य उपलब्ध हुए थे, जिन्हें आपने अपनी पुस्तकमै उद्धृत किया है । जान पड़ता है आप उन्हीं पद्योंको पूरी प्रशस्ति समझ बैठे हैं और उन्होंके आधारपर शायद आपको यह भी खयाल हो गया है कि
वह पक्ष इस प्रकार है - श्रीवीरप्रभुभाषितार्थघटना निर्लोडितान्यागमन्याया श्रीजिनसेनसन्मुनिवरैरादर्शितार्थ स्थिति । टीका श्रीजयचिह्नितोरुधवला सूत्रार्थं संथोतिनी, स्थेवादारविचन्द्रमुज्वलतः श्रीपाल संपादिता ॥ ४०
*
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जैनहितैषी। .
[भाग १५ यह प्रशस्ति 'श्रीपाल ' आचार्य की बनाई . श्लोक-संख्या ६० हजार न होकर कई हुई है। परन्तु बात ऐसी नहीं है। यह लाल होनी चाहिए थी । परन्तु ऐसा नहीं प्रशस्ति श्रीपाल प्राचार्य की बनाई हुई है। ऊपरके अवतरणों में साफ तौरसे नहीं है-जैसा कि ऊपरके अवतरणों में ६० हजार श्लोक-संख्याका ही जयधवला'माशां' आदि शब्दोंसे प्रगट है--और के साथ उल्लेख है। और भी अनेक ग्रंथोंन श्रीपाल के उक्त संग्रहका नाम ही 'जय- में इस टीकाका नाम 'जयधवला' ही धवला' टीका है। बल्कि वीरसेन और सूचित किया है ।* इसके सिवाय वीरजिनसेनकी इस ६० हजार श्लोक-संख्या- सेन स्वामीकी दूसरी सिद्धान्त टीकाका वाली टीकाका असली नाम ही 'जय- नाम 'धवला' है। उन्होंने स्वयं उसके अन्तधंवला' है । वीरसेन स्वामीने, चूँकि, में भी यह नाम सूचित किया है। यथाइस टीकाको प्रारम्भ किया था और ... कत्तियमासे एसा इसका एक तिहाई भाग (२० हजार
टीकाहु स भाणिदा धवला." श्लोक) लिखा भी था; साथ ही, टीका.
धवलासे मिलता जुलता ही नाम का शेष भाग, आपके देहावसानके
जयधवला है, जो उनकी दूसरी टीकाके पश्चात्, आपके ही प्रकाशित वक्तव्यके अनुसार पूरा किया गया है, इसलिये
लिये बहुत कुछ समुचित प्रतीत होता है । गुरुभक्तिसे प्रेरित होकर श्रीजिनसेन
और इस दूसरो टीकाके 'जयह धवलंगते स्वामीने इस समूची टीकाको आपके
ये' इत्यादि मंगलाचरणसे भी इस नाम: ही नामसे नामांकित किया है और
की कुछ ध्वनि निकलती है। अतः इन सब | वीरसेनीया' भी इसका एक विशेषण
बातोसे टीकाका असली नाम 'वीरसेदिया है । इन्द्रनन्दिकृत 'श्रुतावतार',
'नीया' न होकर 'जयधवला' ही ठीक
जान पड़ता है। वीरसेनीया, एक विबुध श्रीधर कृत 'गद्य श्रुतावतार' और
विशेषण है जो पीछेसे जिनसेनके द्वारा ब्रह्म हेमचन्द्र विरचित 'श्रतस्कंधके उल्ले.
इस टीकाको दिया गया है। रही 'श्रीखोले भी इसी बातका समर्थन होता है
पाल संपादिता' विशेषणकी बात । उससे कि वीरसेन और जिनसेनकी बनाई
प्रेमीजीके उक्त निष्कर्षको, हमारी रायदुई ६० हजार श्लोक-संख्यावाली टीकाका नाम ही 'जयधवला ' टीका है।
में, कोई सहायता नहीं मिलती। श्रीपाल
' नामके एक बहुत बड़े यशस्वी विद्वान् यथा'... 'जयधवलैवं षष्ठिसहस्रग्रंथोऽभवट्टीका।
जिनसेनके समकालीन हो गये हैं। -इन्द्रनांदश्रु ।
प्रशस्तिके अन्तिम पद्यमें आपके ___.. :अमुना प्रकारेण षष्टिसहस्रप्रमिता यशकी ( सत्कीर्तिकी) उपमा भी दी जयधवलनामाङ्किता टीका भविष्यति ।
र गई है। वह पद्य इस प्रकार है
" -श्रीधर गद्यश्रुता० ।
सर्वज्ञ प्रतिपादितार्थ'सदरीसहस्स धवलो जयधवलो सट्ठि
गणभृत्सूत्रानुटीकामिमां । सहस बोधव्वो ॥ -हेमचन्द्र श्रुतस्कंधः ।।
* यथा “येकृत्वाधवलां अयादिधवलां सिद्धान्त टीकांसती यदि प्रेमीजी द्वारा सूचित उक्त संग्रह.
'बन्दध्वंवरवीरसेनाचार्यर्यान्बुर्धान् । का नाम ही 'जयधवला' होता तो उसकी
इति क्षपणासारटीका माधवचन्द्रः ।
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भगवजिनसेनका विशेष परिचय ।
येऽभ्यस्यन्ति बहुश्रुताः
मार्जन और क्रम-स्थापना आदिका जो ___ श्रुतगुरुं संपूज्य वीरं प्रभुं । कार्य करना होता है, यथासम्भव और ते नित्योज्वलपद्मसेनपरमाः (?)
यथावश्यकता, वह सब कार्य इस टीकामें
विद्वद्रत्न श्रीपाल द्वारा किया गया है। श्रीदेवसेनाचिताः ।
उनकी भी इस टीकामें कहीं कहीं पर, भासन्ते रविचंद्रभासि
जरूर कलम लगी हुई है। यही वजह है सुतपाः श्रीपालसत्कीर्तयः ।।
कि उनका नाम सम्पादकके रूप में खास आदि पुराणमें भी आपके निर्मल तौरसे उल्लेखित हुआ है । अन्यथा, गुणोंका कीर्तन किया गया है और आप. श्रीपाल आचार्यने पूर्वाचार्योकी सम्पूर्ण को भट्टाकलंक तथा पात्र केसरी (विधा- टीकाओका एकत्र संग्रह करके उस नन्द ) जैसे विद्वानोंकी कोटिमें रखकर संग्रहका नाम 'जयधवला' रक्खा, इस यह बतलाया गया है कि आपके निर्मल कथनकी कहींसे भी उपलब्धि और पुष्टि गुण हारकी तरहसे विद्वानोंके हृदयों में नहीं होती। प्रारूढ़ रहते हैं, यथा
जिनसेनके समकालीन विद्वानों में भट्टाकलंक श्रीपाल-पात्रकेसरिणां गुणाः। पद्यसेन, देवसेन और रविचन्द्र नामके विदुषां हृदयारूढा हारायन्तेऽति निर्मलाः ॥ भी कोई विद्वान हो गये हैं । यह बात ऊपर
इससे स्पष्ट है कि श्रीपाल एक ऐसे उद्धृत किये हुए प्रशस्तिके मन्तिम प्रभावशाली प्राचार्य थे जिनका सिक्का पयल
पद्यसे ध्वनित होती है। अच्छे अच्छे विद्वान् लोग मानते थे। जिन
गुर्जरनरेन्द्र . महाराज अमोघवर्ष सेनाचार्य भी आपके प्रभावसे प्रभावित (प्रथम) जिनसेन स्वामीके शिष्यों में थे। उन्होने अपनी इस टीकाको लिखकर थे. इस बातको स्वयं जिनसेनने अपने आप हीसे उसका सम्पादन (संशोध- पार्वाभ्युदयमें प्रकट किया है। और नादि कार्य) कराना उचित समझा है, गुणभद्राचार्यने एक पद्यमें यह सूचित और इस तरह पर एक गहन विषयके किया है कि महाराज अमोघवर्ष श्रीजिनसैद्धान्तिक ग्रन्थकी टीकापर एक प्रसिद्ध स्वामीके चरणकमलोंमें मस्तकको रखऔर बहुमाननीय विद्वानके नामकी कर अपनेको पवित्र मानते थे। इससे ( सम्पादनकी) मुहर प्राप्त करके उसे अमोघवर्ष जिनसेनके बड़े भक्त थे, यह विशेष गौरवशालिनी और तत्कालीन पाया जाता है। परन्तु जिनसेन स्वामी विद्वत्समाजके लिए और भी अधिक उप. महाराज अमोघवर्षको किस गौरव योगिनी तथा आदरणीया बनाया है। भरी दृष्टिसे देखते थे, उनपर कितना प्रेम यही, हमारी समझमें, श्रीपाल-संपादिता रखते थे, और उनके गुणोपर कितने विशेषणका रहस्य है। और इसलिये अधिक मोहित और मुग्ध थे, इस बातका इससे यह स्पष्ट है कि एक सम्पादकको पता अभी तक बहुत ही कम विद्वानों को किसी दूसरे विद्वान् लेखककी कृतिका मालूम होगा। और इसलिये हम इसका उसके इच्छानुसार सम्पादन करते समय, परिचय अपने पाठकोंको प्रशस्तिके जरूरत होनेपर, उसमें संशोधन, परि- निम्नलिखित पद्योंपरसे कराते हैं जिन:घर्तन, परिवर्धन, स्पष्टीकरण, भाषा-परि. में गुर्जरनरेन्द्र (महाराज अमोघवर्ष )
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जैनहितैषी ।
[ भाग. १५
का यशोगान करके उन्हें आशीर्वाद दिया के यशोका ताराओंके प्रकाशके सदृश
गया है *
संहार करके जगत्सृष्टाने गुर्जर-नरेन्द्र के महान् यशको फैलने और प्रकाशित होनेका अवसर दिया है । और भी सम्पूर्ण राजाओंसे बढ़कर क्षीर समुद्रके फेन (भाग) की तरह गुर्जर-नरेन्द्रकी शुभ्र कीर्ति, इस लोक में, चन्द्र-तःराओकी * स्थिति पर्यन्त स्थिर रहे ।
गुर्जरनरेन्द्र कीर्तेरन्तः
पतिता शशांक शुभ्रायाः । गुप्तैव गुप्तनृपतेः
शकस्य मशकायते कीर्तिः ||७|| गुर्जरयशः पयोब्वौ
निमज्जतीन्दौ विलक्षणं लक्ष्म । कृतम लिलिनं मन्ये
धात्रा, हरिणापदेशेन ॥८॥ भरतसगरादि नरपतियशांसि तारानिभेव संहृत्य | गुर्जर यशसो महतः
कृतावकाशो जगत्सृजानूनम् ॥९॥ इत्यादि सकल नृपतीनातिशय्य पयः पयोधिफेनेत्था । गुर्ज नरेन्द्र कीर्तिः स्थेयादा चन्द्रतारमिह भुवने ॥१०॥
इन पद्योंमें यह बतलाया और कहा है कि, गुर्जर-नरेन्द्र ( महाराज श्रमोघवर्ष) की शशांक शुभ कीर्तिके भीतर पड़ी हुई गुप्त नृपति (चन्द्रगुप्त ) की कीर्ति गुप्त ही हो गई हैं-छिप गई है - और शक राजाकी कीर्ति मच्छरकी गुनगुनाहटकी उपमाको लिये हुए है। मैं ऐसा मानता हूँ कि गुर्जर-नरेन्द्रके यशरूपी क्षीर समुद्र में डूबे हुए चन्द्रमामै विधाताने हरिण (मृगछाला) के बहानेले मानों एक बेढंगा अलिमलिन चिह्न बना दिया है, और भरत, लगर आदि चक्रवर्ती राजाओं
* वह पद्य इस प्रकार है
यस्य प्रांशुनखांशुजाल विसर द्वारान्तराविर्भवत्पादां भोजराजः पिशंग मुकुट प्रत्यग्ररत्नद्युतिः । संस्मर्ता स्वममोघवर्ष नृपतिः पूतोऽहमद्य त्यल स श्रीमान् जिनसेन पूज्य भगवत्पादो जगन्मंगलम् ॥
यद्यपि इस वर्णन में कवित्व भी शामिल है, तो भी इससे इतना ज़रूर पाया 'जाता है कि महाराज अमोघवर्ष, जिनका दूसरा नाम नृपतुङ्ग था, एक बहुत बड़े प्रतापी, यशस्वी, उदार, गुणी, गुणन, धर्मात्मा, परोपकारी और जैन धर्मके एक प्रधान श्राश्रयदाता सम्राट् हो गये हैं । आपके द्वारा तत्कालीन जैनसमाज और स्वयं जिनसेनाचार्य बहुत कुछ उपकृत हुए और आपके उदार गुणों तथा यशकी धाकने आचार्य महोदय के हृदय में अच्छा घर बना लिया था ।
एक विद्वान् के कुछ विचार |
मृत्यु जीवनका ही दूसरा रूप है, जिस तरह जीवन मृत्युका दूसरा रूप है।
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श्राजका जो कर्म है, वही कलका भाग्य है ।
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बहुत से लोग भविष्य कालके जीव होते हैं । उन्हें यह वर्तमान काल विघ्नरूप जान पड़ता है। दूसरे कुछ लोग भूत
* 'गणित सारसंग्रह' के कर्ता महावीर आचार्यने भी आपकी प्रशंसा में कुछ पद्य लिखे हैं । कितने ही शिलालेखों आदिमें आपके गुणों का परिचय पाया जाता है। अवसर मिलने पर हम आपके विषयमें एक स्वतन्त्र लेख लिखना चाहते हैं । सम्पादक ।
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अङ्क ४-१०] एक विद्वान्के कुछ विचार । कालके जीव होते हैं। उन्हें भविष्य काल सोल्जरों (फौजी सिपाहियों) और डरावना दिखता है।
लुटेरोंमें केवल इतना ही फर्क है कि ___ x x x
सोल्जरोंको सरकारी वेतन मिलता है, ईसाई धर्ममें कहा है कि ईश्वरने छः पर लुटेरोको नहीं मिलता। दिन तक सृष्टिकी रचना की और सातवें
+ + + दिन विश्राम किया। यह सातवाँ दिन जब तुम खाकी पोशाक पहनकर बहुत लम्बा हो गया है। ईश्वरके श्राराम हत्या करते हो तब तुम्हारी प्रशंसा होती करनेसे पृथ्वीको नाकों दम आ रहा है। है। परन्तु क्या बढ़िया पोशाक पहननेसे
ही हत्या बढ़िया हो जाती है ? मारने में तू अपने शत्रुओंसे प्रेम कर। इससे तो वीरता हो ही नहीं सकती। . तेरा कोई शत्रु रहेगा ही नहीं। शत्रुसे xx. xx प्रेम करना ही उसे हटा देना है। अपने चाहे एक मनुष्य की हत्या हो चाहे धिक्कारनेवालेपर यदि तू प्रेमकी वर्षा एक जातिकी या सेनाकी हत्या हो, सब करता रहेगा, तो वह तेरा बिगाड़ ही एक समान निन्ध हैं। .
. क्या सकेगा? x x x .
इस समय जंगली और असभ्य राष्ट्र जो वास्तविक शक्तिशाली हैं, वे ही वे ही हैं जिनके अस्त्र शस्त्र अन्तिमसे दूसरों पर हाथ न उठानेका बल दिखला अन्तिम आविष्कारों के आधारपर बने सकते हैं।
निन्दा करनेवालोंको तू निन्दा ही विवेक जब अपना राजपाट छोड़ करने दे। उन्हें उत्तर मत दे ।
देता है, तब वह श्रद्धा बन जाता है।
जो मनुष्य तेरे विरूद्ध झूठी साक्षी ___जो निर्धन हैं वे धन्य हैं; क्योंकि वे देते हैं, उनके लिए तू अपने मुँहसे एक त्रिभुवन के स्वामी हैं। शब्द भी मत निकाल । शायद इसीसे उनका उद्धार हो जाय ।
____ जो निर्लोभ हो गये हैं, वे धन्य
हैं; क्योंकि दुनियाँ को जिन जिन चीजों पापकी निन्दा करनेको निकलना उस का लोभ होता है, वे सब उन्हें अनायास पापसे भी हलका बनना है।
मिल जायेंगी। धुद्धि परीक्षण करने बैठती है, परन्तु दुखिया ही वास्तविक सुखी हैं; विवेक निरीक्षणसे ही राजी रहता है। क्योंकि वास्तविक सुखका भाण्डार उनके
अन्तरमें है। जो दोष हममें हैं, अपने हाथसे उनका ____
xxxx न्याय होना कठिन है । जो दोष हममें .. धन्य है रंकोंको; क्योंकि बली लोग नहीं हैं, उन्हें दूसरोंकी आँख देख ही कैसे आपस में लड़ मरेंगे और तब रंक ही अकेले सकती है ?
तिरंगे।
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जैनहितैषी। । [भाग १५ प्रसिद्ध बोल्शेविक नेता लेनिन धनि- वस्तु बन गई है। अपरिचित विदेशी यह योंको 'अभागा' या 'बेचारा' कहता है। नहीं समझ सकता कि एक मनुष्य ईसा मसीह. भी धनियोंके लिए यही दूसरे मनुष्यको छूनेसे परहेज़ कर सकता विशेषण लगाते हैं।
है और छू जाने पर उसे स्नान करनेकी
आवश्यकता हो सकती है। परन्तु हम धनी और श्रीमन्त लोग जब गरीबों- लोग उसे अपने धर्म और आचारका के लिए कुछ करते हैं, तब वह 'धर्म' या एक अङ्ग समझते हैं। कुत्ता, बिल्ली आदि 'दान' कहलाता है। परन्तु जब गरीब हिंस्र पशुओं तकको हम प्रसन्नतासे लोग श्रीमन्तोंके लिए कुछ करते हैं तो अपनी बगलमें बैठा सकते हैं, परन्तु वह 'बलवा' या 'अराजकता' कहलाता है! किसी भङ्गी या चमारसे यदि हमारा
पल्ला छू जाय, तो हम उसे बरदाश्त नहीं तू जितना ही धन संग्रह करेगा, कर सकते । उस हतभागे भङ्गी या उतना ही दूसरोंको भूखों मारेगा और चमारको तो हमारे पवित्र वचनोंका कुछ उतना ही तेरे सिर कर्ज चढ़ेगा। न कुछ प्रसाद मिलेगा ही, साथ ही हम
'x. x. x x स्वयं भी स्नान आदिके प्रसादसे वंचित . जितना जितना तू देता रहेगा, उतना नहीं रहेंगे ! हमारे इसी भाचरण के संशोउतना ही दूसरों को लूटनेका पाप धोता धनके लिए इस आन्दोलनका जन्म जायगा ।*
___ भारतवर्षकी जनसंख्या ३० करोड़के
लगभग है। इनमेंसे ७,६३,६२,६७७ अस्पश्यता निवारक आन्दोलन मनुष्य हमारे लिए अस्पृश्य हैं। अर्थात . और
हमारे देशके लगभग एक चौथाई मनुष्य
ऐसे हैं जिन्हें हम मनुष्य ही नहीं समझते महात्मा गांधी
और जो पशुओंसे भी अधम जीवन । (ले०-श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी) व्यतीत करते हैं। हमारी हजारों वर्षोंकी
इस समय देशमें एक बड़े भारी उपेक्षासे इनकी अवस्था ऐसी शोचनीय हो आन्दोलनको सृष्टि हुई है और प्रत्येक गई है कि उसका वर्णन ही नहीं हो सकता। धर्म, सम्प्रदाय और जातिमें उसकी वे अक्षर-शत्रु हैं, उनका आचरण बहुत ही चर्चा हो रही है। उसका नाम है अस्पृ. गिर गया है, शराब आदि दुर्व्यसनोंने श्यता-निवारण ।
।
उन्हें तबाह कर दिया है, भरपेट भोजन विदेशियों के लिए अस्पृश्यता एक उन्हें नसीब नहीं होता और संक्रामक आश्चर्य की चीज है; परन्तु हम लोगोंके बीमारियोंका सबसे पहला हाथ उन्हींपर लिए यह एक सहज और स्वाभाविक साफ होता है।
इन अस्पृश्योंमें केवल वे ही लोग -यह सब विचारपालरिशर' नामक एक विद्वान् के
. नहीं हैं जो पास्त्राना साफ करते हैं, हैं। इन्हें 'नवजीवनने अन्य विचारकि साथ, 'एरोज आफ
पशुओंको चीरकर उनका चमड़ा निका. फायर' नामक पुस्तक से उदधृत किया था, और वहीं से यहाँ पर अनुवादित किया गया है।
लते हैं अथवा ऐसा ही कोई दूसरा नाथूराम प्रेमी। धन्धा करते हैं। बल्कि गुजरात, बंगाल,
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अङ्क ६-१० ]
मद्रास श्रादि प्रान्तों में कपड़ा बुनने आदि जैसे पवित्र धन्धे करनेवाली श्रनेक जातियाँ भी अछूत मानी जाती हैं ।
इन लोगोंकी दशा सुधारने के लिए हमारे देशका सुधारक दल लगभग श्राधीशताब्दी से अपना कण्ठ सुखा रहा है । श्रार्यसमाज, ब्रह्मसमाज आदि नये धर्मसमाज ने भी इसके लिए बहुत कुछ आन्दोलन किया है; परन्तु हिन्दू जनताकी विशाल कछुए की पीठको भेदकर उसके ज्ञानतन्तु श्रौतक इस आन्दोलनकी खबर पहुँचाने में अभी तक ये सब उपाय प्रायः असफल ही रहे हैं। मुट्ठीभर पढ़ेलिखे लोगों के दिमाग़ में स्थान पा जानेके सिवाय और कोई विशेष उल्लेखनीय फल इसका नहीं हुआ । साधारण जनता इसको किस्तानी या ईसाइयत चर्चा समझकर इससे अलग ही रही ।
अस्पृश्यता निवारक श्रान्दोलन ।
परन्तु अबकी बार इस नये आन्दोलनका जन्म एक दूसरे ही रूपमें हुआ है । लक्षणोंसे जान पड़ता है कि विशाल हिन्दू समाजकी कच्छप- पीठको भेदकर यह आन्दोलन उसके स्नायुचक्रपर भी अधिकार कर लेगा । कच्छप महाराजको अब करवट बदलनी ही पड़ेगी ।
धर्मक्षेत्रको छोड़कर अबकी बार इसने राजनीतिक क्षेत्रमें जन्म लिया है और उस राजनीतिक क्षेत्र में जन्म लिया है जिसमें देशके जीवन मरण की समस्या हल हो रही है। पहले यह राजनीतिक क्षेत्र भी अँगरेज़ी पढ़े-लिखे लोगोंकी चहल-कदमीकी जगह थी। परन्तु अब उसमें शिक्षित, अशिक्षित, पण्डित, बाबू, किसान, व्यापारी, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी श्रादि सभी श्रेणियोंके लोगोंका समावेश हो गया है और उन सबका यह पक्का विश्वास हो गया है कि इस क्षेत्रमें ही हम चिरकालकी दासता से मुक्त होंगे।
२
२६५
देशकी इस श्राशा भरोसे की जगह में जन्म लेनेके कारण भी इस आन्दोलन के सफल होने की बहुत कुछ श्राशा की जा रही है।
आशाका एक कारण और भी है। और वह यह है कि इस आन्दोलनकी घोषणा उस महात्माने की है जो वर्तमानमें देशका एकछत्र का सा सम्राट् है, जिसका प्रभाव महलोंसे झोपड़ियोतक है, जिसके पवित्र साधु जीवनने देशके सभी धर्मों और सम्प्रदायोंके हृदयपर अधिकार प्राप्त कर लिया है और जिसके वचनोंपर सर्वसाधारणकी श्राचर्यजनक श्रद्धा है । महात्मा गान्धीके इस प्रभाव के कारण ही इस श्रान्दोलनकी घोषणा देशकी सर्वप्रधान महासभा (कांग्रेस) के मञ्चपरसे हुई है और देशके प्रायः सारे प्रतिनिधिं इसके पृष्ठपोषक हैं।
भारतवासी बीसों धर्मों, सम्प्रदायों और पन्थोंमें विभक्त हैं और उनमें ऐसा कोई प्रेम-बन्धन नहीं है कि एक धर्म या सम्प्रदाय द्वारा स्वीकृत कोई बात दूसरा धर्म या सम्प्रदाय माने । परन्तु देशके राजनीतिक क्षेत्र में सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग एक होकर काम कर रहे हैं और देशकी चरम सीमा पर पहुँची हुई दुःख- दैन्यावस्थाने इस समय प्रायः प्रत्येक देशवासीको एकताके सूत्रमें बाँध दिया है। संभीका यही एक ध्येय और एक धर्म बन गया है कि चाहे जितने कष्ट सहकर भी देशको स्वाधीन करना चाहिए । वर्तमान अस्पृश्यता निवारक आन्दोलन इसी सर्वधर्मानुयायियों के एक धर्मक्षेत्र - राजनीतिक क्षेत्र - से शुरू किया गया है और इससे श्राशा है कि इसका प्रभाव किसी एक धर्म या सम्प्रदायतक न रहकर देशव्यापी होगा !
राष्ट्रीय महासभाका प्रधाने उद्देश्य है— देशको पराधीनता से मुक्त करना,
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जैनहितैषी।
[ भाग १५ नौकरशाहीके अत्याचारपूर्ण शासनको ही नहीं कर सकती। यह कैसे हो सकता नष्ट करना और गोरों तथा कालोंके है कि देश की एक चतुर्थांश जनताको अस्वाभाविक अधिकार भेद को मिटाना। बाद देकर हम अपनी पूरी शक्तिके साथ यह कहनेकी आवश्यकता नहीं कि हमारे खड़े हो सके? हमें उसकी भी पूरी पूरी देशमें वे लोग भी रहते हैं जिन्हें हम सहायता चाहिए । घरमें घृणा, विद्वेष अस्पश्य समझते हैं. जिनके स्पर्शको पाप और तिरस्कारको बनाये रस्त्रकर हम बल. समझते हैं, जिनके साथ पशुशीसे भी वान् नहीं हो सकते। बदतर व्यवहार करते हैं और जिनकी संख्या सात करोड़से भी अधिक है। ये
महात्मा गान्धीके विचार । लोग भी इसी भारत माताकी सन्तान है इस प्रारंभिक निवेदन के बाद अब हम और इनको भी हमारे ही समान स्वतन्त्रता महात्मा गांधी के उन सब विचारोंका चाहिए । जब जब हमारी ओरसे स्वतं- सारांश प्रकट करेंगे जो उन्होंने अपने अनेक प्रता और स्वाधीनताका. दावा किया व्याख्यानों और लेखों में प्रकाशित किये हैं। आता है, तब तब हमारे शासकों और परन्तु इसके पहले हम यह भी कह देना उनके भाई-बन्धुओकी ओरसे सबसे पहले चाहते हैं कि महात्माजी इस विषयकी यही व्यंग्यपूर्ण उत्तर मिलता है कि- चर्चा केवल राष्ट्रीय दृष्टिसे नहीं कर रहे "पहले तुम अपने भाइयों को अपने देश हैं। धार्मिक दृष्टिसे भी उन्होंने इसका वासी अस्पृश्योंको तो स्वाधीन करो, उन्हें ऊहापोह किया है । इसके सिवाय उनकी तो मनुष्य समझने लगो; तब दूसरोसे राजनीति धर्मनिरपेक्ष नहीं है। वे धर्मस्वाधीन होनेकी चर्चा करना ! जब तुम को अपनी राजनीतिका प्रधान अंग अपने देशवासियों को ही इसके पात्र मानते हैं। वे कट्टर धर्मात्मा हैं और साथ नहीं समझते हो, तब यदि हम लोग तुम हो हिन्दुओं की वर्णाश्रम पद्धति के विरोधी कालोको स्वाधीनताके पात्र न समझे, नहीं हैं। वे इसे भी पसन्द नहीं करते कि तो इसमें कौन सा आश्चर्य है ?" एक बार चाहे जहाँ और चाहे जिसके यहाँ खानास्वामी विवेकानन्द जीने भी इसी बात पर पीना और चाहे जिसके साथ विवाहलक्ष्य रखते हुए खिजलाकर कहा था कि सम्बन्ध किया जाय। फिर भी वे अस्पृ. "अरे गुलामो ! तुम स्वाधीनता क्यों श्यताको पाप समझते हैं और उनका चाहते हो ? क्या और नये गुलाम तैयार दावा है कि हिन्दू धर्म में इस अस्पृश्यता. करने के लिए ?" राष्ट्रीय महासभाने इन्हीं को कोई स्थान नहीं है। अच्छा तो अब सब श्राक्षेपोंके उत्तर-स्वरूप अबकी बार उनके विचार सुनिये। अस्पृश्यता निवारक प्रस्ताव पास किया बम्बई के सुप्रसिद्ध पत्र 'गुजराती के है; और सच तो यह है कि इस प्रस्तावको आगेका उत्तर देते हुए आपने कहा हैपास करके ही वह सच्ची महासभा _ “x x x हिन्दू धर्म में मुझे कहीं यह
विधान नहीं मिला कि भंगी, डोम आदि - लोग इसे भले ही धार्मिक प्रश्न समझे, जातियाँ अस्पृश्य है । हिन्दूधर्म अनेक रूढ़ि. परन्तु महासभाके लिए तो यह शुद्ध योसे घिरा हुआ है। उनमेसे कुछ रूढ़ियाँ राष्ट्रीय प्रश्न है और इसके हल किये बिना प्रशंसनीय हैं, शेष निन्द्य हैं। अस्पृश्यतावह सारे देशकी प्रतिनिधि होने का दावा की रूढ़ि तो सर्वथा निन्ध है ।। इसकी
बनी है।
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अङ्क-१०]
अस्पृश्यता निवारक आन्दोलन ।
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बदौलत दो हजार वर्षांसे धर्मके नामपर की प्रथाकी हिमायत की जाती थी, उसी पापकी राशि हिन्दू धर्मपर लादी जा रही तरह आज हमारे समाजमें भी धर्मके है और अब भी लादी जाती है। मैं इस · नामपर अन्त्यजों के प्रति घृणा भावकी रक्षा रूढ़िको पाखण्ड समझता हूँ । इसमे की जाती है। यूरोपमें भी अन्त लमय
आपको मुक्त होना पड़ेगा और इसका तक ऐसे कुछ न कुछ लोग निकलते ही प्रयश्चित्त तो आप कर ही रहे हैं। इस रहे थे जो बाइबिलके वचन उधृत करके रूढिके समर्थनमें मनुस्मृति श्रादि धर्म- गुलामीको प्रथाका समर्थन करते थे। ग्रन्थोके श्लोक उधृत करनेसे कोई लाभ अपने यहाँको वर्तमान रूढ़िके हिमायतियोंनहीं । इन ग्रन्थों में कितने ही श्लोक प्रतिप्त को भी मैं उसी श्रेणी में समझता हूँ। हमें हैं, कितने ही नितान्त निरर्थक हैं; और अस्पृश्यताका दोष धर्म से अवश्य दूर फिर मनुस्मृतिकी प्रत्येक आज्ञाका पालन कर देना होगा। इसके बिना प्लेग, हैजे करनेवाला या पालन करने की इच्छा आदि रोगोंकी जड़ नहीं कट सकती। रखनेवाला अबतक एक भी हिन्दू मेरे अन्त्यजोंके धन्धोंमें भी नीचताकी कोई बात देखने में नहीं आया। धर्म-ग्रन्थों के प्रत्येक नहीं है। डाकृर और हमारी मातायें भी श्लोकका समर्थन कर देनेसे सनातन धर्म- वैसे ही काम करती हैं। कहा जा सकता की रक्षा न होगी, बल्कि उनमें प्रतिपादित है कि वे सब फिर स्वच्छ हो जाते हैं । त्रिकालाबाधित तत्वोंको कार्यमें परिणत अच्छा, यदि भंगी आदि यह बात नहीं करनेसे ही उनकी रक्षा होगी। x x x करते तो दोष उनका नहीं, सोलहो पाने
"अस्पृश्यताको भावनामें घृणाका हमारा ही है। यह स्पष्ट है कि जिस अन्तर्भाव माननेसे इन्कार करनेवालों के समय हम प्रेमपूर्वक उनका आलिङ्गन लिए तो कोई विशेषण ही मेरी समझमें करने लगेंगे, उस समय वे स्वच्छ रहना नहीं आता। भूलसे कोई हमारे डब्बेमें अवश्य ही सीख लेंगे। सवार हो जाय तो बेचारा पिटे बिना “यह देश तपश्चर्या, पवित्रता, दया नहीं रह सकता और गालियोंकी तो उस- आदिके कारण जिस प्रकार सबके लिए पर वर्षा ही होने लगती है। उसके हाथ वन्दनीय है, उसी प्रकार स्वेच्छाचार, चायवाला चाय और दुकानदार सौदा पाप, करता आदि दुर्गुणोंका भी क्रीडाः नहीं बेचता। वह मरता हो तो भी हम स्थल बना हुआ है।" उसको छूना गवारा नहीं करते । अपना नवजीवन (वर्ष २ अंक ४४) में जूठा हम उसे खानेको देते हैं और फटे "वैष्णावोंके प्रति" शीर्षक लेखमें म० तथा उतारे हुए कपड़े पहनने को। कोई गांधीजी लिखते हैंहिन्दू उसे पढ़ानेको तैयार नहीं होता। " कितने ही वैष्णव मानते हैं कि मैं वह अच्छे मकानमें नहीं रह सकता। वर्णाश्रम धर्मका लोप कर रहा हूँ। परन्तु रास्तोंमें हमारे भयसे उसे बार बार अपनी सच तो यह है कि मैं वर्णाश्रम धर्मको अस्पृश्यताकी घोषणा करनी पड़ती है। मलिनतासे उबारकर उसका सच्चा इससे बढ़कर घृणासूचक व्यवहार और स्वरूप प्रकट कर रहा हूँ। मैं कुछ पानी, कौन सा हो सकता है ? उसकी दशासे रोटी या बेटी-व्यवहारकी हिमायत नहीं कौन सी सूचना मिलती है ? जिस तरह कर रहा हूँ। एक समय यूरोपमें धर्मकी ओटमें गुलामी. मेरी समझमें तो किसी भी मनुष्यको
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२६- जैनहितैषी। .
