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________________ . जैनहितैषी। [भाग १५ साहब क्या बहादुरी दिखायेंगे। धीरे धीरे करना मेरा कर्तव्य है । मेरा शरीर यह बात खास रानीके कान तक पहुँची। राष्ट्रकी सम्पत्ति है । इसलिए राष्ट्रके वह सुनकर बहुत संदिग्ध हुई, परन्तु उस भाशा और आवश्यकतानुसार उसका समय अन्य कोई विचार करनेका भव- उपयोग होना ही चाहिए । शरीरस्थ काश नहीं था, इसलिए भावीके ऊपर आत्मा या मन मेरी निजी सम्पत्ति है। आधार रखकर वह मौन रही। दूसरे उसे स्वार्थीय हिंसा भावसे अलिप्त रखना दिन प्रातःकाल ही से युद्ध का प्रारम्भ यही मेरे अहिंसा व्रतका लक्षण है, इत्यादि। हुमा । योग्य सन्धि पाकर दण्डनायक इस ऐतिहासिक और रसिक उदाहरणसे आभूने इस शौर्य और चातुर्यसे शत्रुपर विज्ञ पाठक भली भाँति समझ सकेंगे आक्रमण किया कि, जिससे क्षण भरमें कि, जैन गृहस्थके पालने योग्य अहिंसा. शत्रुके सैन्यका भारी संहार हो गया और व्रतका यथार्थ स्वरूप क्या है। उसके नायकने अपने शस्त्र नीचे रखकर ('महावीर' से उद्धृत.) युद्ध बन्द करनेकी प्रार्थना की। आभूका इस प्रकार विजय हुमा देखकर प्रणहिलपुरकी प्रजामें जयजयका आनन्द फैल ऐलक-पद-कल्पना। गया। रानीने बड़े सम्मानपूर्वक उसका स्वागत किया और फिर बड़ा दरबार दिगम्बर जैनसमाजमें श्रावकोंकी करके राजा और प्रजाकी तरफसे उसे ११ वी प्रतिमाके आजकल दो भेद कहे योग्य मान दिया गया । उस समय जाते हैं; एक 'क्षुल्लक' और दूसरा ऐलक। हँसकर रानीने दण्डनायकसे कहा ऐलक सर्वोत्कृष्ट समझा जाता है और कि--सेनाधिपति, जब युद्धकी व्यूह उसके साथ ही श्रावक धर्मकी परिपूर्णता रचना करते करते बीच ही में प्राप-- मानी जाती है। 'ऐलकर पदका प्रयोग "एगिदिया बेइंदिया बोलने लग गये थे. भी अब दिनों दिन बढ़ता जाता है। यह तब तो आपके सैनिकोंको ही यह सन्देह शब्द प्रायः जैनियोंकी जबान पर चढ़ा हो गया था कि, आपके जैसा धर्मशील हुश्रा है और जैन समाचारपत्रों में भी और अहिंसाप्रिय पुरुष मुसलमानों इलका खूब व्यवहार होता है। परन्तु के साथ लड़नेके इस कर कार्यमें उत्कृष्ट श्रावकके लिए 'ऐलकर ऐसा नामकैसे धैर्य रख सकेगा। परन्तु आपकी निर्देश कौनसे प्राचार्य महाराजने किया इस वीरताको देखकर सबको आश्चर्य- है, कब किया है, किस भाषाका यह निमग्न होना पड़ा है। यह सुनकर उस शब्द है और इसका क्या अर्थ होता है, कर्तव्यदक्ष दण्डनायकने कहा कि--महा- इत्यादि बातोंका परामर्श करने पर भी रानी, मेरा जो अहिंसावत है, वह मेरी इनका कहीं कुछ पता नहीं चलता। आत्माके साथ सम्बन्ध रखता है। मैंने संस्कृत और प्राकृतके ऐसे सभी ग्रन्थ जो "एगिदिया बेइंदिया” के वध न इस विषयमें मौन जान पड़ते हैं । किसीकरनेका नियम लिया है, वह अपने स्वार्थ. में ऐलक' शब्दका नामोल्लेख तक नहीं की अपेक्षा से है। देशकी रक्षाके लिए मिलता । संस्कृत और प्राकृत भाषाका और राज्यकी प्राज्ञाके लिए यदि मुझे यह कोई शब्द भी नहीं मालूम होता, षध-कर्मकी आवश्यकता पड़े, तो वैसा जिसका व्युत्पत्तिपूर्वक कुछ प्रकट भर्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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