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________________ *२७४ जैनहितैषी। [ भाग १५ से घृणा करना और द्वेष रखना सिख. उसका एक जगह अस्पश्य और दूसरी लावे ? अपनेको ऊँचा और दूसरोंको जगह स्पृश्य करार दिया जाना, यह नीचा.समझनेके भावको अच्छा बतलावे, सब विधि-विधान, लोकाचार, लोकअथवा मनुष्योंके साथ मनुष्योचित व्य- व्यवहार ओर लौकिक धर्मसे सम्बद्ध वहारका निषेध करे ? है या पारलौकिक धर्म अथवा परमार्थसे - २-महावीर भगवानके समवसरणमें इसका कोई खास सम्बन्ध है? इसपर भी चारों ही वर्णके मनुष्य, परस्पर ऊँच- खास तौरसे विचार होनेकी जरूरत नीच और स्पृश्यास्पृश्यका भेद न करके है। जहाँ तक हमने धार्मिक ग्रंथोका एक ही मनुष्य-कोटिमें बैठते थे । इस अध्ययन किया है, उससे यह विषय हमें आदर्शसे जैनियों को किस बातकी शिक्षा लौकिक ही मालूम होता है-परमार्थसे मिलती है ? इसका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है। ३-एक अछूत जातिके मनुष्यको कहा भी है किमाज हम छूते नहीं, अपने पास नहीं -स्पृश्याऽस्पृश्यविधिः सर्वशेषो बिठलाते और न उसे अपने कूएँसे पानी लोकेन गम्यते। -इन्द्रनंदी। भरने देते हैं । परन्तु कल वह मुसलमान अर्थात् स्पृश्य और अस्पृश्यका सम्पूर्ण या ईसाई हो जाता है, चोटी कटा लेता विधान लोक-व्यवहारसे सम्बन्ध रखता है, हिन्दू धर्म तथा हिन्दू देवताओंको है-वह उसीके आश्रित है और इसलिये बुरा कहने लगता है, धार्मिक दृष्टिसे एक उसीके द्वारा गम्य है। दर्जे और नीचे गिर जाता है और लौकिक विषयों और लौकिक धौके प्रकारान्तरसे हिन्दुबोका हित-शत्रु बन लोकाश्रित होनेसे उनके लिये किसी जाता है, तब हम उसको छूनेमें कोई आगमका आश्रय लेनेकी अर्थात् इस बातपरहेज नहीं करते, उससे हाथ तक की हूँढ़-खोज करनेकी कि आगम इस मिलाते हैं, उसे अपने पास बिठलाते हैं, विषयमें क्या कहता है, कोई जरूरत नहीं कभी कभी उच्चासन भी देते हैं और है। आगमके पाश्रय पारलौकिक धर्म अपने कृएँसे पानी न भरने देनेकी तो होता है, लौकिक नहीं; जैसा कि श्रीसोमफिर कोई बात ही नहीं रहती। वह खुशी देव सूरिके निम्न वाक्यसे प्रगट हैसे उसी कृएँ पर बराबर पानी भरा द्वौहिधम्मौ गृहस्थानां करता है । हमारी इस प्रवृत्तिका क्या लौकिकः पारलौकिकः । रहस्य है ? क्या यह सब हिन्दू धर्मका ही खोट था जिसको धारण किये रहनेकी लोकाश्रयो भवदाद्यः वजहसे वह बेचारा उन अधिकारोंसे . परः स्यादागमाश्रयः ।। वंचित रहता था और उसके दूर होते ही लौकिक धर्म लौकिक जनोंकी देशउसे वे सब अधिकार प्राप्त हो जाते हैं ? कालानुसार प्रवृत्तिके अधीन होता है ये सब खूब सोचने और समझनेकी और वह प्रवृत्ति हमेशा एक रूपमें नहीं बातें हैं । और रहा करती। कभी देशकालकी आवश्य ४-किली व्यक्ति को अस्पृश्य या कताओंके अनुसार, कभी पंचायतियोंके स्पृश्य ठहराना, एक वक्त में अस्पृश्य और निर्णय द्वारा और कभी प्रगतिशील दूसरे वक्त में स्पृश्य बतलाना अथवा व्यक्तियोंके उदाहरणोंको लेकर बराबर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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