[ भाग १५ छूने में पाप समझनेकी भावना ही पाप- सम्प्रदायमें तो अनेक भंगी और चाण्डाल मय है।
श्रादि तर गये हैं । जो धर्म सारे जगतको ___ "रजस्वलाका उदाहरण देकर विष्णु के समान जानता है, वह अन्त्यजों. अन्त्यजोकी अस्पृश्यताका बचाव किया को विष्णुसे रहित कैसे मान सकता है ? जाता है। परन्तु यह अज्ञान है। यदि हम "जबतक तुम उन्हें अस्पृश्य मानते अपनी रजस्वला बहिनसे छू जाते हैं तो हो, छूनेमें पाप समझते हो तब तक इसमें कोई पाप नहीं मानते; किन्तु शारी- तुम्हें नहाना हो तो नहाम्रो। परन्तु यह रिक शौचके नियमोंका भंग हुआ समझ प्रार्थना है कि जैसे तुम अपनी रजस्वला कर नहा लेते हैं और स्वच्छ हो जाते हैं। माता का तिरस्कार नहीं करते, उसकी इस बातको मैं समझ सकता हूँ कि जिस सेवा करते हो, उसी प्रकार अन्त्यजोका भी अन्त्यज भाईने मैला कार्य किया हो, उस- तिरस्कार न करके उनकी सेवा करो। को हमें तबतक न छूना चाहिए जबतक उनके लिए कूएँ खुदवाओ, पाठशालायें वह नहा न ले अथवा दूसरी तरहसे खोलो, दवा-दारुका प्रबन्ध करो, वैद्य स्वच्छ न हो जाय । परन्तु इस बातको रक्खो और उनके दुःस्त्रके भागीदार बनमेरी आत्मा स्वीकार नहीं कर सकती कि कर उनकी आन्तरिक आशीष लो । उन्हें अन्त्यज कुलमें जन्म लेनेवालोंका सर्वथा अच्छी जगहमें रक्खो, अच्छी तनख्वाह त्याग ही कर देना चाहिए।
दो, उनका सत्कार करो, उन्हें उपदेश दो __"अँगरेजी सरकार जिसके साथ कि और अपने भाई समझकर उनसे शराब हम असहकार कर रहे हैं, हमारा इतना और गोमांसका त्याग कराओ, तथा जो तिरस्कार नहीं करती। हम तो अपनी त्याग करें, उन्हें उत्साहित करो । ऐसा अन्त्यजोंके प्रति की जानेवाली डायरशाही- करते हुए तुम्हें मालूम हो जायगा कि को धर्म मानकर उसका पोषण करते हैं। छुआछूत एक कुरीति है।" ___ मैं तो समझता हूँ कि हमने जैसा चौथी अन्त्यज परिषद्के सभापतिके बोया. वैसा लन रहे हैं। अन्त्यजों का रूपमा गान्धीजीने जोविस्तत व्याख्यान तिरस्कार करके ही हम जगतके तिर. . (नवजीवन भाग २, अंक ३३) दिया था, स्कार-पात्र बने हैं।
उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं:___ “अस्पृश्यता को बुद्धि ग्रहण नहीं कर “अस्पृश्यताके इस पापसे ही हम सकती । यह सत्यका, अहिंसाका विरोधी सब पतित हुए हैं और साम्राज्यमें भंगी धर्म है, इससे धर्म ही नहीं है। हम ऊँचे समझे जाते हैं । हमारे संसर्गसे मुसलऔर दूसरे नीचे, ये विचार ही नीच हैं। मानोको भी पतित होना पड़ा है। हिन्दू
जिस ब्राह्मणमें शुद्धका-सेवाका मुसलमान दोनों ही साम्राज्यमें पारिया गुण नहीं है, वह ब्राह्मण नहीं है। ब्राह्मण पारिया (मद्रास प्रान्तको एक अस्पृश्य तो वह है जिसमें क्षत्रियके, वैश्यके और जाति) बने हुए हैं । दक्षिण आफ्रिकामे, शद्रके सब गुण हों और उनके सिवाय पूर्व आफ्रिकामें और कनाडामें केवल हिन्दू शान भी हो। शूद्र कुछ शानसे सर्वथा ही नहीं, मुसलमान भी हैं और वे भी विमुख नहीं है, यद्यपि उसमें सेवाकी, सब भंगो गिने जाते हैं। यह इतना बड़ा प्रधानता है। वर्णाश्रम धर्म में ऊँच नीच पाप इसी अस्पृश्यता के फलसे उत्पन्न की भावनाको जगह ही नहीं है। वैष्णव हुआ है।
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अङ्क 8-10] अस्पृश्यता निवारक आन्दोलन । . ___“अस्पृश्यता को जब तक हिन्दू होगा, तबतक हमारे यहाँ लक्ष्मी नहीं समाज जान बूझकर धर्म समझता है पानेकी। और असंख्य हिन्दू अन्त्यजों को छूने में पाप "और तुम स्वंय "ढेढ़ ऊँचा और समझते हैं, तब तक स्वराज्य मिलना भंगी नीचा," इस भ्रममें क्यों पड़े हुए हो? अशक्य है...जिन जुल्मोंके कारण हम ढेढ़ और भंगीमें कुछ भी फर्क नहीं है। अँग्रेजी सल्तनतको राक्षप्ती कहते हैं, "मेरी समझ में तो दोनों का ही पेशा उनमेंसे ऐसे कौन कौनसे जुल्म हैं जो हम वकालत या सरकारी सेवा से किसी अन्त्यजों के साथ नहीं करते?
तरह कम प्रतिष्ठाका नहीं है। " ____ "इस मैलको धोकर हमें स्वच्छ हो अस्पृश्यताके सम्बन्धमें महात्माजीके जाना चाहिए । जबतक ऐसा न हो, तब
एक मित्र ने तीन शंकाएँ की थी। उनका तक स्वराज्यकी चर्चा कोरा वितण्डा- उत्तर उन्होंने अपने नवजीनमें (१३ वाँ वाद है। जबतक दुबलोंकी रक्षा न हो, विशेषांक) जो कुछ लिखा था, उसके कुछ एक भी मनुष्यका दिल स्वराज्यवादीके अंश ये हैहाथसे दुखे, तबतक यह निस्सन्देह है _ "मेरी अल्प बुद्धि के अनुसार भंगी पर कि स्वराज्य नहीं मिल सकता ।......
जो मैल चढ़ती है, वह शारीरिक है और
तत्काल ही दूर की जा सकती है। ___ "दुर्बलों की रक्षा करने के बदले हम
परंतु असत्य, पाखण्ड आदिकी मैल ऐसी उन्हें कुचलते हैं। ऐसे दोषोंको जबतक
सूक्ष्म होती है कि उसका धोना बहुत ही हम निकालकर नहीं फेंक सकते, तबतक
कठिन है। अतएव यदि हम किसीको यदि हम भेड़ों और पशुओंसे भी निकम्मा
अस्पृश्य गिन सकते हैं तो वे हैं असत्य जीवन व्यतीत करें तो इसमें आश्चर्य
और पाखण्ड रूपी मैलसे भरे हुए लोग। नहीं होना चाहिए।
परन्तु उन्हें अस्पृश्य गिननेकी तो ____“नेलोर में मैं अन्त्यज भाइयों से हमारी हिम्मत ही नहीं होती। क्योंकि मिला था। वहाँ मैंने ईश्वरसे प्रार्थना की हम सभीमें इस प्रकारकी थोड़ी बहुत थी कि यदि मैं आगे जन्म लूँ तो अन्त्यज मैल चढ़ी रहती है। यदि हम ऐसा करने होकर ही जन्मूं और उनके दुःखोंका बैठे तो सारे संसारके काजी बनने अनुभव करूँ। मैं ब्राह्मण, वैश्य या शूद्र जैसी बात हो और हम स्वयं ही अस्पृश्य ही नहीं, अति शूद्रके घर जन्म लेना हो जायँ। इस सच्ची मलिनताके लिए चाहता हूँ।
हमारे पास धीरज और अपनी प्रान्तरिक ___"मैं सारे हिन्दुस्तान के अन्त्यजों- स्वच्छताके सिवा दूसरा कोई उपाय का निकट परिचयी बन गया हूँ।मैं देखता नहीं है। परन्त भंगीकी मलिनता तो हूँ कि अन्त्यज जातियों में जो शक्ति है हड्डियों में नहीं बैठती। उसके दूर करनेका उसको वे स्वयं नहीं जानती और न दूसरे उपाय तो बहुत ही सहज है। उन्हें यदि हिन्दू ही जानते हैं । अन्त्वजों की बुद्धि हम अपना बना लेंगे, तो वे अवश्य साफ कुमारिका के समान निर्दोष है । भाइयो, होकर रहने लगेंगे। तुम बुनने, कातने और धुनने का धन्धा "डाकृरोंका पेशा चीर-फाड़ करने. सीख लो। इससे तुम्हारी दरिद्रता चली और मैल साफ करने आदिका ही है। बायगी। जबतक चरखे का पूजन न यदि उन्हें चौबीसों घंटे चीर-फाड़ करने
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का काम मिले तो वे उससे कभी इन्कार नहीं कर देंगे। वे भी तो अपनी श्रजीविकाके लिए मैल साफ करनेका पेशा करते हैं । फिर भी हम उक्त कार्यको परोपकारी समझते हैं और डाकूरोका आदर करते हैं । डाकृरोका पेशा तो केवल रोगियोंका ही उपकारक है, परन्तु भंगीका पेशा सारे जगतका उपकार कर्त्ता है; और इसलिए वह डाक्टरोंके पेशे से भी अधिक आवश्यक और पवित्र है। यदि डार अपना पेशा छोड़ दें, तो केवल रोगियोंका ही नाश हो। परन्तु यदि भंगियोंका काम बन्द हो जाय तो जगतका नाश हो जाय । ऐसी दशा में एक श्रावश्यक पेशेके करनेवालोंको अपवित्र मानकर उन्हें सताना बड़ा भारी पाप है और ऐसा मानना सर्वथा उचित है।
जैनहितैषी ।
"हमें चाहिए कि हम डाकरके पेशे - को जैसा पवित्र मानते हैं, उसी तरह भंगीके पेशे को भी मानें। हमें उन्हें अच्छा रहनेकी प्रेरणा करनी चाहिए, उन्हें दुर भगाने की अपेक्षा अपने समीप रखना चाहिए और उनकी सेवा करनी चाहिए ।"
नवजीवन भाग २, अंक १३ में महास्माजीने 'अस्पृश्य-नीति' नामक लेखमें कुछ वाक्य इस प्रकार लिखे हैं:
"मेरा दृढ़ विश्वास है कि अस्पृ श्यता अधर्म है । हिन्दू धर्मकी यह श्रति शयता या अतिरेक है । श्रतिशयको पोषण करना दुराग्रह है और उसे तपश्चर्या करके दूर करना सत्याग्रह है। सत्यका आग्रह ही धर्म है और रूढ़ी द्वारा माने हुए प्रत्येक दोषको पकड़ रखने का आग्रह अधर्म है ।
"असहकार शुद्धिशास्त्र है और अपनी विशुद्धि किये बिना उसका होना अशक्य
[ भाग १५
है । जबतक हम अपने ही एक अंगको अस्पृश्य मानते हैं, तबतक स्वयं हिन्दू और मुसलमान जो श्राज अस्पृश्य बन रहे हैं, अस्पृश्य ही रहेंगे ।"
ET
'वैष्णव और अन्त्यज' शीर्षक लेख में ( नवजीवन भाग २ अंक १५) में लिखा है:-- " वल्लभ सम्प्रदाय के एक आचार्यने मुझसे कहा कि शास्त्र निर्णय में बुद्धिको कोई स्थान नहीं है । मैं इससे घबरा गया। क्योंकि मैं तो उसे शास्त्र नहीं मानता, जो हृदयमें खटके और जिसे बुद्धि न समझ सके । और मेरे खयालमें जिसे धर्मका श्राचरण करना है, उसे यह सिद्धान्त श्रवश्य स्वीकार करना पड़ेगा । ऐसा किये बिना हम श्रवश्य धर्मभ्रष्ट हो जायँगे । गीताका मैंने यह भी अर्थ सुना है कि यदि अपने भाईबन्धुओंमें कोई दुष्ट हो, तो उसे भी इसे पशुबल से हटा देना चाहिए - हटाना यह धर्म है । रामने रावणको मारा, अतरव हम जिसे रावण समझते हो, उसका संहार करना क्या हमारा धर्म होगा ? मनुस्मृति में मांसाहार करने की विधि है, तो क्या इससे वैष्णव मांसाहार कर सकते हैं ? अनेक शास्त्री और संन्यासी तो रोगका निवारण करनेके लिए गोमांस भक्षण करने को भी बुरा नहीं समते हैं !
"अस्पृश्यताको पाप समझना यह पश्चिमी विचार है, ऐसा कहना पापको पुण्य मानने के बराबर है । श्रक्खा भगतने पश्चिमी शिक्षा नहीं पाई थी, परन्तु उसने भी छूतछात को बुरा बतलाया है । अपने दोष दूर करने के प्रयत्नको दूसरे धर्मोका अंग बतलाकर, उन दोषको छिपाना धर्मान्धता है और इससे धर्मकी श्रवनति होती है ।
"इस दलीलका तो मैं कुछ मतलब
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अङ्क ४-१.] अस्पृश्यता निवारक आन्दोलन । . ही नहीं समझ सकता कि अन्त्यज संस्कृतिका विनिमय होता है। अन्त्यजों नहाने और साफ कपड़े पहननेसे भी को अस्पृश्य रखनेसे वे इन सभी बातोंसे शुद्ध नहीं हो सकते। क्या अन्त्यजका वंचित रहते हैं। वे हमारे विवाहादि अन्तःकरण ही मैला है ? क्या जन्मले ही उत्सवों में शामिल नहीं हो सकते, कथा. अन्त्यज मनुष्य नहीं हैं ? क्या अन्त्यज । कीर्तनों में नहीं आ सकते, मन्दिरों में पशुभोसे भी गये-बीते.हैं ?
प्रवेश नहीं कर सकते और गाँवोंके भीतर "मैंने अनेक अन्त्यजोको सरलचित्त, नहीं रह सकते। ऐसी दशामें हम उनसे प्रामाणिक, शानी और ईश्वरभक्त देखा जो बड़ी भारी सेवा लेते हैं, उसके बदलेऔर उन्हें मैं सब तरहसे चन्दनीय समः। में उन्हें कुछ नहीं मिलता। उनकी सेवा झता हूँ"
निष्फल हो जाती है और इसमे सेवा ___"यह बात तो समझमें आती है कि करानेवालोंका अधःपतन होता है। यदि अन्त्यात मला हो, उसने मैला उठा- ____"इस तरह की सेवा लेना एक तरहकर स्नान न किया हो तो उसे नहीं छूना की चोरी है। अन्त्यजोको अस्पृश्य रखचाहिए। परन्तु वह चाहे जितना शुद्ध हो, कर उन्हें अपनी संस्कृतिका-सभ्यताका फिर भी उसे न छूना, यह तो अधर्मकी हिस्सा देने की हिन्दुओने और क्या व्यवहद है। मैंने ऐसे अनेक लोग देने हैं जो स्था की? जो लोग यह कहते हैं कि अन्त्यज न होकर भी अन्त्यजोसे अधिक अन्त्यजोकी अस्पृश्यता उनके पापोंकी गन्दे रहते हैं। सैंकड़ों ईसाई मैला साफ वंशपरम्परागत सजा है, वे हिन्दू धर्मको करते हैं और डाकृरोका तो धर्म ही मैल लजाते हैं। क्या पतितपावन हिन्दू धर्म धोनेका है। परन्तु उन सबके छूनेमें हम एक मनुष्यके पापके लिए उसकी ४पाप नहीं मानते !"
पीढ़ियोतकको नरकमें ढकेल देनेकी . 'अन्त्यजोंकी सेवा' शीर्षक लेख (नव- व्यवस्था देता है ?" जीवन भाग २ अंक १६) में गांधीजी
वर्ण-व्यवस्था। लिखते हैं____ "न्यज लोग चारों वर्गों की सेवा महात्मा गांधी वर्ण-व्यवस्थाको कैसा करते हैं और बहुत बडी सेवा करते हैं। समझते हैं, यह जानने के लिए हम उनके पर सबसे उन्हें या मिलता 'वर्णव्यवस्था' शीर्षक लेख (नवजीवन है? जिस तरह हम धनका विनिमय भाग २, अंक १५) के कुछ अंश उद्धत करते हैं, उसी प्रकार संस्कृतिका भी
करते हैं:विनिमय (बदला ) होना चाहिए। जो "वर्ण-व्यवस्था में जो चतुर्विध समाजजातियाँ एक दुसरेके साथ हिलती की रचना है, वही तत्वकी, स्वाभाविक मिलती रहती हैं. वे एक दसरेके संस्का- और आवश्यक जान पडती है। असंख्य रोसे लाभ उठाती हैं। शुद्र भी कथा- जातियों और अन्तर्जातियोंसे किसी पुराणोंके श्रवणसे धार्मिक शिक्षा पा समय भले ही कुछ सुभीते हुए हों; परन्तु सकते हैं । एक गाँव में रहनेवाले इस समय तो जातियाँ विघ्न करनेवाली सभी लोगोंकी रक्षा एकसी होती है।• ही हैं। ये अन्तर्जातियाँ जितनी जल्दी संगीतकला आदिके संस्कार मन्दिरों- एक हो जायँ, उतना ही समाजका लाभ में सब कोई प्राप्त करते हैं। इस तरह है। इन जातियों में इस तरहकी नजरमें
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२७२ जैनहितैषी।
[भाग १५ न आनेवाली उत्पत्ति और नाश तथा नई ही हमें हमेशा एकताको खोजना और रचना शुरूसे ही होती आई है और आगे स्थापित करना होगा। यदि कोई मनुष्य भी होती रहेगी। यह काम कर लेनेके हर किसी के साथ खाना पीना पसन्द न लिए-इन जातियों को एक करनेके लिए करता हो, तो मैं यह कहने के लिए तैयार प्रजामत और प्रजाके नैतिक दबावका नहीं कि वह पाप करता है। x x x चाहे असर ही काफी है। परन्तु मूल वर्ण- जिसके साथ न खाना पीना यह एक विभागको ही नष्ट कर डालने के प्रयत्नका तरहका संयम है। इस संयम में कोई दोष मैं विरोधी हूँ। वर्णविभागमें भेददृष्टि, नहीं है । परन्तु यदि इसमें अतिशयता असमानता या उच्चता-नीचता कुछ है ही घुस जाती है तो अवश्य हानि होती है । नहीं; और मद्रास या दक्षिण श्रादि प्रान्तो- यदि यह संयम उच्चताके अभिमानसे में जहाँ ऐसे भेद खड़े हो गये हैं, वहाँ किया जाता है तो संयम न रहकर सचउन्हें अवश्य रोकना चाहिए । परन्तु इस मुचही स्वेच्छाचार बन जाता है और तरह के प्रासङ्गिक दुरुपयोगों के कारण घातक सिद्ध होता है। परन्तु जमाना सारी व्यवस्थाको ही मौतकी सजा नहीं जैसे जैसे आगे बढ़ता है और नई नई दी जा सकती। इसमें सहज ही सुधार आवश्यकतायें तथा परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकता है । हिन्दुस्तान में और सारे होती जाती हैं, तदनुसार रोटी-बेटीसंसारमें इस समय ओ लोकयुग प्रव. व्यवहारके विषयमें भी हमें बहुत ही र्तित हो रहा है, उसके परिणामसे हिन्दू सावधानीके साथ फेरफार अवश्य करने जातियोंमेंसे भी उच्चता-नीचताका खयाल पड़ेंगे। निकल जायगा। x x x x हमें यह कभी इस तरह मैं हिन्दुओंकी वर्ण-व्यवन भूलना चाहिए कि जिस हिन्दू धर्मने स्थाका पक्ष लेता हूँ। फिर भी मैं हिन्दुओंवर्ण-व्यवस्थाको उत्पन्त किया है, उसी की स्पृश्यताकी भावनाको मानव जातिहिन्दु धर्मने हमें केवल मनुष्यों के प्रति ही का घोरसे घोर अपमान समझता हूँ । नहीं, जीव मात्रके प्रति श्रात्मभाव प्राप्त इस भावनाके मूलमें संयम नहीं-किन्तु करने का प्रादर्श भी मनुप्यके सर्वोपरि उच्चताकी उद्धत भावना छिपी हुई है । कल्याणके लिए दिया है।
इस भावनाने आजतक अपनी किसी भी ___ "मेरी समझमें राष्ट्रीय भावनाके प्रकारकी योग्यता नहीं दिखलाई । उलटे फैलाने के लिए एक साथ भोजन करना इसने समाजकी सेवा करनेवाले एक बड़े या चाहे जिसके साथ ब्याह करनेकी भारी समाजको मनुष्य-जातिमेंसे अलग स्वतंत्रता होना, आवश्यक नहीं है। मैं फेंक देनेका घोर पाप किया है। इस बह भी नहीं मानता कि कोई ऐसा स्वतं. पापसे हिन्द धर्म जितनी जल्दी उद्धार प्रताका जमाना आवेगा या ऐसा स्वतंत्र पा जाय, उतना ही उसका बड़प्पन और राज्य-संगठन होगा जब कि समाजके सभी प्रतिष्ठा है।" लोगों में खाने पीने या ब्याह करनेके महात्मा गांधीके प्रायः समस्त लेखों सम्बन्धमें एक सा आचार-व्यवहार हो और व्याख्यानोंको पढ़कर, पुनरुक्तियों को जायगा। समाजके जुदा जुदा वर्गों में बचाते हुए, हमने उक्त विचारोंका संग्रह आचार-विचारोंकी भिन्नता हमेशा किया है। हमारी समझमें इनसे पाठकरहेगी। इस भिन्नता या विविधताके भीतर गण इस अान्दोलनका स्वरूप अच्छी तरह
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अङ्क ४-१०] अस्पृश्यता-निवारक आन्दोलन । समझ जायँगे और इसपर अपनी निजी है जब कि समस्त उत्तेजनामोसे अलिप्त राय कायम करने में बहुत कुछ समर्थ रहकर उस विषयका बड़ी शांति और हो सकेंगे।
गम्भीरताके साथ निष्पक्ष भावसे एक
जजके तौर पर, गहरा विचार किया सम्पादकीय नोट।
जाय, उसके हर पहलू पर नजर डाली अछतो, अन्त्यजों और अस्पृश्यतादि- जाय और इस तरह पर उसके असली के सम्बन्धमें महात्मा गांधीजीके क्या क्या तत्वको खोजकर निकाला जाय। यह ठीक विचार हैं, और वे क्या कुछ चाहते है, इस है कि पुराने संस्कार किसी भी नई बातको बातका अनुभव ऊपरके लेख से बहुत कुछ ग्रहण करनेके लिये, चाहे वह कितनी ही हो जाता है। प्रत्येक भारतवासीको महा. अच्छी और उपयोगी क्यों न हो, हमेशा त्माजीके इन विचारों और उनको इच्छा
धक्का दिया करते हैं और उसे सहसा को जानने की बड़ी ज़रूरत है, इसी लिये
ग्रहण नहीं होने देते । परन्तु बुद्धिमान् सर्वसाधारण, और खासकर जैनियोंके
और विचारक लोग वही होते हैं जो परिचयके लिये यहाँ यह लेख प्रकाशित संस्कारोके परदेको फाड़कर अथवा किया जाता है। अस्पृश्यता निवारक
इस कृत्रिम आवरणको उठाकर 'नग्न और अछूतोके उद्धार-विषयक इस सत्य का दर्शन किया करते हैं। और आन्दोलनका हिन्दुओं की बाह्य प्रवृत्ति इसलिये जो लोग महात्माजीके इन और उनके धर्मशास्त्रोके साथ अनुकूलता विचारोको संस्कारों के परदे से देखना या प्रतिकूलताका जैसा कुछ सम्बन्ध है, चाहते हैं, वे भूल करते हैं। उन्हें उस परदेजैनियोकी बाह्य प्रवृत्ति और उनके धर्म को उठाकर देखनेका यत्न करना चाहिए ग्रन्थोंके साथ भी उसका प्रायः वैसा ही जिससे उनका वास्ताविक रंग-रूप मालूम संबन्ध है-दोनों ही इस विषयमें प्रायः हो सके। और यह तभी हो सकता है समकक्ष हैं। और इसलिये यदि कुछ हिन्दू जब कि उत्तेजनाश्रोसे अलग रहकर, लोग, अपने चिर संस्कारोंके विरुद्ध बडी शांति और निष्पक्षता के साथ, गहरे होनेके कारण, इस आन्दोलनको अच्छा अध्ययन, गहरे मनन और न्यायप्रियतानहीं समझते, धर्म-घातक बतलाते हैं और को अपने में स्थान दिया जाय। महात्मा उत्तेजित होकर इसका विरोध करते हैं, जीके किसी एक शब्दको पकड़कर उस तो बाज जैनी भी यदि इसपर कुछ क्षुब्ध, पर झगड़ा करनेकी जरूरत नहीं है। कुपित तथा उत्तेजित हो जायँ और ऐसा करना उनके शब्दों का दुरुपयोग विरोध करने लगें तो इसमें कुछ भी करना होगा । उनके निर्णयकी तहको अस्वाभाविकता नहीं है और न कोई पहुँचने के लिये उनके विचार-समुच्चयको आश्चर्यकी ही बात है। परन्तु इस प्रकार- लक्ष्यमें रखने की बड़ी जरूरत है। आशा के क्षोभ, कोप और विरोधका कुछ है, इन आवश्यक सूचनाओंको ध्यानमें भी नतीजा नहीं होता और न ऐसी रखते हुए हमारे पाठक इस लेखपर अवस्थामें कोई मनुष्य किसी विषयके विचार करनेको कृपा करेंगे। और साथ यथार्थ निर्णयको पहुँच सकता है। अच्छा ही इन बातों को भी सोचेंगे कि -क्या नतीजा तभी निकल सकता है और तभी पारमार्थिक दृष्टिले धर्मका ऐसा विधान किसी विषयका यथार्थ निर्गय हो सकता हो सकता है कि वह मनुष्यों को मनुष्यों
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जैनहितैषी।
[ भाग १५ से घृणा करना और द्वेष रखना सिख. उसका एक जगह अस्पश्य और दूसरी लावे ? अपनेको ऊँचा और दूसरोंको जगह स्पृश्य करार दिया जाना, यह नीचा.समझनेके भावको अच्छा बतलावे, सब विधि-विधान, लोकाचार, लोकअथवा मनुष्योंके साथ मनुष्योचित व्य- व्यवहार ओर लौकिक धर्मसे सम्बद्ध वहारका निषेध करे ?
है या पारलौकिक धर्म अथवा परमार्थसे - २-महावीर भगवानके समवसरणमें इसका कोई खास सम्बन्ध है? इसपर भी चारों ही वर्णके मनुष्य, परस्पर ऊँच- खास तौरसे विचार होनेकी जरूरत नीच और स्पृश्यास्पृश्यका भेद न करके है। जहाँ तक हमने धार्मिक ग्रंथोका एक ही मनुष्य-कोटिमें बैठते थे । इस अध्ययन किया है, उससे यह विषय हमें
आदर्शसे जैनियों को किस बातकी शिक्षा लौकिक ही मालूम होता है-परमार्थसे मिलती है ?
इसका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है। ३-एक अछूत जातिके मनुष्यको कहा भी है किमाज हम छूते नहीं, अपने पास नहीं -स्पृश्याऽस्पृश्यविधिः सर्वशेषो बिठलाते और न उसे अपने कूएँसे पानी लोकेन गम्यते।
-इन्द्रनंदी। भरने देते हैं । परन्तु कल वह मुसलमान अर्थात् स्पृश्य और अस्पृश्यका सम्पूर्ण या ईसाई हो जाता है, चोटी कटा लेता विधान लोक-व्यवहारसे सम्बन्ध रखता है, हिन्दू धर्म तथा हिन्दू देवताओंको है-वह उसीके आश्रित है और इसलिये बुरा कहने लगता है, धार्मिक दृष्टिसे एक उसीके द्वारा गम्य है। दर्जे और नीचे गिर जाता है और लौकिक विषयों और लौकिक धौके प्रकारान्तरसे हिन्दुबोका हित-शत्रु बन लोकाश्रित होनेसे उनके लिये किसी जाता है, तब हम उसको छूनेमें कोई आगमका आश्रय लेनेकी अर्थात् इस बातपरहेज नहीं करते, उससे हाथ तक की हूँढ़-खोज करनेकी कि आगम इस मिलाते हैं, उसे अपने पास बिठलाते हैं, विषयमें क्या कहता है, कोई जरूरत नहीं कभी कभी उच्चासन भी देते हैं और है। आगमके पाश्रय पारलौकिक धर्म अपने कृएँसे पानी न भरने देनेकी तो होता है, लौकिक नहीं; जैसा कि श्रीसोमफिर कोई बात ही नहीं रहती। वह खुशी देव सूरिके निम्न वाक्यसे प्रगट हैसे उसी कृएँ पर बराबर पानी भरा
द्वौहिधम्मौ गृहस्थानां करता है । हमारी इस प्रवृत्तिका क्या
लौकिकः पारलौकिकः । रहस्य है ? क्या यह सब हिन्दू धर्मका ही खोट था जिसको धारण किये रहनेकी
लोकाश्रयो भवदाद्यः वजहसे वह बेचारा उन अधिकारोंसे
. परः स्यादागमाश्रयः ।। वंचित रहता था और उसके दूर होते ही लौकिक धर्म लौकिक जनोंकी देशउसे वे सब अधिकार प्राप्त हो जाते हैं ? कालानुसार प्रवृत्तिके अधीन होता है ये सब खूब सोचने और समझनेकी और वह प्रवृत्ति हमेशा एक रूपमें नहीं बातें हैं । और
रहा करती। कभी देशकालकी आवश्य ४-किली व्यक्ति को अस्पृश्य या कताओंके अनुसार, कभी पंचायतियोंके स्पृश्य ठहराना, एक वक्त में अस्पृश्य और निर्णय द्वारा और कभी प्रगतिशील दूसरे वक्त में स्पृश्य बतलाना अथवा व्यक्तियोंके उदाहरणोंको लेकर बराबर
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अङ्क 8-१०] अस्पृश्यता निवारक आन्दोलन ।
२७५ बदला करती है । इसलिये लौकिक धर्म आवश्यकताओंके अनुसार अपनी प्रवृत्ति भी हमेशा एक हालतमें नहीं रहता। वह को बदल लिया है ?* इसी तौर पर वर्त. बराबर परिवर्तनशील होता है, और मान अछूत जातियों या उनमेंसे किसी इसीसे किसी भी लौकिक धर्मको सार्व- जातिके साथ यदि आज भी अस्पश्यतादेशिक और सार्वकालिक नहीं कह का व्यवहार उठा दिया जाय तो र सकते । ऐसी हालत में किसी समय एक लोकरूढ़िका-लोक व्यवहारकाकिसी देशके स्पृश्याऽस्पृश्य सम्बन्धी परिवर्तन हो जानेके सिवाय हमारे किसी लौकिक धर्मको लक्ष्य में रख कर पारमार्थिक धर्मको क्या हानि पहुँचती है? उसके अनुसार यदि किसी ग्रन्थमें कोई और फिर वह हानि उस वक्त क्यों नहीं विधान किया गया हो, तो वह तात्कालिक पहुँचती जब कि उस जातिके व्यक्ति
और तद्देशीय विधान है, इतना ही सम. मुसलमान या ईसाई हो जाते हैं और हम झना चाहिए। इससे अधिक उसका यह उनके साथ अस्पृश्यताका व्यवहार नहीं प्राशय लेना ठीक नहीं होगा कि वह सर्व रखते? यह सभीके सोचने और समझनेदेशों और सर्व समयों के लिये, उस देश की बात है। और इससे तो प्रायः किसी
और उस समयके लिये भी जहाँ और जब को भी इन्कार नहीं हो सकता कि जिन वह परिस्थिति कायम न रहे, एक अटल अत्याचारोंके लिये हम अपने विषयमें गवसिद्धान्त है। और इसलिये एक लौकिक नमेंटकी शिकायत करते हैं, यदि वे ही धर्म सम्बन्धी वर्तमान आन्दोलनके अत्याचार और बल्कि उनसे भी अधिक विरोधमें ऐसे ग्रन्थोंके अवतरण पेश अत्याचार हम अछुतोंके साथ करते हैं, करनेका कोई नतीजा नहीं हो सकता। तो हमें यह कहने और इस बातका दावा शास्त्रोंमें ऐसी कितनी ही जातियोंका करनेका कोई अधिकार नहीं है कि हमारे उल्लेख है जो उस समय अस्पृश्य (अछूत) ऊपर अत्याचार न किये जायँ, हमें बरा. समझी जाती थीं, परन्तु आज वे अस्पृश्य बरके हक दिये जायँ अथवा हमें स्वानहीं हैं। आज हम उन जातियोंके व्यक्तिणे- धीन कर दिया जाय । हमें पहले अपने को खुशीसे छूते हैं, पास बैठाते हैं और दोषोंका संशोधन करना होगा, तभी हम उनसे अपने तरह तरहके गृह-कार्य कराते दूसरोंके दोषोंका संशोधन करा सकेंगे। हैं। उदाहरणके लिये धीवरोको लीजिये भले ही हमारे पुराने संस्कार और जो हमारे इधर उच्चसे उच्च जातियोंके हमारी स्वार्थ-वासनाएँ हमें इस बातको यहाँ पानी भरते हैं, बर्तन माँजते हैं और स्वीकार करनेसे रोक कि हम अछूतोपर अनेक प्रकारके खाने आदि बनाते हैं। ये कुछ अत्याचार करते हैं; और चाहे हम लोग पहले अस्पृश्य समझे जाते थे और यहाँ तक कहने की धृष्टता भी धारण उस अमय उनसे छू जाने का प्रायश्चित्त भी करें कि अछूतोके साथ जो व्यवहार होता था। परन्तु आज कितने ही प्रदेशोंमें किया जाता है, वह उनके योग्य ही है वह दशा नहीं है, न घे अस्पृश्य समझे और वे उसीके लिए बनाये गये हैं, तो जाते हैं और न उनसे छू जानेका कोई - प्रायश्चित्त किया जाता है। यह सब क्या
स्पृश्याऽस्पृश्यके सम्बन्धमें कितने ही उल्लेख शास्त्रों
से भी पाये जाते है, जिनमें प्राचार्योमें परस्पर मतहै?क्या यह इस बातको सूचित नहीं भेद है और जो देश-कालको भिन्न भिन्न स्थितियोंके करता कि बादमें लोगोंने देश-कालकी परिवर्तनादिकका ही सूचित करते हैं।
•
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जैनहितैषी।
[भाग १५
भी एक न्यायी और सत्यप्रिय हृदय इस जाय, जिससे एक विद्वान्के विचार उन्हें बातको स्वीकार करनेसे कभी नहीं मालूम हो जायँ । अतः हम उर्दू जैनचूकेगा कि अछूतों पर अर्से से बहुत बड़े प्रदीपमें प्रकाशित बाबू साहबके उक्त अन्याय और अत्याचार हो रहे हैं और भाषणसे उनके ऐसे कुछ विचारोंको इसलिये हमें अब उन सबका प्रायश्चित्त ज्योंका त्यों और कहीं कहीं अनुवाद रूपजरूर करना होगा।
में यहाँ उद्धृत करते हैं। उनके औचित्य - अन्तमें हम अपने पाठकोंसे इतना और अनौचित्य पर विचार करना स्वयं फिर निवेदन कर देना चाहते हैं कि वे पाठकोंके अधीन है। अपने पूर्व संस्कारोंको दबाकर बड़ी "जैनधर्म उन उसूलों (सिद्धान्तो) शांति और गंभीरताके साथ इस विषय और उन तरीकों (ढंगों) का ही नाम है पर विचार करनेकी कृपा करें और इस कि जिनसे प्रात्माके निज शुद्ध स्वाभापर हर पहलूसे नजर डालें: क्योंकि यह विक गुणोंका विकाश होता है। जैन विषय, इस समय, देशके लिये एक बड़े धर्मके अनुसार केवल शान आदिक ही ही महत्वका विषय बना हुआ है । साथ श्रात्माके शुद्ध स्वाभाविक गुण हैं । अतः ही, यह भी निवेदन है कि वे किसी विचार. वास्तवमें जैनधर्मका उद्देश्य ही आत्माको विभिन्नताके कारण इस लेखके लेखक, परमात्मा बनाना है। इस धर्मके अनेक सम्पादक तथा महात्मा गांधीजी आदिसे ग्रन्थों में प्रात्मस्वरूप, कर्मसिद्धान्त, परकोई व्यक्तिगत द्वेषभाव धारण न करें। मात्मस्वरूप वगैरहका ऐसा स्पष्ट वर्णन यही विचारकोंकी नीति होती है और है कि जो दूसरी जगह नहीं पाया जाता। होनी चाहिए। हम भी इस विषय पर वस्तुतः दुनियाँ में इस धर्मके महान् अभी और गहरा विचार कर रहे हैं। ग्रन्थोंका जुदा जुदा भाषाओं में अनुवाद
होकर उसके प्रचारकी जरूरत है।" बाबू ऋषभदासजी वकील . "सबसे बड़ा सिद्धान्त जो जैनधर्म
के महत्त्वको प्रकट करता है, वह उसका मेरठके विचार ।
- 'अनेकान्त' सिस्टम है।" 'हीरालाल जैन हाई स्कूल, पहाड़ी इसके बाद अनेकान्त और एकान्तके धीरज देहलीके वार्षिक अधिवेशन पर, स्वरूपका कुछ वर्णन देकर आपने उसके गत २४ अप्रैल सन् १९२१ को, श्रीयुत सम्बन्धमें अपने विचार इस प्रकार बाबू ऋषभदासजी बी. ए. वकोल प्रकट किये हैंमेरठने, सभापतिको हैसियतसे जो भाषण 'ये सब एकान्तवाद भी असली दिया है, उसमें बालक और बालिकाओकी सिवान्तोंके लिहाज़ (अपेक्षा) से तो शिक्षाके सम्बन्धमें कितनी ही काम की जरूर सच हैं, लेकिन जिस तरीके (ढंग) बातें कहनेके बाद, जैनधर्म और जैन- से उन्होंने उन सिद्धान्तोंको माना है, उस समाजके सम्बन्धमें भी अपने कुछ तरीकेके लिहाजसे वे गलत हैं। उदाविचारोको खास तौरसे प्रकट किया है। हरणके तौरपर यह कहना कि हम चाहते हैं कि जैन हितैषीके पाठकों को अनित्य है। गलत नहीं है। हाँ, बिना । भी उन विचारोंका परिचय कराया पर्यायकी अपेक्षाके वस्तुको अनित्य ही!
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अङ्क ६-१०]
बाबू ऋषभदासजीके विचार।
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मानना गलत है। किसी विद्वान्का कर समुद्र ही हैं, उसी तरह विभिन्न कहना है कि एकान्त और एनेकान्त में . सिद्धान्त भी अपनी अपनी अपेक्षाकी सिर्फ 'ही' और 'भी' का फर्क है। एक दृष्टिसे माने जाकर जैनधर्म ही हैं। हाँ, एकान्तवाद कहता है कि वस्तु अनित्य अगर समुद्रकी किसी लहरको समुद्रसे ही है, दूसरा एकान्तवाद कहता है कि बाहर सूखी जमीन पर ले श्रावें, तो वहाँ वस्तु नित्य ही है । अनेकान्तवाद कहता वह समुद्र तो नहीं कहला सकती, लेकिन है कि भाई, तुम दोनोंका कहना ठीक वहाँ भी उसको समद्रका पानी जरूर है-वस्तु नित्य भी है और अनित्य ली। कहेंगे। इसी तरह यदि कोई सिद्धान्त द्रव्य अपेक्षा वस्तु नित्य है,पर्याय अपेक्षा बिना उलकी समुचि अपेक्षा या नयके अनित्य है। तुम दोनोंको श्रापसमें माना जाता है, तो उस वक्त उसको पूरा लड़ना-झगड़ना नहीं चाहिए बल्कि जैनधर्म तो नहीं कह सकते, परन्तु उस जिस जिस अपेक्षासे तुम दोनोंका वक्त भी वह जैनधर्मकी एक छाया मात्र कहना ठीक है, उसको समझ लेना या कुछ अंश जरूर है। अतः जैनधर्मियों चाहिए । वास्तव में जैनधर्म एक ऐसा या अनेकान्तवादियों का कर्तव्य है कि वे धर्म है कि जो किसी मजहब (मत) से किसी एकान्तवादीको अधर्मी, अश्रद्धानी विरोध नहीं रखता है-किसी मतके या मिथ्यातीके नामसे न पुकारें, बल्कि सिद्धान्तको झूठा नहीं बतलाता, बल्कि जिस गलत तरीकेसे या जिस अपेक्षाको सम्पूर्ण मतोके सिद्धान्तोंको अनेकान्तसे लक्ष्यमें न रखकर उसने उस सिद्धान्त. सञ्चा साबित कर देता है। असलियतमे को मान रक्खा है, उस गलत तरीकेको
सही करके या उस उपेक्षित अपेक्षाको अगर देखा जाय तो दुनिया भर के सिद्धान्त अद्वैत, द्वैत वगैरह जैनधर्मके
समझाकर उसपर अनेकान्तवादकी छाप
लगावें और अपने में जज्ब ( समाविष्ट) अन्दर शामिल हैं और इस तरह जैनधर्मको अन्य सब धर्मोका समुदाय कह
करें। और अपने में जज्ब करनेका क्या सकते हैं। परन्तु यहाँ पर और कोई
अर्थ ? अपना अंश तो वह पहलेसे ही साहब यह खयाल न करें कि मैं जैनधर्म
है। केवल उस सिद्धान्तकी अपेक्षाको को संग्रहीत मत इस अर्थमें कहता हूँ
भुला देनेकी वजहसे जो वह अनेकान्तकि किसी खास वक्तमें किसी खास
वादसे भिन्न दिखलाई पड़ता है, उसकी शख्ल (व्यक्ति) ने सब धौंको इकट्ठा
उल अपेक्षाको हृदयमें बिठलाकर उस करके जैनधर्म बना दिया है। नहीं, मैं
भिन्नताको मिटावें। वास्तवमें देखा जाय तो ऐसा हरगिज ( कदापि ) नहीं कहता,
जैनधर्म या अनेकान्तवाद एक शान्तिबल्कि मेरा कहना यह है कि जिस तरह प्रिय और प्रेम फैलानेवाला धर्म है। वह समुद्र अपनी अनेक लहरोंको लिये हुए किसी धर्मको झूठा नहीं कहता, वह है, उसी तरह जैनधर्म भी अपनी भिन्न किसी सिद्धान्तको गलत नहीं बतलाता; भिन्न अपेक्षाओं और नयोंसे अनेक बल्कि विभिन्न धर्मों और सिद्धान्तों में जो सिद्धान्तोंको अनादिसे ही लिये हुए है। अपेक्षा या नयको भुला देनेकी वजहसे
और जिस तरह समुद्र की लहरे समुद्र के परस्पर झगड़ा और विरोध नजर भाता अन्दर अपने अपने उचित स्थान पर रहा है, उनको समुचित अपेक्षाओंको दिखला
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जैनहितैषी।
[ भाग १५ कर और उनके विरोधको मिटाकर उन की अहिंसा अत्यन्त विस्तृत और व्यापक . सबको अनेकान्तके सूत्रमें बाँधता है। है, परन्तु इस कलिकालमें हमारे कुछ जैनी । और अनेकान्तके सूत्र में बाँधना क्या, बल्कि भाइयोंने अपने आचरणसे उसको अत्यपहलेसे ही जो वे अनेकान्तके भीतर न्त परिमित बना दिया है। हमारे कुछ गर्भित हैं, उनके उस गर्भितपनेको प्रगट भोले भाई ऐसे हैं जो सिर्फ बनस्पति करता है। सजनों, अगर आप जैनधर्मके वगैरह एकेंद्रिय जीवोंकी दयाको ही पूरी सच्चे रहस्य पर गौर करेंगे तो जरूर श्राप अहिंसा खयाल करते हैं । यह उनकी गलती यह कहेंगे कि उसमें दसरोंको अधर्मी, है । उनको अपनी सन्तान, अपनी कौम, अश्रद्वानी या मिथ्याती कहने की जगह ही
अपने देश और मनुष्य जातिके उपकार नहीं । शायद जिस जमाने में अन्यमत
की तरफ भी ध्यान देना चाहिए । परोप
कार भी अहिंसाका प्रधान अंग है। जैन घाले यह (इस आशयका ) श्लोक पढ़ा करते थे कि मस्त हाथीके सामने चला
धर्मकी अहिंसाको, जो कि अत्यन्त उच्च जाय,लेकिन जैन मंदिर में न जाय, सम्भव कोटिकी अहिंसा है, केवल साग-सब्जी है, उस जमाने में आपका भी उनको वगैरह एकद्रिय जीवोंकी रक्षा पर परिमिथ्याती कहनां कुछ अर्थ रखता हो। मित कर देना जैनसमाजका हास्य कराना परन्तु इस जमाने में जब कि प्रेम और एक है। इस अवसर पर कोई साहब यह ताकी आवाज़ चारों तरफसे सुनाई दे रही खयाल न करें कि मैं एकेंद्रिय जीवोंकी है, आपका अन्य मतवालोको मिथ्याती दयाका निषेध कर रहा हूँ। नहीं नहीं, कहना या दूसरे धर्मों और सिद्धान्तोको एकेंद्रिय जीवोंके साथ भी दया व अहिंसा- , केवल मिथ्यात्व या जैनधर्मसे सर्वथा का बर्ताव हर शख्सको अपनी ताकत विपरीत अर्थात् विरुद्ध बतलाना, सिवाय और हालतके अनुसार जिल कदर हो इसके कि आप उनको मिथ्यात्वमें और सके, जरूर करना चाहिए। लेकिन मेरा दृढ़ करें और अपने अनेकान्त पर संकु- कहना यह है कि एकेद्रिय जीवोंकी दयाचितता और संकीर्णताका धब्बा लगाएँ, को पंचेन्द्रिय जीवोंकी दया पर मुख्यता
और कुछ भी अर्थ नहीं रखता । और नहीं देनी चाहिए। वास्तव में यदि देखा जाय तो इस किस्म- क्या आजकल हमारे जैनी भाई परकी स्प्रिट अर्थात इस प्रकारकी बातें कहना स्पर एक दूसरेसे कलह करके, दूसरोंके और इस किस्मका बर्ताव करना जैनधर्म- साथ अन्यायका बर्ताव करके, तीर्थक्षेत्रोंके अनेकान्त सिद्धान्तसे सर्वथा विरुद्ध के झगड़ोंमें अपना रुपया और ताकत और अनेकान्तवादको एकान्तवाद बर्बाद करके भाव-हिंसा नहीं कर रहे हैं ? बनाना है।
जरूर कर रहे हैं। क्या आजकल जैनइसके बाद आपने जैनधर्म के दूसरे
समाज बाल-विवाह, वृद्ध विवाह, अन'अहिंसा' सिद्धान्तका महत्व और स्व.
मेल विवाह, बहु-विवाह, कन्या-विक्रय,
वगैरह कुरीतियाँ करके अपनी सन्तान, रूप बतलाते हुए उसके अन्तमें कहा है
अपनी जातिके साथ घोर हिंसा नहीं कर "यहाँ पर मजबूर होकर मुझे यह रहा है ? निःसन्देह कर रहा है। अधिकजरूर कहना पड़ता है कि यद्यपि जैनधर्म. तर इन्हीं कुरीतियों की वजहसे जैन जाति
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अङ्क ६-१० ]
की संख्या दिन पर दिन घटती जा रही है । अफसोस है, इन कुरीतियोंने ही कुछ लोगोंको विधवा-विवाह जैसी नीच प्रथाकी चर्चा करने के लिये तय्यार कर दिया है। मेरी राय में बेहतर तो यह होता कि ये लोग विधवा-विवाहका श्रान्दोलन करनेके स्थानमें इन कुरीतियों को निर्मूल करने की कोशिश करते । लेकिन इससे ज्यादा अफसोस मुझे उन दूसरे लोगों पर है कि जो इन विधवा-विवाहका चर्चा करनेवालोंको गालियाँ वगैरह तो देते हैं, परन्तु इन कुरीतियोंके दूर करनेकी कोशिश नहीं करते - धड़ाधड़ वृद्ध, विवाह बहुविवाह, कन्या- विक्रय वगैरह मालदार लोगोंकी विषयवासना और स्वार्थसिद्धि के लिये किये जाते हैं; और ये दूसरी किस्म के लोप उपेक्षा धारण करने के अतिरिक्त किसी किसी अवसर पर तो इनमें से कुछ कुरीतियों को निर्दोष भी बतलाने लगते हैं ! भाइयों ! यदि आप विधवा विवाह को रोकना चाहते हैं तो वे बातें जिनकी वजह से इस हानिकारक प्रथाकी श्रोर लोगोंका ख्याल जाता है, दूर कीजिये । केवल इस प्रथाकी चर्चा करनेवालोंको गालियाँ देने से या उनको किसी किस्मकी संजा देनेसे काम नहीं चलेगा। ऐसा करनेसे तो इस नीच प्रथा प्रचार में और ज्यादा मजबूती होगी । यह बात वस्तु-स्वभाव के विरुद्ध है कि यदि कोई नई कुप्रथा कुछ कारणोंसे जारी होती हुई नजर आती हो तो वह बिना उन कारणोंको दूर किये केवल उसके आन्दोलन करनेवालोंको गालियाँ और सजा देने वगैरह से रुक जाय ।
बाबू ऋषभदासजी के विचार ।
ऊपरकी पंक्तियोंमें मैंने जैनधर्म के सिर्फ दो सिद्धान्तों— अनेकान्त और 'अहिंसा' का जिकर किया है । इनके
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अतिरिक्त जैनधर्ममें और बहुतले अमूल्य और महत्वपूर्ण सिद्धान्त हैं जैसे कि कर्मसिद्धान्त, आत्म-स्वरूप, परमात्मस्वरूप, भेद- विज्ञान, श्रात्मिक स्वतंत्रता, वीतरा गता वगैरह कि जिनसे जैनधर्म अंति श्रेष्ठ और उत्तम साबित होता है; और यह खयाल पैदा होता है कि इस धर्म के माननेवालोंकी शारीरिक, मानसिक, नैतिक और धार्मिक गरज हर तरह की हालत बहुत अच्छी होनी चाहिए। लेकिन देखने पर इसके विरुद्ध नजर आता है । जैन समाजकी दशा हर तरह से ि द्दीन नज़र श्राती है। इसकी वजह क्या है ? इसकी वजह गौर करने से यह मालूम होती हैं कि इस ज़माने में जैनसमाज जैनधर्मका पालन उसके असली स्वरूप और आभ्यन्तर रहस्यके अनुसार नहीं कर रहा है । यद्यपि ऊपरी (बाह्य) क्रियाओं जैसे कि हरी वगैरहके त्यागका पालन अब भी कर रहा है, परन्तु वह बिना उसके प्रयोजन और श्रभिप्रायको समझे केवल रूढ़िके तौर पर कर रहा है; और उससे अधिक मुख्य, ज़रूरी और हितकर श्रभ्यन्तरिक बातोंसे उपेक्षा धारण किये हुए है। दूसरे, जैनसमाजमें विद्या और एकताकी बहुत कमी है । एकता न होने की वजहसे शिक्षा के काम में बड़ा धक्का पहुँच रहा है। ज़रा ज़रा सी और व्यर्थ के वादविवादमें जैनसमाजकी बातोंपर परस्पर खींचतान हो रही है शक्ति खर्च हो रही है। कोई कहता है कि वर्णव्यवस्था कर्म पर निर्भर है। दूसरा कहता कि तुम वर्णव्यवस्थाको उड़ाना चाहते हो, वर्णव्यवस्था तो बिलकुल जन्मपर निर्भर है । खेद है कि ये दोनों ग़ौर करके इस बातका अनुभव नहीं करते कि यद्यपि शुरू में भगवान् ऋषभदेवने वर्णव्यवस्था
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जैनहितैषी ।
कर्मपर ही स्थिर की थी, क्योंकि उससे पहले भोगभूमि होने के कारण वर्णव्यवस्था नहीं थी, तो भी अब तो वर्णव्यवस्था कर्म और जन्म दोनों पर ही निर्भर हो सकती है और दोनोंपर ही है । यदि कोई मनुष्य यह पूछता है कि अमुक व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण है या नहीं, तो इसका यही तो अर्थ है कि वह यह पूछता है कि वह व्यक्ति ब्राह्मण से उत्पन्न हुआ या कि नहीं । यदि वास्तव में उसकी उत्पत्ति ब्राह्मण से है, तो इस घटना के विरुद्ध कौन कह सकता है कि वह जन्म से ब्राह्मण नहीं है । यदि उस व्यक्तिके कर्म ब्राह्मण जैसे नहीं है बल्कि अत्यन्त नीच हैं, और उस वक्त यह प्रश्न किया जाता है कि यह व्यक्ति कर्मकी अपेक्षा से ब्राह्मण है या नहीं, तो इस प्रश्नका यही तो श्राशय होता है कि उसके कर्म ब्राह्मण जैसे हैं या नहीं। तो फिर कौन सच्ची बात के विरुद्ध यह कहनेका साहल करेगा कि इसके कर्म ब्राह्मण जैसे हैं या यह कर्म की अपेक्षा ब्राह्मण है ? पूरा ब्राह्मण तो वही है जो कर्म और जन्म दोनोंकी अपेक्षा ब्राह्मण हो । हाँ यदि कोई मनुष्य जन्म से तो ब्राह्मण हो नहीं और उसके कर्म बहुत अच्छे हों, और एक दूसरा मनुष्य है जो जन्म से तो ब्राह्मण हो परन्तु उसके कर्म अत्यन्त बुरे हों, तो निःसन्देह इन दोनोंमें से पहले मनुष्यकी ज्यादा इज्जत होती है और पहले मनुष्यकी ज्यादा इज्जत (मान्यता) होनी भी चाहिए; क्योंकि ऐसा होनेसे दूसरा अपने कर्म अच्छा करनेकी कोशिश करेगा । इसके अतिरिक्त जैनधर्ममें निश्चय और व्यवहार दो मार्ग हैं। निश्चयकी अपेक्षा जैनशास्त्रों में यह लिखा हुआ है कि यह श्रात्मा न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय, न वैश्य और न शूद्र । और यदि कोई मनुष्य ब्राह्मण होने की वजहसे अपने
[ भाग १५
श्रापको दूसरोंसे ऊँचा ख़याल करता है, तो यह उसका भ्रम है और इससे उसके सम्यक्त्वमें दोष लगता है । अतः स्पष्ट है कि वर्णव्यवस्थाको इस क़दर खींचकर मानना कि जिससे दूसरोंको नीचा लम
के भाव पैदा हो जायें, जैन निश्चय मार्ग के विरुद्ध और उसमें हानिकारक है । और व्यवहार मार्गको खींचकर निश्चयका बाधक नहीं बनाना चाहिए। वर्णव्यवस्था कर्मभूमिके व्यवहारकी सहूलियत (सुगमता) के लिये कायम हुई है । जहाँतक व्यवहारका सम्बन्ध है, उसको अनेकान्त रूपसे जन्म और कर्म दोनोंपर निर्भर मानना चाहिए |
दुसरी लड़ाई-झगड़े की बात आजकल छूतछातका सिद्धान्त हो रहा है । कुछ लोग कहते हैं कि छूतछात सर्वथा हानिकारक है, इसको बिलकुल उड़ा देना चाहिए। दूसरे उनके इस कहने से भयभीत होकर छूतछातको धर्मकी जड़ बतलाने लगते हैं और कहते हैं कि छूतछात जाती रही तो सब धर्म ही नष्ट हो जायगा । मेरे खयालमें छूतछातका सम्बन्ध खानपानी शुद्धता है । जो मनुष्य मैलाकुचैला और गन्दा हो, या जिसका खानपान मांसादिक अशुद्ध पदार्थोंका हो, या जिसके कर्म बहुत नीच हो, उसकी स्पर्श की हुई चीज़ खानेसे खानेवाले के दिलमें एक प्रकार की ग्लानि और श्राकुलता पैदा होती है जिससे वह अपने धर्मका साधन ठीक तौरसे नहीं कर सकता । श्रतः दिल में ग्लानि और श्राकुलताको श्रानेसे. रोकने के लिये यह छूतछातका सिद्धान्त रक्खा गया मालूम होता है । परन्तु निःसन्देह, इस निकृष्ट कालमें इसको इस बुरी तरह से खींचा है कि दूसरेकी छायासे,
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अङ्क ६-१०] बाद् ऋषभदासजीके विचार। सड़कपर अपने बराबर चलनेसे अपना उसमें अर्थहीनता, अस्पष्टता और हानिधर्म भ्रष्ट होना बवाल किया जाता है, या करता आ गई है उतने अंशमें उसका पक्ष कहीं हम खा रहे हो और वहाँ कोई शूद्र न लें। हाँ, जितने अंशमें वह शुद्धताकी या मुसलमान पा जाय तो समझ लिया साधक है उतने अंशमें उसको स्थिर रक्खें। कि हमारा ईमान (धर्म ) जाता रहा। इसी तरह और भी बहुत सी बातें हैं अतः इस किस्मका बर्ताव कि जो नफरत कि जिनपर वादविवाद होकर आजकल और द्वेषकी हदतक पहुँचता है, वास्तव में, एक दूसरेकी निन्दा करने और गालीहमारे समाज तथा देशकी उन्नति और गलौजका सिलसिला चल रहा है कि
जिससे समाज में एक हलचल और ना. निश्चय मोक्ष-मार्गमें बहुत बाधक है।
- इत्तफाकी (अनैक्य ) फैली हुई है और जैनधर्ममें दूसरोंसे नफरत और द्वेष करना समाजकी शिक्षा तथा सुधार-सम्बन्धी धर्मके बिलकुल विरुद्ध है। इसके अति- कामों में बहुत धक्का पहुँच रहा है। मेरी रिक्त आजकल वह ज़माना है कि हम तुच्छ सम्मतिमें विद्वानोंको चाहिए कि अलग किसी कोने में बैठकर अपना जीवन यदि कोई व्यक्ति कोई बात आपत्तिके नहीं बिता सकते । आजकल तमाम योग्य या धर्म-विरुद्ध लिखे तो बिना दुनियाके लोगोंसे हमें सम्बन्ध, कार्य- किसी व्यक्तिगत आक्षेप और कषायके व्यवहार और मेलजोल रखना होता है। शान्तिपूर्वक उसका उत्तर दे दें, बाकी ऐसी हालतमें अगर हम छूतछातको ही हर वक्त एकता और विद्याके प्रचारकी इस कदर स्त्रींचकर बैठ जायँ कि किसी- कोशिश करें । शास्त्रोंके विरुद्ध लेखोको 'का हाथ या कपड़ा छू जानेसे भी हम
- मैं भी नापसन्द करता हूँ, परन्तु जो
- तरीका लोगोंने आजकल इसके रोकनेअपना धर्म नष्ट होना खयाल करें या
का ग्रहण कर रक्खा है, मेरे खयालमें वह दूसराको दूरस हा दूर दूर करता हम ठीक नहीं है। बात यह है कि जब कोई इस ज़मानेकी ज़िन्दगी (जीवन) की दौड़ शख्स कोई बात विपरीत या धर्म-विरुद्ध में कदापि सफल नहीं हो सकते । छूत- कहता या लिखता है तो उसका कारण छातके ऐसे खींचे हुए व्यवहारसे हमारे उसके मिथ्यात्व-कर्मका उदय हुआ करता धर्मका हास्य होता है और संसारसे है । अब अगर आप उसकी बातका हमारा अस्तित्व उठ जाने की सम्भावना जवाब (उत्तर) देनेमें उसकी निन्दा करे, है। अतः छूतछात जहाँतक समाज, देश
उसको अधर्मी, अश्रद्धानी. मिथ्याती
वगैरह कहें तो इसका नतीजा (फल) यह और धर्मकी उन्नतिमें बाधक है वहाँ तक
:- होगा कि वह मिथ्यात्वमें और ज़्यादा दृढ़ वह निःसन्देह छोड़ देनेके योग्य है। हो जायगा और आपके जवाबका उसकी परन्तु जहाँतक उसका सम्बन्ध खानपान- तबीयतपर कुछ भी असर नहीं होगा । की शुद्धतासे है, वहाँतक वह बुरी चीज़ इसलिए उसको तो आपके उत्तरसे कोई नहीं है। इसलिए विद्वानोंको चाहिए कि लाभ नहीं पहुँचेगा और दूसरोंकी दृष्टिमें इसपर अधिक खींचातानी करके श्रापसमें आपका उत्तर, ठीक होने पर भी, केवल अनैक्य न फैलाएँ, बल्कि निष्पक्ष होकर आपके उन कठोर, असभ्य और निन्दाकृतछातको ज्यादा स्वींचनेसे जितने अंशमें मय शब्दोके कारण कुछ अधिक महत्व
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नहीं रखेगा। सिर्फ़ आपके इस प्रकारके शब्द दूसरोंके दिल में आपकी तरफ से कुछ कमज़ोरीका सन्देह पैदा करेंगे । अतः किसी विपरीत या धर्म-विरुद्ध बातके उत्तर देने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि बिना अधर्मी और श्रद्धानी कहे, for fair प्रकारकी निन्दा और बिना किसी प्रकारका व्यक्तिगत आक्षेप किये केवल उस बातका उत्तर अत्यन्त शान्ति और गम्भीरताके साथ दिया जाय कि जिससे उस विपरीत बात कहनेवालेको और दूसरोंको लाभ पहुँचे और समाज अनैक्य से बचा रहे ।"
जैनहितैषी ।
मानकी मरम्मत का अनोखा उपाय ।
दिगम्बर जैन प्रान्तिक सभा बम्बई के महामन्त्री बाबू माणिकचन्दजी वैनाड़ाने जैनमत्रमें एक लेख इस भाशयका लिखा था कि कलकत्तेकी 'जैन सिद्धान्त- प्रकाशिनी संस्था' इस समय केवल पं० गजाधरलालजी और श्रीलालजी के हाथमें है; और सुना गया है कि उक्त दोनों पण्डित सट्टा खेलते हैं और इसमें घाटा श्रनेसे उनपर बड़ा भारी कर्ज़ हो गया है। जब संस्थाके जन्मदाता पं० पन्नालालजी बाकलीवाल ने अपने कामसे इस्तीफ़ा दे दिया है, तब केवल इन पण्डितोंकी जिम्मेदारी पर - जो सट्टा खेलते हैंइतनी बड़ी संस्था रखना जोखिमका काम है, इत्यादि । इस लेख को पढ़कर पण्डित महाशयों का क्रोध भड़क उठा और उन्होंने जैन मित्र, जैनगजट, पद्मावती पुरवाल और संस्थाकी रिपोर्टमें लेखोंका
[ भाग १५ ताँता बाँध दिया। बैनाड़ाजी सोचते होंगे कि हम पण्डित-दलके कृपा-पात्र हैं, परन्तु उन्हें भी लेने के देने पड़ गये !
बैनाड़ाजीने तो पण्डितोंकी प्रतिष्ठामे धक्का लगानेका पाप किया था, इसलिए उन्हें उसका प्रायश्चित्त मिलना ही चाहिए था, परन्तु उनके साथ में बैठे बाकली वालकी भी दुर्दशा क्यों की गई, बिठाये मेरी और भाई छगनमलजी सो बिल्कुल ही समझमें नहीं श्राया ! खैर ।
पूर्वोक्त लेखों में पण्डित महाशयों ने हमारे ऊपर जो आक्षेप किये हैं, यदि वे हमारे सिद्धान्तों या विचारोंके सम्बन्ध में होते तो हम उनके प्रतिवादमें एक अक्षर भी नहीं लिखते । क्योंकि ऐसे व्यर्थ के आक्षेपों के सहन करनेका हमें काफी अभ्यास हो गया है । परन्तु इन आक्षेपोंमें हमारी शुभ निष्ठा तथा दयानतपर आक्र मण किया गया है और यह हमें अला है । यद्यपि हम यह जानते हैं कि श्रागे चलकर हमें ऐसे आक्रमणोंके सहन करनेका भी अभ्यास करना पड़ेगा, इन्हें भी चुपचाप सह लेना होगा और हमारे ये गुरु लोग हमें इस तपश्चर्या में भी पारंगत किये बिना न रहेंगे; फिर भी इस समय तो हमसे पण्डितोंके असत्य और निर्मूल श्राक्षेप नहीं सहे जाते और अपने मित्रोंके समझाने बुझानेसे दो ढाई महीने चुप रहकर भी आज हम इस अप्रिय कर्ममें प्रवृत्त होते हैं
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हमें खेद है कि हितैषीके बहुमूल्य पृष्ठोंको हम इस श्रप्रिय चर्चासे भर रहे हैं । फिर भी विचारशील पाठकोंसे आशा है कि वे इससे कुछ न कुछ लाभ अवश्य उठावेंगे। कमसे कम उन्हें इस बातका ज्ञान अवश्य हो जायगा कि इस समय उद्धतता और स्वेच्छाचार करते हुए भी पण्डितजन कितने सुरक्षित हैं और उनके
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अङ्क 4-१०] मानकी मरम्मतका अनोखा उपाय ।
२८३ मार्गमें बाधा डालनेवालोंकी कैसी दुर्दशा कार्रवाई की जायगी ! परन्तु जब रामकी जाती है।
लाल जीने माफी माँगनेसे इन्कार किया,, __यह एक गूढ़ प्रश्न है कि बैनाडाजीने तब पद्मावती पुरवालके पिछले अंकमें पण्डितोंपर जो आक्षेप किया है, उसके तीर्थक्षेत्र कमेठीके नाम एक गुमनाम उत्तरमें हम लोग कयों घसीटे गये ? खुली चिट्ठी छापी गई जिसमें कमेटीके गेहूँके साथ बेचारे घुन भी पीसे गये। जो अधिकारियोको सुझाया गया कि रामलोग संस्थाके एक मात्र कर्ता, हर्ता और लाल ऐसा बुरा श्रादमी है उसके विचार विधाता बने हुए हैं, उनके लिए बैनाड़ा. अमुक तरहके हैं; इसलिए उसे कमेटीके जीका यह आक्षेप कि "वे सदा खेलते हैं दफरसे अलग कर देना चाहिए ! बाबू और उनपर कई हजार रुपयों का कर्ज हो रामलालजीका अपराध यह है कि गया है। इसमें सन्देह नहीं कि असह्य उन्होंने बैनाडाजीके उस लेखकी पुष्टि हुमा होगा । परन्तु उसका सारा क्रोध की थी जिसमें पण्डितोपर सट्टा खेलने हम पर क्यों निकाला गया? इसका कारण और कर्जदार होनेका श्राक्षेपथ ।। वे सिवाय इसके क्या हो सकता है कि जो बहुत दिन पहलेसे कमेटीमें और दूसरी लोग अपनेको निरपराध सिद्ध नहीं कर संस्थानों में काम कर रहे हैं और उनके सकते, वे अपने क्रोधका वेग इसी तरह, विचार भी जैसे श्राज हैं; वैसे ही पहलेसे जो सामने आया उसीके ऊपर, आक्रमण हैं। परन्तु इसके पहले कभी पण्डित महाकरके हलका किया करते हैं। यह क्रोध- शयोंने उनका कमेटी में रहना आपत्तिजनक का प्रावेश ही • था जो तमाम जैन- नहीं समझा। परन्तु ज्योंही उन्होंने संस्थाओके शुभचिन्तक ब्रह्मचारीजी पर पण्डितोंको सट्टेबाज़ बतलाया, त्योंही भी यह अपराध लगानेसे न चूका कि कमेटीके नाम खुली चिट्ठी छाप दी गई। "वे सत्यका खून करनेवाले हैं, उनका इन सब बातोंसे पण्डित महाशयोंके क्रोधभीतरी हृदय काला है और वे माणिक- के आवेशका स्पष्ट पता लगता है और चन्द ग्रन्थमालाका ही बार बार स्मरण तब पाठक समझ सकते हैं कि उन्होंने किया करते हैं, जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी इस आवेशके समय जो लेख लिखे हैं, संस्थाका नाम भूल जाया करते हैं।" उनमें न्याय-अन्याय और सत्य-असत्यका और यह सर्वथा मिथ्या कषायपूर्ण प्राक. कितना खयाल रक्खा गया होगा। मण इसलिए किया गया कि ब्रह्मचारीजी परन्तु यह स्पष्ट है कि इतने यद्वा. पं० गजाधरलाल और श्रीलाल जीके उस तद्वा लेख लिखकर भी पण्डित महाशय बहुत जरूरी (१) लेखको समय पर प्रका. अपनेको निर्दोष सिद्ध नहीं कर सके। शित नहीं कर सके जो जैनगजट भादिमें और न इस अनोजे उपायके द्वारा वे अपने छप चुका था और जिसके प्रतिवादमें मानकी कुछ मरम्मत ही कर सके हैं। हम लोग यह लेख लिख रहे हैं। यदि उन्होंने हम सब लोगोंको दोषी,
इसके बाद ही तीर्थक्षेत्र कमेटीके विरोधी और पक्षपाती भी सिद्ध कर मैनेजर बाबू रामलालजीको उक्त पंडित दिया, तो भी वे स्वयं तबतक निर्दोष महाशयोंने यह नोटिस दिया कि तुम नहीं बन सकते जबतक लोगोंको यह फौरन माफी माँगकर हमारे मानकी मर- प्रमाण न दिखला दिया जाय कि उन्होंने म्मत करो, नहीं तो तुम पर बाकायदा न तो कभी सट्टा बेला और न उनपर
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किसीका एक कौड़ीका क़र्ज़ ही है । और इस दोष से मुक्त हुए बिना न्यायतः उनपर संस्थाका सारा उत्तरदायित्व कभी नहीं रक्खा जा सकता ।
हमारे ऊपर सबसे बड़ा आक्षेप यह किया गया है कि हम लोग (मैं और भाई छगनमलजी बाकलीवाल) पं० गजाधरलाल और श्रीलालजी से जलते हैं और जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्थाके अशुभ चिन्तक हैं ! परन्तु यह बिलकुल झूठ है । हम लोग उक्त पण्डितोंसे भी अधिक इस संस्थाके शुभचिन्तक हैं और हमारी उस शुभचिन्तकता का ही यह फल है कि वे हमें अपना विरोधी और जलनेवाला समझ बैठे हैं ।
जैनहितैषी ।
संस्थाके जन्मदाता पं० पन्नालालजी वाकलीवालके साथ हमारा शुरू से ही घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और वे संस्थाके सम्बन्धमें हमसे बराबर सम्मति लेते रहे हैं । हमने उन्हें सदा संस्थाकी भलाई की सम्मति दी है और हमारा विश्वास है कि यदि उसके अनुसार काम होता तो संस्थाकी दशा वर्त्तमान दशासे कई गुनी अच्छी होती और उसके द्वारा जैनसाहित्यका प्रकाशन भी अधिक होता । यद्यपि गुरुजी (पं० पन्नालालजी) के काम करने का ढंग हमें कभी पसन्द नहीं श्राया और हम प्रायः ही उसका विरोध करते रहे हैं--यहाँ तक कि उनसे लड़ते भी रहे हैं; परन्तु वह विरोध भी संस्था और गुरुजीकी शुभचिन्तन के कारण ही हम लोग करते रहे हैं और इसकी साक्षी हमारी वे सब चिट्ठियाँ देंगी जो उनके संग्रह हैं ।
गुरुजीको हम सदा पूज्य दृष्टिसे देखते रहे हैं परन्तु उनके साथ हमारा मतैक्य बहुत ही कम हुआ है । यहाँतक कि इसके कारण वे कभी कभी हमसे
[ भाग १५
रुष्टतक हो गये हैं । फिर भी, जहाँतक हम जानते हैं, उन्होंने हम लोगोंको अपना यो संस्थाका अशुभचिन्तक कभी नहीं समझा । और हमें अब भी विश्वास है कि गुरुजी हमें ऐसा नहीं समझते; और इसलिए हम उन्हें ही इस मामलेमें साक्षीस्वरूप पेश करते हैं । यदि वे हमें ऐसा समझते तो उन्हें हमारी सम्मतियोंकी अपेक्षा कभी न रहती ।
हमने जैनहितैषी में जैनसि०प्र० संस्था और सनातन जैनग्रन्थमालाके लिए कई बार अपने ग्राहकोंसे अपील की है । इसके विरुद्ध जबतक यह न बतला दिया जाय कि हमने संस्थाको हानि पहुँचानेके लिए कभी कुछ लिखा है, तबतक हम उसके अशुभचिन्तक नहीं ठहर सकते ।
पण्डित महाशयों को शायद यह स्मरण नहीं है कि संस्थाको भाषा टीका सहित ग्रन्थ प्रकाशित करने और उन्हें लागत के मूल्यपर बेचनेकी सम्मति हम लोगोंने ही दी थी और यह उस समय दी थी जब संस्थाको आर्थिक कष्ट हो रहा था और संस्कृत ग्रन्थोंके न बिकनेकी शिका यत थी ।
गोम्मटसार (बड़ी टीका) के छपानेका हमने विरोध किया था, परन्तु इसके दो कारण थे । एक तो यह कि रायचन्द्रशास्त्रमालामें इसकी संक्षिप्त टीकायें छप चुकी थीं, इस कारण हमारा खयाल था कि यह कम बिकेगा और इससे संस्था को हानि होगी । दूसरे हमारी यह इच्छा रहती है कि एक प्रचलित और परिचित ग्रन्थकी अपेक्षा ऐसी संस्थाओंके द्वारा अपरिचित और दुर्लभ प्रन्थोंका ही उद्धार होना चाहिए । ऐसी दशामें भी यदि हम संस्थाके विरोधी करार दिये जायँ, तो फिर लाचारी है।
अपने स्वार्थ की दृष्टिसे भी हम संस्था
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अङ्क -२० मानकी मरम्मतका अनोखा उपाय। के अशुभचिन्तक नहीं बन सकते । क्योंकि, हैं। और पण्डितोंकी इस हानिका कारण ७-८ वर्ष हुए, जबसे हम सार्वजनिक 'पण्डितोसे बैर' नहीं, किन्तु संस्थांके हितहिन्दी पुस्तकोंके प्रकाशनका कार्य करने की अभिलाषा है। लगे हैं, तबसे अवकाशाभालके कारण संस्थाके पचास पचास रुपयाके शेअर नवीन जैनग्रन्थों के प्रकाशनका. कार्य निकालनेका और उसके लिए दौरा करनेप्रायः बन्दसा ही कर चुके हैं, बल्कि का भी हमने विरोध किया था। क्योंकि अपनी अनेक पुस्तकें दूसरोंको प्रकाशित हम नहीं चाहते थे कि गुरुजी एक बड़ी करनेके लिए दे रहे हैं। ऐसी दशामें भारी जोखिमको अपने सिरपर ले लें। संस्थाके पुस्तक प्रकाशन कार्यके प्रतिः हम उनके स्वभावसे बहुत कुछ परिचत हैं। स्पर्धी तो हम ठहर ही नहीं सकते जो किसी एक कामको जमकर चलाते हम उसका अशुभचिन्तन करें । उलटे रहना उनकी प्रकृतिके विरुद्ध है । ज्योंही हमारा स्वार्थ तो इसी सधता है कि कोई छोटी मोटी बाधा, विपत्ति या संस्था अधिकाधिक ग्रन्थ प्रकाशित करे अड़चन आई कि उन्होंने उसे बन्द और हम उन्हें बेचकर लाभ उठावें। किया और दूसरा खेल शुरू किया। इसी क्योंकि, हमारे यहाँ सब जगहके जैन- प्रकृतिके कारण वे अबतक न जाने कितनी प्रन्थोंकी बिक्रीका प्रबन्ध है।
ग्रन्थमालायें और संस्थाये खोल चुके हैं। बेशक हमने गुरुजीको इस विषयमें हमने सोचा कि वे एक बड़ी भारी कई बार लिखा है कि आप पण्डित जिम्मेदारी अपने सिरपर ले रहे हैं, लोगोंसे प्रन्यसम्पादन, प्रूफ-संशोधन अपनी संस्थाको पब्लिककी चीज़ बना आदिक काम ठेके पर फार्मके हिसाबसे रहे हैं और उनसे उसका काम न सँभकरावे, उन्हें वेतन देकर न रक्खें। लेगा। कल ही यदि लहर उठी कि अब क्योंकि वैसा करनेसे संस्थाको खर्च में यह काम नहीं करना चाहता, कोई बहुत करना पड़ेगा और काम कम होगा। दूसरा काम करूँगा, तो उसका फल क्या हमारा यह लिखना पण्डितोंके लिए होगा? और हमारा यह सोचना अयुक्त हानिप्रद अवश्य था, और इसके कारण भी नहीं था । लोगोंने केवल उनके ही उन्होंने इसपर बहुत आक्रोश प्रकट विश्वासपर धन दिया और आशा की कि किया है; परन्तु यह तो हमारी संस्थाकी वे उसे बराबर चलाते रहेंगे; परन्तु शुभचिन्तनाका बड़ा भारी सुबूत है। उन्होंने अपनी जिम्मेदारीका कोई खयाल इससे हम अशुभचिन्तक कैसे ठहर न किया और धन देनेवाले सहायकोंकी सकते हैं?
