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________________ - - - - अङ्क ४-१०] अस्पृश्यता-निवारक आन्दोलन । समझ जायँगे और इसपर अपनी निजी है जब कि समस्त उत्तेजनामोसे अलिप्त राय कायम करने में बहुत कुछ समर्थ रहकर उस विषयका बड़ी शांति और हो सकेंगे। गम्भीरताके साथ निष्पक्ष भावसे एक जजके तौर पर, गहरा विचार किया सम्पादकीय नोट। जाय, उसके हर पहलू पर नजर डाली अछतो, अन्त्यजों और अस्पृश्यतादि- जाय और इस तरह पर उसके असली के सम्बन्धमें महात्मा गांधीजीके क्या क्या तत्वको खोजकर निकाला जाय। यह ठीक विचार हैं, और वे क्या कुछ चाहते है, इस है कि पुराने संस्कार किसी भी नई बातको बातका अनुभव ऊपरके लेख से बहुत कुछ ग्रहण करनेके लिये, चाहे वह कितनी ही हो जाता है। प्रत्येक भारतवासीको महा. अच्छी और उपयोगी क्यों न हो, हमेशा त्माजीके इन विचारों और उनको इच्छा धक्का दिया करते हैं और उसे सहसा को जानने की बड़ी ज़रूरत है, इसी लिये ग्रहण नहीं होने देते । परन्तु बुद्धिमान् सर्वसाधारण, और खासकर जैनियोंके और विचारक लोग वही होते हैं जो परिचयके लिये यहाँ यह लेख प्रकाशित संस्कारोके परदेको फाड़कर अथवा किया जाता है। अस्पृश्यता निवारक इस कृत्रिम आवरणको उठाकर 'नग्न और अछूतोके उद्धार-विषयक इस सत्य का दर्शन किया करते हैं। और आन्दोलनका हिन्दुओं की बाह्य प्रवृत्ति इसलिये जो लोग महात्माजीके इन और उनके धर्मशास्त्रोके साथ अनुकूलता विचारोको संस्कारों के परदे से देखना या प्रतिकूलताका जैसा कुछ सम्बन्ध है, चाहते हैं, वे भूल करते हैं। उन्हें उस परदेजैनियोकी बाह्य प्रवृत्ति और उनके धर्म को उठाकर देखनेका यत्न करना चाहिए ग्रन्थोंके साथ भी उसका प्रायः वैसा ही जिससे उनका वास्ताविक रंग-रूप मालूम संबन्ध है-दोनों ही इस विषयमें प्रायः हो सके। और यह तभी हो सकता है समकक्ष हैं। और इसलिये यदि कुछ हिन्दू जब कि उत्तेजनाश्रोसे अलग रहकर, लोग, अपने चिर संस्कारोंके विरुद्ध बडी शांति और निष्पक्षता के साथ, गहरे होनेके कारण, इस आन्दोलनको अच्छा अध्ययन, गहरे मनन और न्यायप्रियतानहीं समझते, धर्म-घातक बतलाते हैं और को अपने में स्थान दिया जाय। महात्मा उत्तेजित होकर इसका विरोध करते हैं, जीके किसी एक शब्दको पकड़कर उस तो बाज जैनी भी यदि इसपर कुछ क्षुब्ध, पर झगड़ा करनेकी जरूरत नहीं है। कुपित तथा उत्तेजित हो जायँ और ऐसा करना उनके शब्दों का दुरुपयोग विरोध करने लगें तो इसमें कुछ भी करना होगा । उनके निर्णयकी तहको अस्वाभाविकता नहीं है और न कोई पहुँचने के लिये उनके विचार-समुच्चयको आश्चर्यकी ही बात है। परन्तु इस प्रकार- लक्ष्यमें रखने की बड़ी जरूरत है। आशा के क्षोभ, कोप और विरोधका कुछ है, इन आवश्यक सूचनाओंको ध्यानमें भी नतीजा नहीं होता और न ऐसी रखते हुए हमारे पाठक इस लेखपर अवस्थामें कोई मनुष्य किसी विषयके विचार करनेको कृपा करेंगे। और साथ यथार्थ निर्णयको पहुँच सकता है। अच्छा ही इन बातों को भी सोचेंगे कि -क्या नतीजा तभी निकल सकता है और तभी पारमार्थिक दृष्टिले धर्मका ऐसा विधान किसी विषयका यथार्थ निर्गय हो सकता हो सकता है कि वह मनुष्यों को मनुष्यों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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