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जैनहितैषी। .
[भाग १५ यह प्रशस्ति 'श्रीपाल ' आचार्य की बनाई . श्लोक-संख्या ६० हजार न होकर कई हुई है। परन्तु बात ऐसी नहीं है। यह लाल होनी चाहिए थी । परन्तु ऐसा नहीं प्रशस्ति श्रीपाल प्राचार्य की बनाई हुई है। ऊपरके अवतरणों में साफ तौरसे नहीं है-जैसा कि ऊपरके अवतरणों में ६० हजार श्लोक-संख्याका ही जयधवला'माशां' आदि शब्दोंसे प्रगट है--और के साथ उल्लेख है। और भी अनेक ग्रंथोंन श्रीपाल के उक्त संग्रहका नाम ही 'जय- में इस टीकाका नाम 'जयधवला' ही धवला' टीका है। बल्कि वीरसेन और सूचित किया है ।* इसके सिवाय वीरजिनसेनकी इस ६० हजार श्लोक-संख्या- सेन स्वामीकी दूसरी सिद्धान्त टीकाका वाली टीकाका असली नाम ही 'जय- नाम 'धवला' है। उन्होंने स्वयं उसके अन्तधंवला' है । वीरसेन स्वामीने, चूँकि, में भी यह नाम सूचित किया है। यथाइस टीकाको प्रारम्भ किया था और ... कत्तियमासे एसा इसका एक तिहाई भाग (२० हजार
टीकाहु स भाणिदा धवला." श्लोक) लिखा भी था; साथ ही, टीका.
धवलासे मिलता जुलता ही नाम का शेष भाग, आपके देहावसानके
जयधवला है, जो उनकी दूसरी टीकाके पश्चात्, आपके ही प्रकाशित वक्तव्यके अनुसार पूरा किया गया है, इसलिये
लिये बहुत कुछ समुचित प्रतीत होता है । गुरुभक्तिसे प्रेरित होकर श्रीजिनसेन
और इस दूसरो टीकाके 'जयह धवलंगते स्वामीने इस समूची टीकाको आपके
ये' इत्यादि मंगलाचरणसे भी इस नाम: ही नामसे नामांकित किया है और
की कुछ ध्वनि निकलती है। अतः इन सब | वीरसेनीया' भी इसका एक विशेषण
बातोसे टीकाका असली नाम 'वीरसेदिया है । इन्द्रनन्दिकृत 'श्रुतावतार',
'नीया' न होकर 'जयधवला' ही ठीक
जान पड़ता है। वीरसेनीया, एक विबुध श्रीधर कृत 'गद्य श्रुतावतार' और
विशेषण है जो पीछेसे जिनसेनके द्वारा ब्रह्म हेमचन्द्र विरचित 'श्रतस्कंधके उल्ले.
इस टीकाको दिया गया है। रही 'श्रीखोले भी इसी बातका समर्थन होता है
पाल संपादिता' विशेषणकी बात । उससे कि वीरसेन और जिनसेनकी बनाई
प्रेमीजीके उक्त निष्कर्षको, हमारी रायदुई ६० हजार श्लोक-संख्यावाली टीकाका नाम ही 'जयधवला ' टीका है।
में, कोई सहायता नहीं मिलती। श्रीपाल
' नामके एक बहुत बड़े यशस्वी विद्वान् यथा'... 'जयधवलैवं षष्ठिसहस्रग्रंथोऽभवट्टीका।
जिनसेनके समकालीन हो गये हैं। -इन्द्रनांदश्रु ।
प्रशस्तिके अन्तिम पद्यमें आपके ___.. :अमुना प्रकारेण षष्टिसहस्रप्रमिता यशकी ( सत्कीर्तिकी) उपमा भी दी जयधवलनामाङ्किता टीका भविष्यति ।
र गई है। वह पद्य इस प्रकार है
" -श्रीधर गद्यश्रुता० ।
सर्वज्ञ प्रतिपादितार्थ'सदरीसहस्स धवलो जयधवलो सट्ठि
गणभृत्सूत्रानुटीकामिमां । सहस बोधव्वो ॥ -हेमचन्द्र श्रुतस्कंधः ।।
* यथा “येकृत्वाधवलां अयादिधवलां सिद्धान्त टीकांसती यदि प्रेमीजी द्वारा सूचित उक्त संग्रह.
'बन्दध्वंवरवीरसेनाचार्यर्यान्बुर्धान् । का नाम ही 'जयधवला' होता तो उसकी
इति क्षपणासारटीका माधवचन्द्रः ।
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