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२८जैनहितैषी।
[ भाग १५ उलटे मुझपर यह दोष लगाते हैं कि उसी तरफको मुड़ गये ! अच्छा हो यदि मैं संस्कृतशोंमें अपना नाम लिखाना उक्त दोनों सजनोंकी ओरसे यह प्रकाचाहता हूँ!
शित किया जाय कि हम लोगोंने उन्हें क्या तत्वार्थ राजवार्तिकके भट्टाकलंकदेव- समझाया था और उन्होंने क्यों इस्तीफा के परिचयमें भी पं० गजाधरलालजीने दिया और क्यों संरक्षकजीने संस्थाका इसी तरह इतिहासज्ञ बनने का प्रयत्न किया भवन बनाने का विरोध किया। इसके हैं। वह परिचय भी मेरे लेखका प्रायः अनु- बिना यह मामला स्पष्ट नहीं हो सकता। वाद ही है। उसकी भूमिकामें आपने यह परन्तु हमारी समझमें पण्डित महाशयोंवाक्य लिखने की कृपा की है-“जैन हितैषि- को यह प्रकाशित कराना अभीष्ट नहीं सम्पादयितृभिः पं० श्रीनाथूराम प्रेमिभिः होगा। क्योंकि इसमें उनकी वे सब बातें खकीये जैनहितैषिपत्रे प्रकाशितं श्रीमन्द्रा- प्रकाशित हो जायँगी जिनके कारण यह कलंकजीवन-चरितमात्र केषुचित्स्थलेषु सब बखेड़ा खड़ा हुआ है। फिर भी समवलम्ब्य विलिखितं ततोऽस्म्यहमुप- हमारी प्रार्थना है कि उक्त महाशय अपना कार्यस्तेषां।" अर्थात् नाथूरामप्रेमीके लिखे अपना वक्तव्य प्रकाशित कर देनेकी हुए जीवनचरितके कितने ही स्थलोंका कृपा करें। अवलम्बन करके मैंने यह चरित लिखा इस लेख में हमने पण्डित महाशयोंके है। मतलब यह कि अनुवाद नहीं किया लेखोंकी केवल उन्हीं बातोंका समाधान है; उसकी कुछ कुछ बातें ले ली हैं ! किया है जिनसे हमारा प्रत्यक्ष सम्बन्ध हिन्दीका अनुवाद करना तो पण्डितोके है और जिनके द्वारा लोगों को हमारे विषयलिए शायद घोर अपमानका कारण है, में उलटी बातें समझाई गई हैं। लेखोंफिर यह कैसे लिख दें कि अनुवाद की अन्य बातोसे हमारा कोई सरोकार किया ? परन्तु वास्तवमें उक्त लेखमें एक नहीं और अब हम धीरे धीरे इस निर्णयभी प्रमाण ऐला नहीं है जो उनकी गाँठकी पर पहुँच रहे हैं कि इस समय पण्डितोंपूँजी हो । केवल अनुवाद की भाषा और के अनुचित कार्योंपर टीका-टिप्पणी लम्बे लम्बे विशेषण तथा समास उनके करनेसे कोई लाभ नहीं हो सकता । हैं। पाठक सोचें कि यह इतिहासज्ञ बनने. क्योंकि इस समय सर्वत्र पण्डितोंके दलकी हवस नहीं तो और क्या है।
की तूती बोल रही है और इस दलके हमारे ऊपर एक और आक्षेप यह है कर्णधारोंमें उस नैतिक बलका अभाव है कि हमने गुरुजीको और संस्थाके संरक्षक जो "शत्रोरपि गुणा वाच्याः दोषाः सेठ हीराचन्द्र रामचन्दजीको बहकाकर वाच्याः गुरोरपि" को महत्त्व देता है। संस्थाकी चिरस्थायिताके मार्गमें कंटक यदि ऐसा न होता तो क्या ये पण्डित बोये, तथा गुरुजीने हम लोगों की प्रेरणासे महाशय अपराध करके भी इतनी उद्धतता संस्थासे इस्तीफा दे दिया। इसका सीधा और उच्छृङ्खलतासे भरे हुए लेख लिखने. अर्थ यह है कि गुरुजी और संरक्षकजीमें का साहस कर सकते और फिर भी स्वयं सोचने समझनेकी अक्ल नहीं है इनकी पीठ ठोकी जाती ? इसके प्रमाणमें और इस कारण वे हम लोगोंके कहने हम 'स्खण्डेलवाल जैनहितेच्छु' के धुरन्धर सुननेसे बहक जाते हैं ! वे ऐसी मोमकी सम्पादक पं० पन्नाललजी सोनीका वह नाक हैं कि जिस तरफको मोड़ दिया, सद्विचारपूर्ण नोट (अंक ५) समाजके
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