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________________ २६८ सारा जगत् जीवमय है । इसलिए मनुष्य के प्रत्येक व्यवहार में - खाने में, पीने में, चलने में, बैठनेमें, व्यापार में, विहार में इत्यादि सब प्रकार के व्यवहार में - जीवहिंसा होती है। बिना हिंसाके कोई भी प्रवृत्ति नहीं की जा सकती । अतः इस प्रकारकी सम्पूर्ण श्रहिंसा के पालन करने का अर्थ तो यही हो सकता है कि मनुष्य अपनी सभी जीवन-क्रियाओंको बन्द कर, योगीके समान समाधिस्थ हो, इस नरदेहका बलात् नाश कर दे। ऐसा करने के सिवा, अहिंसाका भी पालन करना और जीवनको भी बचाये रखना, यह तो आकाश- कुसुमकी गन्धकी अभिलाषाके समान ही निरर्थक और निर्विचार है। अतः पूर्ण श्रहिंसा केवल विचारका ही विषय हो सकती है, श्रचार का नहीं । / यह प्रश्न अच्छा है और इसका समा धान अहिंसा भेद और अधिकारीका निरूपण करनेसे हो जायगा । इसलिए प्रथम अहिंसा के भेद बतलाये जाते हैं। जैनशास्त्रकारोंने श्रहिंसा के अनेक प्रकार बतलाये हैं; जैसे स्थूल अहिंसा और सूक्ष्म हिंसा द्रव्य अहिंसा और भाव श्रहिंसा, स्वरुप अहिंसा और परमार्थ श्रहिंसा; देश अहिंसा और सर्व श्रहिंसा इत्यादि । किसी चलते फिरते प्राणी या जीवको जी-जान से न मारनेकी प्रतिज्ञाका नाम स्थूल अहिंसा है, और सर्व प्रकार के प्राणियों को सब तरह से क्लेश न पहुँचाने के आचरणका नाम सूक्ष्म अहिंसा है । किसी भी जीवको अपने शरीर से दुःख न देनेका नाम द्रव्य अहिंसा है और सब आत्माओं के कल्याणकी कामनाका नाम भाव अहिंसा है । यही बात स्वरूप और परमार्थ अहिंसा के बारेमें भी कही जा सकती है । किसी श्रंश में अंहिसा का पालन करना देश अहिंसा कहलाता है और सर्व जैनहितैषी । Jain Education International [ भाग १५ प्रकार - सम्पूर्णतया श्रहिंसाका पालन करना सर्व अहिंसा कहलाता है । यद्यपि आत्माको श्रमरत्व की प्राप्तिके लिए और संसारके सर्व बन्धनों से मुक्त होनेके लिए श्रहिंसाका सम्पूर्ण रूपसे श्राचरण करना परमावश्यक है, बिना वैसा किये मुक्ति कदापि नहीं मिल सकती; तथापि संसार निवासी सभी मनुष्यों में एक दम ऐसी पूर्ण अहिंसा के पालन करने की शक्ति और योग्यता नहीं श्री सकती । इसलिए न्यूनाधिक शक्ति और योग्यतावाले मनुष्योंके लिए उपर्युक्त रीति से तत्त्वज्ञोंने श्रहिंसा के भेद कर क्रमशः इस विषय में मनुष्यको उन्नत होनेकी सुविधा कर दी है । अहिंसा के इन भेदौके कारण उसके अधिकारियोंमें भेद कर दिया गया है । जो मनुष्य अहिंसाका सम्पूर्णतया पालन नहीं कर सकते, वे गृहस्थ, श्रावक, उपालक, अणुव्रती, देशव्रती इत्यादि कहलाते हैं। जबतक जिस मनुष्य में संसार के सब प्रकारके मोह और प्रलोभनको सर्वथा छोड़ देने जितनी आत्मशक्ति प्रकट नहीं होती, तबतक वह संसार में रहता हुआ और अपना गृहव्यवहार चलाता हुआ धीरे धीरे अहिंसा व्रत पालनमें उन्नति करता चला जाय । जहाँतक हो सके, वह अपने स्वार्थीको कम करता जाय और निजी स्वार्थके लिए प्राणियोंके प्रति मारनताड़न-छेदन - श्राक्रोशन आदि क्लेशजनक व्यवहारोंका परिहार करता जाय। ऐसे गृहस्थ के लिए कुटुम्ब, देश या धर्मके रक्षण के निमित्त यदि स्थूल हिंसा करनी पड़े तो उसे अपने व्रतमें कोई हानि नहीं पहुँचती । क्योंकि जबतक वह गृहस्थी लेकर बैठा है तबतक समाज, देश और धर्मका यथाशक्ति रक्षण करना भी उसका परम कर्तव्य है । यदि किसी भ्रान्तिवश For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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