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________________ २८२ नहीं रखेगा। सिर्फ़ आपके इस प्रकारके शब्द दूसरोंके दिल में आपकी तरफ से कुछ कमज़ोरीका सन्देह पैदा करेंगे । अतः किसी विपरीत या धर्म-विरुद्ध बातके उत्तर देने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि बिना अधर्मी और श्रद्धानी कहे, for fair प्रकारकी निन्दा और बिना किसी प्रकारका व्यक्तिगत आक्षेप किये केवल उस बातका उत्तर अत्यन्त शान्ति और गम्भीरताके साथ दिया जाय कि जिससे उस विपरीत बात कहनेवालेको और दूसरोंको लाभ पहुँचे और समाज अनैक्य से बचा रहे ।" जैनहितैषी । मानकी मरम्मत का अनोखा उपाय । दिगम्बर जैन प्रान्तिक सभा बम्बई के महामन्त्री बाबू माणिकचन्दजी वैनाड़ाने जैनमत्रमें एक लेख इस भाशयका लिखा था कि कलकत्तेकी 'जैन सिद्धान्त- प्रकाशिनी संस्था' इस समय केवल पं० गजाधरलालजी और श्रीलालजी के हाथमें है; और सुना गया है कि उक्त दोनों पण्डित सट्टा खेलते हैं और इसमें घाटा श्रनेसे उनपर बड़ा भारी कर्ज़ हो गया है। जब संस्थाके जन्मदाता पं० पन्नालालजी बाकलीवाल ने अपने कामसे इस्तीफ़ा दे दिया है, तब केवल इन पण्डितोंकी जिम्मेदारी पर - जो सट्टा खेलते हैंइतनी बड़ी संस्था रखना जोखिमका काम है, इत्यादि । इस लेख को पढ़कर पण्डित महाशयों का क्रोध भड़क उठा और उन्होंने जैन मित्र, जैनगजट, पद्मावती पुरवाल और संस्थाकी रिपोर्टमें लेखोंका Jain Education International [ भाग १५ ताँता बाँध दिया। बैनाड़ाजी सोचते होंगे कि हम पण्डित-दलके कृपा-पात्र हैं, परन्तु उन्हें भी लेने के देने पड़ गये ! बैनाड़ाजीने तो पण्डितोंकी प्रतिष्ठामे धक्का लगानेका पाप किया था, इसलिए उन्हें उसका प्रायश्चित्त मिलना ही चाहिए था, परन्तु उनके साथ में बैठे बाकली वालकी भी दुर्दशा क्यों की गई, बिठाये मेरी और भाई छगनमलजी सो बिल्कुल ही समझमें नहीं श्राया ! खैर । पूर्वोक्त लेखों में पण्डित महाशयों ने हमारे ऊपर जो आक्षेप किये हैं, यदि वे हमारे सिद्धान्तों या विचारोंके सम्बन्ध में होते तो हम उनके प्रतिवादमें एक अक्षर भी नहीं लिखते । क्योंकि ऐसे व्यर्थ के आक्षेपों के सहन करनेका हमें काफी अभ्यास हो गया है । परन्तु इन आक्षेपोंमें हमारी शुभ निष्ठा तथा दयानतपर आक्र मण किया गया है और यह हमें अला है । यद्यपि हम यह जानते हैं कि श्रागे चलकर हमें ऐसे आक्रमणोंके सहन करनेका भी अभ्यास करना पड़ेगा, इन्हें भी चुपचाप सह लेना होगा और हमारे ये गुरु लोग हमें इस तपश्चर्या में भी पारंगत किये बिना न रहेंगे; फिर भी इस समय तो हमसे पण्डितोंके असत्य और निर्मूल श्राक्षेप नहीं सहे जाते और अपने मित्रोंके समझाने बुझानेसे दो ढाई महीने चुप रहकर भी आज हम इस अप्रिय कर्ममें प्रवृत्त होते हैं I हमें खेद है कि हितैषीके बहुमूल्य पृष्ठोंको हम इस श्रप्रिय चर्चासे भर रहे हैं । फिर भी विचारशील पाठकोंसे आशा है कि वे इससे कुछ न कुछ लाभ अवश्य उठावेंगे। कमसे कम उन्हें इस बातका ज्ञान अवश्य हो जायगा कि इस समय उद्धतता और स्वेच्छाचार करते हुए भी पण्डितजन कितने सुरक्षित हैं और उनके For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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