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________________ अङ्क ६-१०] बाबू ऋषभदासजीके विचार। २७७ मानना गलत है। किसी विद्वान्का कर समुद्र ही हैं, उसी तरह विभिन्न कहना है कि एकान्त और एनेकान्त में . सिद्धान्त भी अपनी अपनी अपेक्षाकी सिर्फ 'ही' और 'भी' का फर्क है। एक दृष्टिसे माने जाकर जैनधर्म ही हैं। हाँ, एकान्तवाद कहता है कि वस्तु अनित्य अगर समुद्रकी किसी लहरको समुद्रसे ही है, दूसरा एकान्तवाद कहता है कि बाहर सूखी जमीन पर ले श्रावें, तो वहाँ वस्तु नित्य ही है । अनेकान्तवाद कहता वह समुद्र तो नहीं कहला सकती, लेकिन है कि भाई, तुम दोनोंका कहना ठीक वहाँ भी उसको समद्रका पानी जरूर है-वस्तु नित्य भी है और अनित्य ली। कहेंगे। इसी तरह यदि कोई सिद्धान्त द्रव्य अपेक्षा वस्तु नित्य है,पर्याय अपेक्षा बिना उलकी समुचि अपेक्षा या नयके अनित्य है। तुम दोनोंको श्रापसमें माना जाता है, तो उस वक्त उसको पूरा लड़ना-झगड़ना नहीं चाहिए बल्कि जैनधर्म तो नहीं कह सकते, परन्तु उस जिस जिस अपेक्षासे तुम दोनोंका वक्त भी वह जैनधर्मकी एक छाया मात्र कहना ठीक है, उसको समझ लेना या कुछ अंश जरूर है। अतः जैनधर्मियों चाहिए । वास्तव में जैनधर्म एक ऐसा या अनेकान्तवादियों का कर्तव्य है कि वे धर्म है कि जो किसी मजहब (मत) से किसी एकान्तवादीको अधर्मी, अश्रद्धानी विरोध नहीं रखता है-किसी मतके या मिथ्यातीके नामसे न पुकारें, बल्कि सिद्धान्तको झूठा नहीं बतलाता, बल्कि जिस गलत तरीकेसे या जिस अपेक्षाको सम्पूर्ण मतोके सिद्धान्तोंको अनेकान्तसे लक्ष्यमें न रखकर उसने उस सिद्धान्त. सञ्चा साबित कर देता है। असलियतमे को मान रक्खा है, उस गलत तरीकेको सही करके या उस उपेक्षित अपेक्षाको अगर देखा जाय तो दुनिया भर के सिद्धान्त अद्वैत, द्वैत वगैरह जैनधर्मके समझाकर उसपर अनेकान्तवादकी छाप लगावें और अपने में जज्ब ( समाविष्ट) अन्दर शामिल हैं और इस तरह जैनधर्मको अन्य सब धर्मोका समुदाय कह करें। और अपने में जज्ब करनेका क्या सकते हैं। परन्तु यहाँ पर और कोई अर्थ ? अपना अंश तो वह पहलेसे ही साहब यह खयाल न करें कि मैं जैनधर्म है। केवल उस सिद्धान्तकी अपेक्षाको को संग्रहीत मत इस अर्थमें कहता हूँ भुला देनेकी वजहसे जो वह अनेकान्तकि किसी खास वक्तमें किसी खास वादसे भिन्न दिखलाई पड़ता है, उसकी शख्ल (व्यक्ति) ने सब धौंको इकट्ठा उल अपेक्षाको हृदयमें बिठलाकर उस करके जैनधर्म बना दिया है। नहीं, मैं भिन्नताको मिटावें। वास्तवमें देखा जाय तो ऐसा हरगिज ( कदापि ) नहीं कहता, जैनधर्म या अनेकान्तवाद एक शान्तिबल्कि मेरा कहना यह है कि जिस तरह प्रिय और प्रेम फैलानेवाला धर्म है। वह समुद्र अपनी अनेक लहरोंको लिये हुए किसी धर्मको झूठा नहीं कहता, वह है, उसी तरह जैनधर्म भी अपनी भिन्न किसी सिद्धान्तको गलत नहीं बतलाता; भिन्न अपेक्षाओं और नयोंसे अनेक बल्कि विभिन्न धर्मों और सिद्धान्तों में जो सिद्धान्तोंको अनादिसे ही लिये हुए है। अपेक्षा या नयको भुला देनेकी वजहसे और जिस तरह समुद्र की लहरे समुद्र के परस्पर झगड़ा और विरोध नजर भाता अन्दर अपने अपने उचित स्थान पर रहा है, उनको समुचित अपेक्षाओंको दिखला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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