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जैनहितैषी ।
कर्मपर ही स्थिर की थी, क्योंकि उससे पहले भोगभूमि होने के कारण वर्णव्यवस्था नहीं थी, तो भी अब तो वर्णव्यवस्था कर्म और जन्म दोनों पर ही निर्भर हो सकती है और दोनोंपर ही है । यदि कोई मनुष्य यह पूछता है कि अमुक व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण है या नहीं, तो इसका यही तो अर्थ है कि वह यह पूछता है कि वह व्यक्ति ब्राह्मण से उत्पन्न हुआ या कि नहीं । यदि वास्तव में उसकी उत्पत्ति ब्राह्मण से है, तो इस घटना के विरुद्ध कौन कह सकता है कि वह जन्म से ब्राह्मण नहीं है । यदि उस व्यक्तिके कर्म ब्राह्मण जैसे नहीं है बल्कि अत्यन्त नीच हैं, और उस वक्त यह प्रश्न किया जाता है कि यह व्यक्ति कर्मकी अपेक्षा से ब्राह्मण है या नहीं, तो इस प्रश्नका यही तो श्राशय होता है कि उसके कर्म ब्राह्मण जैसे हैं या नहीं। तो फिर कौन सच्ची बात के विरुद्ध यह कहनेका साहल करेगा कि इसके कर्म ब्राह्मण जैसे हैं या यह कर्म की अपेक्षा ब्राह्मण है ? पूरा ब्राह्मण तो वही है जो कर्म और जन्म दोनोंकी अपेक्षा ब्राह्मण हो । हाँ यदि कोई मनुष्य जन्म से तो ब्राह्मण हो नहीं और उसके कर्म बहुत अच्छे हों, और एक दूसरा मनुष्य है जो जन्म से तो ब्राह्मण हो परन्तु उसके कर्म अत्यन्त बुरे हों, तो निःसन्देह इन दोनोंमें से पहले मनुष्यकी ज्यादा इज्जत होती है और पहले मनुष्यकी ज्यादा इज्जत (मान्यता) होनी भी चाहिए; क्योंकि ऐसा होनेसे दूसरा अपने कर्म अच्छा करनेकी कोशिश करेगा । इसके अतिरिक्त जैनधर्ममें निश्चय और व्यवहार दो मार्ग हैं। निश्चयकी अपेक्षा जैनशास्त्रों में यह लिखा हुआ है कि यह श्रात्मा न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय, न वैश्य और न शूद्र । और यदि कोई मनुष्य ब्राह्मण होने की वजहसे अपने
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[ भाग १५
श्रापको दूसरोंसे ऊँचा ख़याल करता है, तो यह उसका भ्रम है और इससे उसके सम्यक्त्वमें दोष लगता है । अतः स्पष्ट है कि वर्णव्यवस्थाको इस क़दर खींचकर मानना कि जिससे दूसरोंको नीचा लम
के भाव पैदा हो जायें, जैन निश्चय मार्ग के विरुद्ध और उसमें हानिकारक है । और व्यवहार मार्गको खींचकर निश्चयका बाधक नहीं बनाना चाहिए। वर्णव्यवस्था कर्मभूमिके व्यवहारकी सहूलियत (सुगमता) के लिये कायम हुई है । जहाँतक व्यवहारका सम्बन्ध है, उसको अनेकान्त रूपसे जन्म और कर्म दोनोंपर निर्भर मानना चाहिए |
दुसरी लड़ाई-झगड़े की बात आजकल छूतछातका सिद्धान्त हो रहा है । कुछ लोग कहते हैं कि छूतछात सर्वथा हानिकारक है, इसको बिलकुल उड़ा देना चाहिए। दूसरे उनके इस कहने से भयभीत होकर छूतछातको धर्मकी जड़ बतलाने लगते हैं और कहते हैं कि छूतछात जाती रही तो सब धर्म ही नष्ट हो जायगा । मेरे खयालमें छूतछातका सम्बन्ध खानपानी शुद्धता है । जो मनुष्य मैलाकुचैला और गन्दा हो, या जिसका खानपान मांसादिक अशुद्ध पदार्थोंका हो, या जिसके कर्म बहुत नीच हो, उसकी स्पर्श की हुई चीज़ खानेसे खानेवाले के दिलमें एक प्रकार की ग्लानि और श्राकुलता पैदा होती है जिससे वह अपने धर्मका साधन ठीक तौरसे नहीं कर सकता । श्रतः दिल में ग्लानि और श्राकुलताको श्रानेसे. रोकने के लिये यह छूतछातका सिद्धान्त रक्खा गया मालूम होता है । परन्तु निःसन्देह, इस निकृष्ट कालमें इसको इस बुरी तरह से खींचा है कि दूसरेकी छायासे,
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