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________________ २८५ अङ्क -२० मानकी मरम्मतका अनोखा उपाय। के अशुभचिन्तक नहीं बन सकते । क्योंकि, हैं। और पण्डितोंकी इस हानिका कारण ७-८ वर्ष हुए, जबसे हम सार्वजनिक 'पण्डितोसे बैर' नहीं, किन्तु संस्थांके हितहिन्दी पुस्तकोंके प्रकाशनका कार्य करने की अभिलाषा है। लगे हैं, तबसे अवकाशाभालके कारण संस्थाके पचास पचास रुपयाके शेअर नवीन जैनग्रन्थों के प्रकाशनका. कार्य निकालनेका और उसके लिए दौरा करनेप्रायः बन्दसा ही कर चुके हैं, बल्कि का भी हमने विरोध किया था। क्योंकि अपनी अनेक पुस्तकें दूसरोंको प्रकाशित हम नहीं चाहते थे कि गुरुजी एक बड़ी करनेके लिए दे रहे हैं। ऐसी दशामें भारी जोखिमको अपने सिरपर ले लें। संस्थाके पुस्तक प्रकाशन कार्यके प्रतिः हम उनके स्वभावसे बहुत कुछ परिचत हैं। स्पर्धी तो हम ठहर ही नहीं सकते जो किसी एक कामको जमकर चलाते हम उसका अशुभचिन्तन करें । उलटे रहना उनकी प्रकृतिके विरुद्ध है । ज्योंही हमारा स्वार्थ तो इसी सधता है कि कोई छोटी मोटी बाधा, विपत्ति या संस्था अधिकाधिक ग्रन्थ प्रकाशित करे अड़चन आई कि उन्होंने उसे बन्द और हम उन्हें बेचकर लाभ उठावें। किया और दूसरा खेल शुरू किया। इसी क्योंकि, हमारे यहाँ सब जगहके जैन- प्रकृतिके कारण वे अबतक न जाने कितनी प्रन्थोंकी बिक्रीका प्रबन्ध है। ग्रन्थमालायें और संस्थाये खोल चुके हैं। बेशक हमने गुरुजीको इस विषयमें हमने सोचा कि वे एक बड़ी भारी कई बार लिखा है कि आप पण्डित जिम्मेदारी अपने सिरपर ले रहे हैं, लोगोंसे प्रन्यसम्पादन, प्रूफ-संशोधन अपनी संस्थाको पब्लिककी चीज़ बना आदिक काम ठेके पर फार्मके हिसाबसे रहे हैं और उनसे उसका काम न सँभकरावे, उन्हें वेतन देकर न रक्खें। लेगा। कल ही यदि लहर उठी कि अब क्योंकि वैसा करनेसे संस्थाको खर्च में यह काम नहीं करना चाहता, कोई बहुत करना पड़ेगा और काम कम होगा। दूसरा काम करूँगा, तो उसका फल क्या हमारा यह लिखना पण्डितोंके लिए होगा? और हमारा यह सोचना अयुक्त हानिप्रद अवश्य था, और इसके कारण भी नहीं था । लोगोंने केवल उनके ही उन्होंने इसपर बहुत आक्रोश प्रकट विश्वासपर धन दिया और आशा की कि किया है; परन्तु यह तो हमारी संस्थाकी वे उसे बराबर चलाते रहेंगे; परन्तु शुभचिन्तनाका बड़ा भारी सुबूत है। उन्होंने अपनी जिम्मेदारीका कोई खयाल इससे हम अशुभचिन्तक कैसे ठहर न किया और धन देनेवाले सहायकोंकी सकते हैं? सम्मति लिये बिना ही ऐसे लोगोंके हाथ हमारी इस सम्मतिसे पण्डित महा. संस्थाको सौंपकर चल दिये जिनके विषयशयोंको अवश्य ही बहुत घाटेमें रहना में प्रान्तिक सभा बम्बईके महामन्त्री कहते पड़ा होगा। क्योंकि गुरुजीने इसके हैं कि सट्टेबाज़ हैं और उनपर कई हज़ारअनुसार बहुत समय तक ठेकेपर ही काम का कर्ज है। और मज़ा यह कि स्वयं गुरुकराया था। और यह एक ऐसा कारण जी भी इस सट्टे और कर्जका हाल है जिससे विचारशील सहजमें ही यह जानते हैं। यदि उन्हें अपनी जिम्मेदारीनिर्णय कर लेंगे कि स्वयं पण्डित महाशय का खयाल होता तो ऐसी परिस्थितिमें वे हमसे चिढ़ गये हैं या हम उनसे जलते संहासे कभी अलग न होते। परन्तु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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