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________________ अङ्क ६-१० ] हमारे पास मौजूद हैं। पण्डित महाशयों के इस प्रमाद और अज्ञानको यदि हमने सर्वसाधारण में प्रकट किया होता तो बात दूसरी थी और तब हम उनकी बुराई करनेवाले भी किसी तरह ठहराये जा सकते । परन्तु हमने तो प्राइवेट तौरपर ही लिखा था और इससे उन्हें एक सज्जनकी तरह लज्जित होकर श्रागेके लिए सावधान हो जाना चाहिए था । सोन करके उलटे हमें अशुभचिन्तक ठहराया जाता है और अपने दोषोंपर परदा डाला जाता है ! मानकी मरम्मतका अनोखा उपाय | माणिकचन्द्र ग्रन्थमालाके १७ ग्रन्थोंमेसे १२ ग्रन्थों की भूमिकार्य - जिनमें विशेष करके उनके कर्त्ताओंका ऐतिहालक परिचय है— मेरी लिखी हुई हैं। उनमें शुरूके पाँच ग्रन्थोंमें मैंने उन्हें ग्रन्थमाला के पण्डितोंसे संस्कृत में अनुवाद कराके प्रकाशित कराया है और उनके नीचे सूचित कर दिया है कि वे मेरी लिखी हुई हिन्दोके अनुवाद हैं । दुर्भाग्य से ग्रन्थमालाका पहला ग्रन्थ कोल्हापुर में छपवाया गया था । मैंने उसकी भूमिका भी हिन्दीमें ही लिखकर भेजी थी और श्रीयुक्त पं० कलापा भरमाया निटवेको लिख दिया था कि आप उसे संस्कृतमें परिवर्तित कर दीजिएगा । उन्होंने उसे संस्कृतमें अनुवाद करके छाप तो दिया; परन्तु वे यह लिखना भूल गये कि यह हिन्दी परसे अनुवादकी गई है । बस, इसपरसे पं० गजाधरलालजी मुझपर बड़ी बुरी तरहसे आक्रमण करते हैं कि मुझे संस्कृतज्ञ बननेकी हवस है और मैं ग्रन्थमाला के पण्डितको दबाकर अपनी उक्त हवस पूरी करता हूँ ! मानों पं० निटवे मेरे हाथके नीचे के पण्डित हैं ! इसके उत्तर में मैं इसके शिवाय क्या लिखूँ कि भगवान् मुझे Jain Education International २८७ ऐसी हवससे बचावें । क्योंकि मैं संस्कृतमें लेख लिख लेने या बोल लेनेको हा पाण्डित्य नहीं समझता हूँ। मेरी समझम संस्कृतज्ञों में भी मूर्खोकी कमी नहीं है; और जो संस्कृत लिखना बोलना नहीं जानते हैं, उनमें भी विद्वानोंकी कमी नहीं है। जिस समय 'श्रातपरीक्षा' छप चुकी, उस समय गुरुजीकी श्राशा हुई कि मैं उसके कर्त्ता विद्यानन्दस्वामीका ऐतिहासिक परिचय लिख दूँ । तदनुसार मैंने उसे लिखकर जैनहितैषी में प्रकाशित कर दिया और उसे श्राप्त- परीक्षा में लगा देने के लिए लिख दिया । पं० गजाधरलाल जीका कर्तव्य था कि वे उसके संकृत अनुवाद में यह लिख देते कि यह नाथूराम के लिने हुए हिन्दी लेखका अनुवाद है । परन्तु उन्होंने लेखके प्रारम्भ में केवल “जैनहितैषितः समुद्धृतः” (जैनहितैषीसे उद्धृत) लिख दिया और लेख - के अन्त में 'अनुवादकर्त्ता' न लिखकर " विदुषामनुचरो गजाधरलालो जैनः” लिखकर छुट्टी पा ली । इस बातका कहीं भी कोई उल्लेख करने की ज़रूरत ही नहीं समझी कि यह किसका लिखा हुआ है । 'जैनहितैषी से उद्धृत' लिख देनेसे क्या यह नहीं समझा जा सकता कि आपने स्वयं ही उसे जैनहितैषीमें लिखा होगा और फिर उसपर से भूमिकामें उद्धृत कर लिया है ? यदि उसमें मेरे जैसे क्षुद्र लेखकका नाम लिख दिया जाता तो क्या इससे आपकी संस्कृतज्ञताका अपमान हो जाता ? मुझे यह बुरा मालुम हुआ और मैंने गुरुजीसे इसकी शिकायत की। इसके बाद मैं चुप हो गया । बह बात ही भुला दी गई। परन्तु अब इतने दिनों के बाद ये अहंमन्य पण्डित अपनी इतिहासन बनने की उत्कट हवसको छिपाकर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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