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________________ अङ्क-१०] . जैनधर्मका अहिंसा तत्व । संचार होता है, वैर विरोधकी भावना आत्मवत् सर्वभूतेषु .. नष्ट होती है और सबके साथ बन्धुत्वका सुखदुःख प्रियाप्रिये । नाता जुड़ता है। जिस प्रजामें ये भाव चिन्तयन्नात्मनोऽनिष्टां खिलते हैं, वहाँ ऐकाका साम्राज्य होता हिंसामन्यस्य नाचरेत् ॥ है। और एकता ही श्राज हमारे देशके अभ्युदय और स्वातन्त्र्यका मूल बीज है। अर्थात्-जैसे अपनी आत्माको सुख इसलिए अहिंसा देशकी अवनतिका प्रिय और दुःख अप्रिय लगता है, वैसे ही सब प्राणियों को लगता है। इसलिए जब कारण नहीं है, बल्कि उन्नतिका एकमात्र और अमोघ साधन है। हम अपनी आत्माके लिए हिंसाको अनिष्ट "हिंसा' शब्द हननार्थक 'हिंसि' धातु समझते हैं, तब हमें अन्य आत्माओंके प्रति पर से बना है । इसलिए 'हिंसा' का अर्थ भी उस हिंसाका आचरण कभी नहीं करना चाहिए । यही बाते खयं श्रमणहोता है, किसी प्राणीको हनना या मारना। भारतीय ऋषि-मुनियोंने हिंसाकी स्पष्ट भगवान् श्री महावीर द्वारा इस प्रकारसे व्याख्या इस प्रकार की है-'प्राणवियोग कहा " __ कही गई हैंप्रयोजन व्यापारः' अथवा 'प्राणि दुःख “सव्वे पाणा पिया उया, सुहसाया, साधन व्यापारो हिंसाः'-अर्थात्, प्राणी- दुहपडिकूला, अप्पिय वहा, पियजीविणो, के प्राणका वियोग करनेके लिए अथवा जीविउकामा। (तम्हा) णातिवाएज किंचणं" प्राणीको दुःख देनेके लिए जो प्रयत्न या अर्थात्-सब प्राणियोंको आयुष्य क्रिया होती है, उसका नाम हिंसा है। इसके । प्रिय है, सब सुख के अभिलाषी हैं, दुःख विपरीत किसी भी जीव को दुःख या सबको प्रतिकूल है, वध सबको अप्रिय कष्ट न पहुँचाना अहिंसा है। पातंजलि है, जीवन सभीको प्रिय लगता है-सभी योगसूत्र के भाष्यकार महर्षि व्यासने जीनेकी इच्छा रखते हैं। इसलिए किसी'अहिंसा' का लक्षण यह दिया है को मारना या कष्ट न देना चाहिए। 'सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोहः अहिंसाके प्राचरणकी आवश्यकताअहिंसा'मर्थात् सब तरहसे, सब समयोंमें, सभी प्राणियों के साथ प्रद्रोह भाव बर्तने के लिए इससे बढ़कर और कोई दलील प्रेमभाव रखनेका नाम अहिंसा है। इसी नहीं है-और कोई दलील हो भी नहीं मर्थको विशेष स्पष्ट करनेके लिए ईश्वर. सकती। परन्तु यहाँपर एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि, इस प्रकारकी गीतामें लिखा है कि अहिंसाका पालन सभी मनुष्य किस . कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा। तरह कर सकते हैं। क्योंकि जैसा कि अक्लेशंजननं प्रोक्ता अहिंसा परमर्षिभिः ।। शास्त्रों में कहा है अर्थात्-मन, वचन और कर्मसे सर्वदा जले जीवाः स्थले जीवा हैं किसी भी प्राणीको क्लेश नहीं पहुँचानेका जीवाः पर्वतमस्तके । नाम महर्षियोंने 'अहिंसा' कहा है। इस ज्वालमालाकुले जीवाः प्रकारकी अहिंसाके पालनकी क्या प्राव- सर्व जीवमयं जगत् ॥ श्यकता है, इसके लिए प्राचार्य हेमचन्द्रने अर्थात् जलमें, स्थल में, पर्वतमे, अग्निमें कहा है कि इत्यादि सब जगह जीव भरे हुए हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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