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जैन धर्मका अहिंसा तत्व ।
अङ्क ६-१० ]
वह अपने कर्तव्यसे भ्रष्ट होता है तो उसका नैतिक अधःपात होता है; और नैतिक अधःपात एक सूक्ष्म हिंसा है । क्योंकि इससे श्रात्माकी उच्च वृत्तिका हनन होता है । श्रहिंसा धर्मके उपासक के लिए निजी स्वार्थ- निजी लोभके निमित्त स्थूल हिंसाका त्याग पूर्ण श्रावश्यक है । जो मनुष्य अपनी विषय- तृष्णा की पूर्ति के लिए स्थूल प्राणियों को क्लेश नहीं पहुँचाता है, वह कभी किसी प्रकार अहिंसाधर्मी नहीं कहलाता । श्रहिंसक गृहस्थ के लिए यदि हिंसा कर्तव्य है तो वह केवल परार्थक है । इस सिद्धान्तसे विचारक समझ सकते हैं कि, अहिंसा व्रतका पालन करता हुआ भी, गृहस्थ अपने समाज और देशका रक्षण करने के लिए युद्ध कर सकता है - लड़ाई लड़ सकता है। इस विषयकी सत्यता के लिए हम यहाँपर ऐतिहासिक प्रमाण भी दे देते हैं ।
गुजरात के अन्तिम चौलुक्य नृपति दूसरे भीम (जिसको भोला भीम भी कहते हैं) के समय में, एक दफह उसकी राजधानी श्रहिलपुर पर मुसलमानोंका हमला हुआ। राजा उस समय राजधानी में मौजूद न था, केवल रानी मौजूद थी । मुसलमानोंके हमलेसे शहरका संर क्षण कैसे करना चाहिए, इसकी सब अधिकारियोंको बड़ी चिन्ता हुई। दण्डनायक ( सेनापति) के पदपर उस समय श्रभू नामक एक श्रीमालिक वणिक श्रावक था । वह अपने अधिकारपर नया ही श्राया हुआ था, और साथमें वह बड़ा धर्माचरणी पुरुष था । इसलिए उसके युद्धविषयक सामर्थ्य के बारेमें किसीको निश्चित विश्वास नहीं था। इधर एक तो राजा खयं अनुपस्थित था; दूसरे राज्यमें कोई वैला अन्य पराक्रमी पुरुष न था, और न तीसरे राज्यमें यथेष्ट सैन्य दी था । इसलिए रानीको बड़ी चिन्ता हुई ।
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उसने किसी विश्वस्त और योग्य मनुष्यसे दण्डनायक प्रभू की क्षमताका कुछ हाल जानकर स्वयं उसे अपने पास बुलाया और नगरपर आई हुई आपत्तिके सम्बन्ध में क्या उपाय किया जाय, इसकी सलाह पूछी। तब दण्डनायकने कहा कि, यदि महारानीका मुझपर विश्वास हो और युद्ध सम्बन्धी पूरी सत्ता मुझे सौंप दी जाय तो, मुझे विश्वास है कि, मैं अपने देशको शत्रुके हाथसे बाल बाल बचा लूँगा । श्रभूके इस उत्साहजनक कथनको सुनकर रानी खुश हुई और युद्ध सम्बन्धी सम्पूर्ण सत्ता उसको देकर युद्ध की घोषणा कर दी । दण्डनायक श्रभूने उसी क्षण सैनिक संगठन कर लड़ाई के मैदानमें डेरा किया। दूसरे दिन प्रातःकाल से युद्ध शुरू होनेवाला था । पहले दिन अपनी सेनाका जमाव करते करते उसे सन्ध्या हो गई । वह व्रतधारी श्रावक था, इसलिए प्रतिदिन उभय काल प्रतिक्रमण करनेका उसका नियम था । सन्ध्या पड़नेपर प्रतिक्रमणका समय हुआ । उसने कहीं एकान्तमें जाकर वैसा करनेका विचार किया । परन्तु उसी क्षण मालूम हुआ कि, उस समय उसका वहाँसे श्रन्यत्र जाना इच्छित कार्यमें विघ्नकर था । इसलिए उसने वहीं हाथी के हौदेपर बैठे ही बैठे एकाग्रतापूर्वक प्रतिक्रमण करना शुरू कर दिया। अब वह प्रतिक्रमण में आनेवाले - "जेमे जीवा विराहिया - एगिंदिया - बेइंदिया" इत्यादि पाठका उच्चारण कर रहा था, तब किसी सैनिकने उसे सुनकर किसी अन्य अफसरसे कहा कि-- देखिए जनाब, हमारे सेनाधिपति साहब तो इस लड़ाईके मैदानमें भी, जहाँपर शस्त्रास्त्रकी भनाभन हो रही है, मारो मारोकी पुकारें मचाई जा रही हैं, वहाँ 'एगिंदिया बेइंदिया' कर रहे हैं। नरम नरम सीरा खानेवाले ये भावक
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