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________________ भगवजिनसेनका विशेष परिचय | अङ्क ६-१० ] भागको अपने गुरु ( वीरसेन ) की आशा से लिखा था । गुरुने उत्तर भागका बहुत कुछ वक्तव्य प्रकाशित किया था । उसे देखकर ही अल्प वक्तव्य रूप यह उत्तरार्ध आपने पूर्ण किया है, जो प्रायः संस्कृत भाषामें है और कहीं कहीं संस्कृत मिश्र भाषाको लिये हुए है; ऐसा आप निम्न पद्यों द्वारा सूचित करते हैंतेने दमनतिप्रौढमतिना गुरुशासनात् । लिखितं विशदैरे भिरक्षरैः पुण्यशासनम् ३० गुरुणार्धेऽग्रिमे भूरिवक्तव्ये संप्रकाशिते । तन्निरीक्ष्याल्पवक्तव्यपश्चार्धस्तेन पूरित: ३१ प्रायः प्राकृतभारत्या क्वचित्संस्कृतमिश्रया । मणिप्रवालन्यायेन प्रोक्तोऽयं ग्रंथविस्तरः ३२ कुछ आगे चलकर अपनी टीका सम्बन्धर्मे आपने यह भी बतलाया है कि थोड़े ही अक्षरों द्वारा सूत्रार्थका विवेचन करनेमें हम जैसों की टीका उक्त, अनुक्त औौर दुरुक्तका चिन्तनं करनेवाली (वार्तिक रूप) टीका नहीं हो सकती । इसलिये पूर्वापर शोधन के साथ हम जैसोंका जो शनैः शनैः ( शनकैस् ) टीकन है, उसीको बुधजन टीका रूपसे ग्रहण करें, यही हमारी पद्धति है । यथातत्सूत्रार्थविवेचने कतिपयैरे वाक्षरे मदृशामुक्तानुक्तदुरुक्त चिन्तनपरा टीकेतिकः संभवः ॥ ३७ ॥ तत्पूर्वापरशोधनेन शनकै यन्मादृशां टीकनम् । सा टीकेत्यनुगृह्यतां बुधजनैरेवाहिनः पद्धतिः ||३८|| इन पद्योंमें आए हुए 'माटशां' (हम जैसोंकी) और 'नः' ( हमारी ) शब्दों से यह बात साफ तौरसे उद्घोषित होती है कि यह प्रशस्ति जयधवला टीकाके उत्तर भाग के रचयिता स्वयं भगवजिनसेना Jain Education International २५६ चार्यकी बनाई हुई है और इसके द्वारा उन्होंने श्रात्म-परिचय दिया है, जिससे विज्ञ पाठक आचार्य महोदय की शारीरिक, मानसिक और बुद्ध्यादि विषयक स्थितिका बहुत कुछ अनुभव कर सकते हैं। * प्रशस्ति में टीकाका नाम कहीं 'वीरसेनीया' और कही' 'जयधवला' दिया है । साथ ही अन्तिम पद्यसे पहले, पद्यमें # उसे 'श्रीपालसंपादिल' भी बतलाया है ! इस पर से श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीने, अपनी विद्वद्वत्ल-माला में, यह निष्कर्ष निकाला है कि "वास्तव में कषाय प्रभृतकी जो बीरसेन और जिनसेन स्वामी कृत ६० हजार श्लोक-प्रमाण टीका है, उसका नाम तो 'वीरसेनीया' है; और इस वीरसेनीया टीका सहित जो कषाय प्राभृतके मूलसूत्र और चूर्णिसूत्र, वार्तिक वगैरह अन्य आचार्यों की टीकाएँ हैं, उन सबके संग्रहको 'जयधवला' टीका कहते हैं । यह संग्रह 'श्रीपाल' नामके किसी श्राचार्यने किया है, इसी लिये जयधवलाको 'श्रीपाल - संपादिता' विशेषण दिया है ।" हमारी रायमें प्रेमी जीका निष्कर्ष ठीक नहीं है, और उसके निकाले जाने की वजह यही मालूम होती है कि उस समय आपके सामने पूरी प्रशस्ति नहीं थी। आपको श्रागे पीछेके कुछ ही पद्य उपलब्ध हुए थे, जिन्हें आपने अपनी पुस्तकमै उद्धृत किया है । जान पड़ता है आप उन्हीं पद्योंको पूरी प्रशस्ति समझ बैठे हैं और उन्होंके आधारपर शायद आपको यह भी खयाल हो गया है कि वह पक्ष इस प्रकार है - श्रीवीरप्रभुभाषितार्थघटना निर्लोडितान्यागमन्याया श्रीजिनसेनसन्मुनिवरैरादर्शितार्थ स्थिति । टीका श्रीजयचिह्नितोरुधवला सूत्रार्थं संथोतिनी, स्थेवादारविचन्द्रमुज्वलतः श्रीपाल संपादिता ॥ ४० * For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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