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________________ प्रह-२०] जैनहितैषीपर विद्वानों के विचार। ३९७ इस वर्णनमें साफ़ तौर से ११ वीं इन सब अनुसंधानोंको, जिन्हें ११ प्रतिमाके दो भेदोंके लिए 'छुल्लक' और वी प्रतिमाका एक प्रकारका इतिहास 'ऐलक' ऐसे दो नाम दिये हैं। साथ ही, कहना चाहिए, खोजते समय हमें कितनी ऐलकके वास्ते खड़ा होकर भोजन करनेका ही रहस्यकी बातें मालूम हुई हैं जिन्हें हम विधान किया है, जो ऊपर उद्धत किये हुए फिर कभी अपने पाठकों पर प्रकट करेंगे: अनेक प्राचार्यों तथा विद्वानों के कथनोंके और उसी समय ऐलक शब्दकी उत्पत्ति विरुद्ध है। किसी भी आचार्य तथा पर भी विशेष प्रकाश डाला जायगा । प्राचीन विद्वान्ने इस प्रतिमाके दो भेद इस समय विश पाठकोले हमारा सिर्फ करके उनके क्षल्लक और ऐलक ऐसे दो इतना ही निवेदन है कि उन्हें यदि किसी नाम नहीं दिये, बल्कि इस समूची प्रतिमा दूसरे प्राचीन ग्रंथके द्वारा ऐलक पदकी अथवा इसके दोनों भेदों के लिए 'क्षल्लक' यह कल्पना इससे अधिक पुरानी मालूम. ऐसे एक नामका विधान ज़रूर पाया हुई हो, तो वे कृपाकर सद्भावपूर्वक . जाता है। तब पंडित भूधरदासजीका उसे हम पर प्रकट करें जिससे हम अपने यह लिखना कि सिद्धान्तमें इस प्रतिमाके विचारोंमें यथोचित फेरफार करनेके छुल्लक और ऐलक ऐसे दो भेद किये लिए समर्थ हो सके। यह लेख यथार्थ गये हैं, कहाँ तक ठीक और माननीय है, वस्तुस्थितिको सामने लानेकी गरजसे इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। ही लिखा गया है, इसके लिखने में हमारा ___ हमारी रायमें किसी भाषा-ग्रंथका और दूसरा कुछ भी अभिप्राय नहीं है। कोई शास्त्रीय विधान उस वक्त तक आशा है, सहृदय पाठक इससे कितनी ही माननीय नहीं हो सकता जब तक कि बातोका नया अनुभव प्राप्त करेंगे और उसका समर्थन किसी पूर्वाचार्य तथा लाभ उठावेंगे। . दसरे समर्थ विद्वानों के ग्रंथोसे न होता सरसावा। ता० १३ सितम्बर सन् १५२१ हो । भूधरदासजीके इस कथनका, चूँकि, ऐसा कोई समर्थन नहीं होता, इसलिए यही कहनेको जी चाहता है कि जैनहितैषीपर विद्धानोंके 'ऐलक' पदकी* यह सब कल्पना भूधर. विचार । दालजीके समयकी अथवा उससे कुछ ही पहलेकी है और वह शास्त्रीय दृष्टिसे माने (गताङ्क से आगे।) जानेके योग्य नहीं है। भूधरदासजीका १०-श्रीयुत पं० महेशदत्तजी शर्मा, उक्त पार्श्वपुराण वि० सं० १७८६ में बन- भूतपूर्व सम्पादक 'कालिन्दी पत्रिका, कर समाप्त हुआ है । अतः इस कल्पनाको रामनगर, बनारस स्टेट । उत्पन्न हुए प्रायः दो सौ वर्षका समय ता० ३१-७-२१ बीता है, यह कहना चाहिए। और इससे "निस्सन्देह जैनहितैषीमें इधर कुछ पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि 'ऐलक' दिनोंसे उच्च कोटिके विचारपूर्ण लेख पदकी यह कल्पना कितनी आधुनिक प्रकाशित हो रहे हैं, जिसके लिए और कितनी अर्वाचीन है। अस्तु ।, आपको विशेष धन्यवाद है। आशा है, -दितीयोत्कृष्ट प्रातकके (ऐलक पदवीके) कियाकाण्ड- ठीक समय पर प्रकाशनका प्रबन्ध शीघ्र की नहीं। ही होगा। हितैषी केवल जैनियोंके लिए For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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