SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंक 8-१.] ऐलक-पद:कल्पना। (अ) वादिचंद्र सूरि अपने 'यशोधर. नाम हैं। और हमारे इस कथनका सम- चरित' में, जिसका निर्माण-काल वि० र्थन धर्मसंग्रह श्रावकाचारकी प्रशस्तिके संवत् १६५७ है, पहले शिक्षा (११ प्रतिमा), निम्न पद्यसे भी होता हैफिर दीक्षा (मुनिदीक्षा) और फिर यः कक्षापट मात्रवस्त्रममलं भिक्षाका विधान करते हुए, एक स्थान . पर लिखते हैं कि वह संसारसे भयभीत धत्ते च पिच्छं लघुः । राजा अपने गुरुकी दी हुई शिक्षाको लोचं कारयते सकृत्करपुटे ग्रहण करके और अपने सर्व साम्राज्यको . मुंक्त चतुर्थादिभिः। छोड़कर उस वक्त 'क्षुल्लक हो गया और दीक्षां श्रौतमुनीं बभार उसने गुरुकी प्राशासे भिक्षापात्र, कौपीन, नितरां सरक्षुल्लकः साधकः । एक वस्त्र और कमंडलु धारण कर लिया। आर्यो दीपद आख्ययात्र यथा भुवनेऽसौ दीप्यतां दीपवत्॥१६॥ शिक्षांश्रित्वां गुरोर्दत्ता इस पद्यमें 'दीपद' नामके एक क्षुल्लकको संसारभयभीलुकः । आशीर्वाद दिया गया है जिसने श्रुतमुनिसे हित्वाहि सर्व साम्राज्यम दीक्षा ली थी और उसके सम्बन्ध बह लिखा है कि वह कौपीन मात्र वस्त्रका भवत्क्षुल्लकस्तदा ॥३०२॥ धारक था, हलकी पिच्छी रखता था, भिक्षापात्रंच कौपीन लौंच किया करता था और कर-पात्रमें मेकवस्त्रं कमंडलु। दूसरे तीसरे दिन एक बार भोजन किया अधारि वचसा साधो करता था। यद्यपि इन लक्षणोंसे वह मयांगि (?) क्षमया सह ॥३०३।। साफ तौर पर द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक जान सर्ग १७ । पड़ता है, जिसके लिए पं० आशाधर और 'इन सब अवतरणोंको ध्यानमें रखते उक्त धर्मसंग्रह श्रावकाचारके कर्ता पं. हुए, और प्रायश्चित्त समुच्चयकी चूलिकाके मेधावीने, अपने अपने ग्रंथों में 'मार्य संशाका प्रयोग किया है, तो भी यहाँ उसके उस अवतरण पर खास तौरसे लक्ष्य देते लिए 'आर्य' विशेषण देकर इस बातको हुए, जो ऊपर नं. ७ में उद्धृत किया गया है और जिसमें साफ़ तौरसे क्षुल्लक और भी बिलकुल साफ कर दिया है कि का स्वरूप बतलाया गया है. हमें तो जिसे हम 'द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक' अथवा 'पाय' कहते है, वह 'क्षल्लक' ही है-उससे यही मालूम होता है कि इस समूची ११ भिन्न दसरा कोई शख्स नहीं है। और वी प्रतिमाके धारकका सुप्रसिद्ध और गुरुदासाचार्यने तो, अपने प्रायश्चित. मढ़ नाम 'क्षल्लक' है। बाकी 'उत्कृष्ट . श्रापकर यह श्रेणी (दर्जे) की अपेक्षा ' समुच्चयकी चूलिकामे, क्षुल्लकोंके लिए नाम है; उद्दिष्टाहारविरत ( उहिष्टपिंड यह साफ लिखा ही है कि वे क्षौर कराम्रो या लौच करो, हाथमें भोजन करो या विरत), उहिष्टविनिवृत्त (त्वक्तोद्दिष्ट, ट, बर्तनमें और कौपीन मात्र रक्खो या एक रदिष्ट वर्जी, उहिष्टत्यागी), एक-वस्त्रधारी, खंडवस्त्रधारी, कौपीनमात्रधारी, वस्त्र, परन्तु उन्हें 'क्षुल्लक' कहते हैं । मिक्षक इत्यादि नाम उसके गुण-प्रत्यय • देखो इस लेखका नं. ७ पृष्ठ ३०४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy