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अङ्क-१०]
अस्पृश्यता निवारक आन्दोलन ।
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बदौलत दो हजार वर्षांसे धर्मके नामपर की प्रथाकी हिमायत की जाती थी, उसी पापकी राशि हिन्दू धर्मपर लादी जा रही तरह आज हमारे समाजमें भी धर्मके है और अब भी लादी जाती है। मैं इस · नामपर अन्त्यजों के प्रति घृणा भावकी रक्षा रूढ़िको पाखण्ड समझता हूँ । इसमे की जाती है। यूरोपमें भी अन्त लमय
आपको मुक्त होना पड़ेगा और इसका तक ऐसे कुछ न कुछ लोग निकलते ही प्रयश्चित्त तो आप कर ही रहे हैं। इस रहे थे जो बाइबिलके वचन उधृत करके रूढिके समर्थनमें मनुस्मृति श्रादि धर्म- गुलामीको प्रथाका समर्थन करते थे। ग्रन्थोके श्लोक उधृत करनेसे कोई लाभ अपने यहाँको वर्तमान रूढ़िके हिमायतियोंनहीं । इन ग्रन्थों में कितने ही श्लोक प्रतिप्त को भी मैं उसी श्रेणी में समझता हूँ। हमें हैं, कितने ही नितान्त निरर्थक हैं; और अस्पृश्यताका दोष धर्म से अवश्य दूर फिर मनुस्मृतिकी प्रत्येक आज्ञाका पालन कर देना होगा। इसके बिना प्लेग, हैजे करनेवाला या पालन करने की इच्छा आदि रोगोंकी जड़ नहीं कट सकती। रखनेवाला अबतक एक भी हिन्दू मेरे अन्त्यजोंके धन्धोंमें भी नीचताकी कोई बात देखने में नहीं आया। धर्म-ग्रन्थों के प्रत्येक नहीं है। डाकृर और हमारी मातायें भी श्लोकका समर्थन कर देनेसे सनातन धर्म- वैसे ही काम करती हैं। कहा जा सकता की रक्षा न होगी, बल्कि उनमें प्रतिपादित है कि वे सब फिर स्वच्छ हो जाते हैं । त्रिकालाबाधित तत्वोंको कार्यमें परिणत अच्छा, यदि भंगी आदि यह बात नहीं करनेसे ही उनकी रक्षा होगी। x x x करते तो दोष उनका नहीं, सोलहो पाने
"अस्पृश्यताको भावनामें घृणाका हमारा ही है। यह स्पष्ट है कि जिस अन्तर्भाव माननेसे इन्कार करनेवालों के समय हम प्रेमपूर्वक उनका आलिङ्गन लिए तो कोई विशेषण ही मेरी समझमें करने लगेंगे, उस समय वे स्वच्छ रहना नहीं आता। भूलसे कोई हमारे डब्बेमें अवश्य ही सीख लेंगे। सवार हो जाय तो बेचारा पिटे बिना “यह देश तपश्चर्या, पवित्रता, दया नहीं रह सकता और गालियोंकी तो उस- आदिके कारण जिस प्रकार सबके लिए पर वर्षा ही होने लगती है। उसके हाथ वन्दनीय है, उसी प्रकार स्वेच्छाचार, चायवाला चाय और दुकानदार सौदा पाप, करता आदि दुर्गुणोंका भी क्रीडाः नहीं बेचता। वह मरता हो तो भी हम स्थल बना हुआ है।" उसको छूना गवारा नहीं करते । अपना नवजीवन (वर्ष २ अंक ४४) में जूठा हम उसे खानेको देते हैं और फटे "वैष्णावोंके प्रति" शीर्षक लेखमें म० तथा उतारे हुए कपड़े पहनने को। कोई गांधीजी लिखते हैंहिन्दू उसे पढ़ानेको तैयार नहीं होता। " कितने ही वैष्णव मानते हैं कि मैं वह अच्छे मकानमें नहीं रह सकता। वर्णाश्रम धर्मका लोप कर रहा हूँ। परन्तु रास्तोंमें हमारे भयसे उसे बार बार अपनी सच तो यह है कि मैं वर्णाश्रम धर्मको अस्पृश्यताकी घोषणा करनी पड़ती है। मलिनतासे उबारकर उसका सच्चा इससे बढ़कर घृणासूचक व्यवहार और स्वरूप प्रकट कर रहा हूँ। मैं कुछ पानी, कौन सा हो सकता है ? उसकी दशासे रोटी या बेटी-व्यवहारकी हिमायत नहीं कौन सी सूचना मिलती है ? जिस तरह कर रहा हूँ। एक समय यूरोपमें धर्मकी ओटमें गुलामी. मेरी समझमें तो किसी भी मनुष्यको
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