सम्मति लिये बिना ही ऐसे लोगोंके हाथ हमारी इस सम्मतिसे पण्डित महा. संस्थाको सौंपकर चल दिये जिनके विषयशयोंको अवश्य ही बहुत घाटेमें रहना में प्रान्तिक सभा बम्बईके महामन्त्री कहते पड़ा होगा। क्योंकि गुरुजीने इसके हैं कि सट्टेबाज़ हैं और उनपर कई हज़ारअनुसार बहुत समय तक ठेकेपर ही काम का कर्ज है। और मज़ा यह कि स्वयं गुरुकराया था। और यह एक ऐसा कारण जी भी इस सट्टे और कर्जका हाल है जिससे विचारशील सहजमें ही यह जानते हैं। यदि उन्हें अपनी जिम्मेदारीनिर्णय कर लेंगे कि स्वयं पण्डित महाशय का खयाल होता तो ऐसी परिस्थितिमें वे हमसे चिढ़ गये हैं या हम उनसे जलते संहासे कभी अलग न होते। परन्तु
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[भाग १५
उनकी प्रकृति ही ऐसी है; और इसी वादसे कई गुना अच्छा होता। यह हो प्रकृतिका ज्ञान होने के कारण हम लोगों. सकता है कि मैं पं. गजाधरलालजीके ने उन्हें रोका था कि आप इस झंझटमें प्रकाण्ड पाण्डित्यपूर्ण अनुवादकी खूबियोंमत पड़िये । इस बात की साक्षी पण्डित को समझने की योग्यता न रखता होऊँ; गजाधरलालजी भी अपने लेख में देते हैं। परन्तु इससे मैं संस्थाका या पण्डितवे लिखते हैं:-"प्रेमीजीने कहा कि जीका अशुभचिन्तक तो कदापि सिद्ध बाकलीवालजी काम खोजना जानते हैं नहीं हो सकता। पर काम करना चलाना ?) नहीं जानते। हमें इस बातका बड़ा दुःख है कि उन्होंने इस तरह रुपया एकट्ठा करके हम लोगोने गुरुजीको जो जो सम्मतियाँ ठीक नहीं किया। उनसे वह कभी न दीं, प्रायः उन सभीसे पं० गजाधरलालसँभलेगा । किसीका रुपया फँसाकर जीका हृदय जर्जरित होता गया, उन्हें उसका हिसाब न रखनेसे बड़ा फजीता घोर कष्ट होता रहा और इसपर भी वे होता है।" बेशक मैंने यही कहा होगा अबतक चुप बने रहे ! यदि गुरुजी महा
और गुरुजीके सद्भावों और सदुद्देश्योपर राज हमें यह लिखनेकी कृपा कर देते कि सब तरह श्रद्धा रखते हुए भी मेरा अब तुम्हारी सम्मतियोंसे इतने महान् दुःखकी तक उनपर यही आक्षेप है कि वे अपनी सृष्टि हो रही है, इसलिए तुम ऐसी जिम्मेदारीका बहुत ही कम खयाल रखते सम्मतियाँ मत दिया करो, अथवा वे हैं और यह बात मैं उनके समक्ष भी कई स्वयं ही हमसे सम्मति माँगना छोड़ देते बार कह चुका हूँ। अब पाठक समझ गये तो आज यह नौषत न आती। कमसे कम होंगे कि हम लोगोंने शेअर निकालनेका इस समय जब कि पण्डितोंका चित्त विरोध किस अभिप्रायले किया था। सट्टेकी बदनामी और कर्जसे उत्तप्त हो
दौरेपर विद्यार्थियोंके ले जाने के भी रहा है, उन्हें हम लोगोंके ये 'कारनामे' हम विरोधी थे। क्योंकि हमें सन्देह था लिखनेका तो कष्ट न उठाना पड़ता। और कि यदि काफी चन्दा न हुआ तो यह हम लोग भी इन काँटोंमें घसीटे जाकर व्यर्थका खर्च सिरपर पड़ेगा और गुरुजी व्यर्थ ही क्षत-विक्षत न किये जाते।
और भी अधिक आर्थिक संकट में फँस हम लोगोंने गुरुजीको यह भी अनेक जायँगे । इससे तो यही अच्छा है कि बे बार लिखा है कि संस्थाके ग्रन्थ बहुत ही जो काम कर रहे हैं वही करते रहें। उसमें अशुद्ध छप रहे हैं और हम समझते हैं कमसे कम कोई बड़ी जिम्मेदारी तो कि ऐसा लिखकर हमने कोई पाप नहीं उनके सिर नहीं है।
किया। न्यायतीर्थ पं.वंशीधरजी शाहली. यह बहुत ही बदिया और निष्पक्ष का कथन है कि राजवार्तिकका कोई न्याय है कि यदि मैंने गुरुजीको यह पृष्ठ ऐसा नहीं है जिसमें दस बीस अशुसम्मति दी कि श्राप हरिवंश पुराणका द्धियाँ न हो और वे अशुद्धियाँ ऐसी नहीं अनुवाद पं० गजाधरलालजीसे न कराकर हैं जो अन्य प्रतियोंकी अप्राप्तिके कारण सुकवि और सुलेखक पं० गिरधर शर्मासे रह गई हो, वे केवल प्रज्ञान और प्रमादकराइये, तो मैं उनका शत्रु हो गया । मेरा के कारण हुई हैं। इसके प्रमाणस्वरूप उक्त सा अब भी यह विश्वास है कि यदि पण्डितजीने राजवार्तिकके कई पत्र शुद्ध शमाजी अनुवाद करते तो वह इस अनु. करके दिखलाये थे, जो इस समय भी
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अङ्क ६-१० ]
हमारे पास मौजूद हैं। पण्डित महाशयों के इस प्रमाद और अज्ञानको यदि हमने सर्वसाधारण में प्रकट किया होता तो बात दूसरी थी और तब हम उनकी बुराई करनेवाले भी किसी तरह ठहराये जा सकते । परन्तु हमने तो प्राइवेट तौरपर ही लिखा था और इससे उन्हें एक सज्जनकी तरह लज्जित होकर श्रागेके लिए सावधान हो जाना चाहिए था । सोन करके उलटे हमें अशुभचिन्तक ठहराया जाता है और अपने दोषोंपर परदा डाला जाता है !
मानकी मरम्मतका अनोखा उपाय |
माणिकचन्द्र ग्रन्थमालाके १७ ग्रन्थोंमेसे १२ ग्रन्थों की भूमिकार्य - जिनमें विशेष करके उनके कर्त्ताओंका ऐतिहालक परिचय है— मेरी लिखी हुई हैं। उनमें शुरूके पाँच ग्रन्थोंमें मैंने उन्हें ग्रन्थमाला के पण्डितोंसे संस्कृत में अनुवाद कराके प्रकाशित कराया है और उनके नीचे सूचित कर दिया है कि वे मेरी लिखी हुई हिन्दोके अनुवाद हैं । दुर्भाग्य से ग्रन्थमालाका पहला ग्रन्थ कोल्हापुर में छपवाया गया था । मैंने उसकी भूमिका भी हिन्दीमें ही लिखकर भेजी थी और श्रीयुक्त पं० कलापा भरमाया निटवेको लिख दिया था कि आप उसे संस्कृतमें परिवर्तित कर दीजिएगा । उन्होंने उसे संस्कृतमें अनुवाद करके छाप तो दिया; परन्तु वे यह लिखना भूल गये कि यह हिन्दी परसे अनुवादकी गई है । बस, इसपरसे पं० गजाधरलालजी मुझपर बड़ी बुरी तरहसे आक्रमण करते हैं कि मुझे संस्कृतज्ञ बननेकी हवस है और मैं ग्रन्थमाला के पण्डितको दबाकर अपनी उक्त हवस पूरी करता हूँ ! मानों पं० निटवे मेरे हाथके नीचे के पण्डित हैं ! इसके उत्तर में मैं इसके शिवाय क्या लिखूँ कि भगवान् मुझे
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ऐसी हवससे बचावें । क्योंकि मैं संस्कृतमें लेख लिख लेने या बोल लेनेको हा पाण्डित्य नहीं समझता हूँ। मेरी समझम संस्कृतज्ञों में भी मूर्खोकी कमी नहीं है; और जो संस्कृत लिखना बोलना नहीं जानते हैं, उनमें भी विद्वानोंकी कमी नहीं है।
जिस समय 'श्रातपरीक्षा' छप चुकी, उस समय गुरुजीकी श्राशा हुई कि मैं उसके कर्त्ता विद्यानन्दस्वामीका ऐतिहासिक परिचय लिख दूँ । तदनुसार मैंने उसे लिखकर जैनहितैषी में प्रकाशित कर दिया और उसे श्राप्त- परीक्षा में लगा देने के लिए लिख दिया । पं० गजाधरलाल जीका कर्तव्य था कि वे उसके संकृत अनुवाद में यह लिख देते कि यह नाथूराम के लिने हुए हिन्दी लेखका अनुवाद है । परन्तु उन्होंने लेखके प्रारम्भ में केवल “जैनहितैषितः समुद्धृतः” (जैनहितैषीसे उद्धृत) लिख दिया और लेख - के अन्त में 'अनुवादकर्त्ता' न लिखकर " विदुषामनुचरो गजाधरलालो जैनः” लिखकर छुट्टी पा ली । इस बातका कहीं भी कोई उल्लेख करने की ज़रूरत ही नहीं समझी कि यह किसका लिखा हुआ है । 'जैनहितैषी से उद्धृत' लिख देनेसे क्या यह नहीं समझा जा सकता कि आपने स्वयं ही उसे जैनहितैषीमें लिखा होगा और फिर उसपर से भूमिकामें उद्धृत कर लिया है ? यदि उसमें मेरे जैसे क्षुद्र लेखकका नाम लिख दिया जाता तो क्या इससे आपकी संस्कृतज्ञताका अपमान हो जाता ? मुझे यह बुरा मालुम हुआ और मैंने गुरुजीसे इसकी शिकायत की। इसके बाद मैं चुप हो गया । बह बात ही भुला दी गई। परन्तु अब इतने दिनों के बाद ये अहंमन्य पण्डित अपनी इतिहासन बनने की उत्कट हवसको छिपाकर
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२८जैनहितैषी।
[ भाग १५ उलटे मुझपर यह दोष लगाते हैं कि उसी तरफको मुड़ गये ! अच्छा हो यदि मैं संस्कृतशोंमें अपना नाम लिखाना उक्त दोनों सजनोंकी ओरसे यह प्रकाचाहता हूँ!
शित किया जाय कि हम लोगोंने उन्हें क्या तत्वार्थ राजवार्तिकके भट्टाकलंकदेव- समझाया था और उन्होंने क्यों इस्तीफा के परिचयमें भी पं० गजाधरलालजीने दिया और क्यों संरक्षकजीने संस्थाका इसी तरह इतिहासज्ञ बनने का प्रयत्न किया भवन बनाने का विरोध किया। इसके हैं। वह परिचय भी मेरे लेखका प्रायः अनु- बिना यह मामला स्पष्ट नहीं हो सकता। वाद ही है। उसकी भूमिकामें आपने यह परन्तु हमारी समझमें पण्डित महाशयोंवाक्य लिखने की कृपा की है-“जैन हितैषि- को यह प्रकाशित कराना अभीष्ट नहीं सम्पादयितृभिः पं० श्रीनाथूराम प्रेमिभिः होगा। क्योंकि इसमें उनकी वे सब बातें खकीये जैनहितैषिपत्रे प्रकाशितं श्रीमन्द्रा- प्रकाशित हो जायँगी जिनके कारण यह कलंकजीवन-चरितमात्र केषुचित्स्थलेषु सब बखेड़ा खड़ा हुआ है। फिर भी समवलम्ब्य विलिखितं ततोऽस्म्यहमुप- हमारी प्रार्थना है कि उक्त महाशय अपना कार्यस्तेषां।" अर्थात् नाथूरामप्रेमीके लिखे अपना वक्तव्य प्रकाशित कर देनेकी हुए जीवनचरितके कितने ही स्थलोंका कृपा करें। अवलम्बन करके मैंने यह चरित लिखा इस लेख में हमने पण्डित महाशयोंके है। मतलब यह कि अनुवाद नहीं किया लेखोंकी केवल उन्हीं बातोंका समाधान है; उसकी कुछ कुछ बातें ले ली हैं ! किया है जिनसे हमारा प्रत्यक्ष सम्बन्ध हिन्दीका अनुवाद करना तो पण्डितोके है और जिनके द्वारा लोगों को हमारे विषयलिए शायद घोर अपमानका कारण है, में उलटी बातें समझाई गई हैं। लेखोंफिर यह कैसे लिख दें कि अनुवाद की अन्य बातोसे हमारा कोई सरोकार किया ? परन्तु वास्तवमें उक्त लेखमें एक नहीं और अब हम धीरे धीरे इस निर्णयभी प्रमाण ऐला नहीं है जो उनकी गाँठकी पर पहुँच रहे हैं कि इस समय पण्डितोंपूँजी हो । केवल अनुवाद की भाषा और के अनुचित कार्योंपर टीका-टिप्पणी लम्बे लम्बे विशेषण तथा समास उनके करनेसे कोई लाभ नहीं हो सकता । हैं। पाठक सोचें कि यह इतिहासज्ञ बनने. क्योंकि इस समय सर्वत्र पण्डितोंके दलकी हवस नहीं तो और क्या है।
की तूती बोल रही है और इस दलके हमारे ऊपर एक और आक्षेप यह है कर्णधारोंमें उस नैतिक बलका अभाव है कि हमने गुरुजीको और संस्थाके संरक्षक जो "शत्रोरपि गुणा वाच्याः दोषाः सेठ हीराचन्द्र रामचन्दजीको बहकाकर वाच्याः गुरोरपि" को महत्त्व देता है। संस्थाकी चिरस्थायिताके मार्गमें कंटक यदि ऐसा न होता तो क्या ये पण्डित बोये, तथा गुरुजीने हम लोगों की प्रेरणासे महाशय अपराध करके भी इतनी उद्धतता संस्थासे इस्तीफा दे दिया। इसका सीधा और उच्छृङ्खलतासे भरे हुए लेख लिखने. अर्थ यह है कि गुरुजी और संरक्षकजीमें का साहस कर सकते और फिर भी स्वयं सोचने समझनेकी अक्ल नहीं है इनकी पीठ ठोकी जाती ? इसके प्रमाणमें और इस कारण वे हम लोगोंके कहने हम 'स्खण्डेलवाल जैनहितेच्छु' के धुरन्धर सुननेसे बहक जाते हैं ! वे ऐसी मोमकी सम्पादक पं० पन्नाललजी सोनीका वह नाक हैं कि जिस तरफको मोड़ दिया, सद्विचारपूर्ण नोट (अंक ५) समाजके
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अङ्क -१०]
स्वदेशी वर्दी। सामने पेश करते हैं जिसमें उन्होंने जैन- कण्टक न बनेंगे, इस बातको आप नोट सिद्धान्त-प्रकाशिनी संस्थाके सर्वस्व उक्त कर रक्स। पण्डितोंके दोषोंको सारी शक्ति लगाकर
नाथूराम प्रेमी। छिपाया है और उनके विरोधियोंको जैनधर्मका विरोधी बतलाकर टाल दिया है। उसमें एक जगह श्राप कहते हैं---
स्वदेशी वर्दी। "हमने विश्वास्त (?) सज्जनसे सुना है कि माणिकचन्दजी बैनाड़ाके भाई पन्नालाल- महात्मा गान्धीने खद्दरकी पोशाकको जीने संस्थाके पण्डितोंको सट्टा खेलनेके स्वराज्यसैनिककी वर्दी कहा है और लिए उकसाया, सट्टा खेलने की तरकीब स्वदेशी पोशाकके तीन भेद माने हैं:- . सुझाई, एक एक घंटा हर रोज व्याख्यान (१) हाथके सूतसे हाथके ही करघे दे देकर पण्डितोंको सट्टा खेलने के लिए पर चुना हुश्रा कपड़ा, यह प्रथम श्रेणी लालायित कर दिया और आखिर है । परन्तु ऐसे कपड़ेकी जितनी माँग है पण्डितोंने सट्टा खेल डाला।" यह सब उतना कपड़ा अभी तैयार नहीं है, इस. स्वीकार करके भी सोनीजीकी आशा है लिएकि रामलालजीका और बैनाडाजीका (२) हाथके सूतसे देशी मिल में बना लेख पण्डितोकी निर्मल कीर्तिको समल कपड़ा, यह द्वितीय श्रेणी है; पर यह भी करने के लिए लिखा गया है, इसलिए जहाँ असम्भव हो वहाँके लियेजैन समाजको ऐसे लेखोकी ओर दृष्टि न (३) देशी मिलके सूतसे देशी मिलमें देकर अपने धर्मकी जी-जानसे रक्षा करने ही तैयार हुए कपड़ेकी व्यवस्था है । यह वाले साधर्मी पण्डितोंसे मुँह न मोडना तृतीय श्रेणी है। चाहिए!
इन तीन श्रेणियों से किसी एक
‘श्रेणी में भी जो मनुष्य न हो, उसे पतित . हम भी सोनीजीके स्वर में स्वर मिला. समझना चाहिए और उसका उद्धार कर कहते हैं कि जै. सि०प्र० संस्थाके करने की चेष्टा करनी चाहिए। • संरक्षकों, सहायकों और मेम्बरोंको - अब हमें एक बात और बतलानी है।
चाहिए कि वे संस्थाका बैनामा लिखकर वह यह कि कोई किसी दर्जेकी वर्दी साधर्मी पण्डितोके नाम रजिस्टरी करा पहने, उसके सिरपर खहरकी ही टोपी दें और अपने सच्चे धर्मवात्सल्यका परि- या पगड़ी रहनी चाहिए, मिलके कपड़ेकी चय दें। इसमें किसीको कोई आपत्ति नहीं नहीं। खद्दर न मिल सकनेके कारण हो सकती। हम लोगोंने अबतक संस्था- आप देशी मिलकी धोती या कुरता भले की जो शुभचिन्तना या अशुभचिन्तना ही पहनिये, पर खहरका आदर करनेके की, उसका प्रसाद हमें काफी मिल चुका। लिए कहिये या स्वराज्य सैनिककी अब और प्राप्त करनेकी हमें इच्छा नहीं पोशाकमें यूनिफार्म बना रखने की व्यवरही । पण्डित महाशयोंसे भी हमारी स्थाके लिए कहिये, माथेपर खहरकी ही सविनय प्रार्थना है कि आप अपने क्रोध- टोपी या पगड़ी रहे। का संरक्षण करके हम लोगोंको क्षमा सब लोग यदि खद्दरकी ही टोपी कर दें। आगे दग भापके मार्ग में कभी दिया करें नो स्वराज्य के सैनिकोको पर
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जैनहितैषी।
1 [भाग १५ चानने में बड़ा सुभीता होगा । परन्तु देखनेसे यह अनुमान करना कठिन न परम्परासे पगड़ीकी जो इज्जत चली होगा कि कपड़ा स्वदेशी ही होगा । '.आई है और उसमें जो परमारागत “स्वराज्य टोपी" का लक्षण यह है कि ।
जातीय अभिमान है उसकी रक्षा अवश्य उसका वर्ण शुभ्र है और आकार नौकाके होनी चाहिए। इसलिए जो अपने सिरपर समान-मानों पराधीनताके पार ले पगड़ी देते हैं वे पगड़ी ही दें; पर वह जानेवाली यह नौका ही है । खद्दरको पगड़ी शुद्ध हो, शुद्ध स्वदेशी खद्दर की काला रङ्ग देकर उसे खंजड़ीनुमा बना हो, माताके रक्तमें भीगी हुई न हो। यदि लेना इसी लिए हम उतना अच्छा नहीं खद्दरकी पगड़ी न मिले तो ऐसो पगड़ोको समझते। आग लगा दीजिये जो श्रापके दो करोड़ तात्पर्य,तीन श्रेणियों में से किसी श्रेणीभाइयोंको भूखों मारकर श्राब भी आपके का स्वदेशी वस्त्र प्राप परिधान करें, सिरपर सवार है। महत्कार्य के लिए सिरपर आपके खदरकी ही पगड़ी या लोग पगड़ी उतार देते हैं, मानों भीष्म- टोपी होनी चाहिए। जो लोग टोपीसे प्रतिज्ञा करते हैं; और जब तक वह कार्य अपना काम चला लेते हैं उन्हें "स्वराज्य पूरा नहीं होता तब तक सिरपर पगड़ी टोपी" ही सिरपर चाहिए। नहीं देते। आज भारतके लिए स्वदेशीले
(भारतमित्र ।) बढ़कर महत्कार्य और क्या होगा ? इसलिए जबतक खहरको पगड़ी न बन जाय, तबतक नहरकी पगड़ीके लिए अपनी त्रुवल्लुव नायनार त्रुकुरल । 'विदेशी पगड़ी उतार दीजिये। थोड़ा कहा
( अनुवादक, स्वर्गीय बाबू दयावन्दजी गोयलीय।) बहुत समझिये, और धर्मकी इस बाझाकी अन्तरात्माके इस वचनकी अवहेलना (अंक ६ भाग १४ से आगे ।) मत कीजिये।
:-जो मनुष्य इस लोकमें विद्याजिनका काम टोपीसे चल जाता है, के भण्डारको प्राप्त कर लेता है वह सातों उन्हें यह स्मरण रखना होगा कि “स्व- लोकों में श्रानन्द भोग करता है । राज्य टोपी" ही सबको अपने सिर पर ३६४-यदि मनुष्य एक बार कुछ देनी चाहिए। यह "स्वराज्य टोपी" वही ज्ञान प्राप्त कर लेता है और उसके कारण हैं जिसका शावालेस श्रादि कम्पनियोने प्रतिष्ठा प्राप्त करके श्रानन्द भोग करता तथा मध्यप्रदेशके कुछ उद्दण्ड हाकिमोने है, तो फिर उसे और अधिक ज्ञान प्राप्त अपमान करने का साहस किया है । इस करनेकी उत्कराठा बढ़ जाती है। अपमानका उत्तर यही है कि सब लोग
४००-मनुष्यका वास्तविक धन वही टोपी दिया करें। इसके अतिरिक्त विद्या है जिसे कोई नष्ट नहीं कर सकता। इस टोपीसे इस बातकी पहचान होगी विद्याके सिवाय और कोई चीज धन नहीं कि कौन स्वदेशप्रेमी है और कौन स्वदेश. कही जा सकती। की उपेक्षा करनेवाला है। अब जो लोग देशी मिलोका कपड़ा पहनेंगे, उनका
४१-अज्ञानता। कपड़ादेशी या विदेशी है यह मालूम करना ४०१--जो मनुष्य बोलनेकी योग्यता कठिन होगा। परसिरपर "स्वराज्य टोपी" प्राप्त किये बिना विद्वानोंकी सभामें बोलना
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अङ्क -१० त्रुवल्लुव नायनार त्रुकुरल।
२९१ चाहता है, वह उस मनुष्यके समान है अच्छे हैं जो मूर्ख हैं चाहे उनका वंश जो बिना शतरंजके तख्तेके शतरंज खेलना कितना ही ऊँचा हो। चाहता है।
४१०-मनुष्य वही है जो विद्यालं४०२-जो मनुष्य निरा मूर्ख है, कृत है। शेष मनुष्य पशुओं के समान हैं। परन्तु सभामें बोलनेको उत्सुक रहता है
४२-श्रवण । . वह उस स्त्रीके समान हैं जिसके कँख नहीं है।
४११-वह सम्पत्ति जो बड़े ध्यान के ४०३-जो मनुष्य अपनी मुर्खताको साथ सुननेले उपार्जन की जाती है, समझकर विद्वानोंकी उपस्थितिमें मौन सम्पत्तिकी सम्पत्ति अर्थात् महान् धारण किये रहते हैं, वे भी एक तरहसे सम्पत्ति है। ऐसी सम्पत्ति संसारकी योग्य समझे जाने चाहिएँ।
सम्पूर्ण सम्पत्तियोंसे श्रेष्ठ है।
४१२- x x x . ४.४-मूनोंके मुँहसे कभी कभी
४१३-जिन लोगों में उत्तमोत्तम समयानुकूल शब्द भी निकल जाते हैं ।
शिक्षाओंको श्रवण करने की शक्ति है वे परन्तु जो बुद्धिमान हैं वे उन्हें बुद्धिमानी
यद्यपि इस जगत्में उत्पन्न हुए हैं, तथापि से बोला हुश्रा नहीं समझते।
देवताओंके समान हैं। ४०५-यदि कोई मनुष्य बिना कुछ
४१४-कोई व्यक्ति शिक्षित न भी सीखे हुए अपनेको बड़ा समझता है तो
हो, तो भी उसे सदैव उपदेश श्रवण उसकी बड़ाई उस समय जाती रहेगी
करने दो। कारण, कठिनाई के समय वह जब वह किसी विद्वान्के सामने बोलेगा। उसे लकड़ीका सहारा देगा, अर्थात्
४०६-जिस प्रकार बंजर भूमिमें न आपत्तिसे बचा देगा। कुछ पैदावार ही होती है और न उससे ४१५-जिस प्रकार लकड़ी मनुष्यजावाका पालन हाता है, उसा प्रकार को चिकनी मिट्टी पर गिरनेसे बचाती मुर्ख मनुष्य केवल आत्मगौरवसे ही हीन है उसी प्रकार उन पुरुषोंके शब्द, जो नहीं होते किन्तु संसारको भी कुछ लाभ सन्मार्गमें चलते हैं, चाहे वे अशिक्षित नहीं पहुँचाते।
ही हों, उस व्यक्तिको सहारा देते हैं जो ४०७-जिस मनुष्यको अनेक शास्त्रो शिक्षित होकर भी अपने मार्गसे च्युत . का गहरा शान नहीं है वह उस खिलोन- होगया। के समान है जिसे मिट्टीके आभूषण
४१६-प्रत्येक मनुष्यको अच्छी बातें पहनाये गये हैं।
सुननी चाहिएँ, चाहे वे कितनी ही ४०:-विद्वान्को जितना कष्ट निधं.
जतना कष्ट निधं साधारण और छोटी क्यों न हो। क्योंकि नताके कारण होता है, उससे कहीं अधिक ऐसा करनेसे उसका ज्ञान बढ़ेगा और कष्ट अज्ञानीको धनके कारण होता है। ज्ञानके बढ़नेसे वह महत्ता प्राप्त करेगा।
४०४-मुखौंका कुल चाहे जितना ४१७-जिन मनुष्यों को शास्त्रोका पूर्ण ऊँचा हो, पर वे उन नीच कुलवालोसे ज्ञान है और जिन्होंने बहुत कुछ श्रवण भी नीचे हैं जो शिक्षासम्पन्न हैं। अर्थात् भी किया है वे कभी असावधानीले भी जो मनुष्य शिक्षित हैं वे चाहे नीचे कुलमें मूर्खताके शब्दोंका प्रयोग नहीं करते। भी उत्पन्न हुए हों, परन्तु उन मनुष्योंसे ४१८-उस श्रोताको बहरा समझना
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जैनहितैषी।
[ भाग १५ चाहिए जिसके कान उपदेशोसे नहीं कमलके फूलकी तरह नहीं होता, जो खुलते, भले ही वह उन उपदेशोंको कभी तो खूब खिल उठता है और कभी सुनता रहे। ..
बिलकुल बन्द रहता है। ४१४-जिसके कानीने शुद्ध परिष्कृत ४२६--जिस भाँति संसार चलता शानकी बातें नहीं सुनी हैं उसके मुंहके है, बुद्धिमान् उसीका अनुकरण करता है। लिए मीठे और कोमल शब्दोका जुटना ४२७--बुद्धिमान् पुरुष होनहार' कठिन है। अर्थात जिस मनुष्यने सदुप- को पहलेसे ही जान जाते हैं, परन्तु मूर्ख देशोको सुनकर शान प्राप्त नहीं किया है, भविष्यके विषयमें कुछ भी नहीं जान पाते। उससे यह आशा नहीं की जा सकती ४२८--मूर्ख मनुष्य भयङ्कर बुराइयों• कि वह नम्र शब्दोंका प्रयोग करेगा।
को निधड़क होकर करते हैं। जहाँ भय. ४२०-जो मनुष्य जिह्वा-इन्द्रियके का कारण हो वहाँ भय खाना, यह बुद्धिस्वादको तो जानता है परन्तु कर्ण- का काम है। इन्द्रियके द्वारा आनन्दप्राप्ति नहीं कर
४२४--बुद्धिमान् मनुष्य--जो बड़े
लिया सकता, उस मनुष्यके जीवनसे संसार ध्यानसे आनेवाली बुराइयोंको पहलेसे का कुछ सरोकार नहीं--चाहे वह जीये ही जान लेते हैं--उन बुराइयोंसे भी बचे और चाहे मरे।
रहते हैं जो भयावह हैं। . ४३-सत्यार्थ ज्ञान।
४३०--बुद्धिमान के पास सब कुछ
है। परन्तु मूर्खके पास चाहे सब कुछ ४२१–सत्यार्थ शान वह है जो सेना- हो तो भी कुछ नहीं है। के समान राजाकी और दुर्गके समान उसके राज्यकी रक्षा करता है।
४४-दोषनिवृत्ति। ४२२-यद्यपि वि
. ४३१--जो मनुष्य क्रोध, मान, मद रूपसे नहीं विचरने देता है, किन्तु उसे और कामसे रहित हैं, उनमें एक विशेष बुराईसे बचाकर सन्मार्गमें लगा देने गुण होता है जो इनकी सम्पत्तिको वाला भी वही है।
सुशोभित करता है। , ४२३-लोगोंके मुंहसे हम चाहे ४३२--कृपणता, अहङ्कार और अनुजितनी बातें सुने, परन्तु सत्यका पता चित अभिमान ये तीन भवगुण राजानोंबिना बुद्धिमानीके नहीं लगता। में कदापि न होने चाहिएँ।
४२४-बुद्धिमानोंके द्वारा ऐसे स्पष्ट ४३३--पाप-भीरु लोग अपने छोटेसे शब्दोंका प्रयोग होता है कि उन्हें सब छोटे दोषको भी ताड़के समान बड़ा कोई समझ जाते हैं। बुद्धि ही दूसरे समझते हैं। मनुष्योंके वार्तालाप से तत्त्वको निका- ४३४-३५-- x x x लती है। अर्थात् बुद्धिमान् ऐसे शब्दोंका ४३६--जो राजा पहले अपने दोषोंप्रयोग करता है जिन्हें सब समझ जाते की शुद्धि कर लेता है और फिर दूसरोंके हैं और वह दूसरोके भावों को भी दोषोंकी जाँच-पड़ताल करता है, उसपर समझ जाता है।
ऐसी कौन बुराई है जो असर करेगी ? ४२५-बुद्धिमान् संसार भरको कोई नहीं। अपना मित्र रखता है। उसका स्वभाव ४३ --जो मनुष्य अपने धनको जहाँ
स्वच्छन्द
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अङ्क ६-१० ] जैनधर्मका अहिंसा तत्व।
२६३ चाहिए वहाँ खर्च नहीं करता, उसके परे-आत्मिक रूप बन गया है। औरोंकी धनका नाश हो जाता है--उसके पास अहिंसाकी मर्यादा मनुष्य, और उससे कुछ भी नहीं रहता।
ज्यादह हुआ तो पशु-पक्षीके जगत् तक ४३८--दोषों में सबसे बड़ा दोष जाकर समाप्त हो जाती है। परन्तु जैनी लोभ, अर्थात् जहाँ चाहिए वहाँ खर्च न अहिंसाकी कोई मर्यादा ही नहीं है। करना है।
उसकी मर्यादामें सारी सचराचर जीव. ४३४--कभी अपनेकी बहत बड़ा जाति समा जाती है और तो भी वह वैसी खयाल मत करो और कभी ऐसी चीजों ही अमित रहती है। वह विश्वकी तरह की इच्छान करो जिनसे कोई लाभ न हो। अमर्याद-अमन्त है और आकाशकी तरह ... ४५०--जिन बातोंको तुम इच्छा सर्व-पदार्थ-व्यापिनी है। . करते हो, यदि उन्हें दूसरों पर प्रकट न परन्तु जैनधर्मके इस महत् तत्त्वके होने दो तो तम्हारे शत्रोका तम्हारे यथार्थ रहस्यको समझने के लिए बहुत विरुद्धका सारा उद्योग निष्फल हो ही थोड़े मनुष्योंने प्रयत्न किया है। जैनजायगा ।
धर्मकी इस अहिंसाके बारे में लोगों में बड़ी अज्ञानता और बेसमझी फैली हुई है। कोई
इसे अव्यवहार्य बतलाता है। कोई इसे जेनर्धमका अहिंसा-तत्व ।
अनाचरणीय बतलाता है। कोई इसे
आत्मघातिनी कहता है और कोई राष्ट्र(ले०-श्रीयुत मुनि जिनविजयजी।) नाशिनी। कोई कहता है कि जैनधर्मकी
जैनधर्मके सभी प्राचार' और अहिंसाने देशको पराधीन बना दिया और 'विचार' एक मात्र 'अहिंसा' के तत्त्वपर कोई कहता है कि इसने प्रजाको निर्वीर्य रचे गये हैं। यों तो भारतके ब्राह्मण, बना दिया है। इस प्रकार जैनी अहिंसाके बौद्ध आदि सभी प्रसिद्ध धौने अहिंसा- बारेमें अनेक मनुष्योंके अनेक कुविचार को 'परम धर्म' माना है और सभी ऋषि, सुनाई देते हैं। कुछ वर्ष पहले देशभक्त मुनि, साधु, संत इत्यादि उपदेष्टाओंने पंजाबकेशरी लालाजी तकने भी एक ऐसा हिंसाका महत्त्व और उपादेयत्व बत- ही भ्रमात्मक विचार प्रकाशित कराया लाया है, तथापि इस तत्त्वको जितना था, जिसमें महात्मा गांधीजी द्वारा प्रचा. विस्तृत, जितना सूक्ष्म, जितना गहन और रित अहिंसाके तत्त्वका विरोध किया गया जितना आचरणोय जैनधर्मने बनाया है, था, और फिर जिसका समाधायक उत्तर उतना अन्य किसीने नहीं। जैनधर्मके स्वयं महात्माजीने दिया था । लालाजी प्रवर्तकोंने अहिंसा-तत्त्वको चरम सीमातक जैसे गहरे विद्वान् और प्रसिद्ध देशनायक पहुँचा दिया है। उन्होंने केवल अहिंसाका होकर तथा जैन साधुओका पूरा परिचय कथन मात्र ही नहीं किया बल्कि उसका रखकर भी जब इस अहिंसाके विषयमें आचरण भी वैसा ही कर दिखाया है। वैसे भ्रान्तविचार रख सकते हैं, तो फिर और और धर्मोका अहिंसा-तत्त्व केवल अन्य साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या कायिक बनकर रह गया है, परन्तु जैनधर्म- कही जाय। हालहीमें, कुछ दिन पहले, का अहिंसा तत्व उससे बहुत कुछ आगे जी. के. नरीमान नामक एक पारसी बढ़कर वाचिक और मानसिकसे भी विद्वान्ने महात्मा गांधीजीको सम्बोधन
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२४५ जैनहितैषी।
[भाग १५ करके एक लेख लिखा है, जिसमें उन्होंने तत्त्वके प्रवर्तकोंने इसका आचरण अपने जैनोंकी अहिंसाके विषयमें ऐसे ही भ्रम- जीवन में पूर्ण रूपसे किया था। वे इसका पूर्ण उद्गार प्रकट किये हैं। मि. नरीमान पूर्णतया पालन करते हुए भी वर्षांतक एक अच्छे ओरिएन्टल स्कालर है, और जीवित रहे और जगत्को अपना परम उनको जैन-साहित्य तथा जैन-विद्वानोंका तत्त्व समझाते रहे। उनके उपदेशानुसार कुछ परिचय भी मालूम देता है । जैन- अन्य असंख्य मनुष्योंने आजतक इस धर्मसे परिचित और पुरातन इतिहाससे तत्त्वका यथार्थ पालन किया है। परन्तु अभिज्ञ विद्वानोंके मुँहसे जब ऐसे अवि- किसीको आत्मघात करनेका काम नहीं चारित उद्गार सुनाई देते हैं, तब साधा- पड़ा। इसलिए यह बात तो सर्वानुभवरण मनुष्यों के मनमें उक्त प्रकारकी भ्रांति- सिद्ध जैसी है कि जैन अहिंसा अव्यवहार्य का ठस जाना साहजिक है । इसलिए भी नहीं है और इसका पालन करनेके हम यहाँपर संक्षेपमें श्राज जैनधर्मकी लिए आत्मघातकी भी आवश्यकता नहीं अहिंसाके बारेमें जो उक्त प्रकार की है। यह विचार तो वैसा ही है जैसा कि भ्रांतियाँ जनसमाज में फैली हुई हैं, उनका महात्मा गान्धीजीने देशके उद्धारके निमित्त मिथ्यापन दिखाते हैं।
जब असहयोगकी योजना उद्घोषित की, जैनी अहिंसाके विषय में पहला तब अनेक विद्वान् और नेता कहलानेआक्षेप यह किया जाता है कि-जैनधर्म- वाले मनुष्योंने उनकी इस योजनाको प्रवर्तकोंने अहिंसाकी मर्यादा इतनी अव्यवहार्य और राष्ट्रनाशक बतानेको बड़ी लम्बी और इतनी विस्तृत बना दी है कि लम्बी लम्बी बातें की थीं और जनताको जिससे लगभग वह अव्यवहार्यकी कोटिमें उससे सावधान रहने की हिदायत की जा पहुँची है। यदि कोई इस अहिंसाका थी । परन्तु अनुभव और पाचरणसे पूर्ण रुपसे पालन करना चाहे तो उसे यह अब निस्सन्देह सिद्ध हो गया कि न अपनी समग्र जीवन-क्रियायें बन्द करनी असहयोगकी योजना अव्यवहार्य ही है होगी और निश्चेष्ट होकर देहत्याग करना और न राष्ट्रनाशक ही। हाँ, जो अपने होगा। जीवन-व्यवहारको चालू रखना स्वार्थका भोग देनेके लिए तैयार नहीं और इस अहिंसाका पालन भी करना, ये और अपने सुखोंको त्याग करनेको तत्पर दोनों बाते परस्पर विरुद्ध हैं। अतः इस नहीं, उनके लिए ये दोनों बातें अवश्य अहिंसाके पालनका मतलब आत्मघात अव्यवहार्य हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। करना है; इत्यादि।
आत्मा या राष्ट्रका उद्धार बिना स्वार्थयद्यपि इसमें कोई शक नहीं कि त्याग और सुख-परिहारके कभी नहीं जैन अहिंसाकी मर्यादा बहुत ही विस्तृत होता । राष्ट्रको स्वतन्त्र और सुखी है और इसलिए उसका पालन करना बनाने के लिए जैले सर्वस्व-अर्पणकी आव. सबके लिए बहुत ही कठिन है, तथापि श्यकता है वैसे ही आत्माको प्राधि-व्याधियह सर्वथा अव्यवहार्य या आत्मघातक उपाधिसे स्वतन्त्र और दुःख-द्वंद्वले है, इस कथनमें किञ्चित् भी तथ्य नहीं निर्मुक्त बनानेके लिए भी सर्व मायिक है। न यह अव्यवहार्य ही है और न सुखों के बलिदान कर देनेकी आवश्यकता आत्मघातक ही। यह बात तो सब कोई है। इसलिए जो "मुमुक्षु" (बन्धनोंसे मुक्त स्वीकारते और मानते हैं कि, इस हिंसा- होनेकी इच्छा रखनेवाला) है-राष्ट्र और
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प्रक-१०] जैनधर्मका अहिंसा तत्व।
२६५ मात्माके उद्धारका इच्छुक है, उसे तो. प्रचारक नृपति मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त यह जैन अहिंसा कभी भी अव्यवहार्य या और अशोक थे। क्या उनके समयमें भारत आत्मनाशक नहीं मालूम देगी-स्वार्थ- पराधीन हुआ था ? अहिंसा धर्मके कट्टर लोलुप और सुखैषी जीवोंकी वात अनुयायी दक्षिणके कदम्ब, पल्लव और अलग है।
चालुक्य वंशोंके प्रसिद्ध प्रसिद्ध महाराजा _ जैन धर्मको अहिंसा पर दूसरा और थे। क्या उनके राजत्वकाल में किसी पर.. बड़ा भाक्षेप यह किया जाता है कि इस चक्रने आकर भारतको सताया था ? अहिंसाके प्रचारने भारतको पराधीन अहिंसा तत्वका अनुगामी चक्रवर्ती और प्रजाको निर्वीर्य बना दिया है। सम्राट् श्रीहर्ष था। क्या उसके समय में
आक्षेपके करनेवालोंका मत है कि भारतको किलीने पददलित किया था? अहिंसाके प्रचारसे लोगों में शौर्य नहीं अहिंसा मतका पालन करनेवाला दक्षिणरहा । क्योंकि अहिंसा-जन्य पापसे डर- का राष्ट्रकूट वंशीय नृपति अमोघवर्ष कर लोगोंने मांस-भक्षण छोड़ दिया, और गुजरातका चालुक्य वंशीय प्रजा. और बिना मांस भक्षणके शरीरमें बल पति कुमारपाल था। क्या उनकी अहिंसोऔर मनमें शौर्य नहीं पैदा होता । इस- पासनासे देशकी स्वतन्त्रता नष्ट हुई थी? लिए प्रजाके दिलमेंसे युद्धकी भावना इतिहास तो लाक्षी दे रहा है कि भारत नष्ट हो गई और उसके कारण विदेशी इन राजाओंके राजत्व कालमें अभ्युदयके
और विधर्मी लोगोंने भारत पर आक्रमण शिखर पर पहुँचा था। जबतक भारतकर उसे अपने अधीन बना लिया। इस में बौद्ध और जैन धर्मका जोर था और प्रकार अहिंसाके प्रचारसे देश पराधीन जबतक ये धर्म राष्ट्रीय धर्म कहलाते थे, और प्रजा पराक्रम-शून्य हो गई। तब तक भारतमें स्वतन्त्रता, शान्ति, ___ अहिंसाके बारेमें की गई यह कल्पना सम्पत्ति इत्यादि पूर्ण रूपसे विराजती नितान्त युक्तिशून्य और सत्यसे पराङ्: थी। अहिंसाके इन परम उपासक नृप. मुख है । इस कल्पनाके मूलमें बड़ी भारी तियोंने अनेक युद्ध किये, अनेक शत्रुत्रीभज्ञानता और अनुभवशून्यता भरी हुई को पराजित किया और अनेक दुष्ट जनोंहै। जो यह विचार प्रदर्शित करते हैं को दण्डित किया। इनकी अहिंसोपासनाउनको न तो भारतके प्राचीन इतिहासका ने न देशको पराधीन बनाया और न पता होना चाहिए और न जगत्के मानव प्रजाको निर्वीर्य बनाया। जिनको गुजसमाजकी परिस्थितिका ज्ञान होना रात और राजपूतानेका थोड़ा बहुत भी चाहिए । भारतकी पराधीनताका कारण वास्तविक ज्ञान है, वे जान सकते हैं कि अहिंसा नहीं हैं. परन्त अकर्मण्यता, प्रज्ञा- देशोंको स्वतन्त्र, समन्नत और सुरक्षित नता और असहिष्णुता है। और इन रखने के लिए जैनोंने कैसे कैसे पराक्रम सबका मूल हिंसा है । भारतका पुरा. किये थे। जिस समय गुजरातका राज्यतन इतिहास प्रकट रूपसे बतला रहा है कार्यभार जैनोंके अधीन था-महामात्य, कि जबतक भारतमें अहिंसा-प्रधान धर्मोंः मन्त्री, सेनापति, कोषाध्यक्ष आदि बड़े का अभ्युदय रहा, तबतक प्रजामें शान्ति, बड़े अधिकारपद जैनोंके अधीन थे-उस शौर्य, सुख और सन्तोष यथेष्ट व्यास थे। समय गुजरातका ऐश्वर्य उन्नतिकी चरम अहिंसा धर्मके महान् उपासक और सीमा पर चढ़ा हुआ था। गुजरातके
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२६६
[भाग १५
इतिहास में दण्डनायक विमलशाह, मन्त्री एकदम वीरत्वका वेग उमड़ पाया ? मुंजाल, मन्त्री शान्तु, महामात्य उदयन इससे स्पष्ट है कि देशको राजनीतिक
और बाहड, वस्तुपाल और तेजपाल, उन्नति-अवनतिमें हिंसा-अहिंसा कोई भाभू और जगहू इत्यादि जैन राजद्वारी कारण नहीं है। इसमें तो कारण केवल पुरुषों का जो स्थान है वह औरोका नहीं राजकर्ताओंकी कार्यदक्षता और कर्तव्य. है। केवल गुजरातके ही इतिहास में नहीं, परायणता ही मुख्य है। परन्तु समुचे भारत के इतिहास में भी इन हाँ, प्रजाकी नैतिक उन्नति-अवनतिमें अहिंसाधर्मके परमोपासकोंके पराक्रमकी तत्त्वतः अहिंसा हिंसा अवश्य कारणभूत तुलना करनेवाले पुरुष बहुत कम मिलेंगे। होती है। अहिंसाकी भावनासे प्रजामें जिस धर्मके परम अनुयायी स्वयं ऐसे सात्त्विक वृत्ति खिलती है और जहाँ शूरवीर और पराक्रमशाली थे और सात्विक वृत्तिका विकास है, वहाँ सत्वजिन्होंने अपने पुरुषार्थ से देश और राज्य का निवास है । सत्वशाली प्रजाहोका को खूब समृद्ध और सत्त्वशील बनाया जीवन श्रेष्ठ और उच्च समझा जाता है था, उस धर्म के प्रचारसे देश या प्रजाको इससे विपरीत सत्वहीन जीवन कनिष्ट अधोगति कैसे हो सकती है ? देशकी और नीच गिना जाता है। जहाँ प्रजामें पराधीनता या प्रजाकी निर्यितामें सत्व नहीं वहाँ सम्पत्ति, स्वतन्त्रता आदि कारणभत'अहिंसा'कभी नहीं हो सकती। कल नहीं । इसलिए प्रजाकी नैतिक जिन देशोंमें 'हिंसा' का खूब प्रचार है, उन्नतिमें अहिंसा एक प्रधान कारण है। जो अहिंसाका नाम तक नहीं जानते हैं, नैतिक उन्नतिके मुकाबले में भौतिक एक मात्र मांस ही जिनका शाश्वत प्रगतिको कोई स्थान नहीं है और इसी भक्षण है और पशुसे भी जो अधिक क्रूर विचारसे भारतवर्षके पुरातन ऋषि होते हैं, क्या वे सदैव स्वतन्त्र बने रहते हैं ? मुनियोंने अपनी प्रजाको शुद्ध नीतिमान रोमन साम्राज्यने किस दिन अहिंसाका बननेका ही सर्वाधिक सदुपदेश दिया नाम सुना था? और कब मांस-भक्षण छोड़ा है। यरोपकी प्रजाने नैतिक उन्नतिको था १ फिर क्यों उसका नाम संसारसे गौण कर भौतिक प्रगतिकी और जो आँख उठ गया ? तुर्क प्रजामेंसे कब हिंसाभाव मोचकर दौड़ना शुरू किया था, उसका नष्ट हुश्रा और · करताका लोप हुआ? कटु परिणाम आज सारा संसार भोग फिर क्यों उसके साम्राज्यकी आज यह रहा है। संसारमें यदि सच्ची शान्ति और दीन दशा हो रही है? आयलॅण्डमें कब वास्तविक स्वतन्त्रताके स्थापित होनेकी अहिंसाकी उदघोषणा की गई थी? फिर आवश्यकता है तो मनुष्यों को शुद्ध नीतिक्यों वह प्राज शताब्दियोंसे स्वाधीन मान् बनना चाहिए। होनेके लिए तड़फड़ा रहा है ? दूसरे शुद्ध नीतिमान् वही बन सकता है देशोंकी बात जाने दीजिए-खुद भारत- जो अहिंसाके तत्वको ठीक ठीक समझकर हीके उदाहरण लीजिये। मुगल साम्राज्य उसका पालन करता है। अहिंसा तो के चालकोंने कब अहिंसाकी उपासना शान्ति, शक्ति, शुचिता, दया, प्रेम, क्षमा, की थी जिससे उनका प्रभुत्व नामशेष सहिष्णुता, निर्लोभता इत्यादि सर्व प्रकारहो गया और उसके विरुद्ध पेशवाओने के सद्गुणोंकी जननी है। अहिंसाके पाचकब मांस-भक्षण किया था जिससे उनमें रणसे मनुष्यके हृदय में पवित्र मावोंका
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अङ्क-१०] . जैनधर्मका अहिंसा तत्व । संचार होता है, वैर विरोधकी भावना आत्मवत् सर्वभूतेषु .. नष्ट होती है और सबके साथ बन्धुत्वका सुखदुःख प्रियाप्रिये । नाता जुड़ता है। जिस प्रजामें ये भाव चिन्तयन्नात्मनोऽनिष्टां खिलते हैं, वहाँ ऐकाका साम्राज्य होता
हिंसामन्यस्य नाचरेत् ॥ है। और एकता ही श्राज हमारे देशके अभ्युदय और स्वातन्त्र्यका मूल बीज है।
अर्थात्-जैसे अपनी आत्माको सुख इसलिए अहिंसा देशकी अवनतिका
प्रिय और दुःख अप्रिय लगता है, वैसे ही
सब प्राणियों को लगता है। इसलिए जब कारण नहीं है, बल्कि उन्नतिका एकमात्र और अमोघ साधन है।
हम अपनी आत्माके लिए हिंसाको अनिष्ट "हिंसा' शब्द हननार्थक 'हिंसि' धातु
समझते हैं, तब हमें अन्य आत्माओंके प्रति पर से बना है । इसलिए 'हिंसा' का अर्थ
भी उस हिंसाका आचरण कभी नहीं
करना चाहिए । यही बाते खयं श्रमणहोता है, किसी प्राणीको हनना या मारना। भारतीय ऋषि-मुनियोंने हिंसाकी स्पष्ट
भगवान् श्री महावीर द्वारा इस प्रकारसे व्याख्या इस प्रकार की है-'प्राणवियोग कहा "
__ कही गई हैंप्रयोजन व्यापारः' अथवा 'प्राणि दुःख
“सव्वे पाणा पिया उया, सुहसाया, साधन व्यापारो हिंसाः'-अर्थात्, प्राणी- दुहपडिकूला, अप्पिय वहा, पियजीविणो, के प्राणका वियोग करनेके लिए अथवा जीविउकामा। (तम्हा) णातिवाएज किंचणं" प्राणीको दुःख देनेके लिए जो प्रयत्न या अर्थात्-सब प्राणियोंको आयुष्य क्रिया होती है, उसका नाम हिंसा है। इसके ।
प्रिय है, सब सुख के अभिलाषी हैं, दुःख विपरीत किसी भी जीव को दुःख या
सबको प्रतिकूल है, वध सबको अप्रिय कष्ट न पहुँचाना अहिंसा है। पातंजलि
है, जीवन सभीको प्रिय लगता है-सभी योगसूत्र के भाष्यकार महर्षि व्यासने
जीनेकी इच्छा रखते हैं। इसलिए किसी'अहिंसा' का लक्षण यह दिया है
को मारना या कष्ट न देना चाहिए। 'सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोहः
अहिंसाके प्राचरणकी आवश्यकताअहिंसा'मर्थात् सब तरहसे, सब समयोंमें, सभी प्राणियों के साथ प्रद्रोह भाव बर्तने
के लिए इससे बढ़कर और कोई दलील प्रेमभाव रखनेका नाम अहिंसा है। इसी
नहीं है-और कोई दलील हो भी नहीं मर्थको विशेष स्पष्ट करनेके लिए ईश्वर.
सकती। परन्तु यहाँपर एक प्रश्न यह
उपस्थित होता है कि, इस प्रकारकी गीतामें लिखा है कि
अहिंसाका पालन सभी मनुष्य किस . कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा। तरह कर सकते हैं। क्योंकि जैसा कि अक्लेशंजननं प्रोक्ता अहिंसा परमर्षिभिः ।। शास्त्रों में कहा है
अर्थात्-मन, वचन और कर्मसे सर्वदा जले जीवाः स्थले जीवा हैं किसी भी प्राणीको क्लेश नहीं पहुँचानेका जीवाः पर्वतमस्तके । नाम महर्षियोंने 'अहिंसा' कहा है। इस ज्वालमालाकुले जीवाः प्रकारकी अहिंसाके पालनकी क्या प्राव- सर्व जीवमयं जगत् ॥ श्यकता है, इसके लिए प्राचार्य हेमचन्द्रने अर्थात् जलमें, स्थल में, पर्वतमे, अग्निमें कहा है कि
इत्यादि सब जगह जीव भरे हुए हैं
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सारा जगत् जीवमय है । इसलिए मनुष्य के प्रत्येक व्यवहार में - खाने में, पीने में, चलने में, बैठनेमें, व्यापार में, विहार में इत्यादि सब प्रकार के व्यवहार में - जीवहिंसा होती है। बिना हिंसाके कोई भी प्रवृत्ति नहीं की जा सकती । अतः इस प्रकारकी सम्पूर्ण श्रहिंसा के पालन करने का अर्थ तो यही हो सकता है कि मनुष्य अपनी सभी जीवन-क्रियाओंको बन्द कर, योगीके समान समाधिस्थ हो, इस नरदेहका बलात् नाश कर दे। ऐसा करने के सिवा, अहिंसाका भी पालन करना और जीवनको भी बचाये रखना, यह तो आकाश- कुसुमकी गन्धकी अभिलाषाके समान ही निरर्थक और निर्विचार है। अतः पूर्ण श्रहिंसा केवल विचारका ही विषय हो सकती है, श्रचार का नहीं ।
/
यह प्रश्न अच्छा है और इसका समा धान अहिंसा भेद और अधिकारीका निरूपण करनेसे हो जायगा । इसलिए प्रथम अहिंसा के भेद बतलाये जाते हैं। जैनशास्त्रकारोंने श्रहिंसा के अनेक प्रकार बतलाये हैं; जैसे स्थूल अहिंसा और सूक्ष्म
हिंसा द्रव्य अहिंसा और भाव श्रहिंसा, स्वरुप अहिंसा और परमार्थ श्रहिंसा; देश अहिंसा और सर्व श्रहिंसा इत्यादि । किसी चलते फिरते प्राणी या जीवको जी-जान से न मारनेकी प्रतिज्ञाका नाम स्थूल अहिंसा है, और सर्व प्रकार के प्राणियों को सब तरह से क्लेश न पहुँचाने के आचरणका नाम सूक्ष्म अहिंसा है । किसी भी जीवको अपने शरीर से दुःख न देनेका नाम द्रव्य अहिंसा है और सब आत्माओं के कल्याणकी कामनाका नाम भाव अहिंसा है । यही बात स्वरूप और परमार्थ अहिंसा के बारेमें भी कही जा सकती है । किसी श्रंश में अंहिसा का पालन करना देश अहिंसा कहलाता है और सर्व
जैनहितैषी ।
[ भाग १५
प्रकार - सम्पूर्णतया श्रहिंसाका पालन करना सर्व अहिंसा कहलाता है ।
यद्यपि आत्माको श्रमरत्व की प्राप्तिके लिए और संसारके सर्व बन्धनों से मुक्त होनेके लिए श्रहिंसाका सम्पूर्ण रूपसे श्राचरण करना परमावश्यक है, बिना वैसा किये मुक्ति कदापि नहीं मिल सकती; तथापि संसार निवासी सभी मनुष्यों में एक दम ऐसी पूर्ण अहिंसा के पालन करने की शक्ति और योग्यता नहीं श्री सकती । इसलिए न्यूनाधिक शक्ति और योग्यतावाले मनुष्योंके लिए उपर्युक्त रीति से तत्त्वज्ञोंने श्रहिंसा के भेद कर क्रमशः इस विषय में मनुष्यको उन्नत होनेकी सुविधा कर दी है । अहिंसा के इन भेदौके कारण उसके अधिकारियोंमें भेद कर दिया गया है । जो मनुष्य अहिंसाका सम्पूर्णतया पालन नहीं कर सकते, वे गृहस्थ, श्रावक, उपालक, अणुव्रती, देशव्रती इत्यादि कहलाते हैं। जबतक जिस मनुष्य में संसार के सब प्रकारके मोह और प्रलोभनको सर्वथा छोड़ देने जितनी आत्मशक्ति प्रकट नहीं होती, तबतक वह संसार में रहता हुआ और अपना गृहव्यवहार चलाता हुआ धीरे धीरे अहिंसा व्रत पालनमें उन्नति करता चला जाय । जहाँतक हो सके, वह अपने स्वार्थीको कम करता जाय और निजी स्वार्थके लिए प्राणियोंके प्रति मारनताड़न-छेदन - श्राक्रोशन आदि क्लेशजनक व्यवहारोंका परिहार करता जाय। ऐसे गृहस्थ के लिए कुटुम्ब, देश या धर्मके रक्षण के निमित्त यदि स्थूल हिंसा करनी पड़े तो उसे अपने व्रतमें कोई हानि नहीं पहुँचती । क्योंकि जबतक वह गृहस्थी लेकर बैठा है तबतक समाज, देश और धर्मका यथाशक्ति रक्षण करना भी उसका परम कर्तव्य है । यदि किसी भ्रान्तिवश
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जैन धर्मका अहिंसा तत्व ।
अङ्क ६-१० ]
वह अपने कर्तव्यसे भ्रष्ट होता है तो उसका नैतिक अधःपात होता है; और नैतिक अधःपात एक सूक्ष्म हिंसा है । क्योंकि इससे श्रात्माकी उच्च वृत्तिका हनन होता है । श्रहिंसा धर्मके उपासक के लिए निजी स्वार्थ- निजी लोभके निमित्त स्थूल हिंसाका त्याग पूर्ण श्रावश्यक है । जो मनुष्य अपनी विषय- तृष्णा की पूर्ति के लिए स्थूल प्राणियों को क्लेश नहीं पहुँचाता है, वह कभी किसी प्रकार अहिंसाधर्मी नहीं कहलाता । श्रहिंसक गृहस्थ के लिए यदि हिंसा कर्तव्य है तो वह केवल परार्थक है । इस सिद्धान्तसे विचारक समझ सकते हैं कि, अहिंसा व्रतका पालन करता हुआ भी, गृहस्थ अपने समाज और देशका रक्षण करने के लिए युद्ध कर सकता है - लड़ाई लड़ सकता है। इस विषयकी सत्यता के लिए हम यहाँपर ऐतिहासिक प्रमाण भी दे देते हैं ।
गुजरात के अन्तिम चौलुक्य नृपति दूसरे भीम (जिसको भोला भीम भी कहते हैं) के समय में, एक दफह उसकी राजधानी श्रहिलपुर पर मुसलमानोंका हमला हुआ। राजा उस समय राजधानी में मौजूद न था, केवल रानी मौजूद थी । मुसलमानोंके हमलेसे शहरका संर क्षण कैसे करना चाहिए, इसकी सब अधिकारियोंको बड़ी चिन्ता हुई। दण्डनायक ( सेनापति) के पदपर उस समय श्रभू नामक एक श्रीमालिक वणिक श्रावक था । वह अपने अधिकारपर नया ही श्राया हुआ था, और साथमें वह बड़ा धर्माचरणी पुरुष था । इसलिए उसके युद्धविषयक सामर्थ्य के बारेमें किसीको निश्चित विश्वास नहीं था। इधर एक तो राजा खयं अनुपस्थित था; दूसरे राज्यमें कोई वैला अन्य पराक्रमी पुरुष न था, और न तीसरे राज्यमें यथेष्ट सैन्य दी था । इसलिए रानीको बड़ी चिन्ता हुई ।
२६६
उसने किसी विश्वस्त और योग्य मनुष्यसे दण्डनायक प्रभू की क्षमताका कुछ हाल जानकर स्वयं उसे अपने पास बुलाया और नगरपर आई हुई आपत्तिके सम्बन्ध में क्या उपाय किया जाय, इसकी सलाह पूछी। तब दण्डनायकने कहा कि, यदि महारानीका मुझपर विश्वास हो और युद्ध सम्बन्धी पूरी सत्ता मुझे सौंप दी जाय तो, मुझे विश्वास है कि, मैं अपने देशको शत्रुके हाथसे बाल बाल बचा लूँगा । श्रभूके इस उत्साहजनक कथनको सुनकर रानी खुश हुई और युद्ध सम्बन्धी सम्पूर्ण सत्ता उसको देकर युद्ध की घोषणा कर दी । दण्डनायक श्रभूने उसी क्षण सैनिक संगठन कर लड़ाई के मैदानमें डेरा किया। दूसरे दिन प्रातःकाल से युद्ध शुरू होनेवाला था । पहले दिन अपनी सेनाका जमाव करते करते उसे सन्ध्या हो गई । वह व्रतधारी श्रावक था, इसलिए प्रतिदिन उभय काल प्रतिक्रमण करनेका उसका नियम था । सन्ध्या पड़नेपर प्रतिक्रमणका समय हुआ । उसने कहीं एकान्तमें जाकर वैसा करनेका विचार किया । परन्तु उसी क्षण मालूम हुआ कि, उस समय उसका वहाँसे श्रन्यत्र जाना इच्छित कार्यमें विघ्नकर था । इसलिए उसने वहीं हाथी के हौदेपर बैठे ही बैठे एकाग्रतापूर्वक प्रतिक्रमण करना शुरू कर दिया। अब वह प्रतिक्रमण में आनेवाले - "जेमे जीवा विराहिया - एगिंदिया - बेइंदिया" इत्यादि पाठका उच्चारण कर रहा था, तब किसी सैनिकने उसे सुनकर किसी अन्य अफसरसे कहा कि-- देखिए जनाब, हमारे सेनाधिपति साहब तो इस लड़ाईके मैदानमें भी, जहाँपर शस्त्रास्त्रकी भनाभन हो रही है, मारो मारोकी पुकारें मचाई जा रही हैं, वहाँ 'एगिंदिया बेइंदिया' कर रहे हैं। नरम नरम सीरा खानेवाले ये भावक
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. जैनहितैषी।
[भाग १५ साहब क्या बहादुरी दिखायेंगे। धीरे धीरे करना मेरा कर्तव्य है । मेरा शरीर यह बात खास रानीके कान तक पहुँची। राष्ट्रकी सम्पत्ति है । इसलिए राष्ट्रके वह सुनकर बहुत संदिग्ध हुई, परन्तु उस भाशा और आवश्यकतानुसार उसका समय अन्य कोई विचार करनेका भव- उपयोग होना ही चाहिए । शरीरस्थ काश नहीं था, इसलिए भावीके ऊपर आत्मा या मन मेरी निजी सम्पत्ति है।
आधार रखकर वह मौन रही। दूसरे उसे स्वार्थीय हिंसा भावसे अलिप्त रखना दिन प्रातःकाल ही से युद्ध का प्रारम्भ यही मेरे अहिंसा व्रतका लक्षण है, इत्यादि। हुमा । योग्य सन्धि पाकर दण्डनायक इस ऐतिहासिक और रसिक उदाहरणसे आभूने इस शौर्य और चातुर्यसे शत्रुपर विज्ञ पाठक भली भाँति समझ सकेंगे आक्रमण किया कि, जिससे क्षण भरमें कि, जैन गृहस्थके पालने योग्य अहिंसा. शत्रुके सैन्यका भारी संहार हो गया और व्रतका यथार्थ स्वरूप क्या है। उसके नायकने अपने शस्त्र नीचे रखकर
('महावीर' से उद्धृत.) युद्ध बन्द करनेकी प्रार्थना की। आभूका इस प्रकार विजय हुमा देखकर प्रणहिलपुरकी प्रजामें जयजयका आनन्द फैल ऐलक-पद-कल्पना। गया। रानीने बड़े सम्मानपूर्वक उसका स्वागत किया और फिर बड़ा दरबार दिगम्बर जैनसमाजमें श्रावकोंकी करके राजा और प्रजाकी तरफसे उसे ११ वी प्रतिमाके आजकल दो भेद कहे योग्य मान दिया गया । उस समय जाते हैं; एक 'क्षुल्लक' और दूसरा ऐलक। हँसकर रानीने दण्डनायकसे कहा ऐलक सर्वोत्कृष्ट समझा जाता है और कि--सेनाधिपति, जब युद्धकी व्यूह उसके साथ ही श्रावक धर्मकी परिपूर्णता रचना करते करते बीच ही में प्राप-- मानी जाती है। 'ऐलकर पदका प्रयोग "एगिदिया बेइंदिया बोलने लग गये थे. भी अब दिनों दिन बढ़ता जाता है। यह तब तो आपके सैनिकोंको ही यह सन्देह शब्द प्रायः जैनियोंकी जबान पर चढ़ा हो गया था कि, आपके जैसा धर्मशील हुश्रा है और जैन समाचारपत्रों में भी और अहिंसाप्रिय पुरुष मुसलमानों इलका खूब व्यवहार होता है। परन्तु के साथ लड़नेके इस कर कार्यमें उत्कृष्ट श्रावकके लिए 'ऐलकर ऐसा नामकैसे धैर्य रख सकेगा। परन्तु आपकी निर्देश कौनसे प्राचार्य महाराजने किया इस वीरताको देखकर सबको आश्चर्य- है, कब किया है, किस भाषाका यह निमग्न होना पड़ा है। यह सुनकर उस शब्द है और इसका क्या अर्थ होता है, कर्तव्यदक्ष दण्डनायकने कहा कि--महा- इत्यादि बातोंका परामर्श करने पर भी रानी, मेरा जो अहिंसावत है, वह मेरी इनका कहीं कुछ पता नहीं चलता। आत्माके साथ सम्बन्ध रखता है। मैंने संस्कृत और प्राकृतके ऐसे सभी ग्रन्थ जो "एगिदिया बेइंदिया” के वध न इस विषयमें मौन जान पड़ते हैं । किसीकरनेका नियम लिया है, वह अपने स्वार्थ. में ऐलक' शब्दका नामोल्लेख तक नहीं की अपेक्षा से है। देशकी रक्षाके लिए मिलता । संस्कृत और प्राकृत भाषाका और राज्यकी प्राज्ञाके लिए यदि मुझे यह कोई शब्द भी नहीं मालूम होता, षध-कर्मकी आवश्यकता पड़े, तो वैसा जिसका व्युत्पत्तिपूर्वक कुछ प्रकट भर्थ
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अङ्क ४-१०] ऐलक-पद-कल्पना।
३०१ . किया जाय । वास्तवमें, खोज करनेसे, लेकर समितिसहित मौनपूर्वक भिक्षाके ऐलक पदकी कल्पना बहुत पीछेकी और लिए भ्रमण करता है। यह उत्कृष्ट श्रावक बहुत ही आधुनिक जान पड़ती है। अतः ११ वी प्रतिमाके धारकके सिवा दूसरा आज हम इसी विषयके अपने अनु- कोई मालूम नहीं होता, और इसलिए संधानको अपने पाठकोंके सामने रखते यह स्वरूप उसीका जान पड़ता है। हैं। आशा है कि विज्ञ पाठक इसपर भले परन्तु इस सब कथनसे ११ वी प्रतिमाप्रकार विचार करेंगे। और साथ ही, वालेके लिए 'उद्दिष्टविरत' और 'उत्कृष्ट ११वीं प्रतिमाके स्वरूप में समय समय पर श्रावक' के सिवाय दूसरे किसी नामकी जो फेरफार हुआ है, अथवा प्राचार्य उपलब्धि नहीं होती। आचार्यके मतानुसार उसमें जो कुछ - २-स्वामि समन्तभद्राचार्यने अपने विभिन्नता पाई जाती है, उसे ध्यानमें 'रत्नकरण्डक' नामके उपासकाध्ययन रक्खेगः--
। (श्रावकाचार) में, श्रावकके ग्यारह पदों १- भगवत् कुन्दकुन्दाचार्यके चारित्त- (प्रतिमाओं) का वर्णन करते हुए, ११ वीं पाहुड (चारित्र प्राभृत) ग्रन्थमें यद्यपि प्रतिमाके धारक श्रावकका जो स्वरूप. एक गाथा द्वारा* ग्यारह प्रतिमाओंके वर्णन किया है, वह इस प्रकार हैनाम पाये जाते हैं, परन्तु उनके स्वरूपा. ..
