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________________ २७२ जैनहितैषी। [भाग १५ न आनेवाली उत्पत्ति और नाश तथा नई ही हमें हमेशा एकताको खोजना और रचना शुरूसे ही होती आई है और आगे स्थापित करना होगा। यदि कोई मनुष्य भी होती रहेगी। यह काम कर लेनेके हर किसी के साथ खाना पीना पसन्द न लिए-इन जातियों को एक करनेके लिए करता हो, तो मैं यह कहने के लिए तैयार प्रजामत और प्रजाके नैतिक दबावका नहीं कि वह पाप करता है। x x x चाहे असर ही काफी है। परन्तु मूल वर्ण- जिसके साथ न खाना पीना यह एक विभागको ही नष्ट कर डालने के प्रयत्नका तरहका संयम है। इस संयम में कोई दोष मैं विरोधी हूँ। वर्णविभागमें भेददृष्टि, नहीं है । परन्तु यदि इसमें अतिशयता असमानता या उच्चता-नीचता कुछ है ही घुस जाती है तो अवश्य हानि होती है । नहीं; और मद्रास या दक्षिण श्रादि प्रान्तो- यदि यह संयम उच्चताके अभिमानसे में जहाँ ऐसे भेद खड़े हो गये हैं, वहाँ किया जाता है तो संयम न रहकर सचउन्हें अवश्य रोकना चाहिए । परन्तु इस मुचही स्वेच्छाचार बन जाता है और तरह के प्रासङ्गिक दुरुपयोगों के कारण घातक सिद्ध होता है। परन्तु जमाना सारी व्यवस्थाको ही मौतकी सजा नहीं जैसे जैसे आगे बढ़ता है और नई नई दी जा सकती। इसमें सहज ही सुधार आवश्यकतायें तथा परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकता है । हिन्दुस्तान में और सारे होती जाती हैं, तदनुसार रोटी-बेटीसंसारमें इस समय ओ लोकयुग प्रव. व्यवहारके विषयमें भी हमें बहुत ही र्तित हो रहा है, उसके परिणामसे हिन्दू सावधानीके साथ फेरफार अवश्य करने जातियोंमेंसे भी उच्चता-नीचताका खयाल पड़ेंगे। निकल जायगा। x x x x हमें यह कभी इस तरह मैं हिन्दुओंकी वर्ण-व्यवन भूलना चाहिए कि जिस हिन्दू धर्मने स्थाका पक्ष लेता हूँ। फिर भी मैं हिन्दुओंवर्ण-व्यवस्थाको उत्पन्त किया है, उसी की स्पृश्यताकी भावनाको मानव जातिहिन्दु धर्मने हमें केवल मनुष्यों के प्रति ही का घोरसे घोर अपमान समझता हूँ । नहीं, जीव मात्रके प्रति श्रात्मभाव प्राप्त इस भावनाके मूलमें संयम नहीं-किन्तु करने का प्रादर्श भी मनुप्यके सर्वोपरि उच्चताकी उद्धत भावना छिपी हुई है । कल्याणके लिए दिया है। इस भावनाने आजतक अपनी किसी भी ___ "मेरी समझमें राष्ट्रीय भावनाके प्रकारकी योग्यता नहीं दिखलाई । उलटे फैलाने के लिए एक साथ भोजन करना इसने समाजकी सेवा करनेवाले एक बड़े या चाहे जिसके साथ ब्याह करनेकी भारी समाजको मनुष्य-जातिमेंसे अलग स्वतंत्रता होना, आवश्यक नहीं है। मैं फेंक देनेका घोर पाप किया है। इस बह भी नहीं मानता कि कोई ऐसा स्वतं. पापसे हिन्द धर्म जितनी जल्दी उद्धार प्रताका जमाना आवेगा या ऐसा स्वतंत्र पा जाय, उतना ही उसका बड़प्पन और राज्य-संगठन होगा जब कि समाजके सभी प्रतिष्ठा है।" लोगों में खाने पीने या ब्याह करनेके महात्मा गांधीके प्रायः समस्त लेखों सम्बन्धमें एक सा आचार-व्यवहार हो और व्याख्यानोंको पढ़कर, पुनरुक्तियों को जायगा। समाजके जुदा जुदा वर्गों में बचाते हुए, हमने उक्त विचारोंका संग्रह आचार-विचारोंकी भिन्नता हमेशा किया है। हमारी समझमें इनसे पाठकरहेगी। इस भिन्नता या विविधताके भीतर गण इस अान्दोलनका स्वरूप अच्छी तरह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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