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________________ २८१ अङ्क ६-१०] बाद् ऋषभदासजीके विचार। सड़कपर अपने बराबर चलनेसे अपना उसमें अर्थहीनता, अस्पष्टता और हानिधर्म भ्रष्ट होना बवाल किया जाता है, या करता आ गई है उतने अंशमें उसका पक्ष कहीं हम खा रहे हो और वहाँ कोई शूद्र न लें। हाँ, जितने अंशमें वह शुद्धताकी या मुसलमान पा जाय तो समझ लिया साधक है उतने अंशमें उसको स्थिर रक्खें। कि हमारा ईमान (धर्म ) जाता रहा। इसी तरह और भी बहुत सी बातें हैं अतः इस किस्मका बर्ताव कि जो नफरत कि जिनपर वादविवाद होकर आजकल और द्वेषकी हदतक पहुँचता है, वास्तव में, एक दूसरेकी निन्दा करने और गालीहमारे समाज तथा देशकी उन्नति और गलौजका सिलसिला चल रहा है कि जिससे समाज में एक हलचल और ना. निश्चय मोक्ष-मार्गमें बहुत बाधक है। - इत्तफाकी (अनैक्य ) फैली हुई है और जैनधर्ममें दूसरोंसे नफरत और द्वेष करना समाजकी शिक्षा तथा सुधार-सम्बन्धी धर्मके बिलकुल विरुद्ध है। इसके अति- कामों में बहुत धक्का पहुँच रहा है। मेरी रिक्त आजकल वह ज़माना है कि हम तुच्छ सम्मतिमें विद्वानोंको चाहिए कि अलग किसी कोने में बैठकर अपना जीवन यदि कोई व्यक्ति कोई बात आपत्तिके नहीं बिता सकते । आजकल तमाम योग्य या धर्म-विरुद्ध लिखे तो बिना दुनियाके लोगोंसे हमें सम्बन्ध, कार्य- किसी व्यक्तिगत आक्षेप और कषायके व्यवहार और मेलजोल रखना होता है। शान्तिपूर्वक उसका उत्तर दे दें, बाकी ऐसी हालतमें अगर हम छूतछातको ही हर वक्त एकता और विद्याके प्रचारकी इस कदर स्त्रींचकर बैठ जायँ कि किसी- कोशिश करें । शास्त्रोंके विरुद्ध लेखोको 'का हाथ या कपड़ा छू जानेसे भी हम - मैं भी नापसन्द करता हूँ, परन्तु जो - तरीका लोगोंने आजकल इसके रोकनेअपना धर्म नष्ट होना खयाल करें या का ग्रहण कर रक्खा है, मेरे खयालमें वह दूसराको दूरस हा दूर दूर करता हम ठीक नहीं है। बात यह है कि जब कोई इस ज़मानेकी ज़िन्दगी (जीवन) की दौड़ शख्स कोई बात विपरीत या धर्म-विरुद्ध में कदापि सफल नहीं हो सकते । छूत- कहता या लिखता है तो उसका कारण छातके ऐसे खींचे हुए व्यवहारसे हमारे उसके मिथ्यात्व-कर्मका उदय हुआ करता धर्मका हास्य होता है और संसारसे है । अब अगर आप उसकी बातका हमारा अस्तित्व उठ जाने की सम्भावना जवाब (उत्तर) देनेमें उसकी निन्दा करे, है। अतः छूतछात जहाँतक समाज, देश उसको अधर्मी, अश्रद्धानी. मिथ्याती वगैरह कहें तो इसका नतीजा (फल) यह और धर्मकी उन्नतिमें बाधक है वहाँ तक :- होगा कि वह मिथ्यात्वमें और ज़्यादा दृढ़ वह निःसन्देह छोड़ देनेके योग्य है। हो जायगा और आपके जवाबका उसकी परन्तु जहाँतक उसका सम्बन्ध खानपान- तबीयतपर कुछ भी असर नहीं होगा । की शुद्धतासे है, वहाँतक वह बुरी चीज़ इसलिए उसको तो आपके उत्तरसे कोई नहीं है। इसलिए विद्वानोंको चाहिए कि लाभ नहीं पहुँचेगा और दूसरोंकी दृष्टिमें इसपर अधिक खींचातानी करके श्रापसमें आपका उत्तर, ठीक होने पर भी, केवल अनैक्य न फैलाएँ, बल्कि निष्पक्ष होकर आपके उन कठोर, असभ्य और निन्दाकृतछातको ज्यादा स्वींचनेसे जितने अंशमें मय शब्दोके कारण कुछ अधिक महत्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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