गृहतो मुनिवनमित्वा दिकका कोई वर्णन उक्त ग्रन्थमें नहीं है और न आचार्य महोदयके किसी दूसरे
गुरूपकंठे व्रतानि परिगृह्य । उपलब्ध ग्रन्थमें ही इन प्रतिमाओंके
भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टस्वरूपका निर्देश है । हाँ, मुत्तपाहुड श्वेलखण्डधरः ॥ १४७ ॥ (सूत्र प्राभृत) ग्रन्थमें एक गाथा इस अर्थात्-घरको छोड़कर मुनि-वनमें प्रकारसे असर पाई जाती है
जाकर और गुरुके निकट व्रतोंको ग्रहण दुइयं च वुत्तलिंगं उकिट्ठ
करके, जो तपस्या करता दुप्रा भिक्षा___अवरसावयाणं च।
भोजन करता है और खण्ड वस्त्रका
धारक है, वह उत्कृष्ट श्रावक है। .... भिक्खं भमेइ पत्तो
इसमें ११वीं प्रतिमावाले श्रावकको समिदीभासेण मोणेण ॥२२॥
'उत्कृष्ट श्रावक'के नामसे निर्दिष्ट किया है। इसमें मुनिके बाद दूसरा उत्कृष्ट चेलखण्डधारी या खण्डवस्त्रधारी नामलिंग उत्कृष्ट श्रावकका-गृहत्यागी या की भी कुछ उपलब्धि होती है, और अगृहस्थ भावकका-बतलाया गया है उसके लिए १ घर छोड़कर मुनिवन , और उसके स्वरूपका निर्देश इस प्रकार- (तपोवन) को जाना,२ वहाँ गुरुके निकट से किया गया है कि, वह पात्र हाथमें व्रतोंका ग्रहण करना, ३ भिक्षा भोजन
करना, ४ तपस्या करना और ५ खण्ड• वह गाथा इस प्रकार है
वस्त्र रखना, ये पाँच बातें जरूरी बत. दंसणवयसामाइय पोसह सचित्त रायभत्तेयं । बंभारंभ परिग्गह अणुमण उद्दिट्ट देसविरदेदे ॥२१॥
लाई हैं। यही गाथा वसुनन्दि श्रावकाचारके शुरूमें नम्बर ४
___३-भगवजिनसेनप्रणीत आदिपुराणपर पाई जाती है । और गोम्मटसारके संयममार्गणाधिकार- में, यद्यपि ग्यारह प्रतिमाओंका कथन नहीं में भी वही गाथा दी हुई है।
है, परन्तु उसमें गर्भान्धव और दीक्षान्वय
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जैनहितैषी।
[भाग १५ नामकी क्रियाओंमें 'गृहत्याग' क्रियाके . आदिपुराणके इस कथनसे यह ध्वनि बाद और 'जिनरूपता' क्रियासे पहले निकलती है कि ११वी प्रतिमाके प्राचरण'दीक्षाध' नामकी जो क्रिया वर्णन की है, का अनुष्ठान करनेवालेको उस समयउसका अभिप्राय ११ वी प्रतिमाके आच- हवीं शताब्दीमें-'एकशाटकधारी' या एक रणसे ही जान पड़ता है। उसमें भी घर वस्त्रधारी भी कहते थे--वह इस नामसे छोडनेके बाद तपोवनको जाना लिखा संलक्षित होता था। स्वामी समन्तहै और ऐसे तपस्वीके लिए एक शाटक भद्रने उसे ही 'चेलखण्डधारी' लिखा है। (वस्त्र) धारी होनेका विधान किया है। ४-स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें ११वी भिक्षा भोजनादिकका शेष कथन उसके प्रतिमाका स्वरूप इस प्रकारसे पाया स्वरूपसे ही आ जाता है, यथा- जाता है-- त्यक्तागारस्य सद्दृष्टेः प्रशांतस्य गृहीशिनः। जो णवकोडि विसुद्ध प्राग्दीक्षो पयिकाकालादेकशाटकधारिणः ।। भिक्खायरणेण भुंजदे भोजं । . यत्पुरश्चरणं दीक्षाग्रहणं प्रतिधार्यते। जायणरहियं जोगं दीक्षाद्यं नाम तज्ञेयं क्रियाजातं द्विजन्मनः।। उहिहाहार विरओसो ॥३९०॥
-पर्व ३८ श्लो० १५८,१५९ अर्थात्-जो श्रावक नवकोटि विशुद्ध त्यक्तागारस्य तस्यांतस्तपोवनमुपेयुषः । (मन-वचन-काय और कृतकारित-मनुएकशाटकधारित्वं प्राग्वदीक्षाद्यभिष्यते ॥ मोदनाके दोषसे रहित ऐसे शुद्ध) और
- पर्व ३९ श्लो० ७७ योग्य माहारको बिना किसी याचनाके इसके सिवाय, आदिपुराणमें, उन भिक्षा द्वारा प्रहण करता है, वह 'उद्दिष्टाविद्याशिल्पोपजीवी मनुष्योंके लिए, जो हार विरत' नामका श्रावक है। मदीक्षार्ह (मुनिदीक्षाके अयोग्य) कुलमें यहाँ भिक्षाभोजनके तीन खास विशेउत्पन्न हुए हैं, उपनीति आदि संस्कारो- षिण दिये गये हैं-१ नवकोटि विशुद्ध, का निषेध करते हुए, जिस उचित लिंग- २ याचनारहित और ३ योग्य-जो का विधाम किया है वह 'एकशाटक- समन्तभद्र प्रतिपादित स्वरूप में नहीं पाये धारी' होना है, और उसका संकेत ११ जाते । यद्यपि 'योग्य' विशेषणका वहाँ वी प्रतिमाके आचरणकी तरफ ही पाया ---- जाता है, यथा
* ब्र० शीतलप्रसादने अपने गृहस्थधर्म' में स्वामि
कार्तिकेयानुप्रेक्षाको टीकाका, जो कि शुभचन्द्र भ० द्वारा अदीक्षाहे कुले जाता
वि० सं० १६१३ में बनकर समाप्त हुई है, एक अंश . विद्याशिल्पोपजीविनः ।
उद्धृत किया है और वह अंश इसी गाथाके टीका-रूपसे एतेषामुनीत्यादि
है। उसके अन्त में दो पद्य निम्न प्रकारसे दिये हैं-"एका. संस्कारो नाभिसम्मतः ।।
दशके स्थानेद्युत्कृष्टः श्रावको भवेद्विविधः । वस्त्रैकधरः
प्रथमः कौपीन परिग्रहोऽन्यस्तु ॥ कौपीनोऽसौरात्रि प्रतिमातेषां स्यादुचितं लिंग
योगं करोति नियमेन । लोचं पिच्छ धृत्वा भुक्त युपविश्य स्वयोग्यव्रतधारिणां ।
पाणिपुटे॥ एकशाटकधारित्वं
इन पद्यों में जो कथन किया गया है, वह मूल गाथाके
कथनसे अतिरिक्त है और उसे टीकाकारने दूसरे विद्वानोंके संन्यासमरणावधि ॥
कथनानुसार लिखा है, ऐसा समझना चाहिए । इसी तरह पर टीकामें कुछ और भी विशेष पाया जाता है।
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ऐलक-पदः कल्पना।
३०३
स्वरूपसे समावेश हो जाता है, परन्तु 'उद्दिष्टाहारविरत' न रखकर 'उद्दिष्ट 'नवकोटि विशुद्ध और 'याचना रहित विनिवत्ता रक्खा गया है। भिनाशन ये दो विशेषण ऐसे हैं, जो ख़ास तौरसे छोड़कर और सब विशेषण भी यहाँ उल्लेख किये जानेपर ही समझमें आ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षासे अधिक निर्दिष्ट सकते हैं। और इसलिए इन दो विशे- हुए हैं । परन्तु उनमें एक वस्त्रधारी होना षणोंका यहाँ खास तौरसे उल्लेख हुआ और रात्रिप्रतिमादि तपश्चरणमें उद्यमी है, यह कहना होगा । साथ ही, इस रहना, ये दो विशेषण स्वामिसमन्तभद्र प्रतिमाके धारकका 'उद्दिष्टाहार विरत' प्रतिपादित 'चेलखंडधर' और 'तपस्यन्। नामसे उल्लेख किया गया है और उसके विशेषणों के साथ मिलते जुलते हैं। हाँ, लिए खण्डवस्त्र या एक-दो वस्त्र रखने इतना ज़रूर है कि समन्तभद्र स्वामीने प्रादिका कोई नियम नहीं दिया गया। जिस तपश्चरणका सामान्य रूपसे उल्लेख
५--चारित्रसार ग्रन्थमें, श्रीमच्चा- किया है, उसके यहाँ दो भेद किये गये मुण्डराय, जो कि वि० की ११वीं शताब्दी हैं--एक रात्रिप्रतिमादिरूप और दूसरा के विद्वान् है, इस प्रतिमाके धारकका आतापनादि योगरूप । पहलेका विधान 'उहिष्टविनिवृत्त' नामसे उल्लेख करते हैं और दूसरेका निषेध किया गया है। एक
और उसका स्वरूप इस प्रकार देते हैं-- बात यहाँ और भी बतला देने के योग्य है। . "उद्दिष्टविनिवृत्तः स्वोदिष्टपिंडोपधिशयः और वह यह है कि इतने अधिक विशेनवसनादेर्विरत: सन्नेकशाटकघरो भिक्षा- षणोंका प्रयोग करनेपर भी भिक्षा भोजनशनः पाणिपात्रपुटेनोपविश्यभोजी रात्रि- के साथ स्वामिकार्तिकेयके 'याचनारहित'
विशेषणका उल्लेख यहाँ नहीं किया गया प्रतिमादितपः समुद्यत आतापनादियोग
है। सम्भव है कि ग्रन्थकर्ताको शायद रहितो भवति ।"
इस प्रतिमाधारीके लिए यह विशेषण इष्ट अर्थात्--जो अपने निमित्त तय्यार न हो। आगे भी कितने ही प्राचार्यों तथा किये हुए भोजन, उपधि, शयन और विद्वानोको यह विशेषण इष्ट नहीं रहा है, वस्त्रादिकसे विरक्त रहता है-उन्हें ग्रहण और उन्होंने साफ तौरसे इस प्रतिमानहीं करता,--एक वस्त्र रखता है, भिक्षा धारी के लिए याचनाका विधान किया है। भोजन करता है, कर-पात्रमें आहार लेता है, बैठकर भोजन करता है, रात्रिप्रति- ६-श्रीअमितगति आचार्य अपने मादि तपश्चरणमें उद्यमी रहता है और 'सुभाषितरत्नसंदोह' नामक ग्रन्थमे, जो आतापनादि योगसे वर्जित होता है, वह
गसे वर्मित होता है वह कि वि० सं १०५० में बनकर समाप्त हुआ 'उहिष्ट विनिवृत्त' नामका श्रावक कह
प्रावक कह है, लिखते हैं कि-- लाता है।
स्वनिमित्तं विधायन कारितोनुमतः कृतः । ___ इस स्वरूपमें, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा. • की अपेक्षा, उद्दिष्टाहारके साथ १ उद्दिष्ठ "
नाहारो गृह्यते पुंसात्यत्तोद्दिष्टः स भण्यते ८३ उपधि, २ उद्दिष्ट शयन और ३ उद्दिष्ट अर्थात्--जो मनुष्य मन-वचन-काय. धनादिकके त्यागका विधान अधिक द्वारा अपने निमित्त किये हुए, कराये हुए किया गया है और शायद इसीसे या अनुमोदन किये हुए भोजनको ग्रहण
इस पदवी (प्रतिमा) धारकका नाम नहीं करता है (नवकोटि विशुद्ध भोजन
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३०४
. जैनहितैषी।
[ भाग १५ लेता है) वह 'त्यक्तोद्दिष्ट' नामका श्रावक मालूम होता है कि इस स्वरूप-कथनसे कहलाता है।
नवकोटि विशुद्ध भोजनका लेना स्वामि_ 'उपासकाचार' में भी आपने प्रायः कार्तिकेयके कथनानुकूल है। परन्तु भिक्षाके ऐसा ही स्वरूप वर्णन किया है* | साथ लिए याचना करना और 'धर्म लाभ' शब्द ही, एक स्थानपर उसे 'उत्कृष्ट श्रावका कहना, ये बातें स्वामिकार्तिकेयके 'याचनालिखकर उसके कुछ विशेष कर्तव्योंका रहित विशेषण और श्रीकंदकुंदाचार्य के भी उल्लेख किया है, जो सामायिकादि 'मौनपूर्वक विशेषण के साथ कोई मेल षडावश्यक क्रियाओं के अतिरिक्त निम्न नहीं रखती-प्रतिकूल मालूम होती हैं। प्रकार हैं--
और भिक्षापात्रमें, अनेक घरोंसे भिक्षा वैराग्यस्य परांभूमि संयमस्य निकेतनं । एकत्र करके उसे एक स्थान पर बैठकर उत्कृष्टंःकारयत्येव मुण्डनं तुण्डमुण्डयोः८.७३
खानेका जो विधान यहाँ किया गया है, केवलं वा सवस्त्रं वा कौपीनं स्वीकरोत्यसौ।
वह चामुण्डरायके 'करपात्रभोजी' एकस्थाननापानयिो निन्दागहोएरायणः-७४ कथनसे उनका ऐसा आशय जान पड़ता
। विशेषणके विरुद्ध पड़ता है। चामुंडरायके सधर्मलाभशब्देन प्रतिवेश्म सुधोपमा । है कि वे इस प्रतिमाधारीको भिक्षाके सपात्रो याचते भिक्षा जरामरणसूदनीम्-७५ लिए घर घर फिराना नहीं चाहते, बल्कि ___ इन कर्तव्यों में पहला कर्तव्य है, मुख एक ही घर पर मुनिकी तरह कर-पात्रमें
और सिरके बालोंका मुण्डन कराना आहार करा देने के पक्षमें हैं। हाँ, इतना (क्षौर कराना, लौच करना नहीं ), जरूर है कि मुनि खड़े होकर आहार दूसरा खाली कौपीन (लंगोट) या वस्त्र- लेते हैं और इस प्रतिमाधारीके लिए सहित कौपीनका धारण करना, तीसरा चामुंडरायने बैठकर भोजन करने का एक स्थान पर ( बैठकर ) अन्न जल विधान किया है। प्रस्तु, कुछ भी हो, ग्रहण करना ( भोजन करना), चौथा परन्तु यह बात श्रीकुंदकुंदाचार्य के 'भिक्खं अपनी निन्दा गह से युक्त रहना और भमेह पत्तो' (पात्र हाथमें लेकर भिक्षाके पाँचवाँ कर्तव्य है पात्र हाथमें लेकर लिए भ्रमण करता है) इस विशेषणके प्रत्येक घरसे 'धर्म-लाम' शब्दके साथ विरुद्ध नहीं पड़ती। इन सब बातोंके भिक्षा माँगना।
सिवा यहाँ मुख और मस्तकके केशोंका . अमितगतिके इस संपूर्ण कथन से मुण्डन करानेकी बात ख़ास तौरसे कही ११ वी प्रतिमाधालेके लिए 'त्यक्तोद्दिष्ट'
गई है और केवल कौपीन रखने या वस्त्र. 'उहिष्टवर्जी' और 'उत्कृष्ट श्रावक इन नामो
सहित कौपीन रखनेका कथन विकल्पकी उपलब्धि होती है। और साथ ही यह
रूपसे किया गया है। उसकी वजहसे
प्रतिमाके दो भेद नहीं किये गये, यह बात • यथा-यो बंधुराबंधुरतुल्यचित्तो गृह्णाति भोज्यं नवकोटि
खास तौरसे ध्यान में रक्खे जानेके योग्य शुद्धं । उद्दिष्टवर्जी गुणिभिः स गीतो विभीलुकः ।
है। बाकी उद्दिष्ट उपधि-शयन-वस्त्रादिकके संसृतिजातुधान्याः ॥७-७७ ।।
त्याग आदि कितने ही विशेषणोंका यहाँ + श्वेताम्बरोंके यहाँ ११वी प्रतिमावालेके वास्ते इस उल्लेख नहीं किया गया, यह स्पष्ट ही है। शब्दके साथ भिक्षा माँगनेका निषेध है, ऐसा योगशास्त्रकी -श्रीनन्दनन्धाचार्य के शिष्य श्रीगु. गुजराती टीकासे मालूम होता है।
रुदासाचार्यका बनाया हुश्रा 'चित्त
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अङ्क ६-१०
ऐलक-पद-कल्पना। समुच्चय' नामका एक प्राचीन ग्रंथ है, 'ऐलक' नामकी जो जुदा कल्पना की जाती जिसपर श्रीनंदिगुरुने एक संस्कृत टीकाभी है, वह पीछेकी कल्पना ज़रूर है। कितने लिखी है और इसलिए जो विक्रमकी पीछेकी, यह आगे चलकर मालूम ११ वीं शताब्दीसे पहलेका बना हुआ है। होगा। यहाँ पर इतना और बतला देना इस ग्रंथकी चूलिकाम,श्रावक प्रायश्चित्तका - ज़रूरी है कि श्रीगुरुदासाचार्य के मता. वर्णन करते हुए, उत्कृष्ट श्रावकके लिए नुसार तुल्लक या तो एक वस्त्रका धारक (११ वी प्रतिमाधारीके वास्ते) 'क्षुल्लक' होता है और या कौपीन मात्र रखता है। शब्दका ही प्रयोग किया गया है, 'ऐलक' परन्तु वस्त्रसहित कोपीन अर्थात् दोनों का नहीं; और उसके स्वरूपका कुछ चीज़ नहीं रख सकता । और यह बात निदर्शन भी इस प्रकारसे किया है- अमितगतिके कथनके विरुद्ध पड़ती है। वे
वस्त्रसहित कौपीन का भी विधान करते हैं; क्षुल्लेकेष्वेककं वस्त्रं
और कौपीन रहित खाली एक वस्त्रका तो नान्यस्थितिभोजनं ।
विधान ही नहीं करते। इसी तरह लौंच भातापनादियोगोऽपि
करने और करभोजी होने का कथन भी तेषां शस्वनिषिध्यते ॥१५५।। उनके कथनके साथ सामंजस्य नहीं क्षौरं कुर्याञ्चलोचं वा
रखता। पाणौभुक्तेऽथ भाजने ।
___ यहाँ तकके इस संपूर्ण कथनसे इस कोपनिमात्रतन्त्रोऽसौ
बात का पता चलता है कि उत्कृष्ट श्रावक, क्षुल्लकः परिकीर्तितः ।।१५६॥
खंडवस्त्रधारी, एक वस्त्रधारी, कौपीन
मात्रधारी, उद्दिष्टाहार विरत, उहिष्टअर्थात-क्षुल्लकों के लिए एक वस्त्रका ही विनिवृत्त और त्यक्तोद्दिष्ट, इन सबका विधान है दूसरेका नहीं । खड़े होकर प्राशय एक क्षुल्लकसे ही है-क्षुल्लक पदके भोजन करनेका भी विधान नहीं है और ही ये लश नामान्तर है । यह दूसरी बात
आतापनादि योगका अनुष्ठान उनके है कि इस पदकी कुछ क्रियाओं में प्राचालिए सदा निषिद्ध है। वे क्षौर कराओ यों में परस्पर मतभेद पाया जाता है; परन्तु ( हजामत बनवानो ) या लौंच करो, उन सबका अभिप्राय इसी एक पदके हाथमें भोजन करो या बर्तन (पात्र में निदर्शन करनेका जान पड़ता है। साथ ही और चाहे कौपीन मात्र रक्खो, उन्हें यह भी मालूम होता है कि कुछ वैकल्पिक 'क्षुल्लक कहते हैं।
(Optional ) आचरणोंकी वजहसे यहाँ यह बात बहुत स्पष्ट शब्दों में उस समय तक इस पदके (प्रतिमाके) बतलाई गई है कि उस उत्कृष्ट श्रावकको भी दो भेद नहीं हो गये थे। परन्तु अब 'क्षुल्लक ही कहते हैं जो १ लौच करता है, आगेके उल्लेखोसे पाठकोंको यह मालूम २ करभोजी है और ३ कौपीन मात्र होगा कि बादको अथवा कुछ पहले किसी रखता है। उसके लिए क्षौर करानेवाले, अज्ञातनामा आचार्य के द्वारा इस प्रतिमापात्रभोजी और एक वस्त्र धारक उत्कृष्ट के साफ तौरसे दो भेद कर दिये गये हैं धावकसे भिन्न किसी दूसरे नामकी कोई और उन भेदों में उक्त वैकल्पिक आचर. जुदा कल्पना नहीं है। और इसलिए णोंको बाँटा गया है। भाजकज प्रायः इन्हीं तीन गुणों के कारण ----विक्रमको बारहवीं शताब्दीके
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जैनहितैषी।
[भाग १५ विद्वान् श्रीवसुनन्दी प्राचार्य, अपने उपास- ' वत्थेकधरो पढमो काध्यायन में, ११ वी प्रतिमाके धारकको ___ कोवीणपरिगहो विदिओ॥३०॥ . 'उस्कृष्ट श्रावक' बतलाते हुए उसके दो धम्मिल्लाणंचयणं भेद करते हैं, प्रथम और द्वितीय ।
___ करेइ कत्तरिछुरेण वा पढमो । मापके मतानुसार प्रथमोत्कृष्ट श्रावक
ठाणाइसु पडिलेहइ एक वस्त्र रखता है और द्वितीय कौपीनमात्र, पहला कैंची या उस्तरेसे बालोको
उ(
मिदु ?)वयरणेण पयडप्पा ।।३०२॥ कटाता है और दूसरा नियमपूर्वक लौच
भुंजइ पाणपत्तम्मि करता है अर्थात् उन्हें हाथसे उखेड़ता
___ भायणे वा सुई समुवइहो । है; स्थानादिकके प्रतिलेखनका कार्य उववासंपुणणियमा पहला (वस्त्रादिक) मृदु उपकरणसे
चउव्विहं कुणइ पव्वेसु ॥३०॥ लेता है, परन्तु दूसरा उसके लिए नियमसे पक्खालिऊण पत्तं पविसइ (मुनिवत्)पिच्छी रखता है। प्रथमोत्कृष्टके चरियाय पंगणेठिच्चा। लिये इस बातका कोई नियम नहीं है कि
भणिऊणधम्मलाई वह पात्रमें ही भोजन करे या हाथमें, वह
जायइ भिक्खं सयं चेव ॥३०४।। अपने इच्छानुसार चाहे जिसमें भोजन
सिग्छ लाहालाहे अदीणकर सकता है । परन्तु द्वितीयोत्कृष्टके लिए कर-पात्रमें अर्थात् हाथमें ही भोजन
__ वयणो णिउयत्तिऊणतओ। करनेका नियम है । इसके सिवाय बैठकर
अण्णाम्मि गिहे वच्चा भोजन करना, भिक्षा के लिए धावकके दरिसइ मौणण कायव्वं ॥३०५॥ घर जाना और वहाँ आँगनमें स्थित होकर 'धर्म लाभ' शब्द के साथ स्वयं भिक्षा एवं भेओ होई णवर माँगना, भिक्षाके मिलने या न मिलने विसेसो कुणिज्ज णियमेण । पर अदीनवदन होकर शीघ्र वहाँ से निक- लोचं धरिज पिच्छं. लना और फिर दूसरे घरमें जाकर मौन- _ जिज्जो पाणिपत्तम्मि ॥३१॥ पूर्वक अपने प्राशयको प्रगट करना,
दिण पडिमवीरचर्या इत्यादि नियम दोनों के लिए समान हैं।
___तियाल जोगेसुणत्थि अहियारो। साथ ही दिन में प्रतिमा-योग धरना, वीरबर्या करना, त्रिकालयोग (मातापनादिक)
सिद्धान्तरहस्साणवि का अनुष्ठान करना, इत्यादि बातोंका
. अज्झयणं देसविरदाणं ॥३१२॥ मापने दोनोंको ही अनधिकारी बतलाया .. यहाँ पर इतनी बात और बतला है। इन सब प्राशयको गाथाएँ इस देनेके योग्य है कि वसुनन्दि आचार्यने प्रकार हैं
इस प्रतिमाके दो भेद करने पर भी उन एयारसम्मिठाणे
भेदों के लिए तुल्लक, ऐलक जैसे जुदा - उकिट्ठो सावओ हवे दुविहो। जुदा कोई दो खास नामोका निर्देश
•देखो 'वसुनन्दीश्रावकाचार' नामसे जैन सिदान्त नहीं किया, बल्कि उनका यह भेद करना प्रचारक मण्डली देवबन्दकी तरफसे सं० १९६६ की एक कक्षाके कोर्सको दो सालोंमें विभा. छपी प्रति ।
जित करनेकोकोहोरो,
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अङ्क 8-१.] ऐलक-पद-कल्पना ।
३०७. प्रथमादि शब्दोंके साथ, वे दोनों के लिए मानने लगे, तब किसी आचार्य ने, जरूरत 'उत्कृष्ट श्रावक' और 'उद्दिष्टपिंड विरत' समझकर, इस प्रतिमाको दो भागों में नामोका ही व्यवहार करते हैं। 'उहिष्ट- विभाजित कर दिया हो और उन्हींके पिंड विरत' नाम आपने इस प्रकरणको कथनानुसार प्राचार्य वसुनन्दीजीका निम्नलिखित अन्तिम गाथामें दिया है, यह संब कथन हो । परन्तु कुछ भी हो, और उससे यह ध्वनि निकलती है कि इसमें संदेह नहीं कि उक्त पूर्वाचार्यों के आपको इस प्रतिमाधारीके लिए उद्दिष्ट कथनमें भेद जरूर है और दोनोंका कथन उपाधि, उहिष्ट शयन और उद्दिष्ट वस्त्रा- किसी एक सूत्र ग्रंथके अनुसार नहीं हो दिकसे विरक्त होना शायद इष्ट नहीं है। सकता। पिंड (आहार) के लिए नवकोटि-विशुद्ध -तेरहवीं शताब्दीके विद्वान् पं० होनेका भी आपने कोई विधान नहीं आशाधर जीने, अपने सागारधर्मामृतमें, किया । अस्तु, वह गाथा इस प्रकार है- इस प्रतिमाका जो स्वरूपनिर्देश किया उहिट्ठपिंडविरओ
है, वह प्रायः वसुनन्दी प्राचार्यके कथनसे दुवियप्पो सावओ समासेण ।।
मिलता जुलता है। हाँ, इतना विशेष
ज़रूर है कि आशाधर जीनेएयार सम्मिठाणे
___ (क) उद्दिष्ट पिंडके साथ 'अपि' शब्द भणिओ सुत्तण्णुसारेण ॥३१३॥ लगाकर उपधिशयनासनादिके भी त्यागइस गाथामें ऊपरका सब कथन सूत्रा- का संग्रह किया है, जिसे वसुनन्दी नुसार कहा गया है, ऐसा सूचित किया जी छोड़ गये थे, और स्वोपक्ष टीकामें है। परन्तु कौन से सूत्रग्रंथके अनुसार उसका स्पष्टीकरण भी कर दिया है। . यह सब कथन है, ऐसा कुछ मालूम नहीं (ख) प्रथमोत्कृष्ट श्रावकके लिए होता; क्योंकि वसुनन्दीसे पहले के आचार्यो. कौपीन और उत्तरीय वस्त्र ऐसे दो पटोका इस विषयका जो कथन है, वह का विधान किया है और उनका रंग इस लेखमें ऊपर दिखलाया गया है। सफेद दिया है, जब कि वसुनन्दि प्राचार्यउसमें और इस कथन में बहुत कुछ अन्तर ने उसके लिए एक वस्त्रका ही विधान है। यहाँ उल प्राचारणको दो भेदों के किया था और उसका कोई रंग नियत शिकंजे में जकड़कर निश्चित रूप दिया नहीं किया था। गया है जिसे किसी किसी आचार्यने (ग) 'वा मौनेन दर्शयित्वांगं' शब्दोंके विकल्प रूपसे कथन किया था,और उसका द्वारा विकल्पसे मौनपूर्वक स्वशरीर अनुष्ठान (संभवतःअभ्यासादिकी दृष्टिसे) दिखलाकर भिक्षा लेनेका भी विधान किया इस प्रतिमाधारीकी इच्छा पर छोड़ा था। है, और इस तरह पर श्रीकुंदकुंदाचार्य संभव है कि प्राचार्यों के पारस्परिक मत- और स्वामिकार्तिकेयके कथनोंका लमुख्य भेदका सामंजस्य स्थापित करनेके लिए किया है जिसे वसुनन्दी यथेष्ट रूपमें नहीं यह सब चेष्टा की गई हो; और यह भी कर पाये थे। संभव है कि जब वैकल्पिक (Optional) (घ) प्रथमोत्कृष्ट श्रावकके दो भेद किये माचरण सढ़ हो गये और अधिक हैं-१ एक-भिक्षा नियम और २ अनेकसंख्यामें क्षुल्लक लोग उनका जुदा जुदा भिक्षा नियम । एक घर संबंधिनी भिक्षाका अनुशान करके अपनेको बड़ा छोटा जिसका नियम है, वह एकभिक्षामियम
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.३० . जैनहितैषी।
[भाग १५ नामका श्रावक है। उसके लिए मुनिके है। संभव है कि उसी परसे और उसी पश्चात् दातारके घरमें जाकर भोजन दृष्टिको लेकर यहाँ पुलिंगमें इस संशाका । करने, भोजन न मिलने पर नियमसे प्रयोग किया गया हो। परन्तु कुछ भी उपवास करने और गुरुशुश्रूषा तथा हो, इन सब विकल्पोको छोड़कर वह तो सपश्चरणादिक को करते हुए हमेशा मुनि- स्पष्ट ही है कि पं० आशाधर जीने इस वनमें रहने का विधान किया है। और द्वितीयोत्कृष्ट श्रावकको 'आर्य' नामसे अनेकभिक्षानियम नामके श्रावकके वास्ते नामांकित किया है, 'ऐलक' नामसे नहीं। अनेक घरोसे उस वक्त तक भिक्षाकी प्रस्त: पं. श्राशाधर जीके वे सब पद्य जो याचना करते रहनेका विधान किया है, इस विषयमें वसुनन्दी आचार्यकी ऊपर जबतक कि खोदर-पूर्तिके योग्य भिक्षा उद्धृत की हुई गाथाओं के साथ समानता एकत्र न हो जाय ।
या असमानता रखते हैं, इस प्रकार हैं:(ङ) द्वितीयोत्कृष्ट श्रावककी संज्ञा
तत्तद्वतास्त्रनिर्भिन्न- . . 'प्रार्य दी है, जब कि वसुनन्दी आचार्यने
श्वसनमोहमहाभटः। इस श्रावकके लिए किसी खास संज्ञाका निर्देश नहीं किया और न दूसरे ही किसी
उद्दिष्टं पिंडमप्युज्झेपूर्वाचार्यने, जिनका कथन ऊपर दिया
दुत्कृष्टः श्रावकोऽन्तिमः ॥३७॥ गया है, ११ वी प्रतिमाधारीश्रावकके लिये स द्वेधा प्रथमःश्मश्रुइस संशाका कोई विधान किया है, बल्कि __ मूर्धजानपनाययेत् । पूज्य प्रतिष्ठितादि अर्थवाचक यह सामा- सितकौपीन संव्यानः न्य संशा अनेक आचार्यों द्वारा अनेक ___ कर्तर्या वाटुरेण वा ॥३८॥ प्रकारके व्यक्तियोंके लिए व्यवहृत हुई स्थानादिषु प्रतिलिखेत् पाई जाती है। श्रीसमंतभद्राचार्यने तो
मृदूपकरणेन सः । इसे जिनेंद्र भगवान्को-तीथंकरोंको--
कुर्यादेव चतुष्पासम्बोधन करने तकमें प्रयुक्त किया है ।
मुपवासं चतुर्विधम् ॥३९॥ यथा
स्वयं समुपविष्टोऽद्या. ... 'ममार्य देयाः शिवतातिमुच्चैः ।"
त्पाणिपात्रेऽथ भाजने । "त्वमार्यनक्तं दिवमप्रमत्तवान्...।"
स श्रावकगृहं गत्वा " . त्वया स्वतृष्णासरिदार्य शोषिता।"
पात्र पाणिस्तदंगणे ॥४०॥ बृहत्स्वयंभुस्तोत्र । . स्थित्वा भिक्षां धर्मलाभ .. असि, मसि और कृषि प्रादि कर्म ___भणित्वा प्रार्थयेतृवा । करनेवालों को भी 'आर्य' कहते हैं। ऐसी
मौनेन दर्शयित्वांगं हालतमें इस संज्ञासे यद्यपि यहाँ कोई
___ लाभालाभे समोऽचिरात् ॥४१॥ खास विशेषत्व मालूम नहीं होता और न
निर्गत्यान्यद्गृहं गच्छेयह संज्ञा इस प्रतिमाधारी पुरुषके लिए
- द्भिक्षोयुक्तस्तु केनचित् । कुछ रूढ ही पाई जाती है, तो भी स्त्रीलिगमें 'मार्या ( या आर्यिका ) शब्द एक
भोजनायार्थितोऽद्यात्तसाधु वेषधारिणी स्त्रीके लिए रूढ़ जरूर
द्भुक्त्वा यद्भिक्षितं मनाक् ॥४२॥
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प्रक -१०]
ऐलक-पद-कल्पना । . प्रार्थयेतान्यथा भिक्षां
जगहं कुछ विशेष पाया जाता है; जैसा कि यावत्स्वोदरपूरणीम् ।
(२) उद्दिष्ट पिंडके साथमें आपने 'अपि' लभेतप्रासु यत्राम्भस्त
शब्दको छोड़ दिया है, जिससे ऐसा त्रसंशोध्य तां चरेत् ।.४३॥
मालूम होता है कि शायद आपको उहिष्ट उपधि-शयनासनादिक का त्याग इष्ट
नहीं था; (२) विकल्पसे मौनपूर्वक भिक्षाके यस्त्वेक भिक्षानियमो
कथनको न दे कर उसके स्थानमें वही गत्वाऽद्यादनुमुन्यसौ।
वसुनन्दी जैसा कथन रक्खा है. और (३) भुक्त्यनुभावे पुनःकुर्यो
द्वितीयोत्कृष्ट श्रावकके लिए रक्त कौपीनदुपवासमवश्यकम् ॥४६॥ का विधान किया है। इस ग्रंथके सिर्फ वसेन्मुनिवने नित्यं
दो चार पद्य नमूने के तौर पर नीचे दिये ___शुश्रूषते गुरूंश्चरेत् ।
जाते हैंतपोद्विधापि.दशधा
दशधा धर्मास्त्रसंभिन्न . वैय्यावृत्यं विशेषतः ॥४७॥
__ श्वसन्मोहमृगाधिपः । तद्वद्वितीय; किन्त्वार्य
पिंडमुहिष्ट मुज्झन्स्या. संज्ञो लंचत्यसौकचान् ।
दुत्कृष्टः श्रावकोऽन्तिमः ॥५५॥. कौपीनमात्रयुग्धत्ते
उत्कृष्टोऽसौ द्विधाज्ञयः यातवत्प्रतिलेखनम् ॥४८॥
- प्रथमोद्वितीयस्तथा। स्वपाणिपात्र एवात्ति
प्रथमस्य स्वरूपंतु संशोध्यान्येन योजितम् ।
__ वच्म्यहं त्वं निशामय ॥६०।। इच्छाकार समाचार मिथः सर्वेतुकुर्वते ।।४९॥ .
श्वेतैकपटकौपीनो श्रावको वीरचर्याहः
वस्त्रादि प्रतिलेखनः । __ प्रतिमातापनादिषु ।
कर्ता वा क्षुरेणासौ स्यानाधिकारी सिद्धान्त
__ कारयेत्केशमुंडनम् ॥६॥ रहस्या ध्ययनेऽपिच ॥५०॥
लाभालाभे ततस्तुल्यो सागा० अ०७।
निर्गत्यैत्यान्यमंदिरम् । १०-धर्मसंग्रह श्रावकाचारमें*, पं० पात्रं प्रदर्य मौनेन मेधावीने जो कि विक्रमकी १६ वीं शता. तिष्ठेचत्र क्षणंस्थिरः । ब्दीके विद्वान् हैं, इस प्रतिमाका स्वरूप
प्रार्थयेद्यदि दातातं पं० शाशाधरजीके ही कथनानुसार
स्वाभिन्नत्रैव भुंक्ष्वहि । द्विमेव अथवा त्रिभेदरूप दिया है । इतना
तदानिजाशनं भुक्त्वा ही नहीं, बल्कि उनके शब्दोका प्रायः
पश्चात्तस्यग्रसेदुचौ ॥६६॥ अनुसरण भी किया है। सिर्फ दो एक
यस्त्वेकभिक्षो मुंजीत ...यह ग्रंथ जैन सिद्धान्त प्रचारक मंडली देवबन्द द्वारा प्रकाशित हो चुका है।...
. गत्वाऽसावनुमुन्यतः ।
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[भाग १५ तदलामे विदध्यात्स
अन्यः कौपीनसंयुक्तः उपवासमवश्यकम् । ७०॥
___कुरुते केशलुंचनं । तथा द्वितीयः किन्त्वार्य
शौचोपकरणं पिंछं 'नामोत्पाटयेत्कचान् ।
मुक्त्वान्यग्रंथवर्जितः ।।५४६।। रक्तकौपीनसंग्राही
मुनीनामनुमार्गेण धत्ते पिच्छं तपस्विवत् ॥७२॥
चर्यायै सुप्रगच्छति । धर्म सं० अ०८।
उपविश्यचरेद् भिक्षां ११-भावसंग्रहमें पं.वामदेव भी,
- करपात्रेऽङ्गसंवृतः ।।५४८॥ जिनका अस्तित्व समय विक्रमकी १६ वीं शताब्दी पाया जाता है, इस प्रतिमाधारी- नास्ति त्रिकालयोगोऽस्य के दो भेद करते हैं-एक 'ग्रंथसंयुक्त' प्रतिमाचार्कसम्मुखा । और दूसरा कौपीनधारक' । पहलेके
रहस्य ग्रन्थसिद्धान्तलिए आपने एक वस्त्रका विधान किया
श्रवणे नाधिकारिता ॥५४९॥ है, परन्तु माशाधरादिककी तरह साथमें कौपीनका नहीं। वह क्षौर कराता है, वीरचर्या न तस्यास्ति गुरुके निकट पढ़ता है और पाँच घरोंके वस्त्रखण्डपरिग्रहात् । भिक्षा-भोजनको ग्रहण करता है। दूसरा . एवमेकादशो गेही केशलोच करता है, कौपीन, शौचोपकरण सोत्कृष्टः प्रभवत्यसौ ॥५५०॥ (कमंडलु) और पिच्छीको छोड़कर उसके
यहाँ पंचभिक्षाशनके नियमका जो पास दूसरा कोई परिग्रह नहीं होता, वह
ए खास विधान किया गया है, वह वसुनंदी मनियों के अनुमार्गसे चयोको जाता है प्रादिके कथनोसे अधिक और विशिष्ट और बैठकर करपात्रमें आहार करता है। है। इस विधानसे और द्वितीयोत्कृष्ट शेष त्रिकालयोगादिकके निषेधका कथन
। श्रावकके लिए जो मुनियों के अनुमार्गसे उसके लिए साधारण है और उसमें वीर- .
.. चर्याको जानेका विधान है, उससे ऐसी चर्या (मधुकरी वृत्तिसे भाजन) के न होने
न ध्वनि निकलती है कि पं० वामदेवने का कारण आपने खंडवस्त्र (कोपीन) प्रथमोत्कृष्ट श्रावकके एक-भिक्षा नियम का परिग्रह बतलाया है; यथा
और अनेक भिक्षा नियम नामके दो भेद नोद्दिष्टां...(चरेद्) भिक्षा
नहीं किय; बल्कि प्रथमोत्कृष्ट श्रावकको मुद्दिष्टविरतो गृही।
अनेक-भिक्षा-नियममें और द्वितीयोत्कृष्ट वैधैको ग्रंथसंयुक्त
श्रावकको एक-मिक्षा-नियममें रक्खा है। स्त्वन्यः कौपीनधारकः ॥५४५॥ साथ ही, इस प्रतिमाधारीको रहस्य और आद्यो विदधते क्षौरं
सिद्धन्तग्रंथों के अध्ययनका अनधिकारी .. प्रावृणोत्येकवाससं।
न बतलाकर उनके सुनने (तक) का पंचभिक्षाशनं भुक्ते
अनधिकारी बतलाया है, यह विशिष्टता है। पठते गुरुसन्निधौ ॥५४६॥
१२-ब्रह्मनेमिदत्त, जिन्होंने वि० • यह हस्तलिखित ग्रंथ देहलीके नये मंदिरमें मौजूद है। सं० १५०५ में भीपालचरित्रकी रचना की
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अङ्क ४-१०] ऐलक-पद कल्पना।
. ३११ है, अपने 'धर्मोपदेशपीयूषवर्ष' नामके दोषको छोड़कर उइंड मिक्षाके द्वारा, श्रावकाचारमें, इस प्रतिमाके दो भेद श्रावकों के घर पर, एक बार युक्तिपूर्वक करते हुए लिखते हैं कि
भोजन किया करता है। उसके त्रिकालतस्य भेदद्वयं प्राहु
योगका नियम नहीं और वोरचर्या,
सिद्धान्ताध्ययन तथा सूर्यप्रतिमाका रेकवस्त्रधरः सुधीः ।
सर्वथा निषेध है। प्रथमोऽसौ द्वितीयस्तु
यहाँ इस प्रतिमाधारी के दो भेद यती कौपीनमात्रभाक् ॥२७०॥ . करके उन भेदोंके जो 'सुधी' और 'यती' यः कौपीनधरो रात्रि
दो नाम दिये गये हैं, वे ऊपरके सभी प्रतिमायोगमुत्तमं ।
विद्वानोंके कथनोंसे विभिन्न है। और करोति नियमेनोच्चैः
सुधी (प्रथमोत्कृष्ट ) श्रावकके लिए कृत__ सदासौ धीरमानसः ॥२७१।। कारित दोषको टालनेका जो विधान लोचं पिच्छं च संधत्ते
किया गया है, वह इस बातको सूचित भुक्के सौ चोपविश्य वै।
करता है कि ब्रह्मने मिदत्तके मतानुसार
उसका भोजन, स्वामिकार्तिकेय तथा पाणिपात्रेण पूतात्मा
अमितगत्यादिके अनुसार नवकोटि-विशुद्ध ब्रह्मचारी सचोत्तमः ॥२७२॥
होता है। प्रस्तु, ब्रह्मनेमिदत्तने इस कृतकारितं परित्यज्य
प्रतिमाधारीके लिए सुधी और यती श्रावकानां गृहे सुधीः। नाम के दो नये नामोंका विधान करने उदण्डभिक्षया भुक्त
पर भी 'ऐलक' नामका कोई निर्देश नहीं चैकवारं संयुक्तितः ॥२७३।। किया, यह स्पष्ट है। साथ ही यह बात त्रिकालयोगे नियमो
भी किसीसे छिपी नहीं है कि 'यति' वीरचर्या च सर्वथा।
अथवा 'यती'* नाम जैन समाजमें, महासिद्धान्ताध्ययनं सूर्य
व्रतीके लिए बढ़ है और इस यति पदकी
प्राप्ति ग्यारहवीं प्रतिमाका उल्लंघन कर ..... प्रतिमा नास्ति तस्यवै ॥२७४॥
जाने के बाद होती है। श्रीसोमदेव अर्थात-इस प्रतिमा के दो भेद इस सरिके निम्न वाक्यसे भी यही पाय प्रकार है-पहला एक वस्त्रका धारक जाता हैजिसे 'सुधी' कहते हैं; और दूसरा कौपीन
षडनगृहिणो ज्ञेयास्त्रयः मात्रका धारक जिसे 'यती' कहते हैं। जो
___स्युर्ब्रह्मचारिणः । कौपीन मात्रका धारक है, वह धीरमानस,
भिक्षुको द्वौतु निर्दिष्टौ पवित्रात्मा नियमसे उत्तम रात्रिप्रतिमायोग किया करता है, केशलोंच करता है,
ततः स्यात्सर्वतो यतिः ॥ . पिच्छीरखता है, बैठकर करपात्रमें आहार
- -यशस्तिक। करता है और उत्तम ब्रह्मचारी होता है। इस वाक्यमें यह बतलाया या है और सुधी नामका श्रावक कृतकारित कि श्रावककी ११ प्रतिमानों में पाले छह
• यह इस्तलिखित ग्रंथ देहलीके नये मंदिरके * यह 'यतिन्' शब्दकी प्रथमा विभक्ति एकवचन भंडारमें मौजूद है।
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जैनहितैषी।
[भाग १५
'गृहस्थ' मध्यके तीन 'ब्रह्मचारी' और ऐसी हालत में यह एक प्रकारकी सामान्य अन्तके दो 'भिक्षुक' कहलाते हैं और संशा हो जाती है और उससे ११ वीं इसके बाद 'यति' संज्ञा होती है। यह प्रतिमावाले का ही खास तौरसे कुछ दूसरी बात है कि श्रावकको 'देशयति' बोध नहीं हो सकता। परन्तु खास तौर भी कहते हैं। परन्तु यह संज्ञा सभी दर्जीके से बोध हो सके या न हो सके, इतना श्रावकों के लिये व्यवहृत होती है।* जरूर मानना पड़ेगा कि शास्त्र में ११ वी खालिस 'यति' संशाका प्रयोग प्राम तौर प्रतिमावाले के लिए 'भिक्षुक' संज्ञा भी से महावती साधुओंके लिए ही पाया बहुत पहलेसे चली आती है, क्योंकि जाता है। फिर भी यहाँ देशव्रतीके लिए यशस्तिलक ग्रंथ शक सं० १ (वि. 'यती' संज्ञाका व्यवहार किया गया है, सं० १०१६) में बनकर समाप्त हुआ है यह एक साल बात है; और इसमें कोई गुप्त और उसमें उक्त संशाका निर्देश है। रहस्य ज़रूर है। संभव है कि श्वेताम्बर यहाँपर हमारे कितने ही पाठक यह यतियों के पदस्थको लक्ष्य करके ही यहाँ जानने के लिए ज़रूर उत्कण्ठित होंगे कि इस संशाका प्रयोग किया गया हो। श्रीसोमदेव सूरिने ११ वी प्रतिमाका क्या .१३-श्रीसोमदेव सूरिके ऊपर उद्- स्वरूप वर्णन किया है। परन्तु हमें खेदके धृत किये हुए वाक्यसे पाठकों को यह साथ लिखना पड़ता है कि यशस्तिलक भी मालूम होगा कि इस ११ वी प्रतिमा- नामके आपके प्रधान ग्रंथमें, जिसमें धारीको 'भिक्षुक' भी कहते हैं। यद्यपि उपासकाध्ययनका बहुत कुछ लम्बा जैनधर्ममें 'भिक्षुक' नामका एक जुदा ही चौड़ा वर्णन है, हमें इस प्रतिमाका कोई माश्रम माना गया है। जो कि अन्तिम खास स्वरूप उपलब्ध नहीं हो सका। पाश्रम है और जिसे संन्यस्त आश्रम भी हाँ, एक स्थान पर * ११ प्रतिमाओंके कहते हैं। और इसलिए 'भिक्षुक' एक नाम ज़रूर मिले हैं। परन्तु वे नाम मुनिकी या महाव्रती साधु की संज्ञा हैः कितने ही अंशों में इतने विलक्षण हैं और परन्तु सोमदेवसूरिने ११ वी प्रतिमा- उनका क्रम भी इतना विभिन्न है कि वे धारीको भी इस नामसे अविहित किया दोनों (नाम और क्रम) ऊपर उल्लेख
और साथ ही १०वी प्रतिमावाले किये हुए प्राचार्यों तथा विद्वानों के तिए भी इसी संज्ञाका प्रयोग किया है।। कथनों में से किसी एकके भी कथनसे मेल
नहीं खाते । यथायथा-"तच्च देशयतीनां द्विविधं मूलोत्तरगुणात्र
मूलन व्रतान्यर्चा यण " यशस्तिलकः । यथा-ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः
पर्वकर्माकृषिक्रिया: ।। इत्याश्रोस्तु जैनानामुत्तरोत्तर शुद्धितः ॥ इत्यादि पुराणे दिवा नवविध ब्रह्म श्रीजिनसेनः ।
संचित्तस्य विवर्जनम् ॥ है. श्राशाधर और पं0 मेधावीने भी इस विषयमें सोमदेव तरिका अनुसरण किया है और १० वी तथा ११
परिग्रहपरित्यागो वो दोनों ही प्रतिमावालोंको भिक्षुक' लिखा है; यथा
मुक्तिमात्रानुमान्यता। अनुमतिवि तोद्दिष्ट विरतावुभौ भिक्षुको प्रकृष्टीच-सागार धर्मामृत
* ऊपर उदधृत किये हुए ‘षडत्रगृहिणो' इत्यादि उ भिक्षुको परौ-धर्म संग्रह श्रावकाचारः। श्लोकसे पहले।
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भर-१०]. ऐलक-पद-कल्पना।
३१३ तद्धानौ च वदन्त्येता
तथा विद्वानोंके ग्रंथोसे, जिनका ऊपर न्येकादश यथाक्रमं ।
बल्लेख किया गया है, नहीं मिलता।
यहाँ ग्यारहवीं प्रतिमावालेको उहिष्टअवधिव्रतमारोहेत्पूर्वपूर्वव्रतस्थितः। . .
त्यागी ही नहीं बतलाया, बल्कि अनुमान्य
ताकी हानि , करनेवाला अथवा उसका सर्वत्रापि समाः प्रोक्ता
त्यागी ठहराया है जिसका अभिप्राय, ज्ञानदर्शनभावनाः ।।*
पूर्वाचार्योंके कथनानुसार, दसवी प्रतिमा आश्वास नं० ८। (अनुमति त्याग) के विषयसे हो सकता इन पद्योंमें १ मूलव्रत, २ व्रतानि, ३ है। दसवीं प्रतिमावाले को यहाँ भोजनकी भर्चा, ४ पर्वकर्म, ५ अकृषि क्रिया, ६ मात्राका घटानेवाला लिखा है; परिग्रहदिवाब्रह्म, ७ नवविध ब्रह्म, - सचित्त त्यागसे पहले 'प्रारम्भ त्याग' नामकी विवजन, पारग्रह पारत्याग, १० भुक्ति- प्रतिमाका कोई उल्लेख नहीं: संचित्त मात्राहानि और ११ अनुमान्यताहानि, त्याग' नामकी प्रतिमाको पाँचवीं प्रतिमा ऐसी ग्यारह प्रतिमाओंके नाम दिये हैं करार न देकर पाठवीं प्रतिमा करार
और उनका यही क्रम निर्दिष्ट किया है। दिया है; 'प्रकृषि क्रिया' नामकी एक नई साथ ही यह भी बतलाया है कि इन प्रतिमा पाँच नम्बर पर दी है और सभी प्रतिमाओं में शानदर्शनकी भावनाएँ तीसरी प्रतिमा 'सामायिक' की जगह समान हैं और पूर्व पूर्व प्रतस्थित (प्रति- 'अर्चा (पूजा) लिखी है। इससे पाठक माधारी) को चाहिए कि वह भवधिवत. सोमदेव सूरिके प्रतिमाविषयक विभिन को भारोहण करे । परन्तु अवधिवतको शासनका बहुत कुछ अनुभव कर सकते भारोहण करना क्या है, यह कुछ समझमें हैं । यह शासन प्रतिमाओंके नाम, विषय नहीं आता। संभव है कि जिस प्रकार और उनके क्रमकी अपेक्षा श्वेताम्बरोके श्वेताम्बरोंके यहाँ पहली प्रतिमा एक शासनसे भी भिन्न है। श्वेताम्बर सम्प्रमहीने तक, दूसरी दो महीने तक और दायमें दसवीं प्रतिमावालेको 'उहिष्टतीसरी तीन महीने तक, इस प्रकार त्यागी माना है और ग्यारहवीं प्रतिमाक्रमशः भवधिको बढ़ाते हुए अगली की संज्ञा 'श्रमणभूत' दी है। इसके सिवा अगली प्रतिमाभोके पालनका विधान है, उन्होंने ५वी प्रतिमा'कायोत्सर्गः (प्रतिमा), उसी तरहका अभिप्राय यहाँ 'अवधिवत' ६ ठी अब्रह्मवर्जन, ७ वीं सचित्ताहार. से सोमदेव सूरिका हो; अथवा इसका वर्जन, - वीं स्वयमारम्भवर्जन, और कुछ दूसरा ही भाशय हो । परन्तु कुछ हवी प्रतिमा भृतकप्रेष्यारम्भवर्जन मानी भी हो. इसमें संदेह नहीं कि प्रतिमाओका है। बाकी दर्शन, व्रत, सामायिक और यह सब कथन दूसरे दिगम्बर आचायो पोषध नामक पहली चार प्रतिमाएँ उनके .
यहाँ भी उन्हीं नामोंके साथ पाई जाती हैं देखो यशस्तिलक उत्तरखण्ड १० ४१०, निर्णय जिन नामोसेभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यने अपने . सागर प्रेस, बम्बई द्वारा सन् १९०३ का छपा हुआ।
'चारित्तपाहुड' ग्रन्थमें उनका उल्लेख .
जातिma, n : +देखो योगशास्त्रकी गुजराती टीका, निर्णयसागर
किया है, यथाप्रेस बम्बईमें संवत् १९५५ की छपी हुई, पृष्ठ ३३७; और "उपासकदशा' का अभयदेव कृत विवरण, होनले साहब- - का, सन् १८८५ में छपाया हुआ. . २६ से २६ । . - देखो 'उपासक दशा का अभय देवकृत विवरण ।
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३१४
दंसण-वय- सामाइय-पोसहपडिमा अबम्भ सच्चित्त । आरंभ-पेस- उद्दिट्ठ
जैनहितैषी ।
वज्जए समणभूए य ॥ ११ ॥ उपासकदशा *
१४ - पुरुषार्थ सिद्ध्यपाय, पद्मनंदि भावकाचार, पूज्यपाद उपासकाचार रत्नमाला, पंवाध्यायी ( उपलब्ध श्रंश ), तत्वार्थ सूत्र, तत्वार्थ सार, सवार्थ सिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, धर्म शर्माभ्युदय, आदिक बहुतसे ग्रंथों में ११ प्रति माओका कथन ही नहीं है और न उनमें किसी दूसरी तरह पर 'ऐलक' नामका उल्लेख पाया जाता है। गोम्मटसारके संयम मार्गणाधिकार में ११ प्रतिमाओं के नाम ज़रूर हैं और उनकी सूचक वही गाथा दी है जो भगवत्कुंदकुंदके चारितपाहुड ग्रंथ में पाई जाती है । परन्तु उन प्रतिमाओंका वहाँ कोई स्वरूप-निर्देश नहीं किया गया, इसलिए वहाँसे भी इस विषयमें कोई सहायता नहीं मिलती ।
इस तरह पर संस्कृत- प्राकृतके प्रायः इन सभी प्रसिद्ध प्रसिद्ध ग्रंथोंको टटोलने पर जिनमें प्रतिमाओं के कथनकी संभावना थी, हमें किसी भी ग्रंथमें 'ऐलक' नामकी उपलब्धि नहीं हुई। हाँ, 'क्षुल्लक' पदवीका उल्लेख बहुत से ग्रंथोंमें ज़रूर पाया जाता है । उदाहरण के लिए यहाँ उनमें से कुछका परिचय दे देना काफी होगा
(क) भी जिनसेनाचार्य प्रणीत 'हरिवंशपुराण' में, जो कि शक सं० ७०५ में बनकर समाप्त हुआ है, विष्णुकुमार मुनि और प्रद्युम्नकी कथाओंमें चुल्लक पदवीधारक श्रावकका उल्लेख है +
• देखो होर्नले (A. F. Rudolf Hoernle ) का संस्करण, सन् १८८५ का छपा हुआ, पृ० १६७ । + ऐसा पं० दौलतरामजीकी भाषावचनिकासे मालूम होता है। मूल ग्रंथ हमारे सामने नहीं है ।
[ भाग -१५
(ख) विष्णुकुमार मुनिकी कथामें, प्रभाचंद्राचार्य और ब्रह्मनेमिदत्तने भी क्षुल्लक पदका उल्लेख किया है और उस क्षल्लक श्रावकका नाम, जो विष्णुकुमार मुनिके पास श्रकम्पनाचार्यादि मुनियों के उपसर्गका समाचार लेकर गया था, 'पुष्पदन्त' दिया है ।
(ग) विक्रमकी १० वीं शताब्दीके विद्वान् श्रीदेवसेनाचार्य, अपने 'दर्शनसार' ग्रंथ में, कुमारसेन द्वारा वि० सं० ७५३ में काष्ठासंघकी उत्पत्ति बतलाते हुए, लिखते हैं कि कुमारसेनने 'ज्ञल्लक' लोगोंके लिए 'वीरचर्या का विधान किया है। इत्थीणं पुणदिक्खा
खुल्लय लोयस्स वरिचारयत्तं । (पूरा प्रकरण देखो - गाथा नं० ३३ से ३९ तक)
दर्शनसारके इस प्रकरण से साफ़ जाहिर है कि वि. संवत ७५३ से भी पहलेसे क्षुल्लक पदका अस्तित्व है और उस समय मूल संघ में क्षुल्लकोंके लिए वीरचर्याका निषेध थो ।
(घ) यशस्तिलकमें श्रीसोमदेव सूरि भी 'क्षुल्लक' पदका उल्लेख करते हैं और लिखते हैं कि तुल्ल कोंके लिए परस्पर 'इच्छाकार' वचनके व्यवहारका विधान है । यथा
अर्हद्रूपे नमोस्तु स्याद्द्विरतौ विनय क्रिया । अन्योन्य क्षुल्लकेचाई
मिच्छा कारवचः सदा ॥
आश्वास ८ पृ० ४०७ ।
* देखो उक्त विद्वानोंके बनाये हुए 'आराधना सार कथा' और 'आराधना कथा कोश' नामके ग्रंथ । ब्रह्मनेमिदनके आराधना कथा कोशका एक पद्य इस प्रकार हैइति प्राह तदाकर्ण्य पृष्ठोऽसौ क्षुल्लकेन च । पुष्पदन्तेन भो देव कुत्र केषां गुरुर्जगौ ॥६२॥ + यह 'वीरचर्या' वही है जिसका कितने ही श्राचार्यों तथा विद्वानोंने ११ वीं प्रतिमाधारक उत्कृष्ट श्रावकके लिए निषेध किया है ।
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अंक 8-१.]
ऐलक-पद:कल्पना। (अ) वादिचंद्र सूरि अपने 'यशोधर. नाम हैं। और हमारे इस कथनका सम- चरित' में, जिसका निर्माण-काल वि० र्थन धर्मसंग्रह श्रावकाचारकी प्रशस्तिके
संवत् १६५७ है, पहले शिक्षा (११ प्रतिमा), निम्न पद्यसे भी होता हैफिर दीक्षा (मुनिदीक्षा) और फिर
यः कक्षापट मात्रवस्त्रममलं भिक्षाका विधान करते हुए, एक स्थान . पर लिखते हैं कि वह संसारसे भयभीत
धत्ते च पिच्छं लघुः । राजा अपने गुरुकी दी हुई शिक्षाको
लोचं कारयते सकृत्करपुटे ग्रहण करके और अपने सर्व साम्राज्यको . मुंक्त चतुर्थादिभिः। छोड़कर उस वक्त 'क्षुल्लक हो गया और दीक्षां श्रौतमुनीं बभार उसने गुरुकी प्राशासे भिक्षापात्र, कौपीन, नितरां सरक्षुल्लकः साधकः । एक वस्त्र और कमंडलु धारण कर लिया। आर्यो दीपद आख्ययात्र यथा
भुवनेऽसौ दीप्यतां दीपवत्॥१६॥ शिक्षांश्रित्वां गुरोर्दत्ता
इस पद्यमें 'दीपद' नामके एक क्षुल्लकको संसारभयभीलुकः ।
आशीर्वाद दिया गया है जिसने श्रुतमुनिसे हित्वाहि सर्व साम्राज्यम
दीक्षा ली थी और उसके सम्बन्ध बह
लिखा है कि वह कौपीन मात्र वस्त्रका भवत्क्षुल्लकस्तदा ॥३०२॥
धारक था, हलकी पिच्छी रखता था, भिक्षापात्रंच कौपीन
लौंच किया करता था और कर-पात्रमें मेकवस्त्रं कमंडलु।
दूसरे तीसरे दिन एक बार भोजन किया अधारि वचसा साधो
करता था। यद्यपि इन लक्षणोंसे वह मयांगि (?) क्षमया सह ॥३०३।। साफ तौर पर द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक जान
सर्ग १७ । पड़ता है, जिसके लिए पं० आशाधर और 'इन सब अवतरणोंको ध्यानमें रखते
उक्त धर्मसंग्रह श्रावकाचारके कर्ता पं. हुए, और प्रायश्चित्त समुच्चयकी चूलिकाके
मेधावीने, अपने अपने ग्रंथों में 'मार्य
संशाका प्रयोग किया है, तो भी यहाँ उसके उस अवतरण पर खास तौरसे लक्ष्य देते
लिए 'आर्य' विशेषण देकर इस बातको हुए, जो ऊपर नं. ७ में उद्धृत किया गया है और जिसमें साफ़ तौरसे क्षुल्लक
और भी बिलकुल साफ कर दिया है कि का स्वरूप बतलाया गया है. हमें तो
जिसे हम 'द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक' अथवा
'पाय' कहते है, वह 'क्षल्लक' ही है-उससे यही मालूम होता है कि इस समूची ११
भिन्न दसरा कोई शख्स नहीं है। और वी प्रतिमाके धारकका सुप्रसिद्ध और
गुरुदासाचार्यने तो, अपने प्रायश्चित. मढ़ नाम 'क्षल्लक' है। बाकी 'उत्कृष्ट . श्रापकर यह श्रेणी (दर्जे) की अपेक्षा
' समुच्चयकी चूलिकामे, क्षुल्लकोंके लिए नाम है; उद्दिष्टाहारविरत ( उहिष्टपिंड
यह साफ लिखा ही है कि वे क्षौर कराम्रो
या लौच करो, हाथमें भोजन करो या विरत), उहिष्टविनिवृत्त (त्वक्तोद्दिष्ट,
ट, बर्तनमें और कौपीन मात्र रक्खो या एक रदिष्ट वर्जी, उहिष्टत्यागी), एक-वस्त्रधारी, खंडवस्त्रधारी, कौपीनमात्रधारी,
वस्त्र, परन्तु उन्हें 'क्षुल्लक' कहते हैं । मिक्षक इत्यादि नाम उसके गुण-प्रत्यय • देखो इस लेखका नं. ७ पृष्ठ ३०४
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उनके इस कथनमें ११ वीं प्रतिमा के दोनों भेदोंका, चाहे वे पहले से हो या पीछेसे 'कल्पित किये गये हो, समावेश हो जाता है । और इसलिए यह कहना चाहिए कि श्रागममें उक्त दोनों प्रकारके श्रावकों के लिए 'क्षल्लक' संज्ञाका समान रूप से विधान पाया जाता है ।
जैनहितैषीः ।
जो लोग प्रथम भेदको ही क्षुल्लक मानते हैं और दूसरेको क्षुल्लक स्वीकार नहीं करते, बल्कि उसके लिए 'ऐलक' नामकी एक नई संज्ञाका व्यवहार करते हैं, उनका यह श्राचरण जैनागमके प्रतिकूल है ।
A
यहाँ पर हम इतना और बतला देना चाहते हैं कि धर्मसंग्रहश्रावकाचार वि०. संवत् १५४१ में बनकर समाप्त हुआ है और उस वक 'दीपद' नामका उक्त क्षुल्लक मौजूद था। चूँकि स्वरूपकी दृष्टिसे इस तल्लक और आजकल के 'ऐलक' में परस्पर कोई भेद नहीं पाया जाता, इसलिए धर्मसंग्रहभावकाचार के उपर्युक्त उल्लेख से यह नतीजा निकलता है कि जिसे हम आज ऐलक कहते हैं, उसे विक्रमकी १६ वीं शताब्दी में भी 'क्षल्लक' कहते थे ।
१५ - अब देखना यह है कि पिछले साहित्य में 'ऐलक' नामकी उपलब्धि कहीं से होती है या कि नहीं। संस्कृतप्राकृत ग्रंथोंको छोड़कर क्या ऐसे दूसरे कोई ग्रंथ मौजूद हैं जिनमें ऐलक पदका उल्लेख पाया जाता है ? उत्तर में कहना होगा कि हाँ, हिन्दी भाषाके कुछ ग्रंथ ऐसे ज़रूर हैं जिनमें ऐलक पदका उल्लेख मिलता है । इन ग्रंथोंमें सबसे पुराना ग्रंथ जो हमें उपलब्ध हुआ है, वह पण्डित भूधरदालजीका 'पार्श्वपुराण' है। इस ग्रंथ में ११ वीं प्रतिमाका स्वरूप इस प्रकार से वर्णन किया है
भाव १५
अब एकादशमी सुनो, उत्तम प्रतिमा सोय । ताके भेद सिधान्तमें, छुल्लक ऐलक दोय ॥१९४॥ जो गुरु निकट जाय व्रत गहै । घर तज मठमंडप में रहै ॥
एक वसन तन पीछी साथ । कटि कौपीन कमंडल हाथ || १९५ ।। भिक्षा भाजन राखै पास । चारो परब करै उपवास ॥ ले उदंड भोजन निर्दोष । लाभ अलाभ राग ना रोष ॥ १९६ ॥ उचित काल उतरावै केश । डढी मोछ न राखे लेश || तपविधान आगम अभ्यास । शक्ति समान करे गुरु पास ॥ १९७ ॥
यह छुल्लक श्रावक की रीत । दूजो ऐलक अधिक पुनीत ॥ जाके एक कमर कौपीन । हाथ कमंडल पीछी लीन ॥ १९८ ॥ विधिसे खड़ा लेहि आहार । पानिपात्र आगम अनुसार ॥ करै केश लुंचन अति धीर । शीतघाम तन सहै शरीर ॥ १९९॥ पान पात्र आहार,
करै जलांजलि जोड़ मुनि । खड़ा रहै तिहि बार,
भक्तिरहित भोजन तजै ॥ २००॥ एक हाथ पै
प्रास घर, एक हाथ से लेय । श्रावक के घर आयके, 'ऐलक अशन करेय ॥ २०१ ||
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अधिकार ९ वाँ ।
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प्रह-२०] जैनहितैषीपर विद्वानों के विचार।
३९७ इस वर्णनमें साफ़ तौर से ११ वीं इन सब अनुसंधानोंको, जिन्हें ११ प्रतिमाके दो भेदोंके लिए 'छुल्लक' और वी प्रतिमाका एक प्रकारका इतिहास 'ऐलक' ऐसे दो नाम दिये हैं। साथ ही, कहना चाहिए, खोजते समय हमें कितनी ऐलकके वास्ते खड़ा होकर भोजन करनेका ही रहस्यकी बातें मालूम हुई हैं जिन्हें हम विधान किया है, जो ऊपर उद्धत किये हुए फिर कभी अपने पाठकों पर प्रकट करेंगे: अनेक प्राचार्यों तथा विद्वानों के कथनोंके और उसी समय ऐलक शब्दकी उत्पत्ति विरुद्ध है। किसी भी आचार्य तथा पर भी विशेष प्रकाश डाला जायगा । प्राचीन विद्वान्ने इस प्रतिमाके दो भेद इस समय विश पाठकोले हमारा सिर्फ करके उनके क्षल्लक और ऐलक ऐसे दो इतना ही निवेदन है कि उन्हें यदि किसी नाम नहीं दिये, बल्कि इस समूची प्रतिमा दूसरे प्राचीन ग्रंथके द्वारा ऐलक पदकी अथवा इसके दोनों भेदों के लिए 'क्षल्लक' यह कल्पना इससे अधिक पुरानी मालूम. ऐसे एक नामका विधान ज़रूर पाया हुई हो, तो वे कृपाकर सद्भावपूर्वक . जाता है। तब पंडित भूधरदासजीका उसे हम पर प्रकट करें जिससे हम अपने यह लिखना कि सिद्धान्तमें इस प्रतिमाके विचारोंमें यथोचित फेरफार करनेके छुल्लक और ऐलक ऐसे दो भेद किये लिए समर्थ हो सके। यह लेख यथार्थ गये हैं, कहाँ तक ठीक और माननीय है, वस्तुस्थितिको सामने लानेकी गरजसे इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। ही लिखा गया है, इसके लिखने में हमारा ___ हमारी रायमें किसी भाषा-ग्रंथका और दूसरा कुछ भी अभिप्राय नहीं है। कोई शास्त्रीय विधान उस वक्त तक आशा है, सहृदय पाठक इससे कितनी ही माननीय नहीं हो सकता जब तक कि बातोका नया अनुभव प्राप्त करेंगे और उसका समर्थन किसी पूर्वाचार्य तथा लाभ उठावेंगे। . दसरे समर्थ विद्वानों के ग्रंथोसे न होता सरसावा। ता० १३ सितम्बर सन् १५२१ हो । भूधरदासजीके इस कथनका, चूँकि, ऐसा कोई समर्थन नहीं होता, इसलिए यही कहनेको जी चाहता है कि जैनहितैषीपर विद्धानोंके 'ऐलक' पदकी* यह सब कल्पना भूधर.
विचार । दालजीके समयकी अथवा उससे कुछ ही पहलेकी है और वह शास्त्रीय दृष्टिसे माने
(गताङ्क से आगे।) जानेके योग्य नहीं है। भूधरदासजीका १०-श्रीयुत पं० महेशदत्तजी शर्मा, उक्त पार्श्वपुराण वि० सं० १७८६ में बन- भूतपूर्व सम्पादक 'कालिन्दी पत्रिका, कर समाप्त हुआ है । अतः इस कल्पनाको रामनगर, बनारस स्टेट । उत्पन्न हुए प्रायः दो सौ वर्षका समय
ता० ३१-७-२१ बीता है, यह कहना चाहिए। और इससे "निस्सन्देह जैनहितैषीमें इधर कुछ पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि 'ऐलक' दिनोंसे उच्च कोटिके विचारपूर्ण लेख पदकी यह कल्पना कितनी आधुनिक प्रकाशित हो रहे हैं, जिसके लिए और कितनी अर्वाचीन है। अस्तु ।, आपको विशेष धन्यवाद है। आशा है,
-दितीयोत्कृष्ट प्रातकके (ऐलक पदवीके) कियाकाण्ड- ठीक समय पर प्रकाशनका प्रबन्ध शीघ्र की नहीं।
ही होगा। हितैषी केवल जैनियोंके लिए
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जैनहितैषी।" [ भाग १५ ही नहीं, समस्त भारतके पढ़े लिखे प्रेरणा तथा प्रार्थना है। पत्रिकाके कुछ जिज्ञासुओंके लिए भी हितैषी है।" विचार यद्यपि मुझसे भिन्न हैं, पर अधि
१६*-श्रीयुतपं० तात्या नेमिनाथजी कांश एकमत हैं। इससे मैं इसका ज्यादा पांगल, सम्पादक 'सरसवाय ग्रन्थ- प्रेमी हूँ । अतएव भापका और सम्पादक माला' (मराठी), रविवार पेठ, पूना सिटी। महोदयका परिश्रम सराहनीय है।
ता० १२-५-२१ "मापका मार्चके अंकका 'तीर्थों के झगड़ोंका रहस्य' यह लेख पढ़ा बहोत
तेरा द्वार। हि संशोधन व ऐतिहासिक श्रमतया आप ने लिखा है-जो पढनेसे अन्तः
(ले०---श्रीषुत भगवन्त गणपति गोयलीय, बम्बई । ) करण प्रसन्न और सन्तुष्ट होता (है). आपके ऐतिहासिक समालोचनका मैं जीवनसे जी-घबराया था, अभिनन्दन करता हूँ-आपका यह लेख
ढोते ढोते उसका भार । पढ़ने से मुझे ऐतिहासिक क्षेत्रमें फिर
हा भलाइयोंने बुराइयोंसे भी काम करनेकी प्रेरणा होती है। आपके
जीवनमें मानी हार । जैनहितैषीके बन सके उतने सब अंक
सारी नई नई पाशाएँ पढ़ने के लिए एक बार र. ह. के. व्ही.
