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________________ - ३२२ जैनहितैषी। [भाग १५ जिसमें प्रेम न हो या जो सभ्यता और ५-लखनऊका होगा। शिष्टतासे गिरा हुआ तथा द्वेष और कषाय भावको लिये हुए हो। जबसे कानपुरके अधिवेशन में, पंडित मंडलीके विरोध करने पर भी, महासभाके ३-त्रिवर्णाचार और .. आगामी अधिवेशनके लिए लखनऊका ब्रह्मचारीजी। निमंत्रण स्वीकार हुआ है, तबसे पंडित लोग बहुत ही भयविह्वल मालूम होते हैं । सोमसेन-त्रिवर्णाचारके सम्बन्धमें उन्हें वहाँ किसी बड़े ही अजितबलएक भाईकी शंकाको प्रकाशित करते हुए पराक्रमसिंहका दर्शन हो रहा है और वे ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी उस पर नोट समझते हैं कि वह संपूर्ण महासभाको देते हैं कि-"त्रिवर्णाचारके इस श्लोकका अपने पेट में रख लेगा! इसीसे पत्रों में क्या भाव है, उसे त्रिवर्णाचारको जैनशास्त्र इस बातका आन्दोलन मचा हुआ है कि समझनेवाले विद्वान स्पष्ट करके शंकाका लखनऊका निमंत्रण किसी न किसी तरह समाधान करें ।" इससे यह साफ़ तौरसे से नामंजूर किया जाय; क्योंकि वहाँ बाबू ध्वनित है कि स्वयं ब्रह्मचारीजी इस पार्टी भेड़ियाधसान ज़रूर कर डालेगी। सोमसेन त्रिवर्णाचारको जैनशास्त्र नहीं ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी इस बाबू पार्टी मानते। इसी लिए उन्होंने तद्विषयक रूपी भूतके भयको दूर करने की बहुत शंकाका समाधान उन्ही विद्वानों पर कुछ चेष्टा कर रहे हैं और समझा रहे हैं; छोड़ा है जो उसे जैनशास्त्र मानते हैं और परन्तु भय दूर होने में नहीं पाता और न उसका पक्ष करते हैं। उस वक्त तक दूर हो सकता है जब ४-प्राचार्यों के बनाये हुए नहीं हैं। तक कि लखनऊमें अधिवेशनका होना मन्सूख ( रह ) न कर दिया जाय और ____ खंडेलवाल जैनहितेच्छुके संपादक या अधिवेशन पंडित मंडलीके इच्छापं. पन्नालालजी सोनी हितेच्छु के गतांक नुसार पूरा न उतर जाय। पिछली बात नं. १४ में लिखते हैं कि “भद्रबाहु यद्यपि लखनऊवाले भाइयोंके हाथ में संहिता और त्रिवर्णाचारोंके कर्ता नहीं है, परन्तु पहली बात उनके हाथ में आचार्य नहीं हैं, और इसलिए उन्होंने ज़रूर है। और इसलिए हमारी रायमें अपने इस वाक्य के द्वारा इस बातको उन्हें, जिस तिस प्रकारसे बने, इस निमं. स्वीकार कर लिया है कि ये ग्रंथ जैना त्रणको स्वयं मन्सूख कराकर अपने चार्यों के बनाये हुए नहीं हैं; भले ही इन पंडित भाइयोंको अभयदान प्रदान करना चाहिए और इस बात का अवसर देना ग्रंथोंके कर्ता, ग्रंथों में, अपने आपको आचार्य, मुनि, भट्टारक, गणी और चाहिए कि वे जहाँ चाहे अधिवेशन करके मुनीन्द्र तक लिखें, परन्तु सोनीजी उनके अपने दिली अरमानोंको पूरा करें। यह इस लिखनेकी कुछ भी पर्वाह न करके अब बड़े पुण्यका काम है। अधिवेशन कराने में उन्हें जैनाचार्य नहीं मानते. यह बड़ी इससे अधिक पुण्य नहीं होगा और खुशीकी बात है। और हम सोनीजीकी संभव है कि कानपुरवाले भाइयों की तरह इतनी ही मान्यताको गनीमत समझकर उससे कुछ प्रसन्नता लाभ भी न हो सके। उसका अभिनंदन करते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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