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________________ अंक 8-१०] पुस्तक-परिचय। ३२३ पुस्तक-परिचय ।। रादिसे रहित, संक्षेपमें पौराणिक वर्णन दिया हुआ है। परन्तु कौनसे पुराण२ क्षत्रचूडामणि (सान्वयार्थ ) ग्रन्थके आधार पर यह सब लिखा गया अन्वयार्थ कर्ता और प्रकाशक: पं० निद्धा. है, पेसा पुस्तक परसे कुछ मालूम नहीं मलजी, क्षेत्रपाल, ललितपुर । प्रष्टसंख्या होता। इसके प्रकट करने की बड़ी ज़रूरत सब मिलाकर ३०० के करीब। मूल्य, थी; क्योंकि अनेक प्राचार्यों के कथनों में कच्ची जिल्द १॥) और पक्की जिल्द २) परस्पर बहुत कुछ भेद भी पाया जाता रुपये। है। अच्छा होता यदि प्रधान प्रधान यह मूल ग्रन्थ श्रीद्वादीभसिंह आचार्योके मतभेदों को इसमें एक साथही सूरिका वही सुन्दर प्रसिद्ध ग्रन्थ है जो दिखला दिया जाता। ऐसा होने पर यह दा एक बार छप चुका है और जिसमें पुस्तक बहुत कुछ उपयोगी हो सकती कथाके साथ साथ पद पद पर नीतिकी थी। पुस्तक अच्छी छपी है। परन्तु अशुशिक्षा पाई जाती है। इस बार पं० निद्धा. द्धियों की इसमें भी भरमार है और उसके मलजीने ग्रन्थका यह अन्वयार्थ बोधक लिए ४ पेजका शुद्धिपत्र लगाना पड़ा संस्करण विद्यार्थियों को लक्ष्य करके है। यह पुस्तक भी उसी प्रेसमें छपी है। तय्यार किया और प्रकाशित किया है। जिसमें ऊपरकी क्षत्र चूड़ामणि, और मापका यह प्रयत्न प्रशंसनीय है और इसलिए, प्रेस की यह असावधानी बहुत इससे विद्यार्थी लोक तथा दूसरे लोग भी ही उपालंभ के योग्य है। . . . ज़रूर कुछ न कुछ लाभ उठावेंगे। अच्छा रत्नाकर पचीसी-प्रकाशक, श्री. होता यदि प्रन्थके साथमें उन संपूर्ण आत्मानन्द जैनसभा, अम्बाला शहर । मीति वाक्योंकी एक अनुक्रमणिका, बारीक मूल्य, डेढ आना। टाइपमें लगा दी जाती जो ग्रन्थ भरमें ___यह श्वेताम्बर साधु श्रीरत्नाकर सूरिपाये जाते हैं। ऐसा होनेसे ग्रन्थकी का २५ पद्यों का एक छोटा सा संस्कृत उपयोगिता बहुत कुछ बढ़ जाती। पुस्तककी स्तोत्र है, जिसमें सूरिजीने जिनेन्द्र भग. छपाई सफाई साधारण है और कागज वानसे अपने दोषोंकी आलोचना की है। बुरा नहीं है। परन्तु पुस्तकके साथमें स्तोत्र अच्छा है और इसके पढ़नेसे चित्तकी पेजका शुद्धिपत्र बहुत खटकता है। शुद्धि तथा प्रमाद-जन्य दोषोंकी निवृत्ति ३ जैनइतिहास दुसरा भाग- की ओर प्रवृत्ति होती है। प्रत्येक पद्यके लेखक, बा. सूरजमलजी जैन, हरदा। 6. नीचे उसका हिन्दी पद्यानुवाद दिया हुआ है जिसे पं० रामचरितजी उपाध्याय प्रकाशक, ला० मूलचंद किसनदासजीका पडिया, चंदावाडी, सूरत । पृष्ठसंख्या, ने खड़ी बोली में लिखा है; और इससे सब मिलाकर १०। मूल्य, एक रुपया पुस्तककी उपयोगिता और भी अधिक इसमें विमलनाथ (१३ वे तीर्थकर ) से " बढ़ गई है-वह केवल हिन्दी जाननेलेकर मुनिसुव्रतनाथ ( २० वें तीर्थंकर) वालो के लिए भी कामकी चीज़ हो गई है। तक - तीर्थंकरों और उनके समयके ५ श्रात्मानुशासन, प्राणप्रिय. नारायण, प्रति नारायण, बलदेव और काव्य, भरतबाहु पलिसंवाद-लेखक चक्रवर्ति आदि पुराण-पुरुषोंका अलंका त्रिलोकचंद पाटनी, केकडी जि. अजमेर । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522890
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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