उड़ी कि जैसे उड़े कपूर । पी. से भेजनेकी कृपा करें।
जीवनाब्धि की तरल तरंगों ने . हमारा अन्ध जैनसमाज आपका
ला पटका मुझको दूर ॥ द्वेषबुद्धीसे कदर नहीं करता, लेकिन आपकी योग्यता डा. भांडारकर जैसे
(२) विद्वानोंसे भी ऐतिहासिक वाडयमें
बनस्थली में जब व्याकुल हो उच्च श्रेणी की है। परमात्मा श्रापके कार्य
ढूँढ़ रहा था अपनी राह । को चिरंजीव तथा प्रभवशाली करें।"
तरुनो-टीलोंसे टकरा कर १२*-श्रीयुत ला० दशरथलालजी,
खींच रहा था लम्बी माह । उपमन्त्री 'जैनमित्रमण्डल' वाचनालय
नभमें घटा घिरी थी, बनमें विभाग, सिवनी (सी. पी.)।
अंधकारका था विस्तार । " ता०६-०-२१
मेरे पदरव मेरी श्वासे "आपके हितैषी' पत्रके दर्शनोंकी
डरवाती थीं कर फूत्कार ॥ बड़ी उत्सुकता थी। आज पाकर प्रसन्न
(३) हुआ। मुझे साप्ताहिकमें जैनमित्र और
यम आमंत्रण माया, मैंने मासिकमें मापके जैनहितैषीका अभिमान
परवश किया उसे स्वीकार। है लेकिन पूर्ववत् न मालूम गल्प, राज. तेरा ध्यान किया जब नीति, हिन्दी साहित्य इ. पर अब लेख
खण्डित होने कोथा जीवन तार। क्यों नहीं पाते जिसके लिए मेरी आपले देखो वहीं हो उठा सत्वर
तथा अचानक दीप प्रकाश । * ११-१२ नम्बरके दोनों विचार पं० नाथूरामजी दौड़ा पाश-मुक्त-मृग जैसा प्रेमीको लिखे हुए पत्रों में प्रकट किये गये है।
भा पावा वह तेरा वार॥
..!
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भक -१०] . . एक गृहसका ब्रह्मचर्वाणुव्रत।
३१ (४)
(८) ... देव तुझे निर्जीव देह में
जग की प्रलयङ्करी घृणा से मेरी मानो पाया प्राण । ___जीवन ऊब गया है नाथ ! समझा त्राण मिलेगा . . चाहे भासू पोछ या कि तुझसे होगा ही जीवन कल्याण ।
ठुकरा दे है चरणों में माथ । खोल खोल सत्वर खुलने दे
मुझको अङ्गीकार वही है अब अपनी कुटीर का द्वार ।
जो कुछ हो तुझको स्वीकार। तेरे चरण पकड़ पा लेने
इस जीवनमें किन्तु न दे मुझको विपत्तिका पार।।
छोडूंगा अप्राप्य प्राप्त तव द्वार ॥
-
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धूलि भरे पग हैं मैली हो
जावेगी यह भव्य कुटीर । डरना मत धो डालेगा
उसको मेरी आँखोंका नीर। निकल निकल मेरे पैरोंसे
इधर उधर फैलेंगे शुल । शीघ्र वरुणियोंसे बुहार
दूंगा उघार. पट हो अनुकूल ॥
जैसे तैसे द्वार खुला तो
फिर अब हे भवसागर सेतु। मौन हो रहा तू इतनी
निठुराई है, बतला किस हेतु ? . पापी हूँ तो भला पापियों
का क्या नहीं हुआ उद्धार । अगर न पापी होता तो फिरमाता ही क्यों तेरे द्वार?
(७) निस्सन्देह पापियों से
करता है घृणासकल संसार । तो क्या तू भी सँसारी सा .
है बानी या सविकार ? - नहीं नहीं, तू दयाधाम है,
पूर्णकाम है, है शिवराज । स्वीय विरद या बाँह गहे
की तो क्या नहीं रखेगा लाज?
एक गृहस्थका ब्रह्मचर्याणुव्रत।
एक गृहस्थ पंचाणुव्रतधारी है और उसके स्वस्त्री मौजूद है। तिल पर भी उसने एक और रनेली स्त्री (अपरि गृहीता इत्वरिका) भी अपने पास रख छोड़ी है । उसके इस आचरणके कारण किसीने उसको टोका और पूछा तो वह कहता है कि-"मैं यह व्रत श्रीसोमदेव सरिके अभिप्रायानुरूप पाल सकता हूँ। उनका अभिप्रायसूचक वह श्लोक इस प्रकार हैवधूवित्तस्त्रियौ मुक्त्वा
सर्वनान्यत्र तज्जने। मातास्वसातनूजेति _मतिर्ब्रह्म गृहाश्रमे ॥१॥ (यशस्तिलक उ० ख० उपासकाध्ययन
प्रकरण पृ० ३५९) अर्थात्-बधू माने स्वस्त्री और वित्तस्त्री माने वेश्या या रजेली स्त्री, इनके सिवा शेष त्रियों पर माता, बहन और छोकरी, पुत्री ऐसी भावना रखनी, यह गृहस्थका ब्रह्मचर्याणुव्रत है।" ।
इस प्रकार वह श्रीसोमदेव सूरिका आधार दिखाता है । सो उसका वह व्रत
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जैनाहितैषी।
[भाग १५ भंग हुआ कि नहीं, इसका विद्वान् लोग (२) डीग रियासत भरतपुरकी मिथ्याकृपा करके खुलासा करें।
भ्रमनाशिनी सभा द्वारा, उसकी खास प्रामका कृपाकांक्षी- मीटिङमें और २०० मनुष्योंकी उप. शंकर पंढरिनाथ रणदिवे। . स्थितिमें, ता० १५ (जुलाई) को पास
हुधा प्रस्ताव ।
"खण्डेलवाल जैनहितेच्छुमें इसके विविध विषय । सम्पादक पं० पन्नालाल सोनी जातिके
सुधारक, प्रचारक, विद्वान्, त्यागी, ब्रह्म१- खण्डेलवाल जैनहितेच्छुका
चारियों के निन्दापूर्ण द्वेष भरे लेख हर एक विरोध ।
अंकमें प्रकट करते रहते हैं। अतः यह सभा 'स्खण्डेलवाल जैनहितेच्छु' नामका
इस पत्रकी नीति पर खेद प्रकट करती है
नाम और जैनसमाजसे प्रार्थना करती है कि एक पाक्षिक पत्र छः सात महीन हुए, ऐसे पत्रों से सावधान रहे।" दि. जैन खण्डेलवाल महासभाकी तरफसे निकलना प्रारम्भ हुआ है। इसके किसी सभा. या सोसायटी द्वारा सम्पादक हैं पं० पन्नालालजी सोनी। प्रकाशित होनेवाला समाजका शायद यह पत्रकी रीति, नीति और सम्पादनशैली पहला ही पत्र है जिसका जनमते ही इस कुछ ऐसी विलक्षण है कि वह जनताको तरहसे विरोध हुआ हो। इसमें सन्देह बहुत ही कम पसन्द भाई है और इस. नहीं कि इस पत्रके अधिकांश लेख प्रायः लिए पहले अंकके निकलनेके बादसे ही द्वेषसे भरे हुए, शिष्टता और सभ्यतासे इस पत्रका विरोध शुरू हो गया है । जैन- गिरे हुए, कषायसे परिपूर्ण और उद्दण्डता, मित्र आदिकमें इसके विरुद्ध कितने ही छिछोरपन तथा हठधरमीको लिये हुए लेख निकल चुके हैं। खयं खण्डेलवाल होते हैं । एक महासभाके मुखपत्रको भाई भी इसका विरोध कर रहे हैं। कई ऐसी दुर्दशा देखकर चित्तको बड़ा ही सभामोंने इसके विरुद्ध प्रस्ताव भी पास दुःख होता है । सम्पादक महाशयको किये हैं। निम्नलिखित दो प्रस्ताव हम चाहिए कि वे अपने कर्तव्य और उत्तरयहाँ जैनमित्र अंक ३६ (ता. २८ जुलाई दायित्वको समझकर शीघ्र ही इस पत्रकी २१) से उद्धृत करते हैं
चाल ढालको सुधारें। उन्हें इस विषय(१) बंगाल आसाम प्रान्तीय खण्डेलवाल में अधिक गंभीर और विचारशील होने
सभा द्वारा आषाढ़ कृष्ण प्रमीको की ज़रूरत है, और उनका ख़ास कर्तव्य पास हुआ प्रस्ताव। . यह है कि वे इस पत्रको उसकी जन्मदात्री
"यह सभा श्री दि० जैन खण्डेलवाल खण्डेलवाल महासभाकी रीति-नीति महासभाके मुखपत्र 'खडेलवाल जैन- और उद्देश्यों के अनुसार चलावें और हितेछु' की वर्तमान सम्पादनशैलीके प्रति उसे व्यर्थ ही अपने दिली फफोलोके असन्तोष प्रकट करती है और मन्त्रीको फोड़ने या अपने हृदयके गुषारोको अधिकार देती है कि उक्त पत्रकी सम्पा- निकालनेका एक साधन म बनावें। एक दन शैलीको परिवर्तन करानेके लिए महा- महती संस्थाके पत्र सम्पादक होनेकी सभासे पत्र व्यवहार करे।"
हैसियतसे उनकी भाषा बहुत ही संयत
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विविध विषय।
३२१ होनी चाहिए । आशा है सोनोजी अब है। कोई कोई तो इस पत्र के लिए और इसपर ज़रूर ध्यान देंगे।
इसके सम्पादक आदि कतिपय लेखकोंके
. वास्ते ऐसी ऐसी उपमात्री तथा लोको२-'सिद्धान्त' में सिद्धान्त
क्तियों का प्रयोग करने लगे हैं किविरुद्ध बातें।
"गाडर पानी ऊनको बैठी चरे कपास," 'जैनसिद्धान्त' नामका एक मासिक. "श्राप डुबंते पांडे ले डूबे यजमान ।" हमें पत्र अभी साल भरसे निकलना प्रारम्भ लोगोंकी इस घबराहटको देखकर कवि. हुश्रा है। यह दिगम्बर जैनशास्त्रि-परिषद- का एक वाक्य याद आता है जो ऐसे ही का मुखपत्र है और इसके सम्पादक घबराये हुए प्रेमियों को लक्ष्य करके कहा हैं पं० वंशीधरजी शास्त्री। लोग समझते गया हैथे कि इस पत्र में जैन सिद्धान्तके रहस्यका इब्तदाए इश्क है रोता है क्या ? उद्घाटन करनेवाली कुछ मर्मकी बातें आगे आगे देख तो होता है क्या ? प्रकाशित हुआ करेंगी और उनके द्वारा कितने ही लेख इस पत्रमें ऐसे बेहूदा साधारण जनताका जैनसिद्धान्त-विषयक और अहंकार तथा कषायसे भरे हुए अज्ञान दूर होगा। परन्तु ऐसा कुछ भी निकले हैं कि जिनमें सभ्यता और शिष्टता न होनेसे उनकी वह अाशा अब निराशामें का बिलकुल ही खून किया गया है और परिणत होती जाती है। आजतक इस उन्हें पढ़कर कोई भी समझदार व्यक्तिपत्र में ऐसा एक भी लेख प्रकाशित नहीं विवेकी पुरुष-निश्चयपूर्वक ग्रह नहीं हुआ जिसके द्वारा जैनधर्मके किसी भी कह सकता कि उनके लेखकके हृदय में सिद्धान्तपर कोई गहरा प्रकाश डाला सद्भावका भी कुछ अंश विद्यमान है । गया हो । प्रत्युत् इसके, अब इसमें कितनी प्रायः कटु शब्दों का प्रयोग ही इस पत्रके ही बातें जैन सिद्धन्तोंके विरुद्ध निकल अधिकांश संपादकीय लेखों का युक्तिबल रही हैं-असत्यको सत्य और सत्यको होता है। पत्रकी लेखन और प्रतिपादन असत्य सिद्ध करने की चेष्टा की जाती है- शैली श्राम तौरसे अच्छी नहीं है और योनिपूजन और कुदेव पूजनादि जैसे संपादकीय कर्तव्यों के पालनसे तो यह निषिद्ध विषयोतकका विधान होने लगा पत्र अभी कोसों दूर है। यदि इस पत्रकी है। लक्षणोंसे ऐसा मालूम होता है कि यही हालत रही तो इसमें संदेह नहीं कि यह पत्र फिरसे भट्टारकी शासनको प्रव- कितने ही
कितने ही विद्वानों को शास्त्रिपरिषदुसे र्तित करना चाहता है और तेरह पंथियोंके अलग होना पडेगा अथवा वह परिषद विचारोंपर बिलकुल ही पानी फेर देने की ही टूट जायगी जिसका यह मुखपत्र है। फिकरमें है। यही वजह है कि यह क्योंकि अब ज़माना भट्टारकी शासनका त्रिवर्णाचारों जैसे आधुनिक ग्रन्थों की नहीं है और न बलपूर्वक कोई असत् बात हर एक बातको, चाहे वह कितनी भी किसीके गले में उतारी जा सकती है। अनुचित क्यों न हो, सत्य सिद्ध करने की अंधाधुंध प्रवृत्तियाँ तथा श्राज्ञाएँ अब धुन में मस्त है । ऐसी हालत देखकर, नहीं चल सकती, और न ऐसे साहित्यके कितने ही विद्वान् लोग भी अब इस पत्र- पढ़ने में सत्पुरुषों की रुचि हो सकती है की रीति-नीतिसे घबरा उठे हैं और उन्होंने इसके विरुद्ध लिखना शुरू किया . इश्कका अभी प्रारंभ ही है।
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३२२ जैनहितैषी।
[भाग १५ जिसमें प्रेम न हो या जो सभ्यता और ५-लखनऊका होगा। शिष्टतासे गिरा हुआ तथा द्वेष और कषाय भावको लिये हुए हो।
जबसे कानपुरके अधिवेशन में, पंडित
मंडलीके विरोध करने पर भी, महासभाके ३-त्रिवर्णाचार और .. आगामी अधिवेशनके लिए लखनऊका ब्रह्मचारीजी।
निमंत्रण स्वीकार हुआ है, तबसे पंडित
लोग बहुत ही भयविह्वल मालूम होते हैं । सोमसेन-त्रिवर्णाचारके सम्बन्धमें
उन्हें वहाँ किसी बड़े ही अजितबलएक भाईकी शंकाको प्रकाशित करते हुए
पराक्रमसिंहका दर्शन हो रहा है और वे ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी उस पर नोट
समझते हैं कि वह संपूर्ण महासभाको देते हैं कि-"त्रिवर्णाचारके इस श्लोकका
अपने पेट में रख लेगा! इसीसे पत्रों में क्या भाव है, उसे त्रिवर्णाचारको जैनशास्त्र
इस बातका आन्दोलन मचा हुआ है कि समझनेवाले विद्वान स्पष्ट करके शंकाका
लखनऊका निमंत्रण किसी न किसी तरह समाधान करें ।" इससे यह साफ़ तौरसे से नामंजूर किया जाय; क्योंकि वहाँ बाबू ध्वनित है कि स्वयं ब्रह्मचारीजी इस पार्टी भेड़ियाधसान ज़रूर कर डालेगी। सोमसेन त्रिवर्णाचारको जैनशास्त्र नहीं ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी इस बाबू पार्टी मानते। इसी लिए उन्होंने तद्विषयक
रूपी भूतके भयको दूर करने की बहुत शंकाका समाधान उन्ही विद्वानों पर
कुछ चेष्टा कर रहे हैं और समझा रहे हैं; छोड़ा है जो उसे जैनशास्त्र मानते हैं और
परन्तु भय दूर होने में नहीं पाता और न उसका पक्ष करते हैं।
उस वक्त तक दूर हो सकता है जब ४-प्राचार्यों के बनाये हुए नहीं हैं। तक कि लखनऊमें अधिवेशनका होना
मन्सूख ( रह ) न कर दिया जाय और ____ खंडेलवाल जैनहितेच्छुके संपादक या अधिवेशन पंडित मंडलीके इच्छापं. पन्नालालजी सोनी हितेच्छु के गतांक नुसार पूरा न उतर जाय। पिछली बात नं. १४ में लिखते हैं कि “भद्रबाहु यद्यपि लखनऊवाले भाइयोंके हाथ में संहिता और त्रिवर्णाचारोंके कर्ता नहीं है, परन्तु पहली बात उनके हाथ में आचार्य नहीं हैं, और इसलिए उन्होंने ज़रूर है। और इसलिए हमारी रायमें अपने इस वाक्य के द्वारा इस बातको
उन्हें, जिस तिस प्रकारसे बने, इस निमं. स्वीकार कर लिया है कि ये ग्रंथ जैना
त्रणको स्वयं मन्सूख कराकर अपने चार्यों के बनाये हुए नहीं हैं; भले ही इन
पंडित भाइयोंको अभयदान प्रदान करना
चाहिए और इस बात का अवसर देना ग्रंथोंके कर्ता, ग्रंथों में, अपने आपको आचार्य, मुनि, भट्टारक, गणी और
चाहिए कि वे जहाँ चाहे अधिवेशन करके मुनीन्द्र तक लिखें, परन्तु सोनीजी उनके
अपने दिली अरमानोंको पूरा करें। यह इस लिखनेकी कुछ भी पर्वाह न करके अब
बड़े पुण्यका काम है। अधिवेशन कराने में उन्हें जैनाचार्य नहीं मानते. यह बड़ी इससे अधिक पुण्य नहीं होगा और खुशीकी बात है। और हम सोनीजीकी
संभव है कि कानपुरवाले भाइयों की तरह इतनी ही मान्यताको गनीमत समझकर
उससे कुछ प्रसन्नता लाभ भी न हो सके। उसका अभिनंदन करते हैं ।
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अंक 8-१०] पुस्तक-परिचय।
३२३ पुस्तक-परिचय ।।
रादिसे रहित, संक्षेपमें पौराणिक वर्णन
दिया हुआ है। परन्तु कौनसे पुराण२ क्षत्रचूडामणि (सान्वयार्थ ) ग्रन्थके आधार पर यह सब लिखा गया अन्वयार्थ कर्ता और प्रकाशक: पं० निद्धा. है, पेसा पुस्तक परसे कुछ मालूम नहीं मलजी, क्षेत्रपाल, ललितपुर । प्रष्टसंख्या होता। इसके प्रकट करने की बड़ी ज़रूरत सब मिलाकर ३०० के करीब। मूल्य, थी; क्योंकि अनेक प्राचार्यों के कथनों में कच्ची जिल्द १॥) और पक्की जिल्द २)
परस्पर बहुत कुछ भेद भी पाया जाता रुपये।
है। अच्छा होता यदि प्रधान प्रधान यह मूल ग्रन्थ श्रीद्वादीभसिंह
आचार्योके मतभेदों को इसमें एक साथही सूरिका वही सुन्दर प्रसिद्ध ग्रन्थ है जो
दिखला दिया जाता। ऐसा होने पर यह दा एक बार छप चुका है और जिसमें
पुस्तक बहुत कुछ उपयोगी हो सकती कथाके साथ साथ पद पद पर नीतिकी
थी। पुस्तक अच्छी छपी है। परन्तु अशुशिक्षा पाई जाती है। इस बार पं० निद्धा.
द्धियों की इसमें भी भरमार है और उसके मलजीने ग्रन्थका यह अन्वयार्थ बोधक
लिए ४ पेजका शुद्धिपत्र लगाना पड़ा संस्करण विद्यार्थियों को लक्ष्य करके
है। यह पुस्तक भी उसी प्रेसमें छपी है। तय्यार किया और प्रकाशित किया है।
जिसमें ऊपरकी क्षत्र चूड़ामणि, और मापका यह प्रयत्न प्रशंसनीय है और
इसलिए, प्रेस की यह असावधानी बहुत इससे विद्यार्थी लोक तथा दूसरे लोग भी
ही उपालंभ के योग्य है। . . . ज़रूर कुछ न कुछ लाभ उठावेंगे। अच्छा रत्नाकर पचीसी-प्रकाशक, श्री. होता यदि प्रन्थके साथमें उन संपूर्ण आत्मानन्द जैनसभा, अम्बाला शहर । मीति वाक्योंकी एक अनुक्रमणिका, बारीक मूल्य, डेढ आना। टाइपमें लगा दी जाती जो ग्रन्थ भरमें ___यह श्वेताम्बर साधु श्रीरत्नाकर सूरिपाये जाते हैं। ऐसा होनेसे ग्रन्थकी का २५ पद्यों का एक छोटा सा संस्कृत उपयोगिता बहुत कुछ बढ़ जाती। पुस्तककी स्तोत्र है, जिसमें सूरिजीने जिनेन्द्र भग. छपाई सफाई साधारण है और कागज वानसे अपने दोषोंकी आलोचना की है। बुरा नहीं है। परन्तु पुस्तकके साथमें स्तोत्र अच्छा है और इसके पढ़नेसे चित्तकी पेजका शुद्धिपत्र बहुत खटकता है। शुद्धि तथा प्रमाद-जन्य दोषोंकी निवृत्ति
३ जैनइतिहास दुसरा भाग- की ओर प्रवृत्ति होती है। प्रत्येक पद्यके लेखक, बा. सूरजमलजी जैन, हरदा।
6. नीचे उसका हिन्दी पद्यानुवाद दिया
हुआ है जिसे पं० रामचरितजी उपाध्याय प्रकाशक, ला० मूलचंद किसनदासजीका पडिया, चंदावाडी, सूरत । पृष्ठसंख्या,
ने खड़ी बोली में लिखा है; और इससे सब मिलाकर १०। मूल्य, एक रुपया
पुस्तककी उपयोगिता और भी अधिक इसमें विमलनाथ (१३ वे तीर्थकर ) से
" बढ़ गई है-वह केवल हिन्दी जाननेलेकर मुनिसुव्रतनाथ ( २० वें तीर्थंकर)
वालो के लिए भी कामकी चीज़ हो गई है। तक - तीर्थंकरों और उनके समयके
५ श्रात्मानुशासन, प्राणप्रिय. नारायण, प्रति नारायण, बलदेव और काव्य, भरतबाहु पलिसंवाद-लेखक चक्रवर्ति आदि पुराण-पुरुषोंका अलंका त्रिलोकचंद पाटनी, केकडी जि. अजमेर ।
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*३२४ ' जैनहितैषी।
[ भाग १५ प्रकाशक, मगनलाल त्रिलोकचंद, केकड़ी जिस असहयोगकी आज सारे भारत ख्या ७०।
वर्ष में चर्चा फैली हुई है, उसीके सम्बन्ध ये तीनो पुस्तकें पड़ी बोलीके हिन्दी में लिखे हुए महात्मा गांधीके महत्वपूर पद्यों में है और एकत्र छपी हैं । पहली लेखोंका इस पुस्तकमें संग्रह किया गय दो पुस्तके अपने अपने नामकी संस्कृत है। साथ ही, असहयोगका प्रस्ताव पुस्तकोपर से अनुवादित हैं और तीसरी- असहयोग कमेटीका कार्यक्रम, कौन्सिलो के विषयमें ऐसा कुछ लिखा नहीं। अनु. का बायकाट और पंजाबका फैसला वाद मूलसे कहाँतक मिलता जुलता है, नामसे कुछ बातें परिशिष्ट रूपसे भी दी इसकी जाँचका हमें कोई अवसर नहीं हुई हैं और इससे पुस्तककी उपयोगिता मिला । पुस्तकमे यद्यपि भनेक छन्दोका स्वतः सिद्ध है। ये लेख महात्माजीकी प्रयोग किया गया है, परन्तु रचना साधा- संपादकीसे निकलनेवाले 'यंगइंडिया' रण है। अच्छा होता यदि आत्मानुशास- और 'नवजीवन' नाम के पत्रों में प्रकाशित नादिका अनुवाद खड़ी बोलीके पद्यों में हुए थे, वहींसे अनुवादित किये गये हैं। किया जाता। अस्तु, यह पुस्तक प्रका- प्रत्येक भारतवासीके पढ़ने और मनन शकके पाससे बिना मूल्य मिलती है, करनेके योग्य यह लेखमाला है, इस बात. और इसकी कुल पाँच सौ प्रतियाँ छपाई के बतलाने की ज़रूरत नहीं है । पुस्तककी गई हैं। दो पेजके शुद्धिपत्रसे बाहर भी छपाई सफाई साधारण है और कागज पुस्तकमें कितने ही स्थानोंपर अशुद्धियाँ घटिया लगाया गया है जो ऐसी पुस्तकके पाई जाती हैं।
लिए उपयुक्त मालूम नहीं होता। पुस्तक६ असहयोग-(प्रथम भाग) प्रका• केटाइटिल पेजपर महात्माजीका पवित्र शक, राष्ट्रीय ग्रन्थमाला कार्यालय ६३ चित्र भी लगा हुश्रा है जो पाठकों के मनहिवेट रोड, इलाहाबाद । पृष्ठ संख्या १०। को अपनी ओर आकर्षित किये बिना मूल्य, छह माना।
- नहीं रह सकता।
आवश्यक सूचना। नन्द जी आदि संन्यासी इस सभाके . भारतवर्ष में देवी देवताओं के नामपर आनरेरी प्रचारक हैं, और बहुतसे प्रति. घोर हिसा होती है। उसको यथाशक्ति ष्ठित गृहस्थ इसके सभासद तथा अन्य प्रेमपूर्वक बन्द करानेका कार्य हमारी कई विद्वान् प्रचारक हैं, इसलिए डेपुसभाने अपने हाथ में लिया है; अतएव टेशन आदि द्वारा उक्त कार्य किया जा जहाँ पर जिस किसी भी त्यौहार अथवा सकेगा। पत्र निम्नलिखित पते पर भेजना मेले पर पशुषध होता हो, वहाँके भाई चाहिएपत्र द्वारा सम्पूर्ण व्यवस्था लिखकर खबर भेजे । जहाँ तक हो सकेगा, उसको
पं. बाबूराम बजाज मन्त्री बन्द करने का प्रयत्न किया जायगा। चूँकि जीवदयाप्रचारिणी सभा. N. S. स्वामी सच्चिदानन्दजी, महात्मा रामा
अहारन (भागरा)
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स्वानुभव दर्पण सटीक ।
श्राचार्य योगीन्द्रदेवकृत प्राकृत दोहाबद्ध योगसारका मुंशी नाथूराम लमेचू कुन * पद्यानुवाद और भाषा टीका । अध्यात्मका पूर्व ग्रन्थ है। हमारे पास थोड़ीसी प्रतियाँ एक जगह से श्रा गई हैं मू ।) जैन द्वितीय पुस्तक ।
यह भी उक्त मुंशीजी की लिखी हुई बड़े कामकी पुस्तक है। इसमें करणानुयोगकी सैकड़ों उपयोगी बातोंका संग्रह किया गया है । १६० पृष्ठकी पुस्तकका मू केवल ॥ )
जैनहितैषी के फाइल । पिछले पाँच छः वर्षों के कुछ फाइल जिल्द बँधे हुए तैयार हैं। जो भाई चाहे मँगा लेवें। पीछे न मिलेंगे । मूल वार्षिक मूल्यसे आठ आने ज्यादा । नया सूचीपत्र |
उत्तमोत्तम हिन्दी पुस्तकका ६२ पृष्ठों का नया सूचीपत्र छपकर तैयार है । पुस्तक प्रेमियों को इसकी एक कापी मँगा कर रखनी चाहिए। मैनेजर, हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय,
हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई ।
बिना मूल्य |
'वीर पुष्पांजलि' नामकी एक चार आना मूल्यकी सुन्दर पुस्तक हमारे पाल से बिना मूल्य मिलती हैं। यह पुस्तक अभी नई की है और हमने उसकी ६० कापियाँ वितरणार्थ खरीद की हैं, जिनमें - से दो सौ से ऊपर वितरण हो चुकी हैं और शेष अभी बाकी हैं। जनहितैषी के जिन पाठकों को ज़रूरत हो वे डाकखचके लिये आध श्राने का टिकट भेजकर एक २ कावी मँगा सकते हैं। 'मेरी भावना' नाम की पुस्तक भी हमारे पास बिना मूल्य मिलती है । इनके सिवाय कुछ कापियाँ हमारे पास 'विधवा कर्त्तव्य की भी रक्खी हुई हैं। जिन विधवा बहनोंको इस पुस्तककी ज़रूरत हो उन्हें डाक खचके लिए एक आने का टिकट भजकर मँगा लेना चाहिये और अपना पूरा पता साफ़ अक्षरोंमें लिखना चाहिए ।
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उत्तमोत्तम जैन ग्रन्थ ।
नीचे लिखी श्रालोचनात्मक पुस्तक विचारशीलों को अवश्य पढ़नी चाहिएँ । साधारण बुद्धिके गतानुगतिक लोग इन्हें मँग
१ ग्रंथपरीक्षा प्रथम भाग । इसकुन्दकुन्द श्रावकाचार, उमास्वातिश्रावकाचार और जिनसेन त्रिवर्णाचार इन तीन ग्रन्थोंकी समालोचना है । अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध किया है कि ये असली जैनग्रन्थ नहीं हैं—- भेषियोंके बनाये हुए हैं। मूल्य = )
२ ग्रंथपरीक्षा द्वितीय भाग । यह भद्रबाहुसंहिता नामक ग्रन्थकी विस्तृत समालोचना है । इसमें बतलाया है कि यह परमपूज्य भद्रबाहु श्रुतकेबलीका बनाया हुआ ग्रन्थ नहीं है, किन्तु ग्वालियर के किसी धूर्त भट्टारकने १६-१७ वीं शताब्दिमें इस जाली ग्रन्थको उनके नामसे बनाया है और इसमें जैनधर्म के विरुद्ध सैंकड़ों बातें लिखी गई हैं। इन दोनों पुस्तकों के लेखक श्रीयुक्त बाबू जुगुल किशोरजी मुख्तार हैं । मूल्य ।)
३ दर्शनसार । श्राचाय देवसेनका मूल प्राकृत ग्रन्थ, संस्कृतच्छाया, हिन्दी अनुवाद और विस्तृत विवेचना । इतिहासका एक महत्वका ग्रन्थ है । इसमें श्वेताम्बर, यापनीय, काष्ठासंघ, माथुरसंघ, द्राविड़संघ श्राजीवक ( अज्ञानमत ) और वैनेविक आदि अनेक मतों की उत्पत्ति और उनका स्वरूप बतलाया गया है। बड़ी खोज और परिश्रम से इसकी रचना हुई है। आत्मानुशासन ।
भगवान् गुणभद्राचार्य्यका बनाया हुआ यह ग्रन्थ प्रत्येक जैनीके स्वाध्याय करने योग्य है । इसमें जैनधर्म के असली उद्देश्य शान्तिसुखकी ओर आकर्षित किया गया है । बहुत ही सुन्दर रचना है । आजकल - की शुद्ध हिन्दी में हमने न्यायतीर्थ न्यायसरसावा जि० सहारनपुर शास्त्री पं० वंशीधरजी शास्त्रीसे इसकी
जुगलकिशोर मुख्तार,
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________________ * Reg. No. A. 1050. टीका लिखवाई है और मलसहित छप. समझना हो और एक बढ़िया काव्यका वाया है। जो जैनधर्मके जाननेकी इच्छा अानन्द लेना हो तो श्राचार्य सिद्धर्षि के रखते हैं, उन प्रजैन मित्रोंको भेटमें देने बनाये हुए 'उपमितिभवप्रपचाकथा' योग्य भी यह ग्रन्थ है। मूल्य 2) नामक संस्कृत ग्रन्थके हिन्दी अनुवादको प्रायश्चित्त संग्रह। अवश्य पढ़िये। अनुवादक श्रीयुत नाथूराम संस्कृत और प्राकृतके इस अपूर्व प्रेमी / मूल्य प्रथम भागका // ) और द्वितीय संग्रहमें चार प्राचीन और नवीन प्राय- भागका / -) जैन साहित्यमें अपने ढंगका श्चित्त ग्रन्थ छापे गये हैं। अभी तक ये यही एक ग्रन्थ है। कहीं भी नहीं छपे थे। मुनियों, आर्यिकाओं संस्कृत ग्रंथ / / और श्रावक श्राविकाओके सभीके प्राय- 1 जीवन्धर चम्पू-कवि हरिचन्द्रकृत 11) श्वित्तोंका वर्णन है। मू०१) 2 गद्यचिन्तामणि-वादीभसिंहकृत। 2) मूलाचार सटीक 3 जीवन्धरचरित-गुणभद्राचार्यकृत / 1) मूल प्राकृत और वसुनान्दि प्राचार्य- 4 क्षत्रचूड़ामणि-वादीभसिंहकृत। मू०१) कृत संस्कृत टीका पूर्वार्ध। मू. 2 // 5 यशोधरचरित-वादिराजकृत। मू०॥) उत्तरार्ध छप रहा है। चरचा समाधान / पं. भूधर मिश्र नियमसार। कृत / भाषाका नया ग्रन्थ / हालही में छपा भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यका यह बिलकुल है। मूल्य 2 // ) ही अप्रसिद्ध ग्रन्थ है। लोग इसका नाम जैन ग्रन्थोंका सूचीपत्र भी नहीं जानते थे। बड़ी मुश्किलसे प्राप्त अभी हाल में ही छपकर तैयार हुश्रा करके यह छपाया गया है। नाटक समय है। मिलनेवाले तमाम ग्रन्थों की सूची है। सार श्रादिके समान ही इसका भी प्रचार जिन सजनोंको चाहिए वे एक कार्ड होना चाहिए / मूल प्राकृत,संस्कृतच्छाया, लि लिखकर मँगा लें। मैनेजरप्राचार्य पद्मप्रभमलधारि देवकी संस्कृत जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, टीका और श्रीयत शीतलप्रसादजी ब्रह्मा हीराबाग, पो. गिरगाँव, बम्बई / चारीकृत सरल भाषाटीकासहित यह श्राविका। छपाया गया है। अध्यात्मप्रेमियोंको अवश्य स्त्रीधर्म, गृहउद्योग आरोग्य और शिस्वाध्याय करना चाहिए / मूल्य 2) दो रु०। क्षण सम्बन्धी उत्तम लेखोंसे स्त्रीवर्गमें पाश्वेपुराण भाषा। अच्छी प्रसिद्धिको प्राप्त हुई यह गुजराती कविवर भूधरदासजीका यह अपूर्व पत्रिका मासिक रूपसे प्रकाशित होती है। ग्रन्थ दूसरी बार छपाया गया है। इसको प्रत्येक अङ्कमें विषयामुसार खास चित्र कविता बड़ी ही मनोहारिणी है। जैनियोंके कथाग्रन्थों में इससे अच्छी और सुन्दर भी रहते हैं / वार्षिक मूल्य तीन रुपये। कविता आपको और कहीं न मिलेगी। पता-श्राविका आफिस-भावनगर / जैन। विद्यार्थियों के लिये भी बहुत उपयोगी है। जैन' नामका यह गुजराती पत्र बिना शास्त्रसभाओं में बाँचनेके योग्य है / बहुत पंथभेदके हर एक घरमे पढ़ा जाना चासुन्दरतासे छपा है। नू० सिर्फ 1) रु.। हिये / अढाई रुपये की 'जैगऐतिहासिक कथामें जैनसिद्धान्त। वार्ताः भेट में दिये जानेपर भी वार्षिक एक मनोरंजक कथाके द्वारा जैनधर्म- मल्य डाक खर्च सहित पाँच रुपये है। की गूढ़ कर्म फिलासफीको सरलतासे मैनेजर 'जैन-भावनगर / Printed & Published by G. K. Gurjar at Sri Lakshmi Narayan Press, Jatan har Benares City, for the Proprietor Nathuram Premi o: Bombay 217.21. -. . -For Personal &Private Use only